जब नेत्र अनन्त पर स्थित किसी वस्तु को देखते हैं तो नेत्र पर गिरने वाली समान्तर किरणें नेत्र लेन्स द्वारा रेटिना पर फोकस हो जाती हैं और नेत्र को वस्तु स्पष्ट दिखाई देती है। (चित्र K)। नेत्र लेन्स से रेटिना तक की दूरी नेत्र लेन्स की फोकस दूरी कहलाती है। इस स्थिति में मांसपेशियाँ ढीली रहती हैं तथा नेत्र लेन्स की फोकस दूरी सबसे अधिक होती है, परन्तु जब नेत्र से समीप स्थित किसी वस्तु को देखते हैं तो मांसपेशियाँ सिकुड़कर लेन्स के पृष्ठों की वक्रता त्रिज्याओं को कम कर देती हैं। इससे नेत्र लेन्स की फोकस दूरी भी कम हो जाती है और वस्तु का स्पष्ट प्रतिबिम्ब पुनः रेटिना पर बन जाता है (चित्र L)। नेत्र की इस प्रकार फोकस दूरी को कम करने की क्षमता को नेत्र की समंजन क्षमता कहते हैं।
इन दोनों स्थितियों को इस प्रकार भी समझा जा सकता है-
• नेत्र का निकट एवं दूर बिन्दु (Near and Far Point of Eye)- हम जैसे-जैसे अधिक-से-अधिक निकट की वस्तुओं को देखते हैं, वैसे-वैसे अधिक समंजन क्षमता लगानी पड़ती है, परन्तु समंजन क्षमता की भी एक सीमा है। यदि वस्तु को नेत्र के अधिक निकट लाया जाता है तो वस्तु दिखाई देना बन्द हो जाती है। अतः “वह निकटतम बिन्दु जिसे नेत्र अपनी अधिकतम समंजन क्षमता लगाकर स्पष्ट देख सकता है, नेत्र का निकट बिन्दु (Near point) कहलाता है।” इस बिन्दु से नेत्र की दूरी स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी कहलाती है। स्वस्थ नेत्र के लिए यह दूरी 25 सेमी होती है। इसके विपरीत, “वह अधिकतम दूर बिन्दु जिसे नेत्र बिना समंजन क्षमता लगाए स्पष्ट देख सकता है, नेत्र का दूर बिन्दु (Far point) कहलाता है इस बिन्दु से नेत्र तक की दूरी स्पष्ट दृष्टि की अधिकतम दूरी कहलाती है। स्वस्थ आँख के लिए यह अनन्त पर होता है।
नेत्र के निकट बिन्दु तथा दूर बिन्दु के बीच की दूरी को दृष्टि विस्तार कहते हैं। यह सामान्य नेत्र के लिए लगभग 25 सेमी से अनन्त तक होता है।
नेत्र दण्ड और शंकु (Eye Rod and Cone)
मनुष्य के नेत्र की रेटिना में प्रकाश सुग्राही सेलों की बहुत बड़ी मात्रा होती है। ये सेलें दो प्रकार की होती हैं- (1) दण्डाकार सेलें तथा (2) शंक्वाकार सेलें। इसीलिए इन्हें क्रमशः दण्ड सेल (Rodcells) तथा शंकु सेल (Cones Cells) कहते हैं।
दण्डाकार सेलें प्रकाश की तीव्रता के लिए सुग्राही होती हैं, जबकि शंक्वाकार सेलें प्रकाश के रंगों के लिए सुग्राही होती हैं। इन शंक्वाकार सेलों के कारण ही मनुष्य को विभिन्न रंगों का आभास होता है। मधुमक्खी की आँख के रेटिना में अन्य प्रकार की शंक्वाकार सेलें होती हैं, जिन्हें मनुष्य नहीं देख सकता। ये सेलें केवल पराबैंगनी प्रकाश के लिए ही सुग्राही होती हैं। मुर्गों की आँख के रेटिना में दण्डाकार सेलें बहुत कम होती हैं। यही कारण है कि मुर्गा सूर्योदय होते ही जाग जाता है तथा सूर्यास्त होते ही सो जाता है, क्योंकि मुर्गे को देखने के लिए तीव्र प्रकाश की आवश्यकता होती है।
दृष्टि दोष (Defects of Vision)
कभी-कभी आँखों की समंजन क्षमता (power of accommodation) क्षीण हो जाती है जिस कारण स्पष्ट दिखाई नहीं देता और दृष्टि धुँधली हो जाती है, इसे ही आँख का दृष्टि दोष कहते हैं। इसका निवारण चश्मा लगाकर किया जाता है। आँख में निम्नलिखित दृष्टि दोष हो जाते हैं-
(1) निकट-दृष्टि दोष (Myopia or Short-sightedness),
(2) दूर-दृष्टि दोष (Hypermetropia or Long-sightedness),
(3) जरा-दूरदर्शिता (Presbyopia),
(4) अबिन्दुकता (Astigmatism),
(5) वर्णान्धता (Colour-blindness)।
(1) निकट-दृष्टि दोष (Myopia or Short-sightedness): इस दोष से युक्त नेत्र द्वारा मनुष्य को पास की वस्तुएँ तो स्पष्ट दिखाई देती हैं, परन्तु एक निश्चित दूरी से आगे की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई नहीं देतीं अर्थात् नेत्र का दूर बिन्दु अनन्त पर न होकर पास आ जाता है। यह दोष 10 से 16 वर्ष की आयु में होता है। चित्र (a) में अनन्त से आने वाली किरणें दृष्टि पटल पर फोकस न होकर दृष्टि पटल के आगे बिन्दु P पर फोकस हो गई हैं। इसलिए दृष्टि पटल पर स्पष्ट प्रतिबिम्ब नहीं बनता।
• निकट-दृष्टि दोष के कारण (Reasons of Myopia)
इस दोष के दो कारण हैं-
(1) नेत्र लेन्स के पृष्ठों की वक्रता का बढ़ जाना जिससे उसकी फोकस दूरी कम हो जाती है।
(2) नेत्र लेन्स व रेटिना के बीच की दूरी का बढ़ जाना अर्थात् नेत्र के गोले का व्यास बढ़ जाना।
इस दोष के कारण अनन्त (दूर) पर स्थित वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना पर न बनकर उससे आगे बनता है अर्थात् अनन्त से चलने वाली समान्तर किरणें नेत्र में अपवर्तित होकर रेटिना R पर मिलने के बजाय, रेटिना से पहले बिन्दु P पर मिल जाती हैं [चित्र (a)]। इस कारण अनन्त (दूर) पर स्थित वस्तु दिखाई नहीं देती।
• निकट-दृष्टि दोष का निवारण (Rectification of Myopia)- इस प्रकार के दोष को दूर करने के लिए एक ऐसे अवतल लेन्स का प्रयोग करते हैं जो कि अनन्त से चलने वाली किरणें अवतल लेन्स से अपवर्तन के पश्चात् नेत्र के दूर बिन्दु F आती हुई प्रतीत होती हों [चित्र (b)]। इससे ये किरणें नेत्र से अपवर्तित होकर रेटिना के पीत बिन्दु R पर मिल जाती हैं। इस प्रकार अनन्त पर रखी वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना पर स्पष्ट बन जाता है और नेत्र को वस्तु स्पष्ट दिखाई देने लगती है।
(2) दूर-दृष्टि दोष (Hypermetropia or Long- sightedness)- इस दोष से युक्त नेत्र द्वारा मनुष्य को दूर की वस्तुएँ तो स्पष्ट दिखाई देती हैं, परन्तु पास की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई नहीं देतीं अर्थात् नेत्र का निकट बिन्दु 25 सेमी से अधिक दूर हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को पढ़ने के लिए पुस्तक 25 सेमी से अधिक दूर रखनी पड़ती है। इस दोष से समीप की वस्तु का प्रतिबिम्ब दृष्टि पटल पर न बनकर उसके पीछे बनता है। चित्र (c) में वस्तु ० का प्रतिबिम्ब दृष्टि पटल के पीत बिन्दु R पर न बनकर उसके पीछे P पर बनता है।
• दूर-दृष्टि दोष के कारण (Reasons of Hypermetropia)- इस दोष के दो कारण हैं-
(1) नेत्र लेन्स के पृष्ठों की वक्रता का कम हो जाना जिससे उसकी फोकस दूरी बढ़ जाती है।
(2) नेत्र लेन्स व रेटिना के बीच की दूरी का कम हो जाना अर्थात् नेत्र के गोले का व्यास कम हो जाना।
इस दोष के कारण अनन्त (दूर) की वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना पर न बनकर उसके पीछे बनता है अर्थात् अनन्त से चलने वाली समान्तर किरणें नेत्र में अपवर्तित होकर रेटिना R पर मिलने के बजाय, रेटिना के पीछे बिन्दु P पर मिलती हैं (चित्र (c)]। इस कारण अनन्त (दूर) पर स्थित वस्तु दिखाई नहीं देती।
• दूर-दृष्टि दोष का निवारण (Rectification of Hypermetropia)- इस दोष को दूर करने के लिए एक ऐसे उत्तल लेन्स का प्रयोग करते हैं कि दोषित नेत्र से 25 सेमी की दूरी पर रखी वस्तु से चलने वाली किरणें उत्तल लेन्स से अपवर्तन के पश्चात् नेत्र के निकट बिन्दु N से आती हुई प्रतीत हों। [चित्र (d)]। इससे ये किरणें नेत्र से अपवर्तित होकर रेटिना के पीत बिन्दु R पर मिल जाती हैं। इस प्रकार वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना पर बन जाता है और नेत्र को वस्तु स्पष्ट दिखाई देने लगती है।
(3) जरा-दूरदर्शिता (Presbyopia) कुछ व्यक्तियों में निकट- दृष्टि व दूर-दृष्टि दोनों दोष एक साथ होते हैं, इसे जरा-दूरदर्शिता कहते हैं। ऐसे व्यक्ति द्विफोकसी लेन्स का प्रयोग करते हैं जिसका ऊपरी भाग अवतल व नीचे का भाग उत्तल लेन्स की तरह कार्य करता है। ऊपरी भाग दूर की वस्तुओं को देखने के लिए तथा निचला भाग समीप की वस्तुओं को देखने (पढ़ने आदि में) के लिए काम आता है।
(4) अबिन्दुकता (Astigmatism)- यह दोष गोलीय विपथन की तरह होता है। इस दोष के कारण क्षैतिज दिशा में अथवा ऊर्ध्व दिशा में वस्तु धुँधली दिखाई देती है। इस दोष का कारण कॉर्निया का पूर्णतः गोल न होना है अर्थात् कॉर्निया के एक तल में उसकी वक्रता अधिक तथा दूसरे तल में कम हो जाती है। बेलनाकार लेन्स का उपयोग करके इस दोष को दूर किया जा सकता है।
(5) वर्णान्धता दृष्टि दोष (Colour Distinction or Colour- blindness)- यह दोष मनुष्य की आँख में शंक्वाकार सेलों की कमी के कारण होता है। * इन सेलों की कमी के कारण मनुष्य की आँख कुछ निश्चित रंगों के लिए ही सुग्राही होती है। यह दोष मनुष्य की आँख में जन्मजात (आनुवंशिक) होता है तथा इसका कोई भी उपचार नहीं है। इस दोष वाले व्यक्ति सामान्यतः ठीक प्रकार से देख तो सकते हैं, परन्तु रंगों में भेद करना उनके लिए सम्भव नहीं हो पाता। इस रोग को वर्णाधार दृष्टि दोष अथवा वर्णान्धता कहते हैं।
कुछ व्यक्ति लाल तथा हरे रंग में विभेद नहीं कर पाते, इस प्रकार की वर्णान्धता आनुवंशिक (जन्मजात) होती है। कुछ व्यक्ति नीले तथा पीले रंग में विभेद नहीं कर पाते, इस प्रकार की वर्णान्धता स्वयं अर्जित होती है। कुछ व्यक्ति पूर्णतः वर्णान्ध होते हैं, ऐसा रेटिना पर शंकु तन्त्रिकाओं के पूर्ण अभाव के कारण अथवा उनमें स्थायी दोष आ जाने के कारण होता है। यह दोष 0.5% स्त्रियों में तथा 4% मनुष्यों में पाया जाता है।*
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