राज्य विधानमंडल : 29


राज्य की राजनीतिक व्यवस्था में राज्य विधानमंडल की केन्द्रीय एवं प्रभावी भूमिका होती है।

संविधान के छठे भाग में अनुच्छेद 168 से 212 तक राज्य विधान मंडल की संगठन, गठन, कार्यकाल, अधिकारियों, प्रक्रियाओं, विशेषाधिकार तथा शक्तियों आदि के बारे में बताया गया है। यद्यपि ये सभी संसद के अनुरूप हैं फिर भी इनमें कुछ विभेद पाया जाता है।

राज्य विधानमंडल का गठन

राज्य विधानमंडल के गठन में कोई एकरूपता नहीं है। अधिकतर राज्यों में एक सदनीय व्यवस्था है, जबकि कुछ में द्विसदनीय है। वर्तमान में (2013) केवल छह राज्यों में दो सदन हैं, ये हैं-आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक और जम्मू एवं कश्मीर।’ तमिलनाडु विधान परिषद अधिनियम 2010 लागू नहीं हुआ। आंध्रप्रदेश में विधानपरिषद की स्थापना आंध्र प्रदेश विधान परिषद अधिनियम, 2005 द्वारा की गयी है। 1956 के 7वें संविधान संशोधन अधिनियम में मध्य प्रदेश के लिये भी विधानपरिषद की स्थापना का उपबंध किया गया था तथा इस संबंध में राष्ट्रपति द्वारा एक अधिसूचना जारी की जानी थी, जो अभी तक जारी नहीं की गई है, इसलिए अभी तक मध्य प्रदेश में एकसदनीय विधानमंडल ही है।

22 राज्यों में एक सदनीय व्यवस्था है। राज्य विधानमंडल में राज्यपाल एवं विधानसभा शामिल होते हैं, जिन राज्यों में द्विसदनीय व्यवस्था है, वहां विधानमंडल में राज्यपाल, विधानपरिषद् और विधानसभा होते हैं। विधान परिषद उच्च सदन (द्वितीय सदन या वरिष्ठों का सदन) है, जबकि विधानसभा निचला सदन (पहला सदन या लोकप्रिय सदन) होता है।

संविधान में राज्य में विधानपरिषद के गठन एवं विघटन करने की व्यवस्था है। संसद एक विधानपरिषद को (यदि यह पहले से है) विघटित कर सकती है और (यदि पहले से नहीं है) इसका गठन कर सकती है। यदि संबंधित राज्य की विधानसभा इस संबंध में संकल्प पारित करे। इस तरह का कोई विशेष प्रस्ताव राज्य विधानसभा द्वारा पूर्ण बहुमत से पारित होना जरूरी है। यह बहुमत कुल मतों एवं उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई से कम नहीं होना चाहिए। संसद का यह अधिनियम अनुच्छेद 144 के प्रयोजनों हेतु संविधान का संशोधन नहीं माना जाएगा और सामान्य विधान की तरह (अर्थात् साधारण बहुमत से) पारित किया जायेगा।

संविधान सभा ने राज्य में दूसरे सदन के विचार की आलोचना इस आधार पर की कि यहां जनता का प्रतिनिधित्व नहीं होगा। यह विधायी कार्यों में विलंब करेगा और संस्था बहुत खर्चीली होगी। इसी कारण से यह उपबंध किया गया है कि यदि किसी राज्य में विधानपरिषद की स्थापना या गठन करना है तो उस राज्य को अपनी इच्छा व आर्थिक स्थिति का ध्यान रखना होगा। उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश में 1957 में विधान परिषद का गठन किया गया और उसी तरह 1985 में इसे समाप्त कर दिया गया। पुनः 2007 में आंध्र प्रदेश में विधान परिषद को आंध्र प्रदेश विधान परिषद अधिनियम 2005 को लागू करने के बाद पुनजीर्वित किया गया। तमिलनाडु विधानपरिषद को 1986 में समाप्त कर दिया गया और पंजाब एवं पश्चिम बंगाल की विधानपरिषद को 1969 में समाप्त कर दिया गया।

2010 में तमिलनाडु विधान सभा ने राज्य में विधान परिषद को पुनर्जीवित करने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया। उसी के अनुसार संसद ने तमिलनाडु विधान परिषद अधिनियम, 2010 अधिनियमित किया जिससे कि राज्य में विधान परिषद सृजित की जा सके। तथापि इस अधिनियम के लागू होने के पहले ही तमिलनाडु विधान सभा में 2011 में एक अन्य प्रस्ताव में प्रस्तावित विधान परिषद को उन्मूलित करने का प्रस्ताव पारित कर दिया।

दो सदनों का गठन

विधानसभा का गठन

संख्या : विधानसभा के प्रतिनिधियों को प्रत्यक्ष मतदान से वयस्क मताधिकार के द्वारा निर्वाचित किया जाता है। इसकी अधिकतम संख्या 500 और निम्नतम 60 तय की गई है। इसका अर्थ है कि 60 से 500 के बीच की यह संख्या राज्य की जनसंख्या एवं इसके आकार पर निर्भर है। हालांकि अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम एवं गोवा के मामले में यह संख्या 30 तय की गई है एवं मिजोरम व नागालैंड के मामले में क्रमशः 40 एवं 46। इसके अलावा सिक्किम और नागालैंड विधानसभा के कुछ सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से भी चुने जाते हैं।

नामित सदस्यः राज्यपाल, आंग्ल-भारतीय समुदाय से एक सदस्य को नामित कर सकता है। यदि इस समुदाय का प्रतिनिधि विधानसभा में पर्याप्त नहीं हो। मूलतः यह उपबंध दस वर्षों (1960 तक) के लिए था, लेकिन इसे हर बार 10 वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया। 95वें संविधान संशोधन 2009 में इसे 2020 तक के लिए बढ़ा दिया गया है।

क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्र : विधानसभा के लिए होने वाले प्रत्यक्ष निर्वाचन पर नियंत्रण के लिए हर राज्य को क्षेत्रीय विभाजन के आधार पर बांट दिया गया है। इन चुनाव क्षेत्रों का निर्धारण, राज्य को आवंटित सीटों की संख्या को जनसंख्या के अनुपात से तय किया जाता है। दूसरे शब्दों में, संविधान में यह सुनिश्चित किया गया कि राज्य के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों को समान प्रतिनिधित्व मिले। ‘जनसंख्या’ का अभिप्राय वह पिछली जनगणना है, जिसकी सूची प्रकाशित की गई हो।

प्रत्येक जनगणना के बाद पुनर्निर्धारणः प्रत्येक जनगणना के बाद पुनर्निर्धारण होगा (अ) प्रत्येक राज्य के विधानसभा क्षेत्रों के हिसाब से सीटों का निर्धारण और (ब) हर राज्य का निर्वाचन क्षेत्रों के हिसाब से विभाजन । संसद को इस बात का अधिकार है कि वह संबंधित मामले का निर्धारण करे। इसी उद्देश्य के तहत 1952, 1962, 1972 और 2002 में संसद ने परीसीमन आयोग अधिनियम पारित किये।

1976 के 42वें संशोधन में विधानसभा के निर्वाचन क्षेत्रों को 1971 के आधार पर वर्ष 2000 तक के लिए निश्चित कर दिया गया, पुनर्निर्धारण पर यह प्रतिबंध अगले 25 वर्षों (2026) तक बढ़ा दिया गया। 2001 के 84वें संशोधन अधिनियम द्वारा इसी तरह जनसंख्या मापन को भी तय कर दिया गया।

84वें संशोधन अधिनियम 2001 में सरकार को यह अधिकार भी दिया गया कि विधानसभा क्षेत्रों की तुलनात्मक पुनर्निर्धारण को 1991 की जनगणना के आधार पर किया जाए। उसके बाद 87वें संशोधन अधिनियम 2003 में निर्वाचन क्षेत्रों का निर्धारण 2001 की जनसंख्या के हिसाब से करने की व्यवस्था की गई। हालांकि यह पुनर्निर्धारण प्रत्येक राज्य में विधानसभा की कुल सीटों के अनुसार ही संभव है।

अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए स्थानों का आरक्षणः संविधान में राज्य की जनसंख्या के अनुपात के आधार पर प्रत्येक राज्य की विधानसभा के लिए अनुसूचित जाति/जनजाति की सीटों की व्यवस्था की गई है।

मूल रूप से यह आरक्षण 10 वर्ष (1960 तक) के लिए था लेकिन इस व्यवस्था को हर बार दस वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया। अब 79वें संशोधन अधिनियम 1999 के तहत इस आरक्षण को 2010 तक बढ़ा दिया गया।

परिषद का गठन

संख्या : विधानसभा सदस्यों के विपरीत विधानपरिषद के सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होते हैं। परिषद में अधिकतम संख्या विधानसभा की एक-तिहाई और न्यूनतम 40° निश्चित है। इसका मतलब संबंधित राज्य में परिषद सदस्य की संख्या, विधानसभा के आकार पर निर्भर है। ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया कि प्रत्यक्ष निर्वाचित सदन (सभा) का प्रभुत्व राज्य के मामलों में बना रहे। यद्यपि संविधान ने परिषद की अधिकतम एवं न्यूनतम संख्या तय कर दी है। इसकी वास्तविक संस्था का निर्धारण संसद द्वारा किया जाता है।

निर्वाचन पद्धति विधानपरिषद के कुल सदस्यों में से-

1. 1/3 सदस्य स्थानीय निकायों, जैसे-नगरपालिका, जिला बोर्ड आदि के द्वारा चुने जाते हैं।

2. 1/12 सदस्यों को राज्य में रह रहे 3 वर्ष से स्नातक निर्वाचित करते हैं।

3. 1/12 सदस्यों का निर्वाचन 3 वर्ष से अध्यापन कर रहे लोग चुनते हैं लेकिन ये अध्यापक माध्यमिक स्कूलों से कम के नहीं होने चाहिये।

4. 1/3 सदस्यों का चुनाव विधानसभा के सदस्यों द्वारा किया जाता है, और

5. बाकी बचे हुए सदस्यों का नामांकन राज्यपाल द्वारा उन लोगों के बीच से किया जाता है, जिन्हें साहित्य, ज्ञान, कला, सहकारिता आंदोलन और समाज सेवा का विशेष ज्ञान व व्यावहारिक अनुभव हो।

इस तरह विधानपरिषद के कुल सदस्यों में से 5/6 सदस्यों का अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव होता है और 1/6 को राज्यपाल नामित करता है। सदस्य, एकल संक्रमणीय मत के द्वारा समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के माध्यम से चुने जाते हैं। राज्यपाल द्वारा नामित सदस्यों को किसी भी स्थिति में अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है। विधानपरिषद के गठन की यह प्रक्रिया संविधान में अस्थायी है, न कि अंतिम। संसद इसको बदलने और सुधारने के लिए अधिकृत है, हालांकि अभी तक संसद ने ऐसी कोई विधि नहीं बनाई है।

दोनों सदनों का कार्यकाल

विधानसभा का कार्यकाल

लोकसभा की तरह विधानसभा भी निंरतर चलने वाला सदन नहीं है। आम चुनाव के बाद पहली बैठक से लेकर इसका सामान्य कार्यकाल पांच वर्ष का होता है। इस काल के समाप्त होने पर विधानसभा स्वतः ही विघटित हो जाती है, हालांकि इसे किसी भी समय विघटित करने के लिए राज्यपाल अधिकृत है (इसके पांच वर्ष पूरे होने के पहले भी) ताकि नष्ठ चुनाव हो सकें।

राष्ट्रीय आपातकाल के समय में संसद द्वारा विधानसभा का – कार्यकाल एक समय में एक वर्ष तक के लिए (कितने भी समय के लिए) बढ़ाया जा सकता है, हालांकि यह विस्तार आपातकाल खत्म होने के बाद छह महीने से अधिक का नहीं हो सकता है। अर्थात आपातकाल खत्म होने के छह महीने के भीतर विधानसभा का दोबारा निर्वाचन हो जाना चाहिए।

विधानपरिषद का कार्यकाल

राज्यसभा की तरह विधानपरिषद एक सतत सदन है, यानी कि स्थायी अंग जो विघटित नहीं होता। लेकिन इसके एक-तिहाई सदस्य, प्रत्येक दूसरे वर्ष में सेवानिवृत्त होते रहते हैं। इस तरह एक सदस्य छह वर्ष के लिए सदस्य बनता है। खाली पदों को नये चुनाव और नामांकन (राज्यपाल द्वारा) द्वारा हर तीसरे वर्ष के प्रारंभ में भरा जाता है। सेवानिवृत्त सदस्य भी पुनर्चुनाव और दोबारा नामांकन हेतु योग्य होते हैं।

राज्य विधानमंडल की सदस्यता

1. अर्हताएं

विधानमंडल का सदस्य चुने जाने के लिए संविधान में उल्लिखित किसी व्यक्ति की अर्हताएं निम्नलिखित हैं:

(अ) उसे भारत का नागरिक होना चाहिए।

(ख) उसे चुनाव आयोग द्वारा अधिकृत किसी व्यक्ति के समक्ष शपथ लेनी पड़ती है, जिसमें वह संकल्प करता है कि,

(i) वह भारत के संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा रखेगा, तथा;

(ii) भारत की संप्रभुता एवं अखंडता को अक्षुण्ण रखेगा।

(स) उसकी आयु विधान सभा के स्थान के लिए कम से कम 25 वर्ष और विधान परिषद के स्थान के लिए कम से कम 30 वर्ष होनी चाहिए।

(द) उसमें संसद द्वारा निर्धारित अन्य अर्हताएं भी होनी चाहिये। जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम (1951) के तहत संसद ने निम्नलिखित अतिरिक्त अर्हताओं का निर्धारण किया है:

(1) विधानपरिषद में निर्वाचित होने वाला व्यक्ति विधानसभा का निर्वाचक होने की अर्हता रखता हो और उसमें राज्यपाल द्वारा नामित होने के लिए संबंधित राज्य का निवासी होना चाहिए।

(2) विधानसभा सदस्य बनने वाला व्यक्ति संबंधित राज्य के निर्वाचन क्षेत्र में मतदाता भी होना चाहिए।

(3) अनुसूचित जाति/जनजाति का सदस्य होना चाहिए यदि वह अनुसूचित जाति/जनजाति की सीट के लिए चुनाव लड़ता है। यद्यपि अनुसूचित जाति या जनजाति का सदस्य उस सीट के लिए भी चुनाव लड़ सकता है, जो उसके लिए आरक्षित न हो।

2. निरर्हताएं

संविधान के अनुसार, कोई व्यक्ति राज्य विधानपरिषद या विधानसभा के लिए चुने जाने और इसकी सदस्यता से निरर्ह होगाः

(i) यदि वह केंद्र या राज्य सरकार के (मंत्री या राज्य विधानमंडल से छूट प्राप्त कोई अन्य कार्यालय) तहत किसी लाभ के पद पर है।

(ⅱ) यदि वह विकृतिचित्त है और सक्षम न्यायालय की ऐसी घोषणा विधमान है।

(ii) यदि वह अनुन्मोचित दिवालिया हो।

(iv) यदि वह भारत का नागरिक न हो या उसने विदेश में कहीं नागरिकता स्वेच्छा से अर्जित कर ली हो या वह किसी विदेशी राज्य के प्रति निष्ठा या अनुषक्ति को अभिस्वीकार किए हुए है।

(v) संसद द्वारा निर्मित किसी विधि द्वारा या उसके अधीन इस प्रकार निरर्हित कर दिया जाता है।

वे निम्नवत् हैं:

1. वह चुनाव में किसी प्रकार के भ्रष्ट आचरण अथवा चुनावी अपराध का दोषी नहीं पाया गया हो।

2. उसे किसी ऐसे अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया गया हो जिसके लिए उसे दो या अधिक वर्षों की कैद की सजा मिली हो। लेकिन किसी व्यक्ति का किसी निरोधात्मक कानून के अंतर्गत निरुद्ध करना अयोग्यता नहीं मानी जाएगी।

3. वह निर्धारित समय सीमा के अन्दर चुनावी खर्च संबंधित विवरण प्रस्तुत करने में विफल नहीं रहा हो।

4. उसका किसी सरकारी ठेके, कार्य अथवा सेवाओं में कोई रुचि नहीं हो।

5. वह किसी ऐसे निगम में लाभ के पद पर कार्यरत नहीं हो अथवा उसका निदेशक या प्रबंधकीय एजेन्ट नहीं हो, जिसमें सरकार की कम से कम 25% हिस्सेदारी हो।

6. वह भ्रष्टाचार अथवा सरकार के प्रति विश्वासघात के कारण सरकारी सेवा से हटाया गया हो।

7. उसे विभिन्न समूहों के बीच वैमनस्य बढ़ाने अथवा घूसखोरी के अपराध में दोषी नहीं ठहराया गया हो।

8. उसे अस्पृश्यता, दहेज तथा सती प्रथा आदि जैसे सामाजिक अपराधों में संलिप्तता अथवा इन्हें बढ़ावा देने के लिए दण्डित नहीं किया गया हो

जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम (1951) के तहत संसद ने कुछ अतिरिक्त निरर्हताएं निधारित की हैं, ये संसद के समान ही हैं।

उपरोक्त निरर्हताओं के संबंध में किसी सदस्य के प्रति यदि प्रश्न उठे तो राज्यपाल का निर्णय अंतिम होगा। हालांकि इस मामले में वह चुनाव आयोग की सलाह लेकर काम करता है।

दल-बदल के आधार पर निरर्हता संविधान में यह प्रख्यापित है कि यदि कोई व्यक्ति दसवीं अनुसूची के उपबंधों के अंतर्गत दल-परिवर्तन के आधार पर निरर्ह होता है तो वह राज्य विधानमण्डल के किसी भी सदन की सदस्यता के लिए निरर्ह रहेगा।

10वीं अनुसूची के तहत यदि निरर्हता का मामला उठे तो विधान परिषद के मामले में सभापति एवं विधानसभा के मामले में अध्यक्ष (राज्यपाल नहीं) फैसला करेगा। 1992 में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी है की सभापति/अध्यक्ष का फैसला न्यायिक समीक्षा की परिधि में आता है।

3. शपथ या प्रतिज्ञान

विधानमंडल के प्रत्येक सदन का प्रत्येक सदस्य सदन में सीट ग्रहण करने से पहले राज्यपाल या उसके द्वारा इस कार्य के लिए नियुक्त व्यक्ति के समक्ष शपथ या प्रतिज्ञान लेगा। इस शपथ में विधानमंडल का सदस्य प्रतिज्ञा करता है कि वह,

(अ) भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखेगा।
(ब) भारत की प्रभुता व अखंडता को अक्षुण्ण रखेगा।
(स) प्रदत्त कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करेगा।

बिना शपथ लिए कोई भी सदस्य सदन में न तो मत दे सकता है और न ही कार्यवाही में भाग ले सकता है।

एक व्यक्ति यदि सदन में सदस्य की तरह बैठता है और मतदान करता है तो उस पर प्रतिदिन पांच सौ रुपये जुर्माना लगेगाः

(अ) शपथ या प्रतिज्ञा लेने से पहले या

(ब) जब वह ये जानता हो कि वह अर्हक नहीं है या इसकी सदस्यता के लिए निरर्ह है।

(स) जब वह संसद या विधानमंडल द्वारा निर्मित विधि के तहत सदन में बैठने या मत देने से प्रतिबंधित हो।

विधानमंडल के सदस्यों को समय-समय संसद द्वारा पर निर्धारित वेतन एवं भत्ते मिलते रहते हैं।

4. स्थानों का रिक्त होना

निम्नलिखित मामलों में विधानमंडल का सदस्य पद छोड़ता है:

(अ) दोहरी सदस्यता : एक व्यक्ति एक समय में विधानमंडल के दोनों सदनों का सदस्य नहीं हो सकता। यदि कोई व्यक्ति दोनों सदनों के लिए निर्वाचित होता है तो राज्य विधानमंडल द्वारा निर्मित विधि के उपबंधों के तहत एक सदन से उसकी सीट रिक्त हो जाएगी।

(ब) निरर्हता : राज्य विधानमंडल का कोई सदस्य यदि निरर्ह पाया जाता है, तो उसका पद रिक्त हो जाएगा।

(स) त्यागपत्र : कोई सदस्य अपना लिखित इस्तीफा विधान परिषद के मामले में सभापति और विधानसभा के मामले में अध्यक्ष को दे सकता है। त्यागपत्र स्वीकार होने पर उसका पद रिक्त हो जाएगा।

(द) अनुपस्थिति : यदि कोई सदस्य बिना पूर्व अनुमति के 60 दिन तक बैठकों से अनुपस्थित रहता है तो सदन उसके पद को रिक्त घोषित कर सकता है।

(ई) अन्य मामले : किसी सदस्य का पद रिक्त हो सकता है:

(i) यदि न्यायालय द्वारा उसके निर्वाचन को अमान्य ठहरा दिया जाए,

(ii) यदि उसे सदन से निष्काषित कर दिया जाए,

(iii) यदि वह राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के पद पर निर्वाचित हो जाए और

(iv) यदि वह किसी राज्य का राज्यपाल निर्वाचित हो जाए।

विधानमंडल के पीठासीन अधिकारी

राज्य विधानमंडल के प्रत्येक सदन का अपना पीठासीन अधिकारी होता है। विधानसभा के लिए अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष और विधानपरिषद के लिए सभापति एवं उप सभापति होते हैं। विधानसभा के लिए सभापति का पैनल एवं परिषद के लिए उपसभाध्यक्ष का पैनल भी नियुक्त होता है।

विधानसभा अध्यक्ष

विधानसभा के सदस्य अपने सदस्यों के बीच से ही अध्यक्ष का निर्वाचन करते हैं। सामान्यतः विधानसभा के कार्यकाल तक अध्यक्ष का पद होता है। हालांकि वह निम्नलिखित तीन मामलों में अपना पद रिक्त करता है:

1. यदि उसकी विधानसभा सदस्यता समाप्त हो जाए।

2. यदि वह उपाध्यक्ष को अपना लिखित में त्यागपत्र दे दे और

3. यदि विधानसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पर से हटाया जाए। इस तरह का कोई प्रस्ताव केवल 14 दिन की पूर्व सूचना के बाद ही लाया जा सकता है।

अध्यक्ष की निम्नलिखित शक्तियां एवं कार्य होते हैं:

1. कार्यवाही एवं अन्य कार्यों को सुनिश्चित करने के लिए वह व्यवस्था एवं शिष्टाचार बनाए रखता है। यह उसकी प्राथमिक जिम्मेदारी है और इस संबंध में उसकी शक्तियां अंतिम हैं।

2. वह प्रक्रिया है (अ) भारत के संविधान का (ब) सभा के नियमों एवं कार्य संचालन की कार्यवाही में (स) विधान में इसकी पूर्व परंपराओं का, के उपबंधों का अंतिम व्यायाकर्ता है।

3. कोरम की अनुपस्थिति में वह विधानसभा की बैठक को स्थगित या निलंबित कर सकता है।

4. प्रथम मामले में वह मत नहीं देता लेकिन बराबर मत होने की स्थिति में वह निर्णायक मत दे सकता है।

5. सदन के नेता के आग्रह पर वह गुप्त बैठक को अनुमति प्रदान कर सकता है।

6. वह इस बात का निर्णय करता है कि कोई विधेयक वित्त विधेयक है या नहीं। इस प्रश्न पर उसका निर्णय अंतिम होगा।

7. दसवीं अनुसूची के उपबंधों आधार पर किसी सदस्य की निरर्हता को लेकर उठे किसी विवाद पर फैसला देता है।

8. वह विधानसभा की सभी समितियों के अध्यक्ष की नियुक्ति है और उनके कार्यों का पर्यवेक्षण करता है। वह स्वयं कार्य मंत्रणा समिति, नियम समिति एवं सामान्य उद्देश्य समिति का अध्यक्ष होता है।

विधानसभा उपाध्यक्ष

अध्यक्ष की तरह ही विधानसभा के सदस्य उपाध्यक्ष का चुनाव भी अपने बीच से ही करते हैं। अध्यक्ष का चुनाव संपन्न होने के बाद उसे निर्वाचित किया जाता है।

अध्यक्ष की ही तरह उपाध्यक्ष भी विधानसभा के कार्यकाल तक पद पर बना रहता है, हालांकि वह समय से पूर्व भी निम्नलिखित तीन मामलों में पद छोड़ सकता है:

(1) यदि उसकी विधानसभा सदस्यता समाप्त हो जाए।

(2) यदि वह अध्यक्ष को लिखित इस्तीफा दे और

(3) यदि विधानसभा सदस्य बहुमत के आधार पर उसे हटाने का संकल्प पास कर दे। यह संकल्प 14 दिन की पूर्व सूचना के बाद ही लाया जा सकता है।

उपाध्यक्ष, अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उसके सभी कार्यों को करता है। यदि विधानसभा सत्र के दौरान अध्यक्ष अनुपस्थित हो तो वह उसी तरह कार्य करता है। दोनों मामलों में उसकी शक्तियां अध्यक्ष के समान रहती हैं।

विधानसभा अध्यक्ष सदस्यों के बीच से सभापति पैनल का गठन करता है, उनमें से कोई भी एक अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष की अनुपस्थिति में सभा की कार्यवाही संपन्न कराता है। जब वह पीठासीन होता है तो, उस समय उसे अध्यक्ष के समान अधिकार प्राप्त होते हैं। वह सभापति के नए पैनल के गठन तक कार्यरत रहता है।

विधान परिषद का सभापति

विधान परिषद के सदस्य अपने बीच से ही सभापति को चुनते हैं। सभापति निम्नलिखित तीन मामलों में पद छोड़ सकता हैं:

(1) यदि उसकी सदस्यता समाप्त हो जाए।

(2) यदि वह उप सभापति को लिखित त्यागपत्र दे, और

(3) यदि विधानपरिषद में उपस्थित तत्कालीन सदस्य बहुमत से उसे हटाने का सकल्प पास कर दें। इस तरह का प्रस्ताव 14 दिनों की पूर्व सूचना के बाद ही लाया जा सकता है।

पीठासीन अधिकारी के रूप में परिषद के सभापति की शक्तियां एवं कार्य विधानसभा के अध्यक्ष की तरह हैं। हालांकि सभापति को एक विशेष अधिकार प्राप्त नहीं है जो अध्यक्ष को है कि अध्यक्ष यह तय करता है कि कोई विधेयक वित्त विधेयक है या नहीं और उसका फैसला अंतिम होता है।

अध्यक्ष की तरह सभापति का वेतन व भत्ते भी विधानमंडल तय करता है। इन्हें राज्य की संचित निधि पर भारित किया जाता है और इसलिए इन पर राज्य विधानमण्डल द्वारा वार्षिक मतदान नहीं किया जा सकता।

विधान परिषद का उपसभापति

सभापति की तरह ही उप सभापति को भी परिषद के सदस्य अपने बीच से चुनते हैं।

उप-सभापति निम्नलिखित तीन मामलों में अपना पद छोड़ सकता हैं:

1. यदि उसकी परिषद् से सदस्यता समाप्त हो जाए,

2. यदि वह सभापति को लिखित त्यागपत्र दे, और;

3. परिषद के तत्कालीन सदस्य बहुमत से उसके खिलाफ संकल्प पास कर दें, इस तरह का संकल्प 14 दिन की पूर्व सूचना पर ही लाया जा सकता है।

सभापति की अनुपस्थिति में उप-सभाध्यक्षों ही कार्यभार संभालता है। परिषद की बैठक के दौरान सभापति के न होने पर वह उसी की तरह काम करता है। दोनों ही मामलों में उसकी शक्तियां सभापति के समान होती हैं।

सभापति, सदस्यों के बीच से ही उप-सभाध्यक्षों की सूची जारी करता है। सभापति और उप-सभापति की अनुपस्थिति में उनमें से कोई भी कार्यभार संभालता है। वह उप-सभाध्यक्षों की नई सूची तक कार्य करते हैं।

राज्य विधानमंडल सत्र

आहूत करना

राज्य विधानमंडल के प्रत्येक सदन को राज्यपाल समय-समय पर बैठक का बुलावा भेजता है। दोनों सत्रों के बीच छह माह से अधिक का समय नहीं होना चाहिए। राज्य विधानमंडल को एक वर्ष में कम से कम दो बार मिलना चाहिए। एक सत्र में विधानमंडल की कई बैठकें हो सकती हैं।

स्थगन

बैठक को किसी समय विशेष के लिए स्थगित भी किया जा सकता है। यह समय घंटों, दिनों या हफ्तों का भी हो सकता है।

अनिश्चित काल स्थगन का मतलब है कि चालू सत्र को अनिश्चित काल तक के लिए समाप्त कर देना। इन दोनों तरह के स्थगन का अधिकार सदन के पीठासीन अधिकारी को है।

सत्रावसान

पीठासीन अधिकारी (अध्यक्ष या सभापति) कार्य संपन्न होने पर सत्र को अनिश्चित काल के लिए स्थगन की घोषणा करते हैं। इसके कुछ दिन बाद राष्ट्रपति सत्रावसान की अधिसूचना जारी करता है।

हालांकि सत्र के बीच में भी राज्यपाल सत्रावसान की घोषणा कर सकता है। स्थगन के विपरीत सत्रावसान सदन के सत्र को समाप्त करता है।

विघटन

एक स्थायी सदन के होने के नाते विधानपरिषद कभी विघटित नहीं हो सकती। सिर्फ विधानसभा ही विघटित हो सकती है। सत्रावसान के विपरीत विघटन से वर्तमान सदन का कार्यकाल समाप्त हो जाता है और आम चुनाव के बाद नए सदन का गठन होता है।

विधानसभा के विघटित होने पर विधेयकों के खारिज होने को हम इस प्रकार समझ सकते हैं:

1. विधानसभा में लंबित विधेयक समाप्त हो जाता है। (चाहे मूल रूप से यह विधानसभा द्वारा प्रारंभ किया गया हो या फिर इसे विधान परिषद द्वारा भेजा गया हो)।

2. विधानसभा द्वारा यह पारित विधेयक लेकिन विधानपरिषद में है।

3. ऐसा विधेयक जो विधानपरिषद में लंबित हो लेकिन विधानसभा द्वारा पारित न हो, को खारिज नहीं किया जा सकता।

4. ऐसा विधेयक जो विधानसभा द्वारा पारित हो (एक सदनीय विधानमंडल वाले राज्य में) या दोनों सदनों द्वारा पारित हो (बहु-सदनीय व्यवस्था वाले राज्य में) लेकिन राज्यपाल या राष्ट्रपति की स्वीकृति के कारण रुका हुआ हो, को खारिज नहीं किया जा सकता ।

5. ऐसा विधेयक जो विधानसभा द्वारा पारित हो (एक सदनीय विधानमंडल वाले राज्य में) या दोनों सदनों द्वारा पारित हो (बहु-सदनीय व्यवस्था वाले राज्य में) लेकिन राष्ट्रपति द्वारा सदन के पास पुनर्विचार हेतु लौटाया गया हो को समाप्त नहीं किया जा सकता।

कोरम (गणपूर्ति)

किसी भी कार्य को करने के लिए उपस्थित सदस्यों की एक न्यूनतम संख्या को कोरम कहते हैं। यह सदन में दस सदस्य या कुल सदस्यों का दसवां हिस्सा (पीठासीन अधिकारी सहित) होता है, इनमें से जो भी ज्यादा हो। यदि सदन की बैठक के दौरान कोरम न हो तो यह पीठासीन अधिकारी का कर्तव्य है कि सदन को स्थगित करे या कोरम पूरा होने तक सदन को स्थगित रखे।

सदन में मतदान

किसी भी सदन की बैठक में सभी मामलों को उपस्थित सदस्यों के बहुमत के आधार पर तय किया जाता है और इसमें पीठासीन 5 अधिकारी का मत सम्मिलित नहीं होता है। केवल कुछ मामले जिन्हें विशेष रूप से संविधान में तय किया गया है, जैसे- विधानसभा अध्यक्ष को हटाना या विधानपरिषद के सभापति को हटाना इनमें सामान्य बहुमत की बजाय विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। पीठासीन अधिकारी (विधानसभा अध्यक्ष या विधानपरिषद के मामले में सभापति) पहले मामले में मत नहीं दे सकते, लेकिन बराबर मतों की स्थिति में निर्णायक मत दे सकते हैं।

विधानमंडल में भाषा

संविधान विधानमंडल में कामकाज संपन्न कराने के लिए कार्यालयी भाषा या उस राज्य के लिए हिंदी अथवा अंग्रेजी की घोषणा करता है। हालांकि पीठासीन अधिकारी किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकता है। राज्य विधानमंडल यह निर्णय लेने को स्वतंत्र है कि सदन में अंग्रेजी भाषा को जारी रखा जाए या नहीं, ऐसा वह संविधान के प्रारंभ होने के 15 वर्ष बाद (1965 से) तक के लिए कर सकता है। हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा के मामले में यह समय सीमा 25 वर्ष है और अरुणाचल प्रदेश, गोवा और मिजोरम के मामले में चालीस वर्ष।

मंत्रियों एवं महाधिवक्ता के अधिकार

सदन का सदस्य होने के नाते प्रत्येक मंत्री एवं महाधिवक्ता को यह अधिकार है कि वह सदन की कार्यवाही में भाग ले, बोले एवं सदन से संबद्ध समिति जिसके लिए वह सदस्य रूप में नामित है, वोट देने के अधिकार के बिना भी भाग ले। संविधान के इस उपबंध के लिए दो कारण हैं:

1. एक मंत्री उस सदन की कार्यवाही में भी भाग ले सकता है जिसका वह सदस्य नहीं है।

2. एक मंत्री जो सदन का सदस्य नहीं है, दोनों सदनों की कार्यवाही में भाग ले सकता है।

विधानमंडल में विधायी प्रक्रिया

साधारण विधेयक

विधेयक का प्रारंभिक सदन : एक साधारण विधेयक विधानमंडल

के किसी भी सदन में प्रारंभ हो सकता है (बहुसदनीय विधानमंडल व्यवस्था के अंतर्गत)। ऐसा कोई भी विधेयक या तो मंत्री द्वारा या किसी अन्य सदस्य द्वारा पुरः स्थापित किया जाएगा। विधेयक प्रारंभिक सदन में तीन स्तरों से गुजरता है:

1. प्रथम पाठन

2. द्वितीय पाठन

3. तृतीय पाठन

प्रारंभिक सदन से विधेयक के पारित होने के बाद इसे दूसरे सदन में विचारार्थ और पारित करने हेतु भेजा जाता है, जब विधानमंडल के दोनों सदन इसे इसके मूल रूप में या संशोधित कर पारित करते हैं तो इसे पारित माना जाता हैं। एक सदनीय व्यवस्था वाले विधानमंडल में इसे पारित कर सीधे राज्यपाल की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है।

दूसरे सदन में विधेयक

दूसरे सदन में भी विधेयक उन तीनों स्तरों के बाद पारित होता है, जिन्हें प्रथम पाठन, द्वितीय पाठन एवं तृतीय पाठन कहा जाता है।

जब कोई विधेयक विधानसभा से पारित होने के बाद विधानपरिषद में भेजा जाता है, तो वहां तीन विकल्प होते हैं:

1. इसे उसी रूप में (बिना संशोधन के) पारित कर दिया जाए।

2. कुछ संशोधनों के बाद पारित कर विचारार्थ इसे विधानसभा को भेज दिया जाए।

3. विधेयक को अस्वीकृत कर दिया जाए।

4. इस पर कोई कार्यवाही न की जाए और विधेयक को लंबित रखा जाए।

यदि परिषद बिना संशोधन के विधेयक को पारित कर दे या विधानसभा उसके संशोधनों को मान ले तो विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित माना जाता है जिसे राज्यपाल के पास स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। इसके अतिरिक्त यदि विधानसभा परिषद के सुझावों को अस्वीकृत कर दे या परिषद ही विधेयक को अस्वीकृत कर दे या परिषद तीन महीने तक कोई कार्यवाही न करे, तब विधानसभा फिर से इसे पारित कर परिषद को भेज सकती है। यदि परिषद दोबारा विधेयक को अस्वीकृत कर दे या उसे उन संशोधनों के साथ पारित कर दे जो विधानसभा को अस्वीकार हो या एक माह के भीतर पास न करे तब इसे दोनों सदनों द्वारा पारित माना जाता है क्योंकि विधानसभा ने इसे दूसरी बार पारित कर दिया।

इस तरह साधारण विधेयक पारित करने के संदर्भ में विधानसभा – को विशेष शक्ति प्राप्त है। ज्यादा से ज्यादा परिषद एक विधेयक को चार माह के लिए रोक सकती है। पहली बार में तीन माह के लिए और दूसरी बार में एक माह के लिए। संविधान में किसी विधेयक पर असहमति होने के मामले में दोनों सदनों की संयुक्त बैठक का प्रावधान नहीं रखा गया है। दूसरी ओर, किसी साधारण विधयेक को पास कराने के लिए लोकसभा एवं राज्यसभा की संयुक्त बैठक का प्रावधान है। इसके अतिरिक्त यदि कोई विधेयक विधानपरिषद में निर्मित हो और उसे विधानसभा अस्वीकृत कर दे तो विधेयक समाप्त हो जाता है।

इस प्रकार, विधानपरिषद को केंद्र में राज्यसभा की तुलना में कम अधिकार और महत्व दिया गया है।

राज्यपाल की स्वीकृतिः विधानसभा या द्विसदनीय व्यवस्था में दोनों सदनों द्वारा पारित होने के बाद प्रत्येक विधेयक राज्यपाल के समक्ष स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राज्यपाल के पास चार विकल्प होते हैं:

1. वह विधेयक को स्वीकृति प्रदान कर दे,

2. वह विधेयक को अपनी स्वीकृति देने से रोके रखे,

3. वह सदन या सदनों के पास विधेयक को पुनर्विचार के लिए भेज दे, और

4. वह राष्ट्रपति के विचारार्थ विधेयक को सुरक्षित रख ले।

यदि राज्यपाल विधेयक को स्वीकृति प्रदान कर दे तो विधेयक फिर अधिनियम बन जाएगा और यह संविधि की पुस्तक में दर्ज हो जाता है। यदि राज्यपाल विधेयक को रोक लेता है तो विधेयक समाप्त हो जाता है और अधिनियम नहीं बनता। यदि राज्यपाल विधेयक को पुनर्विचार के लिए भेजता है और दोबारा सदन या सदनों द्वारा इसे पारित कर दिया जाता है एवं पुनः राज्यपाल के पास स्वीकृति के लिए भेजा जाता है तो राज्यपाल को उसे मंजूरी देना अनिवार्य हो जाता है। इस तरह राज्यपाल के पास वैकल्पिक वीटो होता है। यही स्थिति केंद्रीय स्तर पर भी है।13

राष्ट्रपति की स्वीकृतिः यदि कोई विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रखा जाता है तो राष्ट्रपति या तो अपनी स्वीकृति दे देते हैं, उसे रोक सकते या विधानमंडल के सदन या सदनों को पुनर्विचार हेतु भेज सकते हैं। 6 माह के भीतर इस विधेयक पर पुनर्विचार आवश्यक है। यदि विधेयक को उसके मूल रूप में या संशोधित कर दोबारा राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है तो संविधान में इस बात का उल्लेख नहीं है कि राष्ट्रपति इस विधेयक को मंजूरी दे या नहीं।

वित्त विधेयक

संविधान में राज्य विधानमंडल द्वारा वित्त विधेयक को पारित करने के में विशेष प्रक्रिया निहित है। यह निम्नलिखित है:

वित्त विधेयक विधानपरिषद में पेश नहीं किया जा सकता। यह केवल विधानसभा में ही राज्यपाल की सिफारिश के बाद पुरः स्थापित किया जा सकता है इस तरह का कोई भी विधेयक सरकारी विधेयक होता है और सिर्फ एक मंत्री द्वारा ही पुरःस्थापित किया जा सकता है।

विधानसभा द्वारा पारित होने के बाद एक वित्त विधेयक को विधानपरिषद को विचारार्थ भेजा जाता है। विधानपरिषद के पास वित्त विधेयक के संबंध में प्रतिबंधित शक्तियां हैं। वह न तो इसे अस्वीकार कर सकती है, न ही इसमें संशोधन कर सकती है। वह केवल सिफारिश कर सकती है और 14 दिनों में विधेयक को लौटाना भी होता है। विधानसभा इसके सुझावों को स्वीकार भी कर सकती है और अस्वीकार भी।

यदि विधानसभा किसी सिफारिश को मान लेती है तो विधेयक पारित मान लिया जाता है। यदि वह कोई सिफारिश नहीं मानती है तब भी इसे मूल रूप में दोनों सदनों द्वारा पारित मान लिया जाता है।

यदि विधान परिषद 14 दिनों के भीतर विधानसभा को विधेयक न लौटाए तो इसे दोनों सदनों द्वारा पारित मान लिया जाता है। इस तरह एक वित्त विधेयक के मामले में विधान परिषद के मुकाबले विधानसभा को ज्यादा अधिकार प्राप्त हैं। विधान परिषद इस विधेयक को अधिकतम 14 दिन तक रोक सकती है।

अंततः जब एक वित्त विधेयक राज्यपाल के समक्ष पेश किया जाता है तब वह इस पर अपनी स्वीकृति दे सकता है, इसे रोक सकता है या राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रख सकता है लेकिन राज्य विधानमंडल के पास पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता। सामान्यतः राज्यपाल उस विधेयक को स्वीकृति दे ही देता है, जो उसकी पूर्व अनुमति के बाद लाया जाता है।

जब कोई वित्त विधेयक राष्ट्रपति के विचारार्थ के लिए सुरक्षित रखा जाता है तो राष्ट्रपति या तो इसे स्वीकृति दे देता है या इसे रोक सकता है लेकिन इसे राज्य विधानमंडल के पास पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता है।

विधानपरिषद की स्थिति

संविधान में उल्लिखित परिषद की स्थिति (विधानसभा की तुलना में) का दो कोणों से अध्ययन किया जा सकता है:

(अ) जहां परिषद सभा के बराबर हो।

(ब) जहां परिषद सभा के बराबर न हो।

विधानसभा से समानता

निम्नलिखित मामलों में परिषद की शक्तियों एवं स्थिति को विधानसभा के बराबर माना जा सकता है:

(1) साधारण विधेयकों को पुरःस्थापित और पारित करना। यद्यपि दोनों सदनों के बीच असहमति की स्थिति में विधानसभा ज्यादा प्रभावी होती है।

(2) राज्यपाल द्वारा जारी अध्यादेश को स्वीकृति 14,

(3) मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों का चयन: संविधान के अंतर्गत मुख्यमंत्री सहित अन्य सभी मंत्रियों को विधानमंडल के किसी एक सदन का सदस्य होना चाहिए। तथापि अपनी सदस्यता के बावजूद वे केवल विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं।

(4) संवैधानिक निकायों, जैसे- राज्य वित्त आयोग, राज्य लोक सेवा आयोग एवं भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्टों पर विचार करना।

(5) राज्य लोक सेवा आयोग के न्याय क्षेत्र में वृद्धि।

तालिका 29.1 राज्य विधानमंडल एवं संसद के बीच विधायी प्रक्रिया की तुलना


संसद राज्य विधानमंडल
(अ) साधारण विधेयक के संबंध में
1. यह संसद के किसी भी सदन में पुरःस्थापित किया जा सकता है।1. यह राज्य विधानमंडल के किसी भी सदन में पुरःस्थापित किया जा सकता है।
2. यह किसी मंत्री या किसी गैर-सरकारी सदस्य द्वारा पेश किया जा सकता है।2. यह किसी मंत्री या गैर-सरकारी सदस्य द्वारा पेश किया जा सकता है।
3. यह प्रारंभिक सदन में पहले, दूसरे और तीसरे पाठन से गुजरता है।3. यह प्रारंभिक में पहले, दूसरे और तीसरे पाठन से गुजरता यह प्रारंभिक है।
4. यह तभी पारित माना जाता है जब इसमें संसद के दोनों सदनों की संशोधन या बिना संशोधन के सहमति हो।4. यह तभी पारित माना जाता है जब इसमें राज्य विधानमंडल के दोनों सदनों की संशोधन या बिना संशोधन के सहमति हो।
5. दोनों सदनों के बीच गतिरोध तब होता है जब दूसरा सदन द्वारा पारित विधेयक को अस्वीकार करे या संधोधन प्रस्तावित करे जो पहले सदन को स्वीकार न हो या छह माह तक विधेयक को पारित न करे।5. दोनों सदनों के बीच गतिरोध तब होता है, जब विधान परिषद विधान सभा द्वारा पारित विधेयक को अस्वीकार करे या संशोधन प्रस्तावित करे जो विधानसभा को स्वीकृत न हो या तीन माह तक विधेयक को पारित न करे।
6. संवधिान में किसी विधेयक के गतिरोध के निपटान हेतु संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक का उपबंध है।6. संविधान में किसी विधेयक के मसौदे पर विधानमंडल के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक का उपबंध नहीं है।
7. लोकसभा दूसरी बार विधेयक को पारित कर राज्यसभा पर अभिभावी नहीं हो सकती और इसी तरह दूसरी स्थिति में भी दोनों सदनों के बीच गतिरोध समाधान एकमात्र रास्ता संयुक्त बैठक है।7. विधानसभा विधेयक पास करने में विधान परिषद के अभिभावी हो सकती है। जब एक विधेयक विधानसभा द्वारा दूसरी बार पारित कर परिषद को भेजा जाता है तब यदि परिषद इसे फिर अस्वीकार कर दे या सुधार के लिए फिर कहे या एक माह तक इसे पारित न करे तो यह उसी रूप में पारित माना जाएगा जिस रूप में विधानसभा ने इसे पारित किया था।
8. किसी विधेयक पर गतिरोध समाधान के लिए, चाहे वह राज्यसभा से हो या लोकसभा से, के लिए संयुक्त बैठक का उपबंध है। यदि राष्ट्रपति द्वारा दोनों सदनों को इसके लिए नहीं बुलाया जाता तो विधेयक समाप्त हो जाता है।8. दूसरी बार विधेयक को पारित करते समय सिर्फ इसे विधानसभा से स्वीकृति की जरूरत होती है। परिषद से आए विधेयक को यदि विधानसभा अस्वीकार कर दे तो वह समाप्त हो जाता है।
(ब) धन विधेयक के संबंध में
1. यह केवल लोकसभा में पुरःस्थापित किया जा सकता है, न कि राज्यसभा में।1. यह केवल विधानसभा में पुरःस्थापित किया जा सकता है, न कि विधानपरिषद में।
2. इसे केवल राष्ट्रपति की सिफारिश के बाद ही पुरःस्थापित किया जा सकता है।2. इसे केवल राज्यपाल की संस्तुति के बाद ही पुरःस्थापित किया जा सकता है।
3. यह केवल एक मंत्री द्वारा ही पुरःस्थापित किया जा सकता है न कि गैर सरकारी सदस्य द्वारा।3. यह केवल एक मंत्री द्वारा ही पुरःस्थापित किया जा सकता है, न कि गैर-सरकारी सदस्य द्वारा।
4. इसे राज्यसभा द्वारा संशोधित या अस्वीकृत नहीं किया जा सकता। इसे लोकसभा को संशोधन या बिना संशोधन के 14 दिन के अंदर लौटा देना चाहिए।4. इसे विधानपरिषद द्वारा संशोधित या अस्वीकृत नहीं किया जा सकता। इसे विधानसभा को संशोधन या बिना संशोधन के 14 दिन के अंदर लौटा देना चाहिए।
5. लोकसभा, राज्यसभा की सिफारिशों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है।5. विधानसभा, विधानपरिषद की सिफारिशों स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है।
6. यदि लोकसभा किसी सिफारिश को स्वीकार कर लेती है तो इसे दोनों सदनों द्वारा परिवर्तित रूप में पारित मान लिया जाता है।6. यदि विधानसभा किसी सिफारिश के साथ इसे स्वीकार कर लेती है तो इसे दोनों सदनों द्वारा परिवर्तित रूप से पारित मान लिया जाता है।
7. यदि लोकसभा किसी सिफारिश को न माने तो विधेयक को दोनों सदनों द्वारा इसके मूल रूप में पारित माना जाएगा।7. यदि विधानसभा किसी सिफारिश को न माने तो विधेयक को दोनों सदनों द्वारा इसके मूल रूप से पारित माना जाएगा।
8. यदि राज्यसभा विधेयक को 14 दिनों के भीतर लोक सभा न लौटाए तो तय सीमा के भीतर इसे पारित माना जाएगा।8. यदि विधानसभा विधेयक को 14 दिनों के भीतर न लौटाए तो तय सीमा के भीतर इसे पारित माना जाएगा।
9. संविधान में दोनों सदनों के बीच किसी गतिरोध के समाधान हेतु कोई उपबंध नहीं है। ऐसा इसलिए है ताकि राज्य सभा पर लोकसभा अभिभावी रहे, यदि राज्यसभा सहमत न हो तो भी लोकसभा द्वारा विधेयक पारित किया जा सकता है।9. संविधान में दोनों सदनों के बीच किसी गतिरोध के समाधान हेतु कोई उपबंध नहीं है ताकि विधानपरिषद् पर विधानसभा अभिभावी रहे, यदि विधानपरिषद सहमत न हो तो भी विधानसभा द्वारा विधेयक पारित किया जा सकता है।

विधानसभा से असमानता

निम्नलिखित मामलों में परिषद की शक्ति एवं स्थिति सभा से अलग है:

(1) वित्त विधेयक सिर्फ विधानसभा में पुरः स्थापित किया जा सकता है।

(2) विधानपरिषद वित्त विधेयक में न संशोधन और न ही इसे अस्वीकृत कर सकती है। इसे विधानसभा को 14 दिन के अंदर सिफारिश के साथ या बिना सिफारिश के होता है।

(3) विधानसभा परिषद की सिफारिशों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है। दोनों मामलों में वित्त विधेयक दोनों सदनों द्वारा पास माना जाता है।

(4) कोई विधेयक वित्त विधेयक है या नहीं, यह तय करने का अधिकार विधानसभा के अध्यक्ष को है।

(5) एक साधारण विधेयक को पास करने का अंतिम अधिकार विधानसभा को ही है। कुछ मामलों में परिषद इसे अधिकतम चार माह के लिए रोक सकती है। पहली बार में विधेयक को तीन माह और दूसरी बार में एक माह के लिए रोका जा सकता है। दूसरे शब्दों में परिषद् राज्यसभा की तरह पुनरीक्षण निकाय भी नहीं है। यह एक विलंबकारी चैम्बर या परामर्शी निकाय मात्र है।

(6) परिषद बजट पर सिर्फ बहस कर सकती है लेकिन अनुदान की मांग पर मत नहीं कर सकती (यह विधानसभा का विशेष अधिकार है)।

(7) परिषद् अविश्वास प्रस्ताव पारित कर मंत्रिपरिषद् को नहीं हटा सकती। ऐसा इसलिए है क्योंकि मंत्रिपरिषद् की सामूहिक जिम्मेदारी विधानसभा के प्रति है। लेकिन परिषद राज्यपाल के क्रियाकलापों और नीतियों पर बहस और आलोचना कर सकती है।

(8) जब एक साधारण विधेयक परिषद से आया हो और सभा में भेजा गया हो, यदि सभा अस्वीकृत कर दे तो विधेयक खत्म हो जाता है।

(9) परिषद भारत के राष्ट्रपति और राज्यसभा में राज्य के प्रतिनिधि के चुनाव में भाग नहीं ले सकती।

(10) संविधान संशोधन विधेयक में परिषद प्रभावी रूप में कुछ नहीं कर सकती। इस मामले में भी विधानसभा ही अभिभावी रहती है। 15

(11) अंततः परिषद का अस्तित्व ही विधानसभा पर निर्भर करता है। विधानसभा की सिफारिश के बाद संसद विधान परिषद को समाप्त कर सकती है।

उपरोक्त आधार पर यह स्पष्ट है कि सभा की तुलना में परिषद् की शक्तियां लोकसभा की तुलना में राज्यसभा की शक्तियों के मुकाबले काफी कमजोर हैं। राज्यसभा को केवल वित्तीय मामलों को छोड़कर लोकसभा के समान अधिकार प्राप्त हैं। दूसरी तरफ परिषद हर मामले में विधानसभा के अधीनस्थ ही होती है। इस तरह विधानसभा का पूरी तरह परिषद पर प्रभुत्व रहता है।

यद्यपि राज्यसभा एवं परिषद दोनों दूसरे स्तर के सदन हैं। संविधान ने परिषद को राज्यसभा के मुकाबले निम्नलिखित कारणों से कम प्रभावी बनाया है:

1. राज्यसभा में राज्यों का प्रतिनिधित्व होता है इसलिए यह राज्य व्यवस्था की संघीय पद्धति का प्रतिबिंब है। यह केन्द्र द्वारा अनावश्यक हस्तक्षेप के विरूद्ध राज्यों के हितों को संरक्षण प्रदान का संघीय सामंजस्य बनाए रखती है। इस तरह यह परिषद की तरह केवल साधारण इकाई या केवल सलाहकार इकाई नहीं है, वरन एक प्रभावी पुनरीक्षण इकाई है।

2. परिष्ठ का गठन विषमांगी है यह विभिन्न हितों को प्रदर्शित करती है और इसमें विभिन्न रूप से निर्वाचित सदस्य होते हैं और कुछ नामित सदस्य भी सम्मिलित होते हैं। इसकी संरचना ही इसे कमजोर बनाती है और प्रभावी पुनरीक्षण निकाय के रूप में इसकी उपयोगिता को कम करती है। दूसरी ओर राज्यसभा का गठन समांग है। यह राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है और इसमें मुख्यतः निर्वाचित सदस्य होते है (250 में से सिर्फ 12 नामित होते हैं)।

3. परिषद को प्रदत्त दर्जा लोकतंत्र के सिद्धांतों के अनुरूप है। परिषद वो सभा के अनुसार कार्य करना होता है क्योंकि सभा निर्वाचित सदन होता है। विधानमंडल की द्विसदनीय व्यवस्था ब्रिटिश मॉडल की देन है, ब्रिटेन में ‘हाउस ऑफ लार्ड’ (उच्च सदन) ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ (निचला सदन) का विरोध नहीं करता। हाउस ऑफ लार्ड केवल विलंबनकारी चैम्बर है। यह साधारण विधेयक को अधिकतम एक माह और धन विधेयक को एक माह के लिए रोक सकता है।

विधान परिषद की कमजोर, शक्तिविहिन और प्रभावहीन

स्थिति और भूमिका को देखते हुए आलोचक विधानपरिषद को द्वितीयक चैम्बर खर्चीली, आभूषणीय विकासिता, सफेद हाथी कहते हैं। आलोचक कहते हैं, परिषद उनकी शरण स्थली है जो विधानसभा चुनाव हार जाते हैं। यह अप्रसिद्ध, अस्वीकृत और महत्त्वांकाक्षी राजनीतिज्ञों को मुख्य मंत्री या मंत्री या राज्य विधानमण्डल का सदस्य बनने में सहायता करती है।

यद्यपि परिषद को सभा के मुकाबले कम अधिकार दिए गए हैं फिर भी इसकी उपयोगिता निम्नलिखित मामलों में है:

1. यह विधान सभा द्वारा जल्दबाजी, त्रुटिपूर्ण, असावधानी और गलत विधानों के पुनरीक्षण और विचार हेतु उपबंध बनाकर उनकी जांच करती है।

2. यह प्रसिद्ध व्यावसायिकों और विशेषज्ञों को प्रतिनिधित्व प्रदान करती है जो प्रत्यक्ष चुनाव का सामना नहीं कर पाते। राज्यपाल, परिषद में 1/6 ऐसे सदस्यों को नामित करते हैं।

राज्य विधानमंडल के विशेषाधिकार

राज्य विधानमण्डल के विशेषाधिकार राज्य विधानमण्डल के सदनों, इसकी समितियों और इसके सदस्यों को मिलने वाले विशेष अधिकारों, उन्मुक्तियों और छूटों का योग है। ये इनकी कार्यवाहियों की स्वतंत्रता और प्रभाविता को सुनिश्चित करने के लिए अनिवार्य हैं। इन विशेषाधिकारों के बिना सदन न तो अपना प्राधिकार, मर्यादा और सम्मान अनुरक्षित रख सकते हैं और न ही अपने सदस्यों को उनके विधायी उत्तरदायित्वों के निर्वहन में किसी बाधा से सुरक्षा प्रदान कर सकते।

संविधान ने राज्य विधानमण्डल के विशेषाधिकारों को उन व्यक्तियों को भी विस्तारित किया है, जो राज्य विधानमण्डल के सदन या इसकी किसी समिति की कार्यवाहियों में बोलने और भाषा लेने के लिए अधिकृत हैं। इसमें राज्य के महाधिवक्ता और राज्य मंत्री सम्मिलित हैं। यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि राज्य विधानमण्डल के विशेषाधिकार राज्यपाल को प्राप्त नहीं होते हैं, जोकि राज्य विधानमण्डल, का अभिन्न अंग हैं। राज्य विधानमण्डल के विशेषाधिकारों को दो मुख्य श्रेणियों में बांटा जा सकता है- एक जिन्हें राज्य विधानमण्डल के प्रत्येक सदन द्वारा संयुक्त रूप से प्राप्त किया जाता है और दूसरा जिन्हें सदस्य व्यक्तिगत रूप में प्राप्त करते हैं।

सामूहिक विशेषाधिकार

प्रत्येक सदन को मिलने वाले सामूहिक विधानमंडलीय विशेषाधिकार इस प्रकार हैं:

1. इसे यह अधिकार है कि यह अपने प्रतिवेदनों, वाद- विवादों और कार्यवाहियों को प्रकाशित करे और यह अधिकार भी है कि अन्यों को इसके प्रकाशन से प्रतिबंधित करे। 17

2. यह अपरिचितों को इसकी कार्यवाहियों से अपवर्जित कर सकती है और कुछ महत्वपूर्ण मामलों में गुप्त बैठक कर सकती है।

3. यह अपने प्रक्रिया और कार्य संचालन नियमों में विनियमित कर सकती है और ऐसे मामलों पर निर्णय ले सकती है।

4. यह भर्त्सना, फटकार या कारावास (सदस्यों के मामले में निलंबन या निष्कासन) द्वारा विशेषाधिकारों के उल्लंघन या सभा की अवमानना के लिए सदस्यों सहित बाह्य व्यक्तियों को दंडित कर सकती है।

5. इसे सदस्य के पकड़े जाने, गिरफ्तार होने, दोषसिद्धि, कारावास और छोड़े जाने के संबंध में तत्काल सूचना प्राप्त करने का अधिकार है।

6. यह जांच प्रारंभ कर सकती है और साक्षियों को उपस्थित होने का आदेश दे सकती है और संगत पत्रों और रिकॉर्डों को भेज सकती है।

7. न्यायालय सभा या इसकी समितियों की जांच नहीं कर सकती।

8. पीठासीन अधिकारी की अनुमति के बिना किसी व्यक्ति (सदस्य या बाह्य) को गिरफ्तार और किसी विधिक प्रक्रिया (सिविल या आपराधिक) को सभा परिसर में नहीं किया जा सकता।

व्यक्तिगत विशेषाधिकार

सदस्य को मिलने वाले व्यक्तिगत विशेषाधिकार इस तरह हैं:

1. उन्हें सदन चलने के 40 दिन पहले और 40 दिन बाद तक गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। यह छूट केवल सिविल मामले में है और आपराधिक या प्रतिबंधिक निषेध मामलों में नहीं है।

2. राज्य विधानमंडल में उन्हें बोलने की स्वतंत्रता है। उसके द्वारा किसी कार्यवाही या समिति में दिए गए मत या विचार को किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। यह स्वतंत्रता संविधान के उपबंधों और राज्य विधानमण्डल की प्रक्रिया का विनियमन करने के लिए नियमों और स्थायी आदेशों के अनुरूप है। 18

3. वे न्यायिक सेवाओं से मुक्त होते हैं। जब सदन चल रहा हो, वे साक्ष्य देने या किसी मामैले में बतौर गवाह उपस्थित होने से इनकार कर सकते हैं।

तालिका 29.4 राज्य विधायिका से सम्बन्धित अनुच्छेद, एक नजर में


अनुच्छेदविषय-वस्तु
168राज्यों में विधायिकाओं का गठन
169राज्यों में विधान परिषदों का गठन अथवा उन्मूलन
170विधान सभाओं का गठन
171विधान परिषदों का गठन
172राज्य विधायिकाओं का कार्यकाल
173राज्य विधायिका की सदस्यता के लिए योग्यता
174राज्य विधायिका के सत्र, सत्रावसान एवं उनका भंग होना
175राज्यपाल का सदन अथवा सदनों को संबोधित करने तथा उन्हें संदेश देने का अधिकार
176राज्यपाल द्वारा विशेष सबोधन
177सदनों से संबंधित मंत्रियों तथा महाधिवक्ता के अधिकार
राज्य विधाविका के पदाधिकारीगण
178विधान सभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष
179विधान सभा अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष के पदों से पदत्याग त्यागपत्र तथा पद से हटाया जाना।
180उपाध्यक्ष अथवा अध्यक्ष का पदभार संभाल रहे व्यक्ति की शक्तियाँ
181अध्यक्ष अथवा उपाध्यक्ष द्वारा उस समय सदन की अध्यक्षता से विरत रहना जबकि उन्हें हटाए जाने संबंधी प्रस्ताव सदन के विचाराधीन हो।
182विधान परिषद के सभापति एवं उप सभापति
183सभापति तथा उप सभापति के पदों से पदत्याग त्यागपत्र तथा पद से हटाया जाना
184उप सभापति अथवा अन्य व्यक्ति जो कि सभापति का कार्यभार देख रहा हो, को सभापति के रूप में कार्य करने की शक्ति
185सभापति एवं उप-सभापति द्वारा उस समय सदन की अध्यक्षता से विरत रहना जबकि उन्हें हटाए जाने संबंधी प्रस्ताव सदन के विचाराधीन हो।
186विधानसभा अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष और विधान परिषद सभापति और उपसभापति के वेतन एवं भत्ते
187राज्य विधायिका का सचिवालय
कार्यवाही का संचालन
188सदस्यों द्वारा शपथ ग्रहण
189सदन में मतदान, सदनों की रिक्तियों एवं कोरम का विचार किए बिना कार्य करने को शक्ति
सवस्यों की अयोग्यता
190सीटों का रिक्त होना
191सदस्यता के लिए अयोग्यता
192सदस्यों की अयोग्यता संबंधी प्रश्नों पर निर्णय
193अनुच्छेद 188 के अंतर्गत शपथ ग्रहण के पहले स्थान ग्रहण और मतदान के लिए दंड अथवा उस स्थिति के लिए भी जबकि अहंता नहीं हो अथवा अयोग्य ठहरा दिया गया हो।
राज्य विधायिकाओं एवं सदस्यों की शक्तियाँ विशेषाधिकार तथा सुरक्षा
194विधायी सदनी तथा इनके सदस्यों एवं समितियों की शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार इत्यादि
195सदस्यों के वेतन भते
विधायी प्रक्रिया
196विधेयकों की प्रस्तुति एवं उन्हें पारित करने संबंधी प्रावधान
197विधान परिषद के वित्त विधेयकों के अतिरिक्त अन्य विधेयकों के संबंध में शक्तियों पर प्रतिबंध
198वित्त विधेयको संबंधी विशेष प्रक्रिया
199वित्त विधेयक की परिभाषा
200विधेयकों की स्वीकृति
201बिल विचारार्थ सुरक्षित
वित्तीय मामलों संबंधी प्रक्रिया
202वार्षिक वित्तीय विवरण
203विधायिका में प्राक्कलनों से संबंधित प्रक्रिया
204विनियोग विधेयक
205पूरक, अतिरिक्त अथवा अतिरेक अनुदान
206लेखा, ऋण एवं असाधारण अनुदानों पर मतदान
207वित्त विधेयको संबंधी विशेष प्रावधान
साधारण प्रक्रिया
208प्रक्रिया संबंधी नियम
209राज्य विधाविका में वित्तीय कार्यवाहियों से संबंधित प्रक्रियागत नियम
210विधायिका में प्रयोग की जाने वाली भाषा
211विधायिका में चर्चा पर प्रतिबंध
212न्यायालय द्वारा विधायिका की कार्यवाहियों के संबध में पूछताछ नहीं
राज्यपाल की विधायी शक्तियाँ
213विधायिका की अवकाश अवधि में राज्यपाल की अध्यादेश जारी करने की शक्ति

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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