श्वसन-तंत्र एवं व्याधियाँ

सजीव कोशिकाओं में होने वाली जैव रासायनिक क्रियाओं को उपापचय (Metabolism) कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है। प्रथम सृजनात्मक क्रियाएँ अर्थात् उपचय (Anabolism) और द्वितीय विखण्डनात्मक क्रियाएँ अर्थात् अपचय (Catabolism)। श्वसन एक अपचयी क्रिया (Catabolic process) है* जिससे शरीर के भार में कमी होती है। इसमें पचे हुए पोषक पदार्थों (मुख्यतः कार्बोहाइड्रेट्स एवं वसाओं) का क्रमिक ऑक्सीकर विघटन (oxidative degradation) होता है। विघटन के लिये कोशायें मुख्यतः ग्लूकोज का उपयोग करती हैं। ग्लूकोज को इसीलिये “कोशीय ईंधन (cellular fuel)” कहते हैं।*

इस प्रकार श्वसन वह क्रिया है जिसमें जटिल पदार्थों का ऑक्सीकरण तथा विखण्डन होता है जिसके फलस्वरूप सरल पदार्थों का निर्माण होता है तथा ऊर्जा निकलती है। श्वसन मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है।

(1) अनॉक्सी श्वसन (Anaerobic respiration)

(2) ऑक्सी श्वसन (Aerobic respiration)

(1) अनॉक्सी श्वसन (Anaerobic Respiration)– ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होने वाले श्वसन को अनॉक्सी श्वसन कहते हैं। अनॉक्सी श्वसन द्वारा ग्लूकोज का अपूर्ण ऑक्सीकरण (incomplete oxidation) होता है तथा इसके फलस्वरूप ग्लूकोज के एक अणु से CO2 तथा एथिल अल्कोहल के दो-दो अणु बनते हैं।*

C6H12O6 → 2C2H5OH + 2 CO2 + 56 K Cal ऊर्जा

अनॉक्सी श्वसन बीजों की विश्रामावस्था में, फलों की भिन्ति कोशिकाओं में, अनेकों सूक्ष्म जीवों में तथा जन्तुओं की पेशियों आदि में पाया जाता है।

किण्वन (Fermentation) एक प्रकार का अनॉक्सी श्वसन है, जो जीवाणुओं अथवा यीस्ट कोशिकाओं की उपस्थिति में होता है। बहुत से वैज्ञानिक किण्वन तथा अनॉक्सी श्वसन दोनों को एक ही प्रकार की क्रिया मानते हैं।

मनुष्यों की पेशियों में पाइरुविक अम्ल का परिवर्तन लैक्टिक अम्ल में हो जाता है। यह परिवर्तन भी ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है।

(2) ऑक्सी श्वसन (Aerobic Respiration) – ऑक्सीजन की उपस्थिति में होने वाले श्वसन को ऑक्सी श्वसन कहते हैं। इस श्वसन में भोज्य पदार्थों का पूर्ण ऑक्सीकरण (Complete Oxidation) होता है और इसके फलस्वरूप Co₂ तथा H₂O बनता है साथ ही साथ काफी ऊर्जा भी निकलती है।

C6H12O6+6O2 → 6 CO2 + 6 H2O + 686 कि० के०

ऑक्सीजन के अन्तर्ग्रहण करने का काम श्वसन-तंत्र करता है। श्वसन तंत्र के द्वारा शरीर की प्रत्येक कोशिका ऑक्सीजन की संपूर्ति प्राप्त -करती है, साथ ही साथ ऑक्सीकरण उत्पादनों से मुक्त हो जाती है। इस – पूरी प्रक्रिया को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है-

श्वसन की प्रक्रिया के दो प्रमुख चरण होते हैं-

बाह्य श्वसन (External respiration)

इसमें वे सब प्रक्रियायें आती हैं जिनके द्वारा वातावरण से आक्सीजन (O2) ग्रहण करके इसे कोशाओं तक पहुँचाया जाता है तथा कोशाओं से कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) को एकत्रित करके वातावरण में छोड़ा जाता है। बाह्य श्वसन में निम्नलिखित प्रक्रियाएँ होती हैं-

(A) श्वासोच्छ्वास (Breathing)
(B) फेफड़ों में गैसीय विनिमय
(C) रुधिर में गैसीय संवहन तथा
(D) ऊतकों में गैसीय विनिमय

(A) श्वासोच्छ्वास (Breathing) – बाहरी हवा को फेफड़ों में एक निश्चित दर (12 से 15 बार प्रतिमिनट) से बार-बार भरना और निकालना ही श्वासोच्छ्वास है। यह एक यांत्रिक एवं अनैच्छिक क्रिया है। हवा को फेफड़ों में भरना अन्तःश्वास (Inspiration) तथा निकलना उच्छ्वास (Expiration) कहलाता है।

अन्तः श्वसन में फेफड़ों में वायु का दबाव वायुमण्डल से 1 से 3 m.m. Hg कम हो जाता है जिसके कारण वायु श्वसन मार्ग से आकर फेफड़ों में भर जाती हैं।

उच्छ्वास में फेफड़ों की वायु का दबाव 1 से 2 m.m. Hg तक अधिक हो जाता है जिसके कारण फेफड़ों की वायु श्वसन मार्ग से बाहर निकल जाती है।

श्वासोच्छवास में वायु का संगठन
नाइट्रोजन
ऑक्सीजन
कार्बन डाइ-ऑक्साइड
पानी की वाष्प
अन्दर ली गई वायु
79%
21%
0.03%
परिवर्तनीय
बाहर निकाली गई वायु
79%
17%
4%
संतृप्त
सांस द्वारा लगभग 400 ml पानी प्रतिदिन हमारे शरीर से बाहर निकलता है।

• श्वास द्वारा प्रतिमिनट लगभग 250 मिली० ऑक्सीजन ग्रहण किया जाता है तथा 220 मिली० कार्बनडाइऑक्साइड बाहर निकलते हैं

• श्वास का मापन स्पाइरोमीटर (Spirometer) द्वारा किया जाता है।*

(B) फेफड़ों में गैसीय विनिमय (Gaseous exchange in lungs) – अन्तः श्वास में ग्रहण की गयी बाहरी हवा फेफड़ों के वायु कोष्ठकों (alveoli) में भर जाती है। मनुष्य के दोनों फेफड़ों में लगभग 30 करोड़ कोष्ठक होते हैं। कोष्ठकों की दीवार बहुत महीन होती है। इसमें रुधिर केशिकाओं का घना जाल होता है। इसका भीतरी स्तर एक अत्यधिक महीन शल्की एपिथीलियम होती है जो CO2 और O2 के लिए बहुत पारगम्य होती है। यह एपिथीलियम रुधिर केशिकाओं की दीवार से सटी रहती है और दोनों मिलकर एक श्वसन कला (respiratory membrane) बनाती हैं। रक्त और कोष्ठकों की हवा के बीच CO2 एवं O2का घुली अवस्था में इसी कला के आर-पार, साधारण विसरण (diffusion) द्वारा लेन-देन होता है।

फेफड़े में आक्सीजन तथा कार्बन-डाइआक्साइड गैसों का विनिमय उनके दाब के अन्तर के कारण होता है। कूपिक वायु (Alveolar air) में आक्सीजन का दाब 100mm Hg होता है जबकि शिरा केशिका के रुधिर में आक्सीजन का दाब 37mm Hg होता है। इनके दबाव में अन्तर के कारण आक्सीजन शिरा केशिका (Venous capillary) की ओर विसरित (Diffuse) होता है।

• इसी तरह कार्बन डाइआक्साइड का दाब कूपिका में 40mm Hg होता है, जबकि शिरा केशिका में 46mm Hg होता है फलतः कार्बन-डाइआक्साइड शिरा केशिका से कूपिका (Alveoli) की ओर विसरित (Diffused) होती है। अतः आक्सीजन तथा कार्बन- डाइआक्साइड की विसरण की दिशा एक दूसरे के विपरीत होती है।

एक स्वस्थ मनुष्य में वायु के लिए फेफड़ों की कुल क्षमता लगभग 5800 मिली० होती है।*

वायु की वह मात्रा जो फेफड़ों के सामान्य उच्छ्वास के पश्चात बची रह जाती, फेफड़ें का कार्यात्मक अवशेष सामर्थ्य कहलाती हैं; यह मात्रा लगभग 2300 मिली० होती है।

वायु की वह मात्रा जो प्रत्येक सामान्य एवं शान्त श्वास में फेफड़ों में भरती और निकलती है, प्रवाही वायु (Tidal air volume) कहलाती है। एक सामान्य युवा पुरुष में यह 500 मिली० होती है।*

• दैनिक श्वास क्रियायें मस्तिष्क की मेडुला आब्लांगेटा द्वारा नियंत्रित होती है।*

(C) रुधिर तथा ऊतक में गैसीय संवहन एवं विनिमय (Gaseous transportation & Exchange in blood & tissue)- फेफड़ों से 0, को शरीर की समस्त कोशाओं तक तथा कोशाओं से CO2 को फेफड़ों तक पहुँचाना रुधिर का एक महत्वपूर्ण कार्य होता है।

(क) ऑक्सीजन का संवहन-रक्त के प्लाज्मा में O2 का वहन करने की क्षमता बहुत कम होती है, क्योंकि जल में O2 की घुलनशीलता कम होती है। इसीलिए रक्त में O2 संवहन के लिए एक विशेष रंगा पदार्थ – हीमोग्लोबिन होता है, यह एक लौहयुक्त संयुक्त प्रोटीन होता है। इसके अणु में चार उपइकाइयाँ (subunits) होती हैं। प्रत्येक उपइकाई में एक लम्बी व कुण्डलित पॉलीपेप्टाइड श्रृंखला एक लौहयुक्त पोरफाइरिन वलय से जुड़ी होती है। इसीलिए हीमोग्लोबिन को O2 वाहक या श्वसन-रंगा (respiratory pigment) कहते हैं।*

• मौलस्का, आर्थोपोडा तथा कुछ अन्य अकशेरुकियों में, हीमोग्लोबिन के स्थान पर, एक अन्य नीली-सी ताँबायुक्त श्वसन- रंगा- हीमोसाएनिन पायी जाती है।*

• हीमोग्लोबिन जो कि बैंजनी रंग का होता है, ऑक्सीजनीकरण के पश्चात चमकीले लाल रंग के ऑक्सीहीमोग्लोबिन में परिणित हो जाता है।*

Hb+4O2 → Hb (O2)4

सामान्य व्यक्ति में हीमोग्लोबिन की मात्रा औसतन 15 ग्राम प्रति 100 मिली रुधिर होती है।* एक ग्राम हीमोग्लोबिन लगभग 1.34 मिली O2 को बाँधता है। इस प्रकार 100 मिली शुद्ध रुधिर की हीमोग्लोबिन अर्थात् ऑक्सीहीमोग्लोबिन में लगभग 20 मिली (15 × 1.34) O2 बँधी होती है।

ऑक्सीहीमोग्लोबिन बहुत ही अस्थिर यौगिक होता है। जब ऑक्सीजनयुक्त शुद्ध रुधिर फेफड़ों से हृदय में होता हुआ ऊतकों में पहुँचता है तो यहाँ, ऊतक द्रव्य में, O2 का दबाव बहुत कम होने के कारण दुर्बल ऑक्सीहीमोग्लोबिन स्वतः अपनी O2 मुक्त कर-करके वापस हीमोग्लोबिन में बदलता जाता है। O2 मुक्त होकर ऊतक द्रव्य में चली जाती है। इससे रक्त में O2 की मात्रा शनैः शनैः घटकर लगभग 15 मिली प्रति 100 मिली रक्त रह जाती है, अर्थात् लगभग 25% O2 की सप्लाई ऊतकों को हो जाती है। CO2 का दबाव ऊतक द्रव्य में अधिक रहने के कारण यह O_{2} के बदले रुधिर में जाती रहती है। शरीर कोशाएँ, लगभग 200-220 मिली CO2 प्रति मिनट ऊतक द्रव्य में मुक्त करती है जिसे रक्त फेफड़ों में ले जाता है।

(ख) रुधिर में कार्बन डाइऑक्साइड का संवहन-कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन कोशिकाओं से फेफड़े तक हीमोग्लोबिन के द्वारा केवल 10 से 20 प्रतिशत तक ही हो पाता है। कार्बन डाइआक्साइड का परिवहन रक्त परिसंचरण के द्वारा अन्य प्रकारों से भी होता है, जो निम्नलिखित हैं-

(i) प्लाज्मा में घुलकर (Dissolved in plasma) — कार्बन डाइऑक्साइड रुधिर के प्लाज्मा में घुलकर कार्बोनिक अम्ल बनाती है। कार्बोनिक अम्ल के रूप में कार्बनडाइक्साइड का लगभग 7% परिवहन होता है।

(ii) बाइकार्बोनट के रूप में (As bicarbonates)- बाइकार्बनिट के रूप में कार्बन डाईआक्साइड की अधिकांश मात्रा (लगभग 70%) का परिवहन होता है। यह रुधिर के पोटैशियम तथा प्लाज्मा के सोडियम से मिलकर क्रमशः पोटैशियम बाइकार्बोनेट एवं सोडियम बाईकार्बोनेट बनाती है।

(iii) कार्बोमिनो यौगिकों के रूप में (As carbomino compounds)- कार्बन डाइऑक्साइड, हीमोग्लोबिन के अमीनो (NH2) समूह से संयोजन के फलस्वरूप कार्बोऑक्सी हीमोग्लोबिन के रूप में तथा प्लाज्मा-प्रोटीन से संयोग कर कार्बोमिनो-हीमोग्लोबिन (carbamino- haemoglobin) बनाती है। इस प्रकार यह लगभग 23% कार्बन डाई- ऑक्साइड ले जाती है।

अन्तः श्वसन अथवा कोशिकीय श्वसन (Internal or Cellular Respiration)

कोशिकीय श्वसन में ऊर्जा उत्पादन के लिए कोशिकाओं में ऑक्सीजन की सहायता से ग्लूकोज आदि के ऑक्सीकर जारण से सम्बन्धित जैव- रासायनिक प्रक्रियाएँ आती हैं। जारण की इस प्रक्रिया को कोशीय श्वसन या अन्तः श्वसन कहते हैं। यह एक जटिल जैव रासायनिक प्रतिक्रियाओं की एक श्रृंखला होती है जिसके दो प्रमुख चरण हैं-

(A) ग्लाइकोलाइसिस

(B) क्रेब्स या सिट्रिक चक्र

(A) ग्लाइकोलाइसिस (Glycolysis) – कोशिकीय श्वसन की पहली अवस्था जिसमें ग्लूकोज से पाइरूविक अम्ल का निर्माण होता है, ग्लाइकोलाइसिस कहलाती है।*

अन्तः श्वसन की ग्लाइकोलाइसिस अवस्था, ऑक्सी तथा अनॉक्सी (Aerobic & Anerobic respiration) दोनों की उभयनिष्ठ अवस्था है। अर्थात ऑक्सी तथा अनॉक्सी श्वसन दोनों में ही ग्लूकोज से पाइरूविक अम्ल का निर्माण होता है और इसके लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता नहीं होती है। दोनों प्रकार के श्वसन की दूसरी अवस्था अलग-अलग होती है।

• ग्लाइकोलाइसिस की सम्पूर्ण क्रिया साइटोप्लाज्म में सम्पन्न होती है।* इस क्रिया में बहुत से एन्जाइम तथा कोइन्जाइम भाग लेते हैं जो सभी जीवद्रव्य में पाये जाते हैं।

• ग्लाइकोलाइसिस में ग्लूकोज के एक अणु से पाइरूविक अम्ल के दो अणु बनते हैं।*

• ग्लाइकोलाइसिस में ATP के चार अणु बनते हैं किन्तु ATP के दो अणु फास्फोरिलिकरण की अभिक्रियाओं में खर्च हो जाते हैं। इसलिए ग्लाइकोलाइसिस की पूर्ण अभिक्रिया में 4-2 = 2 ATP अणुओं का शुद्ध लाभ होता है।*

• ग्लाइकोलाइसिस में NAD के दो अणु अपचयित होकर NADH2 को दो अणु बनाते हैं। जो बाद में ऑक्सी ढ़ग से ऑक्सीकृत होकर ATP के अणुओं का निर्माण करते हैं। ज्ञातव्य है कि एक NAD अणु के ऑक्सीकरण से 3 ATP के अणु बनते हैं। अतः ऑक्सीजन की उपस्थित में ग्लाइकोलाइसिस में ATP के अणु दो बढ़कर कुल आठ (8) हो जाते हैं।

• इस प्रकार ग्लूकोज में संचित ऊर्जा कुछ ATP के अणुओं में तथा कुछ NADH2 अणुओं में संचित हो जाती है।

ग्लाइकोलाइसिस की खोज जर्मनी के तीन वैज्ञानिकों ‘एम्बडेन, मेयरहॉफ तथा पारसन’ ने की थी; इसीलिए इसे EMP पथ भी कहते हैं।*

(B) क्रेब्स चक्र (Krebs cycle) – इस प्रक्रिया का पता 1937 ई० में ब्रिटिश वैज्ञानिक हैन्स क्रेब्स (Hans Krebs) ने लगाया था। इसकी सारी अभिक्रियाएँ यूकैरियोटी जीवों के माइटोकॉण्ड्रिया में तथा प्रोकैरियोटी जीवों में कोशिका कला पर होती है। इसमें ग्लाइकोलाइसिस से प्राप्त पाइरुविक अम्ल के दोनों अणुओं का ऑक्सीजन की उपस्थिति में पूर्ण ऑक्सीकरण होता है। इस चरण में होने वाले प्रमुख परिवर्तन निम्न हैं-

(i) क्रेब्स चक्र में प्रवेश करने से पहले पाइरुल्कि अम्ल से CO2 के एक अणु तथा दो हाइड्रोजन परमाणुओं का विमोचन होता है। बचा हुआ अणु, कोएन्जाइम-ए से संयुक्त होकर ऐसीटल कोएन्जाइम- A बनाता है।

(ii) ऐसीटल कोएन्जाइम A अब कोशिका में उपस्थित ऑक्जैलो ऐसीटिक अम्ल व जल से क्रिया करके साइट्रिक अम्ल बनाता है।

(iii) साइट्रिक अम्ल का क्रेब्स चक्र में धीरे-धीरे कई अभिक्रियाओं के माध्यम से क्रमबद्ध विघटन होता है। इन अभिक्रियाओं के फलस्वरूप कई मध्यवर्ती अम्ल बनते हैं, जैसे- ऑक्जैलोसक्सिनिक अम्ल, अल्फा-कीटोग्लूटेरिक अम्ल, सक्सिनिक अम्ल, फ्यूमेरिक अम्ल एवं मैलिक अम्ल । इन परिवर्तनों के दौरान CO2 के 2 अणु, व हाइड्रोजन के 8 परमाणु मुक्त होते हैं।

(iv) अन्त में मैलिक अम्ल का परिवर्तन ऑक्जैलोग्लिसरिक अम्ल में हो जाता है। यह पुनः दूसरे पाइरुविक अम्ल के अणु के साथ संयुक्त होकर क्रेब्स चक्र में पुनः प्रवेश करता है।

ऊर्जा का उत्पादन (Production of energy) – पाइरुविक अम्ल के अणु के ऑक्सीकरण से ATP का एक अणु, पाँच अणु NADH के और एक अणु FADH2 का बनता है। NADH के एक अणु से 3 अणु ATP के और FADH2 के एक अणु से ATP के दो अणु प्राप्त होते हैं। इस प्रकार से पाइरुविक अम्ल के एक अणु से

1+(3×5)+(2×1)=1+15+2 = 18 अणु ATP के बनते हैं। चूँकि ग्लूकोस के एक अणु से दो अणु पाइरुविक अम्ल के बनते हैं। इसीलिए पाइरुविक अम्ल के दो अणुओं से 2 × 18-36 अणु ATP के प्राप्त होते है। चूँकि ग्लूकोज के एक अणु से दो अणु पाइरुविक अम्ल के बनते हैं। ग्लाइकोलाइसिस के दौरान भी 2 ATP अणुओं का लाभ होता है। अतः ग्लूकोस के 1 अणु के ऑक्सी श्वसन से 2 + 36 = 38 ATP अणु प्राप्त होते हैं। स्पष्ट है कि हमारे श्वसन तंत्र में अधिकतम ATP अणुओं का उत्पादन क्रेब्स चक्र के दौरान होता है।

श्वसन गुणांक (Respiratory Quotient or R.O.)

श्वसन क्रिया के दौरान उपभोग में लायी गयी सम्पूर्ण आक्सीजन एवं इस दौरान उत्पन्न हुई कुल कार्बन डाइ आक्साइड के गैसीय विनिमय अनुपात को श्वसन भागफल कहते हैं।

RQ = CO2 का कुल उत्पादन /O2 का कुल उपभोग

श्वसन गुणांक द्वारा इस बात का पता लगाया जा सकता है कि श्वसन की क्रिया में किस प्रकार के भोज्य पदार्थ का ऑक्सीकरण हो रहा है क्योंकि विभिन्न भोज्य पदार्थों के लिए RQ का मान भिन्न है। यह एक तरह का मापन है जिसको देखकर उसमें प्रयुक्त होने वाले खाद्य-पदार्थों की पहचान की जाती है। प्रत्येक खाद्य-पदार्थ का अपना निश्चित RQ होता है। जैसे- अगर कार्बोहाइड्रेट (Carbohydrates) का श्वसन के दौरान आक्सीकरण हो रहा है तो इसमें 6 अणु आक्सीजन का प्रयुक्त होता है तथा 6 अणु कार्बन डाइ ऑक्साइड का उत्पन्न होती है। इसलिए कार्बोहाइड्रेट का RQ निम्न होगा-

C6H12O6 + 6O→ 6CO2+6H2O

RQ = Total CO2 Produced/Total O2 Consumed  = 6/6  = 1

अर्थात् कार्बोहाइड्रेटस का RQ मान एक अथवा इकाई (Unity) होता है। बसा तथा प्रोटीन का RQ मान सदैव एक से कम, अनॉक्सी श्वसन का एक से अधिक तथा कार्बनिक अम्ल का भी एक से अधिक होता है। ज्ञातव्य है कि RQ का मान ज्ञात करने के लिए गैनांग श्वसन मापी उपकरण का प्रयोग किया जाता है।

श्वसन तंत्र के अंग- श्वसन तंत्र में भाग लेने वाले अंगों को अधोलिखित भागों में विभक्त किया गया है। यथा-

(i) नासिका (Nose) अथवा नासाद्वार,
(ii) नासागुहा (Nasal cavity)
(iii) नासाग्रसनी (Pharynx)
(iv) कण्ठ (Larynx)
(v) श्वासनली (Trachea)
(vi) श्वसनिकाएं (Bronchii)
(vii) फुफ्फुस या फेफड़े (Lungs)
(viii) डायाफ्राम (Diaphragm)

श्वासोच्छ्वास-तंत्र एक जोड़ी बाह्य नासिका द्वारों में बाहर, वायुमण्डल की ओर खुलता है। नासाद्वार से वायु नासागुहा (nasal cavity) में प्रवेश करती है। नासागुहा ग्रसनी के पिछले भाग में खुलती है। नासिका से ग्रसनी तक के मार्ग में वायु को शरीर के ताप तक गरम तथा नम (Moist) किया जाता है। साथ ही वायु में उपस्थित धूल-कण, नासागुहा में स्थित ग्रन्थियों के द्वारा स्त्रवित श्लेष्मा द्वारा रोक लिए जाते हैं।

नासा ग्रसनी से वायु कण्ठ (larynx) में आती है। कण्ठ छोटा- सा कक्ष होता है जो ग्रसनी तथा श्वासनली के बीच संयोजक का कार्य करता है। कण्ठ में खुलने वाली श्वासनली (trachea) का ऊपरी छिद्र ग्लॉटिस (glottis) कहलाता है। यह छिद्र पत्ती की आकृति के उपास्थि युक्त कपाट (cartilagenous valve) से ढंका रहता है।

श्वास नली नलिकाकार संरचना होती है, जिसकी लम्बाई लगभग 12 सेमी तथा व्यास लगभग 2.5 सेमी होता है। यह कण्ठ के पिछले भाग से प्रारम्भ होकर वक्षगुहा (thoracic cavity) के मध्य तक फैली होती है। यहाँ पर यह दाहिनी और बायीं ओर प्रधान श्वसनियों (bronchii) में विभक्त होकर फुफ्फुस में प्रवेश करती है।

फुफ्फुस (lungs) दो होते हैं जो वक्ष-गुहा में दाहिनी तथा बायीं ओर स्थित होते हैं। इनके ठीक नीचे एक गोलाकार पृष्ठ के रूप में, पेशीय डायाफ्राम (diaphragm) होता है। यह डायाफ्राम वक्षगुहा को उदर-गुहा (abdominal cavity) से पृथक् करता है।

फुफ्फुसों के भीतर प्रधान श्वसनियाँ क्रमशः विभाजित होकर द्वितीयक श्वसनियाँ, तृतीयक श्वसनियाँ, श्वसनिकाएँ एवं अन्ततः अन्तिम श्वसनिकाएँ (bronchiole) बनाती हैं।

अन्तिम श्वसनिका पुनः विभाजित होकर अनेक कूपिका वाहिनियों की रचना करती है जो कूपिका अथवा वायुकोष (alveoli or airsacs) में खुलती है दोनों फुफ्फुस में कुल मिलाकर लगभग 30 करोड़ कूपिकाएँ पायी जाती है।

संपूर्ण फुफ्फुस दो परतों के झिल्लीनुमा आवरण से ढके रहते हैं। दोनों झिल्लियों के बीच के स्थान में एक तरल भरा रहता है जो घर्षण को कम करके फुफ्फुसों के संकुचन एवं प्रसारण को सुगम बनाता है। इस झिल्ली-नुमा आवरण को फुफ्फुसावरणी (pluera) कहते हैं।*

प्रमुख श्वसन संस्थान रोग (Diseases of Respiratory System)

➤ श्वसनीशोथ (Bronchitis)

श्वसनिकाओं (Bronchial tubes) की श्लैष्मिकला में सूजन की अवस्था को ब्रॉन्काइटिस कहते हैं। यह रोग विशेष रूप से बच्चे तथा वृद्धों में मिलता है। यह कई रूपों में मिलता है। यह वायरस अथवा जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न बाह्य संक्रमण से होता है। रोग के प्रारम्भ में सिर दर्द, हल्का बुखार, स्वर भंग, श्वास कष्ट एवं सूखी तीव्र खाँसी प्रारम्भ होती है। रक्त में श्वेत कोशिकाओं (Leucocytes) की वृद्धि निदान में पर्याप्त सहायक होती है। आजकल एण्टीबायोटिक औषधियों- ट्रेटासाइक्लीन, लिन को माइसिन तथा कोरेक्स कफ सीरप आदि के प्रयोग के कारण इस रोग से होने वाले मृत्यु दर में काफी कमी हो गई है।

➤ न्यूमोनिया (Pneumonia)

फेफड़ों में सूजन की उत्पत्ति को न्यूमोनिया कहते हैं। इसमें फेफड़े के एक या अनेक खण्डों में ठोसपन आ जाता है। यह कई रूपों में मिलता है। वस्यकों के अलावा शिशुओं और बालकों में पाया जाने वाला स्वरूप ‘बॉन्कों न्युमोनिया’ कहलाता है। खाँसी, – बेचैनी, ज्वर, श्वास कष्ट आदि इसके लक्षण है। 70 प्रतिशत रोगियों में दाहिने फेफड़े के तरफ चुमने जैसा दर्द इस रोग का प्रमुख – लक्षण है। अधिकांश में इस रोग की उत्पति डिप्लोकोकाई या न्यूमोनोकोकस जीवाणु के संक्रमण से होता है। संक्रमण के सहायक कारकों में मौसम परिवर्तन एवं रोगी व्यक्ति का संसर्ग प्रमुख है। इस रोग की विशिष्ट औषधि पेनिसिलीन है। सेफैलेक्सिन अथवा स्पोरीडेक्स, पेनिसिलीन के प्रति सुग्राही (Sensitive) को दिया जाता है।

➤ रहस्यमय सार्स

रहस्यमय निमोनिया अर्थात् ‘सीवियर एक्यूट रेसपीरेटरी सिंड्रोम’ (SARS) नामक घातक रोग से अप्रैल, 2003 के अंत तक चीन, हांगकांग, वियतनाम, सिंगापुर सहित 25 देशों में लगभग 200 व्यक्तियों की मृत्यु हो गई और लगभग 3500 लोग प्रभावित हुए।

अभी तक के अनुभवों से सही पता चलता है कि रहस्यमय निमोनिया एक मरीज की छींक या खांसने भर से निकलने वाले सूक्ष्म कणों के जरिए एक साथ हजारों लोगों को अपना शिकार बना रहा है। सीविर एक्यूट रिस्परेटरी सिंड्रोम के बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन का स्पष्ट निर्देश है कि इस रहस्मय संक्रामक वायरस से बचाव ही इस सिंड्रोम से बचने का एक मात्र उपाय है। सार्स से पीड़ित रोगी का सामान्य जांच अर्थात् एक्सरे, रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा, बलगम आदि की जाँच करवानी होती है। सार्स की पहचान होने पर सामान्य निमोनिया से पीड़ित रोगी को दी जाने वाली पेंसिलिन परिवार की दवाएँ काम नहीं करेगी। विश्व स्वास्थ संगठन (WHO) विश्व भर के डाक्टरों और सरकारों को ग्लोबस अलर्ट जारी कर दिया था। अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज केंट्रोल एण्ड प्रीवेंशन (सीडीसी) ने बताया कि जिम्मेदार विषाणु कोरोना वायरस समूह का है।* सीडीसी के अधिकारियों का मानना है कि अभी इस पर और काम किया जाना बाकी है।

➤ दमा (Asthama)

ऐसा रोग जिसमें रोगी को खाँसी, कष्ठश्वास आदि के कभी-कभी दौरे उत्पन्न होते रहते हैं, दमा कहलाता है। वैसे दमा कई प्रकार का होता है। किन्तु मुख्य रूप से ब्रॉन्कियल दमा का स्थान महत्वपूर्ण है। मस्तिष्क सम्बन्धी सहज निर्बलता इस रोग का प्रधान कारण है। वैसे एलर्जी एवं संक्रमण के माध्यम से भी यह रोग होता है। कुछ परिवारों में यह रोग पीढ़ी- दर-पीढ़ी चलता रहता है। दमे का दौरा प्रायः रात्रि में प्रारम्भ होता है। जो 30 मिनट से 2 घण्टे तक रहकर स्वतः शान्त हो जाता है। इसमें चिकित्सा से कोई स्थायी लाभ की आशा नहीं की जाती। आइसोप्रिनालिन सल्फेट या एड्रीनैलीन का इंजेक्शन आदि देने से लाभ होता है।

➤ इओसिनोफीलिया (Eosinophila)

आज कल इस रोग को ‘पल्मोनरी इओसिनोफीलिया’ के नाम से जाना जाता है। अनियमित मंद ज्वर, दुर्बलता, खाँसी, अकस्मात् साँस फूलना, रक्ताल्पता एवं अजीर्णता आदि रोग के सामान्य लक्षण है। रक्त में इओसिनों फिल्स की संख्या 20% से अधिक हो जाती है। ज्ञातव्य है कि रूधिर में इनकी सामान्य संख्या 0.5 से 4.0 प्रतिशत तक होती है। वास्तवमें इस रोग का कारण माइक्रोफाइलेरिया का रक्त में संक्रमण कर जाना है। इसे रोगी के यकृत, फेफड़े तथा लसीका ग्रांथियों में देखा जाता है। इस कृमि के लार्वा के कारण ही फेफड़ों में विकृत होकर रोग की उत्पत्ति होती है। इस रोग की – चिकित्सा में डाइ इथाइल कार्बामेजिन तथा बेनोसाइड जैसी औषधियों का प्रयोग रामबाण साबित होता है।

➤ पल्मोनरी फाइब्रोसिस (Pulmonary Fibrasis)

इस रोग में फेफड़ों में रेशेदार ऊतक (fibrous tissue) की प्रधानता हो जाती है, फेफड़ा सिकुड़कर छोटा हो जाता है और छाती की दीवार अन्दर की ओर खिंच जाती है। इस रोग का कारण है टी॰बी॰ या ब्रान्कोन्यूमोनिया। बालकों में कभी-कभी मीजिल्स तथा हृपिंग कफ के कारण भी यह रोग हो जाता है। इसकी कोई भी रोग निवारक चिकित्सा उपलब्ध नहीं है। नियमित प्राणायाम से फाइब्रोसिस को रोका जा सकता है।

➤ फेफड़े का कैंसर (Lung’s Cancer)

यह कैंसर एक व्यावसायिक रोग है। यह अधिकतर दाहिने फेफड़े में होता है। इसमें श्वसनी में व्रण (Ulcer) की की उत्पत्ती हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप फेफड़े के अधिकांश भाग में अल्सर उत्पन्न हो जाता है। इस रोग का प्रधान कारण औद्योगिकरण के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ प्रदूषण है। धूम्रपान, फेफड़े में सिलिका पदार्थ का एकत्रित होना, रेडियो एक्टिव पदार्थ, मस्टर्ड गैस एवं कैंसर जनक हाइड्रोकार्बन आदि के कारण व्यक्ति इस रोग से ग्रसित होता है। इस रोग में श्वासनली में उत्पन्न ट्यूमर में विक्षोभ के कारण सर्वप्रथम खाँसी का लक्षण होती है। सीने में दर्द इसका दूसरा लक्षण है। बायोप्सी परीक्षा इस रोग के निदान में विशेष सहायक होती है। यदि फेफड़े का कैंसर बहुत होता है तो गाँठ को शल्य चिकित्सा द्वारा निकाल दिया जाता है, इसमें ‘नाइट्रोजन मस्टर्ड’ का एक्कीलेटिंग तत्व (Alkylating agent) सह चिकित्सा के रूप उपयोगी होता है। विकिरण चिकित्सा के रूप में सुपर वोल्टेज एक्स-रे तथा कोबाल्ट 60 का प्रयोग आजकल इस रोग की चिकित्सा में काफी हो रहा है। कुछ वैज्ञानिक आजकल इस रोग की चिकित्सा में बेटट्रान थिरेपी (Betetron therapy) को विशेष महत्व प्रदान कर रहे हैं।

➤ जुकाम (Coryza/commn cold)

जिस रोग में नासिका की श्लेष्मकला (Mucous Membrane) में और कुछ-कुछ गले में भी शोध (Inflammation) होकर नाक बहने लगे और छीकें आने लगे तो उसे जुकाम कहते हैं। यह एक ‘एडिनो’ नामक वाइरस जनित सांसर्गिक (Contagious) रोग है। अनियमित दिनचर्चा एवं मौसम परिवर्तन के समय इसका संक्रमण अधिक होता है। इसमें डेक्सेड्रीन इनहॉवर सूँघना लाभकारी होता है। इसकी कोई सटीक दवा नहीं है।

➤ इन्फ्लुएन्जा (Infuluenza)

यह ‘मिक्सोवाइरसइन्फ्लुएंजाइ’ नामक वाइरस से होने वाला संक्रामक रोग है। इसको ‘फ्लू’ भी कहते है। इनफ्लुएंजा के वाइरस संक्रमित व्यक्तियों के थूक, कफ आदि से फैलते हैं। सारे शरीर में दर्द के साथ बुखार और जुकाम होता है। गलशोथ, छींक, बैचेनी, सिरदर्द भी रहता है। सावधानी बरतने पर इनफ्लूएंजा 4-6 दिन बाद समाप्त हो जाता है लेकिन असावधानी से श्वसनीशोथ (Bronchitis) , न्यूमोनिया और कान का संक्रमण हो सकता है। रोगी को टेरामाइसीन (Terramycin) टेट्रासाइक्लीन (Tetracyclin) आदि एन्टीबायोटिक्स लेनी चाहिए। रोगी को पौष्टिक भोजन करना चाहिए। ताजी हवा में रहना तथा सर्दी-गर्मी से बचना चाहिए।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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