वाइरस जनित रोग

वाइरस से कई प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं, उन्हीं में से  आपको कुछ रोगों के बारे में जानकारी देने वाला हूं।

➤ छोटी माता (Chicken Pox)

यह रोग वैरिसेला विषाणु (Varicella virus) के उपजाति द्वारा फैलता है। इसका प्रकोप सम्पूर्ण शरीर पर होता है। यह रोग रोगी के श्वास या छीकों द्वारा प्रसारित होता है। इस रोग से प्रभावित रोगी के शरीर पर छोटे-छोटे दाने निकल जाते हैं, हल्का बुखार हो जाता है तथा जोड़ों में दर्द रहता है। इसका सीधा उपचार नहीं है, रोगी को स्वच्छ वातावरण में रखना चाहिए।

➤ चेचक (Small Pox)

यह रोग वैरिओला विषाणु (Variola virus) द्वारा फैलता है। इसका प्रकोप सम्पूर्ण शरीर पर होता है। रोग वायु द्वारा या रोगी से सीधे सम्पर्क द्वारा फैलाता है, इसमें रोगी को ज्वर, सिर में दर्द, जुकाम तथा उल्टियाँ होती है, फिर 3-4 दिनों बाद मुँह पर लाल दाने निकल आते हैं, जो कि शीघ्र ही पुरे शरीर पर फैल जाते हैं। ये दाने अन्त में जल स्फोटों में बदल जाते हैं, जिनमें साफ तरल भरा रहता है। सूखने पर ये दाने शरीर पर निशान छोड़ जाते हैं। इसके उपचार हेतु रोगी के सम्पर्क में आने से बचना चाहिए। चेचक का टीका लगवा देना चाहिए।

➤ पोलियों (Poliomyelitis)

यह रोग पोलियो मेलाइटिस वाइरस द्वारा फैलता है। इस रोग के विषाणु भोजन एवं जल के साथ बच्चों की आंत में पहुंच जाते हैं। आंत की दीवारों से होते हुए ये रुधिर प्रवाह के साथ मेरुरज्जु (spinal cord) में पहुँच जाते हैं, जहां पर ये विभिन्न अंगों की मांसपेशियों को नियन्त्रित करने वाली तन्त्रिकाओं को क्षति पहुंचाते हैं। परिणामस्वरूप, मांसपेशियां सिकुड़ जाती हैं तथा टांगें, हाथ व कटि प्रदेश निष्क्रिय हो जाते हैं। बच्चे विकलांग हो जाते हैं। कभी- कभी विषाणु मस्तिष्क के श्वास केन्द्र भी नष्ट कर देते हैं जिससे रोगी सांस नहीं ले पाता।

रोकथाम – (i) बच्चों को गन्दे स्थानों पर नहीं खेलना चाहिए। (ii) बच्चों को पोलियो ड्रोप्स (Polio drops) पिलानी चाहिए।

➤ रेबीज (Rabies)

रेबीज, जिसे हाइड्रोफोबिया (Hydrophobia, fear of water) के नाम से भी जाना जाता है, एक घातक विषाणु-जन्य रोग है जो कि केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र को मुख्यतः प्रभावित करता है। यह रोग शत- प्रतिशत घातक होता है। मनुष्य में यह रोग ऐसे किसी जानवर के काटने से होता है, जिसमें रेबीज के विषाणु विद्यमान होते हैं, जैसे-पागल कुत्ता, बिल्ली, गीदड आदि।

सिर दर्द, गले में दर्द तथा हल्का बुखार (2-10 दिन तक) इस रोग के प्रारंभिक लक्षण हैं। रोगी को घाव के स्थान पर चिलमिलाहट होती है। धीरे-धीरे शोर, तेज रोशनी व ठण्डी हवा के प्रति रोगी असहनशील हो जाता है। बाद में तरल पदार्थ को निगलने में भी दिक्कत महसूस करता है। रोग की चरम सीमा में तो पानी देखते ही या पानी की आवाज से ही रोगी डर जाता है और अन्ततः रोगी की मृत्यु हो जाती है।

एण्टीरेबीज टीका लगाकर रोगी की रेवीज से रक्षा की जा सकती है। रेबीपुर (Rabipur) तथा HDCV इस रोग के लिए बनाए गए नए टीके हैं। ज्ञातव्य है कि इसके टीके की खोज लुई पाश्चर ने किया था।

➤ हेपेटाइटिस (Hepatitis) या यकृत शोथ

यह यकृत का रोग है। जो हिपैटाइटिस नामक वाइरस के संक्रमण से होता है। भारत में इस समय हेपेटाइटिस के बी एवं सी (LAS:19) किस्म के विषाणुओं से करीब 5 करोड़ 80 लाख लोग संक्रमित हैं। विश्व भर में एड्स को सबसे खतरनाक बीमारी बताया जाता है, लेकिन हेपेटाइटिस से मरने वाले की संख्या एड्स से 10 गुना अधिक है। दुखद स्थिति यह है कि बाजार में इसके टीके उपलब्ध होने के बावजूद भारत में हर साल दो लाख से ज्यादा लोगों की मौत हेपेटाइटिस के कारण हो रही है। हेपेटाइटिस के विषाणु छह प्रकार के होते हैं-ए, बी, सी, डी, ई, और जी। मनुष्य इन सभी किस्मों के विषाणुओं के वाहक होते हैं। ये विषाणु संक्रमित मनुष्य से स्वस्थ मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर सकते हैं। ए और ई किस्म के विषाणु पानी में पैदा होने वाले हैं। ये विषाणु थूक, खंखार आदि के जरिये फैलते हैं, जबकि अन्य किस्म के विषाणु रक्त के जरिये संक्रमित होते हैं। इनमें बी और सी किस्म के विषाणु अधिक खतरनाक होते हैं।

इस रोग में यकृत में उत्पन्न होने वाले पित्त वर्णक को यकृत पूरी तरह अपचय नहीं कर पाता इसीलिए आँखें और त्वचा पीली हो – जाती है, पेशाब भी पीला हो जाता है। तिल्ली की कार्य क्षमता घट – जाती है, खून में पित्त बढ़ जाता है। भूख नहीं लगती है।

उपचार हेतु रोगी को आराम के साथ यकृत के गामा ग्लोबुलीन – इन्जेक्शन तथा दही, गन्ने का रस, हरा साग सब्जी, (बिना तेल के) का सेवन करना चाहिए। ज्ञातव्य है कि एक्लिप्टा एल्वा नामक पौधे से प्राप्त औषधि इसके उपचार में सहायक होती है।

➤ खसरा (Measles)

यह रोग पौलिनोसा मार्बिलोरम नामक विषाणु के संक्रमण से होता है। यह बीमारी सामान्यतया बच्चों में पायी जाती है। इस रोग में शरीर में छोटे-छोटे लाल रंग के दाने निकल आते हैं, गले और नाक में सूजन हो जाती है तथा कभी-कभी बच्चे की मृत्यु भी हो जाती है। रोग से बचाव के लिये बच्चों को खसरे का टीका लगाया जाता है।

➤ गलसुआ (Mumps)

यह लार ग्रंथि को प्रभावित करने वाला मम्पस विषाणु जनित रोग है, जिसका प्रसार रोगी के लार से होता है। रोगी को प्रारम्भ में झुरझुरी, सिरदर्द तथा कमजोरी महसूस होती है। एक दो दिन बुखार रहने के बाद कर्ण के नीचे स्थित पैरोटिक ग्रंथि में सूजन आ जाती है। इसके उपचार हेतु रोगी को नमक के पानी से सिकाई करनी चाहिए। टेरामाइसिन का इंजेक्शन लेने से इसमें आशातीत लाभ होता है।

➤ बर्ड फ्लू (Bird Flu)

बर्ड फ्लू हाल के वर्षों में पूरे विश्व में एक गम्भीर समस्या के रूप में उभर कर आया है। पहले से ही विद्यमान एड्स जो वर्तमान रूप में अत्यन्त भयंकर बीमारियों में से एक है, से इसके प्रथम 25 वर्षों में 250 लाख लोगों की जान गई। जबकि बर्ड फ्लू से वर्ष 1918-19 के दौरान इसके प्रथम प्रकोप से मात्र 25 सप्ताह की अवधि में इतने ही लोग मौत के मुंह में समा गये। फ्लू के प्रकोप की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2016 से अनेक एशियाई व यूरोपीय देशों, जिनमें कम्बोडिया, चीन, इण्डोनेशिया, जापान, कजाकिस्तान, मलेशिया, मंगोलिया, दक्षिण कोरिया, रोमानिया, रूस, थाईलैंड, तुर्की तथा वियतनाम शामिल था, में कुक्कुट पालन से बर्ड फ्लू फैला था जिससे पूरे विश्व को चेतावनी मिली थी। इस बीमारी से लाखों पक्षी या तो मर गये थे या फिर बुरी तरह से प्रभावित हुए थे। इतना ही नहीं इण्डोनेशिया, वियतनाम, थाइलैंड तथा कम्बोडिया में इस बीमारी से प्रभावित 125 लोगों में से 64 अपनी जान गंवा बैठे थे। विषाणु के संक्रमण से होने वाली मृत्यु की यह दर गंभीर चेतावनी स्वरूप है। इस स्थिति को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने निकट भविष्य में सर्वव्यापी महामारी के गंभीर जोखिम की चेतावनी दी है।

बर्ड फ्लू (जिसे एवियन इंफ्लूएंजा, टाइप ए फ्लू, जीनस ए फ्लू या एवियन फ्लू भी कहते हैं) आर्थोमिक्सोविरिडल कुल के इंफ्लुएंजा वायरस ए जीनस के विषाणुओं द्वारा होता है। ये वायरस सेन्ट्रल वायरस कोर से हीमोग्लूटिनिन (H) तथा न्यूरोमिनिडेस (N) प्रोटीन पर आधारित विभिन्न उप-प्रकारों में वर्गीकृत है। कुल मिलाकर 16H तथा 9N उप-प्रकार है। इस प्रकार H तथा N के 144 भिन्न- भिन्न संयोजन हो सकते हैं- उदाहरण के लिए H 1 N1, H2 N2, H5 N1 (UPPCS Main-04) आदि। बर्ड फ्लू वायरस पक्षियों पर रहता है, तथा इनसे यह विभिन्न अन्य जन्तु प्रजातियों जैसे सुअरों, घोड़ों, सील मछली, ह्वेल मछली तथा मनुष्यों में फैलता है। चूंकि पक्षी इसके प्राकृतिक वाहक हैं तथा वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित होते रहते हैं, इसलिए इस रोग की सीमाएं नहीं होतीं। यह वायरस वायु, खाद (संक्रमित पक्षियों द्वारा उत्सर्जित मल-मूत्र), संक्रमित भोजन-सामग्री, जल आदि द्वारा संचारित होता है। जब दो प्रजातियाँ (उदाहरण के लिए कुक्कुट तथा सुअर) विभिन्न किस्मों द्वारा संक्रमित होती है, एक दूसरे को संक्रमित करती हैं, तब फ्लू स्ट्रेन उत्परिवर्तित हो जाते हैं- उदाहरण के लिए शिफ्ट द्वारा उत्परिवर्तन। नई विकसित स्ट्रेन अत्यधिक अनिष्टकारी हो सकती है। उत्परिवर्तन ड्रिफ्ट यानी जीनोम में अनियमित परिवर्तनों द्वारा भी हो सकते हैं। बर्ड फ्लू का सर्वाधिक प्रकोप 1918-19 में हुआ था। तथा ला ग्रिप के नाम से ज्ञात, यह सर्वव्यापी महामारी

स्पेनिश फ्लू स्पेनिश स्ट्रेन द्वारा हुई थी तथा इससे लाखों लोगों की जानें गई थीं। इससे प्रभावित देशों में भारत (170 लाख), यू एस ए (600,000), यू० के० (200,000), फ्रांस (400,000) तथा जापान (260,000) सम्मिलित थे। पिछली सदी में बर्ड फ्लू के कारण दो बार और सर्वव्यापी महामारियों का प्रकोप हुआ। इंफ्लूएंजा फ्लू वायरस के H2N2 स्ट्रेन के कारण चीन से एशियन फ्लू (1957-58) का उद्भव हुआ। 1957 में विकसित वैक्सीन से रोग के नियंत्रण में सहायता मिली, परन्तु फिर भी लगभग 20 लाख लोगों की जान चली गई। बाद में एशियन फ्लू वायरस एन्टीजेनिक शिफ्ट द्वारा H3N2 स्ट्रेन के रूप में विकसित हुआ तथा हांगकांग में फ्लू की सर्वव्यापी महामारी फैली और इससे 1968-69 में लगभग 10 लाख लोगों की मृत्यु हो गई। एशियन फ्लू के समय चिकित्सा विज्ञान में इन्फ्लूएंजा वायरस को समझने के लिए पर्याप्त साधन नहीं थे। उस समय बेसीलस इंफ्लूएंजा की वैक्सीन विकसित करने के लिए काफी प्रयास किये गये लेकिन इस सर्वव्यापी महामारी को नियंत्रित करने में सफलता नहीं मिली। लेकिन माइक्रोबॉयोलॉजी व बायोटेक्नोलॉजी के वर्तमान युग में हम आण्विक स्तर पर रोगों का अध्ययन कर सकते हैं तथा इनके उपचार/बचाव के लिए प्रभावी वैक्सीन तथा औषधियों का विकास कर सकते हैं। 2005 को अनुसंधानकर्ताओं ने पुरालेख टिश्यू नमूनों के द्वारा स्पेनिश फ्लू स्ट्रेन के आनुवंशिक क्रम के पुननिर्माण के बारे में बताया था, उन्होंने स्पेनिश फ्लू सर्वव्यापी महामारी से अब तक हुई विज्ञान की प्रगति के बारे में भी बताया। इसे HIN1 स्ट्रेन के रूप में पहचाना गया, यह सामान्य मानव इंफ्लूएंजा स्ट्रेन से बिल्कुल भिन्न होती है क्योंकि यह फेफड़ों की कोशिकाओं को संक्रमित कर देती है जो वायरस के लिए सामान्यतया प्रभावशाली होती है। 2005 का प्रकोप H5N1 के कारण हुआ था। H5N1 में HIN1 की अनेक विशेषताएं होती हैं। लेकिन यह अभी तक मानव से मानव में फैलता हुआ नहीं पाया गया है। यदि ऐसा स्ट्रेन के उत्परिवर्तन द्वारा (सामान्य मानव इंफ्रूएंजा स्ट्रेन का H5N1 के साथ परस्पर संकरण) हो गया, तब स्थिति बहुत खतरनाक हो जायेगी।

प्रोटोजोआ जनित रोग

➤ मलेरिया (Malaria)

यह रोग प्लाज्मोडियम (Plasmodium) नामक परजीवी प्रोटोजोआ की जातियों से होता है।

सन् 1880 में फ्रांसीसी डॉक्टर ए. लेबेरान ने मलेरिया परजीवी की खोज की तथा सर रोनाल्ड रॉस (Sir Ronald Ross) ने इस रोग के परजीवी का सम्बन्ध मादा एनोफिलीज मच्छर से बताया। मादा ऐनीफिलीज (Anopheless) मच्छर इस परजीवी को स्वस्थ मनुष्य के रक्त में तब पहुंचा देता है जब यह रक्त चूसने के लिए मनुष्य को काटता है। प्लाज्मोडियम की चार जातियां- प्लाज्मोडियम फाल्सिपेरम (P. falciparum), प्लाज्मोडियम वाइवैक्स (P. vivax), प्लाज्मोडियम ऑक्जैली (P. oxale) तथा प्लाज्मोडियम मलेरी (P. malariae) मच्छरों द्वारा वहन की जाती हैं। ये चारों मलेरिया रोग के कारण हैं।

मच्छर द्वारा काटे जाने पर, मच्छर की लार के साथ हंसियाकार स्पोरोजोइट (sporozoites) के रूप में प्लाज्मोडियम शरीर में प्रवेश करता है। रक्त प्रवाह के साथ यह यकृत में पहुँचता है जहां पर यह गुणन (multiply) करता है। एक-दो हफ्ते के अन्दर एक स्पोरोजोइट से 5000-10000 गोलाकार मीरोजोइट (merozoite) बन जाती हैं। ये मीरोजोइट हजारों की संख्या में यकृत में उपयुक्त समय पर छिप जाते हैं और लाल रुधिर कणिकाओं (R.B.C.) पर आक्रमण करते हैं। एक हफ्ते में ही रोगी को बार-बार बुखार तथा ठण्ड चढ़ता है। ऐसा इसलिए होता है कि बार-बार R.B.C. फटती है और मीरोजोइट रक्त में विषाक्त पदार्थ निकालते हैं।

मलेरिया रोग से बचने के लिए मच्छरों द्वारा काटे जाने से बचना चाहिए। मसहरी लगाकर सोना चाहिए। मच्छरों की संख्या बढ़ने से रोकने के लिए गड्डों में पानी नहीं एकत्र होने देना चाहिए। घर के आस-पास सफाई रखनी चाहिए। मच्छरों को मारने के लिए डी.डी.टी. का छिड़काव करना चाहिए। मलेरिया के लक्षण देखते ही रोगी के खून की जांच करवाकर उपयुक्त दवा जैसे, कुनैन, कैमाक्विन, क्लोरोक्विन आदि चिकित्सक के परामर्शानुसार लेनी चाहिए।

➤ जापानी इंसेफेलाइटिस

उत्तर प्रदेश में पैठ कर चुका जापानी इंसेफेलाइटिस का नाम सुनते ही बच्चे सहम से जाते हैं। उ.प्र. के गोरखपुर जिले से शुरू हुयी यह बीमारी आज चिन्ता का विषय बनी है।

वायरस-जनित यह बीमारी मनुष्यों में मच्छरों के काटने से होती है। विशेष प्रकार के वायरस, ‘आर्बोवायरस’, क्यूलेक्स मच्छरों में पाये जाते हैं। ये क्यूलेक्स मच्छर भी विशेष प्रकार के होते हैं क्योंकि इनमें धान के खेत में प्रजनन करने की अदभुत क्षमता होती है। जब ये मच्छर मनुष्यों को काटते हैं तो आर्बोवायरस मनुष्य के रक्त में पहुँचकर उसे संक्रमित कर देते हैं।

रक्त में पहुँचने पर इनका प्रथम आक्रमण उन ग्रन्थियों पर होता है जो मनुष्य के सफल पाचन एवं सुरक्षा तंत्र के लिए जिम्मेदार होती है और इन्हीं ग्रन्थियों में बहुगुणन करके ये वायरस अपनी संख्या में वृद्धि कर लेते हैं। तत्पश्चात पुनः रक्त से होते हुये ये जानलेवा वायरस दिमाग में पहुँच जाते हैं और यही उनका अन्तिम लक्ष्य भी होता है। जैसे ही वायरस दिमाग में पहुँचते हैं, अत्यन्त तीव्र गति से ऊतकों को नष्ट करना शुरू कर देते हैं। जिससे केवल दिमाग ही नहीं वरन स्पाइनल कॉर्ड तक प्रभावित होकर फूल जाती है और बाह्य श्वसन तंत्र मूलतः नाक के आन्तरिक भाग की एपीथीलियम सूखकर इतना कठोर हो जाती है कि सांस लेने पर अत्यन्त तीव्र दर्द होता है। संक्रमण इतना तीव्र होता है कि एक से तीन दिन में ही रोग के भयावह लक्षण सामने आने लगते हैं।

मनुष्य इस वायरस का आकस्मिक पोषद है। ये वायरस इनजोयटिक चक्र के अन्तर्गत मच्छर एवं कुछ कशेरुकी जैसे पालतू सूअर आदि और पक्षियों के बीच पहुँचते रहते हैं। इस वायरस के जीवन चक्र में मनुष्य की कोई भी भागीदारी नहीं हैं परन्तु जब संक्रमित मच्छर मुख्यतः क्यूलैक्स ट्राइटैनियोरायनकस मनुष्यों को काटते हैं, जो यह आकस्मिक रूप से इन तक पहुँचते हैं और रोग उत्पन्न करते हैं।

जापानी इंसेफेलाइटिस का बचाव ही उपचार है, क्योंकि इस रोग के प्रमुख स्रोत मच्छर हैं। अतः मच्छरों से बचना ही रोग से बचना है। इसके बचाव का सबसे कारगार उपाय टीकाकरण (जे.ई. वैक्सीन) है। जिसमें SA-14-14-2 की एकल खुराक दी जाती है

➤ पेचिश (Dysentry)

यह एन्ट अमीबा हिस्टोलिटिका (Entomoeba histolytica) नामक प्रोटोजोआ के कारण होता है। यह परजीवी बड़ी आँत के अगले भाग (Colon) में रहता है। इसमें श्लेष्म और खून के साथ दस्त, उदरीय वेदना और सपीड़ कुथन (tenesmus) होता हैं। खाना नहीं पचता और भूख नहीं लगती है। उपचार हेतु पानी उबालकर पीना चाहिए। एन्ट्रीकोनाल, आइरोफार्म, मेक्साफार्म जैसी दवाओं का प्रयोग कराना चाहिए। रोगी को पूरी सफाई से रहना चाहिए।

➤ काला-जार (Kala-azar)

यह रोग लीशमैनिया (Leishmania) नामक प्रोटोजोआ से फैलता है। इस परजीवी का वाहक बालूमक्खी (Sandfly) है।* इसमें रोगी को तेज बुखार आता है। इसके बचाव हेतु मच्छरदानी का प्रयोग एवं चिकित्सक के परामर्शानुसार इलाज कराना चाहिए।

➤ पायरिया

यह मसूढ़ों का रोग है जो एन्टअमीबा जिन्जिवेलिस (Entamoeba gingivalis) नामक प्रोटोजोआ के कारण होता है।* इसमें मसूढ़ों से पस निकलता है तथा दांतों की जड़ों में घाव हो जाता है। कभी-कभी मसूढ़ों से रक्त निकलता है तथा मुँह से दुर्गन्ध आती है। दांत ढीले होकर गिरने लगते हैं।

इसके उपचार हेतु रोजमर्रा के भोजन में रेशेदार खाद्य पदार्थ जैसे हरी सब्जियाँ, गन्ना, फल इत्यादि जरूर खाना चाहिए। दांतों की सफाई अच्छी तरह करनी चाहिए जिससे टारटर का जमाव न हो। पेनीसिलीन का इंजेक्शन लेना चाहिए। खाने में विटामिन सी प्रचुर मात्रा में होना चाहिए।

➤ सोने की बीमारी (Sleeping Sickness)

यह रोग ट्रिपेनोसोमा (Trypanosoma) नामक प्रोटोजोआ के कारण होता है। यह प्रोटोजोआ सी-सी (Tse-Tse) मक्खी में रहता है।* जब सी-सी मक्खी किसी रोगी को काटकर किसी स्वस्थ व्यक्ति को काटती है तो यह रोग फैलता है। इसमें रोगी को बहुत नींद आती है तथा बुखार होता है। परजीवी मस्तिष्क में पहुँचकर सेब्रिोस्पाइनल द्रव में पहुँच जाते हैं। इसके उपचार हेतु रोगी से दूर रहना चाहिए तथा सी-सी मक्खी का उन्मूलन करना चाहिए।

 कृमि जनित रोग

➤ फाइलेरिया (Filaria)

यह रोग वऊचेरिया वैक्रोफ्टाई नामक प्रोटोजोआ से होता है। जो क्यूलेक्स मच्छर से फैलता है। गन्दे पानी में रोगाणु का जनन तेजी से होता है। इस रोग का कारण कृमि मनुष्य की लिम्फ ग्रंथियों में पहुँच जाता है। इसके कारण शरीर के अंग सूचक बहुत मोटे हो जाते हैं, विशेषकर पाँव तथा वृषण ग्रंथियाँ। इसलिए इस रोग को हाथीपांव (elephantiasis) भी कहते हैं। रोग की शुरुआत के साथ ही तेज बुखार होता है। उपचार हेतु स्वच्छ पानी का प्रयोग करना चाहिए तथा क्यूलेक्स मच्छड़ों को मारने के लिए डाइएथिल कार्बेमेंजीन का प्रयोग करना चाहिए। चिकित्सक के परामर्शानुसार हेट्रोजन एम०एस०ई० आदि दवाएँ खानी चाहिए।

➤ टीनिएसिस (Taeniasis)

यह भी आंत का एक रोग है जो कि टीनिया सोलियम नामक परजीवी द्वारा होता है। इसमें रोगी व्यक्तियों की आंत में अण्डे उपस्थित होते हैं जो कि मल के साथ बाहर आ जाते हैं। सुअर जब इस मल का खाते हैं, तो ये सुअर की आंत में पहुंच जाते हैं। यहां पर अण्डे का कवच घुल जाता है तथा भ्रूण बाहर निकल आता है। यह आंत को भेदकर रक्त वाहिनियों से होते हुए मांसपेशियों में पहुंच जाता है। वहां पर यह कवच धारण करके विश्राम करता है। यह अवस्था में इसे ब्लैडरवर्म (Bladderworm) कहते हैं। यदि ऐसे संक्रमित सूअरका अधपका मांस कोई व्यक्ति खाता है, तो ब्लैडरवर्म उसकी आंत में पहुँचकर टेपवर्म के रूप में विकसित हो जाता है तथा आंत की दीवारों पर चिपक जाता है।

प्रायः टीनिएसिस के लक्षण स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं पड़ते। केवल कभी-कभी अपच और पेट दर्द होता है। परन्तु जब कभी आंत में लार्वा उत्पन्न हो जाते हैं और ये केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र, आंखों, फेफड़ों, यकृत व मस्तिष्क में पहुंच जाते हैं। तो रोगी की मृत्यु हो जाती है।

रोकथाम व उपचार हेतु केवल भली-भांति पका हुआ सूअर का मांस ही खाना चाहिए। निकोलसन नामक दवा इसके उपचार में प्रयुक्त होती है।

➤ ऐस्केरिएसिस (Ascariasis)

आंत का यह रोग ऐस्केरिस लुम्बीकॉइडिस (Ascaris lumbricoides) नामक निमेटोड द्वारा होता है। यह रोग बच्चों में अधिक पाया जाता है। ऐस्केरिस के अण्डे रोगी व्यक्तियों की आंत में उपस्थित होते हैं। फलतः पेट में तेज दर्द होता है। वृद्धि रुक जाती है। फेफड़ों में पहुँचकर ये ज्वर, खांसी तथा ईसोनोफिलिया का कारण बनते हैं। शरीर में रक्त की कमी हो जाती है। इसके लिए वैयक्तिक तथा सामाजिक सफाई सर्वश्रेष्ठ उपचार है। इसके अलावा मेबेन्डाजोल एवं पाइपराजीन फास्फेट का प्रयोग निमेटोड से छुटकारा दिला देता है।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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