प्रस्तावना
भारतीय संविधान तत्वों और मूल भावना के संबंध में अद्वितीय है। हालांकि इसके कई तत्व विश्व के विभिन्न संविधानों से उधार लिये गये हैं। भारतीय संविधान के कई ऐसे तत्व हैं, जो उसे अन्य देशों के संविधानों से अलग पहचान प्रदान करते हैं।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि सन 1949 में अपनाए गए संविधान के अनेक वास्तविक लक्षणों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। विशेष रूप से 7वें, 42वें, 44वें, 73वें व 74वें संशोधन में। संविधान में कई बड़े परिवर्तन करने वाले 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 को ‘मिनी कॉन्स्टिट्यूशन’ कहा जाता है। हालांकि केशवानंद भारती मामले (1973) में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद को मिली संवैधानिक शक्ति संविधान के ‘मूल ढांचे’ को बदलने की अनुमति नहीं देती।
संविधान की विशेषताएं
संविधान के वर्तमान रूप में इसकी विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
1. सबसे लंबा लिखित संविधान
संविधान को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है- लिखित, जैसे- अमेरिकी संविधान, और; अलिखित, जैसे-ब्रिटेन का संविधान।
भारत का संविधान विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान है। यह बहुत बृहद समग्र और विस्तृत दस्तावेज है।
मूल रूप से (1949) संविधान में एक प्रस्तावना, 395 अनुच्छेद (22 भागों में विभक्त) और 8 अनुसूचियां थीं। वर्तमान में (2013) इसमें एक प्रस्तावना, 465 अनुच्छेद (25 भागों में विभक्त) और 12 अनुसूचियाँ हैं। सन 1951 से हुए विभिन्न संशोधनों ने करीब 20 अनुच्छेद व एक भाग (भाग-VII) को हटा दिया और इसमें करीब 85 अनुच्छेद, चार भागों (4क, 9क, 9ख और 14क) और चार अनुसूचियों (9, 10, 11, 12) को जोड़ा गया’। विश्व के किसी अन्य संविधान में इतने अनुच्छेद और अनुसूचियां नहीं हैं।
भारत के संविधान को विस्तृत बनाने के पीछे निम्न चार कारण हैं:
(अ) भौगोलिक कारण, भारत का विस्तार और विविधता ।
(ब) ऐतिहासिक, इसके उदाहरण के रूप में भारत शासन अधिनियम, 1935 के प्रभाव को देखा जा सकता है। यह अधिनियम बहुत विस्तृत था।
(स) जम्मू-कश्मीर को छोड़कर केंद्र और राज्यों के लिए एकल संविधान ।
(द) संविधान सभा में कानून विशेषज्ञों का प्रभुत्व ।
संविधान में न सिर्फ शासन के मौलिक सिद्धांत बल्कि विस्तृत रूप में प्रशासनिक प्रावधान भी विद्यमान हैं। इसके अतिरिक्त अन्य आधुनिक लोकतंत्रों में जिन मामलों को आम विधानों अथवा स्थापित राजनैतिक परिपाटी पर छोड़ दिया गया है, उन्हें भी भारत के संवैधानिक दस्तावेज में शामिल किया गया है।
2. विभिन्न स्रोतों से विहित
भारत के संविधान ने अपने अधिकतर उपबंध विश्व के कई देशों के संविधानों भारत-शासन अधिनियम, 1935 के उपबंधों से हैं। डॉ. अंबेडकर ने गर्व के साथ घोषणा की थी कि, “भारत के संविधान का निर्माण विश्व के विभिन्न संविधानों को छानने के बाद किया गया है।”
संविधान का अधिकांश ढांचागत हिस्सा भारत शासन अधिनियम, 1935 से लिया गया है। संविधान का दार्शनिक भाग (मौलिक अधिकार और राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत) क्रमशः अमेरिका और आयरलैंड से प्रेरित है। भारतीय संविधान के राजनीतिक भाग (संघीय सरकार का सिद्धांत और कार्यपालिका और विधायिका के संबंध) का अधिकांश हिस्सा ब्रिटेन के संविधान से लिया गया है।
संविधान के अन्य प्रावधान कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, यूएसएसआर (अब रूस), फ्रांस, दक्षिण अफ्रीका, जापान इत्यादि देशों के संविधानों से लिए गए हैं।
हालांकि यह आलोचना अनुचित और अतार्किक है कि भारतीय संविधान में कुछ नया अथवा वास्तविक नहीं है और यह ‘उधार लिया संविधान’ अथवा ‘चेपी कार्य’ है। ऐसा इसलिए है क्योंकि संविधान के निर्माताओं ने दूसरे देशों से लिए गए प्रावधानों में भारतीय आवश्यकताओं के हिसाब से आवश्यक परिवर्तन किए और इस दौरान उनकी विसंगतियों को भी दूर किया गया’।
3. नम्यता एवं अनम्यता का समन्वय
संविधानों को नम्यता और अनम्यता की दृष्टि से भी वर्गीकृत किया जाता है। कठोर या अनम्य संविधान उसे माना जाता है, जिसमें संशोधन करने के लिए विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता हो। उदाहरण के लिए अमेरिकी संविधान। लचीला या नम्य संविधान वह कहलाता है, जिसमें संशोधन की प्रक्रिया वही हो, जैसी किसी आम कानूनों के निर्माण की, जैसे-ब्रिटेन का संविधान।
भारत का संविधान न तो लचीला है और न ही कठोर, बल्कि यह दोनों का मिला-जुला रूप है। अनुच्छेद 368 में दो तरह के संशोधनों का प्रावधान है:
(अ). कुछ उपबंधों को संसद में विशेष बहुमत से संशोधित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, दोनों सदनों में उपस्थित और मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों का दो-तिहाई बहुमत और प्रत्येक सदन में कुल सदस्यों का बहुमत (जो कि 50 प्रतिशत से अधिक है)।
(ब). कुछ अन्य प्रावधानों को संसद के विशेष बहुमत और कुल राज्यों के आधे से अधिक राज्यों के अनुमोदन से ही संशोधित किया जा सकता है।
इसके अलावा संविधान के कुछ प्रावधान आम विधायी प्रक्रिया की तरह संसद में सामान्य बहुमत के माध्यम से संशोधित किए जा सकते हैं। उल्लेखनीय है कि ये संशोधन अनुच्छेद 368 के अंतर्गत नहीं आते।
4. एकात्मकता की ओर झुकाव के साथ संघीय व्यवस्था
भारत का संविधान संघीय सरकार की स्थापना करता है। इसमें संघ के सभी आम लक्षण विद्यमान हैं; जैसे- दो सरकार, शक्तियों का विभाजन, लिखित संविधान, संविधान की सर्वोच्चता, संविधान की कठोरता, स्वतंत्र न्यायपालिका एवं द्विसदनीयता आदि। यद्यपि भारतीय संविधान में बड़ी संख्या में एकात्मकता और गैर-संघीय लक्षण भी विद्यमान हैं, जैसे-एक सशक्त केंद्र, एक संविधान, एकल नागरिकता, संविधान का लचीलापन, एकीकृत न्यायपालिका, केन्द्र द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति, अखिल भारतीय सेवाएं, आपातकालीन प्रावधान इत्यादि ।
फिर भी, संविधान में कहीं भी ‘संघीय’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है। दूसरी ओर अनुच्छेद 1 में भारत का उल्लेख ‘राज्यों के संघ’ के रूप में किया गया है। इसके दो अभिप्राय हैं- पहला, भारतीय संघ राज्यों के बीच हुए किसी समझौते का निष्कर्ष नहीं है, और दूसरा, किसी राज्य को संघ से अलग होने का अधिकार नहीं है।
इसी वजह से भारतीय संविधान को निम्नांकित नाम दिए गए – हैं, जैसे कि-एकात्मकता की भावना में संघ, अर्थ संघ (के.सी. – वेरे), बारगेनिंग फेडरेलिज्म (मॉरिज जोंस), को-ऑपरेटिव फेडरेलिज्म’ (ग्रेनविल ऑस्टिन), फेडरेशन विद ए सेंट्रलाइजिंग – टेंडेंसी’ (आइवर जेनिंग्स व अन्य) ।
5. सरकार का संसदीय रूप
भारतीय संविधान ने अमेरिका की अध्यक्षीय प्रणाली की बजाए – ब्रिटेन के संसदीय तंत्र को अपनाया है। संसदीय व्यवस्था विधायिका और कार्यपालिका के मध्य समन्वय व सहयोग के सिद्धांत पर आधारित है, जबकि अध्यक्षीय प्रणाली दोनों के बीच शक्तियों के विभाजन के सिद्धांत पर आधारित है।
संसदीय प्रणाली को सरकार के ‘वेस्टमिंस्टर’ रूप, उत्तरदायी सरकार और मंत्रिमंडलीय सरकार के नाम से भी जाना जाता है। संविधान केवल केंद्र में ही नहीं, बल्कि राज्य में भी संसदीय प्रणाली की स्थापना करता है। भारत में संसदीय प्रणाली की विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
1. वास्तविक व नाममात्र के कार्यपालकों की उपस्थिति,
2. बहुमत वाले दल की सत्ता,
3. विधायिका के समक्ष कार्यपालिका की संयुक्त जवाबदेही,
4. विधायिका में मंत्रियों की सदस्यता,
5. प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का नेतृत्व,
6. निचले सदन का विघटन (लोकसभा अथवा विधानसभा) ।
हालांकि भारतीय संसदीय प्रणाली बड़े पैमाने पर ब्रिटिश संसदीय प्रणाली पर आधारित है फिर भी दोनों में कुछ मूलभूत अंतर हैं। उदाहरण के लिए ब्रिटिश संसद की तरह भारतीय संसद संप्रभु नहीं है। इसके अलावा भारत का प्रधान निर्वाचित व्यक्ति होता है (गणतंत्र), जबकि ब्रिटेन में उत्तराधिकारी व्यवस्था है।
किसी भी संसदीय व्यवस्था में, चाहे वह भारत की हो अथवा ब्रिटेन की, प्रधानमंत्री की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो गई है। जैसा कि राजनीति के जानकार इसे ‘प्रधानमंत्रीय सरकार’ का नाम देते हैं।
6. संसदीय संप्रभुता एवं न्यायिक सर्वोच्चता में समन्वय संसद की संप्रभुता का नियम ब्रिटिश संसद से जुड़ा हुआ है, जबकि न्यायपालिका की सर्वोच्चता का सिद्धांत, अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय से लिया गया है।
जिस प्रकार भारतीय संसदीय प्रणाली, ब्रिटिश प्रणाली से भिन्न है, ठीक उसी प्रकार भारत में सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक समीक्षा शक्ति अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय से कम है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अमेरिकी संविधान में ‘विधि की नियत प्रक्रिया’ का प्रावधान है, जबकि भारतीय संविधान में ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ (अनुच्छेद 21) का प्रावधान है।
इसलिए भारतीय संविधान निर्माताओं ने ब्रिटेन की संसदीय संप्रभुता और अमेरिका की न्यायपालिका सर्वोच्चता के बीच उचित संतुलन बनाने को प्राथमिकता दी। एक ओर जहां सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक समीक्षा की शक्तियों के तहत संसदीय कानूनों को असंवैधानिक घोषित कर सकता है, वहीं दूसरी ओर संसद अपनी संवैधानिक शक्तियों के बल पर संविधान के बड़े भाग को संशोधित कर सकती है।
7. एकीकृत व स्वतंत्र न्यायपालिका
भारतीय संविधान एक ऐसी न्यायपालिका की स्थापना करता है, जो अपने आप में एकीकृत होने के साथ-साथ स्वतंत्र है। भारत की न्याय व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय शीर्ष पर है। इसके नीचे राज्य स्तर पर उच्च न्यायालय हैं। राज्यों में उच्च न्यायालय के नीचे क्रमवार अधीनस्थ न्यायालय हैं, जैसे-जिला अदालत व अन्य निचली अदालतें। न्यायालयों का एकल तंत्र, केंद्रीय कानूनों के साथ-साथ राज्य कानूनों को लागू करता है। हालांकि अमेरिका में संघीय कानूनों को संघीय न्यायपालिका और राज्य कानूनों को राज्य न्यायपालिका लागू करती है।
सर्वोच्च न्यायालय, संघीय अदालत है। यह शीर्ष न्यायालय है, जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की गारंटी देता है और संविधान का संरक्षक है। इसलिए संविधान में इसकी स्वतंत्रता के लिए कई प्रावधान किए गए हैं; जैसे-न्यायाधीशों के कार्यकाल की सुरक्षा, न्यायाधीशों के लिए निर्धारित सेवा शर्तें, भारत की संचित निधि से सर्वोच्च न्यायालय के सभी खर्चों का वहन, विधायिका में न्यायाधीशों के कामकाज पर चर्चा पर रोक, सेवानिवृत्ति के बाद अदालत में कामकाज पर रोक, अवमानना के लिए दंड देने की शक्ति, कार्यपालिका से न्यायपालिका को अलग रखना इत्यादि।
8. मौलिक अधिकार
संविधान के तीसरे भाग में छह मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। ये अधिकार हैं:
1. समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)।
2. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)।
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)।
4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)।
5. सांस्कृतिक व शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 29-30) ।
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32) ।
मौलिक अधिकार का उद्देश्य वस्तुतः राजनीतिक लोकतंत्र की भावना को प्रोत्साहन देना है। यह कार्यपालिका और विधायिका के मनमाने कानूनों पर निरोधक की तरह काम करते हैं। उल्लंघन की स्थिति में इन्हें न्यायालय के माध्यम से लागू किया जा सकता है। जिस व्यक्ति के मौलिक अधिकार का हनन हुआ है, वह सीधे सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जा सकता है, जो अधिकारों की रक्षा के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा व उत्प्रेषण जैसे अभिलेख या रिट जारी कर सकता है।
हालांकि मौलिक अधिकार कुछ सीमाओं के दायरे में आते हैं लेकिन ये अपरिवर्तनीय भी नहीं हैं। संसद इन्हें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से समाप्त कर सकती है अथवा इनमें कटौती भी कर सकती है। अनुच्छेद 20-21 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छोड़कर राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान इन्हें स्थगित किया जा सकता है।
9. राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत
डॉ. बी. आर. अंबेडकर के अनुसार, राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत भारतीय संविधान की अनूठी विशेषता है। इनका उल्लेख संविधान के चौथे भाग में किया गया है। इन्हें मोटे तौर पर तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है – सामाजिक, गांधीवादी तथा उदार- बौद्धिक ।
नीति-निदेशक तत्वों का कार्य सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र को बढ़ावा देना है। इनका उद्देश्य भारत में एक ‘कल्याणकारी राज्य’ की स्थापना करना है। हालांकि मौलिक अधिकारों की तरह इन्हें कानून रूप में लागू नहीं किया जा सकता। संविधान में कहा गया है कि देश की शासन व्यवस्था में ये सिद्धांत मौलिक हैं और यह देश की जिम्मेदारी है कि वह कानून बनाते समय इन सिद्धांतों को अपनाए। इसलिए इन्हें लागू करना राज्यों का नैतिक कर्तव्य है किंतु इनकी पृष्ठभूमि में वास्तविक शक्ति राजनैतिक है, अर्थात् जनमत ।
मिनर्वा मिल्स मामले (1980) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि, “भारतीय संविधान की नींव मौलिक अधिकारों और नीति-निदेशक सिद्धांतों के संतुलन पर रखी गई है।”
10. मौलिक कर्तव्य
मूल संविधान में मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख नहीं किया गया है। इन्हें स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश के आधार पर 1976 के 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से आंतरिक आपातकाल (1975- 77) के दौरान शामिल किया गया था। 2002 के 86 वें संविधान संशोधन ने एक और मौलिक कर्तव्य को जोड़ा।
संविधान के 4ए भाग में 1 मौलिक कर्तव्यों का जिक्र किया गया है (जिसमें केवल एक अनुच्छेद 51-क है)। इसके तहत प्रत्येक भारतीय का यह कर्तव्य होगा कि वह संविधान, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे, राष्ट्र की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करें; हमारी मिश्रित संस्कृति की समृद्ध धरोहर का अनुरक्षण करें; सभी लोगों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास करें, इत्यादि।
मौलिक कर्तव्य नागरिकों को यह याद दिलाते हैं कि अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते समय उन्हें याद रखना चाहिए कि उन्हें अपने समाज, देश व अन्य नागरिकों के प्रति कुछ जिम्मेदारियों का निर्वाह भी करना है। नीति-निदेशक तत्वों की तरह कर्तव्यों को भी कानून रूप में लागू नहीं किया जा सकता।
11. एक धर्मनिरपेक्ष राज्य
भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष है। इसलिए यह किसी धर्म विशेष को भारत के धर्म के तौर पर मान्यता नहीं देता। संविधान के निम्नलिखित प्रावधान भारत के धर्मनिरपेक्ष लक्षणों को दर्शाते हैं:
1. वर्ष 1976 के 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को जोड़ा गया।
2. प्रस्तावना हर भारतीय नागरिक की आस्था, पूजा-अर्चना व विश्वास की स्वतन्त्रता की रक्षा करती है।
3. किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समान समझा जाएगा और उसे कानून की समान सुरक्षा प्रदान की जाएगी (अनुच्छेद-14)।
4. धर्म के नाम पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा (अनुच्छेद-15)।
5. सार्वजनिक सेवाओं में सभी नागरिकों को समान अवसर दिए जाएंगे (अनुच्छेद-16)।
6. हर व्यक्ति को किसी भी धर्म को अपनाने व उसके अनुसार पूजा-अर्चना करने का समान अधिकार है (अनुच्छेद 25) ।
7. हर धार्मिक समूह अथवा इसके किसी हिस्से को अपने धार्मिक मामलों के प्रबंधन का अधिकार है (अनुच्छेद 26) ।
8. किसी भी व्यक्ति को किसी भी धर्म विशेष के प्रचार के लिए किसी प्रकार का कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा (अनुच्छेद 27) ।
9. किसी भी सरकारी शैक्षिक संस्थान में किसी प्रकार के धार्मिक निर्देश नहीं दिए जाएंगे (28)।
10. नागरिकों के किसी भी वर्ग को अपनी भाषा, लिपि अथवा संस्कृति को संरक्षित रखने का अधिकार है (अनुच्छेद 29)।
11. अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षिक संस्थानों की स्थापना करने और उन्हें संचालित करने का अधिकार है (अनुच्छेद 30)।
12. राज्य सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बनाने के लिए प्रयास करेगा (अनुच्छेद-44)।
धर्मनिरपेक्षता की पश्चिमी अवधारणा धर्म (चर्च) और राज्य (राजनीति) के बीच पूर्ण अलगाव रखती है। धर्मनिरपेक्षता की यह नकारात्मक अवधारणा भारतीय परिवेश में लागू नहीं हो सकती क्योंकि यहां का समाज बहु धर्मवादी है। इसलिए भारतीय संविधान में सभी धर्मों को समान आदर अथवा सभी धर्मों की समान रूप से रक्षा करते हुए धर्मनिरपेक्षता के सकारात्मक पहलू को शामिल किया गया है।
इसके अलावा संविधान ने विधायिका में धर्म के आधार पर कुर्सी का आरक्षण, देने वाले पुराने धर्म आधारित प्रतिनिधित्व को भी समाप्त कर दिया है। हालांकि संविधान अनुसूचित जाति और जनजाति को उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए अस्थायी आरक्षण प्रदान करता है।
12. सार्वभौम वयस्क मताधिकार
भारतीय संविधान द्वारा राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव के आधारस्वरूप सार्वभौम वयस्क मताधिकार को अपनाया गया है। हर वह व्यक्ति जिसकी उम्र कम से कम 18 वर्ष है, उसे धर्म, जाति, लिंग, साक्षरता अथवा संपदा इत्यादि के आधार पर कोई भेदभाव किए बिना मतदान करने का अधिकार है। वर्ष 1989 में 61वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1988 के द्वारा मतदान करने की उम्र को 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दिया गया था।
देश के वृहद आकार, जनसंख्या, उच्च गरीबी, सामाजिक असमानता, अशिक्षा आदि को देखते हुए संविधान निर्माताओं द्वारा सार्वभौम वयस्क मताधिकार को संविधान में शामिल करना एक साहसिक व सराहनीय प्रयोग था।”
वयस्क मताधिकार लोकतंत्र को बड़ा आधार देने के साथ- साथ आम जनता के स्वाभिमान में वृद्धि करता है, समानता के सिद्धांत को लागू करता है, अल्पसंख्यकों को अपने हितों की रक्षा करने का अवसर देता है तथा कमजोर वर्गों के लिए नई आशाएं और प्रत्याशा जगाता है।
13. एकल नागरिकता
यद्यपि भारतीय संविधान फेडरल है और दो लक्षणों (एकल व संघीय) का प्रतिनिधित्व करता है मगर इसमें केवल एकल नागरिकता का प्रावधान है अर्थात भारतीय नागरिकता।
दूसरी ओर, अमेरिका जैसे देशों में प्रत्येक व्यक्ति के पास न केवल देश की नागरिकता होती है बल्कि वह जिस राज्य में रहता है उसकी भी नागरिकता होती है। इसलिए वह अधिकारों के दो समूहों का लाभ उठाता है- पहला, राष्ट्रीय सरकार द्वारा प्रदत्त, तथा; दूसरा, राज्य सरकार द्वारा प्रदत्त ।
भारत में, सभी नागरिकों को चाहे वो किसी भी राज्य में पैदा हुए हो या रहते हों, संपूर्ण देश में नागरिकता के समान राजनीतिक और नागरिक अधिकार प्राप्त होते हैं और उनमें कोई भेदभाव नहीं किया जाता, सिवाए कुछ मामलों के, जैसे-जनजातीय क्षेत्र, जम्मू और कश्मीर इत्यादि। सभी नागरिकों के लिए एकल नागरिकता और समान अधिकारों के संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद भारत में सांप्रदायिक दंगे, वर्ग संघर्ष, जातिगत युद्ध, भाषायी विवाद और नृजातीय विवाद होते रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि, संविधान के निर्माताओं ने एकीकृत और संगठित भारत राष्ट्र के निर्माण का जो सपना देखा था, वह पूरी तरह पूरा नहीं हो पाया है।
14. स्वतंत्र निकाय
भारतीय संविधान केवल विधायिका, कार्यपालिका व सरकार (केन्द्र और राज्य) न्यायिक अंग ही उपलब्ध कराता है। बल्कि यह कुछ स्वतंत्र निकायों की स्थापना भी करता है। इन्हें संविधान ने भारत सरकार के लोकतांत्रिक तंत्र के महत्वपूर्ण स्तंभों के रूप में परिकल्पित किया है। ऐसे कुछ स्वतंत्र निकाय निम्नलिखित हैं:
अ. संसद, राज्य विधानसभाओं भारत के राष्ट्रपति और भारत के उप-राष्ट्रपति के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने हेतु निर्वाचन आयोग।
ब. राज्य और केंद्र सरकार के खातों के अंकेक्षण के लिए भारत का नियंत्रक एवं महालेखाकार। ये जनता के पैसे के संरक्षक होते हैं और सरकार द्वारा किए गए खर्चों की वैधानिकता और उनके उचित होने पर टिप्पणी करते हैं।
स. संघ लोक सेवा आयोग। यह अखिल भारतीय सेवाओं व उच्च स्तरीय केंद्रीय सेवाओं के लिए भर्ती हेतु परीक्षाओं का आयोजन करता है तथा अनुशासनात्मक मामलों पर राष्ट्रपति को सलाह देता है।
द. राज्य लोक सेवा आयोग, जिसका काम हर राज्य में राज्य सेवाओं के लिए भर्ती हेतु परीक्षाओं का आयोजन करना व अनुशासनात्मक मामलों पर राज्यपाल को सलाह देना है। विभिन्न प्रावधानों, यथा-कार्यकाल की सुरक्षा, निर्धारित सेवा शर्तें, भारत की संचित निधि पर भारित विभिन्न व्यय आदि के माध्यम से संविधान इन निकायों की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है।
15. आपातकालीन प्रावधान
आपातकाल की स्थिति से प्रभावशाली ढंग से निपटने के लिए भारतीय संविधान में राष्ट्रपति के लिए बृहद आपातकालीन प्रावधानों की व्यवस्था है। इन प्रावधानों को संविधान में शामिल करने का उद्देश्य है-देश की संप्रभुता, एकता, अखण्डता और सुरक्षा, संविधान एवं देश के लोकतांत्रिक ढांचे को सुरक्षा प्रदान करना। संविधान में तीन प्रकार के आपातकाल की विवेचना की गई है:
1. राष्ट्रीय आपातकालः युद्ध, आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह पैदा हुई राष्ट्रीय अशांति की अवस्था (अनुच्छेद-352)।
2. राज्य में आपातकाल (राष्ट्रपति शासन): राज्यों में संवैधानिक तंत्र की असफलता (अनुच्छेद 356) या केन्द्र के निदेशों का अनुपालन करने में असफलता (अनुच्छेद 365)।
3. वित्तीय आपातकालः भारत की वित्तीय स्थिरता या प्रत्यय संकट में हो (अनुच्छेद 360) ।
आपातकाल के दौरान देश की पूरी सत्ता केंद्र सरकार के हाथों में आ जाती है और राज्य केंद्र के नियंत्रण में चले जाते हैं।
इससे संविधान में संशोधन किए बगैर देश का ढांचा संघीय से एकात्मक हो जाता है। राजनीतिक तंत्र का संघीय (सामान्य परिस्थितियों के दौरान) से एकात्मक (आपातकाल के दौरान) में परिवर्तित होना भारतीय संविधान की एक अद्वितीय विशेषता है।
16. त्रिस्तरीय सरकार
मूल रूप से अन्य संघीय संविधानों की तरह भारतीय संविधान में दो स्तरीय राजव्यवस्था (केंद्र व राज्य) और संगठन के संबंध में प्रावधान तथा केंद्र एवं राज्यों की शक्तियां अंतर्विष्ट थीं। बाद में वर्ष 1992 में 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन ने तीन स्तरीय (स्थानीय) सरकार का प्रावधान किया गया, जो विश्व के किसी और संविधान में नहीं है।
संविधान में एक नए भाग (9वें) एवं नई अनुसूची (11वीं) जोड़कर वर्ष 1992 के 73वें संविधान संशोधन के माध्यम से पंचायतों को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई। इसमें एक नया भाग 9 जोड़ा गया। इसी प्रकार से 74वें संविधान संशोधन विधेयक, 1992 ने एक नए भाग 9ए तथा नई अनुसूची 12वीं को जोड़कर नगरपालिकाओं (शहरी स्थानीय सरकारें) को संवैधानिक मान्यता प्रदान की।
तालिका 3.1 भारतीय संविधान पर एक नजर
भाग | विषय | सम्बद्ध अनुच्छेद |
I | संघ और उसका राज्य क्षेत्र | 1 से 4 |
II | नागरिकता | 5 से 11 |
III | मौलिक अधिकार | 12 से 35 |
IV | राज्य की नीति के निदेशक तत्व | 36 से 51 |
IVए | मौलिक कर्तव्य | 51 – क |
V | संघ सरकार अध्याय-1-कार्यपालिका अध्याय-II-संसद अध्याय-III-राष्ट्रपति की विधायी शक्तियां अध्याय-IV-संघ की न्यायपालिका अध्याय-V-भारत का नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक | 52 से 151 52 से 78 79 से 122 123 124 से 147 148 से 151 |
VI | राज्य सरकारें अध्याय-1-साधारण अध्याय-II-कार्यपालिका अध्याय-III-राज्य का विधानमंडल अध्याय-IV-राज्यपाल की विधायी शक्तियां अध्याय-V-राज्यों के उच्च न्यायालय अध्याय-VI-अधीनस्थ न्यायालय | 152 152 से 237 153 से 167 168 से 212 213 214 से 232 233 से 237 |
VIII | संघ राज्य क्षेत्र | 239 से 242 |
IX | पंचायतें | 243 से 243-ण |
IX क | नगरपालिकाएं | 243त से 243छ |
IX ख | सहकारी समितियां | 243-ZH से 243-ZT |
X | अनुसूचित और जनजातीय क्षेत्र | 244 से 244-क |
XI | संघ और राज्यों के बीच संबंध अध्याय-1-विधायी संबंध अध्याय-II-प्रशासनिक संबंध | 245 से 263 245 से 255 256 से 263 |
XII | वित्त, संपत्ति, संविदायें और वाद अध्याय-1-वित्त अध्याय II ऋण लेना अध्याय III संपत्ति, संविदायें, अधिकार, बाध्यताएं और वाद अध्याय IV संपत्ति का अधिकार | 264 से 300-ए 264 से 291 292 से 293 294 से 300 300-क |
XIII | भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर व्यापार, वाणिज्य एवं समागम | 301 से 307 |
XIV | संघ और राज्यों के अधीन सेवाएं अध्याय 1 सेवायें अध्याय II लोक सेवा आयोग | 308 से 323 308 से 314 315 से 323 |
XIVक | अधिकरण | 323-क से 323-ख |
XV | निर्वाचन | 324 से 329-क |
XVI | कुछ वर्गों से सम्बन्धित विशेष प्रावधान | 330 से 342 |
XVII | राजभाषा अध्याय-1-संघ की भाषा अध्याय II प्रादेशिक भाषाएं अध्याय III सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय आदि की भाषा, अध्याय IV विशेष निदेश | 343 से 351 343 से 344 345 से 347 348 से 349 350 से 351 |
XVIII | आपात उपबंध | 352 से 360 |
XIX | प्रकीर्ण | 361 से 367 |
XX | संविधान का संशोधन | 368 |
XXI | अस्थायी, संक्रमणशील और विशेष उपबंध | 369 से 392 |
XXII | संक्षिप्त नाम, प्रारंभ, हिंदी में प्राधिकृत पाठ और निरसन | 393 से 395 |
टिप्पणीः भाग-VII (भाग-ख राज्यों से संबंधित) को 7वें संविधान संशोधन अधिनियम, (1956) द्वारा विलोपित कर दिया गया था। दूसरी ओर, भाग IV क तथा भाग XIV क दोनों का समावेश 42वें संविधान संशोधन अधिनियम्, (1976) द्वारा किया गया है, जबकि भाग IXक का समावेश 74वें संविधान संशोधन अधिनियम (1992) द्वारा किया गया है तथा भाग IXख97 वें संशोधन अधिनियम (2011) द्वाय जोड़ा गया।
तालिका 3.2 भारतीय संविधान के महत्वपूर्ण अनुच्छेदों पर एक नजर
यह डेटा तालिका में इस प्रकार से प्रस्तुत किया गया है:
अनुच्छेद | विषय |
1 | संघ का नाम और राज्यक्षेत्र। |
3 | नए राज्यों का निर्माण और वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों में परिवर्तन। |
13 | मूल अधिकारों को असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधि। |
14 | विधि के समक्ष समानता। |
16 | लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता। |
17 | अस्पृश्यता का अंत। |
19 | वाक् स्वातंत्र्य आदि विषयक कुछ अधिकारों का संरक्षण। |
21 | प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण। |
21क | प्राथमिक शिक्षा का अधिकार। |
25 | अंतःकरण की और धर्म अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता। |
30 | शिक्षा संस्थानों की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों को अधिकार। |
31ग | कुछ निदेशक तत्वों को प्रभावी करने वाली विधियों को व्यावृत्ति। |
32 | मौलिक अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए रिट (writs) सहित उपचार। |
38 | राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा। |
40 | ग्राम पंचायतों का संगठन। |
44 | नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता। |
45 | 6 वर्ष से कम आयु वाले बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबंध। |
46 | अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य कमजोर वर्गों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की अभिवृद्धि। |
50 | कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण। |
51 | अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि। |
51क | मौलिक कर्तव्य। |
72 | क्षमा आदि की और कुछ मामलों में, दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की राष्ट्रपति की शक्ति। |
74 | राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए मंत्रिपरिषद। |
78 | राष्ट्रपति को जानकारी देने आदि के संबंध में प्रधानमंत्री के कर्तव्य। |
110 | धन विधेयक की परिभाषा। |
112 | वार्षिक वित्तीय विवरण। |
123 | संसद के विशांतिकाल में अध्यादेश प्रख्यापित करने की राष्ट्रपति की शक्ति। |
143 | उच्चतम न्यायालय से परामर्श करने की राष्ट्रपति की शक्ति। |
अनुच्छेद | विषय |
155 | राज्यपाल की नियुक्ति। |
161 | क्षमा आदि की और कुछ मामलों में, दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की राज्यपाल की शक्ति। |
163 | राज्यपाल को सहायता और सलाह देने के लिए मंत्रिपरिषद। |
167 | राज्यपाल को जानकारी देने आदि के संबंध में मुख्यमंत्री के कर्तव्य। |
169 | राज्यों में विधानपरिषदों का उत्सादन या सूजन। |
200 | विधेयकों पर अनुमति। |
213 | विधानमंडल के विश्रांतिकाल में अध्यादेश प्रख्यापित करने की राज्यपाल की शक्ति। |
226 | कुछ रिटे निकालने की उच्च न्यायालय की शक्ति। |
239कक | दिल्ली के संबंध में विशेष उपबंध। |
249 | राज्य सूची के विषय के संबंध में राष्ट्रीय हित में कानून बनाने की संसद की शक्ति। |
262 | अंतरराज्यीय नदियों या नदी-घाटियों के जल संबंधी विवादों का न्याय निर्णयन। |
263 | अंतरराज्यीय परिषद के संबंध में उपबंध। |
265 | विधि के प्राधिकार के बिना करों का अधिरोपण न किया जाना। |
275 | कुछ राज्यों को संघ से अनुदान। |
280 | वित्त आयोग। |
300 | वाद और कार्यवाहियां। |
300क | विधि के प्राधिकार के बिना व्यक्तियों को संपत्ति से वंचित न किया जाना (संपत्ति का अधिकार)। |
311 | संघ या राज्य के अधीन सिविल हैसियत में नियोजित व्यक्तियों का पदच्युत किया जाना, पद से हटाया जाना या पदावनत किया जाना। |
312 | अखिल भारतीय सेवाएं। |
315 | संघ और राज्यों के लिए लोक सेवा आयोग। |
320 | लोक सेवा आयोगों के कृत्य। |
323क | प्रशासनिक अधिकरण। |
324 | निर्वाचनों के अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण का निर्वाचन आयोग में निहित होना। |
330 | लोकसभा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों का आरक्षण। |
335 | सेवाओं और पदों के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के दावे। |
352 | आपात की घोषणा (राष्ट्रीय आपातकाल)। |
356 | राज्यों में संवैधानिक तंत्र के विफल हो जाने की दशा में उपबंध। |
360 | वित्तीय आपात के बारे में उपबंध। |
365 | संघ द्वारा दिए गए निदेशों का अनुपालन करने में या उनको प्रभावी करने में असफलता का प्रभाव। |
368 | संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति और उसके लिए प्रक्रिया। |
370 | जम्मू-कश्मीर राज्य के संबंध में अस्थायी उपबंध। |
तालिका 3.3 संविधान की अनुसूचियों पर एक नजर
क्र. सं. | विषय | संबंध अनुच्छेद |
प्रथम अनुसूची | राज्यों के नाम एवं उनके न्यायिक क्षेत्र | 1 एवं 4 |
दूसरी अनुसूची | संघ राज्य क्षेत्रों के नाम और उनकी सीमाएं 1. भारत के राष्ट्रपति 2. राज्यों के राज्यपाल 3. लोकसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष 4. राज्यसभा के सभापति और उप-सभापति 5. राज्य विधानसभाओं के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष 6. राज्य विधान परिषदों के सभापति और उप-सभापति 7. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश 8. उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश 9. भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक | 59,65,75,97, 125,148,158,164,186, एवं 221 |
तीसरी अनुसूची | इसमें विभिन्न उम्मीदवारों द्वारा ली जाने वाली शपथ या प्रतिज्ञान के प्रारूप दिए गए हैं ये उम्मीदवार हैं: 1. संघ के मंत्री 2. संसद के लिए निर्वाचन हेतु अभ्यर्थी 3. संसद के सदस्य 4. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश 5. भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक 6. राज्य मंत्री 7. राज्य विधानमण्डल के लिए निर्वाचन के लिए अभ्यर्थी 8. राज्य विधानमण्डल के सदस्य 9. उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश | 75,84,99,124,146,173,188, एवं 219 |
चौथी अनुसूची | राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के लिए राज्यसभा में सीटों का आवंटन । | 4 एवं 80 |
पांचवीं अनुसूची | अनुसूचित और जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन तथा नियंत्रण के बारे में उपबंध | 244 |
छठी अनुसूची | असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों के जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन के बारे में उपबंध | 244 एवं 275 |
सातवीं अनुसूची | संघ सूची (मूल रूप से 97 मगर फिलहाल 100 विषय), राज्य सूची (मूल रूप से 66 मगर फिलहाल 61 विषय) तथा समवर्ती सूची (मूल रूप से 47, फिलहाल 52 विषय) के संदर्भ में राज्य और केंद्र के मध्य शक्तियों का विभाजन। | 246 |
आठवीं अनुसूची | संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त भाषाएं (मूल रूप से 14 मगर फिलहाल 22)। ये भाषाएं हैं- असमिया, बांग्ला, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगू तथा उर्दू, सिंधी भाषा को 1967 के 21वें संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ा गया था। कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली को 1992 के 71वें संशोधन अधिनियम द्वारा और बोड़ो, डोगरी, मैथिली और संथाली को 2003 के 92वें संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ा गया था। | 344 एवं 351 |
नवीं अनुसूची | भू-सुधारों और जमींदारी प्रणाली के उन्मूलन से संबंधित राज्य विधानमण्डलों और अन्य मामलों से संबंधित संसद के अधिनियम और विनियम (मूलतः 13 परन्तु वर्तमान में 282)।” इस अनुसूची को पहले संशोधन (1951) द्वारा मूल अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर न्यायिक संवीक्षा से इसमें सम्मिलित कानूनों से इसे बचाने के लिए जोड़ा गया था। तथापि वर्ष 2007 में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि इस अनुसूची में 24 अप्रैल, 1975 के बाद सम्मिलित कानूनों की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। | 31-ख |
दसवीं अनुसूची | दल-बदल के आधार पर संसद और विधानसभा के सदस्यों की निरर्हता के बारे में उपबंध, इस अनुसूची को 52वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1985 द्वारा जोड़ा गया। इसे दल-परिवर्तन रोधी कानून भी कहा जाता है। | 102 एवं 191 |
ग्यारहवीं अनुसूची | पंचायत की शक्तियां, प्राधिकार व जिम्मेदारियां। इसमें 29 विषय हैं। इस अनुसूची को 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा जोड़ा गया। | 243-छ |
बारहवीं अनुसूची | नगरपालिकाओं की शक्तियां, प्राधिकार व जिम्मेदारियां। इसमें 18 विषय हैं। इस अनुसूची को 74वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा जोड़ा गया। | 243-ब |
तालिका 3.4 संविधान के स्त्रोत, एक नजर में
यह डेटा तालिका में इस प्रकार से प्रस्तुत किया गया है:
स्रोत | ली गयी विशेषताएं |
भारत शासन अधिनियम, 1935 | संघीय तंत्र, राज्यपाल का कार्यालय, न्यायपालिका, लोक सेवा आयोग, आपातकालीन उपबंध व प्रशासनिक विवरण। |
ब्रिटेन का संविधान | संसदीय शासन, विधि का शासन, विधायी प्रक्रिया, एकल नागरिकता, मंत्रिमण्डल प्रणाली, परमाधिकार लेख, संसदीय विशेषाधिकार और द्विसदनवाद। |
संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान | मूल अधिकार, न्यायापालिका की स्वतंत्रता, न्यायिक पुनरावलोकन का सिद्धांत, उप-राष्ट्रपति का पद, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का पद से हटाया जाना और राष्ट्रपति पर महाभियोग। |
आयरलैंड का संविधान | राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत, राष्ट्रपति की निर्वाचन पद्धति और राज्य सभा के लिए सदस्यों का नामांकन। |
कनाडा का संविधान | सशक्त केन्द्र के साथ संघीय व्यवस्था, अवशिष्ट शक्तियों का केन्द्र में निहित होना, केन्द्र द्वारा राज्य के राज्यपालों की नियुक्ति और उच्चतम न्यायालय का परामर्शी न्याय निर्णयन। |
ऑस्ट्रेलिया का संविधान | समवर्ती सूची, व्यापार, वाणिज्य और समागम की स्वतंत्रता और संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक। |
जर्मनी का वाइमर संविधान | आपातकाल के समय मूल अधिकारों का स्थगन। |
सोवियत संघ (पूर्व) का संविधान | मूल कर्तव्य और प्रस्तावना में न्याय (सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक) का आदर्श। |
फ्रांस का संविधान | गणतंत्रात्मक और प्रस्तावना में स्वतंत्रता, समता और बंधुता के आदर्श। |
दक्षिणी अफ्रीका का संविधान | संविधान में संशोधन की प्रक्रिया और राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन। |
जापान का संविधान | विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया। |
17. सहकारी समितियां
97वां संविधान संशोधन अधिनियम 2011 ने सहकारी समितियों को संवैधानिक दर्जा और संरक्षण प्रदान किया। इस संदर्भ में निम्न तीन परिवर्तन संविधान में इसने किए-
1. इसने सहकारी समिति गठित करने के अधिकार को मौलिक अधिकार बना दिया (अनुच्छेद 19)।
2. इसने एक नया राज्य का नीति निदेशक तत्व जोड़ा सहकारी समितियों के प्रोत्साहन देने के लिए (अनुच्छेद 43-B)
3. इसने संविधान में एक नया भाग IX-B जोड़ा-“सहकारी समितियां” (The Co-operative Societies) शीर्षक से (अनुच्छेद 243 – ZH से लेकर 243 – ZT तक)
नया भाग IX B के अंतर्गत अनेक ऐसे प्रावधानों के द्वारा सुनिश्चित किया गया है कि देश भर में सहकारी समितियां लोकतांत्रिक, व्यावसायिक, स्वायत्त ढंग से तथा आर्थिक मजबूती के साथ कार्य करें। यह संसद को अंतर-राज्य सहकारी समितियों तथा राज्य विधायिकाओं को अन्य सहकारी समितियों के लिए उपयुक्त कानून बनाने की शक्ति प्रदान करता है।
संविधान की आलोचना
भारत का संविधान जैसा कि संविधान सभा द्वारा बनाया और अंगीकार किया गया, की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जाती है:
1. उधार का संविधान
आलोचक कहते हैं कि भारतीय संविधान में नया और मौलिक कुछ भी नहीं है। वे इसे ‘उधार का संविधान’ कहते हैं और ‘उधारी की एक बोरी’ अथवा एक ‘हॉच पांच कन्स्टीच्युशन’ दुनिया के संविधानों के लिए विभिन्न दस्तावेजों की ‘पैबन्दगिरी।’ लेकिन ऐसी आलोचना पक्षपातपूर्ण एवं अंतार्किक है। ऐसा इसलिए कि संविधान बनाने वालों ने अन्य संविधान के आवश्यक संशोधन करके ही भारतीय परिस्थितियों में उनकी उपयुक्तता के आधार पर उनकी कमियों को दरकिनार करके ही स्वीकार किया।
उपरोक्त, आलोचना का उत्तर देते हुए डा. वी.आर. अम्बेदकर ने संविधान सभा में कहा- “कोई पूछ सकता है कि इस घड़ी दुनिया के इतिहास में बनाए गए संविधान में नया कुछ हो सकता है। सौ साल से अधिक हो गए जबकि दुनिया का पहला लिखित संविधान बना। इसका अनुसरण अनेक देशों ने किया और अपने देश के संविधान को लिखित बनाकर उसे छोटा बना दिया। किसी संविधान का विषय क्षेत्र क्या होना चाहिए। यह पहले ही तय हो चुका है, उसी प्रकार किसी संविधान के मूलभूत तत्वों की जानकारी और मान्यता आज पूरी दुनिया में हैं। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए सभी संविधानों में मुख्य प्रावधानों में समानता दिख सकती है। केवल एक नई चीज यह हो सकती है किसी संविधान में जिसका निर्माण इतने विलंब से हुआ है कि उसमें गलतियों को दूर करने और देश की जरूरतों के अनुरूप उसको टालने की विविधता उसमें मौजूद रहे। यह दोषारोपण कि यह संविधान अन्य देशों के संविधानों की हू-ब-हू नकल है, मैं समझता हूं, संविधान के यथेष्ट अध्ययन पर आधारित नहीं है।
2. 1935 के अधिनियम की कार्बन कॉपी
आलोचकों ने कहा कि संविधान निर्माताओं ने बड़ी संख्या में भारत सरकार अधिनियम 1935 के प्रावधान भारत के संविधान में डाल दिए। इससे संविधान 1935 के अधिनियम की कार्बन कॉपी बनकर रह गया या फिर उसका ही संशोधित रूप उदाहरण के लिए एन. श्रीनिवासन का कहना है कि भारतीय संविधान भाषा और वस्तु दोनों ही तरह से 1935 के अधिनियम की नकल है। उसी प्रकार सर आइबर जेनिंग्स, ब्रिटिश संविधानवेत्ता ने कहा कि संविधान भारत सरकार अधिनियम 1935 से सीधे निकलता है, जहां से वास्तव में अधिकांश प्रावधानों के पाठ बिल्कुल उतार लिए गए हैं।
पुनः पी.आर. देशमुख, संविधान सभा सदस्य ने टिप्पणी की कि “संविधान अनिवार्यतः भारत सरकार अधिनियम 1935 ही है, बस वयस्क मताधिकार उसमें जुड़ गया है।”
उपरोक्त आलोचनाओं का उत्तर संविधान सभा में बी.आर. अम्बेदकर ने इस प्रकार दिया “जहां तक इस आरोप की बात है कि प्रारूप संविधान में भारत सरकार अधिनियम 1935 का अच्छा-खासा हिस्सा शामिल कर लिया गया है, मैं क्षमा याचना नहीं करूंगा। उधार लेने में कुछ भी लज्जास्पद नहीं है। इसमें साहित्यिक चोरी शामिल नहीं है। संविधान के मूल विचारों पर किसी का एकस्व अधिकार (Patent Rights) नहीं है। मुझे खेद इस बात के लिए है भारत सरकार अधिनियम, 1935 से लिए गए प्रावधान अधिकतर प्रशासनिक विवरणों से सम्बन्धित हैं।”
3. अभारतीय अथवा भारतीयता विरोधी
आलोचकों के अनुसार भारत का संविधान ‘अ-भारतीय’ या ‘भारतीयता विरोधी’ है क्योंकि यह भारत की राजनीतिक परम्पराओं अथवा भावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करता। उनका कहना है कि संविधान की प्रकृति विदेशी है जिससे यह भारतीय परिस्थितियों के लिए अनुपयुक्त एवं अकारण है। इस संदर्भ में के. हनुमंथैय्या, संविधान सभा सदस्य ने टिप्पणी की “हम वीणा या सितार का संगीत चाहते थे, लेकिन यहां हम एक इंग्लिश बैंड का संगीत सुन रहे हैं। ऐसा इसलिए कि हमारे संविधान निर्माता उसी प्रकार से शिक्षित हुए।” उसी प्रकार लोकनाथ मिश्रा, एक अन्य संविधान सभा सदस्य ने संविधान की आलोचना करते हुए इसे “पश्चिम का दासवत अनुकरण, बल्कि पश्चिम को दासवत आत्मसमर्पण कहा। लक्ष्मीनारायण साहू, एक अन्य संविधान सभा सदस्य का कहना था “जिन आदर्शों पर यह प्रारूप संविधान गढ़ा गया है भारत की मूलभूत उनमें प्रगट नहीं होती। यह सविधान उपयुक्त सिद्ध नहीं होगा और लागू होने के फौरन बाद ही टूट जाएगा।”
4. गांधीवाद से दूर संविधान
आलोचकों के अनुसार भारत का संविधान गांधीवादी दर्शन और मूल्यों को प्रतिबिम्बित नहीं करता, जबकि गांधी जी हमारे राष्ट्रपिता हैं। उनका कहना था कि संविधान ग्राम पंचायत तथा जिला पंचायतों के आधार पर निर्मित होना चाहिए था। इस संदर्भ में, वही सदस्य के. हनुमंथैय्या ने कहा- “यह वही संविधान है जिसे महात्मा गांधी कभी नहीं चाहते, न ही संविधान को उन्होंने विचार किया होगा।” टी. प्रकाशम संविधान सभा के एक और सदस्य इस कमी का कारण गांधीजी के आंदोलन में अम्बेदकर की सहभागिता नहीं होना, साथ ही गांधीवाद विचारों के प्रति उनका तीव्र विरोध को बताते हैं।”
5. महाकाय आकार
आलोचक कहते हैं कि भारत का संविधान बहुत भीमकाय और बहुत विस्तृत है जिसमें अनेक अनावश्यक तत्व भी सम्मिलित हैं। सर आइवर जेनिंग्स, एक ब्रिटिश संविधानवेत्ता के विचार में जो प्रावधान बाहर से लिए गए हैं उनका चयन बेहतर नहीं है और संविधान सामान्य रूप से कहें, तो बहुत लंबा और जटिल है।”
इस संदर्भ में एच.वी. कामथ, संविधान सभा के सदस्य ने टिप्पणी की-“प्रस्तावना, जिस किरीट का हमने अपनी सभा के लिए चयन किया है, वह एक हाथी है। यह शायद इस तथ्य के अनुरूप ही है कि हमारा संविधान भी दुनिया में बने तमाम संविधानों में सबसे भीमकाय है।” उन्होंने यह भी कहा-“मुझे विश्वास है, सदन इस पर सहमत नहीं होगा कि हमने एक हाथीनुमा संविधान बनाया है। “
6. वकीलों का स्वर्ग
आलोचकों के अनुसार भारत का संविधान अत्यंत विधिवादितापूर्ण तथा बहुत जटिल है। उनके विचार में जिस कानूनी भाषा और मुहावरों को शामिल किया है उनके चलते संविधान एक जटिल दस्तावेज बन गया है। वही सर आइवर जेनिंग्स इसे ‘वकीलों का स्वर्ग’ कहते हैं।
इस संदर्भ में एच.के. माहेश्वरी, संविधान सभा के सदस्य का कहना था-“प्रारूप लोगों को अधिक मुकदमेबाज बनाता है. अदालतों की ओर अधिक उन्मुख होंगे, वे कम सत्यनिष्ठ होंगे, और सत्य और अहिंसा के तरीकों का पालन वे नहीं करेंगे। यदि में ऐसा कह सकूं तो यह प्रारूप वास्तव में ‘वकीलों का स्वर्ग’ है। यह वाद या मुकदमों की व्यापक संभावना खोलता है और हमारे योग्य और बुद्धिमान वकीलों के हाथ में बहुत सारा काम देने वाला है।”
उसी प्रकार संविधान सभा के एक अन्य सदस्य पी.आर. देशमुख ने कहा- “मैं यह कहना चाहूंगा कि सदन के समक्ष डा. अम्बेदकर ने जो अनुच्छेदों का प्रारूप प्रस्तुत किया है, मेरी समझ से अत्यंत भारी-भरकम है, जैसा कि एक भारी भरकम जिल्दवाला विधि-ग्रंथ हो। संविधान से सम्बन्धित कोई दस्तावेज इतना अधिक अनावश्यक विस्तार तथा शब्दाडम्बर का इस्तेमाल नहीं करता। शायद उनके लिए ऐसे दस्तावेज को तैयार करना कठिन था जिसे, मेरी समझ से एक विधि ग्रंथ नहीं बल्कि एक सामाजिक राजनीतिक दस्तावेज होना था, एक जीवत स्पंदनयुक्त, जीवनदायी दस्तावेज। लेकिन हमारा दुर्भाग्य कि ऐसा नहीं हुआ और हम शब्दों और शब्दों से लद गए हैं जिन्हें बहुत आसानी से हटाया जा सकता था।”
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