मुग़ल बादशाहों में औरंगज़ेब आख़िरी शक्तिशाली बादशाह थे। उन्होंने वर्तमान भारत के एक बहुत बड़े हिस्से पर नियंत्रण स्थापित कर लिया था। 1707 में उनकी मृत्यु के बाद बहुत सारे मुग़ल सूबेदार और बड़े-बड़े ज़मींदार अपनी ताकत दिखाने लगे थे। उन्होंने अपनी क्षेत्रीय रियासतें कायम कर ली थीं। जैसे-जैसे विभिन्न भागों में ताकतवर क्षेत्रीय रियासतें सामने आने लगीं, दिल्ली अधिक दिनों तक प्रभावी केंद्र के रूप में नहीं रह सकी।
अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध तक राजनीतिक क्षितिज पर अंग्रेज़ों के रूप में एक नयी ताकत उभरने लगी थी। क्या आप जानते हैं कि अंग्रेज़ पहले-पहल एक छोटी-सी व्यापारिक कंपनी के रूप में भारत आए थे और यहाँ के इलाकों पर कब्ज़े में उनकी ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी? तो फिर ऐसा कैसे हुआ कि एक दिन वे इस विशाल साम्राज्य के स्वामी बन बैठे? इस अध्याय में आप देखेंग कि यह कैसे हुआ?
चिन्त्र 1 – कैप्टन हडसन द्वारा बहादुर शाह ज़फ़र और उनके बेटों की गिरफ़्तारी।
औरंगज़ेब के बाद कोई मुग़ल बादशाह इतना ताकतवर तो नहीं हुआ लेकिन एक प्रतीक के रूप में मुग़ल बादशाहों का महत्त्व बना हुआ था। जब 1857 में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारी विद्रोह शुरू हो गया तो विद्रोहियों ने मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र को ही अपना नेता मान लिया था। जब विद्रोह कुचल दिया गया तो कंपनी ने बहादुर शाह ज़फ़र को देश छोड़ने के लिए मज़बूर कर दिया और उनके बेटों को ज़फ़र के सामने ही मार डाला।
पूर्व में ईस्ट इंडिया कंपनी का आना
सन् 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम से चार्टर अर्थात इज़ाज़तनामा हासिल कर लिया जिससे कंपनी को पूरब से व्यापार करने का एकाधिकार मिल गया। इस इज़ाज़तनामे का मतलब यह था कि इंग्लैंड की कोई और व्यापारिक कंपनी इस इलाके में ईस्ट इंडिया कंपनी से होड़ नहीं कर सकती थी। इस चार्टर के सहारे कंपनी समुद्र पार जाकर नए इलाकों को खंगाल सकती थी, वहाँ से सस्ती कीमत पर चीजें खरीद कर उन्हें यूरोप में ऊँची कीमत पर बेच सकती थी। कंपनी को दूसरी अंग्रेज़ व्यापारिक कंपनियों से प्रतिस्पर्धा का कोई भय नहीं था। उस जमाने में वाणिज्यिक कंपनियाँ मोटे तौर पर प्रतिस्पर्धा से बचकर ही मुनाफा कमा सकती थीं। अगर कोई प्रतिस्पर्धी न हो तभी वे सस्ती चीजें खरीदकर उन्हें ज़्यादा कीमत पर बेच सकती थीं।
लेकिन यह शाही दस्तावेज़ दूसरी यूरोपीय ताकतों को पूरब के बाज़ारों में आने से नहीं रोक सकता था। जब तक इंग्लैंड के जहाज़ अफ्रीका के पश्चिम तट को छूते हुए केप ऑफ़ गुड होष का चक्कर लगाकर हिंद महासागर पार करते तब तक पुर्तगालियों ने भारत के पश्चिमी तट पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी थी। वे गोवा में अपना ठिकाना बना चुके थे। पुर्तगाल के खोजी यात्री वास्को द गामा ने ही 1498 में पहली बार भारत तक पहुँचने के इस समुद्री मार्ग का पता लगाया था। सत्रहवीं शताब्दी की शुरुआत तक डच भी हिंद महासागर में व्यापार की संभावनाएँ तलाशने लगे थे। कुछ ही समय बाद फ्रांसीसी व्यापारी भी सामने आ गए।
समस्या यह थी कि सारी कंपनियाँ एक जैसी चीजें ही खरीदना चाहती थीं। यूरोप के बाज़ारों में भारत के बने बारीक सूती कपड़े और रेशम की ज़बरदस्त माँग थी। इनके अलावा काली मिर्च, लौंग, इलायची और दालचीनी की भी ज़बरदस्त माँग रहती थी। यूरोपीय कंपनियों के बीच इस बढ़ती प्रतिस्पर्धा से भारतीय बाज़ारों में इन चीज़ों की कीमतें बढ़ने लगीं और उनसे मिलने वाला मुनाफ़ा गिरने लगा। अब इन व्यापारिक कंपनियों के फलने-फूलने का यही एक रास्ता था कि वे अपनी प्रतिस्पर्धी कंपनियों को खत्म कर दें। लिहाज़ा, बाज़ारों पर कब्जे की इस होड़ ने व्यापारिक कंपनियों के बीच लड़ाइयों की शुरुआत कर दी। सत्रहवीं और अठारहवीं सदी में जब भी मौका मिलता कोई-सी एक कंपनी किसी दूसरी कंपनी के जहाज डूबो देती, रास्ते में रुकावटें खड़ी कर देती और माल से लदे जहाजों को आगे बढ़ने से रोक देती। यह व्यापार हथियारों की मदद से चल रहा था और व्यापारिक चौकियों को किलेबंदी के ज़रिए सुरक्षित रखा जाता था।
अपनी बस्तियों को किलेबंद करने और व्यापार में मुनाफ़ा कमाने की ‘इन कोशिशों के कारण स्थानीय शासकों से भी टकराव होने लगे। इस प्रकार, व्यापार और राजनीति को एक-दूसरे से अलग रखना कंपनी के लिए मुश्किल होता जा रहा था। आइए देखें कि यह कैसे हुआ।
ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल में व्यापार शुरू करती है
पहली इंग्लिश फैक्टरी 1651 में हुगली नदी के किनारे शुरू हुई। कंपनी के व्यापारी यहीं से अपना काम चलाते थे। इन व्यापारियों को उस ज़माने में “फैक्टर” कहा जाता था। इस फैक्टरी में वेयरहाउस था जहाँ निर्यात होने वाली चीज़ों को जमा किया जाता था। यहीं पर उसके दफ़्तर थे जिनमें कंपनी के अफ़सर बैठते थे। जैसे-जैसे व्यापार फैला कंपनी ने सौदागरों और व्यापारियों को फैक्टरी के आसपास आकर बसने के लिए प्रेरित किया। 1696 तक कंपनी ने इस आबादी के चारों तरफ़ एक किला बनाना शुरू कर दिया था। दो साल बाद उसने मुगल अफ़सरों को रिश्वत देकर तीन गाँवों की जमींदारी भी खरीद ली। इनमें से एक गाँव कालीकाता था जो बाद में कलकत्ता बना। अब इसे कोलकाता कहा जाता है। कंपनी ने मुग़ल सम्राट औरंगजेब को इस बात के लिए भी तैयार कर लिया कि वह कंपनी को बिना शुल्क चुकाए व्यापार करने का फ़रमान जारी कर दे।
कंपनी ज़्यादा से ज़्यादा रियायतें हासिल करने और पहले से मौजूद अधिकारों का ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठाने में लगी हुई थी। उदाहरण के लिए, औरंगज़ेब के फ़रमान से केवल कंपनी को ही शुल्क मुक्त व्यापार का अधिकार मिला था। कंपनी के जो अफ़सर निजी तौर पर व्यापार चलाते उन्हें यह छूट नहीं थी। लेकिन उन्होंने भी शुल्क चुकाने से इनकार कर दिया। इससे बंगाल में राजस्व वसूली बहुत कम हो गई। ऐसे में भला बंगाल के नवाब मुर्शिद कुली खान विरोध क्यों न करते?
व्यापार से युद्धों तक
अठारहवीं सदी की शुरुआत में कंपनी और बंगाल के नवाबों का टकराव काफ़ी बढ़ गया था। औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद बंगाल के नवाब अपनी ताकत दिखाने लगे थे। उस समय दूसरी क्षेत्रीय ताकतों की स्थिति भी ऐसी ही थी। मुर्शिद कुली खान के बाद अली वर्दी खान और उसके बाद सिराजुद्दौला बंगाल के नवाब बने। ये सभी शक्तिशाली शासक थे। उन्होंने कंपनी को रियायतें देने से मना कर दिया। व्यापार का अधिकार देने के बदले कंपनी से नज़राने माँगे, उसे सिक्के ढालने का अधिकार नहीं दिया, और उसकी किलेबंदी को बढ़ाने से रोक दिया। कंपनी पर धोखाधड़ी का आरोप लगाते हुए उन्होंने दलील दी कि उसकी वजह से बंगाल सरकार की राजस्व वसूली कम होती जा रही है और नवाबों की ताकत कमज़ोर पड़ रही है। कंपनी टैक्स चुकाने को तैयार नहीं थी, उसके अफ़सरों ने अपमानजनक चिट्ठियाँ लिखीं और नवाबों व उनके अधिकारियों को अपमानित करने का प्रयास किया।
कंपनी का कहना था कि स्थानीय अधिकारियों की बेतुकी माँगों से कंपनी का व्यापार तबाह हो रहा है। व्यापार तभी फल-फूल सकता है जब सरकार शुल्क हटा ले। कंपनी को इस बात का भी यकीन था कि अपना व्यापार फैलाने के लिए उसे अपनी आबादी बढ़ानी होगी। गाँव खरीदने होंगे और किलों का पुनर्निर्माण करना होगा।
ये टकराव दिनोदिन गंभीर होते गए अंततः इन टकरावों की परिणति प्लासी के प्रसिद्ध युद्ध के रूप में हुई।
प्लासी का युद्ध
1756 में अली वर्दी खान की मृत्यु के बाद सिराजुद्दौला बंगाल के नवाब बने। कंपनी को सिराजुद्दौला की ताकत से काफ़ी भय था। सिराजुद्दौला की जगह कंपनी एक ऐसा कठपुतली नवाब चाहती थी जो उसे व्यापारिक रियायतें और अन्य सुविधाएँ आसानी से देने में आनाकानी न करे। कंपनी ने प्रयास किया कि सिराजुद्दौला के प्रतिद्वंद्वियों में से किसी को नवाब बना दिया जाए। कंपनी को कामयाबी नहीं मिली। जवाब में सिराजुद्दौला ने हुक्म दिया कि कंपनी उनके राज्य के राजनीतिक मामलों में टाँग अड़ाना बंद कर दे, किलेबंदी रोके और बाकायदा राजस्व चुकाए। जब दोनों पक्ष पीछे हटने को तैयार नहीं हुए तो अपने 30,000 सिपाहियों के साथ नवाब ने कासिम बाज़ार में स्थित इंग्लिश फैक्टरी पर हमला बोल दिया। नवाब की फौज़ों ने कंपनी के अफसरों को गिरफ़्तार कर लिया, गोदाम पर ताला डाल दिया, अंग्रेज़ों के हथियार छीन लिए और अंग्रेज़ी जहाज़ों को घेरे में ले लिया। इसके बाद नवाब ने कंपनी के कलकत्ता स्थित किले पर कब्ज़े के लिए उधर का रुख किया।
कलकत्ता के हाथ से निकल जाने की खबर सुनने पर मद्रास में तैनात कंपनी के अफसरों ने भी रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में सेनाओं को रवाना कर दिया।
चित्र 5 – महान्यायालय कक्ष, ईस्ट इंडिया हाउस, लेडनहॉल स्ट्रीट।
ईस्ट इंडिया कंपनी के कोर्ट ऑफ़ प्रॉपराइटर्स की लंदन स्थित लेडनहॉल स्ट्रीट पर बने ईस्ट इंडिया हाउस में बैठकें होती थीं। यह ऐसी ही एक सभा का चित्र है।
इस सेना को नौसैनिक बेड़े की मदद भी मिल रही थी। इसके बाद नवाब के साथ लंबे समय तक सौदेबाजी चली। आख़िरकार 1757 में रॉबर्ट क्लाइव ने प्लासी के मैदान में सिराजुद्दौला के खिलाफ कंपनी की सेना का नेतृत्व किया। नवाब सिराजुद्दौला की हार का एक बड़ा कारण उसके सेनापतियों में से एक सेनापति मीर जाफर की कारगुजारियाँ भी थीं। मीर जाफर की टुकड़ियों ने इस युद्ध में हिस्सा नहीं लिया। रॉबर्ट क्लाइव ने यह कहकर उसे अपने साथ मिला लिया था कि सिराजुद्दौला को हटा कर मीर जाफ़र को नवाब बना दिया जाएगा।
प्लासी की जंग इसलिए महत्त्वपूर्ण मानी जाती है क्योंकि भारत में यह कंपनी की पहली बड़ी जीत थी।
प्लासी की जंग के बाद सिराजुद्दौला को मार दिया गया और मीर जाफ़र नवाब बना। कंपनी अभी भी शासन की ज़िम्मेदारी सँभालने को तैयार नहीं थी। उसका मूल उद्देश्य तो व्यापार को फैलाना था। अगर यह काम स्थानीय शासकों की मदद से बिना लड़ाई लड़े ही किया जा सकता था तो किसी राज्य को सीधे अपने कब्जे में लेने की क्या ज़रूरत थी।
जल्दी ही कंपनी को एहसास होने लगा कि यह रास्ता भी आसान नहीं है। कठपुतली नवाब भी हमेशा कंपनी के इशारों पर नहीं चलते थे। आखिरकार उन्हें भी तो अपनी प्रजा की नज़र में सम्मान और संप्रभुता का दिखावा करना पड़ता था।
तो फिर कंपनी क्या करती? जब मीर जाफ़र ने कंपनी का विरोध किया तो कंपनी ने उसे हटाकर मीर कासिम को नवाब बना दिया। जब मीर कासिम परेशान करने लगा तो बक्सर की लड़ाई (1764) में उसको भी हराना पड़ा। उसे बंगाल से बाहर कर दिया गया और मीर जाफ़र को दोबारा नवाब बनाया गया। अब नवाब को हर महीने पाँच लाख रुपये कंपनी को चुकाने थे। कंपनी अपने सैनिक खर्चों से निपटने, व्यापारिक ज़रूरतों तथा अन्य खर्चों को पूरा करने के लिए और पैसा चाहती थी। कंपनी और ज़्यादा इलाके तथा और ज़्यादा कमाई चाहती थी। 1765 में जब मीर जाफ़र की मृत्यु हुई तब तक कंपनी के इरादे बदल चुके थे। कठपुतली नवाबों के साथ अपने खराब अनुभवों को देखते हुए क्लाइव ने ऐलान किया कि अब “हमें खुद ही नवाब बनना पड़ेगा।”
आखिरकार 1765 में मुग़ल सम्राट ने कंपनी को ही बंगाल प्रांत का दीवान नियुक्त कर दिया। दीवानी मिलने के कारण कंपनी को बंगाल के विशाल राजस्व संसाधनों पर नियंत्रण मिल गया था। इस तरह कंपनी की एक पुरानी समस्या हल हो गयी थी। अठारहवीं सदी की शुरुआत से ही भारत के साथ उसका व्यापार बढ़ता जा रहा था। लेकिन उसे भारत में ज़्यादातर चीजें ब्रिटेन से लाए गए सोने और चाँदी के बदले में खरीदनी पड़ती थीं। इसकी वजह ये थी कि उस समय ब्रिटेन के पास भारत में बेचने के लिए कोई चीज़ नहीं थी। प्लासी की जंग के बाद ब्रिटेन से सोने की निकासी कम होने लगी और बंगाल की दीवानी मिलने के बाद तो ब्रिटेन से सोना लाने की ज़रूरत ही नहीं रही। अब भारत से होने वाली आमदनी के सहारे ही कंपनी अपने खर्चे चला सकती थी। इस कमाई से कंपनी भारत में सूती और रेशमी कपड़ा खरीद सकती थी, अपनी फौज़ों को सँभाल सकती थी और कलकत्ते में किलों और दफ्तरों के निर्माण की लागत उठा सकती थी।
सपन्नता का आश्वासन
इंग्लैंड के लोग ईस्ट इंडिया कंपनी की शासकीय महत्त्वाकांक्षाओं को संदेह और अविश्वास से देखते थे। प्लासी की लड़ाई के बाद रॉबर्ट क्लाइव ने अंग्रेज़ सम्राट के एक मुख्य विदेश मंत्री विलियम पिट को 7 जनवरी 1759 को कलकत्ते से यह चिट्ठी भेजी थी-
लेकिन इतनी विशाल सत्ता एक वाणिज्यिक कंपनी के लिए बहुत बड़ी बात होगी… में खुद यह सोच कर अभिभूत हूँ… कि इन समृद्ध रियासतों पर पूरा कब्ज़ा हासिल करने में कोई परेशानी नहीं आएगी… अब में यह फैसला आप पर छोड़ता हूँ कि क्या सालाना बीस लाख स्टर्लिंग की आमदनी और तीन प्रांतों का कब्ज़ा… कोई ऐसी चीज़ है जिस पर इतना शोर मचाना उचित हो…।
नवाब की शिकायतें
1733 में बंगाल के नवाब ने इंग्लिश व्यापारियों के बारे में यह कहा था-
जब वे पहली बार हमारे देश में आए थे तो उन्होंने सरकार के सामने विनती करते हुए कहा था कि उन्हें एक फैक्टरी बनाने के लिए थोड़ी-सी ज़मीन दे दी जाए। उन्हें वह ज़मीन तो मिल गई पर उन्होंने तो वहाँ मज़बूत किला ही खड़ा कर डाला। इसके चारों तरफ़ गड्ढे बना दिये जो नदी से जुड़ते हैं। दीवारों पर उन्होंने न जाने कितनी तोपें तैनात कर दी हैं। उन्होंने बहुत सारे सौदागरों और अन्य लोगों को अपने मातहत रहने के लिए तैयार कर लिया है और वह एक लाख रुपये राजस्व वसूल कर रहे हैं…. वे असंख्य औरतों और मर्दों को उनके ही देश में | गुलाम बनाकर लूट-खसोट रह हैं।
कंपनी के अफ़सर ‘नबॉब’ बन बैठे
नवाब बनने का क्या मतलब था? इसका एक मतलब तो यही था कि कंपनी के पास अब सत्ता और ताकत थी। लेकिन इसके कुछ और फायदे भी थे। कंपनी का हर कर्मचारी नवाबों की तरह जीने के ख्वाब देखने लगा था।
प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल के असली नवाबों को इस बात के लिए बाध्य कर दिया गया कि वे कंपनी के अफसरों को निजी तोहफे के तौर पर ज़मीन और बहुत सारा पैसा दें। खुद रॉबर्ट क्लाइव ने ही भारत में बेहिसाब दौलत जमा कर ली थी। 1743 में जब वह इंग्लैंड से मद्रास (अब चैन्नई) आया था तो उसकी उम्र 18 साल थी। 1767 में जब वह दो बार गवर्नर बनने के बाद हमेशा के लिए भारत से रवाना हुआ तो यहाँ उसकी दौलत 401,102 पौंड के बराबर थी। दिलचस्प बात यह है कि गवर्नर के अपने दूसरे कार्यकाल में उसे कंपनी के भीतर फैले भ्रष्टाचार को खत्म करने का काम सौंपा गया था। लेकिन 1772 में ब्रिटिश संसद में उसे खुद भ्रष्टाचार के आरोपों पर अपनी सफाई देनी पड़ी। सरकार को उसकी अकूत संपत्ति के स्रोत संदेहास्पद लग रहे थे। उसे भ्रष्टाचार आरोपों से बरी तो कर दिया गया लेकिन 1774 में उसने आत्महत्या कर ली।
कंपनी के सभी अफ़सर क्लाइव की तरह दौलत इकट्ठा नहीं कर पाए। बहुत सारी बीमारियों और लड़ाई के कारण कम उम्र में ही मौत का निवाला बन गए। इसके अलावा उन सभी को भ्रष्ट और बेईमान मानना भी सही नहीं होगा। उनमें से बहुत सारे अफ़सर साधारण परिवारों से आए थे। उनकी सबसे बड़ी इच्छा बस यही थी कि वे भारत में ठीक-ठाक पैसा कमाएँ और ब्रिटेन लौटकर आराम की जिंदगी बसर करें। जो जीते जी धन-दौलत लेकर वापस लौट गए उन्होंने वहाँ आलीशान जीवन जिया। उन्हें वहाँ के लोग “नबॉब” कहते थे। यह भारतीय शब्द ‘नवाब’ का ही अंग्रेज़ी संस्करण बन गया था। उन्हें लोग अकसर नए अमीरों और सामाजिक हैसियत में रातों-रात ऊपर आने वाले लोगों के रूप में देखते थे। नाटकों और कार्टूनों में उनका मजाक उड़ाया जाता था।
कंपनी का फैलता शासन
यदि हम 1757 से 1857 के बीच ईस्ट इंडिया कंपनी के के द्वारा भारतीय राज्यों • पर कब्ज़े की प्रक्रिया को देखें तो कुछ महत्त्वपूर्ण बातें सामने आती हैं। किसी अनजान इलाके में कंपनी ने सीधे सैनिक हमला प्रायः नहीं किया। उसने किसी भी भारतीय रियासत का अधिग्रहण करने से पहले विभिन्न राजनीतिक, आर्थिक और कूटनीतिक साधनों का इस्तेमाल किया।
बक्सर की लड़ाई (1764) के बाद कंपनी ने भारतीय रियासतों में रेजिडेंट तैनात कर दिये। ये कंपनी के राजनीतिक या व्यावसायिक प्रतिनिधि होते थे। उनका काम कंपनी के हितों की रक्षा करना और उन्हें आगे बढ़ाना था। रजिडेंट के माध्यम से कंपनी के अधिकारी भारतीय राज्यों के भीतरी मामलों में भी दखल देने लगे थे। अगला राजा कौन होगा, किस पद पर किसको बिठाया जाएगा, इस तरह की चीजें भी कंपनी के अफ़सर ही तय करना चाहते थे। कई बार कंपनी ने रियासतों पर “सहायक संधि” भी थोप दी। जो रियासत इस बंदोबस्त को मान लेती थी उसे अपनी स्वतंत्र सेनाएँ रखने का अधिकार नहीं रहता था। उसे कंपनी की तरफ़ से सुरक्षा मिलती थी और “सहायक सेना” के रखरखाव के लिए वह कंपनी को पैसा देती थी। अगर भारतीय शासक रकम अदा करने में चूक जाते थे तो जुर्माने के तौर पर उनका इलाका कंपनी अपने कब्ज़े में ले लेती थी। उदाहरण के लिए, जब रिचर्ड वेलेज़्ली गवर्नर जनरल (1798-1805) था, उस समय अवध के नवाब को 1801 में अपना आधा इलाका कंपनी को सौंपने के लिए मज़बूर किया गया क्योंकि नवाब “सहायक सेना” के लिए पैसा अदा करने में चूक गए थे। इसी आधार पर हैदराबाद के भी कई इलाके छीन लिए गए।
चित्र 7 – अपने बेटों और ब्रिटिश रेजिडेंट के साथ खड़े नवाब शुजाउद्दौला, टिली कैटल द्वारा बनाया चित्र (तैल, 1772)। बक्सर की लड़ाई के बाद हुई संधियों के फलस्वरूप नवाब शुजाउद्दौला के ज़्यादातर अधिकार छिन गए थे लेकिन यहाँ वह रेज़िडेंट के सामने अपनी चिर-परिचित शाही शानो-शौकत के साथ दिखाई दे रहे हैं।
रेजिडेंट की ताकत क्या होती थी?
कंपनी द्वारा नियुक्त किए गए रेज़िडेंट्स के बारे में स्कॉटलैंड के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और राजनीतिक दार्शनिक जेम्स मिल ने यह कहा था-
दरअसल रेजिडेंट रियासत का राजा होता है। हम उसे अहस्तक्षेप की मनचाही निषेधाज्ञा के तहत काम करने की छूट देते हैं। जब तक स्थानीय राजा पूरी तरह अधीनस्थ रहता है और रेजिडेंट यानी ब्रिटिश सरकार के माफ़िक काम करता है तो चीजें आराम से चलती रहती हैं। शासन के कामों में रेजिडेंट की दखलंदाजी के बिना सब कुछ चल जाता है…. जब भी कुछ अलग तरह का घटता है, जब भी राजा कोई ऐसा रास्ता अपनाता है जिसे ब्रिटिश सरकार गलत मानती है तो टकराव और उथल-पुथल पैदा हो जाती है।
टीपू सुल्तान – “शेर-ए-मैसूर”
जब कंपनी को अपने राजनीतिक और आर्थिक हितों पर खतरा दिखाई दिया तो कंपनी ने प्रत्यक्ष सैनिक टकराव का रास्ता भी अपनाया। दक्षिण भारतीय राज्य मैसूर के उदाहरण से यह बात समझी जा सकती है।
हैदर अली (शासन काल 1761 से 1782) और उनके विख्यात पुत्र टीपू सुल्तान (शासन काल 1782 से 1799) जैसे शक्तिशाली शासकों के नेतृत्व में मैसूर काफ़ी ताकतवर हो चुका था। मालाबार तट पर होने वाला व्यापार मैसूर रियासत के नियंत्रण में था जहाँ से कंपनी काली मिर्च और इलायची खरीदती थी। 1785 में टीपू सुल्तान ने अपनी रियासत में पड़ने वाले बंदरगाहों से चंदन की लकड़ी, काली मिर्च और इलायची का निर्यात रोक दिया। सुल्तान ने स्थानीय सौदागरों को भी कंपनी के साथ कारोबार करने से रोक दिया था। टीपू सुल्तान ने भारत में रहने वाले फ्रांसीसी व्यापारियों से घनिष्ठ संबंध विकसित किए और उनकी मदद से अपनी सेना का आधुनिकीकरण किया।
चित्र 9 – टीपू सुल्तान के बेटों को बंधक के रूप में कॉर्नवालिस के सामने पेश किया जा रहा है। डेनियल ऑर्म द्वारा चित्रित, 1793.
कंपनी की फौज़ों को हैदर अली और टीपू सुल्तान ने कई बार युद्ध में हराया था। लेकिन 1792 में मराठों, हैदराबाद के निज़ाम और कंपनी की संयुक्त फौज़ों के हमले के बाद टीपू सुल्तान को अंग्रेज़ों से संधि करनी पड़ी। इस संधि के तहत उनके दो बेटों को अंग्रेज़ों ने बंधक के रूप में अपने पास रख लिया। ब्रिटिश चित्रकारों को ऐसे दृश्यों की तसवीर बनाने में मज़ा आता था जिनमें अंग्रेज़ों की सत्ता की विजय दिखाई देती थी।
सुल्तान के इन कदमों से अंग्रेज़ आग-बबूला हो गए। उन्हें हैदर अली और टीपू सुल्तान बहुत महत्त्वाकांक्षी, घमंडी और खतरनाक दिखाई देते थे। अंग्रेज़ों को लगता था कि ऐसे राजाओं को नियंत्रित करना और कुचलना ज़रूरी है। फलस्वरूप, मैसूर के साथ अंग्रेज़ों की चार बार जंग हुई (1767-1769, 1780-1784, 1790-1792 और 1799)। श्रीरंगपट्म की आख़िरी जंग में कंपनी को सफलता मिली। अपनी राजधानी की रक्षा करते हुए टीपू सुल्तान मारे गए और मैसूर का राजकाज पुराने वोडियार राजवंश के हाथों में सौंप दिया गया। इसके साथ ही मैसूर पर भी सहायक संधि थोप दी गई।
चित्र 10 – टीपू का खिलौना शेर।
यह टीपू के एक विशालकाय मशीनी खिलौने की तसवीर है। इसमें यह नकली शेर एक यूरोपीय सिपाही को दबाए हुए है। जब इसका हैंडल घुमाया जाता था तो नकली शेर दहाड़ता था और सिपाही के भीतर से चीख की आवाजें आती थीं। अब यह खिलौना शेर लंदन स्थित विक्टोरिया एंड एल्बर्ट म्यूज़ियम में रखा है। 4 मई 1799 को जब अपनी राजधानी श्रीरंगपट्म की रक्षा करते हुए टीपू सुल्तान की मृत्यु हो गई तो अंग्रेज़ इस खिलौने को भी अपने साथ ले गए।
मराठों से लड़ाई
अठारहवीं शताब्दी के आख़िर से कंपनी मराठों की ताकत को भी काबू और ख़त्म करने के बारे में सोचने लगी थी। 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में हार के बाद दिल्ली से देश का शासन चलाने का मराठों का सपना चूर-चूर हो गया। उन्हें कई राज्यों में बाँट दिया गया। इन राज्यों की बागडोर सिंधिया, होलकर, गायकवाड और भोंसले जैसे अलग-अलग राजवंशों के हाथों में थी। ये सारे सरदार एक पेशवा (सर्वोच्च मंत्री) के अंतर्गत एक कन्फ़ेडरेसी (राज्यमंडल) के सदस्य थे। पेशवा इस राज्यमंडल का सैनिक और प्रशासकीय प्रमुख होता था और पुणे में रहता था। महादजी सिंधिया और नाना फड़नीस अठारहवीं सदी के आख़िर के दो प्रसिद्ध मराठा योद्धा और राजनीतिज्ञ थे।
एक के बाद एक कई युद्धों में कंपनी ने मराठों को घुटने टेकने पर मज़बूर कर दिया। पहला युद्ध 1782 में सालबाई संधि के साथ खत्म हुआ जिसमें कोई पक्ष नहीं जीत पाया। दूसरा अंग्रेज़-मराठा युद्ध (1803-1805) कई मोर्चा पर लड़ा गया। इसका नतीजा यह हुआ कि उड़ीसा और यमुना के उत्तर में स्थित आगरा व दिल्ली सहित कई भूभाग अंग्रेज़ों के कब्जे में आ गए। अंततः, 1817-1819 के तीसरे अंग्रेज़-मराठा युद्ध में मराठों की ताकत को पूरी तरह कुचल दिया गया। पेशवा को पुणे से हटाकर कानपुर के पास बिटूर में पेंशन पर भेज दिया गया। अब विध्य के दक्षिण में स्थित पूरे भूभाग पर कंपनी का नियंत्रण हो चुका था।
सर्वोच्चता का दावा
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से कंपनी क्षेत्रीय विस्तार की आक्रामक नीति पर चल रही थी। लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813 से 1823 तक गवर्नर-जनरल) के नेतृत्व में “सर्वोच्चता” की एक नयी नीति शुरू की गई। कंपनी का दावा था कि उसकी सत्ता सर्वोच्च है इसलिए वह भारतीय राज्यों से ऊपर है। अपने हितों की रक्षा के लिए वह भारतीय रियासतों का अधिग्रहण करने या उनको अधिग्रहण की धमकी देने का अधिकार अपने पास मानती थी। यह सोच बाद में भी अंग्रेज़ों की नीतियों में दिखाई देती रही।
लेकिन यह प्रक्रिया बेरोकटोक नहीं चली। उदाहरण के लिए, जब अंग्रेज़ों ने कित्तूर (फिलहाल कर्नाटक में) के छोटे से राज्य को कब्जे में लेने का प्रयास किया तो रानी चेन्नम्मा ने हथियार उठा लिए और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ आंदोलन छेड़ दिया। 1824 में उन्हें गिरफ्तार किया गया और 1829 में जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई। चेन्नम्मा के बाद कित्तूर स्थित संगोली के एक गरीब चौकीदार रायन्ना ने यह प्रतिरोध जारी रखा। चौतरफा समर्थन और सहायता से उन्होंने बहुत सारे ब्रिटिश शिविरों और दस्तावेजों को नष्ट कर दिया था। आखिरकार उन्हें भी अंग्रेज़ों ने पकड़कर 1830 में फाँसी पर लटका दिया। प्रतिरोध के ऐसे कई दूसरे उदाहरण आप इस किताब में आगे पढ़ेंगे।
1830 के दशक के अंत में ईस्ट इंडिया कंपनी रूस के प्रभाव से बहुत डरी हुई थी। कंपनी को भय था कि कहीं रूस का प्रभाव पूरे एशिया में फैलकर उत्तर-पश्चिम से भारत को भी अपनी चपेट में न ले ले। इसी डर के चलते अंग्रेज़ अब उत्तर-पश्चिमी भारत पर भी अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने 1838 से 1842 के बीच अफगानिस्तान के साथ एक लंबी लड़ाई लड़ी और वहाँ अप्रत्यक्ष कंपनी शासन स्थापित कर लिया। 1843 में सिंध भी कब्ज़े में आ गया। इसके बाद पंजाब की बारी थी। यहाँ महाराजा रणजीत सिंह ने कंपनी की दाल नहीं गलने दी। 1839 में उनकी मृत्यु के बाद इस रियासत के साथ दो लंबी लड़ाइयाँ हुईं और आख़िरकार 1849 में अंग्रेज़ों ने पंजाब का भी अधिग्रहण कर लिया।
विलय नीति
अधिग्रहण की आख़िरी लहर 1848 से 1856 के बीच गवर्नर-जनरल बने लॉर्ड डलहौज़ी के शासन काल में चली। लॉर्ड डलहौज़ी ने एक नयी नीति अपनाई जिसे विलय नीति का नाम दिया गया। यह सिद्धांत इस तर्क पर आधारित था कि अगर किसी शासक की मृत्यु हो जाती है और उसका कोई पुरुष वारिस नहीं है तो उसकी रियासत हड़प कर ली जाएगी यानी कंपनी के भूभाग का हिस्सा बन जाएगी। इस सिद्धांत के आधार पर एक के बाद एक कई रियासतें – सतारा (1848), संबलपुर (1850), उदयपुर (1852), नागपुर (1853) और झाँसी (1854) अंग्रेज़ों के हाथ में चली गईं। आखिरकार 1856 में कंपनी ने अवध को भी अपने नियंत्रण में ले लिया। इस बार अंग्रेज़ों ने एक नया तर्क दिया।
उन्होंने कहा कि वे अवध की जनता को नवाब के “कुशासन” से आज़ाद कराने के लिए “कर्तव्य से बंधे हुए हैं इसलिए वे अवध पर कब्जा करने को मजबूर हैं! अपने प्रिय नवाब को जिस तरह से गद्दी से हटाया गया, उसे देखकर लोगों में गुस्सा भड़क उठा और अवध के लोग भी 1857 के महान विद्रोह में शामिल हो गए।
चित्र 11 (a), (b), (c)- भारत में अंग्रेज़ों की फैलती सत्ताएँ। इन नक्शों को भारत के वर्तमान राजनीतिक नक्शे के साथ रखकर देखें। तीनों नक्शों में उन इलाकों की पहचान करें जो ब्रिटिश शासन के अंतर्गत नहीं थे।
नए शासन की स्थापना
गवर्नर-जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स (1773-1785) उन बहुत सारे महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों में से था जिन्होंने कंपनी की ताकत फैलाने में अहम भूमिका अदा की थी। वॉरेन हेस्टिंग्स के समय तक आते-आते कंपनी न केवल बंगाल बल्कि बम्बई और मद्रास में भी सत्ता हासिल कर चुकी थी। ब्रिटिश इलाके मोटे तौर पर प्रशासकीय इकाइयों में बँटे हुए थे जिन्हें प्रेजिडेंसी कहा जाता था। उस समय तीन प्रेजिडेंसी थीं – बंगाल, मद्रास और बम्बई। हरेक का शासन गवर्नर के पास होता था। सबसे ऊपर गवर्नर-जनरल होता था। वॉरेन हेस्टिंग्स ने कई प्रशासकीय सुधार किए। न्याय के क्षेत्र में उसके सुधार ख़ासतौर से उल्लेखनीय थे।
1772 से एक नयी न्याय व्यवस्था स्थापित की गई। इस व्यवस्था में प्रावधान किया गया कि हर ज़िले में दो अदालतें होंगी- फ़ौजदारी अदालत और दीवानी अदालत। दीवानी अदालतों के मुखिया यूरोपीय जिला कलेक्टर होते थे। मौलवी और हिंदू पंडित उनके लिए भारतीय कानूनों की व्याख्या करते थे। फौजदारी अदालतें अभी भी काज़ी और मुफ़्ती के ही अंतर्गत थीं लेकिन वे भी कलेक्टर की निगरानी में काम करते थे।
चित्र 12-वरिन हेस्टिंग्स पर मुकदमा, आर. जी. पॉलार्ड द्वारा चित्रित, 1789. जब वॉरेन हेस्टिंग्स 1785 में इंग्लैंड लौटा तो ऐडमंड बर्क ने उस पर बंगाल का शासन सही ढंग से न चलाने का आरोप जड़ दिया। इस आरोप के चलते हेस्टिंग्स पर ब्रिटिश संसद में महाभियोग का मुकदमा चलाया गया जो सात साल चला।
काज़ी – एक न्यायाधीश।
मुफ़्ती – मुस्लिम समुदाय का एक न्यायविद जो कानूनों की व्याख्या करता है। काज़ी इसी व्याख्या के आधार पर फैसले सुनाता है।
महाभियोग – जब इंग्लैंड के हाउस
ऑफ कॉमंस में किसी व्यक्ति के खिलाफ़ दुराचरण का आरोप लगाया जाता है तो हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स (संसद का ऊपरी सदन) में उस व्यक्ति के खिलाफ़ मुकदमा चलता है। इसे महाभियोग कहा जाता है।
एक बड़ी समस्या यह थी कि ब्राह्मण पंडित धर्मशास्त्र की अलग-अलग शाखाओं के हिसाब से स्थानीय कानूनों की अलग-अलग व्याख्या कर देते थे। इस भिन्नता को ख़त्म करके समरूपता लाने के लिए 1775 में 11 पंडितों को भारतीय कानूनों का एक संकलन तैयार करने का काम सौंपा गया। एन.बी. हालहेड ने इस संकलन का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। 1778 तक यूरोपीय न्यायाधीशों के लिए मुस्लिम कानूनों की भी एक संहिता तैयार कर ली गई थी। 1773 के रेग्युलेटिंग ऐक्ट के तहत एक नए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई। इसके अलावा कलकत्ता में अपीलीय अदालत सदर निज़ामत अदालत की भी स्थापना की गई।
भारतीय ज़िले में कलेक्टर सबसे बड़ा ओहदा होता था। जैसा कि नाम से ही पता चलता है, उसका मुख्य काम लगान और कर इकट्ठा करना तथा न्यायाधीशों, पुलिस अधिकारियों व दारोगा की सहायता से जिले में कानून-व्यवस्था बनाए रखना होता था। उसका कार्यालय – कलेक्टरेट – सत्ता और संरक्षण का नया केंद्र बन गया था जिसने पुराने सत्ता केंद्रों को हाशिये पर ढकेल दिया।
कंपनी की फ़ौज
कंपनी के साथ भारत में शासन और सुधार के नए विचार तो आए लेकिन उसकी असली सत्ता सैनिक ताकत में थी। मुग़ल फ़ौज मुख्य रूप से घुड़सवार (सवार – घोड़े पर चलने वाले प्रशिक्षित) और पैदल सेना थी। उन्हें तीरंदाज़ी और तलवारबाज़ी का प्रशिक्षण दिया जाता था। सेना में सवारों का दबदबा रहता था और मुग़ल साम्राज्य को एक विशाल पेशेवर प्रशिक्षण वाली पैदल सेना की ज़रूरत महसूस नहीं होती थी। ग्रामीण इलाकों में सशस्त्र किसानों की बड़ी संख्या थी। स्थानीय ज़मींदार मुग़लों को जरूरत पड़ने पर पैदल सिपाही मुहैया कराते थे।
अठारहवीं सदी में जब अवध और बनारस जैसी रियासतों में किसानों को भर्ती करके उन्हें पेशेवर सैनिक प्रशिक्षण दिया जाने लगा तो यह सूरत बदलने * लगी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब अपनी सेना के लिए भर्ती शुरू की तो उसने भी यही तरीका अपनाया। अंग्रेज़ अपनी सेना को सिपॉय (जो भारतीय शब्द ‘सिपाही’ से ही बना है) आर्मी कहते थे।
1820 के दशक से जैसे-जैसे युद्ध तकनीक बदलने लगी कंपनी की सेना में घुड़सवार टुकड़ियों की ज़रूरत कम होती गई। इसकी वजह यह थी कि ब्रिटिश साम्राज्य बर्मा, अफगानिस्तान और मिस्त्र में भी लड़ रहा था जहाँ सिपाही मस्केट (तोड़ेदार बंदक) और मैचलॉक से लैस हाते थे। कंपनी की सेना के सिपाहियों को बदलती सैनिक आवश्यकताओं का ध्यान रखना पड़ता था और अब उसकी पैदल टुकड़ी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण होती जा रही थी।
चित्र 13 – कंपनी के लिए काम करने वाला बंगाल का एक सवार, एक अज्ञात भारतीय चित्रकार द्वारा बनाया गया चित्र, 1780.
मराठों और मैसूर के साथ हुए युद्धों के बाद कंपनी को अपनी घुड़सवार टुकड़ियों को मज़बूत करने की अहमियत समझ में आने लगी थी।
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में अंग्रेज़ एक समरूप सैनिक संस्कृति विकसित करने लगे थे। सिपाहियों को यूरोपीय ढंग का प्रशिक्षण, अभ्यास और अनुशासन सिखाया जाने लगा। अब उनका जीवन पहले से भी ज़्यादा नियंत्रित था। इस कोशिश में कभी-कभी समस्याएँ भी आ जाती थीं क्योंकि पेशेवर सिपाहियों की सेना खड़ा करने के चक्कर में अंग्रेज़ कई बार जाति और समुदाय की भावनाओं को नज़रअंदाज़ कर देते थे। भला लोग अपनी जातीय और धार्मिक भावनाओं को इतनी आसानी से कैसे छोड़ सकते थे? क्या वे खुद को अपने समुदाय का सदस्य मानने की बजाय सिर्फ़ सिपाही मान सकते थ?
सिपाही क्या महसूस करते थे? अपने जीवन और अपनी पहचान, यानी वे कौन हैं, इस बात के अहसास में जो बदलाव आ रहे थे उनको सिपाहियों ने किस तरह देखा? 1857 का विद्रोह हमें सिपाहियों की इस दुनिया की झलक दिखाता है। इस विद्रोह के बारे में आप अध्याय 5 में पढ़ेंगे।
निष्कर्ष
ईस्ट इंडिया कंपनी एक व्यापारिक कंपनी से बढ़ते-बढ़ते एक भौगोलिक औपनिवेशिक शक्ति बन गई। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में नयी भाप तकनीक के आने से यह प्रक्रिया और तेज़ हुई। तब तक समुद्र मार्ग से भारत पहुँचने में 6-8 माह का समय लग जाता था। भाप से चलने वाले जहाज़ों ने यह यात्रा तीन हफ़्तों में समेट दी। इसके बाद तो ज़्यादा से ज़्यादा अंग्रेज़ और उनके परिवार भारत जैसे दूर देश में आने लगे।
1857 तक भारतीय उपमहाद्वीप के 63 प्रतिशत भूभाग और 78 प्रतिशत आबादी पर कंपनी का सीधा शासन स्थापित हो चुका था। देश के शेष भूभाग और आबादी पर कंपनी का अप्रत्यक्ष प्रभाव था। इस प्रकार, व्यावहारिक स्तर पर ईस्ट इंडिया कंपनी पूरे भारत को अपने नियंत्रण में ले चुकी थी।
यह भी पढ़ें : कैसे, कब और कहाँ : अध्याय 1
फिर से याद करें
1. निम्नलिखित के जोड़े बनाएँ-
दीवानी | टीपू सुल्तान |
“शेर-ए-मैसूर” | भूराजस्व वसूल करने का अधिकार |
रानी चेन्नम्मा | सिपॉय |
सिपाही | भारत का पहला गवर्नर-जनरल |
वॉरन हेस्टिंग्स | कित्तूर में अंग्रेज़-विरोधी आंदोलन का नेतृत्व किया |
Ans.
दीवानी | भू-राजस्व वसूल करने का अधिकार |
“शेर-ए-मैसूर” | टीपू सुल्तान |
रानी चेन्नम्मा | कित्तूर में अंग्रेज़-विरोधी आंदोलन का नेतृत्व किया |
सिपाही | सिपॉय |
वॉरन हेस्टिंग्स | भारत का पहला गवर्नर-जनरल |
2. रिक्त स्थान भरें-
(क) बंगाल पर अंग्रेजों की जीत प्लासी की जंग से शुरू हुई थी।
(ख) हैदर अली और टीपू सुल्तान मैसूर के शासक थे।
(ग) डलहोजी ने लैप्स तथा विलय का सिद्धांत लागू किया।
(घ) मराठा रियासतें मुख्य रूप से भारत के मध्य तथा पश्चिम भाग में स्थित थीं।
3. सही या गलत बताएँ-
(क) मुग़ल साम्राज्य अठारहवीं सदी में मज़बूत होता गया। (गलत)
(ख) इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत के साथ व्यापार करने वाली एकमात्र यूरोपीय कंपनी थी। (गलत)
(ग) महाराजा रणजीत सिंह पंजाब के राजा थे। (सही)
(घ) अंग्रेज़ों ने अपने कब्जे वाले इलाकों में कोई शासकीय बदलाव नहीं किए। (गलत)
आइए विचार करें
4. यूरोपीय व्यापारिक कंपनियाँ भारत की तरफ़ क्यों आकर्षित हो रही थीं?
Ans. यूरोप के बाजारों में भारत के बने बारीक सूती कपड़े और रेशम की जबरदस्त माँग थी। इनके अलावा काली मिर्च, लौंग, इलायची और दालचीनी की भी जबरदस्त माँग रहती थीं। यूरोपीय कंपनियों के बीच इस बढ़ती प्रतिस्पर्धा से भारतीय बाजारों में इन चीजों की कीमतें बढ़ने लगीं और उनसे मिलने वाला मुनाफा गिरने लगा। अब इन व्यापारिक कंपनियों के फलने-फूलने का यही एक रास्ता था कि वे अपनी प्रतिस्पर्धी कंपनियों को खत्म कर दे। इसी कारण यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों भारत की तरफ आकर्षित हो रही थी।
5. बंगाल के नवाबों और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच किन बातों पर विवाद थे?
Ans. बंगाल के नवाबों और कंपनी के बीच विवाद के कारण
1. नवाबों ने कंपनी को छूट देने से मना कर दिया था।
2. नवाबों ने कंपनी को व्यापारिक अधिकार देने के लिए बहुत अधिक धनराशि की माँग की।
3. नवाबों ने कंपनी को सिक्का ढालने का अधिकार देने से भी मना कर दिया।
4. नवाबों ने कंपनी पर टैक्स (कर) अदा नहीं करने के साथ-साथ अपमानजनक पत्र लिखने का आरोप लगाया।
5. कंपनी ने भी नवाबों पर निम्रलिखित आरोप लगाए कि नवाबों के स्थानीय अधिकारी कंपनी के व्यापार को नष्ट कर रहे हैं. कंपनी को अधिक टैक्स देना पड़ रहा है, कंपनी को किलाबंदी के विस्तार व पुनर्निर्माण की अनुमति नहीं दी जा रही है।
अथवा
बंगाल के नवाबों और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच निम्नलिखित बातों पर विवाद थे :
औरंगजेब की मृत्यु के बाद बंगाल के नवाब अपनी ताकत दिखाने लगे थे। उन्होंने कंपनी को रियायतें देने से मना कर दिया। व्यापार का अधिकार देने के बदले कंपनी से नज़राने माँगे, उसे सिक्के ढालने का अधिकार नहीं दिया और उसकी किलेबंदी को बढ़ाने से रोक दिया। कंपनी पर धोखाधड़ी का आरोप लगाते हुए उन्होंने दलील दी कि उसकी वजह से बंगाल सरकार की राजस्व वसूली कम होती जा रही है और नवाबों की ताकत कमज़ोर पड़ रही है। उसके अफसरों ने अपमानजनक चिट्ठियों लिखीं और नवाबों व उनके अधिकारियों को अपमानित करने का प्रयास किया। कंपनी का कहना था कि स्थानीय अधिकारियों की बेतुकी माँगों से कंपनी का व्यापार तबाह हो रहा है। व्यापार तभी फल फूल सकता है जब सरकार शुल्क हटा ले।
6. दीवानी मिलने से ईस्ट इंडिया कंपनी को किस तरह फ़ायदा पहुँचा?
Ans. दीवानी मिलने से कंपनी को फायदा
1. दीवानी मिलने के कारण कंपनी को बंगाल के विशाल राजस्व संसाधनों पर नियंत्रण मिल गया।
2. कंपनी भारत से ज्यादातर वस्तुएँ ब्रिटेन से लाए गए सोने-चाँदी के बदले खरीदती थी, लेकिन अब उसे ब्रिटेन से सोना-चाँदी लाने की आवश्यकता ही नहीं रही।
3. अब कंपनी भारत से होने वाले लाभ से अपने खर्च चला सकती थी जैसे सूती रेशमी कपड़ा खरीदना, अपनी सेना के खर्च की पूर्ति करना और कलकत्ता में किले और दफ्तरों के निर्माण का खर्चा उठाना इत्यादि।
अथवा
दीवानी का अर्थ हैः- राजस्व वसूली का अधिकार। 1765 में मुग़ल सम्राट ने कंपनी को ही बंगाल प्रांत का दीवान नियुक्त कर दिया। दीवानी मिलने के कारण कंपनी को बंगाल के विशाल राजस्व संसाधनों पर नियंत्रण मिल गया था। इस तरह कंपनी की एक पुरानी समस्या हल हो गयी थी। अठारहवीं सदी की शुरुआत से ही भारत के साथ उसका व्यापार बढ़ता जा रहा था। लेकिन उसे भारत में ज्यादातर चीजें ब्रिटेन से लाए गए सोने और चाँदी के बदले में खरीदनी पड़ती थीं। इसकी वजह ये थी कि उस समय ब्रिटेन के पास भारत में बेचने के लिए कोई चीज़ नहीं थी। प्लासी की जंग के बाद ब्रिटेन से सोने की निकासी कम होने लगी और बंगाल की दीवानी मिलने के बाद तो ब्रिटेन से सोना लाने की जरूरत ही नहीं रहीं। अब भारत से होने वाली आमदनी के सहारे ही कंपनी अपने खर्चे चला सकती थी। इस कमाई से कंपनी भारत में सूती और रेशमी कपड़ा खरीद सकती थी। अपनी फौजों को संभाल सकती थी और कलकत्ते में किलों और दफ्तरों के निर्माण की तागत उठा सकती थी।
7. ईस्ट इंडिया कंपनी टीपू सुल्तान को खतरा क्यों मानती थी?
Ans. ईस्ट इंडिया कंपनी टीपू सुल्तान को निम्नलिखित कारणों से खतरा मानती थी:
(क) टीपू सुल्तान एक शक्तिशाली शासक था। उसके नेतृत्व में मैसूर राज्य काफ़ी शक्तिशाती हो चुका था।
(ख) मालाबार तट से होने वाला व्यापार मैसूर राज्य के नियंत्रण में था जहाँ से कंपनी काली मिर्च और इलायची ख़रीदती थी। 1785 में टीपू सुल्तान ने अपने राज्य में पड़ने वाले बंदरगाहों से चंदन की में लकड़ी काली मिर्च और इलायची का निर्यात रोक दिया। उसने स्थानीय सौदागरों को भी कंपनी के साथ कारोबार करने से मना कर दिया।
(ग) टीपू सुल्तान ने भारत में रहने वाले फ्रांसीसी व्यापारियों से घनिष्ठ संबंध विकसित किए और उनकी सहायता से अपनी सेना का आधुनिकीकरण किया। सुल्तान के इन कदमों से अंग्रेज (ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी) आग-बबूला हो गए। ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों में खलबली मच गई थी।
8. “सब्सिडियरी एलायंस” (सहायक संधि) व्यवस्था की व्याख्या करें।
Ans. उस समय भारत में सहायक संधि लॉर्ड वेल्जली ने चलाई थी। संधि केवल अंग्रेज कंपनी और देशी राजाओं के बीच हुआ करती थी। संधि को मानने वाले देशी राजा को निम्नलिखित शर्तों का पालन करना पड़ता थाः-
(क) अपने राज्य में अपने खर्च पर एक अंग्रेजी सेना रखना। इसे सहायक सेना कहा जाता था।
(ख) अपने दरबार में एक अंग्रेज प्रतिनिधि रखना।
(ग) अपने दरबार में अंग्रेजों की आज्ञा के बिना किसी विदेशी को नौकरी न देना।
(घ) किसी अन्य राज्य से युद्ध हो जाने एक अंग्रेजों का निर्णय मानना।
राजाओं की स्थिति : सहायक संधि को मानने वाला देशी राजा यदि सहायक सेना का खर्चा नहीं दे पाता था। कंपनी जुमनि के रूप में उसके किसी प्रदेश पर अधिकार कर लेती थी। उदाहरण के लिए उस समय अवध के नवाब को 1801 में अपना आधा इलाका कंपनी को सौंपने के लिए मजबूर किया गया क्योंकि नवाब करने में चूक गए थे। इसी आधार पर हैदराबाद के भी कई इलाके छीन लिए गए। सहायक सेना के लिए पैसा अदा
अथवा
सहायक संधि का अर्थः गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेली ने भारत में कंपनी के शासन के विस्तार के उद्देश्य सहायक संधि को अपनाया था। इसे सहायक संधि इसलिए कहा गया कि जो भी भारतीय शासक इस संधि की शर्तों को मानने के लिए तैयार हो जाता था कंपनी उसकी सुरक्षा में पूर्ण सहयोग करने का वायदा करती थी।
सहायक संधि की शर्ते-
1. भारतीय शासकों को अपनी स्वतंत्र सेना रखने की इजाजत नहीं होगी।
2. जिन शासकों की सुरक्षा का भार कंपनी पर होगा। वे इसके लिए कंपनी को शुल्क प्रदान करेंगे। शुल्क नहीं। | देने की स्थिति में कंपनी दंड के रूप में शुल्क के बराबर राजस्व वाला क्षेत्र शासक से छीन लेगी।
3. शासक को अपने दरबार में एक अंग्रेज़ रेजीडेंट रखना होगा जो शासक की गतिविधियों पर नजर रखेगा।
9. कंपनी का शासन भारतीय राजाओं के शासन से किस तरह अलग था?
Ans. भारतीय राजाओं का प्रशासन लचर था। वे कभी भी लोगों की जरूरतों पर ध्यान नहीं देते थे। कम्पनी ने प्रशासन के क्षेत्र में कई सुधार किए। शासन के लिए दुरुस्त व्यवस्था बनाई गई। न्याय व्यवस्था के क्षेत्र में कई सुधार हुए। यहाँ के स्थानीय कानूनों के आधार पर नए कानून बने ताकि स्थानीय परंपराओं का ध्यान रखा जाए।
अथवा
(क) भारत में ज्यादा तर राजा निरंकुश हुआ करते थे। उन्हें किसी जनता द्वारा नहीं चुना जाता था। उनका पद पैतृक होता था। मतलब कि उनके पिता के बाद उन्हें राजा घोषित कर दिया जाता था। वहीं दूसरी तरफ कंपनी का शासन कंपनी के अधिकारियों द्वारा नियुक्त प्रशासक चलाते थे। उन्हें शासन चलाने का प्रशिक्षण भी दिया जाता था।
(ख) भारतीय राजाओं कोई भी अपना कानून नहीं हुआ करता था। कोई भी फैसला राजाओं द्वारा ही लिया जाता था। मतलब कि राजा ही सबसे बड़ा न्यायाधीश होता था। राजाओं के कानून लिखित नहीं थे। वहीं दूसरी तरफ कंपनी के सभी कानून लिखे हुए थे। इन कानून की समस्या के लिए अदालत भी बनाई गई थी। इन सबके ऊपर सर्वोच्च न्यायालय भी होता था।
(ग) कंपनी तथा भारतीय राजाओं के सैनिकों में अंतर होता था। राजाओं की सेना थोड़ी कम प्रशिक्षित थी। लेकिन वहीं कंपनी के सैनिक काफी प्रशिक्षित थे। उनको हर मुश्किलों से लड़ना सिखाया गया था।
10. कंपनी की सेना की संरचना में आए बदलावों का वर्णन करें।
Ans. कंपनी की सेना में आए संरचनात्मक बदलाव
1. कंपनी ने पैदल और घुड़सवार सिपाहियों की जगह पेशेवर सैनिकों की भर्ती की।
2. कंपनी ने सैनिकों को यूरोपीय शैली में नई युद्ध तकनीक से प्रशिक्षित किया।
3. कंपनी ने अपने सैनिकों को आधुनिक हथियारों, जैसे-मस्केट तथा मैचलॉक आदि से लैस किया गया।
4. कंपनी ने सेना में यूरोपीय सैनिकों की संख्या बढ़ा दी तथा सेना के महत्त्वपूर्ण स्थानः जैसे-तोपखाना, टैंक इत्यादि पर यूरोपीय सैनिकों को नियुक्त किया गया।
5. सेना में यह भावना जगाई कि उनका कोई धर्म जाति, नहीं है वह केवल सैनिक है ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति वफादारी रखना उनका कर्तव्य है।
अथवा
ईस्ट इंडिया कंपनी आरंभ में एक व्यापारिक कंपनी ही थी। परंतु बंगाल की विजय के बाद यह एक प्रशासनिक कंपनी भी बन गई। इसी बीच कंपनी ने बंबई तथा मद्रास पर भी अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी। अपनी सत्ता की रक्षा तथा मजबूती के लिए कंपनी की सेना को नया रूप देना आवश्यक हो गया।
सैनिक संरचना में परिवर्तन: सैनिक संगठन में समय के अनुसार आवश्यक परिवर्तन किए गए। अठारहवीं शताब्दी में अवध और बनारस जैसी रियासतों में किसानों को भर्ती करके उन्हें पेशेवर सैनिक प्रशिक्षण दिया जाने लगा। ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब अपनी सेना के लिए भर्ती शुरू की तो उसने भी यही तरीका अपनाया। अंग्रेज़ अपनी सेना को सिपॉय आर्मी कहते थे। 1820 के दशक से युद्ध तकनीक के बदलने से कंपनी की सेना में घुड़सवार टुकड़ियों का महत्त्व कम हो गया। इसका कारण यह था कि ब्रिटिश शासन वर्मा, अफगानिस्तान और मिस्र में भी लड़ रहा था जहाँ सिपाही मस्केट (तोड़ेदार बंदूक) और मैचलॉक से लैस होते थे। अतः कंपनी की पैदल टुकड़ी अधिक महत्त्वपूर्ण होती जा रही थी। इस प्रकार 19 वीं शताब्दी के आरंभ तक सिपाहियों को यूरोपीय ढंग का प्रशिक्षण, अभ्यास और अनुशासन सिखाया जाने लगा। अब उनका जीवन पहले से भी कहीं अधिक नियंत्रित था।
11. बंगाल में अंग्रेजों के बाद कलकत्ता एक छोटे से गाँव से बड़े शहर में तब्दील हो गया। औपनिवेशिक काल के दौरान शहर के यूरोपीय और भारतीय निवासियों को संस्कृति, शिल्प और जीवन के बारे में पता लगाएँ।
Ans. कलकत्ता को पहले कालिकाता के नाम से जाना जाता था। जब मुगल साम्राज्य ने कालिकाता पर जमींदारी का अधिकार दिया तो यह एक छोटे से गाँव से बड़े शहर में उभरने लगा। कलकत्ता प्रशासन का केंद्र बन गया। अंग्रेज बंगलौर में पानी की आपूर्ति, बिजली की आपूर्ति, उद्यानं आदि जैसी सुविधाओं के साथ अच्छी तरह से विकसित क्षेत्रों में रह रहे थे। अधिकांश भारतीय खराब परिस्थितियों वाले भीड़भाड़ वाले क्षेत्रों में रहते थे। उस समय के दौरान शहर सांस्कृतिक रूप से भी विकसित हुआ। नाटकों, थिएटरों, संगीत ने अपनी सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध किया। औपनिवेशिक काल में कई शिक्षण संस्थान स्थापित हुए।