जीवोत्पत्ति एवं कोशिका विज्ञान : अध्याय- 1 भाग:3

सजीव या उपापचय के सक्रिय कोशिकांग

कोशिका में अधोलिखित उपापचयी सक्रिय कोशिकांग पाये जाते हैं। यथा –

माइटोकॉण्ड्रिया

यूकैरियोटिक कोशिकाओं के कोशिकाद्रव्य में अनेक सूक्ष्म गोलाकार, छड़ या कण के आकार की संरचनाएँ पाई जाती हैं, जिन्हें माइटोकॉण्ड्रिया कहते हैं। सर्वप्रथम कोलिकर (1880) ने माइटोकॉण्ड्यिा की खोज की। तत्पश्चात् 1890 में अल्टमान ने इसका वर्णन के नाम से किया। बेन्डा ने सन् 1897 में इन रचनाओं को माइटोकॉण्ड्रिया नाम दिया।

माइटोकॉण्ड्यिा, बैक्टीरिया तथा नीले-हरे शैवालों की कोशिकाओं को छोड़कर पौधों तथा जन्तुओं की समस्त जीवित कोशिकाओं में पाये जाते है। इनकी लम्बाई सामान्यतः 5m (मिली माइक्रोन) (1M=1/1000m) होती है। इनका व्यास 0.2 से 2m तक होता है। माइटोकॉण्ड्रिया की संख्या भी भिन्न-भिन्न कोशिकाओं में अलग-अलग होती है।

माइटोकॉण्ड्रिया लगभग 60 Å मोटी एवं वसा-प्रोटीन द्वारा निर्मित बाहरी एवं भीतर दो झिल्लियों द्वारा घिरी रहती है। इनकी रचना इकाई झिल्ली (unit membrane) की तरह होती है। बाहरी झिल्ली सपाट होती है, परन्तु भीतरी झिल्ली अन्दर की तरफ माइटोकॉड्रिया की गुहा में बहुत-सी हाथ की अँगुलियों की भाँति की रचनाएँ बनाती हैं, जिन्हें क्रिस्टी कहते हैं। अन्दर की झिल्ली माइटोकॉण्ड्रिया को दो विभिन्न कोष्ठों में विभाजित करती है-

(a) वाह्य कोष्ठ – यह बाहरी एवं भीतरी झिल्लियों के बीच का स्थान होता है, जो लगभग 60-80 Å होता है।

(b) भीतरी कोष्ठ – यह भीतरी झिल्ली द्वारा घिरा हुआ बीच का काफी बड़ा स्थान होता है, जिसमें सघन एवं कणिकायुक्त जैलीय पदार्थ भरा रहता है। इस पदार्थ को मैट्रिक्स कहते हैं।

भीतरी झिल्ली एवं क्रिस्टी की सतह पर बहुत-से सूक्ष्म कण पाए जाते हैं। इन्हें F1 कण या ऑक्सीसोम्स कहते हैं।* ये 7 से 100Å की लम्बाई के टेनिस के रैकेट के आकार के होते हैं। प्रत्येक F1 कण तीन भागों में बँटा रहता है-

(i) आधार  (ii) वृन्त  (iii) सिर

F1 कणों में इलेक्ट्रॉन अभिगमन-तन्त्र एवं ऑक्सिकीय फॉस्फोरिलीकरण में काम आने वाले एन्जाइम पाए जाते हैं। इसी कारण इन्हें इलेक्ट्रॉन अभिगमन कण कहा गया।

माइट्रोकॉण्ड्रिया का रासायनिक संघटन
(i) प्रोटीन 
65.70%
(ii) फॉस्फोलिपिड
25%
(iii) R.N.A. 
0.5%
(iv) D.N.A.
कुछ मात्रा

• माइटोकॉण्ड्रिया को कोशिका का पावर हाउस (power house) कहते है क्योंकि यहाँ पर सभी खाद्य पदार्थों (कार्बोहाइड्रेट्स, वसा एवं प्रोटीन) का आक्सीकरण होता है, फलस्वरूप ऊर्जा उत्पन्न होती है।*

• यह ऊर्जा ऐडिनोसीन ट्राइफास्फेट (ATP) के रूप में होती है तथा इसका निर्माण एडिनोसीन डाईफॉस्फेट (ADP) एवं अकार्बनिक फास्फेट (P) के संयोग से होता है। * उत्पन्न ऊर्जा कोशिका की विभिन्न प्रकार की क्रियाओं में काम आती है। ऊर्जा के साथ-साथ पदार्थों के पूर्ण आक्सीकरण में कार्बन डाई आक्साइड (CO₂) एवं जल बनते हैं।*

आक्सीकरण की पूर्ण क्रिया माइटोकॉण्ड्रिया में निम्न क्रमों में होती है-

(i) क्रेब्स चक्र

• यह चक्र माइटोकॉन्ड्रिया के मैट्रिक्स में पूर्ण होता है।* यहाँ पर चक्र के सभी विकर घुलित अवस्था में पाये जाते हैं। इसके द्वारा पाइरुवेट (pyruvate) अणुओं का आक्सीकरण होकर CO₂ उत्पन्न होती है तथा उपापचयी पदार्थों से हाइड्रोजन अणु निकलते है जो शीघ्र ही प्रोटान्स (protones) एवं इलेक्ट्रॉन्स (electrons) में टूट जाते हैं।

(ii) इलेक्ट्रॉन अभिगमन तन्त्र (Electron transport system) अथवा श्वसन श्रृंखला (respiratory chain) : क्रेब्स चक्र के द्वारा उत्पन्न इलेक्ट्रॉन अब इलेक्ट्रॉन अभिगमन तन्त्र में प्रवेश करते हैं जहाँ वे तन्त्र के विभिन्न अवयवों द्वारा होकर ऑक्सीजन तथा प्रोटान्स (2H+), जो Coenzyme Q के बाद कोशिका द्रव्य में आ जाते हैं, से संयोग करके जल बनाते है। यह क्रिया माइटोकॉन्ड्रिया के क्रिस्टी में होती है।*

(iii) फास्फोराइलेटिंग तन्त्र – यह तन्त्र इलेक्ट्रॉन अभिगमन तन्त्र से जुड़ रहता है तथा तीन

स्थानों पर NAD ↑ FAD,  Cytb ↑ CytC1, Cyta ↑ Cyta2, ATP का निर्माण करता है।

गाल्जीकाय

गॉल्जीकाय की खोज सर्वप्रथम सन् 1898 में कैमिलो गॉल्जी (Camillo Golgi) ने की। गॉल्जीकाय को लाइपोकॉण्ड्रिया भी कहते हैं। ये नीले-हरे शैवालों, जीवाणुओं एवं माइकोप्लाज्मा को छोड़कर अन्य सभी जीवधारियों की कोशिकाओं में मिलते हैं। पौधों में गॉल्जीकाय को डिक्टियोसोम भी कहा जाता है।*

गॉल्जीकाय की गुहिकाओं में अनेक प्रकार के एन्जाइम्स तथा पॉलिसैकेराइड्स आदि पाए जाते हैं। अतः गॉल्जीकाय स्रावी कोशिकाओं में अधिक पाए जाते हैं। विभिन्न पदार्थों (मुख्यतया एन्जाइम्स) का स्त्रावण करना गॉल्जीकाय का एक महत्वपूर्ण कार्य है। ये शुक्राणुओं के अग्रपिण्डों (acrosomes) के निर्माण में सहायक होते हैं। जन्तुओं में गॉल्जीकाय से विभिन्न प्रकार के हार्मोन्स स्त्रावित होते हैं। ये कोशिका विभाजन के समय कोशिका पट्टिका (cell plate) के निर्माण में सहायक होते हैं।*

अन्तः प्रद्रव्यी जालिका

अन्तः प्रद्रव्यी जालिका की खोज के. आर. पोर्टर ने सन् 1945 में की थी। ये केन्द्रक कला से कोशिका कला तक फैली रहती हैं। ये स्तनधारियों की लाल रुधिर कणिकाओं की कोशिकाओं को छोड़कर सामान्यतया सभी सुकेन्द्रकीय कोशिकाओं में पाई जाती हैं। जीवाणु एवं नीले- हरे शैवालों में इनका अभाव होता है। ये लाइपोप्रोटीन्स की दोहरी इकाई झिल्ली से बनी होती है। आकृति के आधार पर ये तीन प्रकार की होती है। यथा-

(i) सिस्टर्नी
(ii) थैलियाँ
(iii) नलिकायें

नलिकायें छोटी, सपाट, शाखान्वित एवं विभिन्न प्रकार की होती है। इनका कार्य कोशिका द्रव्य तथा केन्द्रक द्रव्य के बीच सम्बन्ध स्थापित करता है।*

राइबोसोम्स की उपस्थिति के आधार पर अन्तः प्रद्रव्यी जालिका निम्नलिखित दो प्रकार की होती हैं-

(i) सपाट अन्तः प्रद्रव्यी जालिका – इनकी बाहरी कला सपाट या चिकनी होती है अर्थात् इस पर राइबोसोम्स नहीं पाए जाते हैं। ये प्रोटीन संश्लेषण में भाग नहीं लेतीं।

(ii) कणिकामय अन्तःप्रद्रव्यी – इनकी बाहरी सतह खुरदरी होती है अर्थात् इनकी सतह पर राइबोसोम्स पाए जाते हैं। अतः ये प्रोटीन संश्लेषण में भाग लेती हैं।

अन्तःप्रद्रव्यी जालिका के अधोलिखित कार्य हैं, यथा-

(1) अन्तःप्रद्रव्यी जालिका जीवद्रव्य तन्तुओं के द्वारा एक कोशिका को दूसरी से सम्बन्धित रखने में मदद करती है।

(2) यह कोशिका में कंकाल की भाँति कार्य करती है तथा उसे यान्त्रिक शक्ति प्रदान करती है।*

(3) यह कोशिका विभाजन के तल को निश्चित करती है।

(4) यह आनुवंशिक पदार्थों के अभिगमन में सहायता करती है।

(5) यह पदार्थों के अन्दर एवं बाहर आने-जाने पर नियन्त्रण रखती है।*

(6) यह कोशिका भित्ति एवं कोशिका विभाजन के बाद केन्द्रक आवरण के निर्माण का कार्य करती है।*

(7) कणिकामय अन्तःप्रद्रव्यी जालिका के ऊपर राइबोसोम उपस्थित होने के कारण यह प्रोटीन संश्लेषण में सहायता करती है।*

(8) सपाट अन्तःप्रद्रव्यी जालिका ग्लाइकोजन संग्रह में सहायता करती है।

राइबोसोम्स

राइबोसोम की खोज सर्वप्रथम पैलाडे नामक वैज्ञानिक ने सन् 1955 में की थी। ये डमरू की आकृति के या लगभग गोलाकार, 140-160Å व्यास वाले सघन सूक्ष्म गण होते हैं। ये राइबोन्यूक्लिक अम्ल (R.N.A.) एवं प्रोटीन के बने होते हैं। R.N.A. एवं प्रोटीन की उपस्थिति के कारण इन्हें राइबोन्यूक्लियोप्रोटीन कण भी कहते हैं।*

राइबोसोम सभी जीवित कोशिकाओ में पाए जाते हैं या अन्तःप्रदव्यी जालिका से जुड़े रहते हैं। ये माइटोकॉण्ड्यिा, हरित लवक एवं केन्द्रक में भी पाए जाते हैं। आकार एवं अवसादन गुणांक के आधार पर राइबोसोम निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं-

(1) 70S राइबोसोम्स- ये आकार में छोटे होते हैं एवं इनका अवसादन गुणांक 70S होता है। ये माइटोकॉण्ड्यिा, क्लोरोप्लास्ट एवं बैक्टीरिया आदि में पाए जाते हैं।*

(2) 80S राइबोसोम्स- ये आकार में कुछ बड़े होते हैं और इनका अवसादन गुणांक 80S होता है। ये उच्च विकसित पौधों एवं जन्तु कोशिकाओं में पाए जाते हैं।*

प्रत्येक राइबोसोम लगभग दो गोलाकार सबयूनिट्स का बना होता है। इनमें एक छोटी एवं एक बड़ी सब-यूनिट होती है। दोनों एक-दूसरे से जुड़कर पूर्ण राइबोसोम का निर्माण करती है। 70S राइबोसोम की बड़ी सबयूनिट 50S तथा छोटी सबयूनिट 30S होती है। 80S राइबोसोम की बड़ी सबयूनिट 60S एवं छोटी सबयूनिट 40S होती है। कभी-कभी अनेक राइबोसोम एक साथ मिलकर एक रचना बनाते हैं, जिसे पॉलिराइबोसोम या पॉलिसोम्स  कहते हैं।

राइबोसोम का मुख्य कार्य अमीनों अम्ल के द्वारा प्रोटीन संश्लेषण में सहायता करना है।

तारककाय

तारककाय एक गोलाकार रचना है जो केन्द्रक की बाहरी सतह पर, लगभग मध्य में स्थित रहती है। वह मुख्य रूप से जन्तु कोशिकाओं में तथा कुछ पादप कोशिकाओं, जैसे शैवाल तथा कवक में पाया जाता है। यह प्रायः दो स्पिन्डिल के आकार के कणों का बना होता है जिन्हें सेन्ट्रिओल  कहते हैं। सेण्ट्रिओल के चारों तरफ एक स्वच्छ कोशाद्रव्य का घेरा होता है जिसे सेन्ट्रोस्फीयर  कहते हैं। सेण्ट्रिओल का महत्वपूर्ण कोशा विभाजन के समय स्पिन्डिल के निर्माण में मदद करना है।* कोशिका विभाजन के समय सेण्ट्रिओल दो भागों में बँटकर दो विपरीत ध्रुवों की ओर चले जाते हैं।

लाइसोसोम

लाइसोसोम की खोज डी डुवे ने की। सन् 1974 में डी डुवे को इस खोज के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। ये अधिकतरजन्तु कोशिकाओं में मुख्य रूप से एन्जाइम अभिक्रियाएँ करने वाली कोशिकाओं; जैसे- अग्न्याशय, यकृत, मस्तिष्क, थायरॉइड तथा गुर्दे आदि में पाए जाते हैं।

लाइसोसोम, अधिकतर गोलाकार अथवा अनियमित आकार के एक परत वाली थैलियाँ होती हैं। इनका निर्माण गॉल्जीकाय अथवा अन्तः प्रदव्यी जालिका से होता है।

लाइसोसोम में अनेक एन्जाइम पाए जाते हैं; जैसे-प्रोटिएज, राइबोन्यूक्लिएज, डिऑक्सीराइ-बोन्यूक्लिएज, फॉस्फेटेज आदि। ये सभी अम्लीय अपघट्य कहलाते हैं। जब किसी कारण से लाइसोसोम के एन्जाइम बाहर निकलते हैं तो ये सक्रिय होकर कोशिका के विभिन्न पदार्थों का विघटन कर देते हैं और कोशिका भी विखण्डित हो जाती है। इसी कारण लाइसोसोम को आत्मघाती थैलियाँ कहा गया है।*

लाइसोसोम अनेक रूपों में पाए जाते हैं। इस लक्षण को लाइसोसोम की बहुरूपता कहते हैं। आधुनिक विचारधारा के अनुसार, लाइसोसोम निम्नलिखित चार प्रकार के होते हैं-

(1) प्राथमिक लाइसोसोम
(2) द्वितीयक लाइसोसोम
(3) अवशिष्ट काय
(4) ऑटोफैगिक रिक्तिकाएँ

लाइसोसोम का मुख्य कार्य कोशिका में विभिन्न पदार्थों का पाचन करना है।* लाइसोसोम्स द्वारा सम्पन्न प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-

(1) बाह्यः कोशिकीय पदार्थों का पाचन- कोशिका में एण्डोसाइटोसिस द्वारा ग्रहण किए गए पदार्थों का पाचन प्राथमिक लाइसोसोम की सहायता से होता है।

(2) अन्तःकोशिकीय पाचन – भोजन की कमी के समय लाइसोसोम कोशाद्रव्य में स्थित प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, लिपिड्स आदि का पाचन करते हैं।

(3) आत्मलयन – आवश्यक-तानुसार लाइसोसोम कभी-कभी स्वतः फटकर रोगग्रस्त या क्षतिग्रस्त कोशिकाओं को नष्ट कर देता है।

(4) कोशिका विभाजन में सहायता करना – कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार, लाइसोसोम के फटने से ही कोशिका में विभाजन आरम्भ हो जाता है।

लवक

लवक प्रायः पादप कोशिकाओं में पाए जाते हैं। ये गोलाकार अथवा चपटे आकार के तथा रंगीन अथवा रंगहीन होते हैं। लवक कवक, जीवाणु, नीले-हरे शैवालों तथा मिक्सोमाइसीट्स आदि में नहीं पाए जाते हैं। लवक (plastid) की खोज सर्वप्रथम सन् 1865 में हैकेल (Haeckel) ने की। लवक (प्लास्टिड) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ए.एफ. डब्ल्यू.एस. शिम्पर (A.F.W.S. Schimper-1885) ने किया। रंग के आधार पर लवक निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं-

(i) हरितलवक अथवा क्लोरोप्लास्ट – हरे रंग के लवक।

(ii) वर्णीलवक अथवा क्रोमोप्लास्ट – रंगीन लवक।

(iii) अलवर्णीलवक अथवा ल्यूकोप्लास्ट – रंगहीन लवक।

विभिन्न प्रकार के लवक एक-दूसरे में बदल सकते हैं। हरे टमाटर तथा हरी मिर्च में क्लोरोप्लास्ट होते हैं एवं पके टमाटर तथा पकी मिर्च में ये क्रोमोप्लास्ट में बदल जाते हैं। इस कारण से पकने पर टमाटर तथा मिर्च लाल रंग के हो जाते हैं।

(i) क्लोरोप्लास्ट  – ये हरे रंग के लवक होते हैं। इनका हरा रंग इनमें पाए जाने वाले वर्णक पर्णहरित या क्लोरोफिल के कारण होता है। बैक्टीरिया, नीली-हरी शैवालों, लाल शैवालों तथा कवकों को छोड़कर हरितलवक सभी पौधों की हरी कोशिकाओं में पाए जाते हैं। क्लोरोप्लास्ट केवल उन्हीं भागों में पाए जाते हैं, जो प्रकाश में रहते हैं। हरी पत्तियों में ये बहुतायत से पाए जाते हैं और कुछ हद तक तने के हरे भागों में भी मिलते हैं। हरितलवक प्रकाश की उपस्थिति में अपने पर्णहरित की सहायता से प्रकाश संश्लेषण द्वारा भोजन का निर्माण करते हैं। * इनकी खोज शिम्पर (Shimper) नामक वैज्ञानिक ने सन् 1885 में की।*

क्लोरोप्लास्ट के चारों ओर इकाई कलाओं की बनी दो झिल्लियाँ होती हैं जो वसा-प्रोटीन की बनी होती हैं। झिल्लियों से घिरे अर्द्धतरल दानेदार पदार्थ को स्ट्रोमा कहते हैं।

स्ट्रोमा के अन्दर झिल्लियों से बनी पटलिकाएँ होती हैं। ये पटलिकाएँ स्थान-स्थान पर सिक्कों के ढेर जैसी रचनाएँ बनाती हैं, जिन्हें ग्रैनम कहते हैं। एक क्लोरोप्लास्ट में लगभग 40-60 ग्रैनम होते हैं। पास-पास के ग्रैना एक-दूसरे से साधारण या जालिकावत् पटलिकाओं द्वारा परस्पर जुड़े रहते हैं। इन्हें स्ट्रोमा पटलिकायें कहते हैं।

प्रत्येक ग्रेना सिक्के के ढेर की तरह दिखायी देती है। ग्रेनाकी प्रत्येक गोल-चपटी पटलिका को ग्रेनम लैमिली या थाइलैकॉयड कहते हैं, जो कि ग्रैनम की इकाई होती है। प्रत्येक ग्रैना में थाइलैकॉयड की संख्या लगभग 10 से 100 तक हो सकती है।

प्रत्येक थाइलैकॉयड दो इकाई झिल्लियों की बनी होती है। इसका ऊपरी और अन्तिम स्तर प्रोटीन के अणुओं का बना होता है। इसके मध्य में क्लोरोफिल एवं फॉस्फोलिपिड के स्तर होते हैं। क्लोरोफिल के प्रत्येक अणु में एक शीर्ष (head) एवं एक पूँछ (tail) होती है। शीर्ष पाइरोल (pyrol) के चार चक्राकारों (rings) से बना होता है। ये Mg परमाणु द्वारा जुड़े रहते हैं। * पूँछ फाइटोल श्रृंखला से बनी होती है।

क्लोरोप्लास्ट का रासायनिक संगठन
अवयव
मात्रा % में
(1) प्रोटीन
35-55%
(2) फॉस्फोलिपिड्स
25-35%
(3) क्लोरोफिल
5-10%
(4) कैरोटीनॉयड्स
1-4.5%
(5) आर.एन.ए.
2-3%
(6) डी.एन.ए.*
0.5%
(7) विटामिन E
0.089%
(8) विटामिन K
0.004%
(9) एन्जाइम
कुछ मात्रा
(10) धातुएँ (Mg*, Fe, Cu, Mn, Zn, P के परमाणु)
कुछ मात्रा

कुल क्लोरोप्लास्ट का 75% क्लोरोफिल ‘ए’ तथा 25% क्लोरोफिल ‘बी’ होता है।* विभिन्न प्रकार के क्लोरोफिल (Chlorophylls) के रासायनिक सूत्र निम्नलिखित हैं-

(i) क्लोरोफिल-ए (नीला) – C55H72O5N4Mg

(ii) क्लोरोफिल-बी (हरा-काला) -C55H70O6N4Mg

(iii) कैरोटीन (नारंगी)*- C40H56

(iv) जेन्थोफिल (पीला)* – C40H56O2

हरे पौधों में क्लोरोप्लास्ट प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को सम्पन्न करता है। सूर्य के प्रकाश की विकिरण ऊर्जा को कार्बन डाइऑक्साइड एवं जल की सहायता से रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित करके कार्बनिक भोज्य पदार्थों में संचित कर देता है।

प्रकाश संश्लेषण (photosynthesis) की प्रकाशिक अभिक्रिया (light reaction) क्लोरोप्लास्ट के ग्रैना में होती है* तथा अप्रकाशिक अभिक्रिया (dark reaction) स्टोमा में सम्पन्न होती है।* फलस्वरूप भोजन या कार्बोहाइड्रेट (ग्लूकोस) का निर्माण होता है।* इनके अलावा ये कोशिकाद्रव्य द्वारा आनुवंशिकता (cytoplasmic heredity) एवं म्यूटेशन (mutation) में भी भाग लेते है। प्लास्टिड में होने वाली म्यूटेशन को प्लास्टिड म्यूटेशन (plastid mutation) कहते हैं।

परीक्षा दृष्टि
• प्रकाश संश्लेषण, प्रोटीन संश्लेषण तथा वसा अम्ला के संश्लेषण का कार्य करते हैं?
क्लोरोप्लास्ट
• प्रकाश संश्लेषण की प्रकाशिक एवं अप्रकाशिक अभिक्रियाएँ क्लोरोप्लास्ट में कहाँ सम्पन्न होती हैं?
ग्रेना एवं स्ट्रोमा में
• क्लोरोप्लास्ट की खोज किसने किया था?
शिम्पर ने
• बैंगनी रंग किस पिंगमेंट के कारण होता है?
एन्थोसाइनिन (ये vacular sap में घुले रहते हैं।)
• कौन-सा पिगमेंट क्लोरोफिल में नहीं पाया जाता है?
एन्थोसाइनिन
• प्रकाश-श्वसन की क्रिया में कौन से कोशिकांग भाग लेते हैं?
क्लोरोप्लास्ट, माइट्रोकाण्ड्रिया एवं परऑक्सीसोम तीनों मिलकर।
• ग्लाइऑक्सीसोम्स का क्या कार्य है?
वसा का कार्बोहाइड्रेट्स में परिवर्तन अर्थात इसमें ग्लाइऑक्सिलेट चक्र की प्रक्रिया सम्पन्न होती है।

(ii) क्रोमोप्लास्ट – ये प्रायः नारंगी, पीले, भूरे, लाल आदि रंग के होते हैं। इनमें स्ट्रोमा नहीं होती है। क्रोमोप्लास्ट सामान्यतः पुष्पों के दलों (petals) या रंगीन फलों की भित्तियों में पाए जाते हैं। इनके कारण पुष्पों का रंग चमकीला होता है, जिससे ये कीट परागण में सहायक होते हैं।

(iii) ल्यूकोप्लास्ट – ये रंगहीन एवं अनियमित आकार के होते हैं। ल्यूकोप्लास्ट पौधों के उन भागों में पाए जाते हैं, जहाँ प्रकाश नहीं पहुँचता है। ल्यूकोप्लास्ट अधिकांश पौधों के भूमिगत भागों में पाए जाते हैं। सूर्य के प्रकाश में क्लोरोप्लास्ट में परिवर्तित हो जाते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-छोटे तथा बड़े। बड़े आकार के ल्यूकोप्लास्ट शर्करा को मण्ड (starch) में परिवर्तित करते हैं।

कार्य के आधार पर ल्यूकोप्लास्ट निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-

(a) एमाइलोप्लास्ट – ये शर्करा को स्टार्च में परिवर्तित करके अपने अंदर संचित करते हैं।*

(b) इलायोप्लास्ट – ये प्रायः बीजों में मिलते हैं तथा वसा का संचय करते हैं।*

(c) प्रोटीनोप्लास्ट – ये प्रायः बीजों में पाए जाते हैं; इनमें प्रोटीन का संचय होता है।

माइक्रोबॉडीज

यह एक परत वाली झिल्ली से घिरी थैलियाँ होती हैं। इनका निर्माण एण्डोप्लाज्मिक जालिका एवं गॉल्जी तंत्र से थैलियों (vesicles) के टूटने (Pinching off) से होता है। इनका आकार 0.3-1.3 µm व्यास का होता है। ये दो प्रकार के होते हैं। यथा-

(1) परऑक्सीसोम
(2) ग्लाइऑक्सीसोम

परऑक्सीसोम उन पौधों में पाये जाते हैं जिनमें प्रकाश-श्वसन की क्रिया होती है। (C3 पौधे)। * जैसे-चाय, मटर, मूंग, सोयाबीन, सूर्यमुखी, कपास, चुकन्दर, क्लोरेला आदि। इसमें प्रकाश की उपस्थिति में कुछ हरे पौधे O2 के स्थान पर CO2 निकालते हैं।* जन्तु कोशिकाओं में ये यकृत (liver) एवं वृक्क (Kidney) में तथा प्रोटोजून्स में पाये जाते है।* पर ऑक्सीसोम के द्रव्य में भी लाइसोसोम के समान एन्जाइम पाये जाते हैं जिनमें ऑक्सीडेस एवं कैटालेस मुख्य हैं। जन्तुओं की कोशाओं में वसा उपापचय का कार्य भी ऑक्सीसोम ही करते हैं। इनकी खोज टोलबर्ट (1969) ने की थी।*

ग्लाइऑक्सीसोम प्रायः वसीय बीजों, जैसे-मूँगफली तथा अरण्ड की कोशिकाओं में जहाँ पर वसा का कार्बोहाइड्रेट में परिवर्तन होता है, पाये जाते हैं। वसा का कार्बोहाइड्रेट्स में परिवर्तन ग्लाइऑक्सीसोम में पाये जाने वाले ग्लाइऑक्सिलेट-चक्र द्वारा होता हैं* बीबर्स ने 1961 में इसकी खोज की।

यह भी पढ़ें : जीवोत्पत्ति एवं कोशिका विज्ञान : अध्याय- 1 भाग:2

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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