रोपण पौधे (Plantation Crop)

चाय (Tea)

• अएल्कोहॉलीय पेयों में चाय (Tea) सबसे अधिक प्रचलित है। विश्व की आधी से भी अधिक आबादी को चाय की लत (addict) है।

• चाय का उत्पादन भारत में पहली बार 1840 में तत्कालीन गवर्नर लार्ड विलियम बैंटिक के प्रत्यत्नों के फलस्वरूप परीक्षण के रूप शुरू किया गया था।

• चाय के पौधे को चीन या हिन्द चीन से मँगाया गया था और इसकी खेती असम घाटी, दार्जिलिंग व नीलगिरी की पहाड़ियों पर की गई थी।

चाय से सम्बन्धित विविध तथ्य
1. उत्पत्ति केन्द्र
चीन *
2. जलवायु
उष्णार्द्र
3. तापमान
21-27°C
4. वर्षा
125-150 सेमी*
5 मृदा
लेटराइट *
6. बोने का समय
अक्टूबर-नवम्बर
7. पत्तियाँ चुनने का समय
अप्रैल-अक्टूबर
8. पत्तियाँ चुनने की संख्या
तीन बार *

• पौधे की जड़ों में पानी का रूकना चाय के लिए हानिकारक होता है इसलिए चाय के बाग 600 से 1800 मीटर ऊँचे पहाड़ी ढ़ालों पर मिलते हैं।

• ठण्डी हवा व ओला चाय के लिए हानिकारक होता है।

• चाय की झाड़ियों की वृद्धि पूरे वर्ष एक समान नहीं होती है।

इसमें सक्रिय व अल्प वृद्धि की अवस्थाएँ एकान्तर क्रम में दर्शित होती हैं। पौधे से पत्तियाँ चुनने का कार्य सक्रिय वृद्धि अवस्था के प्रारम्भ में किया जाता है। उत्तरी भारत में पत्तियाँ वर्ष में 3-4 बार तोड़ी जाती हैं। शीत ऋतु में वृद्धि कम होने के कारण पत्तियाँ चुनने का कार्य नहीं हो पाता। इसके विपरीत दक्षिण भारत में पत्तियाँ लगभग पूरे वर्ष (25-30 बार) चुनी जाती हैं। जब पौधे लगभग 5 वर्ष के होते हैं, तब उनसे पहली फसल प्राप्त होती है। पत्तियाँ चुनने का कार्य हाथ अथवा कैंची से किया जाता है। एक कुशल चयनकर्ता प्रतिदिन 50 किग्रा0 से ज्यादा पत्तियाँ तोड़ लेता है।

चाय की गुणता (quality) पत्तियों की आयु पर निर्भर करती है। शीर्षस्थ कायिक कलिकाएँ (terminal vegetatitive buds) सबसे उत्तम श्रेणी (golden tips) की चाय बनाती है।* सबसे छोटी पत्ती ओरेंज-पीको (Orange-peko), दूसरी पत्ती पीको (Pekoe), तीसरी पत्ती पीको-सूचोंग (pekoe-souchong), चौथी पत्ती सूचोंग (souchong) व पाँचवी पत्ती काँगु (congou) चाय बनाती है।

• असोम चाय उत्पादित करने वाला शीर्ष राज्य है। सकल भारत का लगभग 50% चाय यहाँ उत्पादित की जाती है।

• भारत विश्व में काली चाय का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक और प्रथम उपभोक्ता देश है और यहाँ विश्व उत्पादन का 23.19 प्रतिशत उत्पादन और विश्व व्यापार का 14 प्रतिशत व्यापार होता है। कुछ समय से सम्मिश्रण और पुनर्निर्यातों के लिए कुछ मात्रा में चाय का आयात किया जा रहा है। वर्तमान विदेशी व्यापार नीति के तहत 100 प्रतिशत आयात शुल्क के साथ चाय का आयात करने की अनुमति दी गई है।

विगत वर्षों में चाय का उत्पादन एवं निर्यात अधोलिखित था। यथा-

चाय उत्पादक शीर्ष 4 राष्ट्र (2017)
प्रथम
चीन*
द्वितीय
भारत
तृतीय
कीनिया
चतुर्थ
श्रीलंका
चाय निर्यातक शीर्ष 4 राष्ट्र (2017)
प्रथम
कीनिया (23%)
द्वितीय
चीन (19%)
तृतीय
श्रीलंका (15%)
चतुर्थ
भारत (14%)
चाय उत्पादक शीर्ष 4 राज्य (2016-17)
प्रथम
असोम *
द्वितीय
पं. बंगाल
तृतीय
तमिलनाडु
चतुर्थ
केरल

वाणिज्यिक किस्म

वाणिज्यिक दृष्टि से चाय को निम्नलिखित तीन किस्मों में बाँटा जा सकता है।

(1) काली अथवा किण्वित चाय (Black or fermented tea)

(2) हरी अथवा अकिण्वित चाय (Greenor unfermented tea)

(3) ऊलांग अथवा अर्द्ध किण्वित चाय (Oolong or semi- fermented tea)

उपरोक्त तीन किस्मों में से काली अथवा किण्वित चाय वाणिज्यिक दृष्टि से सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है।*

➤ चाय के गुण (Qualities of tea)

चाय के उत्तेजक गुण इसमें उपस्थित कैफ़ीन (caffeine) नामक ऐल्कालॉयड के कारण है। * कम मात्रा में कैफ़ीन मानसिक व पेशी उत्तेजक के रूप में कार्य करता है। इसके अतिरिक्त चाय में 2.5% थीइन (theine), 13-18% टैनिन (tannins) व वाष्पशील तेल पाये जाते हैं। चाय का रंग व इसका तीखा स्वाद इसमें उपस्थित टैनिन के कारण होता है।*

➤ प्रमुख उन्नत किस्में (Important improved varieties)

भारत वर्ष में उगायी जाने वाली चाय की दो उन्नत किस्में (improved varieties)-(i) दार्जिलिंग चाय (Darjeeling tea), व (ii) असोम चाय (Assam tea) हैं। दार्जिलिंग चाय, असोम चाय की अपेक्षा अधिक सुगन्धित व मृदु होती है। भारतवर्ष में चाय की किस्मों व इसके प्रोसेसिंग में सुधार लाने के उद्देश्य से स्थापित किये गये निम्न तीन प्रमुख अनुसंधान केन्द्र हैं :

• Tea Research Institute, Dooarg, West Bengal

• Government Tea Experiment Farm, Palampur

➤ कहवा (Coffee)

• भारत में कहवा (Coffee) 17वीं शताब्दी में मुस्लिम फकीरबाबा बदून द्वारा अरब से लाकर कर्नाटक राज्य के चिकमंगलूर जनपद (UPPCS) में बदून पहाड़ियों पर लगाया गया था।

• कहवा अधिक धूप नहीं सहन कर पाता है। इस कारण इसके आस-पास छायादार वृक्ष लगाये जाते हैं।

• पाला कहवा के लिए हानिकारक होता है।

• भूमि ढ़ालदार होनी चाहिए ताकि जड़ों में पानी न रुक सके। 600 मीटर से 1600 मी. की ऊचाई पर कहवा का उत्पादन उत्तम होता है।

• सबसे उच्च कोटि का कहवा अरेबिका होता है। किन्तु यह कीट तथा रोग से ज्यादे ग्रसित होता है। फलतः इसका उत्पादन कम मात्रा में किया जाता है।

• देश में रोबेस्टा प्रकार का कहवा सर्वाधिक क्षेत्रफल (52.0%) पर उगाया जाता है। *

कहवा से सम्बन्धित विविध तथ्य
• उत्पत्ति केन्द्र
ब्राजील*
• जलवायु
उष्णार्द्र
• तापमान
15-18°C
• मृदा
लेटराइट
• वर्षा
150-250 सेमी*
कहवा उत्पादक शीर्ष 5 राष्ट्र (2018)
• प्रथम
ब्राजील
• द्वितीय
वियतनाम
• तृतीय
कोलम्बिया
• चतुर्थ
इण्डोनेशिया
• पंचम
इथियोपिया
• 7वाँ
भारत
कहवा उत्पादक शीर्ष 4 राज्य (2017-18)
• प्रथम
कर्नाटक
• द्वितीय
वियकेरल
• तृतीय
तमिलनाडु
• चतुर्थ
आंध्रप्रदेश

• देश का लगभग 70% कहवा अकेले कर्नाटक राज्य उत्पादित करता है। (2017-18)

• देश के समस्त कहवा उत्पादन का लगभग 80% भाग निर्यात कर दिया जाता है।

• कहवा के पौधे तीन-चार वर्षों बाद फली प्रदान करते हैं। इन वृक्षों की आर्थिक आयु 40-50 वर्षों की होती है।

• विश्व के कुल काफी उत्पादन के 3.09% भाग का उत्पादन भारत में होता है तथा भारत का विश्व कॉफी उत्पादन में सातवाँ स्थान (2018) है।

➤ कॉफी का प्रोसेसिंग (Processing of coffee)

कॉफी का प्रोसेसिंग (Processing)- आर्द्र (Wet) व शुष्क (dry) विधियों से किया जाता है। शुष्क विधि में कॉफी के फलों को पहले धूप में सूखा लिया जाता है। तत्पश्चात् सूखे फलों को कूट कर उनसे बीज अलग कर लिये जाते हैं।

आर्द्र विधि में कॉफी के फलों को पानी से भरे टैंक में रखा जाता है। अपरिपक्व फल टैंक की सतह पर तैरते हैं तथा उन्हें अलग कर दिया जाता है। इसके पश्चात् परिपक्व फलों को एक विशेष मशीन में डालकर गूदा (pulp) व बीज (seeds) अलग कर लिये जाते हैं। इस प्रकार प्राप्त बीजों को पॉर्चमैण्ट कॉफी (parchment coffee) कहते हैं। इसकी सतह पर गुदे की एक पतली परत चिपकी रहती है। जिसे हटाने के लिए इन्हें पुनः पानी के टैंक में 12-14 घंटे तक रख कर किण्वत किया जाता है। ऐसा करने से गूदे की श्लेष्मीय परत दूर हो जाती है और साथ ही बीजों में एक विशेष स्वाद आ जाता है। गूदे रहित बीजों को आकर्षक बनाने के लिए उनकी सतह पर पालिश भी की जाती है।

गूदे रहित बीजों को मशीनों से सूखाकर उनमें नमी की मात्रा घटा दी जाती है। अब बीजों के आकार व आमाप के आधार पर कॉफी का कोटि-निर्धारण (grading) कर दिया जाता है।

➤ कॉफी के गुण (Qualities of coffee)

कॉफ़ी के बीजों के दो मुख्य अवयव-कैफ़ीन (caffeine) व कैफ़ीटैनिक अम्ल (caffetannic acid) हैं। कॉफिंया (Coffea) की विभिन्न जातियों में कैफीन की मात्रा 0.75 से 2.5% तक होती है। कॉफी के स्वाद का कड़वापन व इसके उत्तेजित प्रभाव इसी ऐल्केलॉयड के कारण होते हैं। भूने हुए बीजों की अपेक्षा अपरिष्कृत (raw) बीजों में कैफ़ीन की मात्रा अधिक होती है। कॉफ़ी की गुणता इसको भूनने की विधि व अवधि पर निर्भर करती है। अधिक देर तक भूनी गयी कॉफी का स्वाद कड़वा व तीखा हो जाता है जबकि ठीक तरह न भूनी गयी कॉफ़ी से कैफ़ीन की पूरी मात्रा प्राप्त नहीं होती है।

विश्व के अनेक भागों में कॉफ़ी को लोग चिकोरी (chicory) क साथ मिलाकर पीते हैं। चिकोरी एस्टेरेसी (Asteraceae) कुल के सिकोरियम इन्टीबस (Cichorium intybus) की जड़ों को पीस कर तैयार किया गया पाउडर है। इसके अतिरिक्त कुछ भागों में त्तिकारी वा स्थान पर मॉल्टिड गेहूँ (malted wheat) अथवा जौं का पाउडर भी मिलाया जाता है।

औषधियों में कॉफ़ी का प्रयोग उत्तेजक व मूत्रल (diuretic) के रूप में किया जाता है। इसमें कैफ़ियोटॉक्सिन (cafeotoxin) नामक वाष्पशील विषैला पदार्थ पाया जाता है। कॉफ़ी के अत्यधिक प्रयोग से होने वाले दुष्प्रभाव इसी के कारण हैं।

मसाले (Spices)

बागवानी फसलों में मसालों का महत्वपूर्ण स्थान है। मसालों को सब्जियों की श्रेणी से बाहर रखा गया है। भारत को “मसालों का घर’ कहा जाता है। यहां काली मिर्च (Black Pepper), इलायची (Cardamom), अदरक (Ginger), लहसुन, हल्दी, मिर्च के अतिरिक्त पत्ती और बीज वाले मसाले का उत्पादन होता है। मसालांत्पादन से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण परीक्षोपयोगी तथ्यों का वर्णन अधोलिखित है। यथा-

• भारत मसालों और मसालों के उत्पाद का सबसे बड़ा उत्पादक, उपभोक्ता और निर्यातक देश है। वर्ष 2016-17 में देश में 3.70 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर कुल 8.20 मिलियन मिट्रिक टन भसालों का उत्पादन हुआ था। भारत में मसालों की उन्पादकता 2.0 टन प्रति हेक्टेयर है।

• केरल में भारत का 94% काली मिर्च तथा 60% इलायची पैदा होता है।*

• मेथी, सौंफ, जीरा एवं धनियां के उत्पादन में राजस्थान का देश में पहला स्थान है (RAS) ।।*

• देश में सम्पूर्ण मसालों की दृष्टि से सर्वाधिक क्षेत्रफल वाला राज्य राजस्थान (10.04 लाख हे.) है, दूसरे एवं तीसरे स्थान पर क्रमशः म.प्र. (5.24 लाख हे.) व गुजरात (5.02 लाख हे.) है।

• देश में मसालों के सम्पूर्ण निर्यात में काली मिर्च एवं हल्दी का योगदान 50% से अधिक है।*

• मसालों का राजा उपमा ‘काली मिर्च’ को तथा रानी की उपमा छोटी इलायची को प्रदान की गयी है।*

• Turmeric (हल्दी) is antioxidant due to phenolic character of curcumin.

मसालों के शीर्ष उत्पादक राज्य (2016-17P)
फसलें
क्रमशः शीर्ष उत्पादक राज्य
• केसर *
जम्मू-कश्मीर
• काली मिर्च *
केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु
• छोटी इलायची*
केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु
• अदरक*
असोम, प. बंगाल, महाराष्ट्र
• जीरा*
गुजरात, राजस्थान, प. बंगाल
• लौंग *
तमिलनाडु, केरल
• मिर्च* (Dried)
आन्ध्रप्रदेश, तेलंगाना, म.प्र.
• मिर्च* (Green)
कर्नाटक, म.प्र., आंध्र प्रदेश
• हल्दी*
तेलंगाना, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश
• धनिया
राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश
• लहसुन
मध्य प्रदेश, राजस्थान, उ.प्र.
• मेथी
राजस्थान
• वैनिला
कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु

• ये पौधों के विभिन्न भागों, जैसे जड़ (एन्जेलिका), प्रकन्द (अदरक, हल्दी), पत्तियों (पुदीना, तेजपात), छाल (दालचीनी), पुष्पकलिकाओं (लौंग), वर्तिकाग्र (केसर), फल (इलायची, मिर्चा), बीज (जीरा, मेथी, धनिया), आदि से प्राप्त होता है।* सुरूचि कर्मक के अतिरिक्त मसालों में प्रति ऑक्सीकारक गुण (anti-oxidant property) भी होती है। अतः इनका प्रयोग आचार व चटनियों को परिरक्षित (preserved) रखने के लिए भी किया जाता है।

➤ मसाले महत्त्वपूर्ण तथ्य

• लौंग : वाणिज्यिक लौंग एक सदाबहार वृक्ष सिजीजिएम ऐरोमेटिकम की बन्द पुष्प कलिकाएँ हैं। यद्यपि इसके वृक्षों में पुष्पन 8-10 वर्ष की आयु में हो जाता है परन्तु वाणिज्यिक लौंग प्राप्त करने के उद्देश्य से पुष्प कलिकाओं का संग्रह 20 वर्ष पुराने वृक्षों से किया जाता है। यह कार्य शुष्क वातावरण में किया जाता है। बन्द पुष्प कलिकाएँ जब हल्वे लाल रंग की हों, हाथ से चुन ली जाती हैं। तत्पश्चात् इन कलिकाओं को धूप में सूखा लेते हैं। सूखी लौंगों को उनके रंग, आकृति व अशुद्धियों के आधार पर वर्गीकृत कर लिया जाता है।

सूखी पुष्पकलिकाओं के वाष्प आसवन से प्राप्त वाष्पशील तेल के मुख्य अवयव यूजीनॉल (eugenol, 70-90%), यूजीनॉल एसिटेट (eugenol acetate) तथा कैरियोफिलीन (caryophylline) है।*

लौंग को इसके सुरूचिकर स्वाद व गरम प्रकृति के कारण भोजन में मिलाया जाता है। इसका प्रयोग मिठाई, अचार, बेकरी उत्पादों व मीठे शर्बतों के निर्माण में भी किया जाता है। लौंग से प्राप्त वाष्पशील तेल का उपयोग औषधियों, इत्रों तथा प्रसाधन व सौंदर्य सामग्री के निर्माण में होता है। यह तेल जीव वैज्ञानिक अध्ययनों में निर्मलक (clearing agent) व स्थापना माध्यम (mounting medium) के रूप में प्रयोग किया जाता है।

• अदरक : व्यवसायिक अदरक दो प्रकार से तैयार किया जाता है-

(i) परिरक्षित अथवा हरा अदरक (preserved or green ginger) (ii) सूखा अथवा संसाधित अदरक (dried or cured ginger)

परिरक्षित अथवा हरा अदरक तैयार करने के लिए प्रकन्द पूरी तरह परिपक्व होने से पूर्व ही जमीन से निकाल लिए जाते हैं। उसके पश्चात् इन्हें साफ करके चीनी के घोल में उबाल लिया जाता है।

सूखा अथवा संसाधित अदरक तैयार करने के लिए प्रकन्द परिपक्व अवस्था में भूमि से निकाले जाते हैं। उन्हें भलीभाँति धो व छील कर (कभी-कभी पानी में उबाला भी जाता है। धूप में लगभग एक सप्ताह तक सूखा लिया जाता है। चूने के पानी से विरंजित (bleach) अदरक को सूखा कर सौंठ तैयार की जाती है जिसे औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है।

अदरक के वाष्प आसवन (steam distillation) से 1-3% वाष्पशील तेल प्राप्त होता है। इस तेल के मुख्य अवयव सेस्क्वीटर्पीन (sesquiterpene) व जिन्जिबरीन (zingiberine) हैं। अदरक का तीखा स्वाद जिन्जिरोन के कारण होता है।

अदरक का उपयोग भोजन को सुरूचिकर बनाने के लिए किया जाता है। इसकी रोचक सुगंध के कारण इसका प्रयोग मिठाई, ठण्डे पेय व बेकरी उत्पादों में भी किया जाता है। इसमें वातहर व उत्तेजक गुण होते हैं। अतः इसे औषधि के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।

• हल्दी : हल्दी में लाक्षणिक पीला रंग व स्वाद लाने के लिए प्रकन्द की प्रोसेसिंग (processing) की जाती है। सर्वप्रथम इसे पानी में उबाला जाता है। जिससे इसमें विशेष स्वाद आ जाता है। अब इन्हें 10-15 दिन धूप में भलीभांति सुखाकर एक ड्रम में डालकर इनमें पॉलिश की जाती है।

संसाधित प्रकन्द के आसवन से प्राप्त वाष्पशील तेल के मुख्य अवयव टर्मीरोन्स (termerones) हैं। हल्दी का पीला रंग इसमें उपस्थित कुरक्यूमिन (curcumin) नामक पदार्थ के कारण होता है।

हल्दी एक महत्त्वपूर्ण खाद्य उपबंध (food ajunct) है। इसका उपयोग मुख्यतः भोजन को रंगने में किया जाता है। इसका नौसादर से विवेचन करके कुमकुम (रोली) बनाई जाती है। यह त्वचा को सुन्दर व स्वच्छ बनाता है। इसमें प्रतिजैविक गुण होते हैं, अतः त्वचा में इसका लेप लगाया जाता है। हल्दी में वातहर (carminative), उत्तेजक (stimulant) व कफोत्सारक (expectorant) गुण होते हैं। अतः यह अनेक प्रकार के रोगों से गुणकारी है।

• दालचीनी : वाणिज्यिक दाल चीनी (dalchini of commerce) सिनैगोमम जेलैनिकम नामक वृक्ष की सूखी छाल (bark) है। इसके वाष्प आसवन से प्राप्त वाष्पशील तेल में लगभग 60% सिनैमिक एल्डिहाइड (cinnamic aldehyde) व 10% यूजीनॉल (eugenol) होता है।

दालचीनी का प्रयोग मसाले के रूप में किया जाता है। इसमें वातहर व उत्तेजक गुण होते हैं। यह मित्तली (nausea) व उल्टी रोकने में प्रभावकारी होता है। इससे प्राप्त वाष्पशील तेल मिठाई,मदिरा, औषधि व प्रसाधन सामग्रियों को सुरूचिकर बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है।

सिनैमोमम की एक दूसरी जाति, सिनैमोमम तमाला (Clamala) की पत्तियाँ तेजपात के नाम से प्रयोग में लायी जाती है यह एक सदाबहार वृक्ष है। भारतवर्ष में यह सिक्किम, मणिपुर व अरूणाचल प्रदेश में उगाया जाता है। जब वृक्ष लगभग 10 वर्ष के हो जाते हैं तब अच्छी वृद्धि वाले वृक्षों की पत्तियाँ तोड़कर उनको 2-3 दिन धूप में सुखा लेते हैं, तत्पश्चात पत्तियों को छोटे-छोटे बन्डलों में बांधकर मंडी में भेजा जाता है।

• जीरा : वाणिज्यिक जीरा क्यूमिन के सूखे फल हैं। इनके वाष्पशील तेल में क्यूमिनएल्डिहाइड (cuminaldehyde) नामक पदार्थ होता है जिसके कारण इनमें एक विशेष गंध व कुछ तीखा स्वाद होता है। इसका प्रयोग अचार, सब्जी, बेकरी उत्पादों व सूप, आदि में सामान्य रूप से किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसका प्रयोग वातहर (carminative) व उत्तेजक (stimulant) के रूप में किया जाता है। यह उदर शूल में भी गुणकारी है।

• अम्बेलीफेरी कुल के कुछ अन्य पौधों के बीज भी मसाले के रूप में प्रयोग किये जाते हैं। इनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं। यथा-

1. फीनीकुलम वल्गेरी (foeniculum vulgare, सौंफ) इनमें मीठी ऐरोमेट्रिक गंध पायी जाती है। इसके बीजों में एक वाष्पशील तेल (सौंफ का तेल, Fennel oil) पाया जाता है जिसका मुख्य घटक फेनकोन (fenchone) है। इसी के कारण सौंफ के बीज चबाने में मीठा सुस्वाद आता है। सौंफ का प्रयोग भोजन को सुरूचकर बनाने में व चर्वण (mastication) में किया जाता है। इसमें वातहर व उत्तेजक गुण होते हैं। यह बच्चों के उदर शूल, वात व हुकवर्म (hook worm) के उपचार में प्रभावकारी है।

2. कोरिएन्ड्रस सैटाइवम अर्थात् धनियाँ एक महत्त्वपूर्ण मसाला है। इसके पत्तियों में मीठी ऐरोमेटिक, गंध होती है। अतः इनका प्रयोग भोजन को सुरूचिकर बनाने व सजाने में किया जाता है। इसका परिपक्व भिदुर फल गोल व पीला होता है तथा क्यूमिनम के समान यह भी दो फलांशकों से निर्मित होता है। बीजों में उपस्थित वाष्पशील तेल (धनिये का तेल coriande oil) का मुख्य घटक कोरिएन्ड्राल (coriandrol) है। पश्चिमी देशों में इसका प्रयोग मदिरा के सुरूचिकर बनाने में किया जाता है। कोरिएन्डर ऑयल में वातहर व मूत्रल गुण होते हैं।

शर्करा उत्पादक पौधे (Sugar Producing Plants)

पौधे के सभी क्लोरोप्लास्ट युक्त भाग शर्करा (Sugar) का निर्माण करते हैं, इसमें से अधिकांश शर्करा पौधे द्वारा स्वयं उपापचय (Metabolism) में प्रयोग कर ली जाती है और केवल बहुत थोड़ा अंश शर्करा के रूप में संचय होता है। परन्तु गन्ना (Sugarcane), चुकंदर (Sugar-beat) व कुछ प्रकार के ताड़ वृक्षों (Palm trees) में शर्करा का संचयन अच्छी मात्रा में होता है और इनसे शर्करा का वाणिज्यक उत्पादन (Commercial Production) किया जाता है।

➤ गन्ना (Sugarcane)

गन्ना का वानस्पतिक नाम ‘सैकैरम ऑफीसिनेरम है। इसका कुल (family) पोएसी (ग्रेमिनी), जन्म स्थान भारत तथा जलवायु नम उष्णकटिबंधीय (Humid Tropical) है।* वार्षिक वर्षा 100- 180 सेमी, औसत तापमान 26°C तथा रेतीली व चिकनी दुमट भूमि (Heavy loam soil) में इसकी अच्छी पैदावार होती है। यह एक बहुवर्षीय पौधा है। इसकी आधारीय पर्व-संधियों से अवस्तम्भ जड़ें (Stilt roofs)* निकलती हैं, जो स्तम्भ stem) को सहारा देती हैं। गन्ने की कृषि योग्य किस्में विषमयुग्मजी (Heterozygous) होती हैं,* अतः इनका प्रवर्धन (Propagation) कायिक विधियों (Stem cutting) से होता है।*

परिपक्व गन्ने में 60 से 70% रस पाया जाता है। रस से गुड़ 12-15% व चीनी 10-12% बनायी जाती है। गन्ने की शर्करा सुक्रोज* (Sucrose) प्रकार की होती है। इसमें 18-20% तक राब (molasses) प्राप्त होता है। ब्राजील के बाद भारत विश्व में चीनी का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक राष्ट्र है। जबकि चीनी खपत में विश्व में भारत का पहला स्थान है। देश में चीनी उत्पादन में वर्ष 2017-18 में महाराष्ट्र का प्रथम स्थान और उत्तर प्रदेश का दूसरा स्थान था।

देश में गन्ना फसलों के किस्मों के विकास हेतु 1912 में कोयम्बटूर (तमिलनाडु) में ‘Sugarcane Breeding Station’ तथा चीनी उद्योग को तकनीकी सहायता प्रदान करने हेतु कानपुर में ‘Indian Institute of Sugar Technology’ की स्थापना की गई।

➤ चुकन्दर (Sugar beet)

यह एक द्विवर्षीय पौधा है, जिसका उत्पत्ति स्थल उत्तरी यूरोप माना जाता है। इसका पुष्प द्विलिंगी एवं प्रवर्धन (Propagation) बीजों द्वारा होता है। शर्करा सूक्रोज (Sucrose) के रूप में फूली हुई जड़ों में संचित रहता है। इसमें शर्करा की मात्रा जाति के अनुसार 5 से 20% तक पायी जाती है। चुकन्दर से शर्करा बनाने हेतु प्रथम सफल प्रयास जर्मनी के रिचर्ड (1799) द्वारा किया गया। चुकन्दर के अपरिष्कृत रस में उपस्थित अघुलनशील अशुद्धियों को कार्बोनेटीकरण (carbonation) द्वारा दूर किया जा सकता है। इसके लिए रस का चूने के पानी से विरचन (treatment) किया जाता है। ऐसा करने से अघुलनशील अशुद्धियाँ अवक्षेपित (precipitate) हो जाती हैं जिन्हें छान कर अलग कर लिया जाता है।

रेशे प्रदान करने वाले पौधे (Fibress Producing Plants)

पादप रेशे का उपयोग कपड़ा, रस्सी, जूट-बोरे पैकिंग, भराई का कागज आदि में किया जाता है। रेशा एक विशेष प्रकार की दीर्घित संकीर्ण व काष्ठिल (lignified) दृढ़ोतकी कोशिकाएँ (Sclerenchymatous cells) हैं। इनके छोर नोकदार होते हैं। ये पौधे के विभिन्न अंगों- अधःस्त्वचा, कॉर्टेक्स, संवहन ऊतक आदि में पट्टी (Plates) अथवा एक आच्छिन्न सिलिण्डर (Entire Cylinder) के रूप में व्यवस्थित रहते हैं। सामान्यतः संवहन ऊतक (Vascular tissue) में इनका बाहुल्य होता है। इनका मुख्य रासायनिक घटक सेल्यूलोज (64-94%) है, जो असंख्य B- ग्लूकोज अणुओं से निर्मित होता है तथा इसमें प्रोटीन की मात्रा लगभग शून्य होती है। प्रमुख पादक फाइबर्स अधोलिखित हैं। यथा- कपास, जूट, नारियल जटा, सनई (Snnhemp), बेंत (Cane), अलसी एवं सीसल हेम्प आदि।

कपास (Cotton Plant)

कपास संसार का सबसे महत्वपूर्ण फाइबर है। मनुष्य द्वारा इसके उपयोग का सन्दर्भ ग्रीस, रोम व भारत के ऋग्वेद जैसे प्राचीन साहित्य में मिलता है। भारत वर्ष से कपास 600 ई. में, चीन व मिस्र में पुरः स्थापित (Introduced) हुई। इसकी वस्त्र रेशा के रूप में खेती 1300-1400 ई. में आरम्भ हुई।

कपास मालवेसी कुल का सदस्य है।* संसार में मुख्यतः इसकी दो प्रजातियाँ पायी जाती हैं। प्रथम को देशी कपास (Old World Cotton) अर्थात् गार्सिपियम अरबोरियम एवं गा; हरबेरियम के नाम से

तथा दूसरा अमेरिकन कपास (New World Cotton) अर्थात् गा हिरसुटम एवं बारवेडेन्स के नाम से जाना जाता है। देशी कपास का जन्म स्थान भारत व इण्डोचाइना और अमेरिकन कपास का मैक्सिको व दक्षिणी अमेरिका माना जाता है। अमेरिकन कपास के रेशे लम्बे, रुई चमकीला तथा उपज देशी कपास से अधिक मिलता है। कपास एक अथवा बहुवर्षीय, प्रायः 1 से 2 मी. ऊँचा शाकीय (shrub) अथवा छोटा वृक्ष (Tree) होता है। इसका पुष्प द्विलिंगी (Bisexsual) तथा फल कैप्स्यूल (capsule) प्रकार का होता है। कैप्स्यूल को कपास का डोडा (Bells) कहते हैं। इसके प्रत्येक कोष्ठक में लगभग 9 बीज होते हैं, जिनकी सतह सफेद, दीर्घ व मुलायम फाइबर से ढकी होती है।

कपास उष्ण (Hot) तथा शुष्क जलवायु का पौधा है। पौधे के प्रारम्भिक अवस्था में नम वातावरण तथा पकने के समय शुष्क जलवायु लाभदायक होता है। काली मृदा इसकी खेती के लिए उपयुक्त होती है। चीन के बाद भारत संसार में दूसरा शीर्ष कपास उत्पादक राष्ट्र हैं। भारत में गुजरात कपास का शीर्ष उत्पादक राज्य है (UPPSC : M: 16)। कपास में ओटाई प्रतिशत (रूई की मात्रा) 24 से 43 तक पायी जाती है। भारत में देशी कपास की खेती कुल कपास क्षेत्र के 29% भाग पर की जाती है। शेष भाग पर अमेरिकन कपास की खेती की जा रही है। भारत में अमेरिकन कपास की प्रमुख किस्मों में H-4, महालक्ष्मी, जयलक्ष्मी F-414, सुजाता, M.C.U.-56 व 8 आदि प्रमुख किस्में हैं।*

➤ जूट (Jute)

• यह टिलिऐसी कुल का सदस्य है। इसका जन्म स्थान अफ्रीका व भारत माना जाता है। यह कपास के बाद दूसरी प्रमुख रेशे वाली फसल है। इसके विकास में केन्द्रीय जूट अनुसंधान, बैरकपुर (पं० बंगाल) का अमिट योगदान है। *

जूट के पौधे से रेशे को अपगलन विधि द्वारा तने की छाल के नीचे से प्राप्त किया जाता है। इस विधि में तने के बंण्डलो को 20 सेमी नीचे पानी में डुबोते हैं। फलतः वायुजीवी तथा अवायुजीवी सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रियाशीलता से रेशे में उपस्थित पेक्टिन तथा गोद आदि पदार्थ घुलकर नष्ट हो जाते हैं। जिससे सुगमता से रेशा अलग हो जाता है।

औषधीय पादप (Medicinal Plants)

प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन से यह विदित होता है कि प्राकृतिक वनस्पतियों का औषधि के रूप में उपयोग सर्वप्रथम चीन तदोपरान्त भारत में हुआ। किसी भी पौधे का औषधीय महत्व उसमें उपस्थित कुछ विशेष पदार्थ जैसे ऐल्कोलॉयड्स (Alkoloids), ग्लाइकोसाइडस (glycosides), रेजिन (Resins), वाष्पशील तेल (Volatile oils), गोंद (gums), टेनिन (Tannins) आदि के कारण होता है। सामान्यतः ये सक्रिय पदार्थ पौधों के संचयी भागों (Storage Organs), जैसे जड़, बीज, छाल, पत्ती आदि में संकेन्द्रित होते हैं।

➤ सीबकथोर्न (हिप्पोफी)

इसे ‘हिमालय का सोना’ अथवा ‘जादुई झाड़ी’ भी कहा जाता है। यह देश का एक बहुमूल्य औषधीय पौधा है, जो देश के सुदूर एवं उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में उगता आया है। विश्व में सर्वाधिक सीबकथोर्न चीन एवं तदोपरान्त भारत में पाया जाता है। भारत में सीबकथोर्न का सर्वाधिक क्षेत्र जम्मू-कश्मीर के लद्दाख (लेह एवं कारगिल) में है। हिमाचल, उत्तराखण्ड एवं पूर्वोत्तर भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में भी यह पाया जाता है।

यह एक बहुपयोगी पौधे के रूप में सामने आया है। इसके फल विटामिन, खनिज लवण, एसिड एवं बायो मॉलीक्यूलस जैसे अनेक पोषक तत्वों से परिपूर्ण होते हैं। इसमें लाइसीन जैसे एमीनों अम्ल और 5HT जैसे तत्व बेहद उपयोगी एवं दुर्लभ होते है। सीबकथोर्न के जैम, प्यूरी, अचार, सॉस, हर्बल चाय (पत्तियों से), कफ सिरप, साबुन, लोशन एवं क्रीम आदि भी बाजार में आने लगे हैं।

सीबकथोर्न के तेल में घावों को भरने, अल्सर से निदान एवं नाभिकीय व अल्ट्रा वॉयलेट विकिरण से सुरक्षा प्रदान करने की अद्वितीय क्षमता होती है।

➤ लकड़ी प्रदान करने वाले पौधे (Woods Plants)

काष्ठ (wood) एक द्वितीयक ऊतक (Secondary tissue) है,जिसका निर्माण जिम्नोस्पर्म व द्विबीजपत्री पौधों के स्तम्भों में कैम्बियम की सक्रियता से होता है। इन दोनों प्रकार के पौधों में संवहन कैम्बियम (vascular combium) अनेक वर्षों तक अन्दर की ओर द्वितीयक जाइलम तथा बाहर की ओर द्वितीयक फ्लोयम बनाते हैं, जिससे स्तम्भ की मोटाई में वृद्धि होती है। द्वितीयक जाइलम जिसे काष्ठ (wood) कहते हैं अनेक प्रकार की कोशिकाओं का बना होता है।

बन उत्पादों में काष्ठ सबसे महत्वपूर्ण है। इसका उपयोग ईंधन, फर्नीचर, भवन निर्माण तथा कागज व रेयॉन (Rayon) उद्योगों में किया जाता हैं। इसके अतिरिक्त काष्ठ से फाइबर, कागज, स्नेहक (Lubricants), मोटर गाड़ियों का तेल, साबुन, पशु आहार व अन्य लाभदायक पदार्थ भी प्राप्त होते हैं।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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