तंत्रिका संस्थान एवं व्याधियाँ

प्रेरणा-संवहन के लिए विशिष्टीकृत कोशाओं को तंत्रिका कोशाएँ (Neurons) कहते हैं। न्यूरॉन्स भ्रूण की एक्टोडर्म से बनती हैं। ये तंत्रिकीय ऊतक की रचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाइयाँ होती हैं। न्यूरॉन कोशाएँ शरीर की सबसे लम्बी कोशाएँ होती हैं। उत्तेजनशीलता एवं संवाहकता इनका विशिष्ट गुण होता है। तंत्रिका कोशिका को तीन भागों में बांटा गया है-

(i) कोशा पिण्ड (Cyton) यह तंत्रिका कोशिका का मुख्य भाग होता है। इसमें एक केन्द्रक तथा कोशिका द्रव्य होता है। इसके कोशिका द्रव्य में अनेक प्रोटीनयुक्त रंगीन कण होते हैं, जिन्हें निसिल्स कण कहते हैं। स्त्रियों की तंत्रिका कोशिका के केन्द्रक के समीप ‘बारबाडी’ पायी जाती है।

(ii) डेण्ड्रॉन (Dendron) :- साइटॉन से निकले हुए पतले तंतु जो एक या अधिक होते हैं, डेण्ड्रॉन कहलाते हैं।

(iii) एक्सॉन (Axon) :- साइटॉन से प्रारंभ होकर एक बहुत पतला एवं लम्बा तंत्रिका तंतु निकलता है। यह एक न्यूरॉन से दूसरे न्यूरॉन तक संदेशवाहक का कार्य करता है। इसे ही एक्सॉन कहते हैं। इसका अन्तिम सिरा पतली-पतली शाखाओं में बंटा होता है जिनको साइनेप्टिक नोबस (Synoptic Knobs) कहते हैं। ये नोबस दूसरी न्यूरॉन के डेन्डाइटस की नोबस के साथ एक विशेष सम्बन्ध स्थापित करती है, जिसे सिनेप्सिस (Synapsis) कहते हैं। अर्थात यहाँ पर एक न्यूरॉन अपनी तंत्रिकीय सूचना को निकटवर्ती न्यूरॉन को हस्तांतरित करती है।

मेड्यूलरी खोल थोड़ी दूर पर टूटा रहता है। इन स्थानों को रैन्वियर का नोड (node of Ranvier) कहते हैं। दो नोड के बीच के भाग को इण्टर नोड (inter node) कहते हैं। किसी-किसी एक्जान में पार्श्व शाखायें भी पायी जाती हैं जो एक्जान के समकोण पर स्थित होती हैं। इन शाखाओं को कोलैटरल तंतु (collateral fibres) कहते हैं।

शरीर में तंत्रिका कोशिकाओं की संख्या लगभग 100 अरब (1011) होती है। इनकी अधिकांश संख्या मस्तिष्क में होती है।

कुछ तंत्रिका कोशिकाएँ जो केन्द्रीय तंत्र के बाहर होती है, छोटे-छोटे समूहों में पायी जाती है जिन्हें गुच्छक (ganglia) कहते हैं। तंत्रिका कोशिकाएँ रचना और कार्यिकी में शरीर की सबसे जटिल कोशिकाएँ होती हैं। प्रवर्धा की संख्या एवं स्वभाव के अनुसार-तंत्रिका कोशिकाएँ तीन प्रकार की होती हैं। यथा –

(i) एकध्रुवीय तंत्रिका कोशिकाएँ (Uni polar): अकशेरुकियों में तो काफी, लेकिन कशेरुकियों में केवल भ्रूण में होती हैं। इनमें साइटॉन से एक प्रवर्ध निकलकर शीघ्र दो प्रवर्धां-एक डेन्ड्रोन और एक एक्सॉन- में बँट जाता है।

(ii) द्विध्रुवीय (Bipolar) तंत्रिका कोशिकाएं: जिनमें की विरोधी ध्रुवों पर स्थित एक एक्सॉन और एक डेन्ड्रान होती हैं; नेत्रों की रेटिना, क्षवणांगों और घ्राण एपीथीलियम में होती है।

(iii) बहुध्रुवीय (Multipolar) तंत्रिका कोशिकाएँ : इनमें एक एक्सॉन तथा कई डेन्ड्रोन्स होते हैं। कशेरुकियों में अधिकांश तंत्रिका कोशाएँ इसी प्रकार होती है।

कार्यों के अनुसार-तंत्रिका कोशिकाएँ तीन प्रकार की होती हैं यथा-

(i) संवेदी तंत्रिका कोशिकाएँ (Sensory Neurons)

(ii) चालक तंत्रिका कोशिकाएँ (Motor Neurons)

(iii) मध्यस्थ तंत्रिका कोशिकाएँ (Inter neurons)

शरीर की समस्त तंत्रिका कोशिकाओं में लगभग 99.98 प्रतिशत मध्यस्थ तंत्रिका कोशिकाएँ होती है। ये बहुध्रुवीय होती है और केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र में दो या अधिक तंत्रिका कोशिकाओं के बीच सम्बन्ध स्थापित करने का काम करती हैं। इन्हें पुरकिंजे की कोशिकाएँ भी कहते हैं।* संवेदी तंत्रिका कोशिकाएँ एक ध्रुवीय तथा चालक तंत्रिका कोशिकाएँ बहुध्रुवीय होती हैं।*

तंत्रिका तंत्र (Nervous System)

वह तंत्र, जो सोचने, समझने तथा स्मरण रखने के साथ ही शरीर के विभिन्न अंगों के कार्यों में सामंजस्य तथा संतुलन स्थापित करने का कार्य करता है, तंत्रिका तंत्र कहलाता है। हमारी समस्त प्रतिक्रियाओं को सामूहिक रूप से हमारा व्यवहार या आचरण कहा जा सकता है। हमारी समस्त प्रतिक्रियाओं को दो कोटियों-ऐच्छिक एवं अनैच्छिक में बांटा गया है। ऐच्छिक प्रतिक्रियाएँ किसी निश्चित उद्देश्य को पूरा करने के लिए होती है। इनकी प्रेरणा प्रमस्तिष्क (Cerebrum) के नियंत्रण केन्द्रों से निर्गमित होती है। अनैच्छिक क्रियाएँ अपने आप होती रहने वाली अचेतन प्रतिक्रियाएँ होती हैं। हद स्पंदन, सामान्य श्वास क्रिया, ताप नियन्त्रण, आदि से संबंधित प्रतिक्रियाएँ अनैच्छिक होती हैं। इनके नियंत्रण केन्द्र, मस्तिष्क में हाइपोथैलेमस में होता है।

तंत्रिकीय नियंत्रण के घटकों में संवेदांग, अपवाहक रचनाएं तथा सूचना प्रसारण-तंत्र आते हैं।

संवेदांग (Sensory Organs or Re-ceptors) : वातावरणीय परिवर्तनों से उददीपित होने वाले अंग होते हैं। इनकी तीन श्रेणियाँ होती है। यथा-

(i) ज्ञानेन्द्रियाँ, जिसमें घ्राणेन्द्रियाँ, नेत्र, कर्ण तथा त्वचा में सूक्ष्म त्वक ज्ञानेन्द्रियाँ आती हैं।

(ii) अन्तः ज्ञानेन्द्रिया, जो शरीर के अन्तः वातावरण के उद्दीपनों को ग्रहण करते हैं।

(iii) स्वाम्य ज्ञानेन्द्रियाँ (Proprioceptors)- रेखित पेशियों, अस्थि संधियों, कण्डराओं तथा स्नायुओं आदि में स्थित संवेदी तंत्रिका तन्तुओं के स्वतंत्र छोर होते हैं।

अपवाहक रचनायें (Effectors)- ये प्रतिक्रिया करने वाली रचनायें होती है। इसलिए, इन्हें क्रियान्वक भी कहते हैं। ग्रन्थियाँ (Glands), रेखित एवं अरेखित पेशियाँ (Muscles) ही तंत्रिकीय संचालन की प्रतिक्रियाओं की अपवाहक होती हैं। अर्थात इनका क्रियान्वयन Motor Neurons द्वारा होता है।

सूचना प्रसारण तंत्र (Communication System) मनुष्य का सूचना प्रसारण तंत्र तीन भागों में विभक्त होता है। यथा

(क) केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (C.N.S)
(ख) परिधीय तंत्रिका तंत्र (P.N.S)
(ग) स्वाधीन तंत्रिका तंत्र (A.N.S)

(क) केन्द्रीय तंत्रिका-तंत्र (Central Nervous System)

तंत्रिका तंत्र का वह भाग जो सम्पूर्ण शरीर तथा स्वयं तंत्रिका तंत्र पर नियंत्रण रखता है, केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र कहलाता है। यह शरीर के मुख्य अक्ष पर स्थित होता है। यह दो अंगों का बना होता है- (i) मस्तिष्क एवं (ii) मेरुरज्जू।

(i) मस्तिष्क (Brain)- मस्तिष्क पूरे शरीर तथा स्वयं तंत्रिका तंत्र का नियंत्रण कक्ष है। मनुष्य का मस्तिष्क अस्थियों के खोल क्रेनियम में बन्द रहता है, जो इसे बाहरी आघातों से बचाता है। इसका कुल औसतन भार 1400 ग्राम होता है। इसके चारों ओर मैनिंनजेस नामक आवरण पाया जाता है, जो तीन स्तरों का बना होता है। इस आवरण की सबसे बाहरी परत को डयूरामैटर, मध्य परत को एरेक्लाएड तथा सबसे अन्दर की परत को पायामैटर कहते हैं। पायामैटर ऑक्सीजन एवं भोज्य पदार्थ पहुँचाती है। मस्तिष्क के निम्नलिखित भाग हैं-

◆ अग्रमस्तिष्क (Prosencephalon)- मस्तिष्क का सबसे अगला भाग है। जिसे Fore brain भी कहते हैं। यह कुल मस्तिष्क का 2/3 भाग होता है। यह दो भागों का बना होता है। – सेरीब्रम एवं डाइएनसिफेलॉन

(i) सेरीब्रम- यह दो गोलार्डों का बना होता है जिन्हें सेरीब्रल अर्द्ध-गोलार्द्ध कहते हैं। प्रत्येक सेरीब्रल गोलार्द्ध में तीन गहरी दरारें होती हैं, जिनके कारण यह चार भागों में बंट जाता है- फ्रन्टल पालि, पैराइटल पालि, टैम्पोरल पालि तथा ऑक्सीपिटल पालि।

(ii) डाइएनसिफेलॉन- इस भाग से पीनियल काय तथा पिट्यूटरी ग्रन्थि निकलती है। थैलेमस व हाइपोथैलेमस इसी के भाग हैं।

(a) सेरीब्रम के कार्य- ये बुद्धिमत्ता, चेतना शक्ति व स्मरण शक्ति के केन्द्र हैं। ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त प्रेरणाओं का यहां विश्लेषण व समन्वय होता है तथा ऐच्छिक पेशियों को समुचित प्रतिक्रिया हेतु संवेदना प्रसारित की जाती हैं :*

(i) फ्रन्टल पालि द्वारा ऐच्छिक पेशियों पर नियन्त्रण होता है।*

(ii) पैराइटल पालि द्वारा हमारी त्वचा से संवेदन प्राप्त किए जाते हैं जैसे स्पर्श, दबाव व दर्द ।*

(iii) ऑक्सीपिटल पालि द्वारा दृश्य संवेदनाएं ग्रहण की जाती हैं।*

(iv) टेम्पारेल पालि श्रवण में सहायक होती है।*

थैलमस के कार्य- ये दो गोलाकार संरचनाएँ होती हैं, जो दर्द, ठण्डा तथा गरम को पहचानने का कार्य करता है।*

हाइपोथैलमस के कार्य- यह अन्तःस्रावी ग्रंथियों से स्रावित होने में हार्मोन्स का नियंत्रण करती है। पोस्टीरियर पिट्यूटरी ग्रंथि से स्स्रावित होने वाले हॉर्मोन्स इससे स्रावित होते हैं। यह भूख, प्यास, ताप नियंत्रण, प्यार, घृणा आदि के केन्द्र होते हैं तथा वसा एवं कार्बोहाइड्रेट उपापचय पर भी नियंत्रण करते हैं। रक्त दाब, जल के उपापचय, पसीने, गुस्सा, खुशी आदि इसी के नियंत्रण में है।

◆ मध्य मस्तिष्क (Mesencephalon) – मीसेनसिफेलॉन भाग मस्तिष्क के मध्य में स्थित होता है। यह दो भागों सेरीब्रल पेन्डकल एवं कारपोराक्वार्डीजेमिना का बना होता है।

कारपोराक्वार्डीजेमिना के कार्य-मानव के मस्तिष्क में चार ठोस ऑप्टिक पिण्ड पाए जाते हैं, जिन्हें संयुक्त रूप से कारपोराक्वार्डीजेमिना कहते हैं। ये दृष्टि व श्रवण शक्ति पर नियंत्रण के केन्द्र होते हैं।*

सेरीब्रल पेन्डकल के कार्य-यह तन्तुओं का बंडल होता है, जो सेरीब्रल कॉटेक्स को मस्तिष्क के अन्य भागों तथा मेरुरज्जु से जोड़ता है।

◆ पश्च मस्तिष्क (Rhombencephalon)- रहोम्बेनसिफेलॉन मस्तिष्क का सबसे पिछला भाग है जिसे Hid brain भी कहते हैं। यह सेरीबेलम एवं मेडुला ऑब्लोंगेटा का बना होता है।

सेरीबेलम के कार्य-इसका मुख्य कार्य शरीर का संतुलन बनाए रखना है।* यह शरीर के ऐच्छिक पेशियों के संकुचन पर नियंत्रण करता है। यह आन्तरिक कान के संतुलन भाग से संवेदनाएँ ग्रहण करता है।*

मेडुला ऑब्लोंगेटा के कार्य- यह मस्तिष्क का सबसे पीछे का भाग होता है। यह उपापचय, रक्तदाब, आहारनाल के क्रमाकुंचन, ग्रंथि स्त्राव तथा हृदय की धड़कनों का नियंत्रण करता है।*

(ii) मेरुरज्जू (spinal cord) मेडुला ऑब्लोंगेटा का पिछला भाग ही मेरु रज्जू बनाता है। मेरुरज्जू का अंतिम सिरा एक पतले सूत्र के रूप में होता है। मेरुरज्जू के चारों ओर भी ड्यूरोमेटर, अरेक्नायड और पायामैटर का बना आवरण पाया जाता है। मेरुरज्जू बेलनाकार, खोखली तथा पृष्ठ एवं प्रतिपृष्ठ तल पर चपटी होती है। इसकी दोनों सतहों पर एक-एक खांच पायी जाती है, जिन्हें क्रमशः डार्सल व वेंट्रल फिशर कहते हैं। मेरुरज्जू के मध्य में एक संकरी नाल पायी जाती है, जिसे केन्द्रीय नाल (central canal) कहते हैं। केन्द्रीय नाल में सेरिब्रोस्पाइनल द्रव भरा होता है। केन्द्रीय नाल के चारों ओर मेरूरज्जू का मोटा भाग दो स्तरों में बँटा होता है, भीतरी स्तर को धूसर पदार्थ (grey matter) तथा बाहरी स्तर को श्वेत पदार्थ (white matter) कहते हैं। धूसर पदार्थ तंत्रिका कोशिकाओं, उनके डेन्ड्रांस तथा न्यूरोग्लिया के प्रवर्धे का बना होता है, जबकि श्वेत पदार्थ मेड्यूलेटेड तंत्रिका तंतुओं और न्यूरोग्लिया प्रवर्षों का बना होता है। मेरुरज्जू के दो प्रमुख कार्य हैं-

(i) यह प्रतिवर्ती क्रियाओं का नियंत्रण एवं समन्वय करती है।*

(ii) यह मस्तिष्क के आने-जाने वाले उद्दीपनों का संवहन करती है।*

प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Reflex actions): मनुष्य के दैनिक जीवन में कुछ क्रियाएँ अकस्मात किसी बाह्य उद्दीपन के फलस्वरूप बिना मस्तिष्क की जानकारी के हो जाती हैं। उदाहरणतः किसी सर्प को अकस्मात देखते ही एकाएक कूदकर पीछे हट जाना। यहाँ सर्प ने बाह्य उद्दीपन का कार्य किया और चौंक कर कूदना एक ऐसी अनैच्छिक क्रिया हुई, जिसके लिए मस्तिष्क ने प्रेरणा नहीं दी। इसमें मस्तिष्क तक संदेश जाने, मस्तिष्क द्वारा उस पर विचार करने तथा आदेश देने में जो विलम्ब होता, उसमें सर्प मनुष्य को काट सकता था।

मस्तिष्क ने इस प्रकार की क्रियाओं को तत्काल क्रियान्वित करने का कार्य मेरु-रज्जु को सौंप दिया है। कुछ अन्य उदाहरण- नाक में किसी पदार्थ के घुस जाने से अचानक छींक आना, भोजन को देखकर मुँह में पानी आना, धमाका या गाड़ी का हार्न सुनकर अचानक चौंक जाना, किसी गर्म वस्तु पर हाथ की अंगुली पड़ जाने से हाथ का हटा लेना, डर से काँपना आदि। इस प्रकार की अनैच्छिक क्रियाओं को प्रतिवर्ती किया (Reflex action) कहते हैं। इस क्रिया का पता सबसे पहले मार्शल हाल द्वारा लगाया गया था। ये क्रियाएँ मेरु-रज्जु द्वारा नियन्त्रित होती हैं।

प्रतिवर्ती क्रिया में बाह्य उद्दीपनों या संवेदनाओं को त्वचा या अन्य ग्राही अंगों (आँख, कान, नाक, जीभ) द्वारा ग्रहण कर संवेदी तन्त्रिका कोशिका से मेरू-रज्जु तक पहुँचा दिया जाता है। मेरु- रज्जु संवेदना के संकेतों को प्राप्त कर उचित आदेश निर्गत करता है। यह आदेश प्रेरक तन्त्रिका कोशिका द्वारा सम्बन्धित अंगों के ऐच्छिक पेशियों तक पहुँचा दिये जाते हैं। परिणामस्वरूप पेशियाँ कार्य करती हैं।

संवेदी अंगों से प्राप्त सूचनाओं को संवेदी तन्त्रिका कोशिकाओं द्वारा मेरु-रज्जु में तथा यहाँ से प्राप्त-आदेशों को प्रेरक तन्त्रिका कोशिकाओं द्वारा ऐच्छिक पेशियों तक पहुँचाने के मार्ग को प्रतिवर्ती चाप (reflex arc) तथा इस सम्पूर्ण क्रिया को प्रतिवर्ती क्रिया (reflex action) कहते हैं। इस क्रिया में संवेदनों तथा आदेशों का वहन लगभग 130-200 मी० प्रति सेकेण्ड की दर से होता है।

(ख) परिधीय तंत्रिका तंत्र (Peripheral Nervous System)

केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (Brain एवं Spinal cord) को शरीर के विभिन्न संवेदी (Sensory) एवं सम्पादी (effector पेशियाँ एवं ग्रंथियाँ) भागों से जोड़ने वाली ठोस धागेनुमा तंत्रिकाएँ परिधीय तंत्रिका तंत्र बनाती हैं। प्रत्येक तंत्रिका अनेक तंत्रिका-तन्तुओं का समूह होती है। अधिकांश तन्तु ऐच्छिक (Voluntary) प्रतिक्रियाओं से सम्बन्धित होते हैं, परन्तु कुछ तंत्रिकाओं में अनैच्छिक या स्वायत्त प्रतिक्रियाओं से सम्बन्धित तंतु भी होते हैं। तंत्रिकाएँ (Nerves) दो प्रकार की होती हैं- मस्तिष्क से सम्बन्धित क्रैनियल तंत्रिकाएँ तथा स्पाइनल से सम्बन्धित स्पाइनल तंत्रिकाएँ। मनुष्य में 12 जोड़ी क्रैनियल तथा 31 जोड़ी स्पाइनल तंत्रिकाएँ पायी जाती है।*

(ग) स्वाधीन तंत्रिका तंत्र (Autonomous Nervous System)

स्वायत्त तंत्रिका तंत्र से अभिप्राय है स्वतः क्रियाशील अथवा “स्वनियंत्रित तंत्र” (Selfcontrolled system)। यह शरीर की आंतरिक क्रियाओं को सूक्ष्मलय (rhythm) प्रदान करता है, जिससे शरीर की क्रियाएँ निर्विघ्न एवं सामान्य रूप से चल सकें। स्वायत्त तंत्रिका तंत्र चिकनी पेशियों, हद-पेशियों एवं अनेक ग्रन्थियों पर पुनर्भरण लूप (feed back loop) अथवा प्रतिरोधी क्रियाओं द्वारा अपना नियंत्रण बनाता है, परन्तु यह तंत्र केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के चेतन नियंत्रण (conscious contral) में नहीं रहता- अर्थात मस्तिष्क द्वारा निर्देश देकर, इस तंत्र द्वारा नियंत्रित क्रियाओं पर प्रभाव नहीं डाला जा सकता।

स्वायत्त तंत्रिका तंत्र के दो भाग होते हैं। अनुकंपी तंत्र (sympathetic system) तथा परानुकंपी तंत्र (parasympathetic system)। शरीर पर इनके प्रभाव परस्पर विपरीत होते हैं- यदि एक तंत्र किसी क्रिया का उद्दीपक (बढ़ाने वाला) है तो दूसरा तंत्र उसी क्रिया का मंदक (घटाने वाला) होता है। अनुकंपी तथा परानुकंपी तंत्रिका तंत्र के प्रभावों के कुछ उदाहरण निम्नवत हैं-

अंग
अनुकंपी तंत्र का प्रभाव
परानुकंपी तंत्र का प्रभाव
• हृदय
स्पन्दन दर को बढ़ाना
स्पन्दन दर को घटाना
• रुधिर
संकीर्णन
विस्फारण
• वाहिनियां
(Contraction)
(expansion)
• श्वास नलिका
विस्फारण
संकीर्णन
• नेत्र
पुतली फैलाना
पुतली सिकोड़ना
• पाचन क्रिया
मंदन
उद्दीपन
• मूत्राशय
विश्रांति
संकुचन

ज्ञातव्य है कि स्वायत्त तंत्रिका तंत्र की अवधारणा को सबसे पहले लैंगली ने 1921 में प्रस्तुत किया था।

तंत्रिका तंत्र की सकल कार्यिकी (G. P. of Nervous System)

जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि, तंत्रिका तंत्र में दो प्रमुख भाग होते हैं (स्वायत्त तंत्रिका तंत्र के अतिरिक्त) – केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (C.N.S) तथा परिधीय तंत्रिका तंत्र (P.N.S.)। केन्द्रीय-तंत्र में मस्तिष्क (Brain) और मेरुरज्जु (Spinal Cord) होती है। यह तंत्र सारी क्रियाओं का नियमन और नियंत्रण करता है। परिधीय तंत्र (PNS) में, अत्यधिक शाखान्वित तंत्रिकायें (Nerves) होती हैं जो केन्द्रीय तंत्र और शरीर के विभिन्न अंगों के बीच एक विस्तृत सूचना-संचार प्रणाली स्थापित करती हैं। शरीर के कुछ भाग कपालीय तंत्रिकाओं (Cranial nerves) द्वारा मस्तिष्क से तथा अन्य भाग Spinal nerves द्वारा Spinal Cord से जुड़े होते हैं। जैसे – नेत्र, कर्ण, नासिका, जीभ, सिर की त्वचा आदि कपालीय तंत्रिकाओं द्वारा मस्तिष्क से जुड़ी होती है। हाथ पैरों की पेशियाँ, त्वचा की ग्रंथियाँ, त्वक ज्ञानेन्द्रियाँ आदि Spinal Nerves द्वारा Spinal Cord से जुड़ी होती हैं।

चेता प्रेरणाओं का स्वरूप (Nature of Nerve Impulses)

तंत्रिका की विश्रामावस्था में सोडियम आयन (Na+) की संख्या तंत्रिका कला के बाहर काफी अधिक होती है जिसके कारण बाहरी तल पर धनावेश होता है। कला के भीतरी तल पर पोटैशियम आयनों (K+) की बहुत कम उपस्थिति तथा ऋणात्मक आयनों (प्रोटीन्स आदि के अणु) के जमाव के कारण ऋणात्मक आवेश होता है। तंत्रिका कला के भीतरी तथा बाहरी सतह पर पाये जाने वाले आवेश अन्तर को कला विभवान्तर (Potential difference) कहते हैं। इसी विभव ऊर्जा (Potential energy) का उपयोग प्रेरणा प्रसारण में किया जाता है। ज्ञातव्य है कि भीतरी कला की ओर, बाहरी कला की ओर की तुलना में औसतन – 70 मिलीवोल्ट (-70 mv) का ऋणात्मक आवेश होता है। तंत्रिका प्रेरणा की उत्पत्ति के लिए 70 mv के विभव में (विश्राम विभव) 15 से 20 mv की गिरावट आवश्यक होती है और इसी को कला का प्रतिरोध मान या विभव कहते हैं। इस प्रकार एक तंत्रिका कोशिका का क्रियात्मक विभव +15 से +20 mv होता है।* तंत्रिका तन्तुओं में सूचना प्रसारण की दर 130 से 200 मीटर प्रति सेकेण्ड होती है। * ध्यातव्य हैं कि अंग्रेज वैज्ञानिक होजकिन तथा हक्सले ने चेता प्रेरणाओं की उत्पत्ति और इसके जैव रासायनिक स्वरूप का पता लगाया था।

तंत्रिसंचारी तथा अवरोधी पदार्थ (Neurotransmitter & Inhibitory Substances)

तंत्रिकीय सूचनाओं का हस्तांतरण विशेष प्रकार के पदार्थों द्वारा होता है। इन पदार्थों को तंत्रिसंचारी पदार्थ या तंत्रि हार्मोन कहते हैं। जैसे ऐसेटिल्कोलीन नोरएपिनेफ्रीन, एपिनेफ्रीन एवं डोपामीन आदि। ऐसेटिल्कोलीन सबसे अधिक पाये जाने वाला तंत्रिहार्मोन है।*

केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र में ऐसे अवरोधी तंत्रिसंचारी पदार्थ भी कुछ तंत्रिका कोशाओं में होते हैं जो तंत्रिका कला के Na+ के स्थान पर CI की पारगम्यता को बढ़ाते हैं और इस प्रकार इन कोशाओं में प्रेरणाओं के सम्पोषण (regeneration) को रोक देते हैं। जैसे- ग्लाइसीन एवं गामा- एमीनोब्यूटाइरिक अम्ल (γ-Aminobutyric Acid)*

तंत्रिकीय व्याधियाँ (Neurological disorders)

मस्तिष्क एवं तंत्रिका संस्थान सारे व्यक्तित्व को और शरीर के सारे अवयवों को नियंत्रित एवं प्रभावित करते हैं। इसकी छोटी समस्याएँ तो बहुव्याप्त रहती हैं, किन्तु गंभीर समस्याएँ अपेक्षाकृत कम मिलती हैं। इनकी अधिकांश व्याधियों के लक्षण कार्य में या अनुभूतियों में परिवर्तन के रूप में मिलते हैं। यथा-

भ्रम (Vertigo)

यह बहुत त्रासदाई समस्या है। कइयों में यह लम्बी चलती है और व्यक्ति को काफी अक्षम कर देती है। अधिकांशतः यह कान से जुड़े संतुलक अवयव (Labyrinth) से संबंधित होती है। अल्पकालिक चक्कर कइयों को हो जाते हैं जैसे कान या उल्टी के साथ पेट की तात्कालिक समस्याओं से। इनके इलाज के साथ ही यह समस्या भी ठीक हो जाती है। कुछ व्यक्तियों में इसकी प्रवृत्ति बनी रह जाती है। जीर्ण कर्ण शोथ (CSOM-Chronic Suppurative Otitis Media) जिसमें कान से बार-बार मवाद आता रहता हो, उसमें भी यह समस्या कई बार रहती है। कई बार यह सन्तुलक के वायरल शोथ (Viral Labyrinthitis) का भी परिणाम होता है। जीर्ण रोगियों में निदान एवं चिकित्सा दोनों ही मुश्किल व असंतोषजनक हैं। तथापि Stemetil/Cinnarizine/Vertin आदि आधुनिक औषधियां बहुत अच्छा तात्कालिक आराम देती हैं, किन्तु अधिकांश में समस्या बनी रहती है।

अनिद्रा (Insomnia)

यह भी कइयों के लिए एक बड़ी समरया बन जाती है। थके शरीर व मस्तिष्क को पुनः सक्षम बनाने के लिए उचित निद्रा आवश्यक होती है। इसके परिमाण (Quantity) में बहुत भिन्नताएँ मिलती हैं। कुछ भिन्नता तो उम्र के साथ स्वाभाविक रहती है। जैसे नवजात शिशु में लगभग 15-20 घंटे एवं षटेत्तर (above 60 yrs) में चार-पांच घंटे की नींद सामान्य बात है। इसका परिमाण उचित है या नहीं यह परिणाम पर निर्भर रहता है अर्थात नींद के बाद एक स्वाभाविक जागृति एवं ऊर्जा की अनुभूति होना चाहिए। जब नींद के बाद भी थकान एवं उनींदापन बना रहे या नींद आये ही बहुत थोड़ी या बहुत टूटती-सी आये, तो वह एक सीमा तक अनिद्रा की समस्या होती है। इसके निदान व चिकित्सा भी असंतोषजनक ही हैं। अधिकांश में विशिष्ट परीक्षण भी कोई विशेष निदान नहीं देते हैं। ऐसे व्यक्तियों में तात्कालिक आराम के लिये आधुनिक निद्रक औषधियाँ (Hypnotics) बहुत प्रभावी हैं।

➤ हटिंगटन रोग

यह एक ऐसी न्यूरोलॉजिकल बीमारी है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में चलती जाती है। रोगी में यह बीमारी धीरे-धीरे पनपती है। रोग उभरने की दशा में रोगी अपने मूवमेंट नियंत्रित नहीं कर पाता, भावनात्मक तौर पर परेशान रहता है और धीरे-धीरे उसकी दिमागी हालत खराब हो जाती है। इस बीमारी की फिलहाल मौजूद दवाएं केवल इन लक्षणों को थोड़ा-बहुत नियंत्रित भर कर पाती हैं। लेकिन रोगी की शारीरिक और मानसिक स्थिति बिगड़ती जाती है। बीमारी के लक्षण उभरने के औसतन 10 से 15 वर्षों के अन्दर रोगी की मृत्यु हो जाती है। हटिंगटन एक असाध्य रोग है तथा एक खराब जीन इसका कारण है। इसमें ब्रेन सेल्स नष्ट होने लगते हैं। लोगों में यह रोग वयस्क होने पर ही सामने आता है।

➤ अल्जाइमर (Alzheimers)

शरीर के अन्य अवयवों की तरह उम्म्र के साथ मस्तिष्क की क्षमता का भी ह्रास होता है। इसके संवेदना ग्रहण, गति एवं उच्च कार्य (Sensory, Motor and higher functions) ये सभी प्रभावित हो सकते हैं। जब यह गति अधिक तीव्र या गंभीर हो, जिसमें विशेषकर मस्तिष्क के विशेष कार्य जैसे स्मृति, परिवेश के साथ सामंजस्य, उचित प्रतिक्रियाएं, परिवर्तन से संतुलन आदि विशेष प्रभावित होने लगे, तो यह व्याधि रूप लगने लगता है।

इस व्याधि में व्यक्ति का व्यवहार कभी-कभी पुनः बालकवत होने लगता है, आधुनिक छाया परीक्षणों (CT Scan/MRI) के द्वारा बहुधा मस्तिष्क के परिमाण में हास का पता चल जाता है। इसके उपचार के लिए नेलोक्जोन या टेट्रा-हाइड्रो एमिनो एक्रिडाइन जैसी औषधियों का प्रयोग किया जाता है किन्तु चिकित्सा असंतोषजनक ही है।

➤ अपस्मार मिर्गी (Epilepsy)

इस व्याधि में व्यक्ति को सारे शरीर में आक्षेप या झटके (Convulsions) आते हैं या अल्पकाल के लिए संज्ञा शून्यता (Absence Attack) की स्थिति हो जाती है। इन दो प्रमुख रूपों के अलावा कई मिश्रित रूप भी मिलते हैं। झटकों के बीच के काल में व्यक्ति पूर्णतः सामान्य-सा लग सकता है। यह व्याधि स्वयं की क्षमता की अनिश्चितता के कारण व्यक्तित्व को बहुत प्रभावित कर सकती है। आक्षेप या झटके जीवन के किसी भी काल में शुरू हो सकते हैं, किन्तु अधिकांश में ये बचपन से प्रारम्भ हो जाते हैं। प्रारंभ में बहुधा कोई चोट, तनाव या तीव्र ज्वर इसके उत्प्रेरक बन जाते हैं। आधुनिक छाया परीक्षणों एवं E.E.G. के निदान द्वारा कुशल चिकित्सक की देखरेख में इसका इलाज करना चाहिए।

पार्किंसन रोग (Parkinsonism)

तंत्रिका संस्थान का यह एक जीर्ण रोग है। बहुधा यह बड़ी उम्र (50 के आस-पास) में शुरू होता है। हाथ-पांव में कंपन, गति पर स्वयं के नियंत्रण की कमी एवं पेशियों में जकड़न इसके प्रमुख लक्षण होते हैं। महत्व की बात यह है कि इस व्याधि में बहुधा वर्षों तक व्यक्ति की ऐच्छिक पेशियों की, जिनमें कंपन चल रहा हो, शक्ति काफी कुछ ठीक बनी रहती है। उचित व्यायाम से व्यक्ति काफी कुछ कार्यक्षम बना रह सकता है। बहुधा यह व्याधि, विशेषकर जकड़न और कंपन धीरे-धीरे बढ़ते जाते हैं और बारीक कामों में काफी कठिनाई आने लगती है। इतिहास और देखने से ही इसका निदान हो जाता है। तथापि दूसरे कारणों के निरसन (Exclusion) हेतु कुछ छाया-परीक्षण कराये जाते हैं। इसमें काफी समय से कुछ सरल आधुनिक औषधियाँ (जैसे Pacitane अथवा लीवोडोपा) प्रयोग में आ रही हैं।

➤ मस्तिष्क घात/लकवा (Cerebro-Vascular Accident-CVA)

यह तंत्रिका संस्थान की महा-व्याधि हैं। मस्तिष्क के कुछ भाग की रक्त आपूर्ति बाधित होने से शरीर के अवयवों-बहुधा एक ओर के चेहरे एवं शाखाओं की गहन अशक्तता या गहन निश्चेतना (Coma) इसके प्रमुख लक्षण हैं। अपने पूर्ण रूप में यह बहुधा रक्त- नलिका में थक्का जमने (Thrombosis) या थक्के के आकर अड़ने (Embolism) का परिणाम होती है या किसी रक्त वाहिनी से मस्तिष्क के विशेष भाग में रक्त स्त्राव इसे जन्म देता है। इनमें रक्त स्राव बहुधा अधिक गंभीर होता है एवं चेतना नाश अधिक मिलता है। रक्तावरोध की यह प्रक्रिया बाह्य रूप से अशक्त हुई शाखाओं के दूसरी ओर के मस्तिष्क में होती हैं। इन रोगियों में बहुधा काफी समय से चले आ रहे उच्च रक्त चाप का इतिहास मिलता है। बहुधा यह व्याधि पूर्ण रूप में आये उससे पहले एक दो बार अल्पकालिक अशक्तता के एक दो दौर हो चुके हैं, जिन्हें क्षणिक रक्तावरोध के दौरे (TIA- Transient Ischaemic Attack) कहा जाता है। यह प्रकृति की ओर से सावधान रहने के संकेत होते हैं। व्यक्ति तनावपूर्ण भाग दौड़ को एवं विलासितामय जीवन को सीमित करके सहज तनावमुक्त नियमित दिन-चर्या अपनाए एवं रक्तचाप का नियमित उपचार ले, तो बहुलांश में व्याधि का गंभीर रूप टल सकता है।

➤ मस्तिष्क आवरण शोथ (Meningitis)

इसमें मस्तिष्क की आवरण झिल्लियों में संक्रमण हो जाता है। इसके दो रूप मिलते हैंः (1) तीव्र मवादमय प्रकार (Acute Pyogenic Meningitis): यह बहुधा Meningococcus जीवाणुओं से होती है। यद्यपि कभी-कभी अन्य पूय (मवाद) कारण (Pyogenic) जीवाणु भी इसे पैदा कर सकते हैं। इसमें तीव्र ज्वर के साथ मस्तिष्कीय लक्षण जैसे सिरदर्द, चक्कर, तन्द्रा आदि आने लगते हैं। इसमें एक महत्व का लक्षण गर्दन में खिंचाव व अकड़न होता है। उल्टियां बहुत हो सकती हैं। इन सब लक्षणों पर तत्काल चिकित्सालय में उचित परीक्षण एवं चिकित्सा अत्यंत आवश्यक होते हैं। विलम्ब घातक हो सकता है।

➤ मस्तिष्क शोथ (Encephalitis)

यह बहुधा विषाणुओं (Viruses) से होती है। यह भी तीव्र या जीर्ण कई रूपों में हो सकती है। कई सामान्य विषाणु संक्रमणों में रोग प्रतिरोध क्षमता कम होने पर यह जटिलता पैदा हो जाती है जैसे Herpes, Measesls आदि में। बहुधा सामान्य जीवनदायी चिकित्सा चलते रहने पर व कभी-कभी विशिष्ट विषाणुरोधी औषधियों के प्रयोग से व्याधि से मुक्ति मिल जाती है। परन्तु कई बार यह व्याधि घातक सिद्ध होती है। इसलिए जरा भी संदेह होने पर यानी ज्वर के साथ, मस्तिष्कीय लक्षण, (सिरदर्द, चक्कर, उल्टी, तन्द्रा आदि) आने पर विशेषज्ञ परामर्श व चिकित्सा ही सही उपाय है। शोथ अवस्थाओं में आधुनिक चिकित्सा के परिणाम ही अधिक सफल है।

➤ मस्तिस्क के अर्बुद (Brain Tumours)

अन्य अवयवों की तरह मस्तिष्क में भी सरल (Benign) एवं घातक (Malignant) दोनों तरह के ट्यूमर मिलते हैं। घातक भी प्राथमिक (Primary) एवं द्वितीयक (Secondary) दोनों तरह के होते हैं। मस्तिष्क द्वितीयक ट्यूमरों के लिए सामान्य स्थली है। इनके लक्षण तीन रूपों में होते हैं। एक व्याधि प्रकारानुसार जैसे- घातक ट्यूमर में वजन कम होना एवं प्राथमिक ट्यूमर के लक्षण जैसे स्तन से, फुफ्फुस से या पौरुष ग्रंथि आदि में उत्पन्न स्थानीय लक्षण। दूसरी तरह के लक्षण अन्तः कपाल दाब वृद्धि (Raised Intracranial Tension) के होते हैं। ये लगभग सभी में मिलते हैं एवं ट्यूमर की वृद्धि की गति अनुसार इनकी तीव्रता होती है। इनमें सिरदर्द, जी मिचलाना, उल्टी, दृष्टि दोष आदि हैं। तीसरे प्रकार के लक्षण ट्यूमर के मस्तिष्क में स्थान अनुसार होते हैं। जैसे ऐच्छिक पेशीय नियंत्रक (Motor area) पर दबाव होने पर प्रभावित पेशियों में पहले उत्तेजना व बाद में अशक्तता आदि मिलते हैं। कई रोगियों में आक्षेप/ झटके आने लगते हैं। इन लक्षणों की उपस्थिति में विशेषज्ञों द्वारा विशेष परीक्षण कराये जाते हैं। निदान स्पष्ट हो जाने पर अधिकांश रोगियों में शल्यक्रिया की जाती है।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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