भारतीय संविधान के अनुच्छेद 1 के अंतर्गत, जम्मू तथा कश्मीर राज्य (जे. एंड के.) भारतीय संघ का एक संवैधानिक राज्य है तथा इसकी सीमाएं भारतीय सीमाओं का एक भाग हैं। दूसरे परिप्रेक्ष्य में, संविधान के भाग 21 के अनुच्छेद 370 में इसे एक विशेष राज्य का दर्जा दिया गया है। इसके अनुसार, भारतीय संविधान के सभी उपबंध इस पर लागू नहीं होंगे। यह भारतीय संघ में एकमात्र ऐसा राज्य है, जिसका अपना अलग राज्य- संविधान ‘जम्मू और कश्मीर का संविधान’ है।
संविधान के इसी भाग 21 के अंतर्गत, भारतीय संघ के 11 अन्य राज्य भी’ विशेष दर्जे का लाभ उठा रहे हैं किंतु कुछ विशेष अल्प मामलों में। दूसरी ओर, विशेष दर्जे के लाभ से युक्त जम्मू और कश्मीर राज्य की स्थिति इस मामले में अतुलनीय है।
जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय
ब्रिटिश प्रभुत्व की समाप्ति के साथ ही जम्मू और कश्मीर राज्य 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र हुआ। प्रारंभ में इसके शासक, महाराजा हरिसिंह ने फैसला लिया कि वे भारत या पाकिस्तान में सम्मिलित नहीं होंगे और स्वतंत्र रहेंगे। 20 अक्तूबर, 1947 को, पाकिस्तान समर्थित आजाद कश्मीर सेना ने राज्य के अग्रभाग पर आक्रमण किया। इस असामान्य एवं विलक्षण राजनीतिक स्थिति में, राज्य के शासक ने राज्य को भारत में विलय करने का निर्णय किया। इसके अनुसार, 26 अक्तूबर, 1947 को पं. जवाहरलाल नेहरू तथा महाराजा हरीसिंह द्वारा ‘जम्मू और कश्मीर के भारत में विलय-पत्र’ पर हस्ताक्षर किए गए। इसके अंतर्गत, राज्य ने केवल तीन विषयों (रक्षा, विदेशी मामले तथा संचार) पर ही अपना अधिकार छोड़ा। उस समय भारत सरकार ने आश्वासन दिया कि ‘इस राज्य के लोग अपने स्वयं के संविधान द्वारा, इस राज्य के आंतरिक संविधान तथा राज्य पर भारतीय संघ के अधिकार क्षेत्र की प्रकृति तथा प्रसार को निर्धारित करेंगे तथा राज्य विधानसभा के फैसले तक भारत का संविधान राज्य के संबंध में केवल अंतरिम व्यवस्था कर सकता है। इस आश्वासन के परिणाम में, भारत के संविधान में अनुच्छेद 370 सम्मिलित किया गया। इसमें स्पष्ट तौर पर कहा गया कि जम्मू तथा कश्मीर से संबंधित राज्य उपबंध केवल अस्थायी हैं स्थाई नहीं । यह 17 नवंबर, 1952 से संचालित हुआ, जिसके प्रावधान निम्न हैं:
1. अनुच्छेद 238 के उपबंध (भाग-ख राज्य पर प्रशासन के संबंध में) जम्मू और कश्मीर राज्य पर लागू नहीं होते। मूल संविधान (1950) में जम्मू और कश्मीर राज्य वर्ग-ख के राज्य में उल्लिखित किया गया था। भाग VII में इस अनुच्छेद को 7वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा (1956) बाद में संविधान में से राज्यों के पुनर्गठन के कारण हटा दिया गया था।
2. राज्यों के लिए संसद की विधि निर्माण की शक्ति निम्न बातों तक सीमित है, (i) वे मामले जो संघ की सूची या समवर्ती सूची में हों जो उन मामलों से संबंधित हो, जिनका राज्य के विलय-पत्र में उल्लेख हो। ये मामले राज्य सरकार के परामर्श से राष्ट्रपति द्वारा घोषित किए जाते हैं। विलय पत्र में मामले चार विषयों के अंतर्गत वर्गीकृत हैं- जो विदेशी मामले, रक्षा, संचार एवं अधीनस्थ मामले हैं। (ii) संघ सूची तथा समवर्ती सूची के अन्य मामले, जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा राज्य सरकार की सहमति से उल्लिखित किया गया हो। इसका अर्थ है कि इन मामलों पर विधि केवल जम्मू और कश्मीर राज्य की सहमति से ही बनाई जा सकती है।
3. अनुच्छेद 1 के उपबंध (घोषित करता है कि भारत राज्यों की सीमाओं का संघ है) तथा अनुच्छेद (अनुच्छेद 370) के उपबंध जम्मू और कश्मीर राज्य पर लागू होते है।
4. उपरोक्त उपबंधों के अतिरिक्त, संविधान के अन्य उपबंध कुछ अपवादों एवं सुधारों के साथ राज्य पर लागू किए जा सकते हैं, जो कि राष्ट्रपति द्वारा राज्य सरकार की सहमति से उल्लिखित हों।
5. राष्ट्रपति अनुच्छेद 370 के प्रयोजन की समाप्ति या अपवादों व परिवर्तन के साथ प्रयोजन की घोषणा कर सकता है। यद्यपि, यह केवल राज्य की विधानसभा की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा किया जा सकता है।
अतः अनुच्छेद 370 ने अनुच्छेद 1 तथा स्वयं अनुच्छेद 370 को जम्मू और कश्मीर राज्य पर लागू करने के लिए बनाया है तथा राष्ट्रपति को राज्य पर अन्य अनुच्छेदों के विस्तार का अधिकार देता है।
भारत एवं जम्मू-कश्मीर के मध्य वर्तमान संबंध
अनुच्छेद 370 के उपबंधों के परिणामस्वरूप, राष्ट्रपति ने ‘संविधान आदेश’ (जम्मू और कश्मीर के लिए अनुप्रयोग) नामक आदेश, 1950 में केंद्र का राज्य पर अधिकार क्षेत्र उल्लिखित करने के लिए जारी किया। 1952 में, भारत सरकार एवं जम्मू-कश्मीर राज्य अपनी भविष्य के संबंधों हेतु दिल्ली में एक समझौते पर राजी हुए। 1954 में, जम्मू और कश्मीर की विधानसभा ने भारत में राज्य के विलय के साथ-साथ दिल्ली समझौते को पारित किया। तब राष्ट्रपति ने उसी नाम से एक अन्य आदेश जारी किया, जो कि संविधान आदेश (जम्मू और कश्मीर के लिए अनुप्रयोग), 1954 है। यह आदेश 1950 के आदेश का स्थान लेता है तथा राज्य पर संघ के अधिकार क्षेत्र को बढ़ाता है। यह एक मूलभूत आदेश है, जो समय-समय पर सुधार एवं परिवर्तन के साथ, राज्य की संवैधानिक स्थिति एवं संघ के साथ इसके संबंध को व्यवस्थित रखता है। वर्तमान में, यह निम्नलिखित है:
1. जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ का एक संवैधानिक राज्य है और इसको भारत के संविधान के भाग 1 तथा अनुसूची 1 में रखा गया है (जो केंद्र एवं इसके राज्य क्षेत्र से संबंधित है)। किंतु इसका नाम, क्षेत्रफल या सीमा को केंद्र द्वारा बिना इसके विधान की सहमति से बदला नहीं जा सकता है।
2. जम्मू-कश्मीर राज्य का अपना स्वयं का संविधान है तथा इसी संविधान द्वारा इस पर प्रशासन चलाया जाता है। अतः भारत के संविधान का भाग VI (राज्य सरकार से संबंधित) इस राज्य पर लागू नहीं है। इस भाग के अंतर्गत राज्य की परिभाषा में जम्मू और कश्मीर शामिल नहीं है।
3. संसद राज्य के संबंध में संघ सूची में उल्लिखित अधिकतर विषयों पर और समवर्ती सूची में उल्लिखित काफी विषयों पर विधि बना सकती है। परन्तु अवशेषीय शक्तियां राज्य विधानमण्डल के पास हैं सिवाए आंतकवादी कृत्यों में संलिप्त को संरक्षण, भारत के राज्यक्षेत्र की अखण्डता और संप्रभुता पर प्रश्न या विघटन करने वाले मामले, राष्ट्रीय झण्डे, राष्ट्रगान और भारत के संविधान का सम्मान न करना। इसके अतिरिक्त राज्य में प्रतिबंधित निरोध का अधिकार केवल राज्य विधानमण्डल को है। इसका अर्थ है- संसद द्वारा बनाई गई प्रतिबंधित निरोध संबंधी विधियां राज्य में लागू नहीं होंगी।
4. भाग IV (राज्य नीति के निदेशक तत्वों से संबंधित) तथा भाग IV क (मूल कर्तव्यों से संबंधित) राज्य पर लागू नहीं होते।
5. भाग III (मूल अधिकारों से संबंधित) कुछ अपवादों एवं शर्तों के साथ राज्य पर लागू है। राज्य में संपत्ति मूल अधिकार अभी भी निश्चित है। राज्य के स्थायी निवासियों के लिए सार्वजनिक रोजगार, अचल संपत्ति पर हक, तथा सरकारी छात्रवृत्ति आदि कुछ विशेष अधिकार भी निश्चित हैं।
6. आंतरिक असंतुलन की स्थिति में घोषित आपातकाल से राज्य की सहमति के बिना राज्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
7. राष्ट्रपति को राज्य के संबंध में वित्तीय आपातकाल की घोषणा करने का अधिकार नहीं है।
8. राष्ट्रपति राज्य के संविधान को उसके दिए निर्देशों को न मानने की स्थिति में विघटित नहीं कर सकता।
9. राज्य आपातकाल (राष्ट्रपति शासन) राज्य पर लागू है। फिर भी, यह आपातकाल राज्य पर संवैधानिक तंत्र के (राज्य संविधान के न कि भारतीय संविधान के) विफल होने पर लागू हो सकता है। वास्तव में राज्य में दो तरीके से आपातकाल घोषित हो सकता है, जिनमें प्रथम भारतीय संविधान के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन तथा दूसरा राज्य संविधान के अंतर्गत राज्यपाल शासन है। 1986 में प्रथम बार राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा था।
10. राज्य के किसी क्षेत्र की व्यवस्था, को प्रभावित करने वाली अंतरराष्ट्रीय संधि या सहमति को केन्द्र, राज्य विधानमण्डल की सहमति के बिना प्रभावी नहीं कर सकता।
11. भारत के संविधान में किसी प्रकार का संशोधन राज्य पर लागू नहीं होता, जब तक कि यह राष्ट्रपति के आदेश द्वारा विस्तारित न हो जाए।
12. राजभाषा उपबंध राज्य पर प्रयोज्य हैं, जहां तक की संघ की राजभाषा, अंतर राज्य राजभाषा और केन्द्र- राज्य संचार और उच्चतम न्यायालय की कार्यवाहियों की भाषा का संबंध है।
13. 5वीं अनुसूची (अनुसूचित क्षेत्रों एवं अनुसूचित जनजातीय पर प्रशासन एवं नियंत्रण से संबंधित) तथा 6ठी अनुसूची (जनजातीय क्षेत्र के प्रशासन से संबंधित) राज्य पर लागू नहीं होती।
14. उच्चतम न्यायालय की विशेष अधिकार स्वीकृति तथा चुनाव आयोग, महानियंत्रक तथा महालेखाधिकारी जनरल का अधिकार क्षेत्र राज्य पर लागू है।
15. जम्मू कश्मीर का उच्च न्यायालय मूल अधिकारों को लागू करने के लिए (रिट) जारी कर सकता है अन्य किसी प्रयोजन के लिए नहीं।
16. पाकिस्तान जाने वालों को नागरिक अधिकार के निषेध संबंधी भाग II का प्रावधान जम्मू कश्मीर में स्थायी रूप से रहने वाले उन लोगों पर लागू नहीं होता जो पाकिस्तान जाकर पुनः राज्य में विस्थापित हुए हैं। ऐसे सभी व्यक्तियों को भारत का नागरिक माना जाता है।
अतः जम्मू-कश्मीर राज्य तथा भारतीय संघ के बीच विशेष संबंधों के दो गुण हैं- (अ) राज्य के पास अन्य राज्यों की अपेक्षा – अधिक स्वायत्ता तथा शक्तियां हैं, (ब) केंद्र का राज्य पर अधिकार क्षेत्र अन्य राज्यों की तुलना में सीमित है’।
जम्मू और कश्मीर राज्य के संविधान की विशेषतायें
सितंबर-अक्तूबर 1951 में, जम्मू एवं कश्मीर की संविधान सभा का निर्वाचन, राज्य के भविष्य के संविधान को तैयार करने हेतु तथा भारतीय संघ के साथ संबंध हेतु राज्य के लोगों द्वारा हुआ। यह संप्रभु निकाय पहली बार 31 अक्तूबर, 1951 को मिला। अपने इस कार्य को करने हेतु लगभग 5 वर्ष का समय लिया।
जम्मू एवं कश्मीर का संविधान 17 नवंबर, 1957 को अंगीकार किया गया तथा 26 जनवरी, 1957 को प्रभाव में आया। इसकी मुख्य विशेषताएं (जो समय-समय पर संशोधित हुई हैं) निम्न हैं:
1. यह घोषित करता है कि जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का एक अखंड भाग है।
2. यह राज्य के लोगों को न्याय, स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व सुरक्षित करता है।
3. इसके अनुसार जम्मू एवं कश्मीर राज्य में वह क्षेत्र सम्मिलित है, जो 15 अगस्त, 1947 के शासक के अंतर्गत था। इसका अर्थ यह है कि राज्य के अधीन क्षेत्रों में पाक अधिकृत क्षेत्र भी समाहित है।
4. इसके अनुसार भारत के उस नागरिक को राज्य का स्थायी निवासी माना जाएगा। जो 14 मई, 1954 को यदि (अ) वह श्रेणी I या श्रेणी II के राज्य के अधीन था (ब) राज्य में विधिवत रूप से अचल संपत्ति रखता हो, और उस तारीख से पूर्व 10 वर्ष तक राज्य का सामान्य निवासी हो, (स) वह व्यक्ति जो 14 मई, 1954 से पूर्व श्रेणी I या श्रेणी II के रूप राज्य विषय हो और वह 1 मार्च, 1947 के बाद पाकिस्तान से विस्थापित होकर राज्य में पुनर्विस्थापन के लिए लौटा हो।
5. यह स्पष्ट करता है कि राज्य के स्थायी निवासियों को भारतीय संविधान के अंतर्गत सभी निश्चित अधिकार प्रदान किए गए हैं। किंतु ‘स्थायी’ की परिभाषा में परिवर्तन का अधिकार केवल राज्य विधानसभा को है।
6. इसमें निदेशक तत्वों की एक सूची सम्मिलित है, जो मूल रूप में राज्य शासन में वर्णित है। फिर भी, यह न्यायिक रूप से प्रभावी नहीं है।
7. यहां द्विसदनीय विधानमंडल है, जिसमें विधानसभा तथा विधान परिषद सम्मिलित हैं। विधानसभा में जनता द्वारा सीधे चुने 111 सदस्य आते हैं। इसमें 24 पद रिक्त रखे गए हैं, जो पाक अधिकृत क्षेत्र के लिए स्वीकृत हैं। अतः अंतरिम गणना के लिए विधानसभा की कुल सदस्य संख्या सभी प्रायोगिक उद्देश्य के लिए 87 रखी गई है। विधानपरिषद में 36 सदस्य आते हैं। इनमें लगभग सभी अपरोक्ष रूप से चुने जाते हैं और इनमें कुछ राज्यपाल द्वारा नामित किए जाते हैं, जो राज्य विधानमंडल का एक अखंड भाग भी है।
8. यह राज्य की विशेष शक्तियों का अधिकार राज्यपाल को देता है, जो 5 वर्ष के लिए राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है। यह राज्य के कार्य निर्गमन हेतु उसे सहायता एवं परामर्श देने के लिए मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में मंत्रियों की परिषद प्रदान करता है। मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होती है। जम्मू एवं कश्मीर के मूल संविधान (1957) के अंतर्गत, राज्य का मुख्य एवं सरकार का मुख्य क्रमशः सदर-ए-रियासत (राष्ट्रपति) वजीर- ए-आजम (मुख्यमंत्री) के रूप में वर्णित हैं। 1965 में ये क्रमशः राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री के रूप में पुनःनामित किए गए। राज्य का मुखिया, राज्य विधानसभा द्वारा चुना जाता था।
9. यह उच्च न्यायालय की स्थापना करता है, जिनमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा दो या दो से अधिक अन्य न्यायाधीश सम्मिलित हैं। यह भारत के मुख्य न्यायाधीश तथा राज्य के राज्यपाल की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। जम्मू और कश्मीर का उच्च न्यायालय लेख प्रमाणों, याचिकाओं तथा कानूनी आज्ञापत्रों के रिकॉडों का न्यायालय है। फिर भी यह केवल मूल अधिकारों के प्रभावपूर्ण रूप से लागू करने के लिए रिट जारी कर सकता है। तथा अन्य किसी प्रयोजन के लिए नहीं।
10. यह राज्यपाल शासन भी प्रदान करता है। अतः राज्यपाल को भारत के राष्ट्रपति की सहमति के साथ, अपने आप में राज्य की सभी शक्तियों से युक्त कर सकता है, जिसमें उच्च न्यायालय की शक्तियां सम्मिलित नहीं हैं। यह विधानसभा को विघटित तथा मंत्रिपरिषद को निलंबित कर सकता है। राज्यपाल शासन तभी लागू होता है, जब राज्य प्रशासन, जम्मू एवं कश्मीर के संविधान के उपबंधों के अनुसार कार्य नहीं करता है। यह प्रथम बार 1977 में लागू हुआ था। स्मरण रहे 1964 में, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 (राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने से संबंधित) को जम्मू और कश्मीर राज्य पर विस्तरित किया गया था।
11. यह उर्दू को राज्य की आधिकारिक भाषा घोषित करता है। यह आधिकारिक उद्देश्य के लिए अंग्रेजी भाषा को भी अनुमोदित करता है, जब तक राज्य विधानमंडल अन्यथा उपबंधित न करे।
12. यह अपने में संशोधन करने का तरीका बताता है। यह राज्य विधानमंडल के सदनों में सदन की कुल संख्या के दो-तिहाई बहुमत से पास किए गए विधेयक द्वारा संशोधित किया जा सकता है। इस तरह का विधेयक केवल विधानसभा में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। यद्यपि संविधान संशोधन से संबंधित कोई भी विधेयक किसी भी सदन में नहीं लाया जा सकता, यदि इसमें राज्य एवं भारत के संघ के बीच संबंधों में परिवर्तन का कोई उपबंध होता है।
जम्मू-कश्मीर स्वायत्तता विधेयक-अस्वीकृत
26 जून, 2000 को एक ऐतिहासिक घटनाक्रम में, जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने राज्य स्वायत्तता समिति की सिफारिशों को ध्वनि मत से स्वीकार कर लिया। समिति ने अपनी रिपोर्ट में राज्य को और ज्यादा स्वायत्तता देने की सिफारिश की। समिति की प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार थीं:
1. संविधान के अनुच्छेद 370 में उल्लिखित शब्द ‘अस्थायी’ के स्थान पर ‘स्थायी’ शब्द रखा जाये।
2. केंद्र के पास केवल प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, संचार एवं सहायक विषयों पर ही कानून बनाने का अधिकार हो।
3. अनुच्छेद 356 को जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू नहीं किया जाये।
4. भारत के निर्वाचन आयोग की राज्य में कोई भूमिका न हो।
5. बाह्य आक्रमण या आंतरिक आपातकाल के संदर्भ में जम्मू-कश्मीर विधानसभा का निर्णय ही अंतिम निर्णय होगा।
6. जम्मू-कश्मीर में अखिल भारतीय सेवाओं (आई ए एस, आई पी एस और आई एफ एस) का कोई स्थान न हो।
7. राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री को क्रमशः सदर-ए-रियासत एवं वजीर-ए-आजम कहा जाये।
8. जम्मू-कश्मीर के लिये मूल अधिकारों का एक अलग अध्याय हो।
9. जम्मू-कश्मीर पर संसद एवं राष्ट्रपति की भूमिका को अत्यंत संक्षिप्त किया जाये।
10. उच्चतम न्यायालय में राज्य संबंधी कोई विशेष सुनवाई न हो।
11. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़े वर्ग के लिये कोई विशेष प्रावधान न हो।
12. अंतरराज्यीय नदियों एवं नदी घाटियों के संबंध में केंद्र के न्यायनिर्णयन अधिकार राज्य पर न हो।
13. राज्य उच्च न्यायालय के दीवानी एवं फौजदारी मुकदमों के निर्णय के विरूद्ध, उच्चतम न्यायालय को सुनवाई करने का अधिकार न हो।
14. संसद को जम्मू-कश्मीर राज्य के संविधान और प्रक्रिया में संशोधन का अधिकार नहीं होना चाहिये।
14 जुलाई, 2000, को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 26 जून जम्मू-कश्मीर राज्य स्वायत्तता प्रस्ताव की सिफारिशों को नामंजूर कर दिया। लेकिन इस अवसर पर उसने राज्य को और अधिक स्वायत्तता दिये जाने का आश्वासन अवश्य दिया। मंत्रिमंडल ने कहा कि इस समिति की सिफारिशों को इसलिये स्वीकार नहीं किया, क्योंकि यह राज्य में 1953 से पहले की स्थिति को वापस स्थापित करना चाहता था।
मंत्रिमंडल ने एकमत से कहा कि इस प्रस्ताव को आंशिक या पूर्ण किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि यह राज्य के लोगों की सहिष्णुता एवं देश की एकता एवं अखंडता के सिद्धांत के बिल्कुल विपरीत है।
जम्मू-कश्मीर राज्य के लोगों एवं राज्य सरकार के मामले में मंत्रिमंडल का मानना था कि राज्य के लोगों को देश की मुख्य धारा से जुड़ना चाहिये तथा देश की समस्याओं के समाधान में मिलकर प्रयास करना चाहिये। इस समय देश में सीमापार से आतंकवाद एवं उग्रवाद की समस्यायें काफी चुनौती प्रस्तुत कर रही हैं तथा देश के सभी लोगों को मिलकर इसका मुकाबला करना चाहिये।
जम्मू एवं कश्मीर के लिए वार्तालाप समूह
अक्टूबर 2010 में जम्मू-कश्मीर के लिए प्रख्यात पत्रकार दिलीप पदगावकर’ की अध्यक्षता में एक वार्तालाप समूह की नियुक्ति भारत सरकार द्वारा की गई। इस समूह को जिम्मेदारी दी गई कि वह जम्मू-कश्मीर राज्य में सभी वर्गों के साथ चर्चा करके राज्य की समस्याओं के हल के एक राजनीतिक समाधान को चिन्हित करे।
इस समूह ने अक्टूबर 2011 में केन्द्रीय गृह मंत्रालय को अपना प्रतिवेदन समर्पित किया। इस प्रतिवेदन का शीर्षक है-
“अ न्यू कॉम्पैक्ट विद द पीपुल ऑफ जम्मू एंड कश्मीर” समूह ने 1953 पूर्व की परिस्थितियों में लौटने की सीधी अनुशंसा नहीं की। इससे एक खतरनाक संवैधानिक निर्वात केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में सृजित होगा। घड़ी की सूई को पीछे नहीं ले जाया जा सकता।
इसके स्थान पर समूह ने एक संवैधानिक समिति के गठन की अनुशंसा की, जो कि 1952 के दिल्ली समझौते के बाद जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू भारतीय संविधान की धाराओं एवं केन्द्रीय अधिनियमों की समीक्षा करे। 10
प्रस्तावित संवैधानिक समिति का प्रमुख किसी का प्रतिष्ठित न्यायविद् को बनाया जाना चाहिए जिसका राज्य में तथा देश में सम्मान हो। इसके सदस्य राज्य के तथा देशभर में संवैधानिक वैधानिक विशेषज्ञ होने चाहिए। सभी संबंधित पक्षों को उनके द्वारा सुझाया विकल्प मान्य होना चाहिए।
अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए संवैधानिक समिति को जम्मू-कश्मीर राज्य के दोहरे चरित्र अथवा स्थिति का ध्यान रखना होगा अर्थात यह राज्य भारतीय संघ की एक इकाई भी है और दूसरी ओर भारतीय संविधान की धारा 370 के अंतर्गत इसे विशेष दर्जा भी प्राप्त है। समिति को यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि राज्य में नागरिक जम्मू-कश्मीर राज्य की प्रजा भी हैं तथा भारतीय नागरिक भी हैं। इसलिए समीक्षोपरांत यह निश्चित करना है कि केन्द्रीय अधिनियम एवं भारतीय संविधान की धाराएँ राज्य में संशोधन सहित अथवा संशोधन के बिना राज्य के विशेष दर्जे को कितनी क्षति पहुँचाएगी तथा राज्य के लोगों के कल्याण के लिए राज्य सरकार भी शक्तियों को किस सीमा तक कम किया है।
संवैधानिक समिति को इस अर्थ में भविष्योन्मुख होना चाहिए कि इसे जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख-राज्य के इन तीनों क्षेत्रों के लोगों के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक हित, चिंताओं, शिकायतों एवं आकांक्षाओं की पूर्ति की दिशा में राज्य को प्राप्त शक्तियों के आधार पर इसे स्थिति की समीक्षा करनी चाहिए। इस संबंध में समिति को यह भी विचार करना चाहिए कि राज्य सरकार को इन तीनों क्षेत्रों में विधायी, वित्तीय तथा प्रशासनिक शक्तियों को शासन के सभी स्तरों-क्षेत्रीय, जिला एवं पंचायत तथा नगरपालिका स्तर पर प्रतिनिधित्व करना चाहिए।
संवैधानिक समिति से छह माह के भीतर अपना काम पूरा करने का अनुरोध करना चाहिए। इसकी अनुशसांओं पर आम सहमति बननी चाहिए जिससे कि सभी सम्बद्ध पक्षों, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य विधानसभा तथा संसद में होता है, को वे स्वीकार्य हों। इस मामले पर दूसरा कदम राष्ट्रपति को संविधान के अनुच्छेद 370 की धारा (एक) तथा (तीन) के अधीन प्राप्त शक्तियों का उपयोग करते हुए संवैधानिक समिति की अनुशंसाओं पर आदेश जारी करना चाहिए। यह आदेश संसद के दोनों सदनों तथा राज्य विधायिका के प्रत्येक सदन में एक विधेयक द्वारा उपस्थित कुल सदस्यों में से दो-तिहाई बहुमत के अंतर से दृढ़ीकृत होना चाहिए।
इसके पश्चात राष्ट्रपति की सहमति के लिए इसे प्रस्तुत करना चाहिए। एक बार यह प्रक्रिया पूरी होने के बाद अनुच्छेद 370 की धाराएं (1) तथा (3) स्थगित हो जाएंगी तथा अंतिम आदेश के बाद राष्ट्रपति द्वारा कोई आदेश उक्त धाराओं के अंतर्गत पारित नहीं किए जाएँगे।
मतभेद के बिन्दुओं पर समूह की कुछ अनुशंसाएँ निम्नलिखित हैं:
1. अनुच्छेद 370 के शीर्षक तथा संविधान के भाग XXI के शीर्षक से “अस्थायी” शब्द को हटा दिया जाए। इसके स्थान पर “विशेष” शब्द प्रतिस्थापित किया जाए। जैसा कि इसे अन्य राज्यों के लिए अनुच्छेद 371 के अंतर्गत (महाराष्ट्र एवं गुजरात), अनुच्छेद 371-ए (नागालैंड), 371 बी. (असम), 371 सी (मणिपुर), 371 डी तथा ई. (आंध्र प्रदेश) 371 एफ. (सिक्किम), 371 जी. (मिजोरम), 371 एच. (अरुणाचल प्रदेश 371 आई (गोवा) के लिए इस्तेमाल किया गया है।
2. राज्यपाल के बारे में: राज्य सरकार को विपक्षी पार्टियों से विचार-विमर्श कर के राष्ट्रपति को तीन नामों की सूची भेजनी चाहिए। राष्ट्रपति अगर चाहें तो और सुझाव की माँग कर सकते हैं। राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जानी चाहिए तथा उन्हीं की अनुमति रहने तक कार्यभार संभालना चाहिए।
3. अनुच्छेद 356: राज्यपाल की कार्रवाई अब सर्वोच्च न्यायालय में न्याय योग्य है। वर्तमान व्यवस्था को जारी रहना चाहिए तथा राज्यपाल को राज्य विधायिका को भंग अवस्था में रखते हुए तीन महीने के अंदर नए चुनाव कराने चाहिए।
4. अनुच्छेद 312: अखिल भारतीय सेवाओं का अनुपात, राज्य सिविल सेवाओं के पक्ष में बिना प्रशासनिक कुशलता का अहित किए, क्रमशः कम करते जाना चाहिए।
5. अंग्रेजी में राज्यपाल तथा मुख्यमंत्री की संज्ञाएँ वर्तमान में जारी रहनी चाहिए। उर्दू में इन दोनों को संदर्भित करते समय उर्दू भी समतुल्य संज्ञाओं का प्रयोग करना चाहिए।
6. तीन क्षेत्रीय परिषदों का गठन होना चाहिए- जम्मू, कश्मीर तथा लद्दाख के लिए (लद्दाख इसके पश्चात कश्मीर का प्रभाग नहीं रह जाएगा)। इन तीनों परिषदों को कतिपय विधायी कार्यपालिका तथा वित्तीय शक्तियाँ दी जाएँ। पुनः पंचायती राज संस्थाओं का जिला, ग्राम पंचायत, नगरपालिका या नगर निगम को कार्यपालिका एवं वित्तीय शक्तियों का प्रतिनिधित्व किया जाए। यह सब एक ही पैकेज का हिस्सा होगा। यह सभी निकाय निर्वाचित होंगे। महिलाओं, अनु-जाति/जनजाति, पिछड़ी जातियों तथा अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व का प्रावधान हो। विधायकगण एक्स ऑफिशियो मेम्बर्स हों तथा उन्हें मतदान का अधिकार हो।
7. संसद को राज्य के लिए प्रयोज्य कोई कानून तब तक नहीं बनाना चाहिए जब तक कि देश की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा तथा आर्थिक हितों, विशेषकर, ऊर्जा एवं जल संसाधन के क्षेत्र में, को कोई खतरा न हो।
8. स्वशासी तथा वैधानिक संस्थाओं का विस्तार राज्य तक में हो और यह सुनिश्चित किया जाए कि उनकी कार्य प्रणाली जम्मू-कश्मीर राज्य के संविधान के अनुरूप है।
9. इन परिवर्तनों को पूर्व के राजघरानों की लय में ही लागू होना चाहिए। नियंत्रण रेखा पार से सहयोग के सभी अवसरों को प्रोत्साहित किया जाए। इसके लिए पाकिस्तान शासित जम्मू-कश्मीर में पर्याप्त संवैधानिक संशोधनों की जरूरत होगी।
10. इस बात को मानने के सभी उपयुक्त उपाय किए जाएँ कि जम्मू-कश्मीर दक्षिण तथा मध्य एशिया के बीच एक सेतु है।
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