यौन-संचारित रोग

लैंगिक क्रिया या यौन सम्बन्धों के द्वारा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में कई प्रकार के रोग फैलते हैं। जिसमें जीवाणु, प्रोटोजोअन्स तथा वाइरस द्वारा होने वाले रोग भी हैं। एक से अधिक व्यक्तियों के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करने पर ये रोग फैलाते हैं।

सूजाक (Gonorrhoeao)

यह रोग युग्म-गोलाणु (dipolococus bacterium) निसेरिया गोनोरी द्वारा शरीर में संक्रमण से उत्पन्न होता है। संक्रमण होने से रोग के लक्षण उत्पन्न होने का समय, उदभवन काल (incubation period) 2-5 दिन का होता है। इस गोलाणु का एक व्यक्ति से दूसरे में संचरण यौन-क्रिया द्वारा होता है।

यह रोग पुरुष या स्त्री की जनन-मूत्रवाहिनी (urino-genital tract) की श्लेष्मिक-कला को प्रभावित करता है, जिससे रोगग्रस्त व्यक्ति को मूत्र निकालते समय मूत्र-वाहिनी (urethra) में तीव्र जलन तथा पीड़ा होती है। पुरुषों में मूत्र-मार्ग में सूजन हो जाती है तथा इससे एक हरा-पीला स्राव निकलने लगता है। यह संक्रमण प्रोस्टेट ग्रंथि तथा मूत्राशय में भी फैल सकता है। यह संक्रमण शरीर के अन्य भागों में भी फैलकर संधिवात (arthritis) तथा स्त्रियों में बन्ध्यापन (sterility) जैसे रोग उत्पन्न करता है। स्त्रियों में इस रोग के कोई लक्षण तो उत्पन्न नहीं होते परन्तु वे रोगवाहक होती हैं- अर्थात् रोगग्रस्त स्त्री से यौन संपर्क करने पर यह रोग पुरुषों में संक्रमित हो जाता है। रोग-ग्रस्त स्त्री से उत्पन्न सन्तानों में भी बहुधा इसका प्रभाव नेत्रों पर पड़ता है जिससे उनमें (gonococcal ophthalmia) रोग हो जाता है।

इस रोग के नियंत्रण तथा उपचार में पेनिसिलीन तथा एम्पिसिलीन नामक प्रतिजैविक औषधियाँ उपयोगी होती हैं। – (BPSC Main-96)

सिफिलिस (Syphilis)

ऐसा माना जाता है कि इस रोग का संक्रमण, भारत की खोज में निकले स्पेनी नाविक कोलम्बस एवं उसके साथियों द्वारा, अमेरिकी द्वीपों से सर्वप्रथम यूरोप में लाया गया, जहाँ से यह अन्य देशों में फैला। इसे सर्वप्रथम सन् 1495 में इटली में पहचाना गया।

यह रोग एक जीवाणु, ट्रीपोनेमा पैलिडम के कारण उत्पन्न होता है। इसका संक्रमण रोगग्रस्त व्यक्ति (पुरुष या स्त्री) से यौन-संपर्क द्वारा दूसरे व्यक्ति में होता है। इसका उद्भवन काल लगभग 3 सप्ताह है। इस रोग के लक्षण रोगग्रस्त व्यक्ति के जननांगों (genitals), मलाशय,

(rectum), अथवा मुख-गुहा (oral cavity) की श्लेष्मा-कला पर चकत्तों तथा घावों के रूप में प्रकट होते हैं। रोग का यथा समय उपचार न होने पर इसका संक्रमण मस्तिष्क तक फैल सकता है जिसमें पागलपन (insanity), पक्षाघात (paralysis) तथा अन्ततः मृत्यु हो सकती है।

इस रोग के निवारण का उपाय, रोगग्रस्त व्यक्ति से यौन-संपर्क न करना है। इसका उपचार पेनिसिलीन तथा टेट्रासाइक्लीन प्रतिजैविकों से किया जाता है।

एड्स (AIDS)

इस रोग का पूरा नाम Acquired Immuno-deficiency Syndrome है। यह मुख्यतः यौन संचरित रोग है। यह मानव शरीर की, संक्रामक रोगों से सुरक्षा के लिए, अर्जित प्रतिरक्षा (Acquired immunity) के नष्ट हो जाने का उदाहरण है। यह रोग शरीर में मानव प्रतिरक्षण ह्रास विषाणु (Human immuno-deficiency virus, HIV) के संक्रमण द्वारा उत्पन्न होता है। इसमें रोगी की रोग प्रतिरोधकता समाप्त हो जाती है, HIV इस तंत्र को नष्ट कर देता है, जिससे किसी भी रोग के विषाणु या जीवाणु आसानी से रोग पैदा कर देते हैं। रोगी का शरीर जगह-जगह फूल जाता है, खून का संचार अव्यवस्थित हो जाता है।

अब हमें सर्वप्रथम अपने प्रतिरक्षी तंत्र की रचना समझनी होगी। इसके अन्तर्गत हमारी त्वचा, आंतरिक अंगों की सतह पर पाये जाने वाले म्यूकस मेम्ब्रेन तथा रक्त में पाये जाने वाली श्वेत रक्त कणिकाएँ आती हैं।

श्वेत रक्त कण-दो प्रकार के होते हैं; ग्रेनुलोसाइट एवं एप्रेनुलोसाइट। (1) ग्रेनुलोसाइट : ये तीन प्रकार के होते हैं- न्यूट्रोफिल, बेसोफिल और इओसीनोफिल; (2) एग्रेनुलोसाइट : ये दो प्रकार के होते हैं, • लिम्फोसाइट एवं मोनोसाइट । लिम्फोसाइट भी तीन प्रकार के होते हैं B-लिम्फोसाइट – जो बोन मैरों में बनते हैं। T-लिम्फोसाइट – जो थाइमस ग्रंथि में बनते हैं। Natural Killer Cell (साइटोटॉक्सिक)- यह दूसरे कोशिकाओं को मारने की क्षमता रखती हैं। यह वाइरस संक्रमित कोशिकाओं को नष्ट करती हैं।

एड्स के संदर्भ में हमारे प्रतिरक्षी तंत्र में एक सुविकसित सूचना तंत्र होता है। जब एड्स वायरस हमारे शरीर के संपर्क में आता है तो सर्वप्रथम T4 लिम्फोसाइट इसका मुकाबला करती है और इसके पराजित होने पर ही एड्स के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। T4 लिम्फोसाइट के साथ T8 लिम्फोसाइट जिसे मेकोफेग भी कहते हैं, वायरस को टुकड़ों में तोड़ने की क्षमता रखती है। साथ ही B लिम्फोसाइट एंटीबॉडीज बनाने में पूर्णतः समर्थ होती है।

परन्तु विशिष्ट तथ्य यह है कि T8 और B लिम्फोसाइट को पता ही नहीं चल पाता कि संक्रमण हुआ है। ऐसा इसलिए कि वायरस T4 लिम्फोसाइट की ‘इंटरल्यूकिन’ बनाने की क्षमता को ही नष्ट कर देता है और यही वह पदार्थ है जो T8 और B लिम्फोसाइट को वायरस के आने की सूचना देता है।

बेचारी T4 लिम्फोसाइट अकेली मुकाबला करते हार जाती है और धीरे-धीरे संक्रमण इतना फैल जाता है कि T8 और B लिम्फोसाइट भी एंटीबॉडीज बनाने में असमर्थ हो जाती हैं और T8 लिम्फोसाइट उल्टे वायरस के लिए संग्राहक की तरह कार्य करती है। लेकिन वायरस यह कार्य कैसे करता है? वह क्यों इतना शक्तिशाली होता है?

HIV को एक विशिष्ट वरदान प्राप्त है। इसके पास एक शक्तिशाली विकर (एंजाइम) होता है जिसे रिवर्स ट्रान्सक्रिप्टेज कहते हैं। इसकी जानकारी वैज्ञानिक टेमिन तथा उनके साथी एवं वैज्ञानिक वार्मस ने दी थी। उन्होंने बताया कि यह एंजाइम वायरस के आर.एन.ए. को एक आधार अथवा मॉडल की तरह इस्तेमाल करता है और एक डी.एन.ए. स्ट्रेण्ड का निर्माण करता है। इस प्रकार एक जटिल संरचना बन जाती है जिसे आर.एन. ए.डी.एन.ए. काम्पलेक्स कहते हैं। आगे चलकर यह डी.एन.ए. जो इकहरा होता है अर्थात् एस.एस.डी.एन.ए. दोहरे धागेवाला हो जाता है और पुनः एस.डी.एन.ए. में परिवर्तित हो जाता है। यह नया बना आर.एन.ए. एक संदेशवाहक की तरह कार्य करता है और वायरस की संख्या बढ़ाता है। इससे एंजाइम आर.टी. रिवर्स ट्रान्सक्रिप्टेज को लाभ मिलता है।

वायरस व्यास में करीब 100मि.मी. होता है। यह चारो ओर से एक सुरक्षा कवच या जिसे एनविलाप कहते हैं, से घिरा होता है जिन पर नुकीले कांटें जैसी रचनाएँ होती हैं जोकि ग्लाइकोप्रोटीन नामक पदार्थ से बनी होती हैं। इस कवचन के मध्य भाग में एक रचना होती है जिसमें आर.एन.ए. अणु होते हैं जो एक मॉडल की तरह कार्य करते हैं। इसकी ये रचनाएँ दो प्रकार की होती हैं। 5 अणुओं वाले पेन्टामर्स जो संख्या में 12 होते हैं और 6 अणुओं वाले 20 हेक्सामर होते हैं उन्हें gp120 कहते हैं। यह वायरस को होस्ट की कोशाओं से जोड़ने का कार्य करते हैं। यह अंदर से एक और प्रोटीन से जुड़ा होता है जिसे gp 41 कहते हैं। यह एनविलप के अंदर घुसा हुआ होता है और हमारे रक्त की एंटीबॉडीज को निष्क्रिय करने का कार्य करता है।

अर्थात् ये दोनों ग्लोइकोप्रोटीन (gp 120, 41) इस वायरस के दूसरे हथियार हैं। वायरस के बीचों-बीच एक पालीगोनल रचना होती है जिसके अंदर आर.एन.ए. अणु की कई परतें होती हैं जो रिवर्स ट्रान्सक्रिप्टेज से जुड़ी होती हैं। इसके अतिरिक्त वायरस में एच.एल.ए. एंटीजन होता है जो हमारी T8 लिम्फोसाइट को निष्क्रिय कर देता है। इसके संपर्क में यदि ऐसा व्यक्ति, जिसका प्रतिरक्षी तंत्र हार चुका है और वह व्यक्ति एड्स का शिकार हो चुका है तथा कोई अन्य व्यक्ति यदि इसके संपर्क में आता है तो वह भी इसका शिकार हो जाता है।

HIV विषाणुग्रस्त व्यक्ति से यौन-संपर्क के अतिरिक्त इसका संक्रमण अधोलिखित प्रकार से फैल सकता है-

(i) HIV ग्रस्त किसी व्यक्ति को कोई इंजेक्शन देने के लिए प्रयुक्त सिरिंज से किसी स्वस्थ व्यक्ति को इंजेक्शन देने से,

(ii) HIV ग्रस्त व्यक्ति से किसी अन्य व्यक्ति को रुधिर-आधान (Blood tranfusion) द्वारा तथा

(iii) HIV ग्रस्त स्त्री के गर्भ में पल रहे भ्रूण में, हो सकता है। तद्नुसार HIV संक्रमण से बचने के प्रमुख उपाय निम्नवत् हैं-

1. स्वस्थ पति-पत्नी, किसी अन्य व्यक्ति से यौन-संपर्क न करें।

2. यौन-संपर्क में पुरुष द्वारा कण्डोम का उपयोग किया जाय।

3. समलिंगी (Homosexual) अप्राकृतिक यौन-संपर्क कदापि न किये जाय।

4. चिकित्सकों द्वारा इंजेक्शन देने के लिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए नयी सिरीज का उपयोग किया जाय अथवा प्रत्येक बार उपयोग के पहले सिरिज को पर्याप्त रूप से निःसंक्रमित कर लिया जाय।

5. रुधिर-आधान के लिए प्रयुक्त रुधिर का परीक्षण करके सुनिश्चित कर लिया जाय कि रुधिर HIV मुक्त है।

6. HIV ग्रस्त स्त्री का बन्ध्याकरण (Sterilisation) कर दिया जाय जिससे वह गर्भधारण न कर सके।

एच.आई.वी/एड्स टेस्ट व दवाएँ

आज एड्स विषाणु की शरीर में उपस्थिति की जांच के अनेक तरीके हैं, उनमे प्रमुख हैं:-

• एलीसा जांच/रैपिड जांच – रैपिड जांच हर जगह उपलब्ध है और सस्ती भी है। अगर यह पॉजीटिव आए तो एलीसा जांच की जाती है। एक रिपोर्ट पॉजीटिव हो तो दूसरे एंटीजेनिक वेराइटी का एलीसा किया जाता है। दोनों बार पॉजीटिव होने से संक्रमण या रोग का जायजा लिया जाता है। रैपिड टैस्ट द्वारा कुछ मिनटों से लेकर एक घंटे के अन्दर ही जांच के परिणाम प्राप्त हो जाते हैं। एलीसा परीक्षण की सत्यता 95 प्रतिशत से 99 प्रतिशत तक होती है। इस परीक्षण में प्रकाशीय विधि द्वारा रंगों का परीक्षण कर संक्रमण का निर्धारण किया जाता है।

• सीडी 4 सेल्स काउंट- यह मानिटरिंग के लिए बहुत जरूरी है। कब एड्स की दवा शुरू करनी है इसका जायजा इसी टेस्ट से मिलता है।

• एब्सोल्यूट काउंट- गरीब देशों में जहाँ सीडी-4 सेल्स काउंट हर जगह उपलब्ध नहीं है, इस टेस्ट द्वारा भी काम चल जाता है।

• बेस्टर्न ब्लाट टेस्ट- अभी यह रिसर्च हेतु ही प्रयोग होता है। पहले इस टेस्ट को कराना जरूरी माना जाता था।

• रीपा जांच- यह काफी संवेदनशील है, परन्तु काफी महँगी होने के कारण आम इस्तेमाल में नहीं है।

• इम्युनो फ्लोरोसेंस जांच- यह पद्धति आमतौर पर इस्तेमाल नहीं की जाती है, क्योंकि इसमें अधिक समय लगता है।

• पीसीआर जांच – यह नई जांच विधि है जिसके द्वारा लक्षणविहीन संक्रमित मरीज में HIV-I की उपलब्ध की जांच की जाती है। यह जांच खर्चीली हैं। *

• करपास जांच – इसमें HIV-I बी एवं HIV-II बी- दोनों

तरह के विषाणुओं द्वारा उत्पन्न एंटीबॉडीज की जांच की जा सकती है। एड्स का प्रभावी इलाज तो आज तक नहीं खोजा जा सका है, पर ऐसी औषधियां अवश्य बना ली गई हैं, जिनसे रोगी का जीवन काल कुछ समय के लिए बढ़ सकता है। इलाज की कुछ प्रमुख दवाएँ :

• एजिडो थाइमिडीन
• जुड़ोविर (सिपला कम्पनी)
• डी.डी.आई. (डाइडेनोसिन)
• डाईडिऑक्सीसाइटिडिन
• सुरामिन
• डिऑक्सीनोजिरीमाइसिन (डी.एन.एम.)
• ग्लाइसिराहीजिन एसिड
• फ्यूलीडिक एसिड
• कम्पाउंड क्यू
• जैविक औषधियाँ-इंटरफेरॉन, इंटर-ल्यूकिन 2, गामाग्लोब्यूलिन आदि।
• सी.डी. 26 एंजाइम

ट्राइकोमोनिएसिस

इसे ‘श्वेत पानी’ का रोग भी कहते हैं। यह ट्राइकोमोनास बेजिनेलिस नामक प्रोटोजोअन से महिलाओं की योनि में होता है।

इसका संक्रमण यौन सम्बन्धों से होता है। इस रोग में खुजली होती है व सफेद रंग का पानी निकलता है। इसके उपचार में ऑरियोमायोसिन तथा टेरामायोसिन औषधि का उपयोग लाभकारी है।

प्रोस्टेट-वृद्धि (Prostatitis)

60-70 वर्ष के बीच विशेषकर 55 वर्ष के ऊपर की आयु के 40-45 प्रतिशत वृद्ध पुरुषों में प्रोस्टेट ग्रंथि आकार में कुछ बड़ी हो जाती हैं। इसमें आगे चलकर स्नायुतन्तु की वृद्धि हो जाती है, तब इसे फाइब्रो एडीनोमा कहते हैं। वृद्धावस्था में टेस्टोस्टीरोन की उत्पत्ति कम होने पर या गोनोकोकस आदि जीवाणु के संक्रमण के कारण यह रोग उत्पन्न होता है। इसमें सामान्यतः मूत्र त्यागने में कठिनाई होती है और कभी-कभी मूत्र बन्द हो जाता है तथा कुछ दिन बाद मूत्र से तरल पदार्थ भी आने लगता है। इसमें टेस्टोस्टेरॉन प्रोपियोनेट नामक औषधि लाभदायक होता है।

प्रदर रोग (Leukorrhoea)

यह महिलाओं की एक व्यापक समस्या है। इसमें गर्भाशय ग्रीवा स्त्राव अधिक होता है। रजः निवृत्ति के बाद होने वाला रक्त प्रदर इसके गम्भीर स्वरूप का प्रतीक हैं। अन्यथा श्वेत प्रदर अतिस्त्राव ही इसका सामान्य लक्षण है। सामान्यतः यह संक्रमण के कारण होता है। गोनोकोकसीयल, ट्राइकोमोनोस अथवा कैन्डिडियल जीवाणु के संक्रमण के कारण उक्त समस्या उत्पन्न होती है। चिकित्सक अन्दर की जाँच एवं विशेष परीक्षणों से निदान स्पष्ट करते हैं। यह व्याधि ठीक से चिकित्सा न करने पर कई बार गम्भीर संक्रमण का रूप ले लेता है, इसलिए समय पर सही चिकित्सा ले लेना चाहिए।

वृषण कोष में जल (Hydrocele)

यह एक व्यापक व्याधि है। इसमें विभिन्न कारणों से जैसे फाइलेरिया से या कई बार अज्ञात कारणों से भी वृषणकोष में द्रव भर जाता है। तीव्र स्थिति को छोड़कर यह बहुधा दर्द-मुक्त रहता है। अल्पद्रव होने पर यह विशेष समस्या नहीं होती। अधिक द्रव होने पर इसमें शल्यक्रिया स्थायी लाभ देती है। सुई से द्रव निकालने पर बहुधा फिर भर जाता है, यद्यपि इनमें कुछ रसायन अन्दर डाल देने पर कभी-कभी यह नहीं भी होता है, तथापि इसका उत्तम विकल्प शल्यक्रिया ही है।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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