राष्ट्रपति : 17

संविधान के भाग V के अनुच्छेद 52 से 78 तक में संघ की कार्यपालिका का वर्णन है। संघ की कार्यपालिका में राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्रिमंडल तथा महान्यायवादी शामिल होते हैं।

राष्ट्रपति, भारत का राज्य प्रमुख होता है। वह भारत का प्रथम नागरिक है और राष्ट्र की एकता, अखंडता एवं सुदृढ़ता का प्रतीक है।

राष्ट्रपति का निर्वाचन

राष्ट्रपति का निर्वाचन जनता प्रत्यक्ष रूप से नहीं करती बल्कि एक निर्वाचन मंडल के सदस्यों द्वारा उसका निर्वाचन किया जाता है। इसमें निम्न लोग शामिल होते हैं:

1. संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य,

2. राज्य विधानसभा के निर्वाचित सदस्य, तथा

3. केंद्रशासित प्रदेशों दिल्ली व पुडुचेरी विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य ।

इस प्रकार संसद के दोनों सदनों के मनोनीत सदस्य, राज्य विधानसभाओं के मनोनीत सदस्य, राज्य विधानपरिषदों (द्विसदनीय विधायिका के मामलों में) के सदस्य (निर्वाचित व मनोनीत) और दिल्ली तथा पुदुचेरी विधानसभा के मनोनीत सदस्य राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग नहीं लेते हैं। जब कोई सभा विघटित हो गईं हो तो उसके सदस्य राष्ट्रपति के निर्वाचन में मतदान नहीं कर सकते । उस स्थिति में भी जबकि विघटित सभा का चुनाव राष्ट्रपति के निर्वाचन से पूर्व न हुआ हो।

संविधान में यह प्रावधान है कि राष्ट्रपति के निर्वाचन में विभिन्न राज्यों का प्रतिनिधित्व समान रूप से हो, साथ ही राज्यों तथा संघ के मध्य भी समानता हो। इसे प्राप्त करने के लिए, राज्य विधानसभाओं तथा संसद के प्रत्येक सदस्य के मतों की संख्या निम्न प्रकार निर्धारित होती है:

1. प्रत्येक विधानसभा के निर्वाचित सदस्य के मतों की संख्या, उस राज्य की जनसंख्या को, उस राज्य की विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों तथा 1000 के गुणनफल से प्राप्त संख्या द्वारा भाग देने पर प्राप्त होती है।

एक विधायक के मत का मूल्य =  राज्य की कुल जनसंख्या/ राज्य विधानसभा के निर्वाचित कुल सदस्य × 1/1000

2. संसद के प्रत्येक सदन के निर्वाचित सदस्यों के मतों की संख्या, सभी राज्यों के विधायकों की मतों के मूल्य को संसद के कुल सदस्यों की संख्या से भाग देने पर प्राप्त होती है

एक संसद सदस्य के मतों के मूल्य = सभी राज्यों के विधायकों के मतों का कुल मूल्य/संसद के निर्वाचित सदस्यों की कुल सदस्य संख्या

राष्ट्रपति का चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार एकल संक्रमणीय मत और गुप्त मतदान द्वारा होता है। किसी उम्मीदवार को, राष्ट्रपति के चुनाव में निर्वाचित होने के लिए, मतों का एक निश्चित भाग प्राप्त करना आवश्यक है। मतों का यह निश्चित भाग, कुल वैध मतों की, निर्वाचित होने वाले कुल उम्मीदवारों (यहां केवल एक ही उम्मीदवार राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित होता है) की संख्या में एक जोड़कर प्राप्त संख्या द्वारा, भाग देने पर भागफल में एक जोड़कर प्राप्त होता है।

निश्चित मतों का भाग = [कुल वैध मत / {1+1 = (2)}] +1

निर्वाचक मंडल के प्रत्येक सदस्य को केवल एक मतपत्र दिया जाता है। मतदाता को मतदान करते समय उम्मीदवारों के नाम के आगे अपनी वरीयता 1, 2, 3, 4 आदि अंकित करनी होती है। इस प्रकार मतदाता उम्मीदवारों की उतनी वरीयता आदि दे सकता है, जितने उम्मीदवार होते हैं।

प्रथम चरण में, प्रथम वरीयता के मतों की गणना होती है। यदि उम्मीदवार निर्धारित मत प्राप्त कर लेता है तो वह निर्वाचित घोषित हो जाता है अन्यथा मतों के स्थानांतरण की प्रक्रिया अपनाई जाती है। प्रथम वरीयता के न्यूनतम मत प्राप्त करने वाले उम्मीदवार के मतों को रद्द कर दिया जाता है तथा इसके द्वितीय वरीयता के मत अन्य उम्मीदवारों के प्रथम वरीयता के मतों में स्थानांन्तरित कर दिए जाते है, यह प्रक्रिया तब तक चलती है जब तक कोई उम्मीदवार निर्धारित मत प्राप्त नहीं कर लेता।

राष्ट्रपति चुनाव से संबंधित सभी विवादों की जांच व फैसले उच्चतम न्यायालय में होते हैं तथा उसका फैसला अंतिम होता है।

तालिका 17.1 राष्ट्रपतियों का निर्वाचन (1952-2013)

क्रम.संख्यानिर्वाचन वर्षविजयी उम्मीदवारप्राप्त मत (प्रतिशत में)मुख्य प्रतिद्वंदीप्राप्त मत (प्रतिशत में)
1.1952डॉ. राजेन्द्र प्रसाद507400 (83.81)के.टी. शाह92827
2.1957डॉ. राजेन्द्र प्रसाद459698 (99.35)एनएन दास2000
3.1962डॉ. एस. राधाकृष्णन553067 (98.24)चौ. हरिराम6341
4.1967डॉ. जाकिर हुसैन471244 (56.23)के. सुब्बाराव363971
5.1969वी.वी. गिरि420044 (50.22)एन. संजीवन रेड्डी
405427
6.1974फखरुद्दीन अली अहमद756587 (80.18)त्रिदेव चौधरी189186
7.1977एन. संजीवन रेड्डीनिर्विरोध
8.1982ज्ञानी जैल सिंह754113 (72.73)एच.आर. खन्ना282685
9.1987आर. वेंकटरमण740148 (72.29)वी. कृष्णाय्यर281550
10.1992डॉ. शंकर दयाल शर्मा675564 (65.86)जॉर्ज स्वेल346485
11.1997के. आर. नारायणन956290 (94.97)टी.एन. शेषन50431
12.2002डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम922844 (89.58)लक्ष्मी सहगल107366
13.2007श्रीमति प्रतिभा पाटिल638116 (65.82)बी.एस. शेखावत331306
14.2012प्रणब मुखर्जी713763 (68.12)पी.ए. संगमा315987

राष्ट्रपति के चुनाव को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि निर्वाचक मंडल अपूर्ण है (निर्वाचक मंडल के किसी सदस्य का पद रिक्त होने पर)। यदि उच्चतम न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति की राष्ट्रपति के रूप में नियुक्ति को अवैध घोषित किया जाता है, तो उच्चतम न्यायालय की घोषणा से पूर्व उसके द्वारा किए गए कार्य अवैध नहीं माने जाएंगे तथा प्रभावी बने रहेंगे।

संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने अप्रत्यक्ष चुनाव व्यवस्था की आलोचना की थी तथा राष्ट्रपति के चुनाव को अलोकतांत्रिक बताया तथा प्रत्यक्ष चुनाव का प्रस्ताव किया था। हालांकि, संविधान निर्माताओं ने अप्रत्यक्ष चुनाव को निम्नलिखित कारणों से चुनाः

1. राष्ट्रपति का अप्रत्यक्ष चुनाव, संविधान में परिकल्पित सरकार की संसदीय व्यवस्था के साथ सद्भाव रखता है। इस व्यवस्था में राष्ट्रपति केवल नाममात्र का कार्यकारी होता है तथा मुख्य शक्तियां प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल में निहित होती हैं। यह एक अव्यवस्था होती, यदि राष्ट्रपति का प्रत्यक्ष चुनाव होता और उसे वास्तविक शक्तियां न दी जातीं।

2. एक विस्तृत निर्वाचक गुण को देखते हुए राष्ट्रपति का प्रत्यक्ष चुनाव अत्यधिक खर्चीला तथा समय व ऊर्जा का अपव्यय होता। यह देखते हुए कि वह एक प्रतीकात्मक प्रमुख है ऐसा करना संभव नहीं था, संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने सुझाव दिया था कि राष्ट्रपति का चुनाव केवल संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों द्वारा होना चाहिए। संविधान निर्माताओं ने इसे प्राथमिकता नहीं दी, क्योंकि संसद में एक दल का बहुमत होता है, जो निश्चित तौर पर उसी दल के उम्मीदवार को चुनेगा और ऐसा राष्ट्रपति भारत के सभी राज्यों को प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। वर्तमान व्यवस्था में राष्ट्रपति संघ तथा सभी राज्यों का समान प्रतिनिधित्व करता है।

इसके अतिरिक्त संविधान सभा में यह कहा गया कि राष्ट्रपति के चुनाव में ‘आनुपात्तिक प्रतिनिधित्व’ शब्द का प्रयोग गलत है। आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रयोग दो अथवा अधिक स्थान भरने में होता है। राष्ट्रपति के मामले में पद केवल एक ही है। बेहतर होता कि इसे प्राथमिक अथवा वैकल्पिक व्यवस्था कहा जाता इसी प्रकार ‘एकल संक्रमणीय मत’ के अर्थ की इस आधार पर आलोचना की गई कि किसी भी मत्दाता का मत एकल न होकर बहुसंख्यक होता है।

अर्हताएं, शपथ एवं शर्ते

राष्ट्रपति के पद हेतु अर्हताएं

राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए व्यक्ति की निम्न अर्हताओं को पूर्ण करना आवश्यक है:

1. वह भारत का नागरिक हो।

2. वह 35 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका हो।

3. वह लोकसभा का सदस्य निर्वाचित होने के लिए अर्हित है।

4. वह संघ सरकार में अथवा किसी राज्य सरकार में अथवा किसी स्थानीय प्राधिकरण में अथवा किसी सार्वजनिक प्राधिकरण में लाभ के पद पर न हो। एक वर्तमान राष्ट्रपति अथवा उप-राष्ट्रपति किसी राज्य का राज्यपाल और संघ अथवा राज्य का मंत्री किसी लाभ के पद पर नहीं माना जाता। इस प्रकार वह राष्ट्रपति पद के लिए अर्हक उम्मीदवार होता है।

इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति के चुनाव के लिए नामांकन के लिए उम्मीदवार के कम से कम 50 प्रस्तावक व 50 अनुमोदक होने चाहिये। प्रत्येक उम्मीदवार भारतीय रिजर्व बैंक में 15000 रु. जमानत राशि के रूप में जमा करेगा। यदि उम्मीदवार कुल डाले गए मतों का 1/6 भाग प्राप्त करने में असमर्थ रहता है तो यह राशि जब्त हो जाती है। 1997 से पूर्व प्रस्तावकों व अनुमोदकों की संख्या दस-दस थी तथा जमानत राशि 2,500 थी। 1997 में इसे बढ़ा दिया गया ताकि उन उम्मीदवारों को हतोत्साहित किया जा सके, जो गंभीरता से चुनाव नहीं लड़ते हैं।

राष्ट्रपति द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान

राष्ट्रपति पद ग्रहण करने से पूर्व शपथ या प्रतिज्ञान लेता है। अपनी शपथ में राष्ट्रपति शपथ लेता है, मैं-

1. श्रद्धापूर्वक राष्ट्रपति पद का कार्यपालन करूंगा;

2. संविधान और विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूंगा, और;

3. भारत की जनता की सेवा और कल्याण में निरत रहूंगा। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और उसकी अनुपस्थिति में वरिष्ठतम न्यायाधीश द्वारा राष्ट्रपति को पद की शपथ दिलाई जाती है।

अन्य किसी भी व्यक्ति को जो राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है अथवा राष्ट्रपति के कर्तव्यों का निर्वाह करता है, इसी प्रकार शपथ लेनी होती है।

राष्ट्रपति के पद के लिए शर्तें

संविधान द्वारा राष्ट्रपति के पद के लिए निम्नलिखित शर्तें निर्धारित की गई हैं:

1. वह संसद के किसी भी सदन अथवा राज्य विधायिका का सदस्य नहीं होना चाहिए। यदि कोई ऐसा व्यक्ति राष्ट्रपति निर्वाचित होता है तो उसे पद ग्रहण करने से पूर्व उस सदन से त्यागपत्र देना होगा।

2. वह कोई अन्य लाभ का पद धारण नहीं करेगा।

3. उसे बिना कोई किराया चुकाए आधिकारिक निवास (राष्ट्रपति भवन) आवंटित होगा।

4. उसे संसद द्वारा निर्धारित उप-लब्धियों, भत्ते व विशेषाधिकार प्राप्त होंगे।

5. उसकी उप-लब्धियां और भत्ते उसकी पदावधि के दौरान कम नहीं किए जाएंगे।

2008 में, संसद ने राष्ट्रपति का वेतन 50,000 से बढ़ाकर 1.50 लाख रुपए प्रतिमाह तथा पेंशन उसके मासिक वेतन की आधी प्रतिमाह कर दी गयी है। इसके अलावा भूतपूर्व राष्ट्रपतियों को पूर्ण सुसज्जित आवास, फोन की सुविधा, कार, चिकित्सा सुविधा, यात्रा सुविधा, सचिवालयीन स्टाफ एवं 60 हजार रूपये प्रतिवर्ष तक कार्यालयीन खर्च मिलता है। राष्ट्रपति के निधन के बाद उनके पति-पत्नी को परिवार पेंशन मिलती है, जो कि राष्ट्रपति को मिलने वाली पेंशन से आधी होती है। इसके अलावा उन्हें पूर्ण सुसज्जित आवास, फोन की सुविधा, कार, चिकित्सा सुविधा, यात्रा सुविधा, सचिवालयीन स्टाफ एवं 12 हजार रूपये प्रतिवर्ष तक कार्यालयीन खर्च मिलता है।

राष्ट्रपति को अनेक विशेषाधिकार भी प्राप्त हैं। उसे अपने आधिकारिक कार्यों में किसी भी विधिक जिम्मेदारियों से उन्मुक्ति होती है। अपने कार्यकाल के दौरान उसे किसी भी आपराधिक कार्यवाही से उन्मुक्ति होती है, यहां तक कि व्यक्तिगत कृत्य से भी। वह गिरफ्तार नहीं किया जा सकता, न ही जेल भेजा जा सकता है, हालांकि दो महीने के नोटिस देने के बाद उसके कार्यकाल में उस पर उसके निजी कृत्यों के लिए अभियोग चलाया जा सकता है।

पदावधि, महाभियोग व पदरिक्तता

राष्ट्रपति की पदावधि

राष्ट्रपति की पदावधि उसके पद धारण करने की तिथी से पांच वर्ष तक होती है। हालांकि वह अपनी पदावधि में किसी भी समय अपना त्यागपत्र उप-राष्ट्रपति को दे सकता है। इसके अतिरिक्त, उसे कार्यकाल पूरा होने के पूर्व महाभियोग चलाकर भी उसके पद से हटाया जा सकता है।

जब तक उसका उत्तराधिकारी पद ग्रहण न कर ले राष्ट्रपति अपने पांच वर्ष के कार्यकाल के उप-रांत भी पद पर बना रह सकता है। वह इस पद पर पुनःनिर्वाचित हो सकता है। वह कितनी ही बार पुनः निर्वाचित हो सकता है हालांकि अमेरिका में एक व्यक्ति दो बार से अधिक राष्ट्रपति नहीं बन सकता।

राष्ट्रपति पर महाभियोग

राष्ट्रपति पर ‘संविधान का उल्लंघन’ करने पर महाभियोग चलाकर उसे पद से हटाया जा सकता है। हालांकि संविधान ने ‘संविधान का उल्लंघन’ वाक्य को परिभाषित नहीं किया है।

महाभियोग के आरोप संसद के किसी भी सदन में प्रारंभ किए जा सकते हैं। इन आरोपों पर सदन के एक-चौथाई सदस्यों (जिस सदन ने आरोप लगाए गए हैं) के हस्ताक्षर होने चाहिये और राष्ट्रपति को 14 दिन का नोटिस देना चाहिए। महाभियोग का प्रस्ताव दो-तिहाई बहुमत से पारित होने के पश्चात यह दूसरे सदन में भेजा जाता है, जिसे इन आरोपों की जांच करनी चाहिए। राष्ट्रपति को इसमें उप-स्थित होने तथा अपना प्रतिनिधित्व कराने का अधिकार होगा। यदि दूसरा सदन इन आरोपों को सही पाता है और महाभियोग प्रस्ताव को दो-तिहाई बहुमत से पारित करता है तो राष्ट्रपति को विधेयक पारित होने की तिथि से उसके पद से हटाना होगा।

इस प्रकार महाभियोग संसद की एक अर्द्ध-न्यायिक प्रक्रिया है। इस संदर्भ में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं- (अ) संसद के दोनों सदनों के नामांकित सदस्य जिन्होंने राष्ट्रपति के चुनाव में भाग नहीं लिया था, इस महाभियोग में भाग ले सकते हैं। (ब) राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य तथा दिल्ली व पुदुचेरी केंद्रशासित राज्य विधानसभाओं के सदस्य इस महाभियोग प्रस्ताव में भाग नहीं लेते हैं, जिन्होंने राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लिया था।

अभी तक किसी भी राष्ट्रपति पर महाभियोग नहीं चलाया गया है।

राष्ट्रपति के पद की रिक्तता

राष्ट्रपति का पद निम्न प्रकार से रिक्त हो सकता है:

1. पांच वर्षीय कार्यकाल समाप्त होने पर,

2. उसके त्यागपत्र देने पर,

3. महाभियोग प्रक्रिया द्वारा उसे पद से हटाने पर,

4. उसकी मृत्यु पर,

5. अन्यथा, जैसे यदि वह पद ग्रहण करने के लिए अर्हक न हो अथवा निर्वाचन अवैध घोषित हो।

यदि पद रिक्त होने का कारण उसके कार्यकाल का समाप्त होना हो तो उस पद को भरने हेतु उसके कार्यकाल पूर्ण होने से पूर्व नया चुनाव कराना चाहिए। यदि नए राष्ट्रपति के चुनाव में किसी कारण कोई देरी हो तो, वर्तमान राष्ट्रपति अपने पद पर बना रहेगा (पांच वर्ष उप-रांत भी) जब तक कि उसका उत्तराधिकारी कार्यभार ग्रहण न कर ले। संविधान ने यह उप-बंध राष्ट्रपति के न होने पर पद रिक्त होने से शासनांतरण से बचने के लिए किया है। इस स्थिति में उप–राष्ट्रपति को यह अवसर नहीं मिलता है कि वह कार्यवाहक राष्ट्रपति की तरह कार्य करे और उसके कर्त्तव्यों का निर्वहन करे।

यदि उसका पद उसकी मृत्यु, त्यागपत्र, निष्कासन अथवा अन्यथा किसी कारण से रिक्त होता है तो नए राष्ट्रपति का चुनाव पद रिक्त होने की तिथि से छह महीने के भीतर कराना चाहिए। नया निर्वाचित राष्ट्रपति पद ग्रहण करने से पांच वर्ष तक अपने पद पर बना रहेगा।

यदि राष्ट्रपति का पद उसकी मृत्यु, त्यागपत्र, निष्कासन अथवा अन्य किन्हीं कारणों से रिक्त हो तो उप-राष्ट्रपति, नए राष्ट्रपति के निर्वाचित होने तक कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करेगा। इसके अतिरिक्त यदि वर्तमान राष्ट्रपति अनुपस्थिति, बीमारी या अन्य कारणों से अपने पद पर कार्य करने में असमर्थ हो तो उप- राष्ट्रपति उसके पुनः पद ग्रहण करने तक कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करेगा।

यदि उप-राष्ट्रपति का पद रिक्त हो, तो भारत का मुख्य – न्यायाधीश (अथवा उसका भी पद रिक्त होने पर उच्चतम न्यायालय का वरिष्ठतम न्यायाधीश) कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य – करेगा तथा उसके कर्तव्यों का निर्वाह करेगा।

जब कोई व्यक्ति, जैसे-उप-राष्ट्रपति, भारत का मुख्य न्यायाधीश अथवा उच्चतम न्यायालय का वरिष्ठतम न्यायाधीश, कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है अथवा उसके कर्तव्यों का निर्वहन करता है तो उसे राष्ट्रपति की समस्त शक्तियां व उन्मुक्तियां प्राप्त होती हैं तथा वह संसद द्वारा निर्धारित सभी उप- लब्धियां, भत्ते व विशेषाधिकार भी प्राप्त करता है।

राष्ट्रपति की शक्तियां व कर्तव्य

राष्ट्रपति द्वारा प्रयोग की जाने वाली शक्तियां व किए जाने वाले कार्य निम्नलिखित हैं:

1. कार्यकारी शक्तियां
2. विधायी शक्तियां
3. वित्तीय शक्तियां
4. न्यायिक शक्तियां
5. कूटनीतिक शक्तियां
6. सैन्य शक्तियां
7. आपातकालीन शक्तियां

कार्यकारी शक्तियां

राष्ट्रपति की कार्यकारी शक्तियां व कार्य हैं:

(i) भारत सरकार के सभी शासन संबंधी कार्य उसके नाम पर किए जाते हैं।

(ii) वह नियम बना सकता है ताकि उसके नाम पर दिए जाने वाले आदेश और अन्य अनुदेश वैध हों।

(iii) वह ऐसे नियम बना सकता है जिससे केंद्र सरकार सहज रूप से कार्य कर सके तथा मंत्रियों को उक्त कार्य सहजता से वितरत हो सकें।

(iv) वह प्रधानमंत्री तथा अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है, तथा वे उसकी प्रसादपर्यंत कार्य करते हैं।

(v) वह महान्यायवादी की नियुक्ति करता है तथा उसके वेतन आदि निर्धारित करता है। महान्यायवादी, राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत अपने पद पर कार्य करता है।

(vi) वह भारत के महानियंत्रक व महालेखा परीक्षक, मुख्य चुनाव आयुक्त तथा अन्य चुनाव आयुक्तों, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष व सदस्यों, राज्य के राज्यपालों, वित्त आयोग के अध्यक्ष व सदस्यों आदि की नियुक्ति करता है।

(vii) वह केंद्र के प्रशासनिक कार्यों और विधायिका के प्रस्तावों से संबंधित जानकारी की मांग प्रधानमंत्री से कर सकता है।

(viii) राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से किसी ऐसे निर्णय का प्रतिवेदन भेजने के लिये कह सकता है, जो किसी मंत्री द्वारा लिया गया हो, किंतु पूरी मंत्रिपरिषद ने इसका अनुमोदन नहीं किया हो।

(ix) वह अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए एक आयोग की नियुक्ति कर सकता है।

(x) वह केंद्र-राज्य तथा विभिन्न राज्यों के मध्य सहयोग के लिए एक अंतर्राज्यीय परिषद की नियुक्ति कर सकता है।

(xi) वह स्वयं द्वारा नियुक्त प्रशासकों के द्वारा केंद्रशासित राज्यों का प्रशासन सीधे संभालता है।

(xii) वह किसी भी क्षेत्र को अनुसूचित क्षेत्र घोषित कर सकता है। उसे अनुसूचित क्षेत्रों तथा जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन की शक्तियां प्राप्त हैं।

विधायी शक्तियां

राष्ट्रपति भारतीय संसद का एक अभिन्न अंग है तथा उसे निम्नलिखित विधायी शक्तियां प्राप्त हैं:

(1) वह संसद की बैठक बुला सकता है अथवा कुछ समय के लिए स्थगित कर सकता है और लोकसभा को विघटित कर सकता है। वह संसद के संयुक्त अधिवेशन का आह्वान कर सकता है जिसकी अध्यक्षता लोकसभा अध्यक्ष करता है।

(ii) वह प्रत्येक नए चुनाव के बाद तथा प्रत्येक वर्ष संसद के प्रथम अधिवेशन को संबोधित कर सकता है।

(iii) वह संसद में लंबित किसी विधेयक या अन्यथा किसी संबंध में संसद को संदेश भेज सकता है।

(iv) यदि लोकसभा के अध्यक्ष व उपाध्यक्ष दोनों के पद रिक्त हों तो वह लोकसभा के किसी भी सदस्य को सदन की अध्यक्षता सौंप सकता है। इसी प्रकार यदि राज्यसभा के सभापति व उप-सभापति दोनों पद रिक्त हों तो वह राज्यसभा के किसी भी सदस्य को सदन की अध्यक्षता सौंप सकता है।

(v) वह साहित्य, विज्ञान, कला व समाज सेवा से जुड़े अथवा जानकार व्यक्तियों में से 12 सदस्यों को राज्यसभा के लिए मनोनीत करता है।

(vi) वह लोकसभा में दो आंग्ल-भारतीय समुदाय के व्यक्तियों को मनोनीत कर सकता है।

(vii) वह चुनाव आयोग से परामर्श कर संसद सदस्यों की निरर्हता के प्रश्न पर निर्णय करता है।

(viii) संसद में कुछ विशेष प्रकार के विधेयकों को प्रस्तुत करने के लिए राष्ट्रपति की सिफारिश अथवा आज्ञा आवश्यक है। उदाहरणार्थ, भारत की संचित निधि से खर्च संबंधी विधेयक अथवा राज्यों की सीमा परिवर्तन या नए राज्य के निर्माण या संबंधी विधेयक ।

(ix) जब एक विधेयक संसद द्वारा पारित होकर राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है तो वहः

(अ) विधेयक को अपनी स्वीकृति देता है; अथवा

(ब) विधेयक पर अपनी स्वीकृति सुरक्षित रखता है; अथवा

(स) विधेयक को (यदि वह धन विधेयक नहीं है तो) संसद के पुनर्विचार के लिए लौटा देता है। हालांकि यदि संसद विधेयक को संशोधन या बिना किसी संशोधन के पुनः पारित करती है तो राष्ट्रपति की अपनी सहमति देनी ही होती है।

(x) राज्य विधायिका द्वारा पारित किसी विधेयक को राज्यपाल जब राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रखता है तब राष्ट्रपतिः

(अ) विधेयक को अपनी स्वीकृति देता है; अथवा

(ब) विधेयक पर अपनी स्वीकृति सुरक्षित रखता है, अथवा;

(स) राज्यपाल को निर्देश देता है कि विधेयक (यदि वह धन विधेयक नहीं है तो) को राज्य विधायिका को पुनर्विचार हेतु लौटा दे। यह ध्यान देने की बात है कि यदि राज्य विधायिका विधेयक को पुनः राष्ट्रपति की सहमति के लिए भेजती है तो राष्ट्रपति स्वीकृति देने के लिए बाध्य नहीं है।

(xi) वह संसद के सत्रावसान की अवधि में अध्यादेश जारी कर सकता है। यह अध्यादेश संसद की पुनः बैठक के छह हफ्तों के भीतर संसद द्वारा अनुमोदित करना आवश्यक है। वह किसी अध्यादेश को किसी भी समय वापस ले सकता है।

(xii) वह महानियंत्रक व लेखा परीक्षक, संघ लोक सेवा आयोग, वित्त आयोग व अन्य की रिपोर्ट संसद के समक्ष रखता है।

(xii) वह अंडमान व निकोबार द्वीप समूह, लक्षद्वीप, दादर एवं नागर हवेली एवं दमन व दीव में शांति, विकास व सुशासन के लिए विनियम बना सकता है। पुडुचेरी के भी वह नियम बना सकता है परंतु केवल तब जब वहाँ की विधानसभा निलंबित हो अथवा विघटित अवस्था में हो।

वित्तीय शक्तियां

राष्ट्रपति की वित्तीय शक्तियां व कार्य निम्नलिखित हैं:

(1) धन विधेयक राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से ही संसद में प्रस्तुत किया जा सकता है।

(ii) वह वार्षिक वित्तीय विवरण (केंद्रीय बजट) को संसद के समक्ष रखता है।

(ii) अनुदान की कोई भी मांग उसकी सिफारिश के बिना नहीं की जा सकती है।

(iv) वह भारत की आकस्मिक निधि से, किसी अदृश्य व्यय हेतु अग्रिम भुगतान की व्यवस्था कर सकता है।

(v) वह राज्य व केंद्र के मध्य राजस्व के बंटवारे के लिए प्रत्येक पांच वर्ष में एक वित्त आयोग का गठन करता है।

न्यायिक शक्तियां

राष्ट्रपति की न्यायिक शक्तियां व कार्य निम्नलिखित हैं:

(i) वह उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है।

(ii) वह उच्चतम न्यायालय से किसी विधि या तथ्य पर सलाह ले सकता है परंतु उच्चतम न्यायालय की यह सलाह राष्ट्रपति पर बाध्यकारी नहीं है।

(iii) वह किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध किसी व्यक्ति के लिए दण्डदेश को निलंबित, माफ या परिवर्तित कर सकता है, या दण्ड में क्षमादान, प्राणदण्ड स्थगित, राहत और माफी प्रदान कर सकता है।

(अ) उन सभी मामलों में, जिनमें सजा सैन्य न्यायालय में दी गई हो,

(ब) उन सभी मामलों में, जिनमें केंद्रीय विधियों के विरुद्ध अपराध के लिए सजा दी गई हो, और

(स) उन सभी मामलों में, जिनमें दंड का स्वरूप प्राण दंड हो।

कूटनीतिक शक्तियां

अंतर्राष्ट्रीय संधियां व समझौते राष्ट्रपति के नाम पर किए जाते हैं हालांकि इनके लिए संसद की अनुमति अनिवार्य है। वह अंतर्राष्ट्रीय मंचों व मामलों में भारत का प्रतिनिधित्व करता है और कूटनीतिज्ञों, जैसे- राजदूतों व उच्चायुक्तों को भेजता है एवं उनका स्वागत करता है।

सैन्य शक्तियां

वह भारत के सैन्य बलों का सर्वोच्च सेनापति होता है। इस क्षमता में वह थल सेना, जल व वायु सेना के प्रमुखों की नियुक्ति करता है। वह युद्ध या इसकी समाप्ति की घोषणा करता है किंतु यह संसद की अनुमति के अनुसार होता है।

आपातकालीन शक्तियां

उप-रोक्त साधारण शक्तियों के अतिरिक्त संविधान ने राष्ट्रपति को निम्नलिखित तीन परिस्थितियों में आपातकालीन शक्तियां भी प्रदान की हैं’:

(i) राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352);

(ii) राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356 तथा 365), एवं;

(iii) वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360)।

राष्ट्रपति की वीटो शक्ति

संसद द्वारा पारित कोई विधेयक तभी अधिनियम बनता है जब राष्ट्रपति उसे अपनी सहमति देता है। जब ऐसा विधेयक राष्ट्रपति की सहमति के लिए प्रस्तुत होता है तो उसके पास तीन विकल्प होते हैं (संविधान के अनुच्छेद 111 के अंतर्गत):

1. वह विधेयक पर अपनी स्वीकृति दे सकता है; अथवा

2. विधेयक पर अपनी स्वीकृति को सुरक्षित रख सकता है; अथवा

3. वह विधेयक (यदि विधेयक धन विधेयक नहीं है) को संसद के पुनर्विचार हेतु लौटा सकता है। हालांकि यदि संसद इस विधेयक को पुनः बिना किसी संशोधन के अथवा संशोधन करके, राष्ट्रपति के सामने प्रस्तुत करे तो राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देनी ही होगी।

इस प्रकार, राष्ट्रपति के पास संसद द्वारा पारित विधेयकों के संबंध में वीटो शक्ति होती है, 10 अर्थात वह विधेयक को अपनी स्वीकृति के लिए सुरक्षित रख सकता है। राष्ट्रपति को ये शक्ति देने के दो कारण हैं- (अ) संसद को जल्दबाजी और सही ढंग से विचारित न किए गए विधान बनाने से रोकना, और; (ब) किसी असंवैधानिक विधान को रोकने के लिए।

वर्तमान राज्यों के कार्यकारी प्रमुखों की वीटो शक्तियों को चार प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है:

1. अत्यांतिक वीटो, अर्थात् विधायिका द्वारा पारित विधेयक पर अपनी राय सुरक्षित रखना।

2. विशेषित वीटो, जो विधायिका द्वारा उच्च बहुमत द्वारा निरस्त की जा सके।

3. निलंबनकारी वीटो, जो विधायिका द्वारा साधारण बहुमत द्वारा निरस्त की जा सके।

4. पॉकेट वीटो, विधायिका द्वारा पारित विधेयक पर कोई निर्णय नहीं करना।

उप-रोक्त चार में से, भारत के राष्ट्रपति में तीन शक्तियां अत्यांतिक वीटो, निलंबनकारी वीटो और पॉकेट वीटो निहित हैं। भारत के राष्ट्रपति के संदर्भ में विशेषित वीटो महत्वहीन है तथा यह अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा प्रयोग किया जाता है। भारत के राष्ट्रपति के तीनों वीटो की व्याख्या निम्न है:

अत्यांतिक वीटो

इसका संबंध राष्ट्रपति की उस शक्ति से है, जिसमें वह संसद द्वारा पारित किसी विधेयक को अपने पास सुरक्षित रखता है। यह विधेयक इस प्रकार समाप्त हो जाता है और अधिनियम नहीं बन पाता। सामान्यतः यह वीटो निम्न दो मामलों में प्रयोग किया जाता है:

(i) गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयक संबंध में (अर्थात संसद का वह सदस्य जो मंत्री न हो, द्वारा प्रस्तुत विधेयक); और

(ii) सरकारी विधेयक के संबंध में जब मंत्रिमंडल त्यागपत्र दे दे (जब विधेयक पारित हो गया हो तथा राष्ट्रपति की अनुमति मिलना शेष हो) और नया मंत्रिमंडल, राष्ट्रपति को ऐसे विधेयक पर अपनी सहमति न देने की सलाह दे।

1954 में, राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने पीईपीएसयू विनियोग विधेयक पर अपना निर्णय रोककर रखा। वह विधेयक संसद द्वारा उस समय पारित किया गया जब पीईपीएसयू राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू था परंतु जब यह विधेयक स्वीकृति के लिए राष्ट्रपति के पास भेजा गया तो राष्ट्रपति शासन हटा लिया गया था।

पुनः 1991 में, राष्ट्रपति डॉ. आर. वेंकटरमण द्वारा संसद सदस्य वेतन, भत्ता और पेंशन (संशोधन) विधेयक को रोक कर रखा गया। यह विधेयक संसद द्वारा (लोकसभा विघटित होने के एक दिन पूर्व) राष्ट्रपति की पूर्व सिफारिशों को प्राप्त किए बिना पारित किया गया।

निलंबनकारी वीटो

राष्ट्रपति इस वीटो का प्रयोग तब करता है, जब वह किसी विधेयक को संसद के पुनर्विचार हेतु लौटाता है। हालांकि यदि संसद उस विधेयक को पुनः किसी संशोधन के बिना अथवा संशोधन के साथ पारित कर राष्ट्रपति के पास भेजती है तो उस पर राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देना बाध्यकारी है। इसका अर्थ है कि राष्ट्रपति के इस वीटो को, उस विधेयक को साधारण बहुमत से पुनः पारित कराकर निरस्त किया जा सकता है (उच्च बहुमत द्वारा नहीं जैसा कि अमेरिका में प्रचलित है)।

जैसा कि पूर्व में बताया गया है कि राष्ट्रपति धन विधेयकों के मामले में इस वीटो का प्रयोग नहीं कर सकता है। राष्ट्रपति किसी धन विधेयक को अपनी स्वीकृति या तो दे सकता है या उसे रोककर रख सकता है परंतु उसे संसद को पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता है। साधारणतः राष्ट्रपति, धन विधेयक पर अपनी स्वीकृति उस समय दे देता है, जब यह संसद में उसकी पूर्वानुमति से प्रस्तुत किया जाता है।

पॉकेट वीटो

इस मामले में राष्ट्रपति विधेयक पर न तो कोई सहमति देता है, न अस्वीकृत करता है, और न ही लौटाता है परंतु एक अनिश्चित काल के लिए विधेयक को लंबित कर देता है। राष्ट्रपति की विधेयक पर किसी भी प्रकार का निर्णय न देने की (सकारात्मक अथवा नकारात्मक) शक्ति, पॉकेट वीटो के नाम से जानी जाती है।

राष्ट्रपति इस वीटो शक्ति का प्रयोग इस आधार पर करता है कि संविधान में उसके समक्ष आए किसी विधेयक पर निर्णय देने के लिए कोई समय सीमा तय नहीं है। दूसरी ओर, अमेरिका में यह व्यवस्था है कि राष्ट्रपति को 10 दिनों के भीतर वह विधेयक पुनर्विचार के लिए लौटाना होता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भारत के राष्ट्रपति की शक्ति इस संबंध में अमेरिका के राष्ट्रपति से ज्यादा है।

सन 1986 में राष्ट्रपति जैल सिंह द्वारा भारतीय डाक (संशोधन) अधिनियम के संदर्भ में इस वीटो का प्रयोग किया गया। राजीव गांधी सरकार द्वारा पारित विधेयक ने प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाए और इसकी अत्यधिक आलोचना हुई। तीन वर्ष पश्चात, 1989 में अगले राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण ने यह विधेयक नई राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के पास पुनर्विचार हेतु भेजा परंतु सरकार ने इसे रद्द करने का फैसला लिया।

तालिका 17.2 राष्ट्रपति की वीटो शक्ति पर एक नज़र

केंद्रीय विधायिकाराज्य विधायिका
सामान्य विधेयकों के संबंध में:
1. स्वीकृति दे सकता है।1. स्वीकृति दे सकता है।
2. अस्वीकार कर सकता है।2. अस्वीकार कर सकता है।
3. वापस कर सकता है।3. वापस कर सकता है।
धन विधेयकों को संबंध में:
1. स्वीकृति दे सकता है।1. स्वीकृति दे सकता है।
2. अस्वीकार कर सकता है (परंतु वापस नहीं कर सकता)2. अस्वीकार कर सकता है परंतु वापस नहीं कर सकता।
संविधान संशोधन विधेयकों के संबंध में:
केवल स्वीकृति दे सकता है, (न वापस कर सकता है न अस्वीकार कर सकता है)।संविधान संशोधन संबंधी विधेयकों को राज्य विधायिका में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।

यह बात ध्यान देने योग्य है कि संविधान संशोधन से संबंधित अधिनियमों में राष्ट्रपति के पास कोई वीटो शक्ति नहीं है। 24वें संविधान संशोधन अधिनियम 1971 ने संविधान संशोधन विधेयकों पर राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देने के लिए बाध्यकारी बना दिया।

राज्य विधायिका पर राष्ट्रपति का वीटो

राज्य विधायिकाओं के संबंध में भी राष्ट्रपति के पास वीटो शक्तियां हैं। राज्य विधायिका द्वारा पारित कोई भी विधेयक तभी अधिनियम बनता है जब राज्यपाल अथवा राष्ट्रपति (यदि विधेयक राष्ट्रपति के विचारार्थ लाया गया हो) उस पर अपनी स्वीकृति दे देता है।

जब कोई विधेयक राज्य विधायिका द्वारा पारित कर राज्यपाल के विचारार्थ उसकी स्वीकृति के लिए लाया जाता है तो अनुच्छेद 200 के अंतर्गत उसके पास चार विकल्प होते हैं:

(i) वह विधेयक पर अपनी स्वीकृति दे सकता है, अथवा

(ii) वह विधेयक पर अपनी स्वीकृति सुरक्षित रख सकता है; अथवा

(iii) वह विधेयक (यदि धन विधेयक न हो) को राज्य विधायिका के पुनर्विचार के लिए लौटा सकता है।

(iv) वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचाराधीन आरक्षित कर सकता है।

जब कोई विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित किया जाता है तो राष्ट्रपति के पास तीन विकल्प (अनुच्छेद 201) होते हैं:

(i) वह विधेयक पर अपनी स्वीकृति दे सकता है, अथवा;

(ii) वह विधेयक पर अपनी स्वीकृति सुरक्षित रख सकता है, अथवा;

(iii) वह राज्यपाल को निर्देश दे सकता है कि वह विधेयक (यदि धन विधेयक नहीं है) को राज्य विधायिका के पास पुनर्विचार हेतु लौटा दे। यदि राज्य विधायिका किसी संशोधन के बिना अथवा संशोधन करके पुनः विधेयक को पारित कर राष्ट्रपति के पास भेजती है तो राष्ट्रपति इस पर अपनी सहमति देने के लिए बाध्य नहीं है। इसका अर्थ है कि राज्य विधायिका राष्ट्रपति के वीटो को निरस्त नहीं कर सकती है। इसके अतिरिक्त संविधान में यह समय सीमा भी तय नहीं है कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचारार्थ रखे विधेयक पर राष्ट्रपति कब तक अपना निर्णय दे। इस प्रकार राष्ट्रपति राज्य विधायकों के संदर्भ में भी पॉकेट वीटो का प्रयोग कर सकता है।

तालिका 17.2 में राष्ट्रपति की केंद्रीय तथा राज्य विधायिका क संबंध में वीटो शक्ति के वर्णनों का सारांश दिया गया है।

राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति

संविधान के अनुच्छेद 123 के तहत राष्ट्रपति को संसद के सत्रावसान की अवधि में अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्रदान की गई है। इन अध्यादेशों का प्रभाव व शक्तियां, संसद द्वारा बनाए गए कानून की तरह ही होती हैं परंतु ये प्रकृति से अल्पकालीन होते हैं।

राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विधायी शक्ति है। यह शक्ति उसे अप्रत्याशित अथवा अविलंबनीय मामलों से निपटने हेतु दी गई है परंतु इस शक्ति के प्रयोग में निम्नलिखित चार सीमाएं हैं;

1. वह अध्यादेश केवल तभी जारी कर सकता है जब संसद के दोनों अथवा दोनों में से किसी भी एक सदन का सत्र न चल रहा हो। अध्यादेश उस समय भी जारी किया जा सकता है जब संसद में केवल एक सदन का सत्र चल रहा हो क्योंकि कोई भी विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित किया जाना होता है न कि केवल एक सदन द्वारा। जब संसद के दोनों सदनों का सत्र चल रहा हो उस समय जारी किया गया अध्यादेश अमान्य है। इस प्रकार राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति, विधायिका की समानांतर शक्ति नहीं है।

2. वह कोई अध्यादेश केवल तभी जारी कर सकता है जब वह इस बात से संतुष्ट हो कि मौजूदा परिस्थिति ऐसी है कि उसके लिए तत्काल कार्रवाई करना आवश्यक है। कूपर केस (1970) 11 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा- “राष्ट्रपति की संतुष्टि पर असद्भाव के आधार पर प्रश्नचिह्न लगाया जा सकता है। इसका अर्थ है कि राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश जारी करने के निर्णय पर न्यायालय में इस आधार पर प्रश्न उठाया जा सकता है कि राष्ट्रपति ने विचारपूर्वक संसद के एक सदन अथवा दोनों सदनों को कुछ समय के लिए स्थगित कर एक विवादास्पद विषय में अध्यादेश प्रख्यापित किया है और संसद को नजर अंदाज किया है जिससे संसद के प्राधिकार की परिवंचना हुई है।

38वें संविधान संशोधन अधिनियम 1975 में कहा गया कि राष्ट्रपति की संतुष्टि अंतिम व मान्य होगी तथा न्यायिक समीक्षा से परे होगी। परंतु 44वें संविधान संशोधन द्वारा इस उप-बंध का लोप कर दिया गया। अतः राष्ट्रपति की संतुष्टि को असद्भाव के आधार पर न्यायिक चुनौती दी जा सकती है।”

3. सभी मामलों में अध्यादेश जारी करने की उसकी शक्ति, केवल समयावधि को छोड़कर, संसद की कानून बनाने की शक्तियों के समविस्तीर्ण ही है। इसकी दो विवक्षाएं हैं :

(अ) अध्यादेश केवल उन्हीं मुद्दों पर जारी किया जा सकता है जिन पर संसद कानून बना सकती है।

(ब) अध्यादेश को वहीं संवैधानिक सीमाएं होती हैं, जो संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून की होती हैं। अतः एक अध्यादेश किसी भी मौलिक अधिकार का लघुकरण अथवा उसको छीन नहीं सकता।

4. संसद सत्रावसान की अवधि में जारी किया गया प्रत्येक अध्यादेश संसद की पुनः बैठक होने पर दोनों सदनों के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए। यदि संसद के दोनों सदन उस अध्यादेश को पारित कर देती है तो वह कानून का रूप धारण कर लेता है। यदि इस पर संसद कोई कार्रवाई नहीं करती तो संसद की दुबारा बैठक के छह हफ्ते पश्चात यह अध्यादेश समाप्त हो जाता है। यदि संसद के दोनों सदन इसका निरनुमोदन कर दें तो यह निर्धारित छह सप्ताह की अवधि से पहले भी समाप्त हो सकता है। यदि संसद के दोनों सदनों को अलग-अलग तिथि में पुनः बैठक लिए बुलाया जाता है तो ये छह सप्ताह बाद वाली तिथि से गिने जाएंगे। इसका अर्थ है किसी अध्यादेश की अधिकतम अवधि छह महीने, संसद की मंजूरी न मिलने की स्थिति में छह हफ्तों की होती है (संसद के दो सत्रों के मध्य अधिकतम अवधि छह महीने होती है)। यदि कोई अध्यादेश सभापटल पर रखने से पूर्व ही समाप्त हो जाता है तो इस के अंतर्गत किए गए कार्य वैध व प्रभावी रहेंगे।

राष्ट्रपति भी किसी भी समय किसी अध्यादेश को वापस ले सकता है। हालांकि राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति उसकी कार्य स्वतंत्रता का अंग नहीं है और वह किसी भी अध्यादेश को प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल की सलाह पर ही जारी करता है अथवा वापस लेता है।

एक विधेयक की भांति एक अध्यादेश भी पूर्ववर्ती हो सकता है अर्थात इसे पिछली तिथि से प्रभावी किया जा सकता है। यह संसद के किसी भी कार्य या अन्य अध्यादेश को संशोधित अथवा निरसित कर सकता है। यह किसी कर विधि को भी परिवर्तित अथवा संशोधित कर सकता है हालांकि संविधान संशोधन हेतु अध्यादेश जारी नहीं किया जा सकता है।

भारत के राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति अनोखी है तथा अधिकांश लोकतांत्रिक राज्यों, जैसे-अमेरिका व ब्रिटेन में प्रयोग नहीं की जाती है। अध्यादेश जारी करने की शक्ति के पक्ष में, डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में कहा अध्यादेश जारी करने की प्रक्रिया, राष्ट्रपति को उस परिस्थिति से निपटने में योग्य बनाती है जो आकस्मिक व अचानक उत्पन्न होती है जब संसद के सत्र कार्यरत नहीं होते हैं। यहां पर यह स्पष्ट है कि राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति का अनुच्छेद 352 में वर्णित राष्ट्रीय आपातकाल से कोई संबंध नहीं है। राष्ट्रपति युद्ध, बाह्य आक्रमण और सशस्त्र विद्रोह न होने की स्थिति में भी अध्यादेश जारी कर सकता है।

लोकसभा के नियम के अनुसार जब कोई विधेयक किसी अध्यादेश का स्थान लेने के लिए सदन में प्रस्तुत किया जाता है, उस समय अध्यादेश जारी करने के कारण व परिस्थितियों को भी सदन के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए।

अब तक राष्ट्रपति के अध्यादेश पुनः जारी करने के संबंध में कोई भी मामला उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किया गया है।

परंतु डी. सी. वाधवा मामले (1987) 14 में उच्चतम न्यायालय का निर्णय यहां पर काफी संगत है। इसमें न्यायालय द्वारा कहा गया कि सन 1967-1981 के बीच बिहार के राज्यपाल द्वारा 256 अध्यादेश जारी किए गए और इन्हें समय-समय पर पुनः जारी कर एक से चौदह वर्ष तक प्रभावी रखा गया। न्यायालय ने कहा कि अध्यादेशों की भाषा में परिवर्तन किए बिना तथा विधानसभा द्वारा विधेयक पारित करने का प्रयास न करके अध्यादेशों का पुनः प्रकाशन करना संविधान का उल्लंघन है तथा इस प्रकार के पुनः प्रकाशित अध्यादेश रद्द होने चाहिए। यह कहा गया कि अध्यादेश द्वारा विधि बनाने की वैकल्पिक शक्ति को राज्य विधायिका की विधायी शक्ति का विकल्प नहीं बनाना चाहिए।

राष्ट्रपति की क्षमादान करने की शक्ति

संविधान के अनुच्छेद 72 में राष्ट्रपति को उन व्यक्तियों को क्षमा करने की शक्ति प्रदान की गई है, जो निम्नलिखित मामलों में किसी अपराध के लिए दोषी करार दिए गए हैं:

1. संघीय विधि के विरुद्ध किसी अपराध में दिए गए दंड में;

2. सैन्य न्यायालय द्वारा दिए गए दंड में, और;

3. यदि दंड का स्वरूप मृत्युदंड हो।

राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति न्यायपालिका से स्वतंत्र है। वह एक कार्यकारी शक्ति है परंतु राष्ट्रपति इस शक्ति का प्रयोग करने के लिए किसी न्यायालय की तरह पेश नहीं आता। राष्ट्रपति की इस शक्ति के दो रूप हैं- (अ) विधि के प्रयोग में होने वाली न्यायिक गलती को सुधारने के लिए, (ब) यदि राष्ट्रपति दंड का स्वरूप अधिक कड़ा समझता है तो उसका बचाव प्रदान करने के लिए।

राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति में निम्नलिखित बातें सम्मिलित

हैं-

1. क्षमा

इसमें दण्ड और बंदीकरण दोनों को हटा दिया जाता है तथा दोषी की सभी दण्ड, दण्डादेशों और निर्रहताओं से पूर्णतः मुक्त कर दिया जाता है।

2. लघुकरण

इसका अर्थ है कि दंड के स्वरूप को बदलकर कम करना। उदाहरणार्थ मृत्युदंड का लघुकरण कर कठोर कारावास में परिवर्तित करना, जिसे साधारण कारावास में परिवर्तित किया जा सकता है।

3. परिहार

इसका अर्थ है, दंड के प्रकृति में परिवर्तन किए बिना उसकी अवधि कम करना। उदाहरण के लिए दो वर्ष के कठोर कारावास को एक वर्ष के कठोर कारावास में परिहार करना।

4. विराम

इसका अर्थ है किसी दोषी को मूल रूप में दी गई सजा को किन्हीं विशेष परिस्थिति में कम करना, जैसे-शारीरिक अपंगता अथवा महिलाओं को गर्भावस्था की अवधि के कारण।

5. प्रविलंबन

इसका अर्थ है किसी दंड (विशेषकर मृत्यु दंड) पर अस्थायी रोक लगाना। इसका उद्देश्य है कि दोषी व्यक्ति का क्षमा याचना अथवा दंड के स्वरूप परिवर्तन की याचना के लिए समय देना।

संविधान के अनुच्छेद 161 के अंतर्गत राज्य का राज्यपाल भी क्षमादान की शक्तियां रखता है। अतः राज्यपाल भी किसी दंड को क्षमा कर सकता है, अस्थाई रूप से रोक सकता है, सजा को या सजा की अवधि को कम कर सकता है। वह राज्य विधि के विरुद्ध अपराध में दोषी व्यक्ति की सजा को निलंबित कर सकता है दंड का स्वरूप बदल सकता है और दंड की अवधि कम कर सकता है। परंतु निम्नलिखित दो परिस्थितियों में राज्यपाल की क्षमादान शक्तियां, राष्ट्रपति से भिन्न हैं:

1. राष्ट्रपति सैन्य न्यायालय द्वारा दी गई सजा को क्षमा कर सकता है परंतु राज्यपाल नहीं।

2. राष्ट्रपति मृत्युदंड को क्षमा कर सकता है परंतु राज्यपाल नहीं कर सकता। राज्य विधि द्वारा मृत्युदंड की सजा को क्षमा करने की शक्ति राष्ट्रपति में निहित है न कि राज्यपाल में। हालांकि राज्यपाल मृत्युदंड को निलंबित, दंड का स्वरूप परिवर्तित अथवा दंडावधि को कम कर सकता है। दूसरे शब्दों में, मृत्युदंड के निलंबन, दंडावधि कम करने, दंड का स्वरूप बदलने के संबंध में राज्यपाल व राष्ट्रपति की शक्तियां समान हैं।

उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति का विभिन्न मामलों में अध्ययन कर निम्नलिखित सिद्धांत बनाए हैं:

1. दया की याचना करने वाले व्यक्ति को राष्ट्रपति से मौखिक सुनवाई का अधिकार नहीं है।

2. राष्ट्रपति प्रमाणी (साक्ष्य) का पुनः अध्ययन कर सकता है और उसका विचार न्यायालय से भिन्न हो सकता है।

3. राष्ट्रपति इस शक्ति का प्रयोग केंद्रीय मंत्रिमंडल के परामर्श पर करेगा।

4. राष्ट्रपति अपने आदेश के कारण बताने के लिए बाध्य नहीं है।

5. राष्ट्रपति न केवल दंड पर राहत दे सकता बल्कि प्रमाणिक भूल के लिए भी राहत दे सकता है।

6. राष्ट्रपति को अपनी शक्ति का प्रयोग करने के लिए, उच्चतम न्यायालय द्वारा कोई भी दिशा-निर्देश निर्धारित करने की आवश्यकता नहीं है।

7. राष्ट्रपति की इस शक्ति पर कोई भी न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती सिवाए वहां जहां राष्ट्रपति का निर्णय स्वेच्छाचारी, विवेकरहित, दुर्भावना अथवा भेदभावपूर्ण हो।

8. जब क्षमादान की पूर्व याचिका राष्ट्रपति ने रद्द कर दी हो, तो दूसरी याचिका नहीं दायर की जा सकती।

राष्ट्रपति की संवैधानिक स्थिति

संविधान में सरकार का स्वरूप संसदीय है। फलस्वरूप राष्ट्रपति केवल कार्यकारी प्रधान होता है। मुख्य शक्तियां प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल में निहित होती हैं। अन्य शब्दों में, राष्ट्रपति अपनी कार्यकारी शक्तियों का प्रयोग प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल की सहायता व सलाह से करता है।

डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने राष्ट्रपति की वास्तविक स्थिति को निम्न प्रकार से बताया है :

“भारतीय संविधान में, भारतीय संघ के कार्यकलापों का एक प्रमुख होगा, जिसे संघ का राष्ट्रपति कहा जाएगा।” कार्यपालक उपाधि अमेरिका के राष्ट्रपति की याद दिलाती है। नाम में समानता के अतिरिक्त, अमेरिका में प्रचलित सरकार एवं भारतीय संविधान के तहत अपनाई गई सरकार में अन्य कोई समानता नहीं है। सरकार की अमेरिकी व्यवस्था को राष्ट्रपति व्यवस्था कहा जाता है और भारतीय व्यवस्था को संसदीय व्यवस्था कहा जाता है। अमेरिका की राष्ट्रपति व्यवस्था में कार्यकारी व प्रशासनिक शक्तियां राष्ट्रपति में निहित हैं। भारतीय संविधान के अंतर्गत राष्ट्रपति की स्थिति वही है जो ब्रिटिश संविधान के अंतर्गत राजा की स्थिति है। वह राष्ट्र का प्रमुख होता है, पर कार्यकारी नहीं होता। वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, उस पर शासन नहीं करता है। वह राष्ट्र का प्रतीक है। वह प्रशासन में औपचारिक रूप से सम्मिलित है अथवा एक मुहर के रूप में है जिसके नाम पर राष्ट्र के निर्णय लिए जाते हैं। वह मंत्रिमंडल की सलाह पर निर्भर है। वह उसकी सलाह के विरुद्ध अथवा उनकी सलाह के बिना कुछ नहीं कर सकता है। अमेरिका का राष्ट्रपति किसी भी सचिव को किसी भी समय हटा सकता है। भारत के राष्ट्रपति के पास ऐसा करने की शक्ति नहीं है जब तक कि उसके मंत्रियों का संसद में बहुमत हो।

तालिका 17.3 राष्ट्रपति से संबंधित अनुच्छेद, एक नजर में

अनुच्छेदविषय-वस्तु
52भारत के राष्ट्रपति
53संघ की कार्यपालक शक्ति
54राष्ट्रपति का चुनाव
55राष्ट्रपति के चुनाव का तरीका
56राष्ट्रपति का कार्यकाल
57पुनर्चुनाव के लिए अर्हता
58राष्ट्रपति चुने जाने के लिए योग्यता
59राष्ट्रपति कार्यालय की दशाएँ
60राष्ट्रपति द्वारा शपथ ग्रहण
61राष्ट्रपति पर महाभियोग की प्रक्रिया
62राष्ट्रपति पद की रिक्ति की पूर्ति के लिए चुनाव कराने का समय
65उप-राष्ट्रपति का राष्ट्रपति के रूप में कार्य करना
71राष्ट्रपति के चुनाव से संबंधित मामले
72राष्ट्रपति की क्षमादान इत्यादि की शक्ति तथा कतिपय मामलों में दंड का स्थगन, माफी अथवा कम कर देना
74मंत्रिपरिषद का राष्ट्रपति को परामर्श एवं सहयोग प्रदान करना।
75मंत्रियों से संबंधित अन्य प्रावधान, जैसे-नियुक्ति, कार्यकाल, वेतन इत्यादि
76भारत के महान्यायवादी
77भारत सरकार द्वारा कार्यवाही का संचालन
78राष्ट्रपति को सूचना प्रदान करने से संबंधित प्रधानमंत्री के दायित्व इत्यादि
85संसद के सत्र, सत्रावसान तथा भंग करना
111संसद द्वारा पारित विधेयकों पर सहमति प्रदान करना
112संघीय बजट (वार्षिक वित्तीय विवरण)
123राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति
143राष्ट्रपति की सर्वोच्च न्यायालय से सलाह लेने की शक्ति

राष्ट्रपति की संवैधानिक स्थिति को समझने के लिए, विशेष रूप से अनुच्छेद 53, 74 और 75 के प्रावधानों का संदर्भ लिया गयाः

1. संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी और वह इसका प्रयोग इस संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा (अनुच्छेद 53)।

2. राष्ट्रपति को सहायता तथा सलाह के लिए प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक मंत्रीपरिषद होगी वह संविधान के अनुसार अपने कार्य व कर्त्तव्य का उनकी सलाह पर निर्वहन करेगा (अनुच्छेद 74) ।

3. मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होगी (अनुच्छेद 75)। यह उप-बंध संसदीय व्यवस्था की नींव है।

42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 (इंदिरा गांधी सरकार द्वारा लागू) में कहा गया कि राष्ट्रपति पर प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद की सलाह बाध्यकारी है।” 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 (जनता पार्टी सरकार द्वारा लागू) में कहा गया कि राष्ट्रपति को अधिकार है कि वह सामान्यतः अथवा अन्यथा रूप से मंत्रिमंडल को सलाह पर पुनर्विचार के लिए कह सकता है। हालांकि पुनर्विचार के बाद दी गई सलाह मानने के लिए वह बाध्य है। अन्य शब्दों में, राष्ट्रपति एक बार किसी सलाह को पुनर्विचार के लिए मंत्रिमंडल के पास भेज सकता है परंतु पुनर्विचार के बाद दी गई सलाह मानने के लिए वह बाध्य है।

अक्टूबर 1997 में, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रपति के.आर. नारायणन को उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356 के अंतर्गत) लगाने की सिफारिश की। राष्ट्रपति ने मामले को पुनर्विचार के लिए लौटा दिया, तब मंत्रिमंडल ने मामले को आगे न बढ़ाने का निर्णय लिया। इस प्रकार बीजेपी की कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली सरकार बच गई। पुनः सितम्बर 1998 में राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने संबंधी सलाह को पुनर्विचार के लिए लौटा दिया था। कुछ महीने पश्चात् कैबिनेट ने पुनः वही सलाह दी। केवल तभी फरवरी 1999 में बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाया गया।

यद्यपि, राष्ट्रपति के पास कोई संवैधानिक विवेक स्वतंत्रता नहीं है परंतु उसके पास कुछ परिस्थितीय विवेक स्वतंत्रतायें हैं। राष्ट्रपति निम्नलिखित परिस्थितियों में अपनी विवेक स्वतंत्रता का प्रयोग (बिना मंत्रिमंडल की सलाह पर) कर सकता है:

1. लोकसभा में किसी भी दल के पास स्पष्ट बहुमत न होने पर अथवा जब प्रधानमंत्री की अचानक मृत्यु हो जाए तथा उसका कोई स्पष्ट उत्तराधिकारी न हो वह प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है।

2. वह मंत्रिमंडल को विघटित कर सकता है, यदि वह सदन में विश्वास मत सिद्ध न कर सके।

3. वह लोकसभा को विघटित कर सकता है यदि मंत्रिमंडल ने अपना बहुमत खो दिया हो।

यह भी पढ़ें : आपातकालीन उपबंध : 16

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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