प्रजनन तंत्र एवं व्याधियाँ

अपनी जाति या वंश की निरंतरता को बनाये रखने के लिए प्रत्येक जीवधारी अपने ही समान जीवों को पैदा करता है, जीवों में होने वाली इस क्रिया को प्रजनन कहते हैं। जीवों के प्रजनन में भाग लेने वाले अंगों को प्रजनन अंग (Reproductive organs) तथा एक जीव के सभी प्रजनन अंगों को सम्मिलित रूप से प्रजनन तंत्र (Reproductive system) कहते हैं।

मानव प्रजनन-तंत्र (Human Reproductive System)

मानव एकलिंगी (unisexual) प्राणी है। इसमें अण्डे का निषेचन फैलोपिएन नली में तथा भ्रुणीय विकास गर्भाशय में होता है।* ये जरायुज (viviparous) होते हैं, अर्थात् सीधे शिशु को जन्म देते हैं।* मनुष्य में जनन अंग मादा में 12 से 13 वर्ष की आयु में तथा नर में 15 से 18 वर्ष की आयु में प्रायः क्रियाशील हो जाते हैं। जनन अंग कुछ हार्मोन स्रावित करते हैं, जो शरीर में परिवर्तन लाते हैं। ऐसे परिवर्तन मानव में प्रायः स्तन तथा जनन अंगों पर बाल उगने, दाढ़ी तथा मूँछ आने से परिलक्षित होता है। मनुष्य में नर तथा मादा प्रजनन अंग पूर्णतया अलग-अलग होते हैं।

➤ नर जनन तंत्र (Male Reproductive System)

मनुष्य का नर जनन तंत्र अधोलिखित अंगों का बना होता है-

1. वृषण एवं वृषणकोष
2. अधिवृषण
3. शुक्रवाहिनिया
4. शुक्राशय
5. मूत्र मार्ग
6. शिश्न
7. प्रोस्टेट तथा काउपर्स ग्रंथियाँ

1. वृषण एवं वृषणकोष (Testis and scrotal sac)- मनुष्य में एक जोड़ी वृषण पाए जाते है, जो दोनों पैरों के मध्य शिश्न के दोनों ओर लटकते रहते हैं। वृषण में शुक्राणुओं का निर्माण होता है। जिस त्वचा की थैली में वृषण लटके रहते हैं, उसे वृषण कोष (scrotal sac or scrotum) कहते हैं। चूँकि शुक्राणुओं का निर्माण शरीर के तापक्रम से कम ताप पर होता है, इसीलिए ये शरीर से बाहर पाए जाते हैं। आंतरिक संरचना की दृष्टि से वृषण एक अंडाकार रचना है, जो पेरिटोनियम नामक झिल्ली से घिरी रहती है। इसमें बहुत सारी शुक्रजनन नालिकाएँ (seminiferous tubules) पायी जाती है। शुक्रजनन नलिकाओं के बीच अंतराली कोशिकाएँ (interstitial cells) पायी जाती हैं, जो टेस्टोस्टोरोन नामक हार्मोन का स्त्रावण करती हैं।

2. अधिवृषण (Epididymis) – वृषण की प्रत्येक शुक्रजनन नलिका से एक-एक पतली नली निकलती है, जिसे वास इफरेन्शिया कहते हैं। सभी वास इफरेन्शिया वृषण से बाहर आकर एक जाल बनाती हैं, जिसे वृषण जालक कहते हैं। इसी वृषण जालक से एक मोटी कुण्डलित नली निकलती है, जिसे अधिवृषण कहते हैं। अधिवृषण का अंतिम सिरा संकरा होकर शुक्रवाहिनी बनाता है। अधिवृषण में शुक्राणुओं का परिपक्वन एवं संग्रह होता है।

3. शुक्रवाहिनिया (Vas deferens) – शुक्रवाहिनियाँ शुक्राणुओं को अधिवृषण से शुक्राशय में लाने का कार्य करती हैं।

4. शुक्राशय (Seminal vesicle) – ये प्रोस्टेट ग्रंथि के ऊपर स्थित होते हैं। इनकी दीवारों से एक चिपचिपा द्रव निकलता है, जो शुक्राणुओं का पोषण करता है। शुक्राशय द्वारा स्रावित द्रव से ही वीर्य का अधिकांश भाग बनता है। दोनों ओर के शुक्राशय आपस में मिलकर एक संयुक्त नली बनाते हैं, जिसे स्खलन वाहिनी (ejaculatory duct) कहते हैं। ये प्रोस्टेट ग्रंथि से होते हुए मूत्र मार्ग में खुलती हैं और शुक्राशय से शुक्राणुओं को मूत्रमार्ग में पहुँचा देती है।

5. मूत्र मार्ग (Urethra) – यह एक पेशीय नालिका है, जो मूत्राशय से मूत्र को बाहर निकालने का कार्य करती है। यह शिश्न के शीर्ष पर खुलती हैं तथा रास्ते में इसमें शुक्राशय से स्खलन नलिका आकार मिलती है। इसीलिए यह मूत्र त्यागने के अलावा मैथुन के समय वीर्य स्खलन का कार्य भी करती है।

6. शिश्न (Penis) – यह नर का बाह्य जनन अंग हैं, जो विशेष प्रकार के स्पांजी ऊतकों का बना होता है। इसका ऊपरी फूला हुआ भाग शिश्न मुण्ड (glans penis) कहलाता है, जो अत्यधिक संवेदनशील होता है और उद्दीप्त होकर संभोग की इच्छा व्यक्त करता है। शिश्न, वीर्य को मादा जननांगों में पहुँचाने का कार्य करता है।

7. प्रोस्टेट, काउपर्स, पेरिनीयल तथा रेक्टल ग्रंथियाँ- मूत्रमार्ग में जहाँ पर स्खलन नलिका खुलती है, वहाँ मूत्रमार्ग के चारों ओर एक ग्रंथि पायी जाती है, जिसे प्रोस्टेट ग्रंथि (prostate gland) कहते हैं। इससे एक द्रव का स्राव होता है, जो वीर्य का 15-30% भाग बनाता है। यह शुक्राणुओं को तैराने का माध्यम देता है। वीर्य की विशिष्ट गंध इसी द्रव के कारण होती है। प्रोस्टेट ग्रंथि के नीचे मूत्रमार्ग के दोनों तरफ मटर के दाने के आकार की एक ग्रंथि पायी जाती है, जिसे काउपर्स ग्रंथि (cowper’s gland) कहते हैं। इससे भी एक क्षारीय द्रव का स्रवण होता है, जो शुक्रद्रव के गाढेपन को कम करता है, तथा मूलमार्ग को जीवाणुविहीन बनाता है।

मलाशय के निकट एक जोड़ी गहरे रंग पेरिनीयल तथा इसी के निकट एक जोड़ी पीले रंग की रेक्टल ग्रंथियाँ पायी जाती हैं, जो विशेष प्रकार की गंध उत्पन्न करती हैं।

वीर्य (Semen) – शुक्राणुओं, शुक्राशय द्रव, प्रोस्टेट एवं काउपर्स ग्रंथियों के स्त्राव को सम्मिलित रूप से वीर्य कहते हैं। यह संभोग के अन्त में पुरुष के शिश्न से निकलता है तथा योनि में चला जाता है। मनुष्य के एक स्खलन में लगभग 2.5 से 3.5 मिली वीर्य निकलता है। इसमें लगभग बीस करोड़ से चालीस करोड़ शुक्राणु होते हैं। वैसे निषेचन के लिए एक शुक्राणु ही पर्याप्त होता है। वीर्य में अन्य पदार्थों के अलावा कैल्शियम साइट्रेट, प्रोटीन तथा कार्बोहाइट्रेट भी पाए जाते हैं। नर जनन अंगों के कार्य हैं- (i) शिश्न का उत्तेजित होना, (ii) मैथुन, (iii) स्खलन।

➤ मादा-जनन तंत्र (Female Reproductive System)

मनुष्य का मादा जनन तंत्र भी कई अंगों का बना होता है। मादा जनन तंत्र, नर जनन तंत्र की अपेक्षा थोड़ा जटिल होता है। मादा जनन तंत्र में अण्डाशय को मुख्य जनन अंग तथा शेष अंगों को सहायक या द्वितीयक जनन अंग कहते हैं।*

मादा जनन तंत्र में निम्नलिखित जनन अंग होते हैं- 1. एक जोडी अण्डाशय, 2. एक जोडी अण्डवाहिनियाँ, 3. एक गर्भाशय, 4. योनि तथा योनि अंग।

1. अण्डाशय (Ovary) – इनकी संख्या दो होती है तथा ये गर्भाशय के दोनों तरफ एक एक की संख्या में स्थित होते हैं। प्रत्येक अंडाशय उदर गुहा की पृष्ठ दीवार से मीसोवेरियम एवं गर्भाशय से बॉड लिंगामेंट नामक पेशी द्वारा जुड़ा रहता है। इनका मुख्य कार्य अण्डाणु (ovum) पैदा करना है। अण्डाशय से दो हार्मोन एस्ट्रोजन (estrogen) तथा प्रोजेस्टेरॉन (progesterone) का स्राव होता है, जो ऋतुस्त्रावे को नियंत्रित करते हैं।

2. अण्डवाहिनियाँ (Fallopian tube) – प्रत्येक अंडाशय से एक-एक नलिका शुरू होती है, जिसका दूसरा सिरा गर्भाशय से जुड़ा होता है, इसे ही अण्डवाहिनी (oviduct or fallopian tube) कहते हैं। यह अण्डाणु को गर्भाशय में पहुँचाती है। जब अण्डाणु अण्डाशय से देहगुहा में आता है, तो यह पूर्ण परिपक्व नहीं होता। इसका शेष परिपक्व अण्डवाहिनी में ही होता है, निषेचन की क्रिया भी अण्डवाहिनी में ही होती है। मादा जनन पथ में पहुँचने के पश्चात् नर शुक्राणु अपनी निषेचन क्षमता दो दिनों तक सुरक्षित रख सकते हैं।

3. गर्भाशय (Uterus) – गर्भाशय नाशपाती के आकार की रचना है, जो उदर गुहा के निचले श्रोणि भाग में स्थित होता है। इसके पीछे की ओर मलाशय एवं आगे की ओर मूत्राशय स्थित होता है। गर्भाशय के निचले संकरे भाग को ग्रीवा (cervix) कहते हैं। यह योनि में खुलता है। गर्भाशय का मुख्य कार्य निषेचित अण्डाणु को भ्रूण में परिवर्तित होने तथा इसके विकास के लिए स्थान प्रदान करना है। यहीं आगे चलकर बच्चे का विकास होता है।

4. योनि तथा योनि अंग (Vagina and vagina organs)- योनि तथा योनि अंगों को सम्मिलित रूप से भग (vulva) कहते हैं। योनि एक संकरी नली होती है, जिसकी दीवार पेशीय ऊतकों की बनी होती है। इसका एक सिरा मादा जनन छिद्र के रूप में बाहर खुलता है तथा दूसरा सिरा पीछे की ओर गर्भाशय की ग्रीवा से जुड़ा रहता है। योनि के शरीर के बाहर खुलने वाले छिद्र को योनि द्वार (vaginal orifice) कहते हैं। योनि की दीवार में बार्थोलिन की ग्रंथियाँ (Bartholin’s glands) पायी जाती है, जिनसे एक चिपचिपा द्रव निकलता है। यह द्रव संभोग के समय योनि को चिकना बनाता है। योनि तथा मूत्रवाहिनी के द्वार के ऊपर एक छोटा-सा मटर के दाने के जैसा उभार होता है, जिसे भग शिश्निका (clitoris) कहते हैं। यह अत्यन्त ही उत्तेजक अंग है, जिसे स्पर्श करने या शिश्न के सम्पर्क में लाने पर स्त्री को अत्यधिक आनंद की अनुभूति होती है। मैथुन के समय स्खलन में शिश्न से वीर्य निकलकर योनि में गिरता है, तथा योनि इसे अण्डवाहिनी में पहुँचा देती है।

मासिक चक्र (Menstruation cycle)

स्त्री का प्रजनन काल 12-13 वर्ष की उम्र में प्रारम्भ होता है, जो 40-45 वर्ष की उम्र तक चलता है। इस प्रजनन काल में गर्भावस्था को छोड़कर प्रति 26 से 28 दिनों की अवधि पर गर्भाशय से रक्त तथा इसकी आंतरिक दीवार से श्लेष्म का स्त्राव होता है। यह स्राव तीन-चार दिनों तक चलता है। इसे ही रजोधर्म या मासिक धर्म या ऋतु स्त्राव (Menstruation cycle) कहते हैं। स्त्रियों में 40-50 वर्ष के पश्चात ऋतु स्राव नहीं होता, इसे रजोनिवृत्ति (Menopause) कहते हैं। ऋतु स्राव के प्रारंभ होने के 14 दिन बाद अंडोत्सर्ग होता है। स्त्रियों में एक महीने में केवल एक बार अण्डोत्सर्ग (Ovulation) होता है। यह अण्डोत्सर्ग दोनों अण्डाशयों में बारी-बारी से होता है। अण्डोत्सर्ग के कुछ देर पश्चात ही अण्डाणु, अंडवाहिनी में पहुँच जाता है और 15 से 19वें दिन तक इसमें रहता है। इस बीच यदि स्त्री संभोग करे, तो यह अण्डाणु निषेचित होकर गर्भाशय में चला जाता है अन्यथा अगले ऋतु स्राव में वह बाहर निकल जाता है।

गर्भधारण के लिए उपयुक्त परिस्थियाँ- संभोग द्वारा हमेशा गर्भाधारण नहीं होता। इसके लिए कुछ निम्नलिखित परिस्थितियों का होना आवश्यक है-

• गर्भधारण के लिए आवश्यक है, ऋतु स्राव के 14वें दिन के आस-पास या 11 वें से 18वें दिन के अन्दर संभोग अनिवार्य रूप से हो।

• अण्डवाहिनी एवं गर्भाशय सूजन एवं संक्रमण से मुक्त हो।
• वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या सामान्य हो।

गर्भकाल
जीव
गर्भावधि (दिन)
मनुष्य
280
सुअर*
114
खरगोश
28-30
चूहा
21
भेड़*
151
बकरी
150
गाय
280
भैस*
310
हाथी*
624
कुत्ता
63
बिल्ली
63
ऊँठ
400
घोड़ा
330

मानव प्रजनन की क्रियाविधि (Machanism of Human Reproduction)

मानव के प्रजनन में निम्नलिखित तीन अवस्थाएँ होती हैं-

1. युग्मक जनन 2. निषेचन 3. भ्रूणीय विकास

1. युग्मक जनन (Gametogenesis) – वृषण एवं अण्डाशयों में युग्मकों के निर्माण की क्रिया को युग्मक जनन कहते हैं। युग्मकों का निर्माण वृषण एवं अण्डाशय की जनन कोशिकाओं में अर्द्धसूत्री विभाजन के द्वारा होता है। वृषण में शुक्राणुओं का निर्माण शुक्राणुजनन (spermatogenesis) एवं अण्डाणु का अण्डाशय में निर्माण अण्डाणुजनन (Oogenesis) कहलाता है।

2. निषेचन (Fertilisation) – नर युग्मक (शुक्राणु) तथा मादा युग्मक (अण्डाणु) के आपस में सम्मिलन से युग्मनज (zygote) बनने की क्रिया को निषेचन (Fertilisation) कहते हैं। मनुष्य में अन्तः निषेचन पाया जाता है, अर्थात अण्डाणु एवं शुक्राणु मादा के शरीर के अन्दर मिलते हैं। मनुष्य में निषेचन की क्रिया मादा की अंडवाहिनी (oviduct) में होती है। इस क्रिया में नर युग्मक का केवल केन्द्रक भाग लेता है, जबकि सम्पूर्ण मादा युग्मक इसमें भाग लेता है।

3. भ्रूणीय विकास (Embryonic development) – निषेचन के पश्चात् बना युग्मनज तेजी से समसूत्री विभाजनों द्वारा विभाजित होने लगता है और अन्ततः गर्भाशय में एक पूर्ण विकसित शिशु को स्थापित करता है।

• निषेचन के लगभग 10 सप्ताह तक के विकसित युग्मनज को भ्रूण (embryo) तथा युग्मनज में होने वाले विभिन्न क्रमिक परिवर्तनों को भ्रूणीय विकास कहते हैं।

• भ्रूण में पाँचवें सप्ताह तक तीन जननिक स्तरों का निर्माण हो जाता है। तीन जननिक स्तर है- (i) एण्डोडर्म (ii) मीसोडर्म (iii) एक्टोडर्म। इसके बाद इन स्तरों से विभिन्न अंगों का निर्माण होता है।

• भ्रूण में सातवें से नवें सप्ताह के मध्य तक हाथ, पैर, श्वसन, तंत्रिका एवं पाचन तंत्र बन जाते हैं।

• तीसरे माह भ्रूण में कंकाल तंत्र बन जाता है।

• चौथे माह में सिर व शरीर पर रोयें, पाँचें माह में आहारनाल, रुधिर व अस्थिमज्जा बन जाते हैं।

• छठे माह में भ्रूण छोटे से शिशु का रूप धारण कर लेता है।

• सातवें माह तक उसके सभी अंग भली-भांति कार्य करने लगते हैं।

• आठवें माह उसमें वसा का जमाव होने लगता है।

• नवें माह वह जन्म के लिए तैयार हो जाता है। भ्रूण का पोषण जरायु (chorin), एम्नियॉन एवं अपरा (placenta) द्वारा होता है। मनुष्य का गर्भाधान काल 280 दिन होता है। इसके पश्चात् प्रसव द्वारा शिशु मादा के शरीर से बाहर आ जाता है।

लिंगी हॉर्मोन (Sex Hormones)

(A) FSH व LH (Follicle Stimulating hormones & Luteinzing hormone)- इनका स्त्रावण अग्र पीयूष ग्रन्थि द्वारा होता है। नर में FSH हॉर्मोन सेमीनोफेरस नलिकाओं को उद्दीपित करके शुक्रजनन को प्रभावित करता है। FSH की अनुपस्थिति में शुक्रजनन सम्भव नहीं है। नर में LH को ICSH (interstitial stimulating hormone) कहते हैं। यह अन्तराली कोशिका या लेडिंग कोशिका (leyding cell) को उद्दीपित करके टेस्टोस्टीरोन का स्रावण करता है। टेस्टोस्टीरोन हार्मोन पुनर्भरण क्रिया (feedback mechanism) द्वारा FSH व LH का संदमन (inhibition) करता है। सरटोली कोशिका द्वारा इनहिबिन (inhibin) का स्स्रावण होता है जो FSH का संदमन करता है।

• मादा में FSH, हार्मोन पुटक वृद्धि (follicular growth) को उद्दीपित करता है जिससे प्राथमिक पुट्टक (Primary follicle) द्वितीयक पुट्टक (Secondary follicle) व अन्त में परिपक्व ग्रेफियन पुट्टक में बदल जाता है। LH हार्मोन की उपस्थिति में अण्डोत्सर्ग (Ovulation) होता है।

(B) टेस्टोस्टीरोन (Testosterone)

• यह नर लिंगी हॉर्मोन है। इसका स्रावण तरुणावस्था (Puberty) में आरम्भ होता हैं।

• इसका स्त्रावण वृषण में अन्तराली कोशिकाओं या लेडिंग कोशिकाओं द्वारा होता है।

• यह स्टिराइड प्रकृति का एन्ड्रोजन हैं।*

• इस हॉर्मोन द्वारा नर में गौण लैंगिक लक्षणों (Secondary sexual character) का निर्माण होता है।

• इस हॉर्मोन के कारण नर में मैथुनी इच्छा जागृत होती है।

(C) एस्ट्रोजन (estrogen)

• यह मादा लिंगी हॉर्मोन है। इसका स्रावण तरुणावस्था (Puberty) में आरम्भ होता है। किन्तु रजोनिवृत्ति के पश्चात् इस हार्मोन का उत्पादन बंद हो जाता है*।

• इस हॉमोन का स्रावण ग्रेफियन पुट्टक के थीका इन्टरना (theca interna) द्वारा किया जाता है।

• इस हॉर्मोन द्वारा मादा में गौण लैंगिक लक्षणों (Secondary sexual characters) का विकास होता है।* (IAS व UPPCS)

• इस हॉर्मोन द्वारा मादा के विभिन्न जननांगों का विकास होता है।

• मादा में सामान्य मद चक्र व रज चक्र (menstruation cycle) के नियमन हेतु यह हॉर्मोन आवश्यक हैं। एस्ट्रोजन हॉर्मोन द्वारा स्तन ग्रन्थियों में डक्टयूलर वृद्धि (ductualr growth) होती है।

(D) प्रोजेस्टीरोन (Progesterone)

• इस हार्मोन का स्रावण कॉपर्स ल्यूटीयम (Corpus luteum) द्वारा किया जाता है। इसे गर्भ हॉर्मोन (pregnancy hormone) कहते हैं।*

• सामान्य गर्भावस्था (Pregancy) के लिए यह हॉर्मोन आवश्यक है। इस हॉर्मोन की उपस्थिति में गर्भाशय पेशियां संकुचन नहीं करती है व यह शान्त बना रहता है।

• प्रोजेस्टीरोन के कारण गर्भाशय में रक्त सम्भरण (Blood supply) में वृद्धि होती है व यह आरोपण (implantation) के लिए भी आवश्यक है।

• प्रोजेस्टीरोन की उपस्थिति में रज चक्र (menstruation cycle) व अण्डोत्सर्ग (ovulation) का दमन हो जाता है।

• यह प्रिगनेनाडायोल व प्रिगनेनाट्रायोल के रूप में मूत्र से होकर उत्सर्जित होता है। यह गर्भवती महिलाओं के मूत्र में पाया जाता है।

(E) रिलेक्सिन (Relaxin)

• इस हॉर्मोन का स्रावण प्लेसेन्टा (Placenta) द्वारा प्रसव के दौरान किया जाता है।

• यह प्यूबिक सिम्फाइसिस में शिथिलन उत्पन्न करके शिशु के जन्म में सहायक है।*

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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