जनजातियाँ, खानाबदोश और एक जगह बसे हुए समुदाय : अध्याय 5

अध्याय 2, 3 और 4 में आपने देखा कि किस प्रकार राज्यों का उत्थान और पतन हुआ। इस उठापटक के बीच ही कलाओं, दस्तकारियों और उत्पादक गतिविधियों की नयी किस्में शहरों और गाँवों में फल-फूल रही थीं। एक लंबे अंतराल में कई महत्त्वपूर्ण राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन हुए। लेकिन सामाजिक परिवर्तन हर जगह एक समान नहीं थे, क्योंकि अलग-अलग किस्म के समाज अलग-अलग तरीकों से विकसित हुए। ऐसा कैसे और क्यों हुआ, यह समझना महत्त्वपूर्ण है।

इस उपमहाद्वीप के बड़े हिस्से में समाज, वर्ण के नियमानुसार पहले से ही विभाजित था। ब्राह्मणों द्वारा सुझाए गए ये नियम, बड़े-बड़े राज्यों के राजाओं द्वारा स्वीकार किए गए थे। इससे ऊँच और नीच तथा अमीर और गरीब के बीच का फासला बढ़ा। दिल्ली के सुलतानों और मुगलों के काल में श्रेणीबद्ध समाज ज़्यादा जटिल हो गया।

बड़े शहरों से परे – जनजातीय समाज

अलबत्ता, दूसरे तरह के समाज भी उस समय मौजूद थे। उपमहाद्वीप के कई समाज ब्राह्मणों द्वारा सुझाए गए सामाजिक नियमों और कर्मकांडों को नहीं मानते थे और न ही वे कई असमान वर्गों में विभाजित थे। अकसर ऐसे समाजों को जनजातियाँ कहा जाता रहा है।

प्रत्येक जनजाति के सदस्य नातेदारी के बंधन से जुड़े होते थे। कई जनजातियाँ खेती से अपना जीविकोपार्जन करती थीं। कुछ दूसरी जनजातियों के लोग शिकारी, संग्राहक या पशुपालक थे। प्रायः वे अपने निवासस्थान के प्राकृतिक संसाधनों का पूरा-पूरा इस्तेमाल करने के लिए इन गतिविधियों का मिला-जुला रूप अपनाते थे। कुछ जनजातियाँ खानाबदोश थीं और वे एक जगह से दूसरी जगह घूमती रहती थीं। जनजातीय समूह, संयुक्त रूप से भूमि और चरागाहों पर नियंत्रण रखते थे और अपने खुद के बनाए नियमों के आधार पर परिवारों के बीच इनका बँटवारा करते थे।

इस उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में कई बड़ी जनजातियाँ फली-फूलीं। सामान्यतः ये जंगलों, पहाड़ों, रेगिस्तानों और दूसरी दुर्गम जगहों पर निवास करती थीं। कभी-कभी जाति विभाजन पर आधारित अधिक शक्तिशाली समाजों के साथ उनका टकराव होता था। कई मायनों में इन जनजातियों ने अपनी आज़ादी को बरकरार रखा और अपनी अलहदा संस्कृति को बचाया।

लेकिन जाति-आधारित और जनजातीय समाज दोनों अपनी विविध किस्म की ज़रूरतों के लिए एक-दूसरे पर निर्भर भी रहे। टकराव और निर्भरता के इस संबंध ने दोनों तरह के समाजों को धीरे-धीरे बदलने का काम भी किया।

जनजातीय लोग कौन थे?

समकालीन इतिहासकारों और र मुसाफ़िरों ने जनजातियों के बारे में बहुत कम जानकारी दी है। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो जनजातीय लोग भी लिखित दस्तावेज़ नहीं रखते थे। लेकिन समृद्ध रीति-रिवाजों और वाचिक/मौखिक परंपराओं का वे संरक्षण करते थे। ये परंपराएँ हर नयी पीढ़ी को विरासत में मिलती थीं। आज के इतिहासकार जनजातियों का इतिहास लिखने के लिए इन वाचिक परंपराओं को इस्तेमाल करने लगे हैं।

जनजातीय लोग भारत के लगभग हर क्षेत्र में पाए जाते थे। किसी भी एक जनजाति का इलाका और प्रभाव समय के साथ-साथ बदलता रहता था। कुछ शक्तिशाली जनजातियों का बड़े इलाकों पर नियंत्रण था। पंजाब में खोखर जनजाति तेरहवीं और चौदहवीं सदी के दौरान बहुत प्रभावशाली थी। यहाँ बाद में गक्खर लोग ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गए। उनके मुखिया, कमाल खान गक्खर को बादशाह अकबर ने मनसबदार बनाया था। मुल्तान और सिंध में मुग़लों द्वारा अधीन कर लिए जाने से पहले लंगाह और अरघुन लोगों का प्रभुत्व अत्यंत विस्तृत क्षेत्र पर था। उत्तर-पश्चिम में एक और विशाल एवं शक्तिशाली जनजाति थी- बलोच। ये लोग अलग-अलग मुखियों वाले कई छोटे-छोटे कुलों में बँटे हुए थे। पश्चिमी हिमालय में गडड्री गड़रियों की जनजाति रहती थी। उपमहाद्वीप के सुदूर उत्तर-पूर्वी भाग पर भी नागा, अहोम और कई दूसरी जनजातियों का पूरी तरह प्रभुत्व था।

मौजूदा बिहार और झारखंड के कई इलाकों में बारहवीं सदी तक चेर सरदारशाहियों का उदय हो चुका था। बादशाह अकबर के प्रसिद्ध सेनापति राजा मान सिंह ने 1591 में चेर लोगों पर हमला किया और उन्हें परास्त किया। उन्हें लूट कर अच्छा-खासा माल इकट्ठा किया गया, लेकिन वे पूरी तरह अधीन नहीं बनाए गए। औरंगजेब के समय में मुग़ल सेनाओं ने चेर लोगों के कई किलों पर कब्ज़ा किया और इस जनजाति को अपना अधीनस्थ बना लिया। इस क्षेत्र में रहने वाली महत्त्वपूर्ण जनजातियों में मुंडा और संताल थे, यद्यपि ये उड़ीसा और बंगाल में भी रहते थे।

कर्नाटक और महाराष्ट्र की पहाड़ियाँ- कोली, बेराद तथा कई दूसरी जनजातियों के निवासस्थान थे। कोली लोग गुजरात के कई इलाकों में भी रहते थे। कुछ और दक्षिण में कोरागा, वेतर, मारवार और दूसरी जनजातियों की विशाल आबादी थी।

भीलों की बड़ी जनजाति पश्चिमी और मध्य भारत में फैली हुई थी। सोलहवीं सदी का अंत आते-आते उनमें से कई एक जगह बसे हुए खेतिहर और यहाँ तक कि ज़मींदार बन चुके थे। तब भी भीलों के कई कुल शिकारी-संग्राहक बने रहे। मौजूदा छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में गोंड लोग बड़ी तादाद में फैले हुए थे।

खानाबदोश और घुमंतू लोग कैसे रहते थे

खानाबदोश चरवाहे अपने जानवरों के साथ दूर-दूर तक घूमते थे। उनका जीवन दूध और अन्य पशुचारी उत्पादों पर निर्भर था। वे खेतिहर गृहस्थों से अनाज, कपड़े, बर्तन और ऐसी ही चीज़ों के लिए ऊन, घी इत्यादि का विनिमय भी करते थे। कुछ खानाबदोश अपने जानवरों पर सामानों की ढुलाई का काम भी करते थे। एक जगह से दूसरी जगह आते-जाते वे सामानों की खरीद-फरोख्त करते थे।

बंजारा लोग सबसे महत्त्वपूर्ण व्यापारी-खानाबदोश थे। उनका कारवाँ ‘टांडा’ कहलाता था। सुलतान अलाउद्दीन खलजी (अध्याय 3) बंजारों का ही इस्तेमाल नगर के बाज़ारों तक अनाज की ढुलाई के लिए करते थे। बादशाह जहाँगीर ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि बंजारे विभिन्न इलाकों से अपने बैलों पर अनाज ले जाकर शहरों में बेचते थे। सैन्य अभियानों के दौरान वे मुग़ल सेना के लिए खाद्यान्नों की ढुलाई का काम करते थे। किसी भी विशाल सेना के लिए 1,00,000 बैल अनाज ढोते होंगे।

बंजारे

सत्रहवीं सदी के आरंभ में भारत आने वाले एक अँग्रेज़ व्यापारी, पीटर मंडी, ने बंजारों का वर्णन कियाः

सुबह हमारी मुलाकात बंजारों की एक टांडा से हुई जिसमें 14,000 बेल थे। सारे पशु गेहूँ और चावल जैसे अनाजों से लदे हुए थे।… ये बंजारे लोग अपनी पूरी घर-गृहस्थी-बीवी और बच्चे-अपने साथ लेकर चलते हैं।

एक टांडा में कई परिवार होते हैं। उनका जीने का तरीका उन भारवाहकों से मिलता-जुलता है जो लगातार एक जगह से दूसरी जगह जाते रहते हैं। गाय-बैल उनके अपने होते हैं। कई बार वे सौदागरों के द्वारा भाड़े पर नियुक्त किए जाते हैं, लेकिन ज़्यादातर वे खुद सौदागर होते हैं। अनाज जहाँ सस्ता उपलब्ध है, वहाँ से वे खरीदते हैं और उस जगह ले जाते हैं जहाँ वह महँगा है। वहाँ से वे फिर ऐसी चीजें लाद लेते हैं जो किसी और जगह मुनाफे के साथ बेची जा सकती हैं।… टांडा में छह से सात सौ तक लोग हो सकते हैं।…

वे एक दिन में 6 या 7 मील से ज़्यादा सफ़र नहीं करते-यहाँ तक कि ठंडे मौसम में भी। अपने गाय-बैलों पर से सामान उतारने के बाद वे उन्हें चरने के लिए खुला छोड़ देते हैं, क्योंकि यहाँ जमीन पर्याप्त है और उन्हें रोकने वाला कोई नहीं।

कई पशुचारी जनजातियाँ मवेशी और घोड़ों, जैसे जानवरों को पालने- पोसने और संपन्न लोगों के हाथ उन्हें बेचने का काम करती थीं। छोटे-मोटे फेरीवालों की विभिन्न जातियाँ भी एक गाँव से दूसरे गाँव भ्रमण करती थीं। ये लोग रस्सी, सरकंडे की चीजें, फूस की चटाई और मोटे बोरे जैसे माल बनाते और बेचते थे। कभी-कभी भिक्षुक लोग भी घूमंतू सौदागरों का काम करते थे। नर्तकों, गायकों और अन्य तमाशबीनों की भी जातियाँ थीं जो विभिन्न नगरों और गाँवों में कमाई के लिए अपनी कला का प्रदर्शन करती थीं।

बदलता समाज-नयी जातियाँ और श्रेणियाँ

जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था और समाज की ज़रूरतें बढ़ती गईं, नए हुनर वाले लोगों की आवश्यकता पड़ी। वर्णों के भीतर छोटी-छोटी जातियाँ उभरने लगीं। उदाहरण के लिए, ब्राह्मणों के बीच नयी जातियाँ सामने आईं। दूसरी ओर, कई जनजातियों और सामाजिक समूहों को जाति-विभाजित समाज में शामिल कर लिया गया और उन्हें जातियों का दर्जा दे दिया गया। विशेषज्ञता प्राप्त शिल्पियों- सुनार, लोहार, बढ़ई और राजमिस्त्री को भी ब्राह्मणों द्वारा जातियों के रूप में मान्यता दे दी गई। वर्ण की बजाय जाति, समाज के संगठन का आधार बनी।

जाति पर विचार-विमर्श

वर्तमान तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली ताल्लुक में स्थित उईयाकोंडन उदेयार के बारहवीं शताब्दी के अभिलेख में ब्राह्मणों की एक सभा (अध्याय 2) के विचार-विमर्श का वर्णन मिलता है।

वे रथकारों (शाब्दिक अर्थ, रथ बनाने वाले लोग) की सामाजिक स्थिति पर विचार-विमर्श कर रहे थे। उन्होंने इस जाति के कामकाज तय किए जिनमें वास्तुकला, रथों और गााड़ियों का निर्माण, मंदिर द्वार बनाना, मूर्तियाँ स्थापित करना, बलि के लिए लकड़ियों से बने साज-सामान तैयार करना, मंडप बनाना और राजा के लिए ज़ेवर बनाना शामिल थे।

ग्यारहवीं और बारहवीं सदी तक आते-आते क्षत्रियों के बीच नए राजपूत गोत्रों की ताकत में काफ़ी इजाफ़ा हुआ। वे हूण, चंदेल, चालुक्य और कुछ दूसरी वंश-परंपराओं से आते थे। इनमें से कुछ पहले जनजातियों में आते थे और बाद में कई कुल राजपूत मान लिए गए। धीरे-धीरे उन्होंने पुराने शासकों की जगह ले ली विशेषतः कृषि वाले क्षेत्रों में। यहाँ कई तरह के परिवर्तन हो रहे थे और शासकों ने शक्तिशाली राज्यों के निर्माण में अपनी संपदा का इस्तेमाल किया।

शासकों के रूप में राजपूत गोत्रों के उदय के उदाहरण का जनजातीय लोगों ने अनुसरण किया। धीरे-धीरे ब्राह्मणों के समर्थन से कई जनजातियाँ, जाति व्यवस्था का हिस्सा बन गईं। लेकिन केवल प्रमुख जनजातीय परिवार ही शासक वर्ग में शामिल हो पाए। उनकी बहुसंख्यक आबादी, समाज की छोटी जातियों में ही जगह बना पाई। दूसरी तरफ़ पंजाब, सिंध और उत्तर-पश्चिमी सरहद की प्रभुत्वशाली जनजातियों ने काफ़ी पहले इस्लाम को अपना लिया था। वे जाति व्यवस्था को नकारते रहे। सनातनी हिंदू धर्म के द्वारा प्रस्तावित गैर-बराबरी वाली सामाजिक व्यवस्था इन इलाकों में बड़े पैमाने पर स्वीकार नहीं की गई।

राज्यों की उत्पत्ति, जनजातीय लोगों के बीच हुए सामाजिक बदलाव से गहराई से संबंधित है। हमारे इतिहास के इस महत्त्वपूर्ण हिस्से के दो उदाहरण नीचे उल्लिखित हैं।

नज़दीक से एक नज़र

गोंड

गोंड लोग, गोंडवाना नामक विशाल वनप्रदेश में रहते थे। वे स्थानांतरीय कृषि अर्थात् जगह बदल-बदल कर खेती करते थे। विशाल गोंड जनजाति कई छोटे-छोटे कुलों में भी बँटी हुई थी। प्रत्येक कुल का अपना राजा या राय होता था। जिस समय दिल्ली के सुलतानों की ताकत घट रही थी, उसी समय कुछ बड़े गोंड राज्य छोटे गोंड सरदारों पर हावी होने लगे थे। अकबर के शासनकाल के एक इतिहास अकबरनामा में उल्लिखित है कि गढ़ कटंगा के गोंड राज्य में 70,000 गाँव थे।

इन राज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था केंद्रीकृत हो रही थी। राज्य, गढ़ों में विभाजित थे। हर गढ़ किसी खास गोंड कुल के नियंत्रण में था। ये पुनः चौरासी गाँवों की इकाइयों में विभाजित होते थे, जिन्हें चौरासी कहा जाता था। चौरासी का उप-विभाजन बरहोतों में होता था, जो बारह-बारह गाँवों को मिला कर बनते थे।

बड़े राज्यों के उदय ने गोंड समाज के चरित्र को बदल डाला। उनका मूलतः बराबरी वाला समाज धीरे-धीरे असमान सामाजिक वर्गों में विभाजित हो गया। ब्राह्मण लोगों ने गोंड राजाओं से अनुदान में भूमि प्राप्त की और अधिक प्रभावशाली बन गए। गोंड सरदारों को अब राजपूतों के रूप में मान्यता प्राप्त करने की चाहत हुई। इसलिए गढ़ कटंगा के गोंड राजा अमन दास ने संग्राम शाह की उपाधि धारण की। उसके पुत्र दलपत ने महोबा के चंदेल राजपूत राजा सालबाहन की पुत्री राजकुमारी दुर्गावती से विवाह किया।

दलपत की मृत्यु कम उम्र में ही हो गई। रानी दुर्गावती बहुत योग्य थी और उसने अपने पाँच साल के पुत्र बीर नारायण के नाम पर शासन की कमान सँभाली। उसके समय में राज्य का और अधिक विस्तार हुआ। 1565 में आसिफ़ खान के नेतृत्व में मुग़ल सेनाओं ने गढ़ कटंगा पर हमला किया। रानी दुर्गावती ने इसका जम कर सामना किया। उसकी हार हुई और उसने समर्पण करने की बजाय मर जाना बेहतर समझा। उसका पुत्र भी तुरंत बाद लड़ता हुआ मारा गया।

गढ़ कटंगा एक समृद्ध राज्य था। इसने हाथियों को पकड़ने और दूसरे राज्यों में उनका निर्यात करने के व्यापार में ख़ासा धन कमाया। जब मुग़लों ने गोंडों को हराया, तो उन्होंने लूट में बेशकीमती सिक्के और हाथी बहुतायत में हथिया लिए। उन्होंने राज्य का एक भाग अपने कब्जे में ले किया और शेष बीर नारायण के चाचा चंदर शाह को दे दिया। गढ़ कटंगा के पतन के बावजूद गोंड राज्य कुछ समय तक चलता रहा। लेकिन वे काफ़ी कमज़ोर हो गए और बाद में अधिक शक्तिशाली बुंदेलों और मराठों के खिलाफ़ उनके संघर्ष असफल रहे।

अहोम

अहोम लोग मौजूदा म्यानमार से आकर तेरहवीं सदी में ब्रह्मपुत्र घाटी में आ बसे। उन्होंने भुइयाँ (भूस्वामी) लोगों की पुरानी राजनीतिक व्यवस्था का दमन करके नए राज्य की स्थापना की। सोलहवीं सदी के दौरान उन्होंने चुटियों (1523) और कोच-हाजो (1581) के राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया। उन्होंने कई अन्य जनजातियों को भी अधीन कर लिया। अहोमों ने एक बड़ा राज्य बनाया और इसके लिए 1530 के दशक में ही, इतने वर्षों पहले, आग्नेय अस्त्रों का इस्तेमाल किया। 1660 तक आते-आते वे उच्चस्तरीय बारूद और तोपों का निर्माण करने में सक्षम हो गए थे।

लेकिन अहोम लोगों को दक्षिण-पश्चिम से कई आक्रमणों का सामना करना पड़ा। 1662 में मीर जुमला के नेतृत्व में मुग़लों ने अहोम राज्य पर हमला किया। बहादुरी से सामना करने के बावजूद अहोम लोगों की पराजय हुई। लेकिन उस क्षेत्र पर मुग़लों का प्रत्यक्ष नियंत्रण ज़्यादा समय तक बना नहीं रह सका।

अहोम राज्य, बेगार पर निर्भर था। राज्य के लिए जिन लोगों से जबरन काम लिया जाता था, वे ‘पाइक’ कहलाते थे। अहोम राज्य में एक जनगणना की गई थी। प्रत्येक गाँव को अपनी बारी आने पर निश्चित संख्या में पाइक भेजने होते थे। इसके लिए जनगणना के बाद सघन आबादी वाले इलाकों से कम आबादी वाले इलाकों में लोगों को स्थानांतरित किया गया था। इस प्रकार अहोम कुल टूट गए। सत्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध पूरा होते-होते प्रशासन खासा केंद्रीकृत हो चुका था।

लगभग सभी वयस्क पुरुष युद्ध के दौरान सेना में अपनी सेवाएँ प्रदान करते थे। दूसरे समय में वे बाँध, सिचाई व्यवस्था इत्यादि के निर्माण या अन्य सार्वजनिक कार्यों में जुटे रहते थे। अहोम लोग चावल की खेती के नए तरीके भी अमल में लाए।

अहोम समाज, कुलों में विभाजित था, जिन्हें ‘खेल’ कहा जाता था। वहाँ दस्तकारों की बहुत कम जातियाँ थीं। इसलिए अहोम क्षेत्र में दस्तकार निकटवर्ती क्षेत्रों से आए थे। एक खेल के नियंत्रण में प्रायः कई गाँव होते थे। किसान को अपने ग्राम समुदाय के द्वारा ज़मीन दी जाती थी। समुदाय की सहमति के बगैर राजा तक इसे वापस नहीं ले सकता था।

शुरुआत में अहोम लोग, अपने जनजातीय देवताओं की उपासना करते थे। लेकिन सत्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में ब्राह्मणों के प्रभाव में बढ़ोत्तरी हुई। मंदिरों और ब्राह्मणों को राजा के द्वारा भूमि अनुदान में दी गई। सिब सिंह (1714-44) के काल में हिदू धर्म वहाँ का प्रधान धर्म बन गया था। लेकिन अहोम राजाओं ने हिदू धर्म को अपनाने के बाद अपनी पारंपरिक आस्थाओं को पूरी तरह से नहीं छोड़ा था।

अहोम समाज, एक अत्यंत परिष्कृत समाज था। कवियों और विद्वानों को अनुदान में ज़मीन दी जाती थी। नाट्य-कर्म को प्रोत्साहन दिया जाता था। संस्कृत की महत्त्वपूर्ण कृतियों का स्थानीय भाषा में अनुवाद किया गया था। बुरंजी नामक ऐतिहासिक कृतियों को पहले अहोम भाषा में और फिर असमिया में लिखा गया था।

निष्कर्ष

जिस युग की हम चर्चा करते आए हैं, उस युग के दौरान उपमहाद्वीप में काफ़ी सामाजिक परिवर्तन हुआ। वर्ण आधारित समाज और जनजातीय लोग एक-दूसरे के साथ लगातार संपर्क में आते रहे। इस आदान-प्रदान ने दोनों तरह के समाजों में अनुकूलन और बदलाव की प्रक्रिया चलाई। बहुत-सी विभिन्न प्रकार की जनजातियाँ थीं और उन्होंने विभिन्न प्रकार की जीविकाएँ अपनाईं। कालांतर में उनमें से कई जाति आधारित समाज में शामिल हो गईं। लेकिन कईयों ने जाति व्यवस्था और सनातनी हिंदू धर्म, दोनों को ही नकार दिया। कुछ जनजातियों ने सुसंगठित प्रशासनिक व्यवस्था वाले विस्तृत राज्यों की स्थापना की। इस तरह वे राजनीतिक रूप से ताकतवर हो गए। इसने उन्हें बृहत्तर और अधिक जटिल राज्यों और साम्राज्यों के साथ संघर्ष की स्थिति में ला खड़ा किया।

यह भी पढ़ें : मुग़ल – सोलहवीं से सत्रहवीं शताब्दी : अध्याय 4

फिर से याद करें

1. निम्नलिखित में मेल बैठाएँ:

गढ़खेल
टांडाचौरासी
श्रमिककारवाँ
कुलगढ़ कटंगा
सिब सिंहअहोम राज्य
दुर्गावतीपाइक

Ans.

गढ़चौरासी
टांडाकारवाँ
श्रमिकपाइक
कुलखेल
सिब सिंहअहोम राज्य
दुर्गावतीगढ़ कटंगा

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें:

(क) वर्णों के भीतर पैदा होती नयी जातियाँ श्रेणियाँ कहलाती थीं।

(ख) बुरंजी अहोम लोगों के द्वारा लिखी गई ऐतिहासिक कृतियाँ थीं।

(ग) अकबरनामा ने इस बात का उल्लेख किया है कि गढ़ कटंगा में 70,000 गाँव थे।

(घ) बड़े और ताकतवर होने पर जनजातीय राज्यों ने मंदिर बनवाए और ब्राह्मणों को भूमि-अनुदान दिए।

3. सही या गलत बताइएः

(क) जनजातीय समाजों के पास समृद्ध वाचक परंपराएँ थीं। (सही)

(ख) उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भाग में कोई जनजातीय समुदाय नहीं था। (गलत)

(ग) गोंड राज्यों में अनेक नगरों को मिला कर चौरासी बनता था। (गलत)

(घ) भील, उपमहाद्वीप के उत्तर-पूर्वी भाग में रहते थे। (गलत)

4. खानाबदोश पशुचारकों और एक जगह बसे हुए खेतिहरों के बीच किस तरह का विनिमय होता था?
Ans.
खानाबदोश पशुचारकों और खेतिहरों के बीच वस्तु विनिमय होता था, जिसके तहत एक वस्तु को देकर दूसरे वस्तु को प्राप्त करना होता था। खानाबदोश चरवाहे अपने जानवरों के साथ दूर-दूर तक घूमते थे। उनका जीवन दूध और अन्य पशुचारी उत्पादों पर निर्भर था। खानाबदोशी चरवाहे गृहस्थों से अनाज, कपडे, बर्तन और ऐसी ही चीज़ों के बदले ऊन, धी दूध दिया करते थे। कुछ खानाबदोश रास्ते में पड़ने वाले गाँवों और नगरों में सामानों की खरीद-फरोख्त भी करते थे।

आइए समझें

5. अहोष राज्य का प्रशा का प्रशासन कैसे संगठित था?
Ans.
अहोम प्रशासन को संगठन निम्न प्रकार से संगठित था

1. सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक अहोम प्रशासन केन्द्रीकृत हो चुका था।

2. अहोम समाज कुलों में विभाजित था। बाद में कुलों में एकता भंग हो गई।

3. एक कुल (खेल) के नियंत्रण में प्रायः कई गाँव होते थे। किसान को अपने ग्राम समुदाय के द्वारा जमीन दी जाती थी। समुदाय की सहमति के बगेर राजा तक इसे वापस नहीं ले सकता था।

6. वर्ण आधारित समाज में क्या। परिवर्तन आए?
Ans.
वर्ण आधारित समाज में निम्न परिवर्तन आए –

1. वर्गों के भीतर छोटी-छोटी जातियाँ उभरने लगीं। उदाहरण के लिए, ब्राह्मणों के बीच नयी जातियाँ सामने आई।

2. दूसरी ओर कई जनजातियों और सामाजिक समूहों को जाति विभाजित समाज में शामिल कर लिया गया और उन्हें जातियों का दर्जा दे दिया गया।

3. ब्राह्मणों द्वारा शिल्पियों, सुनार, लोहार, बढ़ई और राजमिस्त्री को जातियों के रूप में मान्यता दे दी गई।

4. वर्ण की बजाय जाति, समाज के संगठन का आधार बनी।

7. एक राज्य के रूप में संगठित हो जाने के बाद जनजातीय समाज कैसे बदला?
Ans.
एक राज्य के रूप में संगठित हो जाने के बाद जनजातीय समाज में कई तरह से बदलाव आए।

(i) हूण, चंदेल, चालुक्य और कुछ दूसरी वंश परंपराओं में से कुछ पहले जनजातियों में आते थे और बाद में कई कुत राजपूत मान लिए गए। धीरे-धीरे उन्होंने पुराने शासकों की जगह ले ली. विशेषतः कृषि वाले क्षेत्रों में।

(ii) शासकों के रूप में राजपूत गोत्रों के उदय के उदाहरण का जनजातीय लोगों ने अनुसरण किया। धीरे-धीरे ब्राह्मणों के समर्थन से कई जनजातियाँ, जाति व्यवस्था का हिस्सा बन गई लेकिन केवल प्रमुख जनजातीय परिवार ही शासक वर्ग में शामित हो सके।

8. क्या बंजारे लोग अर्थव्यवस्था के लिए महत्त्वपूर्ण थे?
Ans.
हाँ, बंजारे लोग अर्थव्यवस्था की दृष्टि से कई तरह से महत्त्वपूर्ण थे-

1. बंजारे लोग सबसे महत्त्वपूर्ण व्यापारी खानाबदोश थे।

2. सल्तनत काल में बंजारे नगर के बाजारों तक अनाज की ढुलाई किया करते थे।

3. बंजारे विभिन्न इलाकों से अपने बेलों पर अनाज ले जाकर शहरों में बेचते थे।

4. सैन्य अभियानों के दौरान वे मुगल सेना के लिए खाद्यान्नों की ढुलाई का काम करते थे। बंजारे किसी भी सेना के लिए एक लाख बेलों से अनाज ढोते थे।

9. गोंड लोगों का इतिहास, अहोमों के इतिहास से किन मायनों में भिन्त्र था? क्या कोई समानता भी थी?
Ans. 
गॉड लोगों के इतिहास एवं अहोमों के इतिहास में कई मायनों में अन्तर था. जैसे

1. गोंड, गोंडवाना प्रदेश की प्रमुख जनजाति थी, जबकि अहोम ब्रह्मपुत्र घाटी में निवास करने वाली प्रमुख जनजाति थी।

2. गोंड यहाँ के मूल निवासी थे, जबकि अहोम म्यानमार से आकर बसे थे।

3. गोंड आग्नेय अस्त्रों का प्रयोग नहीं जानते थे, जबकि अहोम उच्च स्तरीय बारूद और तोपों के निर्माण में सक्षम थे।

4. गोंडवाना राज्य अहोम राज्य की तुलना में बड़ा था।

गोड इतिहास एवं अहोम इतिहास में समानताएँ –

1. गोंड और अहोम दोनों ही जनजातियाँ थी।

2. दोनों ही जनजातियों ने अपने अपने साम्राज्य स्थापित किए।

3. दोनों ही राज्यों को मुगलों ने पराजित किया।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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