अठारहवीं शताब्दी में नए राजनीतिक गठन : अध्याय 8


यदि आप मानचित्र 1 और 2 को ध्यानपूर्वक देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के दौरान उपमहाद्वीप में कुछ विशेष रूप से उल्लेखनीय घटनाएँ घटीं। गौर कीजिए कि कई स्वतंत्र राज्यों के उदय से मुग़ल साम्राज्य की सीमाएँ किस तरह से बदलीं। आप यह भी देखें कि 1765 तक एक अन्य शक्ति यानी ब्रिटिश सत्ता ने पूर्वी भारत के बड़े-बड़े हिस्सों को सफलतापूर्वक हड़प लिया था।

ये मानचित्र हमें यह दर्शाते हैं कि अठारहवीं शताब्दी एक ऐसी अवधि थी, जब भारत में राजनीतिक परिस्थितियाँ अपेक्षाकृत एक छोटे से समयांतराल में बड़ी तेज़ी से अचानक बदलनी शुरू हो गई थीं। इस अध्याय में हम अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध (मोटे तौर पर 1707 में जब औरंगजेब की मृत्यु हुई थी, से 1761 तक, जब पानीपत की तीसरी लड़ाई हुई) के दौरान उपमहाद्वीप में उत्पन्न हुई नई राजनीतिक शक्तियों के बारे में पढ़ेंगे।

मुग़ल साम्राज्य और परवर्ती मुग़लों के लिए संकट की स्थिति

अध्याय 4 में आपने देखा था कि मुग़ल साम्राज्य अपनी सफलता की ऊँचाई पर किस प्रकार पहुँचा था और फिर सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में उसके सामने तरह-तरह के संकट किस प्रकार खड़े होने लगे थे। ऐसा अनेक कारणों से हुआ। बादशाह औरंगजेब ने दक्कन में (1679 से) लंबी लड़ाई लड़ते हुए साम्राज्य खर्च कर दिया था। के सैन्य और वित्तीय संसाधनों को बहुत अधिक औरंगजेब के उत्तराधिकारियों के शासनकाल में साम्राज्य के प्रशासन की कार्य-कुशलता समाप्त होने लगी और मनसबदारों के शक्तिशाली वर्गों को वश में रखना केंद्रीय सत्ता के लिए कठिन हो गया। सूबेदार के रूप में नियुक्त अभिजात अकसर राजस्व और सैन्य प्रशासन (दीवानी एवं फ़ौजदारी) दोनों कार्यालयों पर नियंत्रण रखते थे। इससे मुग़ल साम्राज्य के विशाल क्षेत्रों पर उन्हें विस्तृत राजनैतिक, आर्थिक और सैन्य शक्तियाँ मिल गईं। जैसे-जैसे सूबेदारों ने प्रांतों पर अपना नियंत्रण सुदृढ़ किया, राजधानी में पहुँचने वाले राजस्व की मात्र में कमी आती गई।

उत्तरी तथा पश्चिमी भारत के अनेक हिस्सों में हुए जमींदारों और किसानों के विद्रोहों और कृषक आंदोलनों ने इन समस्याओं को और भी गंभीर बना दिया। कभी-कभी ये विद्रोह बढ़ते हुए करों के भार के विरुद्ध किए गए थे और कभी-कभी ये शक्तिशाली सरदारों के द्वारा अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाने की कोशिशें थीं। अतीत में भी विद्रोही समूहों ने मुग़ल सत्ता को चुनौती दी थी। परंतु अब ऐसे समूहों ने क्षेत्र के आर्थिक संसाधनों का प्रयोग अपनी स्थितियों को मजबूत करने के लिए किया। जिस तरह से धीरे-धीरे राजनैतिक व आर्थिक सत्ता, प्रांतीय सूबेदारों, स्थानीय सरदारों व अन्य समूहों के हाथों में आ रही थी, औरंगजेब के उत्तराधिकारी इस बदलाव को रोक न सके।

इस आर्थिक व राजनीतिक संकट के बीच ईरान के शासक नादिरशाह ने 1739 में दिल्ली पर आक्रमण किया और संपूर्ण नगर को लूट कर वह बड़ी भारी मात्रा में धन-दौलत ले गया। नादिरशाह के आक्रमण के बाद अफ़गान शासक अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों का ताँता लगा रहा। उसने तो 1748 से 1761 के बीच पाँच बार उत्तरी भारत पर आक्रमण किया और लूटपाट मचाई।

भरपूर फ़सल और खाली तिजोरियाँ

एक तत्कालीन लेखक ने साम्राज्य के वित्तीय दिवालियेपन का वर्णन इन शब्दों में किया है:

बड़े ज़मींदार निस्सहाय और निर्धन हो गए हैं। उनके किसान वर्ष में दो फसलें उगाते हैं, लेकिन उन्हें दोनों में से कुछ नहीं मिलता है। उनके स्थानीय गुमाश्ते एक तरह से किसानों के हाथ की कठपुतली बने रहते हैं, जैसे कि स्वयं किसान अपने ऋणदाता के वश में रहता है, जब तक कि वह साहूकार का कर्जा नहीं चुका देता। इस प्रकार संपूर्ण व्यवस्था एवं प्रशासन इतना चकनाचूर हो चुका है कि यद्यपि किसान अपनी फ़सल के जरिए मानो सोना बटोरता है, लेकिन उसके मालिक ज़मींदार को एक तिनके का टुकड़ा भी नहीं मिलता है। ऐसी हालत में जमींदार सशस्त्र सेना कैसे रख सकते हैं, जिनकी उससे आशा की जाती है? वे अपने सैनिकों को जो लड़ाई के समय उनके आगे-आगे चलते हैं और घुड़सवारों को जो उनके ठीक पीछे चलते हैं, पैसा कहाँ से देंगे?

नादिरशाह का दिल्ली पर आक्रमण

नादिरशाह के आक्रमण के परिणामस्वरूप दिल्ली में जो विध्वंस हुआ, उसका वर्णन समकालीन प्रेक्षकों ने किया था। इनमें से एक ने मुग़ल कोष से जिस तरह धन लूटा गया था, उसका वर्णन इस तरह से किया है:

साठ लाख रुपए और कई हज़ार सोने के सिक्के, लगभग एक करोड़ रुपए के सोने के बर्तन, लगभग पचास करोड़ रुपए के गहने, जवाहरात और अन्य चीजें ले गया, जिनमें से कुछ तो इतनी बेशकीमती थीं कि दुनिया में उनका मुकाबला कोई नहीं कर सकता है, जैसे-तख्ते ताउस यानी मयूर सिंहासन ।

एक अन्य वृत्तांत में दिल्ली पर आक्रमण के प्रभाव का वर्णन मिलता है:

जो कभी मालिक थे, अब बड़ी दर्दनाक हालत में आ गए। जिन्हें कभी भरपूर आदर-इज़्ज़त दी जाती थी, उन्हें अब प्यास बुझाने के लिए पानी भी नहीं मिलता। अलग-थलग पड़े लोगों को उनके कोनों से खींचकर बाहर निकाल दिया गया। दौलतमंदों को भिखारी बना दिया गया। जो शौकीन लोग कभी तरह-तरह के सुंदर कपड़े पहनकर पोशाकों का नया-नया फैशन चलाते थे, अब नंगे घूमने लगे, और जिनके पास ज़मीन-जायदाद की कोई कमी नहीं थी, वे अब बेघर हो गए… नया शहर (शाहजहाँनाबाद) अब मलबे का ढेर बन गया। (नादिरशाह ने) तब शहर के पुराने मोहल्लों पर हमला बोला और वहाँ की सारी की सारी दुनिया को तबाह कर डाला…

साम्राज्य पर सब ओर से दबाव तो पड़ ही रहा था, अभिजातों के विभिन्न समूहों की पारस्परिक प्रतिद्वंद्विता ने उसे और भी कमज़ोर बना डाला। ये अभिजात दो बड़े गुटों में बँटे हुए थे ईरानी और तूरानी (तुर्क मूल के)। काफ़ी समय तक परवर्ती मुग़ल बादशाह इनमें से एक या दूसरे समूह के हाथों की कठपुतली बने रहे। बेहद अपमानजनक स्थिति तब पैदा हो गई, जब दो मुग़ल बादशाहों – फर्रुखसियर (1713-1719) और आलमगीर द्वितीय (1754-1759) की हत्या हो गई और दो अन्य बादशाहों, अहमदशाह (1748-1754) और शाह आलम द्वितीय (1759-1816) को उनके अभिजातों ने अंधा कर दिया।

मुग़ल सम्राटों की सत्ता के पतन के साथ-साथ बड़े प्रांतों के सूबेदारों और बड़े ज़मींदारों ने उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में अपनी शक्ति और प्रबल बना ली, जैसे अवध, बंगाल और हैदराबाद।

राजपूत

बहुत-से राजपूत घराने विशेष रूप से अम्बर और जोधपुर के राजघराने मुग़ल व्यवस्था में विशिष्टता के साथ सेवारत रहे थे। बदले में उन्हें अपनी वतन जागीरों पर पर्याप्त स्वायत्तता का आनंद लेने की अनुमति मिली हुई थी। अब अठारहवीं शताब्दी में इन शासकों ने अपने आस-पास के इलाकों पर अपने नियंत्रण का विस्तार करने के लिए अपने हाथ-पाँव मारने शुरू किए। जोधपुर के राजा अजीत सिंह ने भी मुगल दरबार की गुटीय राजनीति में अपने पैर फैसा दिए।

इन प्रभावशाली राजपूत घरानों ने गुजरात और मालवा के लाभदायक सूबों की सूबेदारी का दावा किया। जोधपुर के राजा अजीत सिंह को गुजरात की सूबेदारी और अम्बर के सवाई राजा जयसिंह को मालवा की सूबेदारी मिल गई। बादशाह जहांदार शाह ने 1713 में इन राजाओं के इन पदों का नवीकरण कर दिया। उन्होंने अपने वतनों के पास-पड़ौस के शाही इलाकों के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा करने की भी कोशिशें की। जोधपुर राजघराने ने नागौर को जीत लिया और अपने राज्य में मिला लिया। दूसरी ओर अम्बर ने भी बूंदी के बड़े-बड़े हिस्सों पर अपना कब्ज़ा कर लिया। सवाई राजा जयसिंह ने जयपुर में अपनी नई राजधानी स्थापित की और उसे 1722 में आगरा की सूबेदारी दे दी गई। 1740 के दशक से राजस्थान में मराठों के अभियानों ने इन रजवाड़ों पर भारी दबाव डालना शुरू कर दिया, जिससे उनका अपना विस्तार आगे होने से रुक गया।

जयपुर के राजा जयसिंह

1732 के एक फारसी वृत्तांत में राजा जयसिंह का वर्णनः राजा जयसिंह अपनी सत्ता की चरम सीमा पर थे। बारह वर्ष के लिए वे आगरा के सूबेदार रहे और पाँच या छह वर्ष के लिए मालवा के। उनके पास विशाल सेना, तोपखाना तथा भारी मात्र में धन-संपदा थी। उनका प्रभाव दिल्ली से लेकर नर्मदा के तट तक फैला हुआ था।

आज़ादी हासिल करना

सिक्ख

अध्याय 6 में आपने पढ़ा कि सत्रहवीं शताब्दी के दौरान सिक्ख एक राजनैतिक समुदाय के रूप में गठित हो गए। इससे पंजाब के क्षेत्रीय राज्य-निर्माण को बढ़ावा मिला। गुरु गोबिंद सिंह ने 1699 में खालसा पंथ की स्थापना से पूर्व और उसके पश्चात् राजपूत व मुगल शासकों के खिलाफ़ कई लड़ाइयाँ लड़ीं। 1708 में गुरु गोबिंद सिंह की मृत्यु के बाद बंदा बहादुर के नेतृत्व में ‘खालसा’ ने मुग़ल सत्ता के खिलाफ़ विद्रोह किए। उन्होंने बाबा गुरु नानक और गुरु गोबिंद सिंह के नामों वाले सिक्के गढ़कर अपने शासन को सार्वभौम बताया। सतलुज और यमुना नदियों के बीच के क्षेत्र में उन्होंने अपने प्रशासन की स्थापना की। 1715 में बंदा बहादुर को बंदी बना लिया गया और उसे 1716 में मार दिया गया।

अठारहवीं शताब्दी में कई योग्य नेताओं के नेतृत्व में सिक्खों ने अपने- आपको पहले ‘जत्थों’ में, और बाद में ‘मिस्लों’ में संगठित किया। इन जत्थों और मिस्लों की संयुक्त सेनाएँ ‘दल खालसा’ कहलाती थीं। उन दिनों दल खालसा, बैसाखी और दीवाली के पर्वों पर अमृतसर में मिलता था। इन बैठकों में वे सामूहिक निर्णय लिए जाते थे, जिन्हें गुरमत्ता (गुरु के प्रस्ताव) कहा जाता था। सिक्खों ने राखी व्यवस्था स्थापित की, जिसके अंतर्गत किसानों से उनकी उपज का 20 प्रतिशत कर के रूप में लेकर बदले में उन्हें संरक्षण प्रदान किया जाता था।

गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा को प्रेरित किया था कि शासन उनके भाग्य में है (राज करेगा खालसा)। अपने सुनियोजित संगठन के कारण खालसा, पहले मुग़ल सूबेदारों के खिलाफ़ और फिर अहमदशाह अब्दाली के खिलाफ़ सफल विरोध प्रकट कर सका। (अहमदशाह अब्दाली ने मुग़लों से पंजाब का समृद्ध प्रांत और सरहिंद की सरकार को अपने कब्जे में कर लिया था।) खालसा ने 1765 में अपना सिक्का गढ़कर सार्वभौम शासन की घोषणा की। यह महत्त्वपूर्ण है कि सिक्के पर उत्कीर्ण शब्द वही थे, जो बंदा बहादुर के समय में खालसा के आदेशों में पाए जाते हैं।

अठारहवीं शताब्दी के अंतिम भाग में सिक्ख इलाके सिंधु से यमुना तक फैले हुए थे, यद्यपि ये विभिन्न शासकों में बँटे हुए थे। इनमें से एक शासक महाराजा रणजीत सिंह ने विभिन्न सिक्ख समूहों में फिर से एकता कायम करके 1799 में लाहौर को अपनी राजधानी बनाया।

मराठा

मराठा राज्य एक अन्य शक्तिशाली क्षेत्रीयू राज्य था, जो मुगल शासन का लगातार विरोध करके उत्पन्न हुआ था। शिवाजी (1627-1680) ने शक्तिशाली योद्धा परिवारों (देशमुखों) की सहायता से एक स्थायी राज्य की स्थापना की। अत्यंत गतिशील कृषक-पशुचारक (कुनबी) मराठों की सेना के मुख्य आधार बन गए। शिवाजी ने प्रायद्वीप में मुग़लों को चुनौती देने के लिए इस सैन्य-बल का प्रयोग किया। शिवाजी की मृत्यु के पश्चात्, मराठा राज्य में प्रभावी शक्ति, चितपावन ब्राह्मणों के एक परिवार के हाथ में रही, जो शिवाजी के उत्तराधिकारियों के शासनकाल में ‘पेशवा’ (प्रधानमंत्री) के रूप में अपनी सेवाएँ देते रहे। पुणे मराठा राज्य की राजधानी बन गया।

पेशवाओं की देखरेख में मराठों ने एक अत्यंत सफल सैन्य संगठन का विकास कर लिया। उनकी सफलता का रहस्य यह था कि वे मुग़लों के किलाबंद इलाकों से टक्कर न लेते हुए, उनके पास से चुपचाप निकलकर शहरों-कस्बों पर हमला बोलते थे और मुगल सेना से ऐसे मैदानी इलाकों में मुठभेड़ लेते थे; जहाँ रसद पाने और कुमक आने के रास्ते आसानी से रोके जा सकते थे।

1720 से 1761 के बीच, मराठा साम्राज्य का काफ़ी विस्तार हुआ। उसने शनैः-शनैः और काफ़ी सफलतापूर्वक मुगल साम्राज्य की सत्ता को क्षति पहुँचाई। 1720 के दशक तक मालवा और गुजरात मुग़लों से छीन लिए गए। 1730 के दशक तक, मराठा नरेश को समस्त दक्कन प्रायद्वीप के अधिपति के रूप में मान्यता मिल गई और साथ ही इस क्षेत्र पर चौथ और सरदेशमुखी कर वसूलने का अधिकार भी मिल गया।

1737 में दिल्ली पर धावा बोलने के बाद मराठा प्रभुत्व की सीमाएँ तेज़ी से बढ़ीं। वे उत्तर में राजस्थान और पंजाब, पूर्व में बंगाल और उड़ीसा तथा दक्षिण में कर्नाटक और तमिल एवं तेलुगु प्रदेशों तक फैल गईं। इन क्षेत्रों को औपचारिक रूप से मराठा साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया गया, मगर मराठा प्रभुसत्ता को स्वीकार करने के तरीके के रूप में उनसे भेंट की रकम ली जाने लगी। साम्राज्य के इस विस्तार से उन्हें संसाधनों का भंडार तो मिल गया, मगर उसके लिए उन्हें कीमत भी चुकानी पड़ी। मराठों के सैन्य अभियानों के कारण अन्य शासक भी उनके खिलाफ़ हो गए। परिणामस्वरूप मराठों को 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में अन्य शासकों से कोई सहायता नहीं मिली।

अंतहीन सैन्य अभियानों के साथ-साथ मराठों ने एक प्रभावी प्रशासन व्यवस्था तैयार की। जब किसी इलाके पर एक बार विजय अभियान पूरा हो जाता था और मराठों का शासन सुरक्षित हो जाता था, तो वहाँ स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए धीरे-धीरे भू-राजस्व की माँग की गई। कृषि को प्रोत्साहित किया गया और व्यापार को पुनर्जीवित किया गया। इससे सिंधिया, गायकवाड़ और भोंसले जैसे मराठा सरदारों को शक्तिशाली सेनाएँ खड़ी करने के लिए संसाधन मिल सके। 1720 के दशक में मालवा में मराठा अभियानों ने उस क्षेत्र में स्थित शहरों के विकास व समृद्धि को कोई हानि नहीं पहुँचाई। उज्जैन सिंधिया के संरक्षण में और इंदौर होल्कर के आश्रय में फलता-फूलता रहा। ये शहर हर तरह से बड़े और समृद्धिशाली थे और वे महत्त्वपूर्ण वाणिज्यिक और सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में कार्य कर रहे थे। मराठों द्वारा नियंत्रित इलाकों में व्यापार के नए मार्ग खुले। चंदेरी के क्षेत्र में उत्पादित रेशमी वस्त्रों को मराठों की राजधानी पुणे में नया बाजार मिला। बुरहानपुर पहले आगरा और सूरत के बीच की धुरी पर ही अपने व्यापार में संलग्न था, लेकिन अब उसने अपने वाणिज्यिक भीतरी क्षेत्र को बहाकर दक्षिण में पुणे और नागपुर को तथा पूर्व में लखनऊ तथा इलाहाबाद को शामिल कर लिया था।

जाट

अन्य राज्यों की तरह जाटों ने भी सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दियों में अपनी सत्ता सुदृढ़ की। अपने नेता चूड़ामन के नेतृत्व में उन्होंने दिल्ली के पश्चिम में स्थित क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण कर लिया। 1680 के दशक तक आते-आते उनका प्रभुत्व दिल्ली और आगरा के दो शाही शहरों के बीच के क्षेत्र पर होना शुरू हो गया। वस्तुतः कुछ अर्से के लिए वे आगरा शहर के अभिरक्षक ही बन गए।

जाट, समृद्ध कृषक थे और उनके प्रभुत्व-क्षेत्र में पानीपत तथा बल्लभगढ़ जैसे शहर महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बन गए। सूरजमल के राज में भरतपुर शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरा। 1739 में जब नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला बोलकर उसे लूटा, तो दिल्ली के कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भरतपुर में शरण ली। नादिरशाह के पुत्र जवाहिरशाह के पास तीस हज़ार सैनिक थे। उसने बीस हज़ार अन्य सैनिक मराठाओं से लिए, पंद्रह हज़ार सैनिक सिक्खों से लिए और इन सबके बलबूते पर वह मुग़लों से लड़ा।

जहाँ भरतपुर का किला काफ़ी हद तक पारंपरिक शैली में बनाया गया, वहीं दीग में जाटों ने अम्बर और आगरा की शैलियों का समन्वय करते हुए एक विशाल बाग-महल बनवाया। शाही वास्तुकला से जिन रूपों को पहली बार शाहजहाँ के युग में जोड़ा गया था, दीग की इमारतें उन्हीं रूपों के नमूने पर बनाई गई थीं।

यह भी पढ़ें : क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण : अध्याय 7

फिर से याद करें

1. बताएँ सही या गलत :

(क) नादिरशाह ने बंगाल पर आक्रमण किया। (गलत)

(ख) सवाई राजा जयसिंह इन्दौर का शासक था। (गलत)

(ग) गुरु गोबिद सिंह सिक्खों के दसवें गुरु थे। (सही)

(घ) पुणे अठारहवीं शताब्दी में मराठों की राजधानी बना। (सही)

आइए विचार करें

2. अठारहवीं शताब्दी में सिक्खों को किस प्रकार संगठित किया गया?
Ans.
अठारहवीं शताब्दी में कई योग्य नेताओं के नेतृत्व में सिक्खों ने अपने आपको पहले जत्थों में और बाद में ‘मिस्लों में संगठित किया। इन जत्थों और मिस्लों की संयुक्त सेनाएँ ‘दल खालसा’ कहलाती थीं। उन दिनों दल खालसा, बेसाखी ओर दीवाली के पर्वो पर अमृतसर में मिलता था। इन बैठकों में वे सामूहिक निर्णय लिए जाते थे, जिन्हें गुरमत्ता (गुरु के प्रस्ताव) कहा जाता था। सिक्खों ने राखी व्यवस्था स्थापित की, जिसके अंतर्गत किसानों से उनकी उपज का 20 प्रतिशत कर के रूप में लेकर बदले में उन्हें संरक्षण प्रदान किया जाता था।

3. मराठा शासक दक्कन के पार विस्तार क्यों करना चाहते थे?
Ans.
मराठा शासक निम्न कारणों से दक्कन के पार अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहते थे

1. मराठा सरदारों को शक्तिशाली सेनाएँ खड़ी करने के लिए संसाधन मिल सके।

2. एक बड़े क्षेत्र पर शासन स्थापित करने के लिए।

3. उत्तरी मैदानी भागों के उपजाऊ क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए।

4. अधिक-से-अधिक क्षेत्रों से चौथ तथा सरदेशमुखी वसूल करने के लिए।

4. क्या आपके विचार से आज महाजन और बैंकर उसी तरह का प्रभाव रखते हैं, जैसाकि वे अठारहवीं शताब्दी में रखा करते थे?
Ans.
हमारे विचार में आज महाजन और बैंकर उस तरह का प्रभाव नहीं रखते, क्योंकि 18वीं सदी में महाजन और बैंकर निम्र तरीके से राज्य को प्रभावित करते थे

1. राज्य ऋण प्राप्त करने के लिए स्थानीय सेठ, साहूकारों और महाजनों पर निर्भर रहता था।

2. साहूकार महाजन लोग लगान वसूल करने वाले इजारेदारों को पैसा उधार देते थे, बदले में बंधक के रूप में जमीन रख लेते थे।

3. साहूकार महाजन जैसे कई नए सामाजिक समूह राज्य की राजस्व प्रणाली के प्रबंध को भी प्रभावित करने लगे थे।

5. क्या अध्याय में उल्लिखित कोई भी राज्य आपके अपने प्रांत में विकसित हुए थे? यदि हाँ, तो आपके विचार से अठारहवीं शताब्दी का जनजीवन आगे इक्कीसवीं शताब्दी के जनजीवन से किस रूप में भिन्न था?
Ans.
21वीं शताब्दी का जनजीवन बहुत ही तेज है जबकि 18 सताब्दी का जनजीवन धीमा था।

• 21वीं शताब्दी में कृषि वैज्ञानिक ढंग से की जाती है। इसके विपरीत 18वीं शताब्दी में कृषि बहुत ही पिछड़ी हुई थी।

• 21वीं शताब्दी में शिक्षा का प्रसार तेज़ी से हो रहा है। 18 वीं शताब्दी में शिक्षा का क्षेत्र बहुत सीमित था।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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