सरकार के अधिकार तथा दायित्व : 61

संविधान के भाग XII के अनुच्छेद 294 से 300 केंद्र एवं राज्यों की संपत्ति, संविदा, अधिकार, दायित्व, बाध्यताएं और वाद से संबंधित हैं। इस संबंध में, संविधान ने केंद्र एवं राज्यों को वैधानिक व्यक्ति की तरह बनाया है।

केंद्र एवं राज्यों की संपत्ति

1. उत्तराधिकार

वर्तमान संविधान लागू होने से पूर्व सभी संपत्ति और आस्तियां, जो कि भारतीय प्रभुत्व या प्रांत या भारतीय राजाओं के राज्य के अधीन थी, केंद्र या संबंधित राज्यों के स्वामित्व में आ गईं।

इसी प्रकार, भारतीय अधिराज्य या प्रांत या राजाओं के अधीन राज्य के सभी अधिकार, दायित्व और बाध्यताएं भी अब भारत सरकार या संबंधित राज्य के होंगे।

2. राजगामी, व्यपगत और स्वामीविहिन (Escheat, Lapse and Bona Vacantia)

भारत में कोई भी संपत्ति जो इंग्लैंड के राजा, भारतीय प्रांतों के शासकों को राजगामी (उत्तराधिकारी की मृत्यु पश्चात उत्तराधिकार), व्यपगत (अनुपयोगी या उचित तरीके की विफलता के कारण अधिकारों की समाप्ति) या स्वामीविहिन (बिना मालिकाना हक वाली संपत्ति) द्वारा अधिकारपूर्ण स्वामित्व के लिए मिली हो, यदि संपत्ति वहीं हो। अब राज्यों के अधिकार में होगी तो वह अन्य स्थिति में संपत्ति केंद्र के अधिकार में होगी। इन सभी तीन स्थितियों में संपत्ति वैधानिक स्वामित्व न होने के कारण केंद्र के अधीन होंगी।

3. सागरीय संपदा

भारत के राज्यक्षेत्रीय सागर-खंड या महाद्वीप मग्नतट भूमि या अनन्य आर्थिक क्षेत्र में समुद्र के नीचे की सभी भूमि, खनिज और अन्य मूल्यवान चीजें, संघ में निहित होंगी। अतः समुद्र के निकट के राज्य इन पर अपने अधिकार क्षेत्र का दावा नहीं कर सकते हैं।

भारत का क्षेत्रीय जल उपयुक्त आधार रेखा से 12 नौटिकल (Nautical) मील तक फैला है। इसी प्रकार भारत का अनन्य आर्थिक जोन 200 नौटिकल मील तक फैला है।

4. विधि द्वारा अनिवार्य संपत्ति का अधिग्रहण

संसद के साथ-साथ राज्य विधानमंडल को सरकार द्वारा निजी संपत्ति के अनिवार्य अर्जन और मांग के लिए विधि बनाने का अधिकार है। 44वें संशोधन कानून (1978) ने इस संबंध में क्षतिपूर्ति वहन करने के संवैधानिक कर्तव्य को भी दो स्थितियों के अतिरिक्त समाप्त कर दिया, जिनमें (अ) जब सरकार अल्पसंख्यक संस्थानों की भूमि अधिग्रहीत करे। और (ब) जब सरकार ने किसी व्यक्ति की भूमि जो उसकी निजी खेती की हो, अधिग्रहीत की हो तथा जमीन विधिक सीमा के अंतर्गत हो।

5. कार्यकारी शक्ति के अंतर्गत अधिग्रहण

संघ या राज्य किसी संपत्ति को अपनी विशेष शक्ति द्वारा अधिगृहीत कर सकता है, कब्जे में रख सकता है या बेच सकता है।

इसके अतिरिक्त, संघ तथा राज्यों की इस विशेष शक्ति का विस्तार अपने या अन्य राज्यों में भी किसी भी व्यापार या व्यवसाय से भी है।

सरकार द्वारा या सरकार के विरुद्ध वाद

संविधान के अनुच्छेद 300 में, भारत में सरकार की ओर से या सरकार के विरुद्ध वाद की चर्चा की गई है। इसमें व्यवस्था है कि भारत सरकार द्वारा या उसके विरुद्ध वाद के लिये केन्द्र सरकार के नाम का इस्तेमाल कर सकती है और राज्य सरकार वहां की सरकार के नाम का। उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश की सरकार या उत्तर प्रदेश की सरकार आदि। इस तरह भारत संघ व राज्य विधिक (न्यायिक) सत्ता है। इस व्यवस्था के उद्देश्य के लिए न कि केन्द्र सरकार या राज्य सरकार।

सरकारी दायित्वों के संबंध में संविधान (अनुच्छेद 300) विस्तार से घोषणा करता है कि भारत संघ तथा राज्यों द्वारा अथवा उनके विरुद्ध संबंधित मामलों में उसी प्रकार वाद चलाया जा सकता है, जिस प्रकार औपनिवेशिक भारत में संविधान से पूर्व अभियोग चलाया जाता था। यह उपबंध उन सभी विधियों से संबंधित है, जो कि संसद अथवा राज्य विधानमंडलों द्वारा निर्मित हैं। किंतु ऐसा कोई भी कानून अब प्रचलित नहीं है अतः इस समय स्थिति ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार संविधान से पूर्व थी। संविधान पूर्व (ईस्ट इंडिया कंपनी के समय से 1950 में संविधान लागू होने तक) सरकार पर उसके अनुबंधों के लिए वाद चलाया जा सकता था किंतु उसके कर्मचारियों पर उनके गलत अनुबंधों के लिए वाद नहीं चलाया जा सकता था। इसे इस प्रकार समझाया जा सकता है:

1. अनुबंध संबंधी दायित्व

अपनी कार्यकारी शक्तियों के प्रयोग द्वारा संघ अथवा राज्य परिसंपत्तियां अर्जित कर सकते हैं, अथवा रख सकते है और बेच सकते हैं अथवा किसी अन्य प्रयोजन हेतु किसी व्यापार को बढ़ावा दे सकते हैं। किंतु संविधान के अनुसार इन अनुबंधों में तीन शर्तों को पूरा करना आवश्यक है:

(अ) ये अनुबंध राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल (स्थिति अनुसार) के नाम से होने चाहिए।

(ब) ये अनुबंध राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल के नाम से क्रियान्वित होने चाहिए।

(स) ये अनुबंध उन व्यक्तियों द्वारा क्रियान्वित होने चाहिए जिन्हें राष्ट्रपति नामित अथवा निर्देशित करे ।

ये शर्तें केवल निर्देश के लिए नहीं है बल्कि इन्हें पूरा करना आवश्यक है। इन शर्तों को पूरा न करने की स्थिति में इन अनुबंधों को न्यायालय द्वारा अवैध घोषित किया जा सकता है। राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल व्यक्तिगत रूप से अपने नाम से किए गए अनुबंधों के लिए जिम्मेदार नहीं होते हैं। इसी प्रकार इन अनुबंधों को क्रियान्वित करने वाले अधिकारी भी व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार नहीं होते। यह उन्मुक्ति केवल व्यक्तिगत है तथा सरकार को उसकी जिम्मेदारियों से उन्मुक्ति नहीं देती। इन जिम्मेदारियों की असफलता पर सरकार पर न्यायालय में वाद लाया जा सकता है। अतः संघ सरकार तथा राज्य सरकार की अनुबंधीय जिम्मेदारियां ठीक उसी प्रकार हैं जैसे अनुबंध के साधारण कानून में किसी एक व्यक्ति की, भारत में यह स्थिति ईस्ट इंडिया कंपनी के समय से है।

2. नागरिक गलतियों की जिम्मेदारी

प्रारंभ में ईस्ट इंडिया कंपनी केवल व्यापारिक संस्थान थी। धीरे- धीरे इसने भारत में क्षेत्र ग्रहण करने शुरू कर दिए और एक संप्रभु शक्ति बन गई। कंपनी के ऊपर एक व्यापारिक संस्था के रूप में वाद चलाया जा सकता था, एक संप्रभु संस्था के रूप में नहीं। कंपनी को उसके संप्रभु कार्यों में यह छूट उस ब्रिटिश सूक्ति पर आधारित थी कि “राजा कभी गलत नहीं हो सकता” अर्थात राजा अपने कर्मचारियों के गलत कार्यों के लिए जिम्मेदार नहीं था। ब्रिटेन में राज्य (राजा) को कानूनी जिम्मेदारियों से यह रूढ़िगत उन्मुक्ति क्राउन प्रोसिडिंग एक्ट (1947) द्वारा हटा दी गई है किंतु भारत में स्थिति अभी भी वही है।

अतः सरकार (संघ या राज्य) पर उन नागरिक गलतियों के लिए वाद चलाया जा सकता है जो उसके अधिकारियों ने असंप्रभु कार्यों के निर्वहन में की हैं किंतु संप्रभु कार्यों जैसे प्रशासकीय न्याय, सैनिक रोड का निर्माण, युद्ध के समय वस्तुओं की आवाजाही आदि में सरकार के विरुद्ध वाद नहीं चलाया जा सकता है। भारत में सरकार के संप्रभु और असंप्रभु कार्यों के मध्य यह विभेद तथा संप्रभु कार्यों में सरकार को यह उन्मुक्ति प्रसिद्ध पी. एंड ओ. स्टीम नेविगेशन कंपनी केस (1861) द्वारा स्थापित है। आजादी के बाद के समय में उच्चतम न्यायालय ने भी कस्तूरी लाल मामलें (1965) में इसको मान्यता दी है। किंतु इस मामले के बाद उच्चतम न्यायालय ने संप्रभु कार्यों की सीमित व्याख्या करना प्रारंभ कर दिया तथा कई मामलों में पीड़ित को मुआवजा दिलाया।

नगेन्द्र एवं मामले 4ए (1994) में, सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य की विशिष्ट प्रतिरक्षा के सिद्धांत की आलोचना की तथा राज्य की जवाबदेहियों के बारे में एक उदार रुख अपनाया। सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि यदि किसी सरकारी सेवक की लापरवाही से किसी व्यक्ति को हानि होती है तब राज्य को क्षतिपूर्ति देनी होगी और संप्रभु सुरक्षा के नाम पर वह अपनी जवाबदेही से मुक्त नहीं हो सकता। आधुनिक अर्थों मे विशिष्ट एवं अविशिष्ट कार्यों के बीच भेद का अस्तित्व ही नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि कुछ मामलों को छोड़कर राज्य किसी प्रतिरक्षा (immunity) का दावा नहीं कर सकता। न्यायालय की इस मामले में की गई व्यवस्थाएँ निम्नवत हैं:

1. एक सभ्य व्यवस्था में किसी अधिकारी को देश के लोगों के साथ खिलवाड़ की अनुमति नहीं दी जा सकती, और इस व्यवहार के समय में विशिष्ट प्रतिरक्षा का दावा नहीं किया जा सकता। सार्वजनिक हित की अवधारणा में बदलाव आया है क्योंकि सामाजिक संरचना में ही परिवर्तन आया है। कोई भी राजनीतिक अथवा वैधिक प्रणाली राज्य को कानून के ऊपर नहीं रख सकती क्योंकि यह एक नागरिक के लिए अन्यायपूर्ण होगी कि उसे अपनी सम्पत्ति से गैर-कानूनी तरीके से वंचित कर दिया जाए वह भी राज्य के किसी अधिकारी द्वारा और इसका कोई हल भी न निकले।

2. आज के प्रगतिशील समाजों में आधुनिक समाजिक चिंतन तथा न्यायिक दृष्टिकोण पुराने राज्य संरक्षण की अवधारणा को नकारता है तथा राज्य को अथवा सरकार को किसी भी अन्य न्याय-योग्य वैधानिक वस्तु (entity) के समकक्ष रखता है। राज्य के कार्यों का ‘विशिष्ट’, ‘अविशिष्ट’, ‘सरकार’ तथा ‘गैर-सरकारी’ सख्त खाँचों में रखना ठीक नहीं है। यह न्याय सम्बन्धी आधुनिक अवधारणाओं के प्रतिकूल है।

3. राज्य की जरूरतें, इसके अधिकारियों के कर्तव्य तथा नागरिकों के अधिकार- इन सबके बीच साम्य स्थापित करना आवश्यक है ताकि कल्याणकारी राज्य में कानून के शासन की क्षति न हो। कल्याणकारी राज्य में राज्य के कार्य केवल देश की सुरक्षा अथवा कानून-व्यवस्था लागू करने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके आगे लगभग ही क्षेत्र-शैक्षिक, वाणिज्यिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, यहाँ तक वैवाहिक में भी, लोगों की गतिविधियों का नियमन एवं नियंत्रण करना हो गया है।

4. राज्य की विशिष्ट तथा अविशिष्ट शक्तियों के बीच विभाजक रेखा जिसका कोई तार्किक आधार नही हैं, आज मिट चुकी है। इसलिए कुछ कार्यों, जैसे-न्याय, प्रशासन, कानून-व्यवस्था बनाए रखना तथा अपराध नियंत्रण, जिन्हें कि किन्हीं संवैधानिक शासन दायित्वों से अलग नहीं किया जा सकता, को छोड़कर राज्य प्रतिरक्षा (immunity) का दावा नहीं कर सकता। उपरोक्त मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कस्तूरी लाल मामले (1965) के अपने निर्णय को बदला नहीं। हालांकि उसने यह माना कि यह दुर्लभ और सीमित मामलों में ही लागू होता है।

सामान्य हित मामला (Common Cause Case, 4b 1999) में सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर इस सिद्धांत की परीक्षा की और विशिष्ट प्रतिरक्षा सिद्धांत को खारिज कर दिया। न्यायालय ने व्यवस्था दी कि पी.एण्ड.ओ. स्टीम नैवीगेशन कम्पनी मामले में जो राज्य की जवाबदेही का नियम तय किया गया, वह पुराना पड़ चुका है। उसने व्यवस्था दी कि आज जबकि राज्य की गतिविधियाँ बहुत अधिक बढ़ चुकी हैं, विशिष्ट और अविशिष्ट शक्तियों के बीच भेद करना कठिन हो गया है। राज्य की बढ़ी हुई गतिविधियों का व्यापक प्रभाव नागरिकों के जीवन पर पड़ रहा है इसलिए यह जरूरी है कि उसी अनुपात में कल्याणकारी राज्य की जवाबदेहियों का भी विस्तार हो। राज्य को अपने कर्मचारियों के कृत्यों के लिए जवाबदेह होना पड़ेगा चाहे वह विशिष्ट अथवा अविशिष्ट शक्तियों का उपयोग करते किए गए हों

अंत में, न्यायलय ने व्यवस्था दी कि कस्तूरीलाल मामले को पूर्वोदाहरण के रूप में अब उपयोग नहीं किया जा सके।

बन्दी हत्या मामले d (2000) में सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि न्यायिक विस्तार की प्रक्रिया में कस्तूरी लाल मामले का अब कोई महत्व नहीं है।

तालिका 61.1 सरकार के अधिकारों एवं दायित्वों से सम्बन्धित अनुच्छेद, एक नजर में

अनुच्छेवविषय-वस्तु
294कुछ मालों में सम्पत्ति, परिसम्पत्ति, अधिकार, दायित्व संबंधी उत्तराधिकार
295अन्य मामलों में, सम्पत्ति, परिसम्पत्ति, अधिकार, दायित्व सम्बन्धी उत्तराधिकार
296राज्य द्वारा अधिगृहित (जब्त), अथवा चूक अथवा लावारिक सम्पत्ति
297देशीय जल अथवा महादेशीय चट्टान के अंतर्गत मूल्यवान वस्तुओं, तथा विशेष आर्थिक क्षेत्रों के संसाधनों पर संघ का अधिकार
298व्यापार जारी रखने की शक्ति आदि
299संविदा
300वाद (मुकदमा) एवं कार्यवाही
361राष्ट्रपति एवं राज्यपालों को सुरक्षा (प्रतिरक्षा)

लोक अधिकारियों के विरुद्ध वाद

1. राष्ट्रपति तथा राज्यपाल

संविधान राष्ट्रपति तथा राज्य के राज्यपालों के लिये कार्यालयीन कृत्यों तथा व्यक्तिगत कृत्यों से संबंधित कुछ उन्मुक्तियों को स्वीकार करता है, जो इस प्रकार हैं:

(अ) कार्यालयीन गतिविधियां

राष्ट्रपति तथा राज्यपालों पर उनके कार्यकाल तथा कार्यकाल के बाद ऐसे किसी कार्य के लिए वाद नहीं चलाया जा सकता है, जो उन्होंने अपनी कार्यालयीन शक्तियों तथा दायित्वों से संपन्न किए हैं, किंतु राष्ट्रपति के आधिकारिक निर्णयों और कार्यों की न्यायालय, अधिकरण अथवा संसद द्वारा प्राधिकृत किसी संस्था द्वारा अभियोजन के आरोपों की जांच में समीक्षा की जा सकती है। इसके अतिरिक्त पीड़ित व्यक्ति राष्ट्रपति की बजाय भारत संघ के विरुद्ध तथा राज्यपाल के बजाय राज्य के विरुद्ध उचित युक्तियुक्त कार्यवाही का प्रयास कर सकता है।

(ब) व्यक्तिगत गतिविधियां

राष्ट्रपति तथा राज्यपालों के विरुद्ध व्यक्तिगत कार्यों के अन्तर्गत कोई आपराधिक कार्यवाही नहीं की जा सकती तथा गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। यह उन्मुक्ति उनके कार्यकाल तक ही सीमित है तथा कार्यकाल के बाद इस उन्मुक्ति को नहीं बढ़ाया जाता है। किंतु उनके व्यक्तिगत कार्यों के लिए उनके कार्यकाल में सिविल कार्यवाही उनको दो महीने पूर्व सूचना देकर ही की जा सकती है।

2. मंत्री

संविधान, मंत्रियों को उनके आधिकारिक कार्यों के लिए कोई उन्मुक्ति प्रदान नहीं करता, क्योंकि वे राष्ट्रपति तथा राज्यपालों के आधिकारिक कार्यों पर प्रतिहस्ताक्षर नहीं करते (ब्रिटेन की तरह) अतः वह उन कार्यों के लिए न्यायालयों में जिम्मेदार नहीं होते। दूसरे, वे राष्ट्रपति तथा राज्यपालों के उन आधिकारिक कार्यों के लिए जिम्मेदार नहीं होते जो उनकी सलाह पर किए जाते हैं क्योंकि न्यायालयों पर ऐसी जानकारी मांगने पर रोक है। किंतु मंत्रियों को अपने व्यक्तिगत कार्यों पर ऐसी कोई उन्मुक्ति नहीं है तथा उन पर अपराध तथा सिविल गलतियों के लिए साधारण न्यायालय में उसी प्रकार सिविल चलाया जा सकता है जिस प्रकार साधारण नागरिकों पर चलाया जाता है।

3. न्यायिक अधिकारी

न्यायिक अधिकारियों को उनके आधिकारिक कार्यों की जिम्मेदारी से उन्मुक्ति प्राप्त है अतः उन पर वाद नहीं चलाया जा सकता। न्यायिक अधिकारी संरक्षण अधिनियम (1850) के अनुसार, न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट, जस्टिस ऑफ पीस, कलेक्टर या न्यायिक कार्य कर रहे अन्य व्यक्तियों पर उनके उन कार्यों के लिए, जो उन्होंने आधिकारिक कार्यों से निवृत्ति पर किए हों, सिविल न्यायालय में वाद चलाया जा सकता है।

4. लोक सेवक

संविधान में लोक सेवकों को उनके आधिकारिक अनुबंधों में न्यायिक जिम्मेदारियों से उन्मुक्ति प्राप्त है। इसका तात्पर्य यह है कि लोक सेवकों को उनकी अपनी आधिकारिक क्षमताओं से किए गए अनुबंधों के लिए जिम्मेदार नहीं माना जाता किंतु सरकार (केंद्रीय अथवा राज्य) इन अनुबंधों के लिए जवाबदेह होती है। किंतु यदि अनुबंध संविधान में उल्लिखित नियमों के विरुद्ध है तो लोक सेवक जिसने यह अनुबंध किया है, व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होता है। इसके अलावा लोक सेवकों को नागरिक गलतियों के लिए सरकार के संप्रभु कार्यों के संदर्भ में न्यायिक जिम्मेदारियों से उन्मुक्ति प्राप्त है। अन्य मामलों में, नागरिक गलतियों तथा गैर-कानूनी कार्यों के लिए लोक सेवकों की जिम्मेदारी साधारण नागरिकों की तरह होती है। उन पर उनके द्वारा उनकी आधिकारिक क्षमताओं से किए कार्यों के लिए नागरिक कार्यवाही दो माह की पूर्व सूचना पर की जा सकती है। किंतु, उनके द्वारा उनके आधिकारिक कर्तव्यों से बाहर किए गए कार्यों के लिए ऐसी किसी सूचना की आवश्यकता नहीं होती है। उनके द्वारा उनकी आधिकारिक क्षमताओं तथा राष्ट्रपति और राज्यपाल की पूर्व अनुमति से किए गए कार्यों के लिए, यदि आवश्यक हो, आपराधिक कार्यवाही की जा सकती है।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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