यह सबसे कठिन समय नहीं : अध्याय 6


नहीं, यह सबसे कठिन समय नहीं!
अभी भी दबा है चिड़िया की
चोंच में तिनका
और वह उड़ने की तैयारी में है!
अभी भी झरती हुई पत्ती

थामने को बैठा है हाथ एक
अभी भी भीड़ है स्टेशन पर
अभी भी एक रेलगाड़ी जाती है
गंतव्य तक

जहाँ कोई कर रहा होगा प्रतीक्षा
अभी भी कहता है कोई किसी को
जल्दी आ जाओ कि अब
सूरज डूबने का वक्त हो गया
अभी कहा जाता है

उस कथा का आखिरी हिस्सा
जो बूढ़ी नानी सुना रही सदियों से
दुनिया के तमाम बच्चों को
अभी आती है एक बस
अंतरिक्ष के पार की दुनिया से
लाएगी बचे हुए लोगों की खबर !
नहीं, यह सबसे कठिन समय नहीं।

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प्रश्न-अभ्यास

पाठ से

1. “यह कठिन समय नहीं है?” यह बताने के लिए कविता में कौन-कौन से तर्क प्रस्तुत किए गए है? स्पष्ट कीजिए।
Ans.
यह सबसे कठिन समय नहीं यह बताने के लिए कवयित्री ने कविता में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए हैं

(क) अभी भी चिड़िया की चोंच में तिनका दबा है।

(ख) एक हाथ झड़ती हुई पत्ती को थामने के लिए बैठा है।

(ग) अभी भी एक रेलगाड़ी गंतव्य तक जाती है।

(घ) कोई किसी का इंतजार करते हुए चिंतित हो रहा है और कह रहा है कि जल्दी आ जाओ।

(ङ) दादी-नानी अंतरिक्ष से आने वाली बसों की कहानी सुनाती हैं।

2. चिड़िया चोंच में तिनका दबाकर उड़ने की तैयारी में क्यों है? वह तिनकों का क्या करती होगी? लिखिए।
Ans.
चिड़िया अपनी चोंच में तिनका दबाकर उड़ने की तैयारी में है क्योंकि सूरज डूबने का समय हो चुका है उसके डूबने से पहले चिड़िया अपने लिए घोंसला बनाना चाहती है। वह तिनके से अपने लिए घोंसला तैयार कर उसमें अपने बच्चों के साथ रहेगी। घोंसला उसके परिवार को सुरक्षा प्रदान करता है।

3. कविता में कई बार ‘अभी भी’ का प्रयोग करके बातें रखी गई हैं, अभी भी का प्रयोग करते हुए तीन वाक्य बनाइए और देखिए उनमें लगातार, निरंतर, बिना रुके चलनेवाले किसी कार्य का भाव निकल रहा है या नहीं?
Ans.
(i) अभी भी सूरज डूबने में समय है।

(ii) कक्षा खत्म होने में अभी भी बहुत समय बाकी है।

(ii) अभी भी मेरा काम खत्म नहीं हुआ है।

ऊपर दिए गए तीनों वाक्यों में कार्य के निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया का भाव है।

4. “नहीं” और “अभी भी” को एक साथ प्रयोग करके तीन वाक्य लिखिए और देखिए ‘नहीं’ ‘अभी भी’ के पीछे कौन-कौन से भाव छिपे हो सकते हैं?
Ans.
‘नहीं’ और ‘अभी भी के साथ प्रयोग करने से बने वाक्य

(क) यहाँ कोई महाविद्यालय नहीं है. इसलिए लड़‌कियों अभी भी पढ़ने शहर जा रही हैं (निरंतर का भाव)

(ख) अतिथि अब तक नहीं आए है, लगता है उनके आने में अभी भी समय लगेगा (प्रत्तीक्षा का भाव)

(ग) जून बीतने पर भी वर्षा नहीं हुई तथा सरकारी सहायता अभी भी नहीं मिली (निराशा का भाव)

कविता से आगे

1. घर के बड़े-बूढ़ों द्वारा बच्चों को सुनाई जानेवाली किसी ऐसी कथा की जानकारी प्राप्त कीजिए जिसके आखिरी हिस्से में कठिन परिस्थितियों से जीतने का संदेश हो।
Ans.
छात्र स्वयं करेंगे।

2. आप जब भी घर से स्कूल जाते है कोई आपकी प्रतीक्षा कर रहा होता है। सूरज डूबने का समय भी आपको खेल के मैदान से घर लौट चलने की सूचना देता है कि घर में कोई आपकी प्रतीक्षा कर रहा है-प्रतीक्षा करनेवाले व्यक्ति के विषय में आप क्या सोचते हैं? अपने विचार लिखिए।
Ans.
प्रतीक्षा करने वाले व्यक्ति हमारे प्रियजन ही हो सकते हैं। मेरे तो दिन की शुरुआत और अंत माँ के प्यार से ही होता है। सुबह में प्यार से माथा चूमकर जगाने में माँ का प्यार, नाश्ते में बनी पसंद की चीजों में माँ का प्यार, भले-बुरे की डाँट में माँ का प्यार, सूरज डूबने के साथ खेल के मैदान से घर लौट चलने की सूचना देता माँ का प्यार तथा जीने का सलीका सिखाता माँ का प्यार।

केवल पढ़ने के लिए

पहाड़ से ऊँचा आदमी

तीन सौ साठ फीट लंबा और तीस फीट चौड़ा पहाड़ काटने के लिए कितना वक्त लग सकता है? निश्चित ही टैक्नोलॉजी के इस युग में इस सवाल का जवाब इस बात पर निर्भर करेगा कि आप पहाड़ का सीना चीरने के लिए किस मशीन का इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन अगर यह पूछा जाए कि इसी काम को एक ही शख्स को अंजाम देना हो तो कितना वक्त लगेगा?

शायद यह चकरा देनेवाला सवाल होगा लेकिन बिहार के गया जिले के गेलौर गाँव में एक मजदूर परिवार में जन्मे एक शख्स ने इसका जवाब अपने बाजुओं और अपनी मेहनत से दिया। पहाड़ को हिला देनेवाले उन दशरथ माँझी ने राजधानी दिल्ली में 2007 में अंतिम साँस ली। उनका जन्म 1934 में हुआ था।

वर्ष 1966 की किसी अलसुबह जब छेनी हथौड़ा लेकर दशरथ माँझी अपने गाँव के पास स्थित पहाड़ के पास पहुँचे तो बहुत कम लोगों को इस बात का पता था कि इस शख्स ने अपने दिल में क्या ठान लिया है। मजदूरी और कभी कभार इधर-उधर काम करनेवाले दशरथ माँझी ने जब पहाड़ पर छेनी हथौड़ा चलाना शुरू किया तो आने-जाने वाले राहगीरों के लिए ही नहीं, गाँव के लोगों के लिए भी वह एक हँसी के पात्र बन गए थे।

जीवन संगिनी फागुनी देवी का समय पर इलाज न करा पाने से उसे खो चुके दशरथ माँझी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। धुन के पक्के दशरथ की अथक मेहनत बाईस साल बाद तब रंग लाई जब उस पहाड़ से एक रास्ता दूसरे गाँव तक निकल आया।

आखिर ऐसी क्या बात हुई कि दशरथ को पहाड़ चीरने की धुन सवार हुई। दरअसल पहाड़ को जब तक चीरा नहीं गया था तब तक दशरथ के गाँव से सबसे नज़दीकी वजीरगंज अस्पताल 90 किलोमीटर पड़ता था। दशरथ की पत्नी की तबीयत खराब होने पर उसे वहाँ ले जाने के दौरान ही उसने दम तोड़ दिया था। उन्हें लगा कि पहाड़ से कोई रास्ता होता तो मैं अपनी पत्नी को वक्त पर अस्पताल ले जाता और उसका इलाज करा पाता।

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की एक कविता है: ‘दुख तुम्हें क्या तोड़ेगा तुम दुख को तोड़ दो। बस अपनी आँखें औरों के सपनों से जोड़ दो।’

जिंदगी का तीसवाँ वसंत पार कर चुके दशरथ माँझी ने शायद शेष गाँव के निवासियों के मन में दबी इस छोटी-सी हसरत को अपनी जिंदगी का मिशन बना डाला। और अपनी पत्नी की असामयिक मौत से उपजे प्रचंड दुख को एक नयी संकल्प शक्ति में तब्दील कर दिया। पाँच-छह साल तक दशरथ अकेले ही मेहनत करते रहे। धीरे-धीरे और लोग भी जुड़ते चले गए। वहाँ एक दानपात्र भी रखा गया था जिसमें लोग चंदा डाल देते थे। कई लोग अपने घर से अनाज भी देते थे।

आज की तारीख में आप कह सकते हैं कि गेलौर से वजीरगंज जाने की अस्सी किलोमीटर की दूरी को 13 किलोमीटर ला देने वाला यह रास्ता एक श्रमिक के प्यार की निशानी है। एक अंग्रेज्ज पत्रकार ने लिखा : ‘पूअरमैस ताजमहल।’

कुछ साल पहले एक पत्रकार उनसे मिलने गया, तब एक फक्कड़ कबीरपंथी की तरह यायावरी कर रहे दशरथ माँझी ने उन्हें अपनी एक प्रिय कहानी सुनाई थी जो उस चिड़िया के बारे में थी जिसका घोंसला समुद्र बहाकर ले गया था। कहानी उस चिड़िया की प्रचंड जिजीविषा और संकल्प को बयाँ कर रही थी जिसके तहत समुद्र द्वारा घोंसला न लौटाने पर चिड़िया ने अकेले ही समंदर को सुखा देने का संकल्प लिया। शुरूआत में उसे पागल करार देने वाली बाकी चिड़ियाँ भी उसके साथ जुड़ गईं और फिर विष्णु का वाहन गरुड़ भी इन कोशिशों का हिस्सा बन गया। फिर बीच-बचाव करने के लिए खुद विष्णु को आना पड़ा जिन्होंने समुद्र को धमकाया कि अगर उसने चिड़िया का घोंसला नहीं लौटाया तो पलभर में उसे सुखा दिया जाएगा। तब पत्रकार ने जब उनसे पूछा कि कहानी की चिड़िया क्या आप ही हैं। इसके जवाब में आँखों में शरारत भरी मुसकान लिए दशरथ माँझी ने बात टाल दी थी।

पिछले कुछ सालों से दशरथ माँझी कबीरपंथी साधु बन गए थे और यायावर बने हुए थे लेकिन कबीर का उनका स्वीकार महज ऊपरी नहीं था। उनके विचारों में भी कबीर जैसी प्रखरता थी। गरीब और मेहनतकशों का ईश्वर पूजा में उलझे रहना और तमाम अंधश्रद्धाओं का शिकार होना उन्हें कचोटता था। वे कहते थे कि जिंदगी भर फाकाकशी करते रहे आदमी की मौत के बाद मृत्युभोज में अच्छे-अच्छे पकवान खिलाए जाते हैं। इसके लिए लोग कर्जा क्यों लेते हैं?

दशरथ माँझी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन क्या वे हमें उन मिथकीय पात्रों की याद दिलाते प्रतीत नहीं होते, जैसे पात्र हमें पुराणों में मिलते हैं, फिर वह चाहे प्रोमेथियस हो या भगीरथ। ऐसी शख्सियतें, जो मनुष्य की उद्दाम जिजीविषा को प्रतिबिंबित कर रही होती हैं और अपनी कोशिशों से प्रकृति की दानव शक्तियों और इनसानियत के दुश्मनों से लड़ रही होती है।

अपने जीवन का फलसफा बयान करते हुए उन्होंने एक पत्रकार को शायद इसलिए बताया था कि पहाड़ मुझे उतना ऊँचा कभी नहीं लगा जितना लोग बताते हैं। मनुष्य से ज्यादा ऊँचा कोई नहीं होता।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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