तिलहन प्रदान करने वाले पौधे

तेल (oil) एवं वसा (Fats) मानव को पूर्व ऐतिहासिक काल से ही ज्ञात थे। मिश्र (Egypt) में प्राचीन सभ्यता के लोग वनस्पति तेलों (vegetable oils) का प्रयोग भोजन व अपने शरीर के विलेपन (anointment) में करते थे। वनस्पति तेलों को उनकी प्रकृति के आधार पर दो समूहों – वाष्पशील अथवा सगंध तेल (volatile or essential oil) तथा अवाष्पशील अथवा वसीय तेल (fixed or fatty oils) में विभेदित किया जा सकता है।

वाष्पशील अथवा सगंध तेल (Volatile or Essential oils)

रसायनतः वाष्पशील तेल अनेक कार्बनिक पदार्थों जैसे बेन्जीन (benzene), टर्पीन (terpene) तथा अनेक हाइड्रोकार्बन व अन्य ऋजु यौगिकों (Straight chain compounds) से व्युत्पन्न होते हैं।*

इनके अणु अपेक्षाकृत छोटे होते हैं उनमें प्रायः 20 से कम कार्बन परमाणु होते हैं। वायु के सम्पर्क में आने पर इनका वाष्पीकरण होता है। अतः प्रत्येक वाष्पशील तेल में एक विशिष्ट ऐरोमैटिक गंध होती है। ये ऐन्जियोस्र्पास के लगभग 60 कुलों के पौधों में पाये जाते हैं। जिनमें लेमिएसी (Lamiaceae), रूटेसी (Rutaceae) एपिएसी (Apiaceae) एस्टरेसी (Asteraceae), लौरेसी (Lauraceae), फैबेसी (Fabaceae) व पोएसी (poaceae) प्रमुख हैं। वाष्पशील तेलों को पौधों से बिना इनके रसायनिक संगठन में परिवर्तन हुए प्राप्त (extract) किया जा सकता है।

वाष्पशील तेल अनेक उद्योगों में प्रयोग किये जाते हैं। अत्यधिक वाष्पशीलता के कारण इन्हें इत्र (perfume) व अन्य प्रसाधन सामग्रियों के निर्माण में प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त अनेक वाष्पशील तेल औषधियों के निर्माण में काम आते हैं। देवदार के तेल (cedar wood oil) को सूक्ष्मदर्शी के तेल निमज्जन अभिदृश्यक  (oil immersion lens) का प्रयोग करते समय आरोपण मध्यम (mounting medium) के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।* यूकेलिप्टस तेल (eucalyptus oil) को अयस्कों (ores) से खनिजों को अलग करने में प्रयोग किया जाता है।*

यद्यपि वाष्पशील तेल अधिकांशतः पौधों के पुष्पीय अंगों में पाये जाते हैं परन्तु कायिक अंगों, जैसे पत्ती, छाल अथवा फल या बीज में इनकी उपस्थिति असामान्य नहीं है। पौधों के विभिन्न अंगों से इनके निष्कर्षण की विधि तेल की मात्रा व उनकी स्थिरता पर निर्भर करती है।

कुछ प्रमुख वाष्पशील तेल एवं उनके स्त्रोत
वाष्पशील तेल (Essential oil)
उपयोगी भाग (Part as Source)
कुल (Family)
1. गुलाब इत्र (Otto of roses)
पुष्प
रोजेसी
2. जिरेनियम का तेल (Geranium oil)
पत्तियाँ
जिरेनिएसी
3. लैमनग्रास तेल (Lemongrass oil)
पत्तियाँ
पोएसी
4. खस का तेल (Vetiver oil)
जड़*
पोएसी
5. चन्दन का तेल (Sandalwood oil)
काष्ठ
सेन्टेलेसी
6. नेरॉली का तेल (Oil of Neroli)
पुष्प
स्टेसी
7. चमेली का तेल (Lavender oil)
पुष्प
लेमिएसी
8. रोज़मैरी तेल (Rosemary oil)
पत्ती एवं पुष्प
लेमिएसी
9. चम्पा का तेल (Champaca oil)
पुष्प
मैग्नोलिएसी
10. कपूर (Camphor)
काष्ठ
लौरेसी
11. देवदार का तेल (Cedarwood oil)
काष्ठ
क्यूपरैसेसी
12. लौंग का तेल (Clove oil)
पुष्प कलिकाएँ
मिट्रेसी
13. युकेलिप्टस का तेल (Eucalyptus oil)
पत्तियाँ एवं कोमल शाखाएँ
मिट्रेसी
14. पिपरमिंट का तेल (Peppermint oil)
पत्तियाँ एवं शाखाएँ
लेमिएसी

अवाष्पशील (वसीय) तेल एवं वसा (Fixed or Fatty Oils and Fats)

रसायनतः अवाष्पशील तेल एवं वसा जटिल कार्बनिक वसीय अम्लों के ट्राइग्लिसरॉइड हैं। चूंकि ये वाष्पीकृत नहीं होते हैं इसीलिए इन्हें अवाष्पशील तेल (Fixed oil) कहा जाता है। शुद्ध अवस्था में इनमें कोई गंध नहीं होती है। परन्तु खुला छोडने पर ये विकृत गंधी (rancid) हो जाते हैं। ये जल में अघुलनशील परन्तु कार्बनिक विलायकों (solvents) में घुलनशील होते हैं।

वसीय तेल सामान्यतः संचयी भोजन के रूप में पाये जाते हैं। इनके मुख्य स्रोत बीज हैं। इसके अतिरिक्त ये पौधे के अन्य भागों, जैसे फल, कन्द, स्तम्भ, आदि में भी पाये जाते हैं।

➤ वसीय तेलों का वर्गीकरण (Classification of Vegetable Oils)

वसीय तेलों को उनकी वायुमण्डल से ऑक्सीजन अवशोषण करने की क्षमता के आधार पर, निम्नलिखित चार वर्गों में बाँटा गया है।

(I) सुखने वाले तेल (Drying oils): खुला छोड़ने पर ये तेल वायुमण्डल से तुरन्त ऑक्सीजन अवशोषित कर लेते हैं और एक पतली लचीली परत बनाते हैं। इनमें असंतृप्त वसीय अम्लों, जैसे लिनोइक एवं लिनोलीनिक अम्ल की पर्याप्त मात्रा होती है तथा इनकी आयोडीन संख्या (Iodine number) प्रायः 130 से अधिक होती है।*

सूखने वाले तेलों का प्रयोग मुख्यतः पेन्टिग तथा वार्निश उद्योग में किया जाता है। अलसी का तेल (linseed oil) कुसुम का तेल (safflower oil), तुंग तेल (tung oil) व सोयाबीन का तेल (Soyabean oil) सूखने वाले तेलों के प्रमुख उदाहरण हैं।

(II) अंशतः शुष्क तेल (Semi-drying oils) : ये तेल वायुमण्डल से बहुत धीरे-धीरे कम मात्रा में ऑक्सीजन अवशोषित करते हैं और बहुत समय तक खुला छोड़ने पर एक बहुत पतली परत बनाते हैं। इनमें लिनोइक व अन्य संतृप्त अम्लों की पर्याप्त मात्रा होती है। परन्तु लिनोलीनिक अम्ल का अभाव होता है। इनकी आयोडीन संख्या 100-130 तक होती है। इनका प्रयोग खाने में, जलाने में तथा साबुन व मोमबत्ती बनाने में किया जाता है। तिल का तेल (Sesame oil) सरसों का तेल (mustard oil) सूरजमुखी का तेल (sunflower oil) व मक्के का तेल (Com oil) अंशतः शुष्क तेलों के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं।

(III) अशुष्कन तेल (Non-drying oils) : ये तेल वातावरण से ऑक्सीजन अवशोषित नहीं करते हैं। अतः हवा में काफी समय तक रखने पर भी ये लचीली परत नहीं बनाते हैं। इनमें संतृप्त एवं ओलीक अम्ल (Saturated acids and oleic acid) की पर्याप्त मात्रा पायी जाती है। इनकी आयोडीन संख्या 100 से कम होती है।* इनका उपयोग खाने के अतिरिक्त साबुन व स्नेहकों (lubricants) के निर्माण में किया जाता है। मूंगफली का तेल (groundnut oil) अरंड तेल (Castor oil) व जैतून का तेल (olive oil) इस वर्ग के प्रमुख उदाहरण हैं।

(IV) वनस्पति वसा (Vegetable fats): ये सामान्य ताप में ठोस अथवा अर्धठोस (semisolid) होते हैं। इनमें संतृप्त वसीय अम्लों की पर्याप्त मात्रा होती है तथा इनकी आयोडीन संख्या बहुत कम (8-50) होती है।* ये खाद्य तेल हैं। इसके अतिरिक्त इनका प्रयोग साबुन व मोमबत्ती के निर्माण में भी किया जाता है। नारियल का तेल (coconut oil) ताड़ का तेल (plam oil) कोको वसा (cocoa butter) महुआ वसा (Mahua fat) आदि कुछ प्रमुख वनस्पति वसा हैं।

कुछ प्रमुख तिलहन फसले (Some Important Oil Crops)

➤ मूंगफली (Groudnut)

• वानस्पतिक नाम – अरैकिस हाइपोजिया (Arachis hypogea)
• कुल (Family) – लेग्यूमिनेसी (Leguminaceae)
• गुणसूत्र संख्या – 2n = 40

मूंगफली के सभी भागों का एक महत्त्वपूर्ण उपयोग है। दैनिक जीवन के साथ-ही-साथ इसका औद्योगिक उपयोग भी है। मूंगफली का हरा भाग जो कि खुदाई के बाद प्राप्त होता है पशुओं को खिलाने के काम में लाया जाता है। मूँगफली का दाना (kernels) जिसका कि उत्पादन भारत में बहुत अधिक होता है, एक बहुत ही पौष्टिक पदार्थ है। इसमें कुछ खनिज पदार्थ, फॉस्फोरस, कैल्शियम व लोहा भी प्रर्याप्त मात्रा में होते हैं।

मूँगफली वानस्पतिक प्रोटीन का एक सस्ता एवं अच्छा स्रोत है। मूँगफली में मांस से 1.3 गुना, अंडों से 2.5 गुना तथा फलों से 8 गुना अधिक प्रोटीन होता है। इसमें प्रायः थाइमिन, राइबोफ्लेविन और निकोटिन अम्ल पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। विटामिन ए,, बी,, बी, तथा ई भी पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। 12

मूँगफली के दाने में लगभग 45% तेल पाया जाता है जिसका उपयोग खाद्य-पदार्थों के रूप में किया जाता है। इसके तेल में लगभग 82% तरल, चिकनाई वाले ‘ओलिक’ (56%) तथा ‘लिनोलिक’ (25%) अम्ल पाये जाते हैं। मूँगफली के दाने में 25.33% प्रोटीन, 10.2% कार्बोहाइड्रेट व 45% वसा (तेल) पाई जाती है।* इसके तेल का मुख्य उपयोग वानस्पतिक घी व साबुन बनाने में किया जाता है। कुछ सीमा तक मूँगफली के तेल का उपयोग सौंदर्य प्रसाधनों, सेविंग क्रीमों, कोल्ड क्रीमों आदि के निर्माण के लिये तथा पशु चिकित्सा एवं दवाओं के क्षेत्रों में भी किया जाता है। तेल निकालने के बाद बची हुई खली भी एक पौष्टिक पशु आहार एवं जैविक खाद के रूप में काम आती है। इसकी खली में 8% नाइट्रोजन, 1.5% फॉस्फोरस और 1.3% पोटाश पाया जाता है।* दानों को कच्चा एवं तलकर मीठे अथवा नमकीन व्यंजन बनाकर काम में लाया जाता है। मूँगफली से दूध व दही भी उत्तम गुणों वाला तैयार किया जाता है।

मूंगफली एक दलहनी फसल होने के कारण इसकी जड़ों में पाये जाने वाले जीवाणु वातावरण से मृदा से नत्रजन एकत्रित करते हैं। अतः मृदा उर्वरता बढ़ाने के लिये विभिन्न फसल-चक्रों में मूँगफली को अपनाते हैं।

➤ तिल (Sesame)

• वानस्पतिक नाम : सिसेम इन्डिकम (Sesanum indicum)
• देशी नाम : तिल (Til)
• कुल (Family)- पिडैलिएसी (Pedaliaceae)*

मनुष्य को अन्य तिलहन फसलों की तरह ही तिल का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। तिल से कुछ मिठाइयाँ भी तैयार की जाती हैं। तिल के बीज का प्रमुख उपयोग तेल तैयार करने के लिये किया जाता है। इसके तिल का प्रयोग खाना बनाने, शरीर में लगाने, व्यापारिक सुगन्धित तेल तैयार करने, साबुन बनाने, बादाम के तेल में मिश्रण करने इत्यादि के लिये किया जाता है। इसके बीजों में 50% तेल व 18-20% तक प्रोटीन होती है। * तिल की खली पौष्टिक एवं स्वादिष्ट होती है। जिसका प्रयोग (1) खली में चीनी तथा गुड़ मिलाकर मनुष्यों के खाने के लिये प्रयोग की जाती है। (2) दूध देने वाले पशुओं के लिये लाभदायक एवं पौष्टिक भोजन है। (3) यदि इसका प्रयोग पशुओं के खिलाने के लिये नहीं करते हैं तो इसे खाद के रूप में भी प्रयोग में लाते हैं।

तिल की खली प्रोटीन (6.2%), कैल्शियम, फॉस्फोरस (2.0%); ‘पोटाश (1.2%) व विटामिन; नियासिन आदि में धनी होती है। तिल का तेल कई दवाइयों में भी काम लिया जाता है। तिल के सूखे पौधे का प्रयोग ईंधन के रूप में किया जाता है।

तिल का तेल अंशतः शुष्क तेलों के वर्ग में आता है। इसमें ओलिइक अम्ल (37-50%) लिनोलिक अम्ल (37-40%), पामिटिक अम्ल (7-9%) व स्टिऐरिक अम्ल (4-5%) होते हैं। तिल के तेल के दो प्रमुख अवयव सिसेमिन (0.5-1.0%) व सिसेमोलिन (0.3- 0.5%) हैं।* ये पदार्थ अन्य किसी वसीय तेल में नहीं पाये जाते हैं। सिसेमोलिन के जल अपघटन (hydrolysis) से सिसेमोल (sesamol) बनता है। जो सशक्त ऐन्टिटॉक्सिडेन्ट (antioxidant) है।*

➤ सरसों (Mustard)

• वानस्पति नाम ब्रेसिका स्पीसीज (Brassica species)
• कुल (Family) – क्रूसीफेरी (Cruciferae)
• वंश (Genus) ब्रैसिका (Brassica)

सरसों का तेल ब्रैसिका (Brassica) की अनेक जातियों से प्राप्त किया जाता है। इनमें बै० जन्सिया (rai), बै० कैम्पेस्ट्रिम किस्म पीली सरसों (Yellow sarson), बै० कैम्पेस्ट्रिम किस्म डाइकोटोमा (dichotoma, brown sarson), बै० कैम्पोस्ट्रिम किस्म तोरिया (toria, lahi), बै० नेपस (kali sarson) व बै० जन्सिया (rai or Indian mustard) की जातियों का उदगम उत्तरी शीतोष्ण भूमध्यसागरीय क्षेत्र से हुआ है। हमारे देश में इन जातियों की पुरः स्थापना चीन से हुई है।*

बैसिका कैम्पेस्ट्रिस की तीन किस्में – सरसों (sarson), डाइकोटोमा (dichotoma) व तोरिया (toria) सामूहिक रूप से तोरिया (toria, rape) कहलाती हैं और बै० जन्सिया को सरसों अथवा राई (mustard or rai) कहते हैं।

सरसों का उपयोग भिन्न-भिन्न रूपों में किया जाता है। सरसों के हरे पौधे से लेकर सूखे तने और शाखाओं एवं बीज आदि सभी का मानव उपयोग में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है।

सरसों के हरे पौधे का प्रयोग जानवरों के हरे चारे के लिये किया जाता है। मानव सब्जी के रूप में भी नई कोमल शाखाओं का उपयोग किया जाता है। सरसों और तोरिया के तेल के कुछ महत्त्वपूर्ण उपयोग इस प्रकार हैं- जलाने के लिये, शरीर की मालिश के लिये, चमड़े और लकड़ी के सामान पर लगाने के लिये तथा साबुन और रबर के सामान निर्माण में। सरसों के बीजों को टेबिल मस्टर्ड, मसाले तथा अचार और सब्जियों के लिये भी प्रयोग किया जाता है।

तोरिया व सरसों की विभिन्न किस्मों में तेल की मात्रा 30-48% तक होती है। परन्तु तेल की मात्रा जलवायवीय कारकों (Climatic factors) से भी प्रभावित होती है। बीजों से तेल का निष्कर्षण यांत्रिक निष्पीडन (Mechanical expression) द्वारा किया जाता है। इनमें धानी, ऐक्सपैलर (expeller) व द्रवचालित मशीनें प्रमुख हैं। आजकल बड़ी तेल मिलों में विलायक निष्कर्षण (solvent extraction) विधि प्रयोग की जा रही है।

सरसों का तेल अंशतः शुष्क तेलों (Semi-drying oils) के वर्ग में आता है। इसमें 36% वसा, 25% नाइट्रोजनी पदार्थ, 7% नमी व अनेक वसीय अम्ल पाये जाते हैं। एरुसिक अम्ल (erucic acid) सरसों के तेल का लाक्षणिक वसीय अम्ल है। * इसकी मात्रा कुल वसीय अम्लों की 45-50% तक होती है। सरसों के तेल की तीखी गंध (Pungent smell) ऐलिल-आइसो-थायोसाइनेट की उपस्थिति के कारण होती है। * यह यौगिक सरसों के बीज में उपस्थित सिनिग्रिन (Sinigrin) नामक ग्लाइकोसाइड के जल अपघटन से बनता है।

पशु आहार के रूप में बीज, तेल और खली का ठण्डा प्रभाव पड़ता है तथा बहुत से रोग और बीमारियों की रोकथाम में भी सहायता मिलती है। खली में करीब 4.9% नाइट्रोजन, 2.5% फॉस्फोरस तथा 1.5% पोटाश होता है। इसलिए विश्व के कुछ भागों में इसका प्रयोग खाद के रूप में किया जाता है। भारत में खली केवल पशुओं को ही खिलाई जाती है। तोरिया और सरसों का हरी खाद तथा तेल का उपयोग ब्लोन तेल, विशिष्ट चिकनाइयों, म मिठाइयों तथा अन्य वस्तुओं के साथ मिश्रण में, खनिज तेलों, ग्रीस, साबुन और प्लास्टिक के निर्माण में किया जाता है। इस्पात उद्योग में इस्पात प्लेटों के द्रुत शीतलन और चमड़े को मुलायम करने में भी तेल का प्रयोग किया जाता है। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान सरसों के बीजों से विनाशकारी सरसों की गैस (mustard gas) बनाई थी। तोरिया का तेल मुख्य रूप से ग्रीस (Greases) बनाने के काम आता है।

➤ अलसी (Linseed or Flax)

• वानस्पतिक नाम लाइनम यूसीटैटिसिमम (Limnum usitatissimum)

• कुल (Family)-लाइनेसी (Linaceae)

• गुणसूत्र संख्या-2n = 30

महत्त्व एवं उपयोग (Importance and Utility) – अलसी तिलहन वर्ग की एक महत्त्वपूर्ण फसल है। इसके तने से रेशा भी उत्पन्न होता है। अतः रेशे वाली फसलों के समान भी इसका कुछ महत्त्व है।

अलसी के दानों का प्रयोग तेल निकालने के लिये प्रमुख रूप से किया जाता है। इसके बीजों से जल्दी सूखने वाला तेल प्राप्त किया जाता है। जिसका व्यापारिक दृष्टि से बड़ा महत्त्व है। तेल निकालने के बाद बची हुई खली पशुओं के लिये एक पौष्टिक आहार के रूप में काम आती है। इसका उपयोग खाद के रूप में भी किया जाता है। अलसी की खली में पौधों के मुख्य पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। इसके अलावा अलसी का बीज अन्य अनाजों के साथ पीसकर दाने में भी प्रयोग किया जाता है। अलसी के बीज का प्रयोग पुल्टिस बनाने, सुगन्धित तेल तथा अन्य औषधियाँ तैयार करने में किया जाता है। इसके पौधों के तने से रेशे निकाले जाते हैं, जिनका प्रयोग कैनवास दरी तथा अन्य प्रकार के मोटे कपड़े तैयार करने में किया जाता है। रेशे निकालने के बाद बचे हुए तने का हिस्सा, सिगरेट में प्रयोग होने वाले कागज बनाने के काम में आता है।

अलसी के तेल का प्रयोग रंग, पेन्टस, वार्निस और छपाई के लिये प्रयुक्त स्याही तैयार करने के लिये भी किया जाता है। इसके तेल का प्रयोग खाने के लिये, साबुन बनाने के लिये तथा कुछ स्थानों पर प्रकाश करने के लिये दीपक में जलाकर भी किया जाता है। अलसी का रासायनिक संगठन निम्न प्रकार है।

अलसी के दानों का रासायनिक संगठन
अवयव
दाना%
खली%
• लिनोलिनक अम्ल
50.57
• बीज में पानी की मात्रा
66
8.0
• प्रोटीन
20.3
11.5
• वसा
38.0
26.3
• कार्बोहाइड्रेट
29.0
10.8
• रेशा
4.8
31.2
• राख (खनिज)
2.4
1.0

खाद के रूप में प्रयोग करने से खली के द्वारा 5% नत्रजन, 1.4% फॉस्फोरस व 1.8% पोटाश का योगदान होता है।

नारियल (Coconut)

• वानस्पतिक नाम : कोकोस न्यूसीफेरा (Cocos nucifera)

• देशी नाम :- नारियल (Coconut)

• कुल (Family)- ऐरिकेसी (Arecaceae)

तेल निकालने के लिये फल तोड़कर उनकी तीनों फलभित्तियों को हटाकर भ्रूणपोष को अलग कर लिया जाता है। सूखे हुए भ्रूणपोष, जिसे खोपरा अथवा गरी (Copra) कहते हैं, में 60-65% तक तेल होता है।* खोपरा के टुकड़े रोटरी मशीनों (Rotary mills), ऐक्सपैलर (expellers) अथवा द्रवचालित मशीनों (hydraulic machines) से दबाये जाते हैं जिससे उनमें उपस्थित तेल निकल आता है। आजकल उपरोक्त यांत्रिक निष्पीडन विधियाँ तथा विलायक निष्कर्षण विधियाँ साथ-साथ प्रयोग की जाती हैं जिससे तेल की अधिकतम मात्रा प्राप्त होती है।

नारियल का तेल वनस्पति वसाओं (vegetable fats) के वर्ग में आता है। 24°C से कम ताप पर यह ठोस होता है। इस तेल का साबुनीकरण मान (Saponification value) सबसे अधिक तथा आयोडीन नम्बर (Iodine number) सबसे कम है।* इसमें उपस्थित वसीय अम्लों में लौरिक अम्ल (lauric acid, 44-45%), मिरिस्टिक अम्ल (myristic acid, 13-18.5%) पामिटिक अम्ल (palmitic acid, 7.5-10.5%) कैप्रीलिक अम्ल (Caprylic acid, 5.5-9.5%), कैप्रिक अम्ल (Capric acid, 4.5-10.0%) ओलिक अम्ल (oleic acid 5.0-8.5%), लिनोलिक अम्ल (linoleic acid, 1.0-2.5%) व कैप्रोइक अम्ल (Caproic acid, 0.2-0.5%) प्रमुख हैं।

नारियल का तेल खाना बनाने के काम में लाया जाता है। इसके अतिरिक्त इसका उपयोग साबुन, प्रसाधन सामग्री (cosmetics), स्नेहक (lubricants), सेविंग क्रीम (Saving cream), शैम्पू (Shampoos) व सौन्दर्य प्रसाधन (toiletries) के निर्माण में भी किया जाता है। औषधियों में इसका उपयोग त्वचा के मलहम (skin ointment) बनाने में किया जाता है।

तेल निकालने के बाद बची खल, जिसे पूनक (Poonac) कहते हैं एक उत्तम पशु आहार होता है।

➤ खस (Khas)

• वानस्पतिक नाम : वेटिवेरिया जाइजेनिआडिस

(Vetiveria zizanioides)

• देशी नाम- खस-खस (Khas-khas vetiver)

• कुल (Family)- पोएसी (Poaceae)

खस-खस भारत का प्राकृत पौधा है। इसकी खेती सम्पूर्ण उष्णकटिबंधीय (tropical) एवं उपोष्ण (sub-tropical) क्षेत्रों में की जाती है।

यह बहुवर्षीय घास है जिसके आधारीय भाग पर झकड़ा जड़ों के गुच्छे पाये जाते हैं। इसकी वृद्धि एक भूमिगत संधिताक्षी प्रकन्द (sympodial rhizome) द्वारा होती है। राजस्थान, उत्तर-प्रदेश, पंजाब व पश्चिमी तटीय क्षेत्र इसके उत्पादन के प्रमुख क्षेत्र हैं। उत्तरी भारत में खस के तेल उद्योग का प्रमुख केन्द्र भरतपुर (राजस्थान) है। * तेल का निष्कर्षण इसकी जड़ों एवं प्रकन्द के वाष्पीय आसवन (Steam distillation) से किया जाता है। खस के तेल का उपयोग प्रसाधन सामग्री, इत्र व पेय (शर्बत) के निर्माण में किया जाता है। यह स्वेदनकारी (diaphoretic), उत्तेजक (stimulant) व प्रशीतक (refrigerant) है तथा इसका उपयोग बात (flatulence), उदरशूल (colic), गठिया (rheumatism), कमर दर्द (lumbago) व मोच (sprain) के उपचार में भी किया जाता है। यह एक कीट प्रतिकर्षी (insect repellent) भी है।

➤ सूरजमुखी (Sunflower)

• वानस्पतिक नाम हैलीएन्थस एन्नस (Helianthus annus Linn.)
• कुल (Family) कम्पोजिटी (Compositeae)
• गुणसूत्र संख्या 2n = 34

सूरजमुखी हमारे देश के लिये तिलहन की एक नई फसल है। इसके बीज से 46-52 प्रतिशत तक तेल व प्रोटीन 20-25% प्राप्त हो जाता है।* सूरजमुखी 90-100 दिन में तैयार हो जाती है; इसलिये इसे सघन फसल-चक्रों में भी सफलतापूर्वक उगाया जाता है। सूरजमुखी का तेल शीघ्रता से खराब नहीं होता अतः काफी समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। इसका तेल हृदय रोग से पीड़ित व्यक्तियों के लिये काफी लाभकारी रहता है।* इसके तेल का उपयोग वनस्पति घी के तैयार करने में भी किया जाता है। इसकी गिरी (Kernals) काफी स्वादिष्ट होती है। इसे कच्चा या भूनकर मूँगफली की तरह खाया जाता है। इसकी खली मवेशियों को खिलाने के काम में लाई जाती है। खली में उच्च कोटि की 40-44% तक प्रोटीन होती है। अतः इसे पशुओं व मुर्गियों के राशन में मिलाया जा सकता है। इससे बच्चों का आहार भी तैयार किया जा सकता है। इसकी गरी चिरौंजी व खरबूजे की गिरी के स्थान पर भी प्रयोग की जा सकती है।

इसको कुछ क्षेत्रों में चारे के लिये व बाग-बगीचों में अलंकारित पौधों (Ornamental) के रूप में भी उगाया जाता है।

इसके तेल में पामिटिक अम्ल (5.7-7.6%) स्टियरिक अम्ल (4- 7.6%), औलिक अम्ल (27.9-38.3%) व लिनोलिक अम्ल (51.6- 59.6%) तक पाया जाता है। पकवान आदि तैयार करने में भी इसका तेल बहुत अच्छा रहता है। विस्तृत रूप में इसके लाभ निम्न प्रकार है-

(अ) उत्पादकों के लिये लाभ-

• प्रकाश व तापक्रम का प्रभाव नहीं (प्रकाश उदासीन पौधा) होता है व किसी समय भी वर्ष में उगा सकते हैं।

• इसके पौधे कड़े व नमीयुक्त होते हैं अतः यह शुष्क खेती के लिये अच्छी है।

• यह बहु फसली खेती के लिये अच्छी है। इसे मूँगफली व – रागी के साथ बोते हैं तब 2: 6 उत्पादन होता है।

• तेल का प्रतिशत 46-52 होता है।

• कम समय की फसल है। तीन फसलें एक साल में ले सकते हैं।*

• इसे लवणीय भूमियों में भी उगा सकते हैं।

• कोई बाजार की दिक्कत नहीं जैसे सोयाबीन में।

• पौधा मधुमक्खी पालन व चारे के लिये भी उपयुक्त है।

(ब) ग्राहकों के लिये लाभ-

(1) बीज मानव उपयोगी खाने-पकाने के काम आता है।

(2) इसका तेल अधिकतर खाद्य तेल के रूप में ही प्रयोग होता है।

(3) उत्तमता की दृष्टि से उच्च गुण वाला तेल, यह लिनोलिक अम्ल (50-60%) देता है जो कि रक्तसिरम से कोलेस्ट्राल कम बनाते हैं। अतः हृदय रोगियों के लिए उपयुक्त है।

(4) यह विटामिन A, D व E का अच्छा स्रोत है।

(5) जब बीज से तेल निकाला जाता है तब खली में 45% प्रोटीन पाया जाता है।

(6) संग्रह में इसका तेल, शीघ्र खराब नहीं होता।

(स) कारखानों को लाभ-

(1) इससे तेल निकालना आसान है।

(2) एक वर्ष में तीन फसल प्राप्त होती है अतः तेल कारखानों का पूरे वर्ष उपयोग सम्भव है।

(3) इससे रिफाइन्ड तेल व वनस्पति घी बनाकर अधिक लाभ कमाया जाता है।

(4) इसमें ओलिक अम्ल 32-47% तक पाया जाता है, जो कि हाइड्रोजनिक प्रक्रिया को परिशुद्ध करता है।

➤ कुसुम (Safflower)

• वानस्पतिक नाम – कारथेमस टिंकटोरियम (Carthamus tinctorious L.)

• कुल (Family)

कम्पोजिटी (Compositae)

• गुणसूत्र संख्या 2n = 24

महत्त्व एवं उपयोग (Importance and Utility) – कुसुम की फसल मुख्यतः तेल के लिये उगाई जाती है। कपड़े व खाने के रंगों में कुसुम का प्रयोग किया जाता है। कृत्रिम रंगों का स्थान, कुसुम से तैयार रंग के द्वारा ले लिया गया है। इसके दानों में 32 प्रतिशत तक तेल पाया जाता है। तेल खाने-पकाने व प्रकाश के लिये व जलाने के काम आता है। यह साबुन, पैंट, वार्निश, लिनोलियम तथा इनसे सम्बन्धित पदार्थों को तैयार करने के काम में भी लिया जाता है। अलसी के तेल से तैयार पैंट व वार्निश, कुसुम के तेल से तैयार पैंट व वार्निश से घटिया किस्म के होते हैं। इसके तेल से तैयार पेंट व वार्निश में स्थायी चमक व सफेदी होती है। कुसुम के तेल का प्रयोग विभिन्न दवाइयों के रूप में भी किया जाता है। इसे उत्तेजक दवाई व दस्तावार दवाई के रूप में काम में लेते हैं। हरे पौधे को पशुओं के लिये चारे के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इससे साइलेज भी तैयार की जाती है। तेल-दानों से व रंग-फूलों से प्राप्त करते हैं। इसके हरे भागों से सब्जी भी तैयार की जाती है। इसकी सब्जी में लोहा व केरोटीन (विटामिन ए) की मात्रा काफी पायी जाती है। इसकी खली पशुओं को खिलाने या खाद के रूप में खेती हेतु प्रयोग की जा सकती है।

इसके तेल का प्रयोग कभी-कभी तिल के तेल व घी में मिलावट के काम में भी लाया जाता है। बम्बई के मीठा तेल (Sweet oil) में मूंगफली, तिल व कुसुम के तेल का ही मिश्रण होता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में इसके भंडारण से अनेच्छित गन्ध पैदा हो जाती है।

कुसुम के तेल को 300°F पर दो घण्टे तक गर्म करके इसे ठंडे पानी में उड़ेलकर ग्लेटीनस रोगन तैयार किया जाता है। यह पदार्थ, शीशे जोड़ने के लिये प्लास्टर ऑफ पेरिस की जगह काम में लाया जाता है। इस पदार्थ से साज-सज्जा में प्रयोग होने वाली टाइल्स व पत्थर भी जोड़े जा सकते हैं। कुसुम के तेल से वाटरप्रूफ कपड़ा भी तैयार किया जाता है।

कुसुम के फलों में मुख्यतः रंगों के दो पदार्थ कार्थामिन (Carthamin) व पीला (Safflower yellow) होता है। पहले वाला स्कारलेट लाल (कार्थामिन) रंग पानी में अघुलनशील होता है। फूलों में कार्थामिन 0.03-0.06 तक पाया जाता है जो कि कपास व रेशम को तेज लाल रंग प्रदान करता है। पीला रंग 26-36% तक फूलों में पाया जाता है। इस रंग का अभी तक कोई विशेष प्रयोग नहीं किया जाता। कार्थामिन का प्रभाव अच्छा बनाने के लिये, इसे पीले रंग से अलग किया जाता है।

भारतवर्ष से कार्थामिन का निर्यात करके विदेशी पूँजी भी कमाई जाती है। छिले दानों से प्राप्त खली पशुओं को खिलाने व बिना छिले दानों से प्राप्त खली, खाद के रूप में प्रयोग की जाती है। खाद के रूप में प्रयोग करने पर यह खली मृदा की भौतिक दशा को सुधारती है।

पशुओं को खिलाने के लिये छिले दानों से प्राप्त खली मूँगफली की खली से भी उत्तम रहती है। दानों से प्राप्त छिलका (hull) सैलूलोज आदि के बनाने में प्रयोग में ला सकते हैं। इसके दानों को भूनकर खाया भी जा सकता है। कुसुम की सूखी पत्तियों को पीसकर, दूध से पही तैयार करने के काम में भी लाया जाता है।

➤ अण्डी या अरण्डी (Castor)

• वानस्पतिक नाम – रिसिनस कोम्यूनिस (Ricinus communis)
• कुल – यूफोरबिएसी (Euphorbiaceae)
• गुणसूत्र संख्या – 2n = 20

महत्त्व एवं उपयोग-भारत के विभिन्न भागों में अण्डी की खेती तिलहन की फसल के रूप में अण्डी के बीज के लिये की जाती है। इसके बीज को पेरकर तेल निकाला जाता है। तेल निकालने पर अण्डी की खली उपफल (by-product) के रूप में उत्पन्न होती है। प्रतिवर्ष हमारे देश से अण्डी का तेल तथा बीजों का निर्यात विदेशों को किया जाता है। विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। इसके तेल का प्रयोग मशीन में स्नेहक पदार्थ (lubricant) और गुड़ बनाने में किया जाता है। इसके तेल में यह गुण होता है कि यह निम्न तापक्रम पर जमता नहीं है तथा अधिक समय तक रखा रहने से सूखता भी नहीं है। अण्डी का पौधा सुन्दरता (ornamental plant) के लिये भी उगाया जाता है। अण्डी के तेल का प्रयोग विभिन्न औद्योगिक पदार्थों को उत्पन्न करने के लिये भी किया जाता है। अण्डी के तेल से सुगन्धित तेल (Perfumed hair oil), पारदर्शी साबुन (Transparent soap), विसंक्रामक पदार्थ तथा औषधियाँ तैयार की जाती हैं। अण्डी के तेल का प्रयोग पेट साफ कराने के लिये जुलाब के रूप में प्रयोग किया जाता है। चमड़े के उद्योग में अण्डी के तेल का प्रयोग; चमड़ा मुलायम रखने के लिये किया जाता है। प्लास्टिक उद्योग में भी अण्डी के तेल का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रयोग प्लास्टिक, छपाई की रोशनाई, मोम, रबर पदार्थ, पेन्ट व वर्निश के लिये भी किया जाता है। अण्डी के पौधों का प्रयोग ईंधन के रूप में भी किया जाता है। इससे छप्पर टटूर आदि भी बनाये जाते हैं। अण्डी के पौधों की हरी पत्तियों का प्रयोग रेशम के कीड़े के भोजन के लिये भी किया जाता है।

पौधे की लुगदी, सैल्यूलोज व कार्ड बोर्ड तैयार करने के लिये भी करते हैं। इसकी खली (3.5% नाइट्रोजन व 1.8% फॉस्फोरस) का प्रयोग केवल खाद के लिये ही उत्तम है। पशुओं को नहीं खिलाया जाता क्योंकि इसमें पाये जाने वाले रीसीन (ricine) एवं एल्बीमीन व एल्कलोयड का प्रभाव हानिकारक होता है।

अण्डी के तेल से कृत्रिम चमड़ा भी बनाया जाता है। लिनोलियम व टाइपराइटर की रोशनाई भी इससे बनती है। कपड़ा रंगाई के उद्योग में काम आने वाला यौगिक जिसे ‘टर्की लाल तेल’ कहते हैं, इससे बनाया जाता है। ग्रामीण इसके तेल का प्रयोग घरों में प्रकाश करने के लिये दीपक जलाने में करते हैं।

➤ तिलहन फसलोत्पादन (Oil-Seed Production)

आर्थिक समीक्षा 2014-15 के अनुसार-भारत में 72% तिलहनी फसलों की वर्षाधीन कृषि की जाती है। परिणाम स्वरूप प्रतिकूल मौसम के कारण उत्पादन में पर्याप्त उतार-चढ़ाव आता है। यथा-

• देश के कुल कृषित क्षेत्र के 15% भाग पर तिलहनी फसलें उगायी जाती है, अर्थात् खाद्यान्न वर्ग की फसलों के बाद इनका दूसरा प्रमुख स्थान है।*

• अलसी, कुसुम, रामतिल और अण्डी के उत्पादन में भारत विश्व में प्रथम स्थान रखता है।*

• धान के कन में 8.5-25.0% तक तेल पाया जाता है।*

• देश में औसत तिलहन उत्पादकता आर्थिक समीक्षा 2017- 18 के अनुसार – वर्ष 2016-17 में 12.25 कुन्तल/हे. था।*

मृदा – कटाव से प्रभावित क्षेत्रों में मूँगफली अपरदन अवरोधी तथा आच्छादनकारी फसल के रूप में उगाया जाता है।

• मूँगफली स्व-परागित फसल (Self pollinated Crop) है।* इसके 8-10 Stamens मिलकर Monaadelphous bundle बनाते हैं। मूँगफली में ‘Peg’ नामक संरचना होती है जो gynophore है। यह gynophore जमीन की ओर मुड़कर ओवरी (overy) को मिट्टी में पदस्थापित करता है। यह overy मिट्टी में प्रवेश के उपरांत ही विकसित होती है और क्षैतिज रूप धारण करती है। इसी gynophore को peg कहा जाता है और इस प्रक्रिया को Pegging कहते हैं। इसके लिये उचित जलनिकास वाली बलुई दोमट मृदा (Well drained sandy loam soil) अच्छी होती है।

• विश्व में मूँगफली की प्रतिहेक्टेयर सर्वाधिक उत्पादन क्रमशः सं. रा. अमेरिका, चीन तथा अर्जेटाइना में पाया जाता है जबकि विश्व में सर्वाधिक मूँगफली उत्पादन करने वाले राष्ट्र क्रमशः हैं- चीन, भारत, नाइजीरिया तथा अमेरिका (2016)।

• सुर्यमुखी के खली में 40-45% उच्च कोटि की प्रोटीन पायी जाती है, जो पशु आहार के लिये प्रयुक्त होती है।

• Sunflower- : सूर्यमुखी भारत में 1969 में तिलहनी फसल के रूप में रूस से लाई गई जबकि सोयबीन (Bragg cv.) 1968 में USA से।

• आर्थिक समीक्षा 2017-18 के अनुसार- भारत की तिलहनी फसलोत्पादन में वर्ष 2016-17 के दौरान सोयाबीन की फसल का प्रथम स्थान था। रेपसीड तथा सरसों द्वितीय एवं मूँगफली वर्ग तृतीय स्थान पर रहा।

यह भी पढ़ें : दलहनी फसलें (Pulse Crops)

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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