भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्रक : अध्याय 2

आर्थिक कार्यों के क्षेत्रक

निम्न चित्रों को देखें। आप लोगों को विभिन्न आर्थिक गतिविधियों में कार्यरत पाएँगे। इनमें से कुछ गतिविधियाँ वस्तुओं का उत्पादन करती हैं। कुछ अन्य सेवाओं का सृजन करती हैं। ये गतिविधियाँ हमारे चारों ओर हर समय सम्पादित होती हैं, यहाँ तक कि हमारे बोलने में भी। हम इन गतिविधियों को कैसे समझ सकते हैं? इन्हें समझने का एक तरीका यह है कि कुछ महत्त्वपूर्ण मानदंडों के आधार पर इन्हें विभिन्न समूहों में वर्गीकृत कर दिया जाए। इन समूहों को क्षेत्रक भी कहते हैं। उद्देश्य और किसी महत्त्वपूर्ण मानदंड के आधार पर इन्हें अनेक तरीकों से वर्गीकृत किया जा सकता है।

प्राकृतिक संसाधनों के प्रत्यक्ष उपयोग पर आधारित अनेक गतिविधियाँ हैं। जैसे-कपास की खेती। यह एक मौसमी फसल है। कपास के पौधों की वृद्धि के लिए हम मुख्यतः, न कि पूर्णतया, प्राकृतिक कारकों जैसे-वर्षा, सूर्य का प्रकाश और जलवायु पर निर्भर हैं। अतः कपास एक प्राकृतिक उत्पाद है। इसी प्रकार, डेयरी उत्पादन में हम पशुओं की जैविक प्रक्रिया एवं चारा आदि की उपलब्धता पर निर्भर होते हैं। अतः इसका उत्पाद दूध भी एक प्राकृतिक उत्पाद है। इसी प्रकार, खनिज और अयस्क भी प्राकृतिक उत्पाद है। जब हम प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके किसी वस्तु का उत्पादन करते हैं, तो इसे प्राथमिक क्षेत्रक की गतिविधि कहा जाता है। प्राथमिक क्यों? क्योंकि यह उन सभी उत्पादों का आधार है, जिन्हें हम क्रमशः निर्मित करते हैं। चूँकि हम अधिकांश प्राकृतिक उत्पाद कृषि, डेयरी, मत्स्यन और वनों से प्राप्त करते हैं, इसलिए इस क्षेत्रक को कृषि एवं सहायक क्षेत्रक भी कहा जाता है।

द्वितीयक क्षेत्रक की गतिविधियों के अन्तर्गत प्राकृतिक उत्पादों को विनिर्माण प्रणाली के जरिए अन्य रूपों में परिवर्तित किया जाता है। यह प्राथमिक क्षेत्रक के बाद अगला कदम है। यहाँ वस्तुएँ सीधे प्रकृति से उत्पादित नहीं होती हैं, बल्कि निर्मित की जाती हैं। इसलिए विनिर्माण की प्रक्रिया अपरिहार्य है। यह प्रक्रिया किसी कारखाना, किसी कार्यशाला या घर में हो सकती है। जैसे, कपास के पौधे से प्राप्त रेशे का उपयोग कर हम सूत कातते और कपड़ा बुनते हैं। गन्ने को कच्चे माल के रूप में उपयोग कर हम चीनी और गुड़ तैयार करते हैं। हम मिट्टी से ईंट बनाते हैं और ईंटों से घर और भवनों का निर्माण करते हैं। चूँकि यह क्षेत्रक क्रमशः संवर्धित विभिन्न प्रकार के उद्योगों से जुड़ा हुआ है, इसलिए इसे औद्योगिक क्षेत्रक भी कहा जाता है।

प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक के अतिरिक्त आर्थिक गतिविधियों की एक तीसरी कोटि भी है जो तृतीयक क्षेत्रक के अन्तर्गत आती हैं और उपर्युक्त दो क्षेत्रकों से भिन्न है। ये गतिविधियाँ प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक के विकास में मदद करती हैं। ये गतिविधियाँ स्वतः वस्तुओं का उत्पादन नहीं करती हैं, बल्कि उत्पादन प्रक्रिया में सहयोग या मदद करती हैं। जैसे प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक द्वारा उत्पादित वस्तुओं को थोक एवं खुदरा विक्रेताओं को बेचने के लिए ट्रकों और ट्रेनों द्वारा परिवहन करने की ज़रूरत पड़ती है। कभी-कभी वस्तुओं को गोदामों में भण्डारित करने की आवश्यकता होती है। हमें उत्पादन और व्यापार में सहूलियत के लिए टेलीफोन पर दूसरों से वार्तालाप करने या पत्राचार (संवाद) या बैंकों से कर्ज लेने की भी आवश्यकता होती है। परिवहन, भण्डारण, संचार, बैंक सेवाएँ और व्यापार तृतीयक गतिविधियों के कुछ उदाहरण हैं। चूँकि ये गतिविधियाँ वस्तुओं के बजाय सेवाओं का सृजन करती हैं, इसलिए तृतीयक क्षेत्रक को सेवा क्षेत्रक भी कहा जाता है।

सेवा क्षेत्रक में कुछ ऐसी अपरिहार्य सेवाएँ भी हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से वस्तुओं के उत्पादन में सहायता नहीं करती हैं। जैसे, हमें शिक्षकों, डॉक्टरों, धोबी, नाई, मोची एवं वकील जैसे व्यक्तिगत सेवाएँ उपलब्ध कराने वाले और प्रशासनिक एवं लेखाकरण कार्य करने वाले लोगों की आवश्यकता होती है। वर्तमान समय में सूचना प्रौद्योगिकी पर आधारित कुछ नवीन सेवाएँ जैसे, इंटरनेट कैफे, ए.टी.एम. बूथ, कॉल सेंटर, सॉफ्टवेयर कम्पनी इत्यादि भी महत्त्वपूर्ण हो गई हैं।

तीन क्षेत्रकों की तुलना

प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्रक के विविध उत्पादन कार्यों से काफी अधिक मात्रा में वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन होता है। साथ ही, इन क्षेत्रकों में काफी अधिक संख्या में लोग वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन के लिए काम करते हैं। इसलिए, अगले चरण में यह देखना है कि प्रत्येक क्षेत्रक में कितनी वस्तुएँ और सेवाएँ उत्पादित होती हैं और कितने लोग उस क्षेत्रक में काम करते हैं। किसी अर्थव्यवस्था में कुल उत्पादन और रोजगार की दृष्टि से एक या अधिक क्षेत्रक प्रधान होते हैं, जबकि अन्य क्षेत्रक अपेक्षाकृत छोटे आकार के होते हैं।

प्रत्येक क्षेत्रक की विविध वस्तुओं और सेवाओं की हम गणना कैसे करते हैं और कुल उत्पादन को कैसे जानते हैं?

आप सोचते होंगे कि हज़ारों की संख्या में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं की गणना करना असंभव कार्य है। यह न केवल वृहद् कार्य है, बल्कि आप आश्चर्यचकित भी होंगे कि हम कारों और कम्प्यूटरों, कीलों और फर्नीचरों की संख्या का योगफल कैसे कर सकते हैं। यह अत्यंत बेतुकी बात है।

आप बिल्कुल सही सोचते हैं। इस समस्या के समाधान के लिए अर्थशास्त्रियों का सुझाव है कि वस्तुओं और सेवाओं की वास्तविक संख्याओं का योग करने के स्थान पर उनके मूल्य का उपयोग किया जाना चाहिए। जैसे, यदि 10,000कि.ग्रा. गेहूँ ₹20 प्रति कि.ग्रा. की दर से बेचा जाता है तो, गेहूँ का मूल्य ₹ 2,00,000 होगा। ₹15 प्रति नारियल की दर से 5000 नारियल का मूल्य ₹75,000 होगा। इसी प्रकार, तीनों क्षेत्रकों के वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य की गणना की जाती है और उसके बाद योगफल प्राप्त करते हैं।

ध्यान रखें कि यहाँ एक सावधानी बरतने की जरूरत है। उत्पादित और बेची गई प्रत्येक वस्तु (या सेवा) की गणना करने की ज़रूरत नहीं है। केवल अंतिम वस्तुओं और सेवाओं की गणना का ही औचित्य है। जैसे, एक किसान किसी आटा-मिल को ₹20 प्रति कि.ग्रा. की दर से गेहूँ बेचता है। मिल में गेहूँ की पिसाई होती है और बिस्कुट कंपनी को आटा ₹25 प्रति कि.ग्रा. की दर से बेचा जाता है। बिस्कुट कंपनी आटा के साथ चीनी एवं तेल जैसी चीज़ों का उपयोग करती है और बिस्कुट के चार पैकेट बनाती है। वह बाजार में उपभोक्ताओं को ₹80 में (₹20 प्रति पैकेट) बिस्कुट बेचती है। अतः बिस्कुट ही अंतिम उत्पाद है, अर्थात् वह वस्तु जो उपभोक्ताओं तक पहुँचती है।

केवल ‘अंतिम वस्तुओं और सेवाओं’ की ही गणना क्यों की जाती है? दिए गए उदाहरण में अंतिम वस्तु के विपरीत गेहूँ और आटा जैसी वस्तुएँ मध्यवर्ती वस्तुएँ हैं। मध्यवर्ती वस्तुएँ, अंतिम वस्तुओं और सेवाओं के निर्माण में इस्तेमाल की जाती हैं। अंतिम वस्तुओं के मूल्य में मध्यवर्ती वस्तुओं का मूल्य पहले से ही शामिल होता है। बिस्कुट (अंतिम वस्तु) के मूल्य ₹80 में पहले से ही आटा का मूल्य (₹25) शामिल है। इसी प्रकार अन्य सभी मध्यवर्ती वस्तुओं का मूल्य भी शामिल होगा। अतः गेहूँ और आटा के मूल्य की अलग-अलग गणना उचित नहीं है, क्योंकि तब हम एक ही वस्तु के मूल्य की गणना कई बार करते हैं। पहले गेहूँ के रूप में, फिर आटा के रूप में और अंततः अंतिम वस्तु बिस्कुट के रूप में मूल्य की कई बार गणना करते हैं।

भारत में स. घ. उ. मापन जैसा कठिन कार्य केन्द्र सरकार के मंत्रालय द्वारा किया जाता है। यह मंत्रालय राज्यों एवं केन्द्र शासित क्षेत्रों के विभिन्न सरकारी विभागों की सहायता से वस्तुओं और सेवाओं की कुल संख्या और उनके मूल्य से संबंधित सूचनाएँ एकत्र करता है और तब जी. डी. पी. का अनुमान करता है।

क्षेत्रकों में ऐतिहासिक परिवर्तन

सामान्यतया, अधिकांश विकसित देशों के इतिहास में यह देखा गया है कि विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में प्राथमिक क्षेत्रक ही आर्थिक सक्रियता का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रक रहा है।

जैसे-जैसे कृषि-प्रणाली परिवर्तित होती गई और कृषि क्षेत्रक समृद्ध होता गया, वैसे-वैसे पहले की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक उत्पादन होने लगा। अब अनेक लोग दूसरे कार्य करने लगे। शिल्पियों और व्यापारियों की संख्या में वृद्धि होने लगी। क्रय-विक्रय की गतिविधियाँ कई गुना बढ़ गई। इसके अतिरिक्त अनेक लोग परिवहन, प्रशासक और सैनिक कार्य इत्यादि से जुड़ने लगे। फिर भी, इस अवस्था में अधिकांश उत्पादित वस्तुएँ प्राकृतिक उत्पाद थी, जो प्राथमिक क्षेत्रक में आती थीं और अधिकांश लोग इसी क्षेत्रक में रोजगार करते थे। लम्बे समय (सौ वर्षों से अधिक) के बाद और विशेषकर विनिर्माण की नवीन प्रणाली के प्रचलन से कारखाने अस्तित्व में आए और उनका प्रसार होने लगा। जो लोग पहले खेतों में काम करते थे, उनमें से बहुत अधिक लोग अब कारखानों में काम करने लगे। उन्हें कारखानों में काम करने के लिए मजबूर किया गया, जैसा कि आपने इतिहास में पढ़ा है। कारखानों में सस्ती दरों पर उत्पादित वस्तुओं का लोग इस्तेमाल करने लगे। कुल उत्पादन एवं रोजगार की दृष्टि से द्वितीयक क्षेत्रक सबसे महत्त्वपूर्ण हो गया। इस कारण अतिरिक्त समय में भी काम होने लगा। इसका अर्थ है कि क्षेत्रकों का महत्त्व परिवर्तित हो गया।

विगत 100 वर्षों में, विकसित देशों में द्वितीयक क्षेत्रक से तृतीयक क्षेत्रक की ओर पुनः बदलाव हुआ है। कुल उत्पादन की दृष्टि से सेवा क्षेत्रक का महत्त्व बढ़ गया। अधिकांश श्रमजीवी लोग सेवा क्षेत्रक में ही नियोजित हैं। विकसित देशों में यही सामान्य लक्षण देखा गया है।

भारत में तीनों क्षेत्रकों का कुल उत्पादन और रोजगार कितना है? विगत वर्षों में विकसित देशों में देखे गए पैटर्न के समरूप क्या भारत में भी परिवर्तन हुआ है। हम इसे अगले खंड में देखेंगे।

भारत में प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रक

आलेख 1 – तीनों क्षेत्रकों द्वारा उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं को दिखाता है। यह दो वर्षों 1973-74 और 2013-14 के उत्पादन को दिखाता है। हमने इन दो वर्षों के लिए आंकड़ों का उपयोग किया है। क्योंकि यह आंकड़े तुलनीय और प्रामाणिक हैं। आप देख सकते हैं कि चालीस वर्षों में कुल उत्पादन में कितनी संवृद्धि हुई है।

उत्पादन में तृतीयक क्षेत्रक का बढ़ता महत्त्व

वर्ष 1973-74 और 2013-14 के बीच चालीस वर्षों में यद्यपि सभी क्षेत्रकों में उत्पादन में वृद्धि हुई, परन्तु सबसे अधिक वृद्धि तृतीयक क्षेत्रक के उत्पादन में हुई। परिणामतः वर्ष 2013-14 में भारत में प्राथमिक क्षेत्रक को प्रतिस्थापित करते हुए तृतीयक क्षेत्रक सबसे बड़े उत्पादक क्षेत्रक के रूप में उभरा।

भारत में तृतीयक क्षेत्रक इतना महत्त्वपूर्ण क्यों हो गया? इसके कई कारण हो सकते हैं।

प्रथम, किसी भी देश में अनेक सेवाओं, जैसे- अस्पताल, शैक्षिक संस्थाएँ, डाक एवं तार सेवा, थाना, कचहरी, ग्रामीण प्रशासनिक कार्यालय, नगर निगम, रक्षा, परिवहन, बैंक, बीमा कंपनी इत्यादि की आवश्यकता होती है। इन्हें बुनियादी सेवाएँ माना जाता है। किसी विकासशील देश में इन सेवाओं के प्रबंधन की जिम्मेदारी सरकार उठाती है।

द्वितीय, कृषि एवं उद्योग के विकास से परिवहन, व्यापार, भण्डारण जैसी सेवाओं का विकास होता है। प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक का विकास जितना अधिक होगा, ऐसी सेवाओं की माँग उतनी ही अधिक होगी।

तृतीय, जैसे-जैसे आय बढ़ती है, कुछ लोग अन्य कई सेवाओं जैसे रेस्तरां, पर्यटन, शॉपिंग, निजी अस्पताल, निजी विद्यालय, व्यावसायिक प्रशिक्षण इत्यादि की माँग शुरू कर देते हैं। आप नगरों में, विशेषकर बड़े नगरों में इस द्रुत परिवर्तन को देख सकते हैं।

चतुर्थ, विगत दशकों में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी पर आधारित कुछ नवीन सेवाएँ महत्त्वपूर्ण एवं अपरिहार्य हो गई हैं। इन सेवाओं के उत्पादन में तीव्र वृद्धि हो रही है। अध्याय-4 में हम इन नवीन सेवाओं और इनके प्रसार के कारणों की चर्चा करेंगे।

अंततः, आपको याद रखना चाहिए कि सेवा क्षेत्रक की सभी सेवाओं में समान रूप से संवृद्धि नहीं हो रही है। भारत में सेवा क्षेत्रक कई तरह के लोगों को नियोजित करते हैं। एक ओर, उन सेवाओं की संख्या सीमित है, जिसमें अत्यन्त कुशल और शिक्षित श्रमिकों को रोज़गार मिलता है। दूसरी ओर, बहुत अधिक संख्या में लोग छोटी दुकानों, मरम्मत कार्यों, परिवहन जैसी सेवाओं में लगे हुए हैं। वे लोग बड़ी मुश्किल से जीविका निर्वाह कर पाते हैं और वे इन सेवाओं में इसलिए लगे हुए हैं क्योंकि उनके पास कोई अन्य वैकल्पिक अवसर नहीं है। इस कारण सेवा क्षेत्रक के केवल कुछ भागों का ही महत्त्व बढ़ रहा है। आप इनके बारे में अगले खंड में विस्तार से पढेंगे।

अधिकांश लोग कहाँ नियोजित हैं?

आलेख 2- स. घ. उ. में तीनों क्षेत्रकों की प्रतिशत हिस्सेदारी प्रस्तुत करता है। अब आप चालीस वर्षों में क्षेत्रकों के बदलते महत्त्व को प्रत्यक्षतः देख सकते हैं।

भारत के संदर्भ में एक उल्लेखनीय तथ्य है कि यद्यपि स. घ. उ. में तीनों क्षेत्रकों की हिस्सेदारी में परिवर्तन हुआ है, फिर भी रोज़गार में ऐसा ही परिवर्तन नहीं हुआ है। आरेख 3 वर्ष 1977-78 एवं 2017-18 और वर्ष 2003 में तीनों क्षेत्रकों में रोजगार की हिस्सेदारी को दिखाता है। आज भी प्राथमिक क्षेत्र में सबसे बड़ा नियोक्ता है।

प्राथमिक क्षेत्रक से रोज़गार का ऐसा ही क्षेत्रक स्थानान्तरण क्यों नहीं हुआ? इसका कारण यह है कि द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रक में रोजगार के पर्याप्त अवसरों का सृजन नहीं हुआ। यद्यपि इस अवधि में वस्तुओं के औद्योगिक उत्पादन में 3 गुना से ज्यादा वृद्धि हुई परन्तु औद्योगिक रोज़गार में लगभग 3 गुना ही वृद्धि हुई। तृतीयक क्षेत्रक पर भी यही बात लागू होती है। सेवा क्षेत्रक में उत्पादन में 14 गुना वृद्धि हुई, परन्तु रोज़गार में 5 गुना से भी कम वृद्धि हुई।

परिणामतः, देश में आधे से अधिक श्रमिक प्राथमिक क्षेत्रक, मुख्यतः कृषि क्षेत्र, में काम कर रहे हैं जिसका स. घ. उ. में योगदान लगभग एक-छठा भाग है। इसकी तुलना में द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रक का स. घ. उ. में बाकी हिस्सा है। परन्तु, ये क्षेत्र कम लोगों को रोज़गार प्रदान करते हैं। क्या इसका अर्थ यह है कि कृषि क्षेत्र में लगे श्रमिक अपनी क्षमता से कम उत्पादन कर रहे हैं?

क्या इसका अर्थ यह है कि कृषि में आवश्यकता से अधिक लोग लगे हुए है? अतएव, यदि आप कुछ लोगों को कृषि क्षेत्र से हटा देते हैं, तब भी उत्पादन प्रभावित नहीं होगा। दूसरे शब्दों में, कृषि क्षेत्रक के श्रमिकों में अल्प बेरोजगारी है।

एक छोटी किसान लक्ष्मी का उदाहरण लेते हैं, जिसके पास दो हेक्टेयर असिंचित भूमि है, जो सिंचाई के लिए केवल वर्षा पर निर्भर है और ज्वार एवं अरहर जैसी फसलें उपजाती है। उसके परिवार के सभी पाँच सदस्य उस भूमि पर वर्ष भर काम करते हैं। क्यों? क्योंकि उन्हें कहीं और रोज़गार उपलब्ध नहीं है। आप देखेंगे कि प्रत्येक व्यक्ति काम कर रहा है, कोई बेकार नहीं है। परन्तु, वास्तव में उनका श्रम-प्रयास विभाजित है। प्रत्येक व्यक्ति कुछ काम कर रहा है परन्तु किसी को भी पूर्ण रोजगार प्राप्त नहीं है। यह अल्प बेरोज़गारी की स्थिति है, जहाँ लोग प्रत्यक्ष रूप से काम कर रहे हैं, लेकिन सभी अपनी क्षमता से कम काम करते है। इस प्रकार की अल्प बेरोजगारी को छिपी हुई बेरोजगारी कहते हैं क्योंकि यह उन लोगों की बेरोजगारी, जिनके पास कोई रोज्ज्रगार नहीं है और बेकार बैठे हुए हैं, से अलग है (खुली बेरोज्ज्रगारी)। इसलिए इसे प्रच्छन्न बेरोजगारी भी कहा जाता है।

अब मान लेते हैं कि एक भूस्वामी सुखराम आता है और अपनी जमीन पर काम करने के लिए लक्ष्मी के परिवार के एक या दो सदस्यों को भाड़े पर ले जाता है। अब लक्ष्मी के परिवार को मज़दूरी के द्वारा कुछ अतिरिक्त आय होती है। चूँकि आपको छोटे से भूखंड पर काम करने के लिए पाँच लोगों की ज़रूरत नहीं है, अतः दो लोगों के चले जाने से कृषि उत्पादन प्रभावित नहीं होता है। दिए गए उदाहरण में, दो सदस्य किसी कारखाने में भी काम करने के लिए जा सकते हैं। एक बार फिर परिवार की कमाई में वृद्धि होगी और वे लोग अपनी भूमि से पहले जैसा उत्पादन करते रहेंगे।

भारत में लक्ष्मी की तरह लाखों किसान हैं। इसका अर्थ है कि यदि हम कुछ लोगों को कृषि क्षेत्रक से हटाकर उन्हें कहीं और समुचित रोज़गार उपलब्ध करा दें, तो भी कृषि उत्पादन पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा। कोई अन्य रोजगार करने से लोगों की आय से परिवार की कुल आय में वृद्धि होगी।

अल्प बेरोज़गारी दूसरे क्षेत्रकों में भी हो सकती है। उदाहरण के लिए, शहरों में सेवा क्षेत्रक में हजारों अनियत श्रमिक हैं जो दैनिक रोज़गार की तलाश करते हैं। वे प्लम्बर, पेन्टर, मरम्मत कार्य जैसे रोजगार करते हैं और अन्य लोग असुविधाजनक विषम काम करते हैं। उनमें से कई रोज़ाना काम नहीं पाते हैं। इसी प्रकार हम सेवा क्षेत्रक के कुछ लोगों को सड़कों पर ठेला खींचते अथवा कुछ चीजें बेचते हुए देखते हैं, जहाँ वे पूरा दिन बिता देते हैं, परन्तु बहुत कम कमा पाते हैं। वे यह काम इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि उनके पास कोई बेहतर अवसर नहीं है।

अतिरिक्त रोज़गार का सृजन कैसे हो?

उपर्युक्त चर्चा से हम देख सकते हैं कि कृषि क्षेत्र में अल्प बेरोजगारी की गंभीर स्थिति बनी हुई है। कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें बिल्कुल रोजगार नहीं मिला है। लोगों के लिए रोजगार की वृद्धि कैसे की जा सकती है? हम कुछ तरीकों को देखते हैं।

हम लक्ष्मी और उसके दो हेक्टेयर असिंचित भूखंड का उदाहरण लेते हैं। उसके परिवार की भूमि की सिंचाई हेतु एक कुएँ का निर्माण करने के लिए सरकार कुछ मुद्रा व्यय कर सकती है या बैंक ऋण प्रदान कर सकता है। तब लक्ष्मी अपनी भूमि की सिंचाई करने में सक्षम होगी और रबी मौसम में एक दूसरी फसल गेहूँ उपजाएगी हम मान लेते हैं कि एक हेक्टेयर गेहूँ की फसल दो लोगों को 50 दिनों (बीज डालने, पानी देने, खाद डालने और कटाई में) तक रोजगार प्रदान कर सकती है। अतः परिवार के दो अन्य सदस्यों को अपनी जमीन में रोजगार मिल सकता है। अब मान लेते हैं कि ऐसे कई खेतों की सिंचाई के लिए एक नये बाँध का निर्माण किया जाता है अथवा एक नहर खोदी जाती है। इससे कृषि क्षेत्र में रोज़गार के अनेक अवसर सृजित हो सकेंगे और अल्प बेरोजगारी की समस्या अपने-आप कम हो जाएगी।

अब मान लेते हैं कि लक्ष्मी और दूसरे किसान पहले की तुलना में अधिक उत्पादन करते हैं। उन्हें कुछ उत्पाद बेचने की भी आवश्यकता होगी? इसके लिए उन्हें अपना उत्पाद नजदीक के शहर में ले जाने की आवश्यकता हो सकती है। यदि सरकार परिवहन और फसलों के भण्डारण पर अथवा बेहतर ग्रामीण सड़कों के निर्माण पर कुछ पैसा निवेश करती है तो छोटे ट्रक सब जगह पहुँच जाते हैं। इस तरीके से लक्ष्मी जैसे अनेक किसान, जिन्हें अब पानी की सुविधा उपलब्ध है, फसलों की उपज और विक्रय कर सकते हैं। इस कार्य से केवल किसानों को ही उत्पादक रोज़गार उपलब्ध नहीं हो सकता है, बल्कि परिवहन और व्यापार जैसी सेवाओं में लगे लोगों को भी रोजगार प्राप्त हो सकता है।

लक्ष्मी की ज़रूरत केवल पानी तक ही सीमित नहीं है। खेती करने के लिए उसे बीज, उर्वरक, कृषिगत उपकरण और पानी निकालने के लिए पम्पसेट की भी ज़रूरत है। एक निर्धन किसान होने के कारण वह सभी चीजों पर खर्च नहीं कर सकती। इसलिए उसे साहूकार से पैसा उधार लेना होगा और उच्च ब्याज दर पर वापस करना पड़ेगा। यदि स्थानीय बैंक उचित ब्याज दर पर उसे साख प्रदान करता है, तो वह इन सभी चीजों को उचित समय पर खरीदने और अपनी भूमि पर खेती करने में सक्षम होगी। तात्पर्य यह है कि पानी के साथ-साथ कृषि में सुधार के लिए किसानों को सस्ते कृषि साख भी प्रदान करने की ज़रूरत है। हम अध्याय-4 मुद्रा एवं साख में कुछ आवश्यकताओं का अध्ययन करेंगे।

हम एक अन्य तरीके से इस समस्या का समाधान कर सकते हैं। वह तरीका है अर्द्ध-ग्रामीण क्षेत्रों में उन उद्योगों और सेवाओं की पहचान करना और उन्हें बढ़ावा देना, जहाँ बहुत अधिक लोग नियोजित किए जा सकें। उदाहरण के लिए, मान लेते हैं कि अनेक किसान अरहर और मटर (दलहन फसलें) उपजाने का निर्णय करते हैं। इनकी वसूली और प्रसंस्करण के लिए तथा शहरों में विक्रय करने के लिए दाल मिल की स्थापना एक ऐसा ही उदाहरण है। शीत भण्डारण गृहों के खुलने से किसानों को एक अवसर मिलेगा कि वे अपने आलू और प्याज जैसे उत्पादों का भण्डारण कर सके और अच्छी कीमत मिलने पर बेच सकें। वन क्षेत्रों के निकटवर्ती गाँवों में हम शहद संग्रह केन्द्रों की शुरुआत कर सकते हैं, जहाँ किसान वनों से प्राप्त शहद बेच सकें। सब्जियों और कृषिगत उत्पादों, जैसे आलू, शकरकंद, चावल, गेहूँ, टमाटर और फल इत्यादि, जिसे बाहरी बाज़ारों में बेचा जा सके, के लिए प्रसंस्करण उद्योगों की स्थापना की जा सकती है। यह अर्द्ध-ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित उद्योगों में रोजगार प्रदान करेगा।

क्या आप जानते हैं कि भारत में 60 प्रतिशित जनसंख्या 5-29 वर्ष आयु की है। इनमें से 51 प्रतिशत के लगभग ही विद्यालय जाते हैं। शेष, खास करके 18 वर्ष या उससे कम आयु के बच्चे विद्यालय नहीं जाते हैं। वे या तो घर पर रहते होंगे या उनमें से अधिकतर बाल श्रमिक के रूप में काम कर रहे होंगे। यदि ये बच्चे भी विद्यालय जाने लगें तो हमें और अधिक भवनों, अध्यापकों और अन्य कर्मचारियों की आवश्यकता होगी। योजना आयोग (पूर्व) वर्तमान में नीति आयोग द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, अकेले शिक्षा क्षेत्र में लगभग 20 लाख रोजगारों का सृजन किया जा सकता है। इसी प्रकार, यदि हमें स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार करना है तो हमें ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाले और अधिक डॉक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्य कर्मचारियों की आवश्यकता पड़ेगी। ये कुछ ऐसे तरीके हैं जिनसे रोज़गार का सृजन होगा और हम विकास के महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर विचार कर पाने में भी सक्षम होंगे, जिन पर हम अध्याय-1 में चर्चा कर चुके हैं।

प्रत्येक राज्य या प्रदेश में वहाँ के निवासियों की आय और उनके रोज़गार में वृद्धि करने की संभावना होती है। यह पर्यटन अथवा क्षेत्रीय शिल्प उद्योग अथवा सूचना प्रौद्योगिकी जैसी नवीन सेवाओं के माध्यम से हो सकता है। इनमें से कुछ के लिए समुचित योजना एवं सरकारी सहायता की आवश्यकता होगी। उदाहरण के लिए, योजना आयोग के अध्ययन के अनुसार यदि पर्यटन क्षेत्र में सुधार होता है तो हम प्रतिवर्ष 35 लाख से अधिक लोगों को अतिरिक्त रोजगार प्रदान कर सकते हैं।

हम जानते हैं कि चर्चा किए गए कुछ सुझावों के अमल में लंबा समय लगेगा। अतः छोटी अवधि के लिए हमें कुछ द्रुत उपायों की ज़रूरत है। इसे ध्यान में रखते हुए केन्द्र सरकार ने अभी भारत के लगभग 625 जिलों में काम का अधिकार लागू करने के लिए एक कानून बनाया है। इसे महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम- 2005 (म.गाँ.रा.ग्रा.रो.गा.अ.-2005) कहते हैं। म. गाँ.रा. ग्रा.रो.गा.अ.-2005 के अन्तर्गत उन सभी लोगों, जो काम करने में सक्षम हैं और जिन्हें काम की ज़रूरत है, को सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में वर्ष में 100 दिन के रोज़गार की गारंटी दी गई है। यदि सरकार रोज़गार उपलब्ध कराने में असफल रहती है तो वह लोगों को बेरोज़गारी भत्ता देगी। अधिनियम के अन्तर्गत उस तरह के कामों को वरीयता दी जाएगी, जिनसे भविष्य में भूमि से उत्पादन बढ़ाने में मदद मिलेगी।

संगठित और असंगठित के रूप में क्षेत्रकों का विभाजन

अब हम आर्थिक कार्यों को विभाजित करने के एक अन्य तरीके का परीक्षण करते हैं। इसे लोगों के नियोजित होने के आधार पर देखते हैं। उनके काम करने की शर्तें क्या है? क्या कोई नियम और विनियम है, जिनका उनके रोजगार के संदर्भ में अनुपालन किया जाता है?

कान्ता

कमल

कान्ता संगठित क्षेत्रक में काम करती है। संगठित क्षेत्रक में वे उद्यम अथवा कार्य-स्थान आते हैं जहाँ रोजगार की अवधि नियमित होती है और इसलिए लोगों के पास सुनिश्चित काम होता है। वे क्षेत्रक सरकार द्वारा पंजीकृत होते हैं और उन्हें सरकारी नियमों एवं विनियमों का अनुपालन करना होता है। इन नियमों एवं विनियमों का अनेक विधियों, जैसे, कारखाना अधिनियम, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, सेवानुदान अधिनियम, दुकान एवं प्रतिष्ठान अधिनियम, इत्यादि में उल्लेख किया गया है। इसे संगठित क्षेत्रक कहते हैं क्योंकि इसकी कुछ औपचारिक प्रक्रिया एवं कार्यविधि है। कुछ लोग किसी के द्वारा नियोजित नहीं होते बल्कि वे स्वतः काम कर सकते हैं। परन्तु वे भी अपने को सरकार के समक्ष पंजीकृत कराते हैं और नियमों एवं विनियमों का अनुपालन करते हैं।

संगठित क्षेत्रक के कर्मचारियों को रोज़गार-सुरक्षा के लाभ मिलते हैं। उनसे एक निश्चित समय तक ही काम करने की आशा की जाती है। यदि वे अधिक काम करते हैं तो नियोक्ता द्वारा उन्हें अतिरिक्त वेतन दिया जाता है। वे नियोक्ता से कई दूसरे लाभ भी प्राप्त करते हैं। ये लाभ क्या हैं? सवेतन छुट्टी, अवकाश काल में भुगतान, भविष्य निधि, सेवानुदान इत्यादि पाते हैं। वे चिकित्सीय लाभ पाने के हकदार होते हैं और नियमों के अनुसार कारखाना मालिक को पेयजल और सुरक्षित कार्य-पर्यावरण जैसी सुविधाओं को सुनिश्चित करना होता है। जब वे सेवानिवृत होते हैं, तो पेंशन भी प्राप्त करते हैं।

इसके विपरीत, कमल असंगठित क्षेत्रक में काम करता है। असंगठित क्षेत्रक छोटी-छोटी और बिखरी इकाइयों, जो अधिकांशतः सरकारी नियंत्रण से बाहर होती हैं, से निर्मित होता है। इस क्षेत्रक के नियम और विनियम तो होते हैं परंतु उनका अनुपालन नहीं होता है। वे कम वेतन वाले रोजगार हैं और प्रायः नियमित नहीं हैं। यहाँ अतिरिक्त समय में काम करने, सवेतन छुट्टी, अवकाश, बीमारी के कारण छुट्टी इत्यादि का कोई प्रावधान नहीं है। रोजगार सुरक्षित नहीं है। श्रमिकों को बिना किसी कारण काम से हटाया जा सकता है। कुछ मौसमों में जब काम कम होता है, तो कुछ लोगों को काम से छुट्टी दे दी जाती है। बहुत से लोग नियोक्ता की पसन्द पर निर्भर होते हैं।

इस क्षेत्रक में काफी संख्या में लोग अपने-अपने छोटे कार्यों, जैसे- सड़कों पर विक्रय अथवा मरम्मत कार्य में स्वतः नियोजित हैं। इसी प्रकार किसान अपने खेतों में काम करते हैं और जरूरत पड़ने पर मज़दूरी पर श्रमिकों को लगाते हैं।

असंगठित क्षेत्रक के श्रमिकों का संरक्षण कैसे हो?

संगठित क्षेत्रक अत्यधिक माँग पर ही रोज़गार प्रस्तावित करता है। लेकिन संगठित क्षेत्रक में रोज़गार के अवसरों में अत्यंत धीमी गति से वृद्धि हो रही है। यह भी आम तौर पर पाया जाता है कि संगठित क्षेत्रक, असंगठित क्षेत्रक के रूप में काम करते हैं। वे ऐसी रणनीति, कर वंचन एवं श्रमिकों को संरक्षण प्रदान करने वाली विधियों के अनुपालन से बचने के लिए अपनाते हैं। परिणामतः बहुत से श्रमिक असंगठित क्षेत्रक में काम करने के लिए विवश हुए हैं, जहाँ बहुत कम वेतन मिलता है। उनका प्रायः शोषण किया जाता है और उन्हें उचित मज़दूरी नहीं दी जाती है। उनकी आय कम है और नियमित नहीं है। इस रोजगार में संरक्षण नहीं है और न ही इसमें कोई लाभ है।

सन् 1990 से यह भी देखा गया है कि संगठित क्षेत्रक के बहुत अधिक श्रमिक अपना रोज़गार खोते जा रहे हैं। ये लोग असंगठित क्षेत्रक में कम वेतन पर काम करने के लिए विवश हैं। अतः असंगठित क्षेत्रक में और अधिक रोज़गार की ज़रूरत के अलावा श्रमिकों को संरक्षण और सहायता की भी आवश्यकता है।

ये लाचार लोग कौन हैं जिन्हें संरक्षण की आवश्यकता है? ग्रामीण क्षेत्रों में, असंगठित क्षेत्रक मुख्यतः भूमिहीन कृषि श्रमिकों, छोटे और सीमांत किसानों, फसल बँटाईदारों और कारीगरों (जैसे बुनकरों, लुहारों, बढ़ई और सुनार) से रचित होता है। भारत में लगभग 80 प्रतिशत ग्रामीण परिवार छोटे और सीमांत किसानों की श्रेणी में आते हैं। इन किसानों को समय से बीज, कृषि-उपकरणों, साख, भण्डारण सुविधा और विपणन केन्द्र की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध कराने की जरूरत है।

शहरी क्षेत्रों में असंगठित क्षेत्रक मुख्यतः लघु उद्योगों के श्रमिकों, निर्माण, व्यापार एवं परिवहन में कार्यरत आकस्मिक श्रमिकों और सड़कों पर विक्रेता का काम करने वालों, सिर पर बोझा ढोने वाले श्रमिकों, वस्त्र-निर्माण करने वालों और कबाड़ उठाने वालों से रचित है। लघु उद्योगों को भी कच्चे माल की प्राप्ति और उत्पाद के विपणन के लिए सरकारी मदद की आवश्यकता होती है। आकस्मिक श्रमिकों को शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में संरक्षण दिए जाने की जरूरत है।

हम यह भी पाते हैं कि बहुसंख्यक श्रमिक अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ी जातियों से हैं, जो असंगठित क्षेत्रक में रोज़गार करते हैं। ये श्रमिक अनियमित और कम मज़दूरी पर काम करने के अलावा सामाजिक भेदभाव के भी शिकार हैं। अतः आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए असंगठित क्षेत्रक के श्रमिकों को संरक्षण और सहायता अनिवार्य है।

स्वामित्व आधारित क्षेत्रक सार्वजनिक और निजी क्षेत्रक

आर्थिक गतिविधियों को क्षेत्रकों में वर्गीकृत करने का एक अन्य तरीका हो सकता है- परिसंपत्तियों का स्वामी और सेवाओं की उपलब्धता के लिए ज़िम्मेदार व्यक्ति कौन है? सार्वजनिक क्षेत्रक में, अधिकांश परिसंपत्तियों पर सरकार का स्वामित्व होता है और सरकार ही सभी सेवाएँ उपलब्ध कराती है। निजी क्षेत्रक में परिसंपत्तियों पर स्वामित्व और सेवाओं के वितरण की ज़िम्मेदारी एकल व्यक्ति या कंपनी के हाथों में होता है। रेलवे अथवा डाकघर सार्वजनिक क्षेत्रक के उदाहरण हैं, जबकि टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड (टिस्को) अथवा रिलायंस इण्डस्ट्रीज लिमिटेड जैसी कम्पनियाँ निजी स्वामित्व में हैं।

निजी क्षेत्रक की गतिविधियों का ध्येय लाभ अर्जित करना होता है। इनकी सेवाओं को प्राप्त करने के लिए हमें इन एकल स्वामियों और कंपनियों को भुगतान करना पड़ता है। सार्वजनिक क्षेत्रक का ध्येय केवल लाभ कमाना नहीं होता है। सरकार सेवाओं पर किए गए व्यय की भरपाई करों या अन्य तरीकों से करती है। आधुनिक दिनों में सरकार सभी तरह की गतिविधियों पर व्यय करती है। ये गतिविधियाँ क्या हैं? सरकार ऐसी गतिविधियों पर व्यय क्यों करती है? ज्ञात करें।

कई ऐसी चीज़े हैं जिनकी आवश्यकता समाज के सभी सदस्यों को होती है, परन्तु जिन्हें निजी क्षेत्रक उचित कीमत पर उपलब्ध नहीं कराते हैं। क्यों? क्योंकि इनमें से कुछ चीज़ों पर बहुत अधिक पैसे खर्च करने पड़ते हैं, जो निजी क्षेत्रकों की क्षमता से बाहर होती हैं। इन चीज़ों का इस्तेमाल करने वाले हजारों लोगों से पैसा एकत्र करना भी आसान नहीं है। फिर, यदि वे चीज़ों को उपलब्ध कराते हैं तो वे इसकी ऊँची कीमत वसूलते हैं। जैसे, सड़कों, पूलों, रेलवे, पत्तनों, बिजली आदि का निर्माण और बाँध आदि से सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराना। इसीलिए सरकार ऐसे भारी व्यय स्वयं उठाती है और सभी लोगों के लिए इन सुविधाओं को सुनिश्चित करती है।

कुछ गतिविधियाँ ऐसी हैं, जिन्हें सरकारी समर्थन की जरूरत पड़ती है। निजी क्षेत्रक उन उत्पादनों अथवा व्यवसायों को तब तक जारी नहीं रख सकते, जब तक सरकार उन्हें प्रोत्साहित नहीं करती है। जैसे, उत्पादन मूल्य पर बिजली की बिक्री से बहुत से उद्योगों में वस्तुओं की उत्पादन लागत में वृद्धि हो सकती है। अनेक इकाइयाँ, विशेषकर लघु इकाईयाँ बन्द हो सकती हैं। यहाँ सरकार उस दर पर बिजली उत्पादन और वितरण के लिए कदम उठाती है जिस पर ये उद्योग बिजली खरीद सकते हैं। सरकार लागत का कुछ अंश वहन करती है।

इसी प्रकार, भारत सरकार किसानों से उचित मूल्य पर गेहूँ और चावल खरीदती है। इसे अपने गोदामों में भण्डारित करती है और राशन दुकानों के माध्यम से उपभोक्ताओं को कम मूल्य पर बेचती है। आपने कक्षा-9 में खाद्य सुरक्षा अध्याय में इसके बारे में पढ़ा है। सरकार लागत का कुछ भाग वहन करती है। इस प्रकार, सरकार किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को सहायता पहुँचाती है।

अधिकतर आर्थिक गतिविधियाँ ऐसी हैं, जिनकी प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार पर है। इन पर व्यय करना सरकार की अनिवार्यता है।

जैसे-सभी के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाएँ उपलब्ध कराना। हमने पहले अध्याय में कुछ गतिविधियों पर विचार किया है। समुचित ढंग से विद्यालय चलाना और गुणात्मक शिक्षा, विशेषकर प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराना सरकार का कर्त्तव्य है। भारत में निरक्षरों की संख्या विश्व में सबसे अधिक है।

इसी प्रकार, हम जानते हैं कि भारत के लगभग आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और उनमें से एक-चौथाई गंभीर रूप से बीमार हैं। हमने शिशु मृत्यु दर के बारे में पढ़ा है। ओडिशा (40) अथवा मध्य प्रदेश (48) का शिशु मृत्यु दर विश्व के कुछ निर्धनतम भागों से अधिक है। सरकार को भी मानव विकास के पक्षों, जैसे सुरक्षित पेयजल की उपलब्धता, निर्धनों के लिए आवासीय सुविधाएँ और भोजन एवं पोषण पर ध्यान देने की ज़रूरत है। सरकार का यह भी कर्त्तव्य है कि वह बजट बढ़ाकर अत्यन्त निर्धनों की और देश के पूर्णतया उपेक्षित भागों की देखभाल करे।

सारांश

इस अध्याय में हमने आर्थिक गतिविधियों को कुछ सार्थक समूहों में विभाजित करने के तरीकों का अध्ययन किया। इसका एक तरीका यह परीक्षण करना है कि गतिविधि प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रक में से किससे संबंधित है। भारत के विगत तीस वर्षों के आँकड़े प्रदर्शित करते हैं कि यद्यपि जी. डी. पी. में सबसे अधिक योगदान तृतीयक क्षेत्रक में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं का है, लेकिन रोज़गार अधिकांशतः प्राथमिक क्षेत्रक में ही मिलता है। हमने यह भी देखा है कि देश में रोज़गार के अवसरों की वृद्धि के लिए क्या किया जा सकता है। दूसरे वर्गीकरण में हम संगठित या असंगठित क्षेत्रक में काम करने वाले लोगों पर विचार करते हैं। अधिकांशतः लोग असंगठित क्षेत्रक में काम कर रहे हैं और उनके लिए संरक्षण अनिवार्य है। हमने सार्वजनिक और निजी क्षेत्रकों की गतिविधियों के बीच अंतर का अध्ययन किया और देखा कि सार्वजनिक गतिविधि यों को कुछ निश्चित क्षेत्रों पर केन्द्रित करना अनिवार्य क्यों है।

यह भी पढ़ें : विकास : अध्याय 1

अभ्यास

1. कोष्ठक में दिए गए सही विकल्प का प्रयोग कर रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए

(क) सेवा क्षेत्रक में रोजगार में उत्पादन के समान अनुपात में वृद्धि नहीं हुई है। (हुई है/नहीं हुई है)

(ख) तृतीयक क्षेत्रक के श्रमिक वस्तुओं का उत्पादन नहीं करते हैं। (तृतीयक/कृषि)

(ग) संगठित क्षेत्रक के अधिकांश श्रमिकों को रोजगार सुरक्षा प्राप्त होती है। (संगठित/असंगठित)

(घ) भारत में बड़े अनुपात में श्रमिक असंगठित क्षेत्रक में काम कर रहे हैं। (बड़े/छोटे)

(ङ) कपास एक प्राकृतिक उत्पाद है और कपड़ा एक विनिर्मित उत्पाद है। (प्राकृतिक/विनिर्मित)

(च) प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रकों की गतिविधियाँ परस्पर निर्भर है। (स्वतंत्र/परस्पर निर्भर)

2. सही उत्तर का चयन करें

(अ) सार्वजनिक और निजी क्षेत्रक आधार पर विभाजित हैं:

(क) रोजगार की शर्तों
(ख) आर्थिक गतिविधि के स्वभाव
(ग) उद्यमों के स्वामित्व
(घ) उद्यम में नियोजित श्रमिकों की संख्या

Ans. (ग) उद्यमों के स्वामित्व

(ब) एक वस्तु का अधिकांशतः प्राकृतिक प्रक्रिया से उत्पादन क्षेत्रक की गतिविधि है।

(क) प्राथमिक
(ख) द्वितीयक
(ग) तृतीयक
(घ) सूचना प्रौद्योगिकी

Ans. (क) प्राथमिक

(स) किसी वर्ष में उत्पादित कुल मूल्य को स. घ. व. कहते हैं।

(क) सभी वस्तुओं और सेवाओं
(ख) सभी अंतिम वस्तुओं और सेवाओं
(ग) सभी मध्यवर्ती वस्तुओं और सेवाओ
(घ) सभी मध्यवर्ती एवं अंतिम वस्तुओं और सेवाओं

Ans. (ख) सभी अंतिम वस्तुओं और सेवाओं

(द) स.घ.उ. के पदों में वर्ष 2013-14 के बीच तृतीयक क्षेत्रक की हिस्सेदारी… प्रतिशत है।

(क) 20 से 30
(ख) 30 से 40
(ग) 50 से 60
(घ) 60 से 70

Ans. (ग) 50 से 60

3. निम्नलिखित का मेल कीजिए –

कृषि क्षेत्रक की समस्याएँकुछ संभावित उपाय
1. असिंचित भूमि(अ) कृषि आधारित मिलों की स्थापना
2. फसलों का कम मूल्य(ब) सहकारी विपणन समितियाँ
3. कर्ज भार(स) सरकार द्वारा खाद्यान्नों की वसूली
4. मंदी काल में रोजगार का अभाव(द) सरकार द्वारा नहरों का निर्माण
5. कटाई के तुरंत बाद स्थानीय व्यापारियों को अपना अनाज बेचने की विवशता(ङ) कम ब्याज पर बैंकों द्वारा साख उपलब्ध कराना

Ans.

कृषि क्षेत्रक की समस्याएँकुछ संभावित उपाय
1. असिंचित भूमि(द) सरकार द्वारा नहरों का निर्माण
2. फसलों का कम मूल्य(स) सरकार द्वारा खाद्यान्नों की वसूली
3. कर्ज भार(ङ) कम ब्याज पर बैंकों द्वारा साख उपलब्ध कराना
4. मंदी काल में रोजगार का अभाव(अ) कृषि आधारित मिलों की स्थापना
5. कटाई के तुरंत बाद स्थानीय व्यापारियों को अपना अनाज बेचने की विवशता(ब) सहकारी विपणन समितियाँ

4. विषम की पहचान करें और बताइए क्यों?

(क) पर्यटन-निर्देशक, धोबी, दर्जी, कुम्हार
Ans.
निम्नलिखित में कुम्हार असंगत है क्योंकि यह द्वितीयक क्षेत्रक से संबंधित व्यवसाय है।

(ख) शिक्षक, डॉक्टर, सब्जी विक्रेता, वकील
Ans.
सब्जी विक्रेता असंगत है क्योंकि यह प्रत्यक्ष रूप में वस्तुएँ उपलब्ध कराता है जबकि शिक्षक, डॉ व वकील अपनी सेवाएं बेचते हैं।

(ग) डाकिया, मोची, सैनिक, पुलिस कांस्टेबल
Ans.
उपरोक्त में डाकिया, सैनिक तथा पुलिस कॉन्स्टेबल सरकारी क्षेत्र में कार्यरत होते हैं जबकि मोची निजी क्षेत्र में संबंधित है। अतः मोची असंगत है।

(घ) एम.टी.एन.एल., भारतीय रेल. एयर इण्डिया, जेट एयरवेज, ऑल इण्डिया रेडियो
Ans.
निम्नलिखित में सहारा एयरलाइंस एक निजी स्वामित्व वाली कंपनी है जबकि बाकी तीनों सरकारी कंपनियां है।

5. एक शोध छात्र ने सूरत शहर में काम करने वाले लोगों का अध्ययन करके निम्न आँकड़े जुटाए-

कार्य स्थानरोजगार की प्रकृतिश्रमिकों का प्रतिशत
सरकार द्वारा पंजीकृत कार्यालयों और कारखानों मेंसंगठित15
औपचारिक अधिकार-पत्र सहित बाजारों में अपनी दुकान, कार्यालय और क्लिनिक15
सड़कों पर काम करते लोग, निर्माण श्रमिक, घरेलू श्रमिक20
छोटी कार्यशालाएँ, जो प्राय: सरकार द्वारा पंजीकृत नहीं हैं

तालिका को पूरा कीजिए। इस शहर में असंगठित क्षेत्रक में श्रमिकों की प्रतिशतता क्या है?

Ans.

कार्य स्थानरोजगार की प्रकृतिश्रमिकों का प्रतिशत
सरकार द्वारा पंजीकृत कार्यालयों और कारखानों मेंसंगठित15
औपचारिक अधिकार- पत्र सहित बाजारों में अपनी दुकान, कार्यालय और क्लिनिकसंगठित15
सड़को पर काम करते लोग निर्माण श्रमिक, घरेलू श्रमिकअसंगठित20
छोटी कार्यशालाएं, जो प्रायः सरकार द्वारा पंजीकृत नहीं हैं।असंगठित20

6. क्या आप मानते हैं कि आर्थिक गतिविधियों का प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्र में विभाजन की उपयोगिता है? व्याख्या कीजिए कि कैसे?
Ans.
आर्थिक गतिविधियों का प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्र में विभाजन कई नजरिये से उपयोगी है। इस विभाजन से अर्थशास्त्रियों को किसी भी अर्थव्यवस्था में उपस्थित समस्याओं और अवसरों को समझने में मदद मिलती है। इससे मिली सूचना के आधार पर सरकार को समाज कल्याण के कार्यक्रम बनाने में मदद मिलती है। सरकार विभिन्न सेक्टरों में जरूरी सुधारों को लागू कर सकती है ताकि अर्थव्यवस्था में वृद्धि हो और रोजगार के नये अवसर तैयार हों।

अथवा

हमारे आसपास विभिन्न लोग विभिन्न प्रकार के आर्थिक गतिविधियो में कार्यरत पाए जाते हैं। जिनमें से कुछ वस्तुओं का उत्पादन करते हैं तो कुछ अन्य विभिन्न प्रकार के अन्य गतिविधियों को संचालित करते हैं। इन सब गतिविधियों को समझने का सबसे सरल तरीका यही है कि महत्वपूर्ण मानदंडों के आधार पर इन्हें विभिन्न वर्गों में बांट दिया जाए। और यही तरीका हमने विभिन्न आर्थिक गतिविधियों को प्राथमिक ,द्वितीयक तथा तृतीयक क्षेत्र में बांटने के लिए अपनाया है जो सर्वथा उपयुक्त है। उदाहरण के लिए प्राथमिक क्षेत्र में केवल उन्हीं गतिविधियों को शामिल किया जाता है जिनमें प्राकृतिक संसाधनों का प्रत्यक्षत: उपयोग होता है जैसे विभिन्न प्रकार के कृषि कार्य तथा पशुपालन आदि।

इसी प्रकार द्वितीयक क्षेत्र में गतिविधियों में वे सब क्रियाएँ शामिल की जाती है, जो प्राथमिक क्षेत्र के संसाधनों का प्रयोग करते हुए विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करती है।

इसके अलावा तृतीयक क्षेत्र में वे सभी सेवाएं सम्मिलित की जाती है जो प्राथमिक तथा द्वितीयक क्षेत्र की क्रियाओं के विकास के लिए आवश्यक होती हैं।

7. इस अध्याय में आए प्रत्येक क्षेत्रक को रोजगार और सकल घरेलू उत्पाद (स.घ.उ.) पर ही क्यों केन्द्रित करना चाहिए? क्या अन्य वाद-पदों का परीक्षण किया जा सकता है? चर्चा करें।
Ans.
इस अध्याय में आए प्रत्येक क्षेत्र को रोजगार और सकल घरेलू उत्पाद पर ही केंद्रित करना चाहिए क्योंकि रोजगार और सकल घरेलू उत्पाद ही हमारी पंचवर्षीय योजनाओं के प्राथमिक लक्ष्य रहे हैं। दूसरे सकल घरेलू उत्पाद और रोजगार में वृद्धि दोनों ही आर्थिक विकास के दृष्टिकोण से अति महत्वपूर्ण है। इसके अलावा कुछ अन्य लक्ष्य भी हो सकते हैं, जैसे:

  • अर्थव्यवस्था में आय व धन की असमानता को कम करना।
  • आर्थिक विकास में क्षेत्रीय असमानता ओं को कम करना।

8. जीविका के लिए काम करने वाले अपने आसपास के वयस्कों के सभी कार्यों की लंबी सूची बनाइए। उन्हें आप किस तरीके से वर्गीकृत कर सकते हैं? अपने चयन की व्याख्या कीजिए।
Ans.

प्राइमरी सेक्टरकिसान, दूधवाला, मछली वाला, आदि
सेकंडरी सेक्टरफैक्ट्री में काम करने वाला इंजीनियर और फोरमैन
टरशियरी सेक्टरचार्टर्ड एकाउंटेंट, बैंकर, शिक्षक, डॉक्टर, आदि

अथवा

(a) जीविका के लिए काम करने वाले अपने आसपास के व्यस्को को हम विभिन्न आधारों पर वर्गीकृत कर सकते हैं। जैसे: उनके कार्य के प्रकृति किस प्रकार की है।
कार्य के प्रकृति के आधार पर हम विभिन्न आर्थिक क्रियाओं को निम्न तीन क्षेत्रो मे बांटते हैं:

  • प्राथमिक क्षेत्र- इसके अंतर्गत उन सभी क्रियाओं को शामिल किया जाता है जिनमें मुख्यतः प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग होता है जैसे- कृषि।
  • द्वितीयक क्षेत्र- इस क्षेत्र को विनिर्माण क्षेत्र भी कहा जाता है। इसके अंतर्गत प्राथमिक अथवा प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग करके उनसे वस्तुओं का निर्माण किया जाता है। जैसे -चीनी उद्योग, वस्त्र निर्माण आदि।
  • तृतीयक क्षेत्र- यह क्षेत्र मुख्यतः वे सेवाएं प्रदान करता है जो कि प्राथमिक तथा द्वितीयक क्षेत्र के विकास में सहयोगी सिद्ध होती है। इसके अंतर्गत सभी प्रकार के सार्वजनिक व निजी उद्यमों जैसे बैंकिंग, बीमा, रेलवे तथा संचार एवं परिवहन आदि को शामिल किया जाता है।

(b) इसी प्रकार रोजगार दशाओं के आधार पर भी लोगों को वर्गीकृत किया जा सकता है कि वे संगठित क्षेत्र में कार्यरत है या असंगठित क्षेत्र में।

(c) तीसरे व्यावसायिक इकाइयों के स्वामित्व के आधार पर भी उनकी आर्थिक गतिविधियों को वर्गीकृत किया जा सकता है कि क्या वे सार्वजनिक क्षेत्र के अधीन कार्यरत हैं या निजी क्षेत्र के।

9. तृतीयक क्षेत्रक अन्य क्षेत्रकों से कैसे भिन्न है? सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
Ans.

तृतीयक सेक्टरअन्य सेक्टर
किसी भी भौतिक वस्तु का निर्माण नहीं होता है।भौतिक वस्तु का निर्माण होता है।
मशीन की जरूरत नहीं पड़ती है।मशीन की जरूरत पड़ती है।
इस सेक्टर में श्रमिकों के मानसिक क्षमता की अधिक जरूरत पड़ती है।इस क्षेत्र में श्रमिकों के शारीरिक परिश्रम की अधिक जरूरत पड़ती है।
उदाहरण: डिजाइनर, शेफ, शिक्षक, वकील, आदि।उदाहरण: मिस्त्री, बढ़ई, राजमिस्त्री, आदि।

10. प्रच्छन्न बेरोजगारी से आप क्या समझते हैं? शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों से उदाहरण देकर व्याख्या कीजिए।
Ans.
प्रछन्न बेरोजगारी से अभिप्राय ऐसी बेरोजगारी से है जब लोग प्रत्यक्ष रूप में तो काम में लगे दिखाई देते हैं, परन्तु वास्तव में उनकी उत्पादकता शून्य होती है। अर्थात यदि उनको काम पर से हटा भी दिया जाए तो कुल उत्पादन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। भारत में भी कृषि क्षेत्र में बड़े पैमाने पर प्रच्छन्न अथवा छिपी हुई बेरोजगारी पाई जाती है। इसका प्रमुख कारण एक छोटे से भूमि के टुकड़े पर आवश्यकता से अधिक श्रमिको का काम पर लगे होना है। इसी प्रकार, शहरी क्षेत्रों में प्रच्छन्न बेरोजगारी सामान्यता छोटी दुकानों तथा छोटे व्यवसायों में पाई जाती है।

11. खुली बेरोजगारी और प्रच्छन्न बेरोजगारी के बीच विभेद कीजिए।
Ans.
खुली बेरोजगारी- खुली बेरोजगारी प्रत्यक्ष बेरोजगारी का वह रूप है जबकि श्रमिक बाज़ार में प्रचलित वर्तमान मजदूरी दर पर कार्य करने के इच्छुक हैं परन्तु उन्हें काम नहीं मिलता है। यह बेरोजगारी भारत में अधिकतर औद्योगिक क्षेत्रों में पाई जाती है। इसके अलावा भूमिहीन श्रमिकों में भी यह पाई जाती है।

प्रच्छन्न बेरोजगारी अथवा छिपी हुई बेरोजगारी- बेरोजगारी की इस अवस्था में प्रत्यक्ष रूप में तो लोग काम पर लगे होते हैं, परंतु वास्तव में वो बेरोजगार होते हैं।

12. “भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में तृतीयक क्षेत्रक कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा रहा है।” क्या आप इससे सहमत है? अपने उत्तर के समर्थन में कारण दीजिए।
Ans.
किसी भी अर्थव्यवस्था के विकास के दृष्टिकोण से तृतीयक क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में बढ़ता योगदान एक अच्छा संकेत माना जाता हैं। यदि भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में देखा जाए तो हम इस कथन से पूर्णत: सहमत नहीं हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में तृतीयक क्षेत्र की कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं हैं। क्योंकि योजनकाल के दौरान वर्ष 1973 से 2003 तक 30 वर्षों यद्दपि सभी क्षेत्रों में उत्पादन में वृध्दि हुई हैं, परंतु तृतीयक क्षेत्र के उत्पादन में सर्वाधिक वृध्दि हुई है। इसी प्रकार यदि रोज़गार के आधार पर तृतीयक क्षेत्र के महत्त्व का आकलन किया जाए तो भी हम पाते हैं की 1973 से 2003 के दौरान तृतीयक क्षेत्र में रोज़गार वृध्दि की दर लगभग 300% रही है जो द्वितीयक व प्राथमिक क्षेत्र की अपेक्षा कही ज़्यादा हैं।

13. भारत में सेवा क्षेत्रक दो विभिन्न प्रकार के लोग नियोजित करता हैं। ये लोग कौन है?
Ans.
भारत में सेवा क्षेत्रक दो विभिन्न प्रकार के लोग नियोजित करता हैं। इनमे प्रथम प्रकार में वे श्रमिक है जो वस्तुओं के निर्माण में प्रत्यक्ष योगदान देते हैं, जैसे- विनिर्माण उधोग में कार्यरत श्रमिक, विभिन्न प्रकार की कृषि क्रियाओं में संलग्न लोग आदि। 

दूसरे प्रकार में उन लोगों को शामिल किया जाता है जो उत्पादन प्रक्रिया में अपना प्रत्यक्ष योगदान नहीं देते, अपितु उत्पादन के लिए विभिन्न प्रकार से अप्रत्यक्ष रूप से अपनी सेवाएँ प्रदान करते हैं,जैसे डॉक्टर, वक़ील, अध्यापक, मोची आदि।

14. “असंगठित क्षेत्रक में श्रमिकों का शोषण किया जाता है।” क्या आप इस विचार से सहमत है? अपने उत्तर के समर्थन में कारण दीजिए।
Ans.
निम्नलिखित तथ्यो के आधार पर हम कह सकते हैं की असंगठित क्षेत्र में प्रायः मज़दूरो का शोषण होता है।

  1. असंगठित क्षेत्र में यद्दपि विभिन्न प्रकार के नियम और विनियम होते हैं परंतु उनकी अनुपालना उपयुक्त ढंग होती। 
  2. असंगठित क्षेत्र में कार्यरत मज़दूरों को संगठित क्षेत्र के श्रमिकों की बजाय बिना किसी ओवरताइम के 10 से 12 घंटे तक भी काम करना पड़ सकता है। 
  3. इस क्षेत्र में अतिरिक्त समय में काम करने, सवेतन छुट्टी, अवकाश, बीमार के कारण छुट्टी इत्यादि सुविधाओं का सर्वथा अभाव पाया जाता है। 
  4. असंगठित क्षेत्र में रोज़गार की प्रकृति प्रायः अनियमित होती है बहुत से लोग प्रायः नियोक्ता की पंसद पर निर्भर होते हैं। 

15. अर्थव्यवस्था में गतिविधियाँ रोजगार की परिस्थितियों के आधार पर कैसे वर्गीकृत की जाती है?
Ans.
रोज़गार की परिस्थियो के आधार पर आर्थिक गतिविधियों को हम निम्न दो वर्गों में बाँट सकते हैं- 

  1. संगठित क्षेत्र की गतिविधियाँ– संगठित क्षेत्र की गतिविधियों में उन क्षेत्रों को शामिल किया जाता हैं जहाँ रोज़गार की अवधि नियमित होती है। ये क्षेत्र सरकार द्वारा पंजीकृत होते हैं तथा इन्हें विभिन्न सरकारी नियमो एवं विनियमो जैसे- न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम, कारख़ाना अधिनियम आदि उल्लेखित होते हैं। 
  2. असंगठित क्षेत्र की गतिविधियों– इसके विपरीत असंगठित क्षेत्र प्रायः छोट-छोटी और बिखरी इकाइयों से निर्मित होता है जो प्रायः सरकारी नियंत्रण से बाहर होती हैं। इस क्षेत्र में नियम और विनियम तो होते हैं, परंतु उनकी अनुपालना नहीं होती। इस क्षेत्र में श्रमिकों को प्रायः कम वेतन मिलता है तथा संगठित क्षेत्र के श्रमिकों की तुलना में अन्य सुविधाएँ भी न के बराबर मिलती है। 

16. संगठित और असंगठित क्षेत्रकों में विद्यमान रोजगार-परिस्थितियों की तुलना करें।
Ans.

संगठित क्षेत्रकअसंगठित क्षेत्रक
इस सेक्टर में काम एक सिस्टम से होता है और नियमों की सीमा रेखा के अंदर होता है।इस सेक्टर में कोई सिस्टम नहीं होता और ज्यादातर नियमों का उल्लंघन होता है।
इस सेक्टर में दिया जाने वाला पारिश्रमिक सरकार के नियमों के अनुसार होता है।इस सेक्टर में दिया जाने वाला पारिश्रमिक सरकार द्वारा तय पारिश्रमिक से कम होता है।
श्रमिकों को नियम के हिसाब से सामाजिक सुरक्षा मिलती है।सामाजिक सुरक्षा का अभाव होता है।
नौकरी सामान्यत: सुरक्षित होती है।नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं होती है।

अथवा

संगठित एवम् असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की तुलना निम्न प्रकार से की जा सकती है।

संगठित क्षेत्र:

  1. इस क्षेत्र के श्रमिक प्रायः नियमित आधार पर नियोजित होते हैं।
  2. इस क्षेत्र के श्रमिकों को निर्धारित मासिक वेतन मिलता है।
  3. इस क्षेत्र में कार्यरत कर्मचाियों को वेतन के अलावा अन्य लाभ जैसे सवेतन अवकाश, भविष्य निधि जमा तथा सेवानिवृत्ति के समय पेंशन आदि सुविधाएं हासिल होती हैं।
  4. इस क्षेत्र के कर्मचारियों के कार्य घण्टे निर्धारित होते हैं।
  5. इस क्षेत्र के कर्मचारी रोजगार सुरक्षा का लाभ उठाते हैं।

असंगठित क्षेत्र:

  1. इस क्षेत्र में श्रमिक प्रायः अनियमित आधार पर नियोजित होते हैं।
  2. इस क्षेत्र के श्रमिकों को दैनिक आधार पर वेतन मिलता है।
  3. दैनिक वेतन के अलावा इस क्षेत्र के श्रमिकों को कोई अन्य लाभ प्राप्त नहीं होते।
  4. इस क्षेत्र के कर्मचारियों के कार्य के कोई निर्धारित घण्टे नहीं होते।
  5. इस क्षेत्र के कर्मचारी रोजगार सुरक्षा जैसे लाभों से वंचित रहते हैं।

17. मनरेगा 2005 (MGNREGA 2005) के उद्देश्यों को व्याख्या कीजिए।
Ans.
मनरेगा 2005 के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-

  1. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005 के अन्तर्गत जो लोग काम करने में सक्षम हैं और जिन्हें काम की जरूरत है, उन्हें सरकार द्वारा वर्ष में कम से कम 100 दिन का रोजगार अवश्य दिया जाएगा।
  2. यदि किसी बेरोजगार को 15 दिन के अन्दर रोजगार नहीं मिलता है तो वह बेरोजगारी भत्ता पाने का हकदार होगा।
  3. इस प्रस्तावित अधिनियम में 33% हिस्सा औरतों के लिए आरक्षित होगा।
  4. इस अधिनियम के तहत उन कार्याें को वरीयता दी जाएगी जो भविष्य में भूमि उत्पादकता बढ़ाने में सहायक होंगे।

18. अपने क्षेत्र से उदाहरण लेकर सार्वजनिक और निजी क्षेत्रक की गतिविधियों एवं कार्यों की तुलना तथा वैषम्य कीजिए।
Ans.

सार्वजनिक क्षेत्र 

  1. सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्तियाँ सरकारी तंत्र के अधीन होती हैं। भारतीय रेल, इंडियन एयरलाईन्स आदि इसके कुछ उदाहरण हैं। 
  2. सार्वजनिक क्षेत्र का उद्देश्य लोगों के कल्याण में वृध्दि करना हैं। 
  3. सार्वजनिक क्षेत्र की वस्तुओं एवं सेवाओं की क़ीमत का निर्धारण सरकार द्वारा किया जाता हैं। 

निजी क्षेत्र 

  1. निजी क्षेत्र की संपत्तियां सरकारी स्वामित्व से मुक्त होती हैं। ये निजी व्यक्तियों के हाथो में होती हैं। टाटा मोटर्स, हीरो साईकिल लिo आदि इसके उदाहरण हैं। 
  2. निजी क्षेत्र की गतिविधियाँ लाभ प्रेरित होती हैं अर्थात् इनका मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना होता है। 
  3. निजी क्षेत्र द्वारा उत्पादित वस्तुओं की क़ीमतों का निर्धारण बाज़ारी शक्तियों द्वारा होता है। 

19. अपने क्षेत्र से एक-एक उदाहरण देकर निम्न तालिका को पूरा कीजिए और चर्चा कीजिए:

सुव्यवस्थित प्रबंध वाले संगठनअव्यवस्थित प्रबंध वाले संगठन
सार्वजनिक क्षेत्रक   
निजी क्षेत्रक

Ans.  विद्यार्थी स्वयं करें। 

20. सार्वजनिक क्षेत्रक की गतिविधियों के कुछ उदाहरण दीजिए और व्याख्या कीजिए कि सरकार द्वारा इन गतिविधि यों का कार्यान्वयन क्यों किया जाता है?
Ans.

गतिविधियाँसरकारी नियंत्रण के कारण
जल आपूर्तिजल एक मूलभूत आवश्यकता है और जल की आपूर्ति के लिए भारी पूंजी की आवश्यकता होती है। लेकिन लोगों को पीने का पानी कम से कम दाम में मुहैया कराना होता है।
रेल परिचालनरेल लाइन बिछाने और रेलगाड़ी खरीदने में भारी पूंजी की आवश्यकता होती है।
सड़कग्रामीण क्षेत्रों में सड़कें बनाने में प्राइवेट कम्पनियों की कोई रुचि नहीं होती है।

अथवा

सरकार द्वारा विभिन्न प्रकार की सार्वजनिक गतिविधियों के कार्यान्वयन के निम्नलिखित कारण हैं। 

  1. ऐसी योजनाएँ जिनमे दीर्घकालीन निवेश किया जाता है तथा जिनकी परिपक्वता अवधि लम्बी होती हैं अर्थात् जो काफ़ी देर से प्रतिफल प्रदान करती हैं, में सार्वजनिक निवेश आवश्यक हो जाता है क्योंकि निजी क्षेत्र द्वारा प्रायः ऐसी योजनाओं में निवेश नहीं किया जाता।
  2. निजी क्षेत्र द्वारा किए जाने वाले शोषण से लोगों की सुरक्षा के लिए सरकार द्वारा विभिन्न प्रकार की सार्वजनिक गतिविधियों का कार्यान्वयन किया जाता हैं। 
  3. इस प्रकार की सुविधाओं के कुछ प्रमुख उदाहरण है- 
  • अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान– लोगों को उच्च गुणवता वाली स्वास्थ्य सेवाएँ उचित दरों पर उपलब्ध कराने के लिए सरकार द्वारा इस संस्थान की स्थापना की गई हैं। 
  • भारतीय रेल– लोगों को सस्ती दरों पर यात्रा एवं मालभाड़े की सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए भारतीय रेल एक महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक उपक्रम है। 
  • नेशनल थर्मल पॉवर करपोरेशन लिमिटेड– लोगों को सस्ती दर पर बिजली उपलब्ध कराने तथा निजी क्षेत्र में ख़ासकर छोटे पैनाने के उद्दोगो को प्रोत्साहित करने के लिए इस संस्थान की स्थापना की गई है। 

21. व्याख्या कोजिए कि एक देश के आर्थिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्रक कैसे योगदान करता है?
Ans.
किसी भी देश के आर्थिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका काफ़ी महत्त्वपूर्ण होती हकी जो निम्न प्रकार से स्पष्ट हो जाती है- 

  1. सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा आर्थिक विकास के लिए आवश्यक विभिन्न प्रकार के वित्तीय संसाधनो का निर्माण किया जाता है। 
  2. विकासशील देशों में सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से बड़े पैमाने पर लोगों को रोज़गार के अवसर प्रदान किए जाते हैं।
  3. देश में विद्यमान आय व धन की असमानता को कम करने में यह क्षेत्र उपयोगी सिध्द होती है। 
  4. देश के लघु तथा कुटीर उद्योग को प्रोत्साहन इसी क्षेत्र द्वारा दिया जाता हैं। 
  5. विभिन्न क्षेत्रों के संतुलित विकास में सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया जाता है। 

22. असंगठित क्षेत्रक के श्रमिकों को निम्नलिखित मुद्दों पर संरक्षण की आवश्यकता है- मजदूरी, सुरक्षा और स्वास्थ्य। उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
Ans.
असंगठित क्षेत्रक के श्रमिकों को कई मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहना पड़ता है। सही मजदूरी नहीं मिलने से असंगठित क्षेत्रक के श्रमिकों के परिवार को कुपोषण, अशिक्षा और खराब स्वास्थ्य का शिकार होना पड़ता है। इन सबके बिना कोई भी श्रमिक अर्थव्यवस्था में अपना सही योगदान नहीं दे पाता है। इसलिए असंगठित क्षेत्रक के श्रमिकों को मजदूरी, सुरक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर संरक्षण की आवश्यकता होती है।

अथवा

असंगठित क्षेत्रक के मज़दूरो को मज़दूरी, सुरक्षा और स्वास्थ्य जैसे मद्दों पर संरक्षण की आवश्यकता है। इसे निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है- 

  1. मज़दूरी- असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को प्रायः 10-12 घंटे तक बिना किसी ओवरटाइम के कार्य करना पड़ता है। दूसरे उन्हें मज़दूरी के अलावा अन्य सुविधाएँ भी नहीं मिलतीं। इसके अलावा असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों में प्रायः रोज़गार सुरक्षा का अभाव पाया जाता है, क्योंकि इनके रोज़गार की प्राकृति प्रायः अनियमित होती है। चूकि ये पहले से ही क़र्ज़ के बोझ से दबे होते है अतः ये प्रायः कम मज़दूरी दरों पर कार्य करने के लिए तैयार हो जाते हैं। 
  2. सुरक्षा- असंगठित क्षेत्र के श्रमिक प्रायः अत्यधिक जोखिम वाले क्षेत्रों जैसे ईंट उद्योग, कोयले की खानों आदि में कार्य करते है, अतः सुरक्षा उनके सम्मुख प्रमुख मुद्दा होती है। 
  3. स्वास्थ्य- चुकि ये श्रमिक प्रायः अत्यधिक जोखिमपूर्ण कार्य-परिस्थितियों में कार्य करते हैं और दूसरे उनकी मज़दूरी भी प्रायः कम होती है। फलस्वरूप पर्याप्त पोषण के अभाव में इनकी स्वास्थ्य संबंधी स्थिति संतोषजनक नहीं रहती। अतः इस संदर्भ में भी उपयुक्त क़दम उठाए जाने की आवश्यकता है। 

23. अहमदाबाद में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि नगर के 15,00,000 श्रमिकों में से 11,00,000 श्रमिक असंगठित क्षेत्रक में काम करते थे। वर्ष 1997-98 में नगर की कुल आय 600 करोड़ रुपए थी इसमें से 320 करोड़ रुपए संगठित क्षेत्रक से प्राप्त होती थी। इस आँकड़े को तालिका में प्रदर्शित कीजिए। नगर में और अधिक रोजगार-सृजन के लिए किन तरीकों पर विचार किया जाना चाहिए?
Ans.

अर्थव्यवस्था के क्षेत्रकार्यरत श्रमिकों की संख्याआय (लाख रु. में)
संगठित40000032000
असंगठित110000028000
कुल150000060000

नगर में अधिक रोजगार सृजन के लिए निम्न तरीकों पर विचार किया जा सकता है:

  1. रोजगार- पाकर शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  2. विशेष रूप से तकनीकी तथा व्यवसायिक शिक्षा पर बल दिया जाए।
  3. सरकार उद्योगों में श्रम प्रधान तकनीकों को बढ़ावा दे ताकि बड़े पैमाने पर लोगों को रोजगार प्रदान किया जा सके।
  4. लघु तथा कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित किया जाए।

24. निम्नलिखित तालिका में तीनों क्षेत्रकों का सकल घरेलू उत्पाद (स.घ.उ.) रुपए (करोड़) में दिया गया है:

वर्षप्राथमिकद्वितीयकतृतीयक
200052,00048,5001,33,500
20138,00,50010,74,00038,68,000

(क) वर्ष 2000 एवं 2013 के लिए स.घ.उ. में तीनों क्षेत्रकों की हिस्सेदारी की गणना कीजिए।
Ans.
निम्नलिखित तालिका को जी. डी. पी. के प्रतिशत के रूप में इस प्रकार किया जा सकता है:

वर्ष प्राथमिक क्षेत्र (% में)द्वितीय क्षेत्र (% में)तृतीय क्षेत्र (% में)
200022.2220.7357.04
201313.9418.7067.36

(ख) इन आँकड़ों को अध्याय में दिए आलेख-2 के समान एक दण्ड-आलेख के रूप में प्रदर्शित कीजिए।
Ans.

(ग) दण्ड-आलेख से हम क्या निष्कर्ष प्राप्त करते है?
Ans.
उपरोक्त दण्ड आरेख से सिद्ध होता है कि सकल घरेलू उत्पाद में जहां प्राथमिक क्षेत्र का योगदान कम हुआ है वहीं द्वितीयक तथा तृतीयक क्षेत्र का में वृद्धि हुई है।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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