मुग़ल – सोलहवीं से सत्रहवीं शताब्दी : अध्याय 4

मध्यकाल में किसी भी शासक के लिए भारतीय उपमहाद्वीप जैसे बड़े क्षेत्र पर, जहाँ लोगों एवं संस्कृतियों में इतनी अधिक विविधताएँ हो, शासन कर पाना अत्यंत ही कठिन कार्य था। अपने पूर्ववर्तियों के विपरीत मुग़लों ने एक साम्राज्य की स्थापना की और वह कार्य पूरा किया, जो अब तक केवल छोटी अवधियों के लिए ही संभव जान पड़ता था। सोलहवीं सदी के उत्तरार्ध से, इन्होंने दिल्ली और आगरा से अपने राज्य का विस्तार शुरू किया और सत्रहवीं शताब्दी में लगभग संपूर्ण महाद्वीप पर अधिकार प्राप्त कर लिया। उन्होंने प्रशासन के ढाँचे तथा शासन संबंधी जो विचार लागू किए, वे उनके राज्य के पतन के बाद भी टिके रहे। यह एक ऐसी राजनैतिक धरोहर थी, जिसके प्रभाव से उपमहाद्वीप में उनके पश्चात् आने वाले शासक अपने को अछूता न रख सके। आज भारत के प्रधानमंत्री, स्वतंत्रता दिवस पर मुग़ल शासकों के निवासस्थान, दिल्ली के लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करते हैं।

मुग़ल कौन थे?

मुग़ल दो महान शासक वंशों के वंशज थे। माता की ओर से वे मंगोल शासक चंगेज़ खान जो चीन और मध्य एशिया के कुछ भागों पर राज करता था, के उत्तराधिकारी थे। पिता की ओर से वे ईरान, इराक एवं वर्तमान तुर्की के शासक तैमूर (जिसकी मृत्यु 1404 में हुई) के वंशज थे। परंतु मुग़ल अपने को मुग़ल या मंगोल कहलवाना पसंद नहीं करते थे। ऐसा इसलिए था, क्योंकि चंगेज ख़ान से जुड़ी स्मृतियाँ सैंकड़ों व्यक्तियों के नरसंहार से संबंधित थीं। यही स्मृतियाँ मुग़लों के प्रतियोगियों उज़बेगों से भी संबंधित थीं। दूसरी तरफ़, मुग़ल, तैमूर के वंशज होने पर गर्व का अनुभव करते थे, ज्यादा इसलिए क्योंकि उनके इस महान पूर्वज ने 1398 में दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया था।

उन्होंने अपनी वंशावली का प्रदर्शन चित्र बनवाकर किया। प्रत्येक मुग़ल शासक ने तैमूर के साथ अपना चित्र बनवाया।

मुग़ल सैन्य अभियान

प्रथम मुग़ल शासक बाबर (1526-1530) ने जब 1494 में फरघाना राज्य का उत्तराधिकार प्राप्त किया, तो उसकी उम्र केवल बारह वर्ष की थी। मंगोलों की दूसरी शाखा, उज़बेगों के आक्रमण के कारण उसे अपनी पैतृक गद्दी छोड़नी पड़ी। अनेक वर्षों तक भटकने के बाद उसने 1504 में काबुल पर कब्ज़ा कर लिया।

उसने 1526 में दिल्ली के सुलतान इब्राहिम लोदी को पानीपत में हराया और दिल्ली और आगरा को अपने कब्ज़े में कर लिया।

सोलहवीं शताब्दी के युद्धों में तोप और गोलाबारी का पहली बार इस्तेमाल हुआ। बाबर ने इनका पानीपत की पहली लड़ाई में प्रभावी ढंग से प्रयोग किया।

उत्तराधिकार की मुग़ल परंपराएँ

मुग़ल ज्येष्ठाधिकार के नियम में विश्वास नहीं करते थे जिसमें ज्येष्ठ पुत्र अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकारी होता था। इसके विपरीत, उत्तराधिकार में वे सहदायाद की मुग़ल और तैमूर वंशों की प्रथा को अपनाते थे जिसमें उत्तराधिकार का विभाजन समस्त पुत्रों में कर दिया जाता था। आपके अनुसार उत्तराधिकार का कौन-सा तरीका सही था- ज्येष्ठाधिकार या सहदायाद?

मुग़लों के अन्य शासकों के साथ संबंध

मुग़लों ने उन शासकों के विरुद्ध लगातार अभियान किए, जिन्होंने उनकी सत्ता को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। जब मुगल शक्तिशाली हो गए तो अन्य कई शासकों ने स्वेच्छा से उनकी सत्ता स्वीकार कर ली। राजपूत इसका एक अच्छा उदाहरण हैं। अनेकों ने मुग़ल घराने में अपनी पुत्रियों के विवाह करके उच्च पद प्राप्त किए। परंतु कइयों ने विरोध भी किया।

मेवाड़ के सिसोदिया राजपूत लंबे समय तक मुग़लों की सत्ता को स्वीकार करने से इंकार करते रहे, परंतु जब वे हारे तो मुग़लों ने उनके साथ सम्माननीय व्यवहार किया और उन्हें उनकी जागीरें (वतन), वतन जागीर के रूप में वापिस कर दीं। पराजित करने परंतु अपमानित न करने के बीच सावधानी से बनाए गए संतुलन की वजह से मुग़ल भारत के अनेक शासकों और सरदारों पर अपना प्रभाव बढ़ा पाए। परंतु इस संतुलन को हमेशा बरकरार रखना कठिन था।

मनसबदार और जागीरदार

जैसे-जैसे साम्राज्य में विभिन्न क्षेत्र सम्मिलित होते गए, वैसे-वैसे मुग़लों ने तरह-तरह के सामाजिक समूहों के सदस्यों को प्रशासन में नियुक्त करना आरंभ किया। शुरू-शुरू में ज्यादातर सरदार, तुर्की (तूरानी) थे, लेकिन अब इस छोटे समूह के साथ-साथ उन्होंने शासक वर्ग में ईरानियों, भारतीय मुसलमानों, अफ़गानों, राजपूतों, मराठों और अन्य समूहों को सम्मिलित किया। मुग़लों की सेवा में आने वाले नौकरशाह ‘मनसबदार’ कहलाए।

‘मनसबदार’ शब्द का प्रयोग ऐसे व्यक्तियों के लिए होता था, जिन्हें कोई मनसब यानी कोई सरकारी हैसियत अथवा पद मिलता था। यह मुग़लों द्वारा चलाई गई श्रेणी व्यवस्था थी, जिसके जरिए (1) पद; (2) वेतन; एवं (3) सैन्य उत्तरदायित्व, निर्धारित किए जाते थे। पद और वेतन का निर्धारण जात की संख्या पर निर्भर था। जात की संख्या जितनी अधिक होती थी, दरबार में अभिजात की प्रतिष्ठा उतनी ही बढ़ जाती थी और उसका वेतन भी उतना ही अधिक होता था।

जो सैन्य उत्तरदायित्व मनसबदारों को सौंपे जाते थे उन्हीं के अनुसार उन्हें घुड़सवार रखने पड़ते थे।

मनसबदार अपने सवारों को निरीक्षण के लिए लाते थे। वे अपने सैनिकों के घोड़ों को दगवाते थे एवं सैनिकों का पंजीकरण करवाते थे। इन कार्यवाहियों के बाद ही उन्हें सैनिकों को वेतन देने के लिए धन मिलता था।

मनसबदार अपना वेतन राजस्व एकत्रित करने वाली भूमि के रूप में पाते थे, जिन्हें जागीर कहते थे और जो तकरीबन ‘इक़्ताओं के समान थीं। परंतु मनसबदार, मुक्तियों से भिन्न, अपने जागीरों पर नहीं रहते थे और न ही उन पर प्रशासन करते थे। उनके पास अपनी जागीरों से केवल राजस्व एकत्रित करने का अधिकार था। यह राजस्व उनके नौकर उनके लिए एकत्रित करते थे, जबकि वे स्वयं देश के किसी अन्य भाग में सेवारत रहते थे।

अकबर के शासनकाल में इन जागीरों का सावधानीपूर्वक आकलन किया जाता था, ताकि इनका राजस्व मनसबदार के वेतन के तकरीबन बराबर रहे। औरंगजेब के शासनकाल तक पहुँचते-पहुँचते स्थिति बदल गई। अब प्राप्त राजस्व, मनसबदार के वेतन से बहुत कम था। मनसबदारों की संख्या में भी अत्यधिक वृद्धि हुई, जिसके कारण उन्हें जागीर मिलने से पहले एक लंबा इंतजार करना पड़ता था। इन सभी कारणों से जागीरों की संख्या में कमी हो गई। फलस्वरूप कई जागीरदार, जागीर रहने पर यह कोशिश करते थे कि वे जितना राजस्व वसूल कर सकें, कर लें। अपने शासनकाल के अंतिम वर्षों में औरंगजेब इन परिवर्तनों पर नियंत्रण नहीं रख पाया। इस कारण किसानों को अत्यधिक मुसीबतों का सामना करना पड़ा।

ज़ब्त और ज़मीदार

मुग़लों की आमदनी का प्रमुख साधन उपज किसानों की से मिलने वाला राजस्व था। अधिकतर स्थानों पर किसान ग्रामीण कुलीनों यानी कि मुखिया या स्थानीय सरदारों के माध्यम से राजस्व देते थे। समस्त मध्यस्थों के लिए, चाहे वे स्थानीय ग्राम के मुखिया हों या फिर शक्तिशाली सरदार हों, मुग़ल एक ही शब्द-ज़मीदार का प्रयोग करते थे।

अकबर के राजस्वमंत्री टोडरमल ने दस साल (1570-1580) की कालावधि के लिए कृषि की पैदावार, कीमतों और कृषि भूमि का सावधानीपूर्वक सर्वेक्षण किया। इन आँकड़ों के आधार पर, प्रत्येक फ़सल पर नकद के रूप में कर (राजस्व) निश्चित कर दिया गया। प्रत्येक सूबे (प्रांत) को राजस्व मंडलों में बाँटा गया और प्रत्येक की हर फ़सल के लिए राजस्व दर की अलग सूची बनायी गई। राजस्व प्राप्त करने की इस व्यवस्था को ‘ज़ब्त’ कहा जाता था। यह व्यवस्था उन स्थानों पर प्रचलित थी जहाँ पर मुग़ल प्रशासनिक अधिकारी भूमि का निरीक्षण कर सकते थे और सावधानीपूर्वक उनका हिसाब रख सकते थे। ऐसा निरीक्षण गुजरात और बंगाल जैसे प्रांतों में संभव नहीं हो पाया।

कुछ क्षेत्रों में जमीदार इतने शक्तिशाली थे कि मुग़ल प्रशासकों द्वारा शोषण किए जाने की स्थिति में वे विद्रोह कर सकते थे। कभी-कभी एक ही जाति के जमीदार और किसान मुग़ल सत्ता के खिलाफ़ मिलकर विद्रोह कर देते थे। सत्रहवीं शताब्दी के आखिर से ऐसे किसान विद्रोहों ने मुग़ल साम्राज्य के स्थायित्व को चुनौती दी।

शाहजहाँ के राज-काल के एक लघु चित्र के ब्यौरे। यहाँ जहाँगीर के समय के भ्रष्टाचार को दिखाया गया है- (1) भ्रष्ट अफ़सर रिश्वत लेते हुए: (2) एक कर अधिकारी गरीब किसानों को सजा देते हुए।

अकबर नामा और आइने-अकबरी

अकबर ने अपने करीबी मित्र और दरबारी अबुल फ़ज़्ल को आदेश दिया कि वह उसके शासनकाल का इतिहास लिखे। अबुल फ़ज़्ल ने यह इतिहास तीन ज़िल्दों में लिखा और इसका शीर्षक है अकबरनामा। पहली ज़िल्द में अकबर के पूर्वजों का बयान है और दूसरी अकबर के शासनकाल की घटनाओं का विवरण देती है। तीसरी जिल्द आइने-अकबरी है। इसमें अकबर के प्रशासन, घराने, सेना, राजस्व और साम्राज्य के भूगोल का ब्यौरा मिलता है। इसमें समकालीन भारत के लोगों – की परंपराओं और संस्कृतियों का भी विस्तृत वर्णन है। आइने-अकबरी का सब से रोचक आयाम है, विविध प्रकार की चीज़ों- फ़सलों, पैदावार, कीमतों, मज़दूरी और राजस्व का सांख्यिकीय विवरण।

जहाँगीर के दरबार पर नूरजहाँ का प्रभाव

मेहरुन्निसा ने 1611 में जहाँगीर से विवाह किया और उसे नूरजहाँ का खिताब मिला। नूरजहाँ हमेशा जहाँगीर के प्रति अत्यधिक वफ़ादार रही और उसको समय-समय पर सहयोग देती रही। नूरजहाँ के सम्मान में जहाँगीर ने चाँदी के सिक्के जारी किए, जिनमें एक ओर स्वयं के खिताब उत्कीर्ण थे और दूसरी ओर यह वाक्यः ‘रानी बेगम नूरजहाँ के नाम से गढ़ा हुआ।’

बाईं ओर दिया गया दस्तावेज़, नूरजहाँ द्वारा जारी किया गया आदेश (फ़रमान) है। चौकोर मोहर बताती है- ‘उदात्त और महान महारानी नूरजहाँ पादशाह बेगम का आदेश’। गोल मोहर के अनुसार, ‘शाह जहाँगीर के प्रताप से महारानी, चन्द्रमा जैसी वैभवशाली बन गईः हम कामना करते हैं कि नूरजहाँ पादशाह इस युग की सर्वोत्तम महिला बने’

सुलह-ए-कुल

अकबर की सुलह-ए-कुल की नीति का उनके पुत्र जहाँगीर ने इस प्रकार वर्णन किया है:

ईश्वरीय अनुकंपा के विस्तृत आँचल में सभी वर्गों और सभी धर्मों के अनुयायियों की एक जगह है। इसलिए… उसके विशाल साम्राज्य में, जिसकी चारों ओर की सीमाएँ केवल समुद्र से ही निर्धारित होती थी विरोधी धर्मों के अनुयायियों और तरह-तरह के अच्छे-बुरे विचारों के लिए जगह थी। यहाँ असहिष्णुता का मार्ग बंद था। यहाँ सुन्नी और शिया एक ही मसजिद में इकट्ठे होते थे और ईसाई और यहूदी एक ही गिरजे में प्रार्थना करते थे। उसने सुसंगत तरीके से ‘सार्विक शांति’ (सुलह-ए-कुल) के सिद्धांत का पालन किया।

सत्रहवीं शताब्दी में और उसके पश्चात मुग़ल साम्राज्य

मुग़ल साम्राज्य की प्रशासनिक और सैनिक कुशलता के फलस्वरूप आर्थिक और वाणिज्यिक समृद्धि में वृद्धि हुई। विदेशी यात्रियों ने इसे वैसा धनी देश बताया, जैसा कि किस्से-कहानियों में वर्णित होता रहा है। परंतु यही यात्री इसी प्रचुरता के साथ मिलने वाली दरिद्रता को देखकर विस्मित रह गए। सामाजिक असमानताएँ साफ़ दिखाई पड़ती थीं। शाहजहाँ के शासनकाल के बीसवें वर्ष के दस्तावेज़ों से हमें पता चलता है कि ऐसे मनसबदार, जिनको उच्चतम पद प्राप्त था, कुल 8000 में से 445 ही थे। कुल मनसबदारों की एक छोटी संख्या 5.6 प्रतिशत को ही साम्राज्य के अनुमानित राजस्व का 61.5 प्रतिशत, स्वयं उनके व उनके सवारों के वेतन के रूप में दिया जाता था।

मुग़ल सम्राट और उनके मनसबदार अपनी आय का बहुत बड़ा भाग वेतन और वस्तुओं पर लगा देते थे। इस ख़र्चे से शिल्पकारों और किसानों को लाभ होता था, चूँकि वे वस्तुओं और फ़सल की पूर्ति करते थे। परंतु राजस्व का भार इतना था कि प्राथमिक उत्पादकों-किसान और शिल्पकारों-के पास निवेश के लिए बहुत कम धन बचता था। इनमें से जो बहुत गरीब थे, मुश्किल से ही पेट भर पाते थे। वे उत्पादन शक्ति बढ़ाने के लिए अतिरिक्त संसाधनों में – औज़ारों और अन्य वस्तुओं में निवेश करने की बात सोच भी नहीं सकते थे। ऐसी अर्थव्यवस्था में ज्यादा धनी किसान, शिल्पकारों के समूह, व्यापारी और महाजन ज़्यादा लाभ उठाते थे।

मुग़लों के कुलीन वर्ग के हाथों में बहुत धन और संसाधन थे, जिनके कारण सत्रहवीं सदी के अंतिम वर्षों में वे अत्यधिक शक्तिशाली हो गए। जैसे – जैसे मुग़ल सम्राट की सत्ता पतन की ओर बढ़ती गई, वैसे-वैसे विभिन्न क्षेत्रों में सम्राट के सेवक, स्वयं ही सत्ता के शक्तिशाली केंद्र बनने लगे। इनमें से कुछ ने नए वंश स्थापित किए और हैदराबाद एवं अवध जैसे प्रांतों में अपना नियंत्रण जमाया। यद्यपि वे दिल्ली के मुग़ल सम्राट को स्वामी के रूप में मान्यता देते रहे, तथापि अठारहवीं शताब्दी तक साम्राज्य के कई प्रांत अपनी स्वतंत्र राजनैतिक पहचान बना चुके थे।

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फिर से याद करें

1. सही जोड़े बनाएँ:

व्यक्तिसंबंध
मनसबमारवाड़
मंगोलउज़बेग
सिसौदिया राजपूतमेवाड़
राठौर राजपूतपद
नूरजहाँजहाँगीर

Ans.

मनसबपद
मंगोलउज़बेग
सिसौदिया राजपूतमेवाड़
राठौर राजपूतमारवाड़
नूरजहाँजहाँगीर

2. रिक्त स्थान भरें:

(क) दक्कन की पाँचों सल्तनत बरार, खानदेश, अहमद नगर, बीजापुर और गोलकुंडा थीं।

(ख) यदि जात एक मनसबदार के पद और वेतन का द्योतक था, तो सवार उसके सैन्य उत्तरदायित्व को दिखाता था।

(ग) अकबर के दोस्त और सलाहकार, अबुल फ़ज़्ल ने उसकी सुलह-ए-कुल के विचार को गढ़ने में मदद की जिसके द्वारा वह विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों और जातियों से बने समाज पर राज्य कर सका।

3. मुग़ल राज्य के अधीन आने वाले केंद्रीय प्रांत कौन-से थे?
Ans.
दिल्ली और आगरा

4. मनसबदार और जागीर में क्या संबंध था।
Ans.
मनसबदार को जमीन दी जाती थी जिससे वे लगान या राजस्व वसूलते थे और यही उसका वेतन होता था। इस भूमि को जागीर कहते थे। मनसबदार अपनी जागीरों में नहीं रहते थे और न ही उस पर प्रशासन करते थे। मनसबदार का नोकर लगान वसूलता था और मनसबदार देश के किसी अन्य हिस्से में अपनी सेवा देता था।

5. मुग़ल प्रशासन में जमींदार की क्या भूमिका थी?
Ans.
मुगल प्रशासन में मुखिया या स्थानीय सरदार को जमींदार कहा जाता था। किसान अपना लगान इन्हीं जमींदारों के माध्यम से जमा कराते थे।

6. शासन-प्रशासन संबंधी अकबर के विचारों के निर्माण में धार्मिक विद्वानों से होने वाली चर्चाएँ कितनी महत्त्वपूर्ण थीं?
Ans.
अकबर ने फतेहपुर सीकरी में विभिन्न धर्मों के विद्वानों से चर्चा करने के बाद यह मत बनाया कि मतांधता और कट्टरपंथ से दूर रहना चाहिए। अकबर को लगता था कि हर धर्म के प्रति सहिष्णुता होने से प्रजा में अमन चैन बना रहेगा। हम कह सकते हैं कि अकबर ने धर्मनिरपेक्ष शासन व्यवस्था बनाई।

7. मुग़लों ने खुद को मंगोल की अपेक्षा तैमूर के वंशज होने पर क्यों बल दिया?
Ans.
मंगोल के नाम से चंगेज खान द्वारा किए गए भीषण नरसंहारों की याद आ जाती है। इसलिए संगोलों की छवि दुर्दात के रूप में थीं। तैमूर ने पहली बार दिल्ली पर 1398 में कब्जा किया था। इसलिए मुगल खुद को मंगोल की अपेक्षा नेमूर के वंशज होने पर बल देते थे।

आइए विचार करें

8. भू-राजस्व से प्राप्त होने वाली आय, मुग़ल साम्राज्य के स्थायित्व के लिए कहाँ तक ज़रूरी थी?
Ans.
किसी भी राज्य पर शासन के लिए अत्यधिक संसाधनों की जरूरत होती है। भू-राजस्व से प्राप्त होने वाली आय, मुगल साम्राज्य की आय का मुख्य स्रोत थी। धन और संसाधन से समृद्ध होने के बाद ही मुगल साम्राज्य का स्थायित्व बन पाया था। इसमें भू-राजस्व से मिलने वाली आय की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका थी।

9 . मुग़लों के लिए केवल तूरानी या ईरानी ही नहीं, बल्कि विभिन्न पृष्ठभूमि के मनसबदारों की नियुक्ति क्यों महत्त्वपूर्ण थी?
Ans.
जैसे जैसे मुगल साम्राज्य का दायरा बढ़ता गया, समाज के विभिन्न प्रभाशाली वर्गों के बीच सत्ता की साझेदारी जरूरी होती गई। इसलिए केवल तूरानी या ईरानी के अतावा, विभिन्न पृष्ठभूमि के मनसबदारों की नियुक्ति महत्वपूर्ण थी। यहीं एक तरीका था जिससे भारतीय उपमहाद्वीप जैसे विशाल ओर विविधताओं से भरे भूभाग पर राज किया जा सके।

10. मुग़ल साम्राज्य के समाज की ही तरह वर्तमान भारत, आज भी अनेक सामाजिक और सांस्कृतिक इकाइयों से बना हुआ है? क्या यह राष्ट्रीय एकीकरण के लिए एक चुनौती है?
Ans.
जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि भारत में अनेकता में एकता है। यहाँ की विविधता ही यहाँ का सबसे बड़ा गुण है। भारत के लोगों ने विविधताओं के बावजूद कई सदियों से साथ रहना सीखा है। भारत की विविधता यहाँ के एकीकरण के लिए उत्प्रेरक का काम करती है, जिसमें थोड़ी बहुत चुनोतियाँ अवश्य होती हैं।

11. मुग़ल साम्राज्य की अर्थव्यवस्था के लिए कृषक अनिवार्य थे। क्या आप सोचते हैं कि वे आज भी इतने ही महत्त्वपूर्ण हैं? क्या आज भारत में अमीर और गरीब के बीच आय का फासला मुग़लों के काल की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ गया है?
Ans.
आज भी भारत के आधे से अधिक लोग अपनी जीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं। कृषि यहाँ की जीडीपी में महत्वपूर्ण योगदान करती है। इसलिए आज भी अर्थव्यवस्था के लिए किसानों का महत्व कम नहीं हुआ है। लेकिन आज भी अमीर और गरीब के बीच की आय के बीच एक बड़ी खाई है।

12: मुगल साम्राज्य का उपमहाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों पर अनेक तरह से प्रभाव पड़ा। पता लगाइए कि जिस नगर, गाँव अथवा क्षेत्र में आप रहते हैं, उस पर इसका कोई प्रभाव पड़ा था?
Ans.
मैं जिस शहर से आता हूँ वहाँ मुगल साम्राज्य का प्रभाव साफ देखने को मिलता है। यहाँ पर अंग्रेजों के जमाने के एक राजवंश का किला और कई महल हैं। इन भवनों में मुगल स्थापत्य का पूरा प्रभाव देखने को मिलता है। भारत के हर हिस्से में पोशाकों और भोजन पर भी मुगल संस्कृति का असर दिखता है। कुर्ता ओर सलवार सूट मुगलों की देन है। हलवा, पुलाव, बिरयानी, कबाव, जैसे भोजन भी मुगलों की देन हैं।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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