प्रेमचंद के फटे जूते : अध्याय 5

प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियाँ उभर आई हैं, पर घनी मूँछे चेहरे को भरा-भरा बतलाती है।

पाँवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बँधे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है। तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं।

दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अँगुली बाहर निकल आई है।

मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूँ फोटो खिंचाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है।

मैं चेहरे की तरफ़ देखता हूँ। क्या तुम्हें मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अँगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हें इसका जरा भी अहसास नहीं है? जरा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अँगुली ढक सकती है? मगर फिर भी तुम्हारे चेहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है। फोटोग्राफर ने जब ‘रेडी-प्लीज’ कहा होगा, तब परंपरा के अनुसार तुमने मुसकान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएँ के तल में कहीं पड़ी मुसकान को धीरे-धीरे खींचकर ऊपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही ‘क्लिक’ करके फोटोग्राफर ने ‘थैंक यू’ कह दिया होगा। विचित्र है यह अधूरी मुसकान। यह मुसकान नहीं, इसमें उपहास है, व्यंग्य है!

यह कैसा आदमी है, जो खुद तो फटे जूते पहने फोटो खिंचा रहा है, पर किसी पर हँस भी रहा है!

फोटो ही खिंचाना था, तो ठीक जूते पहन लेते, या न खिंचाते। फोटो न खिंचाने से क्या बिगड़ता था। शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम, ‘अच्छा, चल भई’ कहकर बैठ गए होंगे। मगर यह कितनी बड़ी ‘ट्रेजडी’ है कि आदमी के पास फोटो खिंचाने को भी जूता न हो। मैं तुम्हारी यह फोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पड़ना चाहता हूँ, मगर तुम्हारी आँखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है।

तुम फोटो का महत्व नहीं समझते। समझते होते, तो किसी से फोटो खिंचाने के लिए जूते माँग लेते। लोग तो माँगे के कोट से वर दिखाई करते हैं। और माँगे की मोटर से बारात निकालते हैं। फोटो खिंचाने के लिए तो बीवी तक माँग ली जाती है, तुमसे जूते ही माँगते नहीं बने ! तुम फोटो का महत्व नहीं जानते। लोग तो इत्र चुपड़कर फोटो खिंचाते हैं जिससे फोटो में खुशबू आ जाए। गंदे-से-गंदे आदमी की फोटो भी खुशबू देती है!

टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस जमाने में भी पाँच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे। जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है। अब तो जूते की कीमत और बढ़ गई है और एक जूते पर पचीसों टोपियाँ न्योछावर होती हैं। तुम भी जूते और टोपी के आनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे। यह विडंबना मुझे इतनी तीव्रता से पहले कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है, जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूँ। तुम महान कथाकार, उपन्यास-सम्राट, युग प्रवर्तक, जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फोटो में भी तुम्हारा जूता फटा हुआ है।

मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है। यों ऊपर से अच्छा दिखता है। अँगुली बाहर नहीं निकलती, पर अँगूठे के नीचे तला फट गया है। अँगूठा जमीन से घिसता है और पैनी मिट्टी पर कभी रगड़ खाकर लहूलुहान भी हो जाता है। पूरा तला गिर जाएगा, पूरा पंजा छिल जाएगा, मगर अँगुली बाहर नहीं दिखेगी। तुम्हारी अँगुली दिखती है, पर पाँव सुरक्षित है। मेरी अँगुली बँकी है, पर पंजा नीचे घिस रहा है। तुम परदे का महत्त्व ही नहीं जानते, हम परदे पर कुर्बान हो रहे हैं!

तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहने हो! मैं ऐसे नहीं पहन सकता। फोटो तो जिंदगी भर इस तरह नहीं खिंचाऊँ, चाहे कोई जीवनी बिना फोटो के ही छाप दे। तुम्हारी यह व्यंग्य-मुसकान मेरे हौसले पस्त कर देती है। क्या मतलब है
इसका? कौन सी मुसकान है यह?
– क्या होरी का गोदान हो गया?
– क्या पूस की रात में नीलगाय हलकू का खेत चर गई?
– क्या सुजान भगत का लड़का मर गया; क्योंकि डॉक्टर क्लब छोड़कर नहीं आ सकते?

नहीं, मुझे लगता है माधो औरत के कफ़न के चंदे की शराब पी गया। वहीं मुसकान मालूम होती है।

मैं तुम्हारा जूता फिर देखता हूँ। कैसे फट गया यह, मेरी जनता के लेखक ?

क्या बहुत चक्कर काटते रहे?

क्या बनिये के तगादे से बचने के लिए मील-दो मील का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे?

चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं है, घिस जाता है। कुंभनदास का जूता भी फतेहपुर सीकरी जाने-आने में घिस गया था। उसे बड़ा पछतावा हुआ। उसने कहा- ‘आवत जात पन्हैया घिस गई, बिसर गयो हरि नाम।’

और ऐसे बुलाकर देने वालों के लिए कहा था ‘जिनके देखे दुख उपजत है, तिनको करबो परै सलाम!’

चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं। तुम्हारा जूता कैसे फट गया?

मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज़ को ठोकर मारते रहे हो। कोई चीज जो परत-पर-परत सदियों से जम गई है, उसे शायद तुमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया। कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आजमाया।

तुम उसे बचाकर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे। टीलों से समझौता भी तो हो जाता है। सभी नदियाँ पहाड़ थोड़े ही फोड़ती है, कोई रास्ता बदलकर. घूमकर भी तो चली जाती है।

तुम समझौता कर नहीं सके। क्या तुम्हारी भी वही कमजोरी थी, जो होरी को ले डूबी, वही ‘नेम-धरम’ वाली कमजोरी? ‘नेम-धरम’ उसको भी जंजीर थी। मगर तुम जिस तरह मुसकरा रहे हो, उससे लगता है कि शायद यद नेम-धरम’ तुम्हारा बंधन नहीं था, तुम्हारी मुक्ति थी!

तुम्हारी यह पाँव की अँगुली मुझे संकेत करती सी लगती है, जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ़ हाथ की नहीं, पाँव की अँगुली से इशारा करते हो? तुम क्या उसकी तरफ इशारा कर रहे हो, जिसे ठोकर मारते-मारते तुमने जूता फाड़ लिया?

मैं समझता हूँ। तुम्हारी अँगुली का इशारा भी समझता हूँ। और यह व्यंग्य-मुसकान  काभी समझता हूँ।

तुम मुझ पर या हम सभी पर हँस रहे हो, उन पर जो अँगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उन पर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहे हैं। तुम कह रहे हो मैंने तो ठोकर मार-मारकर जूता फाड़ लिया, अँगुली बाहर निकल आई, पर पाँव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अँगुली को ढाँकने की चिंता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे?

मैं समझता हूँ। मैं तुम्हारे फटे जूते की बात समझता हूँ, अँगुली का इशारा समझता हूँ, तुम्हारी व्यंग्य-मुसकान समझता हूँ!

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प्रश्न अभ्यास

1. हरिशंकर परसाई ने प्रेमचंद का जो शब्दचित्र हमारे सामने प्रस्तुत किया है उससे प्रेमचंद के व्यक्तित्व की कौन-कौन सी विशेषताएँ उभरकर आती हैं?
Ans.
प्रेमचंद के व्यक्तित्व की विशेषताएँ –

(1) प्रेमचंद का व्यक्तित्व बहुत ही सीधा-सादा था, उनके व्यक्तित्व में दिखावा नहीं था।

(2) प्रेमचंद एक स्वाभिमानी व्यक्ति थे। किसी और की वस्तु माँगना उनके व्यक्तित्व के खिलाफ़ था।

(3) इन्हें समझौता करना मंजूर नहीं था।

(4) ये परिस्थितियों के गुलाम नहीं थे। किसी भी परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना इनके व्यक्तित्व की विशेषता थी।

2. सही कथन के सामने (√) का निशान लगाइए-

(क) बाएँ पाँव का जूता ठीक है मगर दाहिने जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अँगुली बाहर निकल आई है।   (✗)

(ख) लोग तो इत्र चुपड़कर फोटो खिंचाते हैं जिससे फोटो में खुशबू आ जाए। (√)

(ग) तुम्हारी यह व्यंग्य मुसकान मेरे हौसले बढ़ाती है।   (✗)

(घ) जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ अँगूठे से इशारा करते हो?   (✗)

3. नीचे दी गई पंक्तियों में निहित व्यंग्य को स्पष्ट कीजिए-

(क) जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है। अब तो जूते की कीमत और बढ़ गई है और एक जूते पर पचीसों टोपियाँ न्योछावर होती है।
Ans.
जीवन में यह विडंबना है कि जिसका स्थान पाँव में हैं, अर्थात् नीचे है, उसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता रहा है। जिसका स्थान ऊँचा है, जो सिर पर बिठाने योग्य है, उसे कम सम्मान मिलता रहा है। आजकल तो जूतों का अर्थात् धनवानों का मान-सम्मान और भी अधिक बढ़ गया है। एक धनवान पर पच्चीसों गुणी लोग न्योछावर होते हैं। गुणी लोग भी धनवानों की जी-हुजूरी करते नजर आते हैं।

(ख) तुम परदे का महत्व ही नहीं जानते, हम परदे पर कुर्बान हो रहे हैं।
Ans.
प्रेमचंद ने कभी पर्दे को अर्थात् लुकाव-छिपाव को महत्त्व नहीं दिया। उन्होंने वास्तविकता को कभी टॅकने का प्रयत्न नहीं किया। वे इसी में संतुष्ट थे कि उनके पास छिपाने-योग्य कुछ नहीं था। वे अंदर-बाहर से एक थे। यहाँ तक कि उनका पहनावा भी अलग-अलग न था।

लेखक अपनी तथा अपने युग की मनोभावना पर व्यंग्य करता है कि हम पर्दा रखने को बड़ा गुण मानते हैं। जो व्यक्ति अपने कष्टों को छिपाकर समाज के सामने सुखी होने का ढोंग करता है, हम उसी को महान मानते हैं। जो अपने दोषों को छिपाकर स्वयं को महान सिद्ध करता है, हम उसी को श्रेष्ठ मानते हैं।

(ग) जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ़ हाथ की नहीं, पाँव की अँगुली से इशारा करते हो?
Ans.
लेखक कहता है-प्रेमचंद ने समाज में जिसे भी घृणा-योग्य समझा, उसकी ओर हाथ की अँगुली से नहीं, बल्कि अपने पाँव की अँगुली से इशारा किया। अर्थात् उसे अपनी ठोकरों पर रखा, अपने जूते की नोक पर रखा, उसके विरुद्ध संघर्ष किए रखा।

4. पाठ में एक जगह पर लेखक सोचता है कि ‘फोटो खिंचाने की अगर यह पोशाक है तो पहनने की कैसी होगी?’ लेकिन अगले ही पल वह विचार बदलता है कि ‘नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी। आपके अनुसार इस संदर्भ में प्रेमचंद के बारे में लेखक के विचार बदलने की क्या वजहें हो सकती हैं?
Ans.
मेरे विचार से प्रेमचंद के बारे में लेखक का विचार यह रहा होगा कि समाज की परंपरा-सी है कि वह अच्छे अवसरों पर पहनने के लिए अपने वे कपड़े अलग रखता है, जिन्हें वह अच्छा समझता है। प्रेमचंद के कपड़े ऐसे न थे जो फ़ोटो खिंचाने लायक होते। ऐसे में घर पहनने वाले कपड़े और भी खराब होते। लेखक को तुरंत ही ध्यान आता है कि प्रेमचंद सादगी पसंद और आडंबर तथा दिखावे से दूर रहने वाले व्यक्ति हैं। उनका रहन-सहन दूसरों से अलग है, इसलिए उसने टिप्पणी बदल दी।

5. आपने यह व्यंग्य पढ़ा। इसे पढ़कर आपको लेखक की कौन सी बातें आकर्षित करती हैं?
Ans.
मुझे इस व्यंग्य की सबसे आकर्षक बात लगती है-विस्तारण शैली। लेखक एक संदर्भ से दूसरे संदर्भ की ओर बढ़ता चला जाता है। वह बूंद में समुद्र खोजने का प्रयत्न करता है। जैसे बीज में से क्रमश: अंकुर का, फिर पल्लव का, फिर पौधे और तने का; तथा अंत में फूल-फल का विकास होता चला जाता है, उसी प्रकार इस निबंध में प्रेमचंद के फटे जूते से बात शुरू होती है। वह बात खुलते-खुलते प्रेमचंद के पूरे व्यक्तित्व को उद्घाटित कर देती है। बात से बात निकालने की यह व्यंग्य शैली बहुत आकर्षक बन पड़ी है।

6. पाठ में ‘टीले’ शब्द का प्रयोग किन संदर्भों को इंगित करने के लिए किया गया होगा?
Ans.
टीला शब्द ‘राह’ में आनेवाली बाधा का प्रतीक है। जिस तरह चलते-चलते रास्ते में टीला आ जाने पर व्यक्ति को उसे पार करने के लिए विशेष परिश्रम करते हुए सावधानी से आगे बढ़ना पड़ता है उसी प्रकार सामाजिक विषमता, छुआछूत, गरीबी, निरक्षरता अंधविश्वास आदि भी मनुष्य की उन्नति में बाधक बनती है। इन्हीं बुराइयों के संदर्भ में ‘टीले’ शब्द का प्रयोग हुआ है। रचना और अभिव्यक्ति

रचना और अभिव्यक्ति

7. प्रेमचंद के फटे जूते को आधार बनाकर परसाई जी ने यह व्यंग्य लिखा है। आप भी किसी व्यक्ति की पोशाक को आधार बनाकर एक व्यंग्य लिखिए।
Ans.
मेरे हाथ में मेरे जिस मित्र का हाथ है, उसकी एक चीज़ का मैं हमेशा से कायल हूँ। वह है उसकी टाई की गाँठ। ऐसी साफ-सुथरी गाँठ आपके देखने में नहीं आई होगी। लगता है, जैसे जन्मजात ऐसी ही हो। कोई सिलवट नहीं, कोई बिखरावट नहीं। ऐसा नहीं है कि वे यह टाई सूट के साथ पहनते हों। गर्मियों में कमीज के साथ भी वे टाई पहनते हैं। तब भी टाई की गाँठ इसी तरह रहती है।

सच बताऊँ! मुझे एक भी ऐसा दृश्य याद नहीं आता, जब मैंने उन्हें टाई के बिना देखा हो। हाँ, एक बार मैं सुबह-सुबह उनके घर चला गया था। उस समय भी उन्होंने मुझे 45 मिनट प्रतीक्षा कराई। जब ड्राइंग रूम में आए तो टाई लगाए हुए थे। गाँठ तब भी वैसी थी, जैसे जन्मजात हो।

मैं सोचता हूँ इन्हें गाँठ लगाने का इतना शौक क्यों है? शायद इसलिए कि वे बिखराव को नहीं, गठन को पसंद करते हैं। इसलिए जब भी बोलते हैं, सँभलकर बोलते हैं। मैंने आज तक उन्हें व्यर्थ की गप्पें लड़ाते नहीं देखी। चुटकले सुनाते नहीं देखा। सुनाते क्या, चुटकलों पर हँसते भी नहीं देखा। यदि कोई उनके सामने कोई चुटकले पर हँस दे तो वे उसे ‘बेहूदा’ या ‘बेशऊर’ कहकर घंटों तक अपना मुँह बिगाड़े रहते हैं।

उनका एक ही सिद्धांत है-बोलो, तो ढंग का बोलो। वरना चुप रहो। ऐसा न समझिए, कि वे अकसर चुप रहते हैं। नहीं, वे अकसर बोलते पाए जाते हैं। और जब भी बोलते हैं-किसी-न-किसी राष्ट्रीय समस्या पर चिंता प्रकट करते पाए जाते हैं। उनका व्यक्तित्व गंभीर है। यदि कोई उनकी बात न सुन रहा हो तो वे उस पर व्यंग्य कसने लगते हैं। और अगर कोई और बीच में बोलना शुरू कर दे तो उसकी ओर से मुँह मोड़कर उबासी लेने लगते हैं।

मेरे टाई वाले मित्र की एक खूबी यह भी है कि वे हर किसी के गिरेबान में झाँकते हैं। उनकी एक-से-एक बेहूदी बात को बतंगड़ बनाकर पेश करते हैं। पर अपने गिरेबान में उन्होंने टाई बाँध रखी है, किसी को झाँकने नहीं देते। पिछले दिनों उन्हें कोई सदमा लगा। वे पागल हो गए। पेट ऐसे निकल आया जैसे दस बच्चे एक साथ प्रसव करेंगे। लोगों को उनके गिरेबान में न सही, बाहरी व्यक्तित्व में झाँकने का मौका मिल गया। परंतु तब वे छुट्टियाँ ले गए। तब तक वापस नहीं आए, जब तक उनकी देह वापस अपनी औकात पर न लौट आई।

सच बात तो यह है कि मेरे इस मित्र के पूरे जीवन में गाँठे ही गाँठे हैं। अपने बड़े होने की गाँठ। टाई तो बस ऊपरी गाँठ है। भीतर कितनी गाँठे हैं, यह उनकी पत्नी से हमने जाना। वे भी उनसे इतना डरती हैं जितना कि चपड़ासी साहब से। इसलिए बेचारी तभी हँसती हैं, जब वे चाहते हैं।

8. आपकी दृष्टि में वेश भूषा के प्रति लोगों की सोच में आज क्या परिवर्तन आया है?
Ans.
वेशभूषा के प्रति लोगों की सोच में बहुत बदलाव आया है। लोग वेशभूषा को सामाजिक प्रतिष्ठा का सूचक मानने लगे हैं। लोग उस व्यक्ति को ज्यादा मान-सम्मान और आदर देने लगे हैं जिसकी वेशभूषा अच्छी होती है। वेशभूषा से ही व्यक्ति का दूसरों पर पहला पड़ता है। हमारे विचारों का प्रभाव तो बाद में पड़ता है। आज किसी अच्छी-सी पार्टी में कोई धोतीकुरता पहनकर जाए तो उसे पिछड़ा समझा जाता है। इसी प्रकार कार्यालयों के कर्मचारी गण हमारी वेशभूषा के अनुरूप व्यवहार करते हैं। यही कारण है कि लोगों विशेषकर युवाओं में आधुनिक बनने की होड़ लगी है।

हरिशंकर परसाई

हरिशंकर परसाई का जन्म सन् 1922 में मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के जमानी गाँव में हुआ। नागपुर विश्वविद्यालय से एम०ए० करने के बाद कुछ दिनों तक अध्यापन किया। सन् 1947 से स्वतंत्र लेखन करने लगे। जबलपुर से वसुधा नामक पत्रिका निकाली, जिसकी हिंदी संसार में काफ़ी सराहना हुई। सन् 1995 में उनका निधन हो

हिंदी के व्यंग्य लेखकों में उनका नाम अग्रणी है। परसाई जी की कृतियों में हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे (कहानी संग्रह), रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज (उपन्यास), तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बेईमानी की परत, पगडंडियों का जमाना, सदाचार का तावीज, शिकायत मुझे भी है, और अंत में, (निबंध संग्रह), वैष्णव की फिसलन, तिरछी रेखाएँ, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, विकलांग श्रद्धा का दौर (व्यंग्य संग्रह) उल्लेखनीय हैं।

भारतीय जीवन के पाखंड, भ्रष्टाचार, अंतर्विरोध, बेईमानी आदि पर लिखे उनके व्यंग्य लेखों ने शोषण के विरुद्ध साहित्य की भूमिका का निर्वाह किया। उनका व्यंग्य लेखन परिवर्तन की चेतना पैदा करता है। कोरे हास्य से अलग यह व्यंग्य आदर्श के पक्ष में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक पाखंड पर लिखे उनके व्यंग्यों ने व्यंग्य-साहित्य के मानकों का निर्माण किया। परसाई जी बोलचाल की सामान्य भाषा का प्रयोग करते हैं किंतु संरचना के अनूठेपन के कारण उनकी भाषा की मारक क्षमता बहुत बढ़ जाती है।

प्रेमचंद के फटे जूते शीर्षक निबंध में परसाई जी ने प्रेमचंद के व्यक्तित्व की सादगी के साथ एक रचनाकार की अंतर्भेदी सामाजिक दृष्टि का विवेचन करते हुए आज की दिखावे की प्रवृत्ति एवं अवसरवादिता पर व्यंग्य किया है।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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