पादप कोशिकाओं के परासरणीय सम्बन्ध

विसरण (Diffusion)

“गैसों, द्रवों तथा विलेयों (solutes) आदि पदार्थों के स्वतन्त्र अणुओं का अधिक सान्द्रता (concentration) वाले क्षेत्र से कम सान्द्रता वाले क्षेत्र की ओर गति करने को, जो किन्हीं आन्तरिक अथवा बाह्य बलों के कारण होती है, विसरण (diffusion) कहते हैं।

हवा चलना, आँधी आना, अगरबत्ती की खुशबू का पूरे कमरे में फैल जाना, शक्कर का पानी में घुलना, प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में CO₂ का वातावरण से लेना तथा O₂ का निकालना, श्वसन की क्रिया में O₂ लेना तथा CO₂ का निकालना, लाल दवा (KMnO4 ) का कुएं के पानी में डालने पर उसका जल में घुलकर फैलना आदि सभी विसरण के ही उदाहरण है। पदार्थों का विसरण किसी क्षेत्र में तब तक होता रहता है जब तक कि वह उपलब्ध क्षेत्र में सम्पूर्ण रूप से न फैल जाये। पदार्थों के अणुओं की यह गति आन्तरिक गतिज ऊर्जा (kinetic energy) पर निर्भर करती है। अधिक सान्द्रता वाले क्षेत्र में अणुओं की गतिज ऊर्जा अधिक होती है। इसीलिए इनमें गति भी तीव्र होती है। गति होने पर सभी अणु आपस में टकराते हैं जिसके कारण माध्यम में एक दाब उत्पन्न हो जाता है जिसे विसरण दाब (diffusion-pressure) कहते हैं।

पौधों में विसरण का महत्व

1. पत्तियों के रन्ध्रों द्वारा वायुमण्डल से ऑक्सीजन (O₂ व कार्बन डाई आक्साइड CO₂ गैसों का विनिमय विसरण क्रिया द्वारा ही होता है I* O₂ श्वसन क्रिया एवं CO₂ प्रकाश संश्लेषण क्रिया में भाग लेती है।

2. रन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन (Stomatal transpiration) में जल- वाष्प अन्तरकोशीय स्थानों (Intercellular spaces) से रन्ध्रों द्वारा वातावरण में विसरण द्वारा ही निर्मुक्त होती है।

3. खनिज लवणों के आयनों का निष्क्रिय-अवशोषण (Passive absorption) भी विसरण (diffusion) द्वारा होता है।

4. जड़ों द्वारा जल का अवशोषण भी विसरण द्वारा होता है।

परासरण (Osmosis)

“जब दो विभिन्न सान्द्रता वाले विलयनों की एक अर्द्धपारगम्य (semi-permeable) झिल्ली द्वारा अलग कर दिया जाता है तो कम सान्द्रता वाले विलयन से अधिक सान्द्रता वाले विलयन की ओर पानी अथवा विलायक के अणुओं की गति करने की क्रिया को परासरण (Osmosis) कहते हैं।”

वास्तव में विलायक का विसरण झिल्ली के आर-पार दोनों ओर होता है परन्तु कम सान्द्रता वाले विलयन से अधिक सान्द्रता वाले विलयन की ओर तेजी से होता है। यह विसरण के सामान्य सिद्धान्त के अनुरूप है क्योंकि कम सान्द्रता वाले विलयन में विलायकों के अणुओं की सान्द्रता अधिक सान्द्रता वाले विलयन में विलायकों के अणुओं की अपेक्षा” अधिक होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि परासरण भी एक प्रकार का विसरण ही है। जैविक दृष्टिकोण से विलयन (Solution) तीन प्रकार के होते हैं-

1. हाइपरटोनिक विलयन (Hypertonic Solution) : ये वे विलयन हैं जिनकी सान्द्रता अधिक होती है तथा इनका परासरण दाब (osmotic pressure) कोशिका के विलयन की अपेक्षा अधिक होती है।

2. हाइपोटोनिक विलयन (Hypotonic Solutions) : ये वे विलयन हैं जिनकी सान्द्रता कम होती है तथा इनका परासरण दाब कोशिका के विलयन के दाब की अपेक्षा कम होता है।

3. आइसोटोनिक विलयन (Isotonic solutions): ये वे विलयन हैं जिनकी सान्द्रता एवं परासरण दाब कोशिका के सान्द्रता एवं दाब के बराबर होता है।

परासरण के प्रकार

कोशिकाओं में परासरण क्रिया दो प्रकार की होती है। यथा-

(i) बहिर्परासरण तथा (ii) अन्तः परासरण।

(i) बहिर्परासरण (Exosmosis)- किसी कोशिका को किसी ऐसे विलयन में रखा जाये जिसकी सान्द्रता कोशिका की सान्द्रता से अधिक हो तो उस कोशिका से बहिर्परासरण द्वारा पानी निकल जाता है और कोशिका सिकुड़ जाती है। इसे जीवद्रव्य संकुचन (plasmolysis) भी कहते हैं।*

(ii) अन्तः परासरण (Endosmosis)– कोई कोशिका अपने से कम सान्द्रता वाले विलयन में रख दिया जाय तो कोशिका अन्तः परासरण द्वारा फूल जाती है। जैसे किशमिश को पानी में रखने पर फूल जाता है। इसे जीवद्रव्य विकुंचन (deplasmolysis) भी कहते हैं।*

➤ पौधों में परासरण का महत्व

• पौधें भूमि से जल का अवशोषण अपने मूलरोमों की सहायता से परासरण द्वारा ही करते हैं।

• पादप कोशिकाओं की स्फीति अवस्था (turgidity) परासरण द्वारा जल अवशोषण के कारण ही बनी रहती है।

• पादप कोशिकाओं में जल का एक कोशिका से दूसरी कोशिका में जाना तथा जल का विभिन्न अंगों में वितरण परासरण क्रिया द्वारा ही होता है।*

• रन्ध्रों के खुलने की क्रिया में द्वार कोशिकाओं (Guard cells) का स्फीति अवस्था में आना आवश्यक है। ऐसा परासरण द्वारा ही होता है।

• परासरण दाब तथा स्फीतिदाब के द्वारा ही तरूण कोशिकाओं में वृद्धि होती है।

• उच्च परासरण सान्द्रता पौधों में हिमकारी ताप (freezing temperature) तथा निर्जलीकरण के प्रति प्रतिरोध बढ़ाता है।

• फलों तथा बीजाणुधानियों के तेजी से फटने में परासरण की क्रिया सहायता करती है।

➤ अन्तः शोषण (Imbibition)

जब कोई ठोस पदार्थ किसी द्रव को अवशोषित करके फूल जाता है तो इस क्रिया को अन्तःशोषण (Imbibition) कहते हैं। * उदाहरण-बीजों को जल में रखने पर फूल जाना तथा बरसात में नमी के कारण – खिड़कियाँ, मेज या लकड़ी के दरबाजों आदि का फूल जाना।

पौधों में जल अधिग्रहण विधि

मृदा जल (Soil Water)

पौधे अपना सम्पूर्ण जल मृदा से लेते हैं। विभिन्न प्रकार की मृदाओं में विभिन्न अवस्था में जल की मात्रा भिन्न होती है। सामान्य मृदा में जल लगभग 25% होता है। मिट्टी में जल विशेष रूप से वर्षा द्वारा आता है। वर्षा के पश्चात् कुछ जल ढलान के कारण बह जाता है। यह अपवाहित जल (run away water) कहलाता है और उस स्थान पर उगने वाले पौधे को प्राप्त नहीं होता। वर्षा के बाद, कुछ जल गुरूत्वाकर्षण के कारण अन्तः स्त्रावण (Percolation) करके भौम जलस्तर (Water table) तक पहुँच जाता है। ऐसे जल को गुरूत्वीय जल (gravitational water) कहते हैं। इस प्रकार के जल को भी पौधे अवशोषित नहीं कर पाते क्योंकि भौम जलस्तर तक जड़े नहीं पहुँच पाती। गुरूत्वीय जल के भौम जलस्तर तक पहुँचने के पश्चात् कुछ जल मृदा में शेष रह जाता है। इस शेष जल को उस मृदा की क्षेत्रीय जल- धारिता (Water-holding capacity of soil) कहते हैं। क्षेत्रीय जल- धारिता की मात्रा के अनुसार जल निम्न प्रकार के होते हैं-

कुछ जल जो मृदा कणों के बीच उपस्थित छिद्रों, रन्ध्रों, नलिकाओं आदि में भरा रहता है उसे केशिका जल (capillary water) कहते हैं। यह जल मृदा में सब ओर संवहन कर सकता है। जड़ें इसी जल का अवशोषण करती हैं। * जल के कुछ अणु वाष्प की अवस्था में मिट्टी के कणों के चारों ओर पाये जाते हैं। इसे आर्द्रता जल (hygroscopic water) कहते हैं। पौधे इस जल का अवशोषण नहीं करते। कुछ जल मृदा के कणों में उपस्थित लवणों की संरचना में रासायनिक रूप से संयुक्त रहता है, जैसे CuSO4.5H₂O, FeSO4.7H₂O व Na₂SO₄.10H2O में। इसे क्रिस्टलीय जल (crystalline water of chemically combined water) कहते हैं। क्रिस्टलीय जल मृदा के कणों के बीच रहता है और पौधों को प्राप्त नहीं होता। कुछ जल मृदा के रन्ध्रों में वाष्प के रूप में रहता है। यह जल भी पौधे अवशोषित नहीं करते।

मुरझाना (Wilting)

शुष्क वातावरण में कभी-कभी पौधों में जल की कमी आ जाती है, जिसके फलस्वरूप वे एक तरफ कुछ झुक जाते हैं। इस क्रिया को मुरझाना (wilting) कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है। जिस समय पौधों से वाष्पीकरण तेज गति से होता है और जड़ें पृथ्वी से उतना जल नहीं सोख पाती जितना वाष्पीकरण के द्वारा उड़ता है, तो पौधों की पत्तियाँ मुरझा जाती हैं। रात्रि में वाष्पीकरण कम होने के कारण पत्तियाँ अपनी प्राकृतिक अवस्था में आ जाती हैं। यह अस्थायी मुरझाना (temporary wilting) कहलाता है। यह एक प्रकार से कार्यिकी शुष्कता (physiological dryness) है इसे भूमि में अतिरिक्त जल डालने पर दूर नहीं किया जा सकता अपितु यह कार्यिकी में परिवर्तन से स्वतः ही दूर होती है।* यदि पृथ्वी में जल की मात्रा इतनी कम हो जाये कि पत्तियाँ मुरझाने के पश्चात् पुनः रात्रि में अपनी प्राकृतिक अवस्था में नहीं आ पाती हैं तब इसे स्थायी मुरझाना (permanent wilting) कहते हैं। यह भौतिक शुष्कता (physical dryness) है। इस प्रकार का मुरझाना पृथ्वी में जल की मात्रा बढ़ाने पर ही दूर होता है।

म्लानि गुणांक (Wilting coefficient)

इसे स्थायी म्लानि-प्रतिशत (Permanent wilting percent- age) भी कहते हैं। पौधों के स्थायी मुरझाने (permanent wilting) के समय मृदा में उपस्थित जल की विशेष प्रतिशत मात्रा को मुरझान गुणांक (wilting coefficient) कहते हैं। यह मात्रा मृदा के गठन (texture) के आधार पर 1 से 15% तक होती है।

जल अवशोषण की क्रिया-विधि (Mechanism of water Absorption)

जड़ें अपनी मूलीय त्वचा की कोशिकाओं के द्वारा भूमि से जल तथा खनिज लवणों का अवशोषण करती हैं। यह कार्य सबसे अधिक तथा काफी बड़े पैमाने पर जड़ के मूल रोम प्रदेश में होता है। यहाँ उपस्थित मूल रोम मूलीय त्वचा का सम्पर्क तल भूमि के जल के साथ हजारों गुना बढ़ा देते है, अतः जल को अधिक-से-अधिक अवशोषण यहीं होता है।

प्रत्येक मूल रोम का जीवद्रव्य तथा कोशिका कला (cytoplasmic membrane) मिलकर एक वरणात्मक पारगम्य कला की तरह कार्य करते हैं (कोशिका भित्ति तो सेलुलोस की बनी होती है तथा – पूर्णतः पारगम्य होती है) और भूमि में मृदाकणों के बीच उपस्थित जल (केशिकीय जल) के साथ सम्पर्क बनाते हैं। मूल रोम के अन्दर – उपस्थित केन्द्रीय रिक्तिका में अनेक पदार्थों का विलचन-कोशिका का रिक्तिका रस (vacuolar sap) होता है। इस प्रकार, रिक्तिका रस और केशिका जल के बीच उपस्थित वरणात्मक पारगम्य कला में होकर केशिका जल अल्प मात्रा में घुलित खनिज लवणों के साथ रिक्तिका रस में परासरित हो जाता है।

प्रत्येक मूल रोम की रिक्तिका से यह जल समीपवर्ती कॉर्टेक्स – की कोशिकाओं में परासरण, सान्द्रता के कारण चला जाता है। इस प्रकार प्रत्येक मूल रोम और अधिक जल अवशोषित करता रहता है। यह कॉर्टेक्स की कोशिकाओं से होता हुआ क्रमशः तथा धीमे-धीमे जड़ के भीतरी भाग में उपस्थित जाइलम वाहिकाओं में पहुँचता रहता है। परासरण दाब (osmotic pressure) के कारण मृदा जल का अवशोषण सक्रिय अवशोषण (active absorption) कहलाता है। इसमें प्रयुक्त ऊर्जा कोशिकीय श्वसन द्वारा प्राप्त होती है।* वृक्षों में जल का अवशोषण सामान्यतया वाष्पोत्सर्जन खिंचाव के कारण होता है, इसे निष्क्रिय अवशोषण (Inactive absorption) कहते हैं। * इस क्रिया में ऊर्जा व्यय नहीं होती। उपरिरोही पादपों (epiphytic plants) में वायवीय जड़ें वायुमण्डल से नमी को अवशोषित कर लेती हैं। वायवीय जड़ों में वेलामेन (velamen) नामक विशिष्ट स्पन्जी ऊतक होता है जो वायु की नमी को अवशोषित करता है।*

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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