एक या अधिक लेंसों अथवा लेंस व दर्पण की सहायता से निर्मित ऐसे उपकरण जो द्रष्टा के नेत्र पर वस्तु (Object) द्वारा बनाये गये दर्शन कोण (Visual Angle) का मान बढ़ा देते हैं, जिससे वस्तु का स्पष्ट प्रतिबिंब (Image) रेटिना पर बनता है, प्रकाशिक यंत्र कहते हैं। यथा; सूक्ष्मदर्शी (Microscope) व दूरदर्शी (Telescope) इत्यादि।
दर्शन कोण (Visual Angle)
किसी वस्तु (Object) द्वारा द्रष्टा की रेटिना पर बने कोण को दर्शनकोण कहते हैं। कोई वस्तु स्पष्ट दिखे इसके लिए आवश्यक है कि वस्तु द्वारा आँखों की रेटिना पर बना कोण बड़ा हो। यदि कोई वस्तु अत्यन्त छोटी या दूर है तो प्रकाशिक यंत्रों की सहायता से उसके दर्शन कोण को बढ़ाकर उसे स्पष्ट रूप से देख सकते हैं।
सरल सूक्ष्मदर्शी (Simple Microscope)
यह एक सरल प्रकाशिक यंत्र है जिसके द्वारा छोटी वस्तुओं को उनके बड़े प्रतिबिम्बों के रूप में देखा जाता है। इसे आवर्धक लेंस (Magnifying Lens) भी कहते हैं। इसमें एक कम फोकस दूरी का उत्तल लेंस होता है।
जब कोई वस्तु उत्तल लेंस के सामने उसकी फोकस दूरी से कम दूरी पर रखी जाती है तो उसका बड़ा, आभासी व सीधा प्रतिबिम्ब बनता है। अतः लेंस के दूसरी तरफ से देखने पर वस्तु आकार में बड़ी (आवर्धित) दिखाई देती है।
M= 1+ D/f जबकि D = स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी = 25 सेमी f = लेन्स (उत्तल) की फोकस दूरी।
संयुक्त सूक्ष्मदर्शी (Compound Microscope)
वह सूक्ष्मदर्शी जिनमें आवर्धन दो भागों में होता है, संयुक्त सूक्ष्मदर्शी की संज्ञा से अभिहित किया जाता है।
इसमें धातु की एक लंबी बेलनाकार (cylindrical) नली (Tube) होती है जिसके एक सिरे पर कम फोकस दूरी तथा छोटे द्वारक (Size or Aperture) वाला उत्तल लेंस लगा रहता है, जिसे अभिदृश्यक लेंस (Objective Lens) कहते हैं। नली के दूसरे सिरे पर एक अन्य छोटी नली फिट होती है जिसके बाहरी सिरे पर एक अन्य उत्तल लेंस लगा रहता है जिसकी फोकस दूरी तथा द्वारक अभिदृश्यक लेंस की अपेक्षा बड़ा होता है। यह लेंस नेत्र की ओर रखा जाता है। फलतः इसे अभिनेत्र लेंस (eye-piece) कहते हैं। इसके फोकस पर एक क्रास चिन्ह बना होता है। पूरी नली को आगे पीछे खिसकाने की व्यवस्था होती है दोनों लेंसों को नली के अंदर खिसकाकर इस प्रकार समायोजित करते हैं कि अभिदृश्यक से बना हुआ प्रतिबिंब नेत्रिका लेंस के लिए वस्तु का कार्य करता है, जिसका प्रतिबिंब अधिक बड़ा व स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी पर बनता है।
• आवर्धन क्षमता (Magnifying Power)
यदि अंतिम प्रतिबिंब स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी D पर बनता है तो आवर्धन क्षमता m = mo × me
या M = v/u {1 + D/(fe)} = (D × 1)/(fe ×fo)
जहां,
u = वस्तु AB की अभिदृश्यक लेंस L, से दूरी
v = प्रतिबिंब A1B1 की अभिदृश्यक लेंस L1 से दूरी
fe = नेत्रिका की फोकस दूरी
fo = अभिदृश्यक लेंस की फोकस दूरी।
mo = अभिदृश्यक लेंस की आवर्धन क्षमता
me = नेत्रिका की आवर्धन क्षमता
L = नली की लंबाई
सूत्र से स्पष्ट है कि आवर्धन क्षमता अधिक प्राप्त करने के लिए दोनों लेंसों की फोकस दूरियों का गुणनफल (fefo) कम होना चाहिए तथा नली की लंबाई अधिक।
दूरबीन (Telescope)
यह ऐसा प्रकाशिक यंत्र है जिसकी सहायता से आकाशीय पिण्डों अथवा दूर स्थित पार्थिव वस्तुओं को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
यह दो प्रकार का होता है-
(1) अपवर्तक दूरबीन
(2) परावर्तक दूरबीन
(1) अपवर्तक दूरबीन (Refracting Telescope)- इसमें ( विभिन्न लेंसों के संयोजन से सुदूरवर्ती बिंबों (Objects) का आवर्धित चित्र प्राप्त करते हैं। यह भी तीन तरह के होते हैं-
(a) खगोलीय दूरबीन,
(b) पार्थिव दूरबीन व (c) गैलीलियन दूरबीन
(a) खगोलीय दूरबीन (Astronomical Telescope)- दो उत्तल लेंसों के संयोजन से निर्मित यह एक ऐसा प्रकाशिक यंत्र है जो खगोलीय पिण्डों व आकाश (Space) में स्थित वस्तुओं को देखने के लिए प्रयुक्त होता है,* खगोलीय दूरबीन कहलाता है। इसका निर्माण सर्वप्रथम केपलर द्वारा किया गया था।*
यह धातु की एक लंबी बेलनाकार नली होती है जिसके एक सिरे पर बड़ी फोकस दूरी तथा बड़े द्वारक का उत्तल लेंस लगा होता है जिसे अभिदृश्यक लेन्स कहते हैं। नली के दूसरे सिरे पर एक अन्य छोटी नली (Tube) फिट होती है, जिसके बाहरी सिरे पर एक छोटी फोकस दूरी का उत्तल लेंस लगा रहता है जिसे नेत्रिका (eye lens) कहते हैं। इसके फोकस दूरी पर क्रास चिन्ह बना होता है।
इसके समायोजन करने की दो विधियाँ हैं। यथा- (i) अनंत के लिए समायोजन, इस समायोजन में अंतिम प्रतिबिम्ब अनंत पर बनता है, जो अधिक आवर्धित होता है।
(ii) स्पष्ट दर्शन की न्यूनतम दूरी के लिए समायोजन, इसमें अंतिम प्रतिबिम्ब स्पष्ट दृष्टि के न्यूनतम दूरी पर बनता है, जो वस्तु की अपेक्षा उल्टा, आवर्धित तथा स्पष्ट होता है।
➤ आवर्धन क्षमता (Magnifying Power)
(i) जब अंतिम प्रतिबिंब स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी ‘D’ पर बने तो
M= fo/fe{1+ (fe/D)}
(ii) जब अंतिम प्रतिबिंब अनंत पर बने (श्रांत आँख के लिए) तब दूरदर्शी की आवर्धन क्षमता
M = fo/fe
(b) पार्थिव दूरबीन (Terresterial Telescope)
पृथ्वी पर दूर स्थित वस्तुओं को देखने के लिए पार्थिव दूरबीन का प्रयोग किया जाता है। खगोलीय दूरबीन से प्राप्त अंतिम प्रतिबिंब वस्तु का उल्टा होता है। पृथ्वी पर स्थित वस्तुओं को देखने के लिए उपयुक्त नहीं होता है। पार्थिव दूरबीन में सिर्फ एक अतिरिक्त व्यवस्था यह कर दी जाती है कि वस्तु का प्राप्त उल्टा प्रतिबिम्ब अंतिम रूप से सीधा दिखे। इसके लिए इसमें अभिदृश्यक तथा नेत्रिका के बीच एक अधिक फोकस दूरी का उत्तल लेंस लगा देते हैं। इससे प्राप्त अंतिम प्रतिबिम्ब सीधा तथा आभासी होता है।*
• आवर्धन क्षमता (Magnifying Power)
(i) जब अंतिम प्रतिबिंब स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी (D) पर बने तो,
m = fo/fe {1 + (fe/D)}
(ii) जब प्रतिबिम्ब अनन्त पर बने (श्रांत आँखों के लिए) m = fo/fe तो
(c) गैलीलियन का दूरबीन (Galilean Telescope)- इसकी खोज गैलीलियों नामक वैज्ञानिक द्वारा 1609 ई० में की गई थी। इसमें अभिदृश्यक के स्थान पर अधिक फोकस दूरी वाला उत्तल लेंस तथा नेत्रिका के स्थान पर कम फोकस दूरी वाला एक अवतल लेंस लगाया जाता है। इसमें भी समायोजन उपर्युक्तानुसार किया जाता है।
• आवर्धन क्षमता (Magnifying Power)
(i) जब प्रतिबिंब अनंत पर बने m = fo/fe
(ii) जब प्रतिबिंब स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी ‘D’ पर बने m = fo/fe {1- (fe/D)}
जहां अक्षरों के सामान्य अर्थ हैं।
(2) परावर्तक दूरबीन (Reflecting Telescope)- इसमें फोकस दूरी व बड़े द्वारक का अवतल दर्पण (M1) लगा होता है। इस नली के पार्श्व (Side) में लगी एक पतली छोटी में कम फोकस दूरी व छोटे द्वारक का उत्तल लेंस (E) लगा रहता है जो नेत्रिका का काम करता है। चौड़ी नली में अवतल दर्पण के फोकस से कुछ पहले एक समतल दर्पण (M2) लगा रहता है जो मुख्य अक्ष से 45°के कोण पर झुका रहता है।
दूर स्थित AB से आने वाली किरणों को अवतल दर्पण M1 अपने फोकस पर केन्द्रित करता है, परन्तु ये किरणें फोकस केन्द्रित होने से पहले समतल दर्पण M2 पर गिरकर नेत्रिका की तरफ परावर्तित हो जाती है। इस प्रकार वस्तु का वास्तविक छोटा व उल्टा प्रतिबिम्ब A’ * B’ पर बन जाता है। पुनः नेत्रिका (E), A’ B’ का आभासी, सीधा व बड़ा प्रतिबिम्ब A” B”, स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी तथा अनन्त के बीच बना देती है। यदि प्रतिबिंब A’ B’ नेत्रिका के फोकस पर है तो अंतिम प्रतिबिम्ब अनन्त पर ही बनेगा।
• आवर्धन क्षमता (Magnifying Power)
(i) जब प्रतिबिंब अनंत पर बने- m = fo/fe
(ii) जब प्रतिबिंब स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी ‘D’ पर बने।
m = fo/fe {1+ (fe/D)} जहां,
fo = अवतल दर्पण m1 की फोकस दूरी
fe = नेत्रिका की फोकस दूरी
फोटोग्राफिक कैमरा (Photographic Camera)
इस यंत्र द्वारा वस्तुओं के स्थायी प्रतिबिम्ब फोटोग्राफिक प्लेट अथवा फिल्म पर लिये जाते हैं। इसमें धातु का एक प्रकाश रोधक बाक्स होता है। बॉक्स की भीतरी दीवारें काली कर दी जाती हैं, जिससे उन पर आपतित प्रकाश का शोषण तो हो जाय परन्तु परावर्तन न हो।
प्रकाशरोधक बॉक्स के आगे के भाग में एक अभिसारी लेन्स L लगा होता है। इस लेन्स को अभिदृश्यक लेन्स कहते हैं। अभिदृश्यक लेन्स के आगे एक वृत्ताकार पर्दा D लगा होता है, जिसके बीच में एक छेद होता है। छेद के द्वारक को आवश्यकतानुसार छोटा या बड़ा किया जा सकता है। इस पर्दे को डायाफ्राम कहते हैं।
कैमरे में डायाफ्राम के पीछे एक शटर (Shutter) S लगा होता है। शटर एक ऐसी स्वचालित युक्ति होती है, जिसके द्वारा आवश्यकतानुसार एक निश्चित समय ( 1/10 सेकण्ड, 1/50 सेकण्ड आदि) के लिए प्रकाश फोटोग्राफिक फिल्म पर डाला जा सकता है।
फोटोग्राफिक फिल्म पर जितने समय के लिए प्रकाश डाला जाता है, उसे उद्भासन काल (Exposure Time) कहते हैं। फोटोग्राफिक फिल्म सेलूलाइड की फिल्म पर सिल्वर ब्रोमाइड तथा जिलेटिन के मिश्रण की एक पतली पर्त चढ़ाकर बनायी जाती है। जब फोटोग्राफिक फिल्म पर प्रकाश आपतित होता है, तब आपाती प्रकाश की मात्रा के अनुसार, इसमें रासायनिक क्रिया हो जाती है।
कैमरे से फोटो खींचने के लिए इसे उचित उद्भासन काल के लिए समायोजित कर लिया जाता है। फोटोग्राफिक फिल्म को यथास्थान लगा दिया जाता है। कैमरे के धारक में लगे पेंच की सहायता से लेन्स तथा फिल्म के बीच की दूरी इस प्रकार समंजित की जाती है कि वस्तु, जिसका चित्र खींचना है, का स्पष्टतम प्रतिबिम्ब फिल्म पर बने। शटर दबाकर फिल्म को उचित उद्भासन काल के लिए उद्घासित करके फिल्म पर वस्तु का प्रतिबिम्ब प्राप्त कर लिया जाता है।
अब कैमरे को अँधेरे में ले जाकर, उसमें से फोटोग्राफिक फिल्म को बाहर निकालकर, एक विशेष प्रकार के घोल में डाल देते हैं। इस घोल को डेवलपर (developer) कहते है। डेवलपर फोटोग्राफिक फिल्म के उन भागों के सिल्वर ब्रोमाइड को, जिन पर प्रकाश पड़ने से रासायनिक क्रिया हो चुकी है, सिल्वर में बदल देता है। परन्तु फिल्म के शेष भाग पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अब फिल्म को डेवेलपर से निकालकर साफ पानी से धोकर, सोडियम थायोसल्फेट (हाइपो) के घोल में डाल देते हैं। इस घोल (हाइपो) को स्थायीकर (Fixer) भी कहते हैं।* हाइपो के अन्दर सिल्वर लवण तो घुल जाता है, परन्तु सिल्वर धातु के कण नहीं घुलते। अतः फोटोग्राफिक फिल्म पर जिन स्थानों पर प्रकाश पड़ा था, वहाँ तो सिल्वर धातु के काले कण रह जाते हैं, परन्तु अन्य स्थानों का सिल्वर ब्रोमाइड घुल जाता है। फिल्म को हाइपो से निकालकर साफ पानी से धोकर सुखा लेते हैं। इस प्रकार फिल्म पर काला चित्र बन जाता है। इस चित्र में काले भाग वस्तु के प्रकाशमान भागों को प्रदर्शित करते हैं। इस चित्र को नेगेटिव (negative) कहते हैं। वस्तु का फोटो प्राप्त करने के लिए इस नेगेटिव को फोटोग्राफिक कागज के प्रकाश सुग्राही तल पर रखकर कुछ समय के लिए पुनः उद्भासित करते हैं। पहले की ही भाँति इस फोटोग्राफिक कागज को डेवलेपर तथा स्थायीकर में डालकर, पानी से धोकर, सुखा लेते हैं। इस प्रकार फोटोग्राफिक कागज पर वस्तु का स्थायी चित्र प्राप्त हो जाता है। इसे पॉजिटिव (Positive) कहते हैं।
मानव नेत्र (Human Eye)
नेत्र मानव को प्रकृति द्वारा प्रदान किया गया एक महत्वपूर्ण अंग है, जिनके द्वारा वह सभी वस्तुओं को देखता है। इसकी रचना और कार्य प्रणाली लगभग एक फोटोग्राफिक कैमरे के समान है।
चित्र में आँख के विभिन्न प्रमुख भागों को दिखाया गया है। आँख लगभग गोलीय होती है तथा बाहर से एक दृढ़ व अपारदर्शी श्वेत पर्त से ढकी रहती है। इस श्वेत पर्त को दृढ़पटल (Sclerotic) कहते हैं। दृढ़पटल के सामने का भाग कुछ उभरा हुआ एवं पारदर्शी होता है। इस भाग को कॉर्निया (Cornea) कहते हैं। कॉर्निया के पीछे एक पारदर्शी द्रव भरा होता है, जिसे नेत्रोद (Aqueous Humour) कहते हैं। कॉर्निया के ठीक पीछे एक अपारदर्शी पर्दा होता है,
जिसे आइरिस (Iris) कहते हैं। आइरिस के मध्य में एक छोटा-सा छिद्र होता है, इस छिद्र को आँख की पुतली (Pupil) कहते हैं। पेशियों की सहायता से इसका आकार स्वतः ही अधिक प्रकाश में छोटा तथा अँधेरे में बड़ा हो जाता है। पुतली के पीछे नेत्र लेन्स स्थित होता है। नेत्र लेन्स पक्ष्माभिकी पेशियों (ciliary muscles) के निलंबन स्नायुओं (Suspen- sory ligaments) द्वारा लटका होता है। नेत्र लेन्स के पीछे एक पारदर्शी द्रव भरा रहता है, जिसे काचाभ द्रव (Vitreous Humour) कहते हैं।
दृढ़पटल के नीचे अन्दर की ओर एक काली झिल्ली होती है। इसे रक्तक पटल (Choroid) कहते हैं। काला होने के कारण रक्तक पटल आपतित प्रकाश का शोषण कर लेता है। इस कारण नेत्रगोलक के अन्दर प्रकाश का परावर्तन नहीं होता। रक्तक पटल के नीचे नेत्र के सबसे भीतर एक पारदर्शी झिल्ली होती है, इसे रेटिना (Retina) कहते हैं। यह तंत्रिकाओं से बनी होती है। जैसे ही प्रकाश रेटिना पर पड़ता है, दिक् तन्त्रिकाओं (optic nerves) द्वारा उसका प्रभाव मस्तिष्क को पहुँचता है, जिससे हमें वस्तु के रूप, आकार तथा रंग का ज्ञान होता है।
रेटिना के लगभग बीच में एक छोटा-सा स्थान होता है, जिसे पीत बिंदु (Yellow Spot) कहते हैं। पीत बिन्दु पर बना प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखायी पड़ता है। जिस स्थान से दृक् तन्त्रिकाएँ (optic nerves) मस्तिष्क को जाती हैं, उसे अंध बिंदु (Blind Spot) कहते हैं। अंध बिंदु पर प्रकाश का प्रभाव नहीं पड़ता है।
अतः अंध बिंदु पर बना प्रतिबिम्ब स्पष्ट नहीं दिखायी देता।
मानव नेत्र द्वारा प्रतिबिम्ब का बनना (Image Formation by a Human Eye)
किसी वस्तु से चलने वाली प्रकाश किरणें कॉर्निया तथा नेत्रोद (कॉर्निया तथा लेन्स के बीच का भाग) से गुजरने के बाद नेत्र लेन्स पर आपतित होती है तथा इसके द्वारा अपवर्तित होकर काचाभ द्रव (Vitreous Humour) में होती हुई रेटिना पर पड़ती हैं। इस प्रकार वस्तु का उल्टा एवं वास्तविक प्रतिबिम्ब रेटिना पर बन जाता है।* प्रतिबिम्ब बनने का संदेश दृक् तन्त्रिकाओं (optic nerves) द्वारा मस्तिष्क को पहुँचता है, और वस्तु दिखायी देने लगती है।
यद्यपि रेटिना पर बना हुआ प्रतिबिम्ब उल्टा होता है, परन्तु अनुभव के आधार पर मनुष्य को यह सीधा दिखायी देता है।
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