विटामिन (Vitamins)

विटामिन बहुत ही सूक्ष्म मात्रा (मिलिग्रामों या माइक्रोग्रामों) में जन्तु-शरीर के सामान्य मेटाबोलिज्म के लिए अत्यावश्यक होती है। यद्यपि ये उर्जा प्रदान नहीं करते, लेकिन अन्य ईधन पदार्थो के संश्लेषण एवं सही उपयोग का नियंत्रण करते हैं। अतः इनकी कमी से मेटाबोलिज्म त्रुटिपूर्ण होकर शरीर को रोगीला बना देता है। इसीलिए इन्हें वृद्धि तत्व (growth factors) और इनकी कमी से उत्पन्न रोगों को अपूर्णता रोग (deficiency diseases) कहते हैं।*

• सन् 1881 में लूनिन (N.L. Lunin) ने विटामिन की खोज की और बताया कि स्वस्थ शरीर के लिए भोजन में, अन्य पदार्थों के अतिरिक्त, इन अज्ञात पदार्थो का भी सूक्ष्म मात्रा में होना आवश्यक होता है।

• इसके बाद सन् 1897 में ईज्कमान (Eijkman) ने लूनिन की खोज का समर्थन किया और पता लगाया कि बेरी-बेरी का रोग आहार में पॉलिश किये गये चावल की बहुतायत से होता है।*

• इसी सब ज्ञान के आधार पर हॉप्किन्स एवं फुन्क (Hopkins and Funk, 1912) ने विटामिन मत (Vitamin Theory) प्रस्तुत किया और इसमें बताया कि ऐसा प्रत्येक रोग आहार में किसी-न-किसी विशेष विटामिन की कमी से होता है।

• फुन्क ने ही 1912 में पहले-पहल विटामिन नाम का उपयोग किया। तब से इन महत्वपूर्ण पदार्थो का ज्ञान तेजी से बढ़ा।

• विटामिन अन्य पदार्थो से कुछ सरल कार्बनिक यौगिक होते हैं। जन्तुओं को अधिकांश विटामिन भोजन से ही प्राप्त होते हैं, क्योंकि इनका संश्लेषण पादप करते हैं। पादपों में भी लगभग उन्हीं विटामिनों की आवश्यकता होती है जिनकी कि जन्तुओं में। ये या तो स्वयं सहएन्जाइमों (conenzymes) का काम करते हैं या सहएन्जाइमों के संयोजन में भाग लेते हैं। इस प्रकार, ये उपापचयी प्रतिक्रियाओं में, उत्प्रेरकों का अंश बनकर, इनका नियंत्रण करते हैं।

• शरीर में विटामिन का संचय बहुत कम होता हैं। इनकी अधिकांश मात्रा का मूत्र के साथ उत्सर्जन होता रहता है। इसीलिए, इन्हें प्रतिदिन भोजन से ग्रहण करना आवश्यक होता है।

• जीवों में अभी तक लगभग बीस प्रकार के विटामिनों का पता चला है। इनमें से निम्नलिखित 13 का हमारे भोजन में होना आवश्यक होता है। इन्हें दो प्रमुख श्रेणियों में बाँटा जाता है-
(क) जल में घुलनशील तथा
(ख) वसा में घुलनशील विटामिन।

• जल में घुलनशील विटामिनों की आवश्यकता से अधिक मात्रा का मूत्र के साथ उत्सर्जन होता रहता है। अतः शरीर में इनका विशेष संचय नहीं होता और इन्हें प्रतिदिन भोजन से ग्रहण करना आवश्यक होता है। इसके विपरीत, वसा में घुलनशील विटामिनों का मूत्र के साथ उत्सर्जन नहीं होता। अतः वसा ऊतकों में इनका कुछ संचय होता है जिसके कारण इन्हें प्रतिदिन भोजन से ग्रहण करना आवश्यक नहीं होता।

जल में घुलनशील विटामिन (Water-Soluble vitamins)

(1) विटामिन “बी-कॉम्प्लेक्स” – जल में घुलनशील और नाइट्रोजनयुक्त सर्वप्रथम ज्ञात विटामिन को विटामिन “बी” कहा गया। बाद में लगभग 13 और विटामिन्स की खोज हुई तथा इन सबको “बी-कॉम्प्लेक्स” का सामूहिक नाम दिया गया। इनमें अधोलिखित समानताएँ पायी जाती हैं। यथा-

1. इनमें लगभग सभी को-एन्जाइम का निर्माण करती हैं।

2. लिपोड़क अम्ल को छोड़कर सभी जल में विलेय हैं।

3. इनमें से अधिकांश विटामिन खमीर (यीस्ट) और यकृत में उपलब्ध होते हैं।

4. इनमें से अधिकांश का संश्लेषण आन्त्रीय सूक्ष्म जीवों द्वारा हो जाता हैं। यहाँ प्रस्तुत है- परीक्षोपयोगी प्रमुख बी कॉम्प्लेक्स विटामिन्स का वर्णन। यथा-

(i) विटामिन बी1 या थायमीन – फुन्क ने सन् 1912 में ही इसे चावल की छीलन से तैयार किया। इसकी आणविक रचना विलियम्स (Williams) ने सन् 1930 में ज्ञात की तथा इसके शुद्ध रवे (crystals) जैन्सन ने तैयार किये। ध्यातव्य है कि थाइमिन को शोथरोधी (Antineuritic) या एन्यूरिन (Aneurin) की भी संज्ञा प्रदान की गई है।

• हमें यह अनाज के छिलकों, मांस, मेवा, सोयाबीन, मछली, अण्डों आदि से मिलता है।*

• हमारा केन्द्रीय तांत्रिका तंत्र ऊर्जा के लिए लगभग पूरी तरह कार्बोहाइड्रेट मेटाबोलिज्म पर निर्भर करता है। अतः इस विटामिन की कमी से तंत्रिका तंत्र और पेशियों का कार्य बिगड़ जाता है। जिससे लकवे (paralysis) तक की आशंका हो सकती है।*

• हृदपेशियों के क्षीण हो जाने से दिल की धड़कन बन्द हो सकती है। अपच तथा कब्ज हो सकती है। इन्हीं तीन लक्षणों को सामूहिक रूप से बेरी-बेरी (beri-beri) का रोग कहते हैं।*

(ii) विटामिन बी2 (Riboflavin)

• यह गहरे पीले रंग का और ऑक्सीकर मेटाबोलिज्म अर्थात अपचय में भाग लेने वाले सहएन्जाम्स FAD तथा FMN का एक घटक होता है। अतः यह वृद्धि और स्वास्थ्यवर्धक होता है।

• यह पनीर, अण्डों, यीस्ट, हरी पत्तियों, जिगर, मांस, दूध आदि में मिलता है।

• इसकी कमी से मुँह के कोण फट जाते हैं (कीलोसिस – cheilosis)।

• कमजोर पाचन-शक्ति, त्वचा व आँखों में जलन, सिरदर्द, दिमागी क्षीणता, रक्तक्षीणता, कमजोर स्मृति तथा होंठों और नासिका पर पपड़ीदार त्वचा इस विटामिन की कमी के अन्य लक्षण होते हैं।

(iii) विटामिन बी3 (Nicotinic acid)

• इसे नियासिन या विटामिन पीपी (Niacin or Vitamin ‘PP’) भी कहते हैं।

• यह ऑक्सीकर मेटाबोलिज्म में भाग लेने वाले NAD तथा NADP नामक सहएन्जाइम्स का एक घटक होता है।

• यह ताजा मांस, जिगर, मछली, अण्डों, दूध, मटर, मेवा, फलियों आदि में मिलता है।

• इसकी कमी से चर्मदाह अर्थात पेलाग्रा (pellagra) रोग हो जाता है जिसमें जीभ और त्वचा पर दाने और पपड़ियाँ पड़ जाती हैं। पाचन शक्ति कमजोर हो जाने से अतिसार (diarrhoea) हो जाता है, तथा तंत्रिका तंत्र के क्षीण हो जाने से पागलपन (dementia) तक हो सकता है।

(iv) विटामिन बी5 (Pantothenic acid)

• यह सभी प्रकार के पोषक पदार्थो के ऑक्सीकर मेटाबोलिज्म में भाग लेने वाले महत्वपूर्ण सहएन्जाइम ‘ए’ (coenzyme ‘A’) का घटक होता है।

• यह सभी प्रकार के खाद्य-पदार्थो में होता है, परन्तु जिगर, गुर्दो, अण्ड़ों मांस, दूध, मूँगफली, गन्ने, अनाज, शकरकन्दी आदि में अधिक मिलता है।

• इसकी कमी शरीर में प्रायः नहीं होती है। फिर भी कमी होने पर चर्म रोग, मन्द बुद्धि, हाथ-पैरों में सुन्नता, थकावट, बाल सफेद तथा जनन क्षमता कम हो जाती है।

(v) विटामिन बी6 (Pyridoxine)

• यह अमीनों अम्लों के मेटाबोलिज्म में महत्वपूर्ण भाग लेने वाले एन्जाइम्स का सहएन्जाइम होता है।

• यह दूध, अनाज, मांस, मछली, जिगर, यीस्ट, सब्जियों आदि में मिलता है।

• इसकी कमी से रक्तक्षीणता (anaemia), चर्म रोग (dermatitis), पेशीय ऐंठन (convulsions), मतली, कै, पथरी (kidney stones) आदि रोग हो जाते हैं।

• आँत के बैक्टीरिया भी इसका संश्लेषण करते हैं। अतः इसकी प्रायः कमी नहीं होती।

(vi) बायोटिन (Vitamin “H”)

• यह ग्लाइकोजन, वसीय अम्लों, अमीनों अम्लों तथा पिरिमिडीन के संश्लेषण में भाग लेने वाले एन्जाइम्स का सहएन्जाइम होता है। • यह सब्जी, फलों, गेहूँ, चॉकलेट, अण्डों, मूँगफली, मांस आदि में होता है।

• आँत के बैक्टीरिया भी इसका संश्लेषण करते हैं।*

• इसकी कमी से त्वचा रोग, बालों का झड़ना तथा कमजोरी हो जाती है।

(vii) फोलिक अम्ल समूह (Folic acid group)- ये रुधिराणुओं के निर्माण तथा DNA के संश्लेषण में आवश्यक होते हैं। इसे ‘B9’ भी कहा जाता है।

• ये हरी पत्तियों (पालक), सोयाबीन, यीस्ट, गुर्दो, फलियों तथा जिगर आदि में मिलते हैं।

• इनकी कमी से वृद्धि कम और रक्तक्षीणता (anaemia) हो जाती है।

(viii) विटामिन “बी12” (Cyanocobalamine)- साइनोकोबालएमीन न्यूक्लीक अम्लों (DNA, RNA) के संश्लेषण तथा रुधिराणुओं के निर्माण में भाग लेने वाले एन्जाइम्स का सहएन्जाइम होता है। अतः यह वृद्धि के लिए आवश्यक होता है। रक्तक्षीणता (anaemia) के उपचार में इसके इन्जेक्शन लगाते हैं। इसकी कमी से तंत्रिका तंत्र की कार्यिकी भी गड़बड़ा जाती है।

• यह माँस, मछली, जिगर, अण्डों, दूध, पनीर आदि में मिलता है।

• आँत के बैक्टीरिया भी इसका संश्लेषण करते हैं।

(2) विटामिन “सी” (Ascorbic acid)

• सबसे पहले इसी विटामिन की खोज हुई। इसका प्रमुख कार्य ऊतकों में कोशाओं को परस्पर बाँधे रखने वाले अन्तराकोशीय पदार्थ (intercellular substance) के मैट्रिक्स (matrix) कोलैजन तन्तुओं, हड्डियों के मैट्रिक्स और दाँतों के डेन्टीन के निर्माण को सामान्य अवस्था में बनाये रखने का है।* सम्भवतः यह विटामिन इन पदार्थो के संश्लेषण से सम्बन्धित प्रतिक्रियाओं के एन्जाइमों का सहएन्जाइम होता है।

• लौह मेटाबोलिज्म का नियंत्रण करके यह लाल रुधिराणुओं के निर्माण में भी सहायता करता है।

• स्कर्वी में सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव घावों के न भरने का होता है।* कोलैजन तन्तुओं एवं अन्तराकोशीय पदार्थ की कमी से घावों के भरने में महीनों लग जाते हैं।

• इस रोग के दूसरे प्रभाव में हड्डी एवं दाँतों की वृद्धि रुक जाती है। इससे हड्डियाँ कमजोर हो जाती हैं और टूटी हड्डी का जुड़ना कठिन हो जाता है।

तीसरे प्रभाव में रक्तक्षीणता (anaemia) हो जाती है और रुधिर केशिकाओं (blood capillaries) की दीवार के क्षीण हो जाने से ये फटने लगती हैं।

इसके अतिरिक्त, शरीर की प्रतिरक्षा क्षमता (immunity) और जनन क्षमता कम हो जाती है, पेशियाँ फटने लगती हैं, मसूड़े फूलने और दाँत गिरने लगते हैं, खून की कै होने लगती हैं, मल के साथ खून जाने लगता है, जोड़ों में सूजन हो जाती है और तीव्र ज्वर हो जाता है।

• यह नींबू, सन्तरे, मुसम्मी, टमाटर, हरी मिर्च तथा अन्य हरी सब्जियों, आलू तथा अनेक फलों में मिलता है।

वसा में घुलनशील विटामिन (Fat-soluble Vitamins)

(1) विटामिन “ए” (Vitamin “A” or Retinol)

• यह अत्यधिक असंतृप्त एल्कोहल है, जो वसा में घुलनशील होता है।

• पादप के कैरोटीन रंजक से इसका संश्लेषण होता है।*

• जन्तु के यकृत एवं आत्रीय श्लेष्मा की कोशिकाओं में यह संचित रहता है।*

• हम इसे, दूध, मक्खन, अण्डों की जर्दी, जिगर, मछलियों के तेल आदि से भी प्राप्त कर सकते हैं।

• इसका प्रमुख कार्य दृष्टि-रंगाओं (visual pigments) के संश्लेषण में भाग लेना होता है।*

• इसकी कमी से रतौंधी (night blindness) हो जाती है।*

• त्वचा, कॉर्निया आदि में कोशाएँ सूखने लगती हैं और शल्कीभवन (keratinization) हो जाता है। कॉर्निया के शल्कीभवन को जीरोफ्थैल्मिया रोग (Xerophthalmia-dry eyes) कहते हैं।*

• इस विटामिन की कमी से शिशुओं में वृद्धि रुक जाती है, ग्रन्थियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं, नर सदस्यों में जनन क्षमता कम हो जाती है और गुर्दो में पथरी पड़ जाती है। कमजोर एपिथीलियमी स्तरों पर जीवाणुओं आदि का संक्रमण हो जाता है। इसीलिए, इस विटामिन को “संक्रमणरोधी विटामिन (anti-infection vitamin)” भी कहते हैं।*

(2) विटामिन “डी” (Calciferol Group) जन्तुओं में दो सक्रिय D विटामिन D होते हैं- कोलीकैल्सीफेरॉल तथा अर्गोकैल्सीफेरॉल। कोलीकैल्सीफेरॉल का संश्लेषण जन्तु स्वयं अपनी त्वचा-कोशाओं में 7-डीहाइड्रोकोलेस्ट्रॉल नामक पदार्थ से करते हैं। – यह क्रिया सूर्य-प्रकाश की पराबैंगनी किरणों के प्रभाव से होती है। इसीलिए, इसे “धूप का विटामिन (Sunshine Vitamin)” कहते – हैं। मक्खन, जिगर, गुर्दो, अण्डों की जर्दी, मछली के तेल आदि में भी यह मिलता है।

• अर्गोकैल्सीफेरॉल का संश्लेषण, सूर्य-प्रकाश की पराबैंगनी किरणों के प्रभाव से, अर्गोस्ट्रॉल (ergosterol) नामक पदार्थ से यीस्ट कोशाएँ करती हैं।

• यह विटामिन आहारनाल में भोजन से फॉस्फोरस तथा कैल्शियम के अवशोषण और अस्थिनिर्माण के लिए आवश्यक होते हैं। अतः ये दाँतों एवं हड्डियों के स्वरूप और विकास में महत्वपूर्ण होते हैं। इनकी कमी से बच्चों में सूखा रोग (rickets) हो जाता है जिससे हड्डियाँ क्षीण, लचीली और टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती हैं।*

• विटामिन-डी के अभाव में टिटैनी (Titany) रोग (अर्थात कैल्शियम का उत्सर्जन बढ़ जाना) हो जाता है। D3 के अभाव में सिलियक रोग हो जाता है, इसमें अस्थियों में विकृतियाँ तथा बौनापन विकसित हो जाता है।

• वयस्कों में भी इसकी कमी से हड्डियाँ क्षीण और लचीली हो जाती हैं। इस दशा को ओस्टिओमैलैसिया (Osteomalacia) कहते हैं।*

(3) विटामिन-ई (Tocopherol)

• यह कोशाकला की सुरक्षा, जननिक एपीथिलियन की वृद्धि तथा पेशियों की क्रियाशीलता में सहायक होता है।

• ये तेल, गेहूँ, सोयाबीन और अण्डों की जर्दी में मिलते हैं।

• इसकी कमी से पुरुष एवं स्त्री दोनों में बन्ध्यता उत्पन्न हो जाती है। पुरुष में शुक्राणु एवं शुक्रजनन नलिकायें प्रभावित होती है जबकि स्त्री में निषेचन के कुछ समय बाद भ्रूणनष्ट हो जाता है। अतः इन्हें बॉझपन- रोधी (Antisterility) विटामिन भी कहा जाता है।

(4) नैफ्थोक्विनोन (Vitamin “K”) – यह यकृत में प्रोथ्रॉम्बिन नामक पदार्थ के निर्माण में भाग लेता है। अतः यह चोट पर रक्त-थक्के के जमने के लिए आवश्यक होता है। इसे इसीलिए रक्तस्राव-रोधी पदार्थ (antihaemorrhagic factor) कहते हैं।

• हरी पत्तियों, टमाटर, गोभी, सोयाबीन, जिगर, अण्डों की जर्दी तथा पनीर में यह काफी होता है।

• आँत के बैक्टीरिया भी इसका संश्लेषण करते हैं।

• इसकी कमी वाले व्यक्तियों का ऑपरेशन आसानी से नहीं किया जा सकता, क्योंकि अधिक रक्त बह जाने का डर बना रहता है अर्थात वह हीमोफीलिया रोग का शिकार होता है।

जल (Water)

का लगभग 71% भाग जल से ढका है। जल से पृथ्वी ही पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई। जीव-शरीर का संघटन जल के गुणों पर आधारित होता है। इसीलिए यह शरीर में 57 से 65% तक पाया जाता हैं। मानव स्वयं दिनभर में अनुमानतः अपने शरीर-भार का लगभग 2% जल प्रयुक्त करता है।

जल के कार्य (i) यह प्रकृति का सबसे उत्तम घोलक (solvent) होता है। जीव-तंत्रों के अन्य अधिकांश पदार्थ इसी में घुले रहते हैं। इस प्रकार, कोशाद्रव्य, ऊतक द्रव्य, रुधिर-प्लाज्मा, लसिका, मूत्र, स्वेद आदि का आधारभूत तरल (ground fluid matrix) जल ही होता है।

(ii) यह एक ऐसा आदर्श विसर्जन माध्यम (dispersion medium) होता है जिसमें कि घुले हुये, अर्थात् विलेय (solute) पदार्थों के अणुओं को गति (brownian movement) की पूर्ण स्वतंत्रता होती है। साथ ही स्वयं जल में चक्रगति (cyclosis or streaming) होती रहती है। इन्हीं प्रक्रियाओं के फलस्वरूप कोशाओं में उपापचयी प्रतिक्रियायें, कोशाओं का अपने बाहरी वातावरण से रासायनिक लेन-देन, तथा शरीर में पदार्थों का एक भाग से दूसरे भागों तक परिवहन सुचारु रूप से होता रहता है।

(iii) घोलक का काम करने के अतिरिक्त, जल स्वयं एक मेटाबोलिक पदार्थ (metabolite) का काम भी करता है। पाचन में यह पोषक पदार्थों का जल-अपघटन करता है। कोशाओं में भी यह कई उपापचयी प्रतिक्रियाओं में भाग लेता है।

(iv) कोशाद्रव्य में हाइड्रोजन आयनों (H+) तथा हाइड्रॉक्साइड आयनों (OH-) की संख्या लगभग समान होती है, अर्थात यह उदासीन (neutral-pH लगभग 7) होता है। H+ आयनों की संख्या बढ़ने के कारण थोड़ी भी अम्लीयता हो जाने या OH- आयनों के बढ़ने पर तनिक भी क्षारीयता बढ़ने पर उपापचयी प्रतिक्रियायें गड़बड़ा जाती हैं। H* एवं OH- आयनों में टूटकर जल के अणु कोशाओं में इन आयनों का संतुलन, अर्थात अम्ल-क्षार संतुलन (acid-base balance) बनाये रखने में सहायता करते हैं।

जल का अधिकतम घनत्व (density) 4°C ताप पर होता है। इसकी विद्युत चालकता अपेक्षाकृत कम, परन्तु विशिष्ट उष्मा (specific heat), वाष्पीकरण की गुप्त ऊष्मा (Latent heat of vaporization), क्वथनांक एवं गलनांक अधिक होते हैं।

(v) अनेक अन्य पदार्थों की तुलना में जल देर से गरम या ठंडा होता है। अतः जीवों में यह शरीर-ताप का नियंत्रण करता है और शरीर को वातावरण के ताप की आकस्मिक घटा-बढ़ी के दुष्प्रभाव से बचाता है।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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