पादप जगत : अध्याय – 2 , भाग – 5

आवृतबीजियों की आकारिकी

आकारिकी (Morphology) का सम्बन्ध शारीरिक आकार के अध्ययन से हैं। पौधों के विभिन्न अंगों जैसे, जड़ों, तनों, पत्तियों, पुष्पों, फलों व बीजों आदि की रचना व उनके विकास का अध्ययन पादप आकारिकी (Plant morphology) कहलाता है।

प्रत्येक आवृतबीजी (पुष्पीय) पौधे में प्रायः दो भाग होते हैं-

(i) मूल तन्त्र (root system),
(ii) प्ररोह तन्त्र (Shoot system)

जड़ तथा उसकी शाखाओं को सामूहिक रूप से मूल तन्त्र (root system) कहते हैं। तना, तने की शाखाएं, पत्तियां व पुष्प तथा फलादि सामूहिक रूप से प्ररोह तन्त्र (shoot system) कहलाते हैं।

जड़, तना तथा पत्तियां कायिक अंग (vegetative parts) होते हैं जबकि पुष्प प्रजननांग (Reproductive organs) होते हैं।* पौधे का प्रत्येक भाग विशिष्ट कार्य को करने के लिए अनुकूलित होता है।

जड़ (Root)

पौधों का वह भाग जो बीजों के अंकुरण के समय मूलांकुर (radicle) से बनता है और प्रकाश के विपरीत लेकिन जल एवं भूमि की ओर बढ़ता है, जड़ कहलाता है। जड़ जमीन से जल एवं खनिज लवण अवशोषित करता है।

जड़ की विशेषताएँ

1. इनकी उत्पत्ति मूलांकुर (radicle) से होती है।*

2. यह पौधे का अवरोही (descending) भाग है जो मिट्टी में नीचे की ओर वृद्धि करता है।

3. कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर इनमें कलिकाएं (buds) नहीं पाई जाती।

4. इनका सिरा मूल गोप (root cap) द्वारा सुरक्षित रहता है।

5. इन पर एककोशिकीय रोम (unicellular hairs) होते हैं।*

6. इन पर सन्धियां (nodes) व पर्वसन्धियां (internodes) नहीं पाई जाती।*

7. जड़े नकारात्मक प्रकाशानुवर्ती (Negative photographic), धनात्मक गुरूत्वानुवर्त्ता (Positive geotropic) एवं धनात्मक जलानुवर्ती (Positive hydroscopic) होती हैं।

➤ जड़ के लक्षणों का ज्ञान

1. बाह्यत्वचा को मूलीय त्वचा (epiblema) अथवा पिलीफेरस परत (piliferous layer = rhizodermis) कहते हैं, जिस पर असंख्य एककोशीय (unicellular) कम समय तक जीवित मूलरोम (root hairs) पाये जाते हैं। मूलीय त्वचा पर उपत्वचा (cuticle) तथा रन्ध (stomata) नहीं पाये जाते हैं।*

2. अधस्त्वचा (hypodermis) अनुपस्थित होती है (SSC स्नातक) ।*

3. बल्कुट (cortex) मृदूतक (parenchyma) कोशाओं का बना होता है।

4. अन्तस्त्वचा (endodermis) विकसित होती है।*

5. परिरम्भ (pericycle) मृदूतक (parenchyma) कोशाओं की बनी होती है।

6. संवहन बण्डल (vascular bundles) अरीय (radial) प्रकार के होते हैं।

7. जाइलम की एक्सार्क (exarch) अवस्था होती है अर्थात् प्रोटोजाइलम केन्द्र से दूर तथा मेटाजाइलम केन्द्र की ओर स्थित होते हैं।

8. कैम्बियम का अभाव होता है यद्यपि द्विबीजपत्री जड़ों में यह द्वितीयक वृद्धि के समय बन जाती है।*

9. जाइलम तथा फ्लोएम समूह के मध्य मृदूतक (parenchyma) पाया जाता है। इसको संयोजी ऊतक (connective tissue) कहते हैं।

➤ जड़ों के प्रकार

उत्पत्ति एवं आकार के आधार पर जड़ें दो प्रकार की होती हैं-

1. मूसला जड़ (Tap root)- इस प्रकार की जड़ में मूलांकुर विकसित होकर एक मुख्य जड़ का निर्माण करता है। इस प्रकार की जड़ द्विबीजपत्री पौधों में पाए जाते हैं। मूसला जड़ों के रूपान्तरण हैं-

• शंकु आकार (conical) – यह आधार की ओर मोटी तथा किनारे पर पतली होती है, जैसे-गाजर।

• कुम्भीरूप (napiform)- यह आधार पर अधिक फूल कर गोलाकार तथा शीर्ष पर एकदम पतली हो जाती है, जैसे-शलजम, चुकन्दर।

• तर्करूपी (fusiform) – यह मध्य में फूली हुई और आधार व शीर्ष की ओर पतली होती है, जैसे-मूली

• श्वसन-मूल (Pneumatophores)- यह श्वसन के लिए, द्वितीयक जड़ें, ऋणात्मक गुरुत्वानुवर्ती, समुद्र के लवणीय मृदा में पाए जाते हैं, जैसे-राइजोफोरा, पादप सुंदरी आदि।

2. अपस्थानिक जड़ें (Adventitious roots):

मूलांकुर के अतिरिक्त पादप शरीर के किसी अन्य भाग से विकसित होने वाली जड़ें, अपस्थानिक जड़ (Adventitious) कहलाती हैं। इस प्रकार की जड़ों को अपस्थानिक जड़ तन्त्र (fibrous root system) कहते हैं।* इस प्रकार की जड़ें एक बीजपत्री पौधों में पायी जाती हैं।

अपस्थानिक जड़ों का रूपान्तरण
• कंद गुच्छ मूल (Fasciculated root)
सतावर, डहेलिया, ऑर्किडस।
• साकन्द मूल (Tuberous root)
शकरकंद
• वलीयता मूल (Annulated root)
सिनकोना
• मणिरूपाकार मूल (Beaded root)
अमल लता, घासों में, जंगली अंगूर में
• ग्रंथिल मूल (Nodulose root)
मैगोजिंजर
• जटा मूल (Stilt root)*
मक्का, गन्ना, ज्वार एवं केवड़ा में
• स्तंभ मूल (Prop root)*
बरगद, रबर वृक्ष, राइजोफोरा
• आरोही मूल (Climbing root)*
पान, मनीप्लांट, काली मिर्च
• बटरेस मूल (Buttress root)
बरगद, सेमल, रबर
• परजीवी मूल (Parasite root)
अमर बेल
• वायवीय मूल (Aerial root)
ऑर्किड*
• पर्णमूल (Leafy root)
ब्रायोफिलम *

3. विशेष जैविक कार्य करने वाली जड़ें

• अधिपादपी या वायवीय अवशोषक जड़ें (Epiphytic or aerial absorbing roots)- ये पौधे वायु से नमी अवशोषित करके अपना काम चलाते हैं। इसके लिए इन पौधों में कुछ जड़ें वायु में लटकी रहती हैं; अतः इन्हें वायवीय जड़ें कहते हैं। इन जड़ों को बाहरी पर्तें एक विशेष स्पन्जी ऊतक से बनी होती हैं। यह ऊतक वेलामेन (velamen) कहलाता है तथा वायु की नमी को अवशोषित कर लेता है। उदाहरण-एरॉइड्स (aroids), ऑर्किड्स (orchids) आदि।

4. जनन मूल (Reproductive roots) – अनेक पौधों की जड़ों पर बनी अपस्थानिक कलिकाएँ नए पौधों का निर्माण करती हैं। ऐसी जड़ों को जनन मूल कहते हैं। शकरकन्द (Sweet potato), परवल (Trichosanthes dioeca) इपेकाक (ipecac) आदि में जड़ के टुकड़े (root cutting) ही नए पौधे बनाने के काम आते हैं।* ब्रायोफाइलम (Bryophyllum), बिगोनिया (Begonia) आदि की पत्तियों पर भी अपस्थानिक कलिकाएँ निकलती हैं जिनके आधार से जड़ें निकलकर नए पौधे का निर्माण करती हैं।*

5. परजीवी मूल (Parasitic roots or Haustoria)- कुछ पौधे अपना भोजन स्वयं नहीं बनाते, बल्कि वे दूसरे पौधों पर उगते हैं तथा उन्हीं से अपने लिए भोजन प्राप्त करते हैं। इस प्रकार के पौधे परजीवी (parasitic) कहलाते हैं। परजीवी पौधे जिन पौधों से अपना भोजन प्रापत करते हैं, उन्हें पोषद् (host) कहते हैं। परजीवी पौधों से अनेक छोटी-छोटी जड़े निकलकर पोषद् में धँस जाती हैं और उनसे भोजन अवशोषित करती हैं। ये जड़ें परजीवी मूल या चूषकांग (Parasitic roots or haustoria) कहलाती हैं। पोषद् के अन्दर परजीवी मूल का संवहन ऊतक पोषद् के संवहन ऊतक से सम्बन्धित हो जाता है। इस प्रकार ये जड़ें परजीवी के लिए पोषक पदार्थ चूसने में सफल होती है। जैसे-आकाशबेल* (Cuscuta reflexa), बाँदा (Loranthus), ऑरोबैंकी* आदि।

तना (Stem)

पौधे का वह भाग जो भ्रूण के प्रांकुर (plumule) से विकसित होता है, तना (Stem) कहलाता है। यह गुरुत्वाकर्षण के विपरीत वायवीय होता है। यह धनात्मक प्रकाशानुवर्ती होता है। इस पर पर्व (internode) तथा पर्वसन्धियाँ (node) पायी जाती हैं। पर्वसन्धियों पर पत्तियाँ, वर्धी कलिकाएं (vegetative bud) तथा पुष्प कलिकाएँ (flower bud) लगी होती हैं।

➤ तने की विशेषताएँ :

(i) इसका विकास प्रांकुर से होता है;

(ii) यह पौधे का आरोही (ascending) भाग है जो प्रायः भूमि के ऊपर प्रकाश की ओर बढ़ता है (कुछ अपवादों को छोड़कर);

(iii) इससे शाखाएं, पत्तियां व पुष्प निकलते हैं;

(iv) शीर्ष पर शीर्षस्थ कलिका (apical bud) होती है, जिसके द्वारा यह लम्बाई में वृद्धि करता है;

(v) रोम आदि यदि पाये जाते हैं तो बहुकोशिकीय होते हैं।

(vi) तनों में निश्चित पर्वसन्धियां (nodes) तथा पर्व (in- ternodes) होते हैं। शाखाएं व पत्तियां प्रायः पर्वसंधियों से ही निकलते हैं।

➤ तना के प्रकार (Types of stem)

तने मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं-

1. भूमिगत तने
2. अर्धवायवीय तने
3. वायवीय तने

1. भूमिगत तने (Underground stems)- तने का वह भाग जो भूमि के अन्दर पाया जाता है, भूमिगत तना कहलाता है। भूमिगत तने में पर्वसन्धियां (nodes) एवं कलिकाएं तथा शल्क पत्र पाये जाते हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों में भूमिगत तना भोजन संग्रह के कारण मोटा एवं मांसल हो जाता है।

भूमिगत तने (underground stems) अनेक प्रकार के हाते हैं-

(i) कन्द (Tuber), जैसे-आलू ।*

(ii) शल्ककन्द (Bulb), जैसे-प्याज, लहसुन* लिली।

(iii) धनकंद (Corm), जैसे-बण्डा, अरबी, जिमीकंद, केसर।

(iv) प्रकन्द (Rhizome), जैसे-हल्दी, अदरक, केली,केला, फर्न।

2. अर्द्धवायवीय रूपान्तरित तने (Modified Subaerial Stems):

कुछ पौधों के तने कमजोर तथा मुलायम होते हैं। ये पृथ्वी की सतह के ऊपर या आंशिक रूप से मिट्टी के नीचे रेंगकर वृद्धि करते हैं। ये तने कायिक प्रजनन (vegetative propagation) में भाग लेते हैं। इनकी पर्वसन्धियों से अपस्थानिक जड़े निकलकर मिट्टी में चली जाती हैं। पर्व के नष्ट होने या कट जाने पर नए पौधे बन जाते हैं। ये निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-

(i) ऊपरिभूस्तारी (runner), जैसे- ब्रह्मी बूटी, दूब घास आदि।

(ii) स्टोलॉन (stolon), जैसे- अरबी, स्ट्रावेरी।

(iii) भूस्तारी (Offset), जैसे-जलकुम्भी, पिस्टिया।

(iv) अन्तः भूस्तारी (Sucker), जैसे- सेवन्ती, गुलदाउदी,पोदीना।

3. वायवीय रूपान्तरित तने (Modified Aerial Stems):

कुछ पौधों में तने का वायवीय भाग विभिन्न कार्यों के लिए रूपान्तरित हो जाता है। रूपान्तरण के फलस्वरूप इन्हें तना कहना आसान नहीं होता है। इनकी स्थिति एवं उद्भव के आधार पर ही इनकी पहचान होती है। ये निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-

(i) स्तम्भ प्रतान (Stem tendril), जैसे-अंगूर, कुकरबिटा, आदि।

(ii) स्तम्भ शूल (stem thom), जैसे-नींबू, बेर

(iii) पर्णाभ स्तम्भ (phylloclade), जैसे-नागफनी, कैक्टाई, अनेक यूफोर्बिया

(iv) पत्र-प्रकलिका (bulbils), जैसे-लहसुन, केतकी, रतालू, अनन्नास।

जड़ तथा तने की आन्तरिक संरचना में भिन्नता
ऊतक
जड़ (Root)
स्तम्भ (Stem)
1. अधिचर्म स्तर (Epidermis)
इस पर एक कोशिकीय रोम होते हैं। उपचर्म (cuticle) कभी नहीं होता।
रोम यदि है तो बहु कोशिकीय, उपचर्म (cuticle) प्रायः उपस्थित होता।*
2. भरण ऊतक तंत्र (Ground Tissue system)
(क) अधस्त्वचा (Hypodermis)
(ख) वल्कुट (Cortex)
(ग) अन्तस्त्वचा (Endodermis)
(घ) परिरम्भ (Pericycle)
(ङ) मज्जा किरणें (Medullary Rays)
(च) मज्जा (Pith)
सदैव ही वल्कुट, अन्तस्त्वचा, परिरम्भ, मज्जा में विभेदित होता है।
• अनुपस्थित होती है।*
• सदैव काफी विकसित होता है।*
• सदैव उपस्थित, कभी-कभी भित्तियाँ स्थूल होती हैं।
• एक कोशिका मोटा मृदूतकी स्तर होता है। पार्श्व मूलों को जन्म देता है।
• अनुपस्थित होती हैं।*
• यदि उपस्थित तो अपेक्षाकृत छोटी व सदैव मृदूतक की बनी होती है।
अधस्त्वचा (Hypodermis) के अतिरिक्त अन्य ऊतकों का विभेदित होना आवश्यक नहीं है।
• अधिकतर यान्त्रिक ऊतकों की बनी, सदैव उपस्थित।*
• अस्पष्ट या दो-चार कोशिका मोटा ही स्तर होता है।
• अधिक स्पष्ट नहीं या फिर अनुपस्थित होती है।*
• यदि उपस्थित तो अनेक कोशिका मोटा, अधिकतर दृढ़ोतक का बना होता है।
• यदि उपस्थित तो मृदूतफी होती हैं।
• बड़ी साधारणतः मृदूतकी, कभी-कभी दृढ़ोतकी होती है।
3. संवहन ऊतक तंत्र (vascular tissue System)
अरीय पूल प्रारम्भिक अवस्था में, एधा (Cambium) सदैव अनुपस्थित रहती है।*
संयुक्त कोलेटरल या बाइकोलेटरल होते हैं। वर्षी या अवर्धी।
4. जाइलम
बाह्य-आदिदारुक (exarch) होता है।
मध्य आदिदारुक (endarch) होता है।

पत्ती (The Leaf)

पत्ती पौधे का एक महत्त्वपूर्ण वर्धी अंग है। पत्तियाँ तने की पर्वसन्धियों (nodes) से उत्पन्न हरी पार्श्वीय चपटी संरचना होती है। पत्ती के कक्ष में कक्षस्थ कलिका होती है। पत्तियाँ अग्राभिसारी क्रम में लगी होती हैं।

पत्तियों के कार्य-

(i) पत्तियों का प्रमुख कार्य प्रकाश संश्लेषण द्वारा भोजन बनाना है।

(ii) पत्तियाँ रन्ध्रों की सहायता से श्वसन में सहायता करती हैं।

(iii) कुछ पत्तियाँ प्रतान का रूप धारण करके आरोहण में सहायता करती हैं।

(iv) पत्तियाँ वर्धी प्रजनन एवं परागण में मदद करती है।

(v) कुछ पत्तियाँ भोजन संग्रह करने का कार्य करती हैं।

➤ पत्तियों के रूपान्तरण (Modification of Leaf)

1. पर्ण कंटक (leaf spines)- इसमें पत्तियाँ काँटों का रूप ले लेती हैं, जैसे-नागफनी, नींबू आदि।

2. पुष्पीय पत्र (floral leaves)- इसके अन्तर्गत बाह्यदल पुंज, दलपुंज आदि सभी पुष्पीय कार्य करते हैं।

3. सहपत्र (bract)- इसमें पत्ती रंगीन होकर कीटों को आकर्षित करने का काम करती है।

4. शल्कपत्र (scaly leaves)- कभी-कभी पत्तियाँ कलिकाओं तथा अन्य अंगों की सुरक्षा के लिए परिवर्तित हो जाती हैं, जिसे शल्कपत्र कहते हैं, जैसे-अदरक, अरबी आदि। कभी-कभी शल्कपत्र भोज्य पदार्थों को संचित करने का कार्य करते हैं, जैसे-लहसुन, प्याज आदि।

5. पर्ण मूल (leaf roots)- इसमें पत्तियाँ जड़ों में रूपान्तरित हो जाती हैं, जैसे-साल्वीनीया आदि।

6. पर्ण प्रतान (leaf tendril)- इसमें पत्तियाँ प्रतान या लता का रूप धारण कर लेती हैं, जैसे-मटर आदि।

7. संग्रहण पत्रक (storage leaves)- इसमें पत्तियाँ भोज्य पदार्थों के संग्रहित करने के लिए मोटी एवं मांसल हो जाती है।

8. घटपर्ण (pitcher)- इसमें पत्तियाँ कीटों को पकड़ने के लिए थैले के समान आकृति में परिवर्त्तित हो जाती है, जैसे- निपेन्थीज।

9. ब्लैडर (bladder)- इसमें पत्तियाँ जलीय कीटो को पकड़ने के लिए ब्लैडर में बदल जाती हैं, जैसे-यूट्रीकुलेरिया आदि।

10. पर्ण अंकुश (leaf hooks)- इसमें पत्तियाँ नाखूनों के समान मुड़ जाती हैं, जैसे-बिग्नोनिया।

एकबीजपत्री पत्ती (Monocotyledon Leaf)
द्विबीजपत्री (Dicotyledon Leaf)
• दोनों सतहों पर स्टोमेटा पाये जाते हैं।
• सिर्फ निचली सतह पर ही स्टोमेटा पाये जाते हैं।
• बाह्यत्वचा में बुलीफार्म कोशिकाएं पायी जाती हैं।
• बाह्यत्वचा में इन कोशिकाओं का सर्वथा अभाव होता है।
• समद्विपाश्र्विक प्रकार की पत्ती पायी जाती है।
• पृष्ठधारी (dorsiventral) प्रकार की पत्ती पायी जाती है।

जड़ों, तनों तथा पत्तियों में विशिष्ट अनुकूलन

पौधों की बाह्य तथा आन्तरिक संरचना पर उनके वातावरण का प्रभाव पड़ता है। पौधों में अपने आपको वातावरण में समायोजित करने की सामर्थ्य होती है, जिसे अनुकूलन (adaptation) कहते हैं। दूसरे शब्दों में पौधों में अनुकूलन से तात्पर्य उन विशेष बाह्य अथवा आन्तरिक लक्षणों से है जिनके कारण पौधे किसी विशेष वातावरण में रहने, वृद्धि करने, फलने-फूलने तथा प्रजनन के लिये पूर्णतया सक्षम होते हैं और अपना जीवन चक्र पूरा करते हैं।

पारिस्थितिकीय वर्गीकरण के अनुसार पौधों को निम्नलिखित वर्गों में बाँटा जा सकता है-

1. जलोद्भिद् (Hydrophytes), 2. शुष्कोद्भिद् (Xerophytes),
3. मध्योद्भिद् (Mesophytes), 4. लवणोद्भिद् (Halophytes) ।

➤  जलोद्भिद (Hydrophytes)

ये पौधे बहुत अधिक जल वाले स्थानों पर पाये जाते हैं। जलोद्भिद् पौधे पूर्णतया जल निमग्न (submerged) होते हैं अथवा – इनके कुछ भाग, जैसे-जड़ (root), प्रकंद (rhizome) आदि पानी के सम्पर्क में रहते हैं। जलीय पौधों में अनेक ऐसी विशेषताएँ अथवा अनुकूलन होते हैं जिनके कारण ही ये जल में रहने के लिये समर्थ होते हैं। इनकी परीक्षापयोगी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं। यथा-

• जलीय पौधों का शरीर जल के सम्पर्क में रहता हैं, जिससे जल अवशोषण के लिये जड़ों की आवश्यकता नहीं रह जाती। अतः जड़ें बहुत कम विकसित अथवा अनुपस्थित होती हैं। मूलरोम (root hairs) तथा मूलगोप (root caps) अनुपस्थित अथवा कम विकसित होते हैं।

• जलीय पौधे प्रायः बहुवर्षीय (perennials) होते हैं।
• अधिकतर जलीय पौधों में भोजन प्रायः प्रकन्दों (rhizomes) में संचित रहता है।

• अधिकांश जलीय पौधों में वर्धी प्रजनन (vegetative reproduction) तीव्रता से होता है।

• जलीय पौधों में द्वितीयक वृद्धि (secondary growth) नहीं होती।

• जलीय पौधों में पूर्ण शरीर पर श्लेष्मिक आवरण होता है, जिससे पौधे पानी में गल नहीं पाते।

➤ मरुद्भिद (Xerophytes)

शुष्कोद्भिद् पौधे शुष्क वासस्थानों (xeric habitats) में पाये जाने वाले पौधे हैं। ऐसे वातावरण में भूमि में या तो जल वास्तव में उपस्थित ही नहीं होता या बहुत कम होता है। इसको भौतिक शुष्कता (physical dryness) कहते हैं। कभी-कभी जल तो पर्याप्त मात्रा में होता है, परन्तु कई कारणों से पौधा उसको अवशोषित नहीं कर सकता। इसको कार्यिकीय शुष्कता (physiological dryness) कहते हैं। वायु में आर्द्रता का अभाव, वायु की तेजी, तापक्रम की उच्चता, प्रकाश का आधिक्य तथा उपरोक्त दोनों प्रकार की शुष्कताएँ सब मिलकर वातावरण को शुष्क बना देते हैं। अतः मरुद्भिदों में इस प्रकार के अनुकूलन या विशेषताएँ उत्पन्न होती हैं, जिनके कारण पौधे मृदा से अधिक जल का अवशोषण करते हैं, वाष्पोत्सर्जन की क्रिया को नियन्त्रित करके पानी की हानि को रोकते हैं तथा जल की अधिक से अधिक मात्रा का संचय करते हैं। इन अनुकूलनों के कारण ही पौधे शुष्क वातावरणीय दशाओं अथवा जल की कमी वाले स्थानों पर रहने के लिए सक्षम (capable) होते हैं। ये अनुकूलन अग्रलिखित हैं-

• जीरोफाइट्स में जड़ तन्त्र अधिक विकसित होता है।

• जड़ों में मूलरोम एवं मूलगोप (root hairs & caps) भली प्रकार विकसित होते हैं। कभी-कभी जड़े मांसल होकर जल संचय भी करती हैं।

• अधिकांश पौधों में तना प्रायः छोटा, काष्ठीय, शुष्क, कठोर तथा मोटी छाल से ढका होता है। कुछ पौधों में तना घटकर बल्ब का रूप ले लेता है। कभी-कभी तना चौड़ा व माँसल हो जाता है और पत्तियों का कार्य करता है, जिसे पर्णकाय स्तम्भ (phyllo- clade) कहते हैं।

• कभी-कभी पत्तियाँ कांटो में बदल जाती हैं, तो कभी मांसल होकर जल संग्रह का कार्य करती हैं। जैसे-क्रमशः नागफनी एवं घीक्वार (Aloe) ।

➤ मध्योद्भिद् (Mesophytes)

मध्योद्भिद् पौधे उन स्थानों पर उगते हैं, जहाँ की जलवायु न तो बहुत शुष्क है और न ही बहुत नम है तथा ताप व वायुमण्डल की आपेक्षिक आर्द्रता (relative humidity) भी साधारण होती हैं। ये पौधे शाक, झाड़ी तथा वृक्ष सभी रूपों में होते हैं, उदाहरण-गेहूँ, चना मक्का, गुड़हल, आम शीशम, जामुन आदि। यद्यपि इन पौधों में जलोद्भिद् तथा मरुद्भिद् पौधों की भाँति विशिष्ट रचनात्मक या क्रियात्मक अनुकूलन तो नहीं होते, परन्तु कुछ अर्थों में ये जलोद्भिद् व मरुद्भिद् पौधों के बीच की स्थिति रखते हैं।

➤ लवणोद्भिद् (Halophytes)

ये विशेष प्रकार के मरु‌द्भिद् पौधे हैं, जो ऐसे स्थानों पर उगते हैं जहाँ पर जल अथवा मिट्टी में लवणों, जैसे NaCl, MgCl₂ तथा MgSO4 की अधिक सान्द्रता होती है। इस प्रकार की भूमि कार्यिकी की दृष्टि से शुष्क (physiologically dry) होती है।* अधिक लवण पौधों के लिये हानिकारक होते हैं। अतः लवणोद्भिद् पौधों में ऐसे अनुकूलन होते हैं जिनके कारण इनमें वरणात्मक अवशोषण (selective reabsorption) अधिक होता है, सोडियम क्लोराइड की अधिकता (0.5% या अधिक सान्द्रता) को सहने की सामर्थ्य होती है तथा अधिक लवणों वाली उस भूमि में उगने व वृद्धि करने की क्षमता होती है, जिसमें सामान्य पौधों का रह पाना असम्भव है। हमारे देश में मुम्बई, केरल तथा अण्डमान व निकोबार द्वीप समूहों के समुद्रतटीय वेलांचली अनूप वनों (littoral swamp forest) को मेन्ग्रोव वनस्पति (mangrove vegetation) कहते हैं। इन पौधों के मुख्य अनुकूलन इस प्रकार हैं-

• लवणो‌द्भिद् पौधों की जड़ें दो प्रकार की होती हैं- वायवीय (aerial) तथा भूमिगत् (subterranean)। वायवीय जड़ें दलदल से बाहर सीधी निकल जाती हैं और खूँटों जैसी रचनाओं के रूप में दिखायी देती हैं। ये जड़ें ऋणात्मक गुरुत्वाकर्षी होती हैं इन पर अनेक छिद्र होते हैं। ये जड़ें श्वसन का कार्य करती हैं, इन्हें श्वसन मूल (pneumatophores) कहते हैं, जैसे सोनेरेशिया तथा एवीसीनिया आदि श्वसन मूलों द्वारा ग्रहण की गयी ऑक्सीजन न केवल जल निमग्न जड़ों के काम आती है, बल्कि इसे उस रुके लवणीय जल में रहने वाले जन्तु भी प्रयुक्त करते हैं।

• मेन्ग्रोव पौधों में पितृस्थ अंकुरण (vivipary) एक विशिष्ट अनुकूलन है।* प्रायः बीजों को अंकुरित होने के लिये ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। लवणीय दलदल में ऑक्सीजन की कमी होती है। अतः बीज, मातृ पौधे पर फल के अन्दर रहते हुए ही अंकुरित हो जाते हैं। इस गुण को पितृस्थ अंकुरण (vivipary) कहते हैं।*

यह भी पढ़ें : पादप जगत : अध्याय – 2 , भाग – 4

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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