विश्व परिदृश्य
कल्याण उन्मुख होना आधुनिक लोकतांत्रिक राज्यों की पहचान है। इसलिए राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए सरकार ने पहलकदमी की है। इसके परिणामस्वरूप नौकरशाही तंत्र का विस्तार हुआ है और प्रशासनिक प्रक्रिया में भी बढ़ोतरी हुई है, जिससे कि सरकार के विभिन्न स्तरों पर लोक सेवकों को अधिक प्रशासनिक शक्ति प्राप्त हो सके। इस शक्ति और स्व-निर्णय के दुरुपयोग से उत्पीड़न, कुशासन और भ्रष्टाचार के लिए जगह बढ़ी है। यह परिस्थिति प्रशासन के खिलाफ नागरिकों की बढ़ती शिकायतों के लिए जिम्मेदार है’।
लोकतंत्र की सफलता तथा सामाजिक-आर्थिक विकास की प्राप्ति नागरिकों की शिकायतों के त्वरित निवारण पर निर्भर करती है। इसीलिए दुनिया के विभिन्न देशों में इन शिकायतों के निवारण के लिए निम्नलिखित संस्थागत युक्तियाँ सृजित की गई हैं:
1. ओमबुड्समैन प्रणाली
2. प्रशासनिक न्यायालय प्रणाली
3. प्रोक्यूरेटर प्रणाली
दुनिया में नागरिक शिकायतों के निवारण के लिए सबसे पुरानी लोकतांत्रिक संस्था स्कैण्डेनेवियन देशों की संस्था ओमबुड्स मैन है। डोनल्ड सी. रॉबर्ट जो कि ओमबड्स मैन के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अधिकारिक विद्वान हैं, इसके बारे में कहते हैं कि यह, “नागरिकों की अन्यायपूर्ण प्रशासनिक कार्रवाईयों के खिलाफ परिवादों को दूर करने के लिए विलक्षण रूप से उपयुक्त संस्था है।”
ओमबुड्समैन संस्था पहली बार 1809 में गठित की गई थी। ओमबुड् (Ombud) एक स्वीडिश शब्द है जो एक ऐसे व्यक्ति की ओर इंगित करती है जो कि किसी अन्य व्यक्ति के प्रतिनिधि अथवा प्रवक्ता के रूप में कार्य करता है। डोनल्ड सी. रॉबर्ट के अनुसार ओमबुड्समैन का आशय ऐसे पदाधिकारी से है जो कि विधायिका द्वारा प्रशासनिक एवं न्यायिक कार्रवाई के खिलाफ परिवादों के निवारण के लिए नियुक्त किया जाता है। स्वीडन का ओमबुड्समैन निम्नलिखित मामलों में नागरिकों की शिकायतों पर कार्रवाई करता है:
1. प्रशासनिक स्व-निर्णय का दुरुपयोग अर्थात् सरकार
द्वारा प्रदत्त शक्ति एवं प्राधिकार का दुरुपयोग;
2. कुशासन अर्थात् लक्ष्यों को प्राप्त करने में अक्षमता
3. प्रशासनिक भ्रष्टाचार अर्थात काम करने के लिए इस की माँग करना;
4. भाई-भतीजावाद अर्थात अपने सगे संबंधियों को रोजगार प्राप्ति आदि में सहायता प्रदान करना, तथा;
5. अशिष्ट आचरण अर्थात अनेक प्रकार के दुर्व्यव्यहार जैसे-अपशब्दों का प्रयोग, आदि।
स्वीडन का ओमबुड्समैन संसद द्वारा चार साल के लिए नियुक्त किया जाता है। वह संसद द्वारा ही हटाया जा सकता है, जबकि संसद उसमें अपना विश्वास खो चुकी है। वह अपना वार्षिक प्रतिवेदन संसद को ही सौंपता है और इस प्रकार “संसदीय ओमबुड्समैन के रूप में जाना जाता है”। किन्तु वह संसद (विधायिका) के साथ ही कार्यपालिका तथा न्यायपालिका से भी आजाद होता है।
ओमबुड्समैन संवैधानिक प्राधिकारी होता है और उसे यह अधिकार होता है कि वह लोक सेवकों द्वारा कानूनों, नियमों के अनुपालन का पर्यवेक्षण करे और यह सुनिश्चित करे कि वे अपना कर्तव्य भली-भाँति निभा रहे हैं। दूसरे शब्दों में, वह नागरिक, न्यायिक तथा सैन्य तंत्र से जुड़े सभी सरकारी अधिकारियों के ऊपर निगरानी रखता है, जिससे कि वे निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता के साथ कानून सम्मत ढंग से अपना कार्य करें। हालाँकि उसे इस बात की कोई शक्ति नहीं होती कि वह किसी निर्णय को पलट दे अथवा खारिज कर दे। साथ ही उसका प्रशासन तथा न्यायालयों पर कोई सीधा नियंत्रण नहीं होता।
ओमबुड्समैन या तो किसी नागरिक से अन्यायपूर्ण प्रशासनिक कार्रवाई के बारे में प्राप्त शिकायत के आधार पर कार्रवाई करता है अथवा अपनी पहल पर स्वतः संज्ञान लेता है।
वह न्यायाधीशों सहित किसी भी गलत सरकारी सेवक के खिलाफ अभियोग दायर कर सकता है। तथापि वह स्वयं कोई दंड देने का अधिकार नहीं रखता है। वह आवश्यक सुधारात्मक कार्रवाई के लिए उच्चाधिकारियों को अवगत कराता है।
कुल मिलाकर स्वीडन की ओमबुड्समैन संस्था की निम्नलिखित विशेषताएँ है:
(i) कार्यपालिका की कार्रवाई से स्वतंत्रता;
(ii) शिकायतों का निष्पक्ष एवं वस्तुनिष्ठ अनुसंधान;
(iii) स्वतः अनुसंधान शुरू करने की शक्ति;
(iv) प्रशासन की समस्त संचिकाओं तक निर्बाध पहुँच;
(v) कार्यपालिका के खिलाफ संसद को प्रतिवेदन देने का अधिकार;
(vi) प्रेस तथा अन्य जगहों पर इसके कार्यप्रणाली को भारी प्रचार मिलता है, तथा;
(vii) शिकायतों के निवारण की प्रत्यक्ष-सरल, अनौपचारिक, सस्ता तथा त्वरित कार्य पद्धति।
स्वीडन से ओमबुड्समैन संस्था दूसरे स्कैण्डेनेवियन देशों-फिनलैंड (1919), डेनमार्क (1955) तथा नॉर्वे (1962), देशों में भी पहुँची। न्यूजीलैंड पहला राष्ट्रकुल देश है जिसने 1962 में ओमबड्समैन प्रणाली को पार्लियामेन्ट्री कमिश्नर फॉर इनवेस्टिगेशन के रूप में अपनाया। ब्रिटेन ने 1967 में ओमबुड्समैन की तरह की एक संस्था पार्लियामेन्ट्री कमिश्नर फॉर एडमिनिस्ट्रेशन अपनाया। तब से दुनिया के 40 से अधिक देशों ने ओमबुड्समैन जैसी संस्था खड़ी की है। अलग-अलग नामों तथा जिम्मेदारियों के साथ।
भारत में ओमबुड्समैन को लोकपाल/लोकायुक्त कहा जाता है। डोनल्ड सी. रॉबर्ट का कहना है कि ओमबुड्समैन संस्था लोकतांत्रिक सरकार के लिए प्रशासनिक जुल्म के खिलाफ एक आड़ है जबकि गेराल्ड ई. कैडेन का कहना है कि ओमबुड्समैन संस्थागत सांस्थानिकीकृत लोक अंतःकरण का प्रतीक है।
प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ नागरिकों के शिकायतों के निवारण के लिए एक और संस्थागत युक्ति खड़ी की गई है, जैसे-फ्रांस में प्रशासनिक न्यायालयों की फ्रेंच व्यवस्था (French System of Administrative Courts); इसकी सफलता के पश्चात यह यूरोप एवं अफ्रीका के अन्य देशों में अपनाया गया, जैसे-बेल्जियम, ग्रीस, यूनान तथा तुर्की इत्यादि। समाजवादी देशों जैसे-सोवियत संघ (आज का रूस), चीन, पोलैंड, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया तथा रोमानिया ने भी लोक परिवादों के लिए संस्थागत युक्ति सृजित की हैं। इन्हें मुख्तार प्रणाली (Procura- tor system) कहते हैं। यह बात ध्यान देने योग्य है कि आज के रूस में भी प्रोक्यूरेटर जनरल का पद है, जिसकी नियुक्ति सात वर्ष के लिए की जाती है।
भारत में स्थिति
भारत में भ्रष्टाचार पर नियंत्रण तथा नागरिकों के शिकायतों के निवारण के लिए वैधानिक और संस्थागत ढाँचे के अंतर्गत निम्नलिखित सम्मिलित हैं:
1. लोक सेवक जाँच अधिनियम, 1850
2. भारतीय दंड संहिता, 1860
3. विशेष पुलिस प्रतिष्ठान, 1941
4. दिल्ली पुलिस प्रतिष्ठान अधिनियम, 1946
5. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988
6. जाँच आयोग अधिनियम, 1952 (राजनीतिक नेताओं तथा प्रमुख सार्वजनिक व्यक्तियों के लिए)
7. अखिल भारतीय सेवाएँ (आचार) नियमावली, 1968
8. केन्द्रीय सिविल सेवाएँ (आचार) नियमावली, 1964
9. रेल सेवाएँ (आचार) नियमावली, 1966
10. मंत्रालयों/विभागों, सम्बद्ध एवं अधीनस्थ कार्यालयों तथा लोक उपक्रमों में निगरानी संगठन
11. केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो, 1963
12. केन्द्रीय सतर्कता आयोग, 1964
13. राज्य सतर्कता आयोग, 1964
14. राज्यों में भ्रष्टाचार रोधी ब्यूरो
15. राज्यों में लोकायुक्त (ओमबुड्समैन)
16. प्रभागीय सतर्कता बोर्ड
17. जिला सतर्कता अधिकारी
18. राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग
19. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग
20. राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग
21. सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्यों में उच्च न्यायालय
22. प्रशासनिक न्यायाधिकरण (उर्दू न्यायिक निकाय)
23. कैबिनेट सचिवालय में लोक परिवाद निदेशालय, 1988
24. संसद एवं इसकी समितियाँ
25. केरल जैसे राज्यों में “फाइल टू फिल” (खेतों तक संचिकाएँ) कार्यक्रम। इस नवाचारी योजना में प्रशासक स्वयं गाँवों/क्षेत्रों का दौरा करता है तथा लोगों की शिकायतें सुनता है और जहाँ कहीं संभव हो तत्काल कार्रवाई करता है।
लोकपाल
भारतीय प्रशासनिक सुधार आयोग (1966-1970) की सिफारिश पर नागरिकों की समस्याओं के समाधान’ हेतु दो विशेष प्राधिकारियों लोकपाल व लोकायुक्त की नियुक्ति की गई। इनकी स्थापना स्कैण्डनेवियन देशों के इंस्टीट्यूट ऑफ़ ओमबुड्समैन और न्यूजीलैंड के पार्लियामेंट्री कमीशन ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन की तर्ज पर की गई। लोकपाल मंत्रियों, केंद्र तथा राज्य स्तर के सचिवों से संबंधित शिकायतों को देखता है और लोकायुक्त (एक केंद्र में व एक प्रत्येक राज्य में) विशेष उच्च अधिकारियों के विरुद्ध शिकायतों को देखता है। प्रशासनिक सुधार आयोग ने न्यूजीलैंड की तरह न्यायालयों को लोकायुक्त व लोकपाल के दायरे से बाहर रखा है। लेकिन स्वीडन में न्यायालय भी ओमबुड्समैन के अंतर्गत आता है।
प्रशासनिक सुधार आयोग के अनुसार, राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश, लोकसभा अध्यक्ष व राज्यसभा के सभापति की सलाह पर लोकपाल की नियुक्ति करता है।
प्रशासनिक सुधार आयोग ने सिफारिश की कि लोकपाल व लोकायुक्त के निम्नलिखित कार्य होंगे:
1. वे स्वतंत्र व निष्पक्षता का प्रदर्शन करेंगे।
2. उनकी जांच व कार्यवाही गुप्त रूप से होगी और इसका चरित्र, अनौपचारिक होगा।
3. उनकी नियुक्ति जहां तक संभव हो गैर-राजनीतिक हो।
4. उनका स्तर देश में उच्चतम न्यायिक प्राधिकारियों के समान होगा।
5. वे अपने विवेकानुसार क्षेत्र में व्याप्त अन्याय, भ्रष्टाचार व पक्षपात से संबंधित मामलों को देखेंगे।
6. उनकी कार्यवाही में न्यायिक दखलअंदाजी नहीं होगी।
7. अपने कर्तव्यों की पूर्ति हेतु आवश्यक जानकारी प्राप्त करने के लिए इनमें पूर्ण शक्तियां निहित होंगी।
8. उन्हें कार्यकारी सरकार से किसी प्रकार का लाभ अथवा आर्थिक लाभ की आशा नहीं करनी चाहिए।
भारत सरकार ने इस संबंध में प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को स्वीकार किया। अब तक, इस विषय में विधेयक लाने के लिए दस आधिकारिक प्रयास किए जा चुके हैं। निम्नलिखित वर्षों में संसद में विधेयक प्रस्तुत किए गए हैं:
1. मई 1968 में, इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार द्वारा।
2. अप्रैल 1971 में, पुनः इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार द्वारा।
3. जुलाई 1977 में, मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी सरकार द्वारा।
4. अगस्त 1985 में, राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार द्वारा।
5. दिसंबर 1989 में, वी.पी. सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार द्वारा।
6. सितंबर 1986 में, देवगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा सरकार द्वारा।
7. अगस्त 1998 में, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी नेतृत्व वाली साझा सरकार द्वारा।
8. अगस्त 2001 में, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार द्वारा।
9. अगस्त 2011 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार द्वारा
10. दिसम्बर 2011 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार द्वारा
हालांकि उपरोक्त वर्णित एक भी विधेयक किसी न किसी से संसद में पारित नहीं हो पाया। प्रथम चार विधेयक लोकसभा विघटित होने के कारण, पांचवां विधेयक सरकार द्वारा वापस लेने के कारण; छठा व सातवां विधेयक भी 11वीं व 12वीं लोकसभा के विघटित होने के कारण निरस्त हो गए थे। आठवां विधेयक (2001) वर्ष 2004 में 13वीं लोकसभा के विघटन के कारण निरस्त हो गया है। नवां बिल (2011) सरकार द्वारा वापस ले लिया गया। अद्यतन दसवां बिल (2011) संसद में विचाराधीन है। इस प्रकार लोकपाल की व्यवस्था अभी तक नहीं हुई है, जबकि इसकी मांग वर्षों से की जाती रही है।
2011 के लोकपाल विधेयक की स्थिति
लोक सेवकों, उच्च पदों पर भ्रष्टाचार आदि के खिलाफ शिकायतों के निवारण की लोगों की पहले से लंबित मांग को देखते हुए सरकार ने 8 अप्रैल, 2011 को एक संयुक्त प्रारूप समिति का गठन किया, जिसमें पाँच नामित सदस्य भारत सरकार के तथा पाँच अन्ना हजारे द्वारा नामित थे (स्वयं अन्ना हजारे सहित)। इस समिति को लोकपाल विधेयक का एक प्रारूप तैयार करना था। समिति में हुए विचार-विमर्श, तथा राज्यों के मुख्यमंत्रियों एवं राजनीतिक दलों की सलाह को ध्यान में रखकर सरकार ने पुनरीक्षित लोकपाल विधेयक 2011 लोकसभा में 4 अगस्त, 2011 को प्रस्तुत किया।
उक्त बिल विभाग संबंधी संसदीय स्थायी समिति (कार्मिक, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय) को 8 अगस्त, 2011 को जाँच एवं प्रतिवेदन के लिए संदर्भित कर दिया गया। विभाग संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने संबंधित पक्षों के साथ विस्तृत चर्चा के बाद अपने 48वें प्रतिवेदन में अनेक अनुशंसाएँ बिल में व्यापक संशोधन के लिए भी-इसमें विषय क्षेत्र तथा अन्तर्वस्तु के बारे में। साथ ही यह भी अनुशंसा की कि केन्द्रीय विधायन में उन राज्यों में लोकायुक्तों की स्थापना का प्रावधान होना चाहिए जहाँ ऐसी कोई संस्था अस्तित्व में नहीं है और इसमें अलावा राज्य लोकायुक्तों से संबंधित कानूनों में समरूपता भी लाई जानी चाहिए। समिति ने यह भी अनुशंसा की कि लोकपाल तथा लोकायुक्त को संवैधानिक दर्जा मिलना चाहिए।
विभाग संबंधी संसदीय स्थायी समिति की अनुशंसाओं पर विचार करने के पश्चात् लोकसभा में लंबित लोकपाल विधेयक 2011 को सरकार ने वापस ले लिया तथा साथ ही एक नया व्यापक लोकपाल एवं लोकायुक्त विधेयक, 2011 लोकसभा में 22 दिसम्बर, 2011 को लोकसभा में प्रस्तुत किया ताकि केन्द्र में लोकपाल तथा राज्यों में लोकायुक्त संस्था की स्थापना की जा सके। विधेयक में एक समान सतर्कता तथा भ्रष्टाचार का रोड मैप पूरे देश के लिए प्रस्तावित किया गया है। विधेयक में अनुसंधान को अभियोजन से अलग करने का संस्थागत प्रयास किया है, जिससे कि हितों के टकराव को दूर किया जा सके और साथ ही व्यावसायिकता तथा विशेषज्ञता का दायरा बढ़ाया जा सके। इसके अलावा स्थायी समिति की अनुशंसा कि लोकपाल एवं लोकायुक्त को सांवधैनिक निकाय बनाना चाहिए। सरकार ने संविधान 116 वाँ संशोधन विधेयक 2011 प्रस्तुत किया, जिससे इन निकायों को संवैधानिक दर्जा दिया जा सके।
27 दिसम्बर, 2011 को विधेयक को लोकसभा के विचारार्थ भेजा गया था। लोकपाल एवं लोकायुक्त विधेयक, 2011 कतिपय संशोधनों के साथ पारित हो गया, जबकि संविधान 116 वाँ संशोधन विधेयक, 2011 संविधान संशोधन के लिए आवश्यक बहुमत के अभाव में पारित नहीं किया जा सका। 29 दिसम्बर, 2011 को लोकपाल एवं लोकायुक्त विधेयक चर्चा एवं स्वीकृति के लिए राज्य सभा में भेजा गया। चर्चा किसी परिणिति तक नहीं पहुँच सकी और यह विधेयक राज्य सभा द्वारा अब भी पारित किया जाना शेष है।
लोकपाल एवं लोकायुक्त विधेयक, 2011
यह विधेयक संघ के लिए लोकपाल तथा राज्यों के लिए लोकायुक्त की संस्था की स्थापना करने को लक्षित है, जिससे कि लोक सेवकों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों तथा संबंधित अथवा आनुषांगिक मामलों के आरोपों की जाँच की जा सके। विधेयक की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
1. लोकपाल संस्था में एक अध्यक्ष तथा अधिकतम 8 सदस्य हो सकते हैं जिनमें से 50 प्रतिशत सदस्य अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक एवं महिला वर्ग से होंगे।
2. अध्यक्ष एवं सदस्यों के चयन के लिए चयन समिति का प्रावधान तथा एक सात सदस्यों की सर्च समिति जिसमें अनु० जाति, अनु. जनजाति, अ०पि०व०, अल्पसंख्यक एवं महिलाओं का प्रतिशत 50 से अधि कना हो।
3. लोकपाल का लोक सेवकों के ऊपर क्षेत्राधिकार, जो कि प्रधानमंत्री हो या रहा हो (विषय-वस्तु को हटाने तथा कुछ अन्य सुरक्षाओं सहित), संघ का मंत्री; संसद सदस्य, लोक सेवक जैसा कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 में अंतर्गत परिभाषित है (ग्रुप ए बी सी या डी से संबंधित), संसद में किसी अधिनियम द्वारा स्थापित स्वशासी निकाय अथवा पूर्णतः या आंशिक रूप से केन्द्र सरकार द्वारा वित्तीय मदद पाने वाला अथवा उसके नियंत्रण में रहने वाला कोई निकाय या बोर्ड, या निगम या प्राधिकार या कम्पनी या सोसाइटी या न्यास का कोई पदाधिकारी; ऐसे निकायों या संस्थाओं के पदाधिकारी जिन्हें सरकारी मदद मिलती हो जिनकी वार्षिक आमदनी केन्द्र सरकार द्वारा अधिसूचित सीमा से अधिक हो; ऐसे निकायों और संस्थाओं के पदाधिकारी जिन्हें लोगों से दान मिलता हो और उनकी वार्षिक आय केन्द्र सरकार द्वारा अधिसूचित सीमा से अधिक हो अथवा ऐसे निकाय, संस्थाएँ विदेशी स्त्रोतों से एफ.सी.आर.ए. के अंतर्गत दान पाते हों जो कि प्रतिवर्ष रु. 10 लाख से अधिक हो।
4. लोकपाल के अधीन स्वतंत्र जाँच एवं अभियोजन शाखा होगी।
5. अनुसंधान को अभियोजन से अलग करने की व्यवस्था की गई है, जिससे कि हितों के टकराव को दूर किया जा सके साथ ही व्यावसायिकता एवं विशेषज्ञता का दायरा बढ़ाया जा सके।
6. लोकपाल को सी.बी.आई सहित अन्य अनुसंधान एजेन्सियों के ऊपर उन मामलों के लिए जो कि इनके द्वारा लोकपाल को संदर्भित किए गए हैं, अधीक्षण एवं निदेशन की शक्ति होगी।
7. लोकपाल द्वारा जाँच किए जाने वाले मामलों में अभियोजन चलाने के लिए पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी।
8. भ्रष्ट व्यक्ति द्वारा अर्जित संपत्ति की कुर्की-जप्ती अभियोजन के दौरान भी होने का प्रावधान है।
9. सी.बी.आई निदेशक की नियुक्ति प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में उच्च शक्ति प्राप्त समिति की अनुशंसा पर होगी।
10. प्रारंभिक जाँच अनुसंधान तथा मुकदमे के लिए निर्दिष्ट समयबद्धता।
11. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत न्यूनतम एवं अधिकतम दंड को छह महीने को बढ़ाकर दो साल तथा सात साल से बढ़ाकर दस साल किया गया।
12. लोकपाल को भ्रष्टाचार के आरोपी लोक सेवक के स्थानांतरण अथवा निलम्बन की अनुशंसा करने का अधिकार होगा।
13. लोकपाल उपयुक्त संख्या में विशेष न्यायालयों के गठन के लिए अधिकृत होगा।
14. उपरोक्तानुसार ही राज्यों में लोकायुक्तों की व्यवस्था।
लोकायुक्त
जहां केंद्र सरकार में लोकपाल के पद के गठन के लिए अभी तक बहस जारी है, वहीं कई राज्यों में लोकायुक्त के पद की गठन भी हो चुका है।
यहां पर ध्यान देने योग्य बात यह कि सर्वप्रथम लोकायुक्त का गठन 1971 में महाराष्ट्र में हुआ था। पद यद्यपि ओडिशा में यह अधिनियम 1970 में पारित हुआ परंतु उसे 1983 में लागू किया गया।
जिन राज्यों में लोकायुक्त संस्था नहीं है वे हैं-अरुणाचल प्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड, सिक्कित, तमिलनाडु, त्रिपुरा तथा पश्चिम बंगाल।
अब तक (नवम्बर 2013 तक) 18 राज्यों तथा 1 संघशासित क्षेत्र (दिल्ली) ने अपने यहां लोकायुक्त संस्था की स्थापना की है। इस संबंध में विवरण तालिका 15.1 में दिया गया है।
लोकायुक्त के विभिन्न पहलू निम्नानुसार हैं:
ढांचागत भिन्नतायें
सभी राज्यों में लोकायुक्त का ढांचा समान नहीं है। कुछ राज्यों, जैसे-राजस्थान, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र; में लोकायुक्त के साथ उप-लोकायुक्तों के पदों का भी गठन किया गया है, जबकि कुछ राज्यों, जैसे-बिहार, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश में केवल लोकायुक्तों के पदों की स्थापना की गई है। कुछ राज्यों, जैसे-पंजाब, ओडीशा में कहा अधिकारियों को लोकायुक्त का दर्जा दिया गया है। प्रशासनिक सुधार आयोग ने राज्यों को विधि का सुझाव नहीं दिया था।
तालिका 56.1 राज्यों में लोकायुक्त की स्थापना (कालानुक्रम में)
क्रम संख्या | राज्य | स्थापना वर्ष |
1. | ओडिशा | 1970 |
2. | महाराष्ट्र | 1971 |
3. | राजस्थान | 1973 |
4. | बिहार | 1974 |
5. | उत्तर प्रदेश | 1975 |
6. | मध्य प्रदेश | 1981 |
7. | आंध्र प्रदेश | 1983 |
8. | हिमाचल प्रदेश | 1983 |
9. | कर्नाटक | 1985 |
10. | असम | 1985 |
11. | गुजरात | 1986 |
12. | पंजाब | 1995 |
13. | दिल्ली | 1995 |
14. | केरल | 1999 |
15. | झारखंड | 2001 |
16. | छत्तीसगढ़ | 2002 |
17. | हरियाणा | 2002 |
18. | उत्तराखण्ड | 2002 |
19. | गोवा | 2011 |
नियुक्ति
लोकायुक्त व उपलोकायुक्तों की नियुक्ति संबंधित राज्य के राज्यपाल द्वारा की जाती है। इनकी नियुक्ति के समय राज्यपाल द्वारा, (अ) राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से, और (ब) राज्य विधानसभा में विषक्ष के नेता से परामर्श अनिवार्य है।
योग्यता
उत्तर प्रदेश, हिमाचल, आंध्र प्रदेश, गुजरात, ओडीशा, कर्नाटक और असम में लोकायुक्त के लिए न्यायिक योग्यता निर्धारित की गई है परंतु बिहार, महाराष्ट्र और राजस्थान में कोई विशिष्ट योग्यता निर्धारित नहीं है।
कार्यकाल
अधिकांश राज्यों में लोकायुक्तों का कार्यकाल पांच वर्ष अथवा 65 वर्ष की उम्र तक, जो भी पहले हो, निर्धारित है। वह पुनर्नियुक्ति का पात्र नहीं होता है।
अधिकार क्षेत्र
विभिन्न राज्यों में लोकायुक्तों के कार्यक्षेत्र में समानता नहीं है। इस संबंध में निम्न बिंदु ध्यान देने योग्य हैं:
1. हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात में मुख्यमंत्री को लोकायुक्त की परिधि में रखा गया है, जबकि महाराष्ट्र, उ.प्र., राजस्थान, बिहार व ओडीशा में यह लोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र से बाहर है।
2. मंत्रियों व उच्च अधिकारियों को लगभग सभी राज्यों के लोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र में रखा गया है। महाराष्ट्र में पूर्व मंत्रियों व कर्मचारियों को भी इसमें शामिल किया गया है।
3. हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश व असम राज्यों में विधानसभा सदस्यों को लोकायुक्त के दायरे में रखा गया है।
4. स्थानीय निकायों, निगमों, कंपनियों, समितियों के अधिकारियों को अधिकांश राज्यों में लोकायुक्त के जांच की परिधि में रखा गया है।
जांच प्रक्रिया
अधिकांश राज्यों में लोकायुक्त किसी नागरिक द्वारा अनुचित प्रशासनिक कार्यवाही के विरुद्ध की गई शिकायत पर अथवा स्वयं जांच प्रारंभ कर सकता है। परंतु उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश व असम राज्यों में वह जांच प्रारंभ करने के लिए स्वयं पहल नहीं कर सकता है।
जांच क्षेत्र
महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, असम, बिहार और कर्नाटक में लोकायुक्त शिकायतों व आरोपों के मामलों की जांच कर सकता है। परंतु हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में उसका कार्य भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच करना है, न कि शिकायतों (कुप्रशासन से संबंधित मामलों) की।
अन्य विशेषतायें
1. लोकायुक्त, संबंधित राज्य के राज्यपाल को अपने कार्य निष्पादन का एक समेकित वार्षिक विवरण देते हैं। राज्यपाल इस विवरण को एक व्याख्यात्मक ज्ञापन पक्ष के साथ सदन में प्रस्तुत करता है। लोकायुक्त राज्य विधायिका के प्रति उत्तरदायी होते हैं।
2. लोकायुक्त जांच के लिए राज्य की जांच एजेंसियों की सहायता लेते हैं।
3. वह राज्य सरकार के विभागों से, संबंधित मामलों की फाइलों व दस्तावेजों को माँग सकता है।
4. लोकायुक्त की सिफारिशें केवल सलाहकारी होती हैं। वे राज्य सरकार लिए बाध्यकारी नहीं है।
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