दलहनी फसलें (Pulse Crops)

लेयुग्म (Legume) कुल की फसलों को दलहनी फसल की संज्ञा प्रदान की जाती है। ये फसलें तीन मौसमों में उगायी जाती हैं। यथा-

• खरीफ ऋतु में – अरहर, उर्द, मूंग, लोबिया, मोथ, सोयाबीन आदि।

• रबी ऋतु में – चना, मटर, मंसूर, खेसारी आदि।

• जायद ऋतु में – मूंग, उर्द लोबिया, सोयाबीन आदि।

भारत दलहन के क्षेत्रफल, उत्पादन तथा उपभोग में विश्व में प्रथम स्थान रखता है (BPSC) I* अपने उपभोग आवश्यकता की पूर्ति के लिए वह दलहन का आयात करता है। विश्व दलहन का लगभग 36% क्षेत्रफल तथा 25.4% उत्पादन भारत में होता है। चना, मटर, अरहर, मंसूर, लोबिया, मूंग एवं कुल्थी का विश्व के कुल उत्पादन में 40- 80% भाग भारत में पैदा होता है। किन्तु यहाँ आर्थिक समीक्षा 2017-18 के अनुसार वर्ष 2016-17 दलहन की औसत उपज (उपज 7.79 कु./हे.) अन्य देशों के अपेक्षा बहुत कम है।

• विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन (F.A.O.) रोम तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O.-जिनेवा) के मानक के अनुसार निरामिष भोज्य पद्धति में प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन 104 ग्राम दालों का उपभोग आवश्यक माना जाता है। परन्तु आर्थिक समीक्षा 2017-18 के अनुसार – वर्ष 2017(P) में भारत में इसकी उपलब्धता 54.4 ग्राम/व्यक्ति/दिन थी।

➤ अरहर (Arhar)

• वानस्पतिक नाम : कैजेनस कज़ान   

• देशी नाम : अरहर, तुर, तूबर  (Arhar, Pigeon Pea)

भारतवर्ष में उगायी जाने वाली दलहन फसलों में यह सबसे प्रमुख है। यह अफ्रीका का प्राकृत पौधा (native plant) है (UPPCS) ।* इसकी खेती विश्व के लगभग सभी उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों में की जाती है।

अरहर के लिये रेतीली (Sandy) अथवा मृत्तिका दुमट (Clayey loam) मिट्टी सबसे उपयुक्त है। इसके लिये शुष्क व उष्ण जलवायु की आवश्यकता होती है। अरहर अकेले अथवा ज्वार, मक्का व मूंगफली के साथ बोई जाती है। फसल जून-जुलाई में बोई जाती है और इसके तैयार होने में 6-10 माह का समय लगता है। विभिन्न क्षेत्रों में इसकी कटाई फरवरी से मार्च के बीच में की जाती है।

अरहर की दाल में लगभग 21.3% प्रोटीन होता है। इनमें कैजेनिन (Cajanin) व कॉनकैजेनिन (concajanin) प्रमुख हैं।

अरहर को मुख्यतः दाल के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त अरहर की हरी फलियों का उपयोग सब्जी की भाँति भी किया जाता है। इसकी हरी पत्तियाँ पशुओं को खिलाने व हरी खाद (green manure) बनाने के काम में लायी जाती है। इसकी शाखाओं को सुखा कर टोकरियाँ बनायी जाती हैं। अरहर के पौधे वायु रोधक (Wind barrier) के रूप में कार्य करते हैं। अतः मृदा अपरदन (Soil erosion) को रोकने में प्रभावकारी होते हैं।

➤ चना (Grain or Bengal Gram or Chickpea)

वानस्पतिक नाम- सिसर एरिटिनम लीन
• कुल (Family) – लेग्यूमिनेसी (Leguminaceae)

• उपकुल (Sub family) – पेपिलियोनेसी (Papelionaceae)

• चने में गुणसूत्र संख्या- देशी- 2n = 14, काबुली – 2n = 16 व 24

इस देश में उगाई जाने वाली दलहनी फसलों में चना सबसे पुरानी और महत्त्वपूर्ण फसल है। चने का प्रयोग मुख्य रूप से दाल और रोटी के लिये किया जाता है। चने को पीसकर तैयार किये हुए बेसन से विभिन्न प्रकार की स्वादिष्ट मिठाइयाँ तैयार की जाती हैं। पके हुए चने को तथा पकने से पहले भी चने को छोले के रूप में भूनकर खाया जाता है। इसके अलावा दले हुए या समूचे दाने के रूप में उबालकर या सूखाकर, भूनकर या तलकर, नमकीन आदि बनाने के लिये भी चने का प्रयोग किया जाता है। चने की हरी पत्तियों और दानों का प्रयोग सब्जियों के रूप में किया जाता है।

चना जानवरों और विशेष रूप से घोड़ों के लिये दाने के काम आता है। यद्यपि चने का भूसा अधिक पौष्टिक नहीं होता, परन्तु चने की पत्तियों में मेलिक एसिड (Malic acid) व ऑक्जैलिक एसिड (Oxalic acid) आदि की उपस्थिति से भूसा नमकीन होता है।* अतः जानवरों को यह स्वादिष्ट लगता है और कहते हैं कि स्कर्वी (Scurvy) नाम के रक्त रोग में अंकुरित चने को देने से लाभ होता है। चने का पोषक-मान निम्न तालिका में प्रदर्शित किया गया है। मनुष्य के शारीरिक विकास व उचित पोषण के लिये उसमें प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, लोहा; कैल्शियम व अन्य खनिज लवण प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।

इसकी जड़ों में पाई जाने वाली ग्रन्थियाँ, वातावरण से नाइट्रोजन इकट्ठा करके, भूमि की उर्वरता को बढ़ाती हैं।

चने के दाने का पोषण मान (प्रति 100 ग्राम)
अवयव
ग्राम में
अवयव
मिग्रा
• पानी
11.0
• कैल्शियम
149.00
• प्रोटीन
21.1
• लोहा
7.20
• वसा
4.5
• रिबोफ्लेविन
0.14
• कार्बोहाइड्रेट
61.5
• नियासिन
2.30

➤ मसूर (Lentil)

• वानस्पतिक नाम-लैन्स एसकुलैन्टा (Lens esculenta Moench)

• कुल (Family) – लेग्यूमिनेसी (Leguminaceae)

• मसूर में गुणसूत्र संख्या – 2n = 14

मसूर की खेती दाने के लिये की जाती है तथा दाने का प्रयोग प्रमुख रूप से दाल के लिये किया जाता है। दाल के अतिरिक्त मसूर के दाने का प्रयोग अन्य व्यंजन बनाने के लिये भी किया जाता है। मसूर की दाल अन्य दालों की अपेक्षा अधिक पौष्टिक तो होती ही है साथ ही रोगियों के लिये मसूर की दाल अत्यन्त लाभदायक होती है। पेट की बीमारियों तथा अन्य बीमारियों में मरीजों को हल्का भोजन प्रदान करने के उद्देश्य से मसूर की दाल का प्रयोग भी सब्जियों के लिये किया जाता है।

मसूर एक फली वाली फसल है, जिसकी जड़ों में उपस्थित सूक्ष्म जीवाणुओं द्वारा वायु की स्वतन्त्र नाइट्रोजन का संस्थापन यौगिक नाइट्रोजन के रूप में भूमि में होता है। इस प्रकार मसूर की फसल उगाने से भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है। देश के कुछ भागों में मसूर की फसल अधिक प्रचलित है। मसूर की कच्ची फलियाँ सब्जियों के लिये प्रयोग की जाती हैं। दुधारू पशुओं में दूध की मात्रा बढ़ाने के लिए इसका प्रयोग पशुओं को खिलाने के लिये किया जाता है।

➤ सोयाबीन (Soyabean)

सोयाबीन का प्रयोग हमारे देश में, प्रोटीन व तेल की अधिक मात्रा होने के कारण, विभिन्न प्रकार के घरेलू और औद्योगिक कार्य में किया जाता है। पिछले कुछ वर्षों में अनेक देशों में सोयाबीन के परिष्कृत खाद्य पदार्थ बनाने के प्रयास किये गये है, उद्देश्य यही रहा है कि इससे मानव-आहार में योगदान दिया जा सके। इस दिशा में जो प्रयास किये गये वे हैं: (1) दूध का विकल्प और शिशु-आहार, (2) सोयाबीन का आटा और इस आटे पर आधारित परिष्कृत आहार। यथा-

• दूध का विकल्प और शिशु आहार (Milk Substitutes and Infact Foods): सोयाबीन पर आधारित, दूध का विकल्प बनाने की दिशा में अनेक अनुसंधान कार्यकर्ताओं ने प्रयोग किये हैं और विधियों का विकास किया है। एक विधि यह है- सोयाबीन के छिलके निकालकर, सोयाबीन को 30 मिनट तक 14 पौण्ड दाब पर गरम करते हैं। इससे सोयाबीन के विषैले तत्व ट्रिप्सिन, विकास अवरोधक और हीमएग्लूटिनिस नष्ट हो जाते हैं। बाद में इसे महीन पीसकर छान लिया जाता है और उसमें शकर, विटामिन और खनिज लवण मिलाकर पौष्टिक बनाया जाता है। इस द्रव को दूध के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है या फुहार-विधि (Sprary Drier) से सुखाकर चूर्ण बना लिया जाता है। दूध या दुग्ध-चूर्ण का उपयोग शिशुओं को दूध पिलाने, दूध की अतिरिक्त मात्रा देने या दूध छोड़ने वाले शिशुओं और पूर्वशालेय बालकों के दूध के रूप में किया जा सकता है।

• प्रोटीन-आहार और सोयाबीन का आटा : अमेरिका में सोयाबीन के तीन प्रकार के आटे बनाये जाते हैं। यथा सम्पूर्ण वसा सहित, कम वसा युक्त वसा रहित। इनका उपयोग सोयाबीन आधारित परिष्कृत आहार बनाने, बेकरी उत्पादनों को परिपूर्ण बनाने, नाश्ते के भोज्य पदार्थ बनाने और गीले आटे से बनाई जाने वाली वस्तुओं में किया जा सकता है।

• सोयाबीन की खली और भूसा जानवरों एवं मुर्गियों के लिये एक उत्तम भोजन है। खली का उपयोग खेत में खाद की तरह किया जाता है।

• सोयाबीन में यदि प्रोटीन बढ़ती है, तो तेल की मात्रा कम होती है और अगर प्रोटीन घटती है तो तेल की मात्रा बढ़ती है।

• सोयाबीन को गर्म करने पर थाइमिन नामक विटामिन नष्ट हो जाता है। अंकुरण के समय लोहा व विटामिन-सी की मात्रा बढ़ जाती है। इसमें 40-45% तक प्रोटीन, 22% तक वसा तथा 30% तक कार्बोहाइड्रेट होते हैं। इसकी खली में 50% प्रोटीन पाया जाता है, जो उच्च कोटि का पशु आहार होता है। विश्व में सोयाबीन के उत्पादन में संयुक्त राज्य अमेरिका का प्रथम, ब्राजील का दूसरा, अर्जेंटीना का तीसरा, चीन का चौथा एवं भारत का पाँचवा (2018-19) स्थान है। यह एक अल्प प्रकाशपेक्षी पौधा है।

दलहनी फसलों के सूखे दानों में प्राप्त प्रोटीन की % मात्रा
फसलें
प्रोटीन %
1. अरहर
20-21%
2. उर्द
24
3. मूंग
25
4. सोयाबीन
45
5. चना
21
6. मटर
22.5
7. मंसूर
25
8. लोबिया
23.4

➤ मूंग (Green Gram or mung Bean)

• वानस्पतिक नाम – विगना रेडियेटा (Vigna radiata L. Wilezek)

• कुल (Family) – लेग्यूमिनेसी (Leguminaceae)

• गुणसूत्र संख्या – 2n = 22 या 24

मूँग भारत की बहुप्रचलित एवं लोकप्रिय दालों में से एक है। मूंग की नमकीन तथा मिष्ठान, पापड़ और मूँगोड़ी भी बनायी जाती हैं। इसके अतिरिक्त मूँग की हरी फलियाँ सब्जी के रूप में भी खायी जाती हैं। इसकी फसल हरी खाद तथा पशुओं के हरे चारे के लिये भी प्रयोग की जाती है। इसका भूसा अधिक पौष्टिक एवं स्वादिष्ट होता है जिसे पशु चाव से खाते हैं। इसके दानों में 23.5 प्रतिशत प्रोटीन, 60 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट व 1.3 प्रतिशत तक वसा होता है। इसके अंकुरित बीजों में विटामिन्स की प्रचुर मात्रा होती है। अतः तंत्रिका शोथ (neuritis) में यह विशेष लाभप्रद होता है। इसके बीजों का क्वाथ (decoction) मूत्रल (diuretic) होता है।

मूँग नाइट्रोजन को भूमि में बढ़ाने में सहायक है क्योंकि इसकी जड़ों में ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं। इन ग्रन्थियों में एक सूक्ष्म जीवाणु राइजोबियम पाया जाता है। इस जीवाणु में क्षमता होती है कि यह वायुमण्डल की स्वतन्त्र नाइट्रोजन का मृदा में संस्थापन, यौगिक नाइट्रोजन के रूप में करता है जिनका प्रयोग मूँग के बाद बोई गई फसल द्वारा किया जाता है।

➤ उर्द या उड़द (Black gram or urdbean)

• वानस्पति नाम – विग्ना मूँगो (Vigna mungo)
• कुल (Family) – लेग्यूमिनेसी (Leguminaceae)
• गुणसूत्र संख्या 2n = 22 या 24

हमारे देश में उड़द का प्रयोग मूख्य रूप से दाल के लिये किया जाता है। इसकी दाल अत्यन्त पौष्टिक होती है। विशेष तौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोग इसे अधिक पसन्द करते हैं। इसके दाने में 24% प्रोटीन, 60% कार्बोहाइड्रेट व 1.3% वसा होती है।

उड़द की दाल को पीसकर, इसको विभिन्न उत्तर तथा दक्षिणी भारतीय व्यंजनों को बनाने में प्रयुक्त करते हैं। इसकी दाल से पापड़ तथा बड़ियाँ बनती हैं। फास्फोरस अम्ल अन्य दालों की तुलना में 8 गुणा अधिक होने के कारण इसका दैनिक आहर में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। दक्षिणी भारत में इसके आटे को चावल के आटे के साथ मिलाकर डोसा, इडली, आदि बनाये जाते हैं। इसके पौधे पशु-आहार व हरी खाद (green manure) के रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं।

उड़द के दाल की भूसी को पशुओं के लिये प्रयोग करते हैं। उड़द का हरा तथा सूखा पौधा भी पशुओं के लिये स्वादिष्ट तथा पौष्टिक चारा है। फलीदार फसल होने के कारण उर्द को उगाने से भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त उर्द का प्रयोग हरी खाद के लिये भी करते हैं। उर्द से 45 किग्रा० नत्रजन प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाती है।

➤ ग्वार (Cluster bean)

• वानस्पतिक नाम – Cyanopsis tetragonoloba or C. psraledis
• कुल (Family) – लैग्यूमिनेसी (Leguminaceae)
• गुणसूत्र संख्या – 2n = 14

• ग्वार एक लेग्यूमिनस (दलहनी) फसल है। इसकी खेती भारतवर्ष में ज्यादातर शुष्क स्थानों पर की जाती है। इसकी खेती हमारे देश में ही खाद के लिये, चारे के लिये तथा सब्जियाँ बनाने के लिये की जाती है।

ग्वार के आटे को पशुओं के चारे में भी मिलाया जाता है। इसके आटे को गोंद के रूप में कपड़ा उद्योग में भी प्रयोग किया जाता है। ग्वार के गोंद को विदेशों में निर्यात किया जाता है। अतः यह विदेशी मुद्रा कमाने में भी सहायक है। इसीलिये ग्वार को भारत का सोयाबीन कहा जा सकता है। पेपर उद्योग के लिये कच्ची सामग्री इससे मिलती है।

ग्वार में पोषक तत्व के रूप में 18% प्रोटीन, 32% रेशा तथा 37-38% नाइट्रोजन-रहित निष्कर्षण पाया जाता है।

➤ लोबिया (Cowpea)

• वानस्पतिक नाम – वगीना अनज्यूकुलाता (Vigna unguiculata L. Walp)
• कुल (Family) – लैग्यूमिनेसी (Leguminaceae)
• गुणसूत्र संख्या – 2n = 22 या 24

लोबिया की खेती भारत में दाने, हरी सब्जी, हरे चारे और हरी खाद के लिये की जाती है। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में लोबिया के दानों (साबुत) को दाल व पूरी फलियों को सब्जी बनाने के काम में लाते हैं। लोबिया को ज्वार, बाजरा या मक्का के साथ मिलाकर चारे के लिये भी बोते हैं। जिससे यह पौष्टिक हो जाता है। इसको सूखा चारा (hay) तथा साइलेज बनाने में भी

प्रयोग में लाते हैं। इसके दानों में मिथियोनिन नामक अमीनो अम्ल की मात्रा अन्य दलहनों की अपेक्षा अधिक होती है। जिसके कारण प्रोटीन मान अन्य दलहनों से अधिक होता है। कुल प्रोटीन का 1.9% मिथियोनिन होता है। प्रोटीन दानों में 23.4% कार्बोहाइड्रेट 60.3% व वसा 1.8% होता है। हरी फलियों में प्रोटीन 4.3%, कार्बोहाइड्रेट 80%, वसा 0.2% तथा खनिज 0.9% तक होते हैं।

➤ खेसारी (Lathyrus)

• वानस्पतिक नाम लेथाइस सेटाइवस (Lathyrus sativus. L.)

• कुल (Family) – लैग्यूमिनेसी (Leguminaceae)

• गुणसूत्र संख्या -2n = 14

महत्त्व व उपयोग (Importance and Utility) – भारत में खेसारी की फसल का उपयोग चारा; दाना दलहन के रूप में मध्य प्रदेश; उ. प्र., बिहार, पं. बंगाल एवं गुजरात आदि राज्यों में करते हैं। इसका प्रयोग कुछ देशों में हरी खाद के रूप में भी किया जाता है। यह भूमि की प्रतिकूल दशा में भी उगाया जा सकता है। इसीलिये पछेती फसल के रूप में; या जहाँ वर्षा बहुत कम होती है वहाँ इसे उगाते हैं। इसके दाने में हानिकारक पदार्थ न्यूरोटॉक्सिन (Neurotoxin) होता है, इसे लेथ्रोजन (Lethrogen) भी कहते हैं। * खेसारी का अधिक प्रयोग भोजन में करने से; शरीर के निचले भाग में लकवा (Paralysis) मार जाता है।* लकवे का प्रकोप मुख्यतया म. प्र. व बिहार के उन आदिवासी क्षेत्रों में बहुत होता है, जहाँ खेसारी की खेती एवं भोजन में इसका प्रयोग अधिक होता है। इन क्षेत्रों के लोग इस फसल को, फिर भी उगाते हैं, क्योंकि वहाँ की कृषि जलवायु (Agro climatic) परिस्थितियों में, कोई दूसरी फसल नहीं उग पाती है। बीज को पानी में कुछ समय भिगोकर; निकाल देने से न्यूरोटॉक्सिन की काफी मात्रा कम हो जाती है तथा खेसारी ज्यादा हानिकारक नहीं रह पाती।

➤ दालों की रासायनिक संरचना (Chemical Composition of Legumes)

दालों की रासायनिक संरचना का विवरण स्थानों पर दी गई हैं। सामान्यतः इनमें प्रोटीन की मात्रा 18 से 25 प्रतिशत तक होती है। इनमें थायमिन और रिबोफ्लेविन अच्छी मात्रा में और नायसिन साधारण मात्रा में होता है। दालों में कैल्शियम और आयरन सामान्य मात्रा में और फॉस्फोरस अच्छी मात्रा में होता है।* इनमें कार्बोहाइड्रेट की सामान्य मात्रा होती है। लेकिन वह उपलब्ध नहीं होता है।

• प्राटीन (Proteins) : दालों के प्रोटीन में लायसिन और चियोनिन अच्छी मात्रा में पाये जाते है जबकि अनाज के प्रोटीनों में इनकी मात्रा कम होती हैं। दालों में गंधक (Sulphur) के एमीनों एसिड और ट्रिप्टोफैन कम मात्रा में पाये जाते हैं जबकि अनाजों में इनकी मात्रा अच्छे परिणाम में होती है। इसलिए अनाज और दालों के प्रोटीन मिलकर प्रोटीन की मात्रा की प्रभावक पूर्ति कर देते हैं।

➤ दालों के विषाक्त तत्व और उनसे मुक्ति

कई दालों में विषैले तत्व पाये जाते हैं। भोजन के रूप में ग्रहण करने से पहले इन तत्वों को अलग कर देना आवश्यक है। दालों के विषाक्त तत्वों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- (i) ट्रिप्सिन अवरोधक (trypsin Inhibitors), (ii) हीमएग्ल्यूटिनिन्स (Haemagglutinins) और विकास अवरोधक तथा (iii) अन्य तत्व। इनमें से प्रथम और द्वितीय तत्व अर्थात् ट्रिप्सिन और हीमएग्ल्यूटिनिन्स दालों को बंद पात्र में तेज आँच पर सिजाने से समाप्त हो जाते हैं या 15lb दाब पर 30 मिनट तक रखने से भी ये तत्व नष्ट हो जाते हैं। दालों में जो अन्य विषाक्त तत्व हैं वे हैं ग्राइट्रोजेनिक फेक्टर्स (Gitrogenic Factors), सायनोजेटिक ग्लूकोसाइड्स (Cinogetic Glucoside) और सेपोनिन्स (Saponeins)। इन विषाक्त तत्वों को, दालों में आवश्यकता से अधिक पानी में सिजाकर और इस पानी को फेंककर दूर किया जा सकता है। इसके अलावा लेथिरस (Lethyrus) परिवार की दालों में एक विषाक्त तत्व होता है, जिससे लेथिरिज्म (Lathyrism) की बीमारी होती है। इस तत्व को आवश्यकता से अधिक पानी में दाल को सिजाकर और इस पानी को फेंककर नष्ट किया जा सकता है।

यह भी पढ़ें : आर्थिक वनस्पति विज्ञान : अध्याय 4

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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