जब जनता बग़ावत करती है 1857 और उसके बाद : अध्याय 5


चित्र 1 – सिपाही और किसान विद्रोह के लिए ताकत जुटाते हुए। यह विद्रोह 1857 में उत्तर भारत के मैदानों में फैल गया था।

नीतियाँ और लोग

पिछले अध्यायों में आपने ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों और जनता पर उसके प्रभावों के बारे में पढ़ा। इन नीतियों से राजाओं, रानियों, किसानों, ज़मींदारों, आदिवासियों, सिपाहियों, सब पर तरह-तरह से असर पड़े। आप यह भी देख चुके हैं कि जो नीतियाँ और कार्रवाईयाँ जनता के हित में नहीं होतीं या जो उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाती हैं उनका लोग किस तरह विरोध करते हैं।

नवाबों की छिनती सत्ता

अठारहवीं सदी के मध्य से ही राजाओं और नवाबों की ताकत छिनने लगी थी। उनकी सत्ता और सम्मान, दोनों खत्म होते जा रहे थे। बहुत सारे दरबारों में रेजिडेंट तैनात कर दिए गए थे। स्थानीय शासकों की स्वतंत्रता घटती जा रही थी। उनकी सेनाओं को भंग कर दिया गया था। उनके राजस्व वसूली के अधिकार व इलाके एक-एक करके छीने जा रहे थे।

बहुत सारे स्थानीय शासकों ने अपने हितों की रक्षा के लिए कंपनी के साथ बातचीत भी की। उदाहरण के लिए, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई चाहती थीं कि कंपनी उनके पति की मृत्यु के बाद उनके गोद लिए हुए बेटे को राजा मान ले।

पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहेब ने भी कंपनी से आग्रह किया कि उनके पिता को जो पेंशन मिलती थी वह मृत्यु के बाद उन्हें मिलने लगे। अपनी श्रेष्ठता और सैनिक ताकत के नशे में चूर कंपनी ने इन निवेदनों को ठुकरा दिया।

अवध की रियासत अंग्रेज़ों के कब्ज़े में जाने वाली आख़िरी रियासतों में से थी। 1801 में अवध पर एक सहायक संधि थोपी गयी और 1856 में अंग्रेज़ों ने उसे अपने कब्ज़े में ले लिया। गवर्नर जनरल डलहौज़ी ने ऐलान कर दिया कि रियासत का शासन ठीक से नहीं चलाया जा रहा है इसलिए शासन को दुरुस्त करने के लिए ब्रिटिश प्रभुत्व ज़रूरी है।

कंपनी ने मुग़लों के शासन को ख़त्म करने की भी पूरी योजना बना ली थी। कंपनी द्वारा जारी किए गए सिक्कों पर से मुग़ल बादशाह का नाम हटा दिया गया। 1849 में गवर्नर जनरल डलहौज़ी ने ऐलान किया कि बहादुर शाह ज़फ़र की मृत्यु के बाद बादशाह के परिवार को लाल किले से निकाल कर उसे दिल्ली में कहीं और बसाया जाएगा। 1856 में गवर्नर-जनरल कैनिंग ने फैसला किया कि बहादुर शाह ज़फ़र आखिरी मुगल बादशाह होंगे। उनकी मृत्यु के बाद उनके किसी भी वंशज को बादशाह नहीं माना जाएगा। उन्हें केवल राजकुमारों के रूप में मान्यता दी जाएगी।

किसान और सिपाही

गाँवों में किसान और ज़मींदार भारी-भरकम लगान और कर वसूली के सख्त तौर-तरीकों से परेशान थे। बहुत सारे लोग महाजनों से लिया कर्ज़ नहीं लौटा पा रहे थे। इसके कारण उनकी पीढ़ियों पुरानी जमीनें हाथ से निकलती जा रही थीं। कंपनी के तहत काम करने वाले भारतीय सिपाहियों के असंतोष की अपनी

वजह थी। वे अपने वेतन, भत्तों और सेवा शर्तों के कारण परेशान थे। कई नए नियम उनकी धार्मिक भावनाओं और आस्थाओं को ठेस पहुँचाते थे। क्या आप जानते हैं कि उस ज़माने में बहुत सारे लोग समुद्र पार नहीं जाना चाहते थे। उन्हें लगता था कि समुद्र यात्रा से उनका धर्म और जाति भ्रष्ट हो जाएँगे। जब 1824 में सिपाहियों को कंपनी की ओर से लड़ने के लिए समुद्र के रास्ते बर्मा जाने का आदेश मिला तो उन्होंने इस हुक्म को मानने से इनकार कर दिया। उन्हें ज़मीन के रास्ते से जाने में ऐतराज़ नहीं था। सरकार का हुक्म न मानने के कारण उन्हें सख्त सज़ा दी गई। क्योंकि यह मुद्दा अभी ख़त्म नहीं हुआ था इसलिए 1856 में कंपनी को एक नया कानून बनाना पड़ा। इस कानून में साफ़ कहा गया था कि अगर कोई व्यक्ति कंपनी की सेना में नौकरी करेगा तो ज़रूरत पड़ने पर उसे समुद्र पार भी जाना पड़ सकता है।

सिपाही गाँवों के हालात से भी परेशान थे। बहुत सारे सिपाही खुद किसान थे। वे अपने परिवार गाँवों में छोड़कर आए थे। लिहाजा, किसानों का गुस्सा जल्दी ही सिपाहियों में भी फैल गया।

सुधारों पर प्रतिक्रिया

अंग्रेज़ों को लगता था कि भारतीय समाज को सुधारना ज़रूरी है। सती प्रथा को रोकने और विधवा विवाह को बढ़ावा देने के लिए कानून बनाए गए। अंग्रेज़ी भाषा की शिक्षा को जमकर प्रोत्साहन दिया गया। 1830 के बाद कंपनी ने ईसाई मिशनरियों को खुलकर काम करने और यहाँ तक कि ज़मीन व संपत्ति जुटाने की भी छूट दे दी। 1850 में एक नया कानून बनाया गया जिससे ईसाई धर्म को अपनाना और आसान हो गया। इस कानून में प्रावधान किया गया था कि अगर कोई भारतीय व्यक्ति ईसाई धर्म अपनाता है तो भी पुरखों की संपत्ति पर उसका अधिकार पहले जैसा ही रहेगा। बहुत सारे भारतीयों को यकीन हो गया था कि अंग्रेज़ उनका धर्म, उनके सामाजिक रीति-रिवाज़ और परंपरागत जीवनशैली को नष्ट कर रहे हैं।

दूसरी तरफ़ ऐसे भारतीय भी थे जो मौजूदा सामाजिक व्यवस्था में बदलाव चाहते थे। । इन सुधारकों और उनके सुधार आंदोलनों के बारे में आप अध्याय 6 में पढ़ेंगे।

चित्र 2 – उत्तर भारत के बाज़ारों में सिपाही खबरें और अफ़वाहें फैलाते हुए।

जनता की नज़र से

उस ज़माने में लोग अंग्रेज़ शासन के बारे में क्या सोच रहे थे, इसका जायज़ा लेने के लिए आप स्रोत 1 और 2 को पढ़ें।

(स्रोत 1) चौरासी नियमों की सूची

यहाँ महाराष्ट्र के एक गाँव में रहने वाले ब्राह्मण विष्णुभट्ट गोडसे द्वारा लिखित पुस्तक माझा प्रवास के कुछ अंश दिए गए हैं। विष्णुभट्ट और उनके चाचा मथुरा में आयोजित किए जा रहे एक यज्ञ में भाग लेने के लिए निकले थे। विष्णुभट्ट लिखते हैं कि रास्ते में उनकी मुलाकात कुछ सिपाहियों से हुई जिन्होंने उन्हें सलाह दी कि वे वापस लोट जाएँ क्यों कि तीन दिन के भीतर चारों तरफ कोहराम मच जाएगा। सिपाहियों ने जो कहा वह इस प्रकार था-

अंग्रेज़ सरकार हिंदुओं और मुसलमानों के धर्म को नष्ट करने पर आमादा है… उन्होंने चौरासी नियमों की एक सूची बनाई है और कलकत्ता में सारे राजाओं और राजकुमारों की मौजूदगी में उसका ऐलान कर दिया है। उन्होंने (सिपाहियों ने) बताया कि राजा इन नियमों को मानने के लिए तैयार नहीं है। उन्होंने अंग्रेज़ों को घातक परिणामों की चेतावनी दी है। राजाओं ने कहा है कि अगर ये नियम लागू किए गए तो भारी उथल-पुथल मच जाएगी… कि राजा भारी गुस्से में अपनी राजधानियों को लौट गए हैं… तमाम बड़े लोग योजनाएँ बना रहे हैं। धर्मयुद्ध के लिए तारीख तय कर ली गई थी और मेरठ छावनी से एक गुप्त योजना तैयार करके विभिन्न छावनियों में भेज दी गई थी।

(स्रोत 2) “जल्दी ही हर टुकड़ी में उत्तेजना छा गई”

उस दौर की एक और झलक सूबेदार सीताराम पांडे के संस्मरणों में मिलती है। सीताराम पांडे को 1812 में बंगाल नेटिव आर्मी में सिपाही के तौर पर भर्ती किया गया था। उन्होंने 48 साल तक नौकरी की और 1860 में वे सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने बग़ावत को दबाने में अंग्रेज़ों की मदद की हालाँकि उनका बेटा भी विद्रोहियों के साथ था और अंग्रेज़ों ने उसे सीताराम की आँखों के सामने ही मार डाला था। अपने सेवानिवृत्ति के बाद उनके कमान अफ़सर नॉरगेट ने उन्हें अपने संस्मरण लिखने के लिए प्रेरित किया। सीताराम ने 1861 में अवधी भाषा में अपने संस्मरण लिखे जिनका नॉरगेट ने अंग्रेजी में अनुवाद किया और फ्रॉम सिपॉय टू सूबेदार (सिपाही से सूबेदार तक) के नाम से प्रकाशित करवाया। सीताराम पांडे के संस्मरणों का एक अंश इस प्रकार था-

मेरा मानना है कि अवध पर हुए कब्ज़े से सिपाहियों के भीतर गहरा अविश्वास भर गया था और वे सरकार के खिलाफ साज़िशं रचने लगे थे। अवध के नवाब और दिल्ली बादशाह के नुमाइंदों को सेना की नब्ज़ जानने के लिए पूरे भारत में भेज दिया गया। उन्होंने सिपाहियों की भावनाओं को और हवा दी। उन्होंने सिपाहियों को बताया कि विदेशियों ने बादशाह के साथ कितना बड़ा धोखा किया है। उन्होंने हज़ार झूठ गढ़ डाले और सिपाहियों को अपने मालिकों, अंग्रेजा के खिलाफ बग़ावत करने के लिए उकसाया ताकि दिल्ली में बादशाह को दोबारा गद्दी पर बैठाया जा सके। उनकी दलील थी कि अगर सिपाही मिलकर काम करें और इन सुझावों पर अमल करें तो सेना ऐसा कर सकती है।

संयोग से इसी समय सरकार ने हरेक रेजिमेंट के कुछ लोगों को नयी राइफल के इस्तेमाल का तरीका बताने के लिए अलग-अलग छावनियों में भेजा। इन लोगों ने कुछ समय तक सिपाहियों को प्रशिक्षण दिया। इसी दौरान न जाने कहाँ से यह खबर फैल गई कि इन राइफलों में इस्तेमाल होने वाले कारतूसों पर गाय और सुअर की चर्बी का लेप चढ़ाया गया है। हमारी रेजिमेंट के लोग दसरे लोगों को लिखकर यह खबर भेजने लगे और जल्दी ही हरेक रेजिमेंट में उत्तेजना का माहौल बन गया। कुछ लोगों ने कहा कि उनकी चालीस साल की नौकरी में सरकार ने उनके मज़हब को चोट पहुँचाने के लिए कभी कुछ नहीं किया था। लेकिन जैसा कि मैंने पहले ही ज़िक्र किया, अवध पर कब्ज़े के कारण सिपाही पहले ही गुस्से में थे। स्वार्थी लोगों ने फौरन यह कहानी गढ़ दी कि अंग्रेज़ तो सबको ईसाई बनाना चाहते हैं इसीलिए उन्होंने ऐसे कारतूस तैयार किए हैं ताकि उन्हें इस्तेमाल करने से मुसलमान और हिंदू, दोनों ही भ्रष्ट हो जाएँ।

कर्नल साहब का मानना था कि यह बेचैनी, जो उन्हें भी साफ़ दिखाई दे रही थी. इस बार भी अपने आप ख़त्म हो जाएगी और उन्होंने मुझे घर चले जाने की हिदायत दी।

सैनिक विद्रोह जनविद्रोह बन गया

यद्यपि शासक और प्रजा के बीच संघर्ष कोई अनोखी बात नहीं होती लेकिन कभी-कभी ये संघर्ष इतने फैल जाते हैं कि राज्य की सत्ता छिन्न-भिन्न हो जाती है। बहुत सारे लोग मानने लगे हैं कि उन सबका शत्रु एक है। इसलिए वे सभी कुछ करना चाहते हैं। इस तरह की स्थिति में हालात अपने हाथ में लेने के लिए लोगों को संगठित होना पड़ता है, उन्हें संचार, पहलकदमी और आत्मविश्वास का परिचय देना होता है।

भारत के उत्तरी भागों में 1857 में ऐसी ही स्थिति पैदा हो गई थी। फ़तह और शासन के 100 साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी को एक भारी विद्रोह से जूझना पड़ रहा था। मई 1857 में शुरू हुई इस बग़ावत ने भारत में कंपनी का अस्तित्व ही खतरे में डाल दिया था। मेरठ से शुरू करके सिपाहियों ने कई जगह बग़ावत की। समाज के विभिन्न तबकों के असंख्य लोग विद्रोही तेवरों के साथ उठ खड़े हुए। कुछ लोग मानते हैं कि उन्नीसवीं सदी में उपनिवेशवाद के खिलाफ़ दुनिया भर में यह सबसे बड़ा सशस्त्र संघर्ष था।

चित्र 4 – कैवेलरी लाइनों में युद्ध।

3 जुलाई 1857 को 3,000 से ज़्यादा विद्रोही बरेली से दिल्ली आ पहुँचे। उन्होंने यमुना को पार किया और ब्रिटिश कैवेलरी चौकियों पर धावा बोल दिया। यह युद्ध पूरी रात चलता रहा।

मेरठ से दिल्ली तक

8 अप्रैल 1857 को युवा सिपाही – मंगल पांडे को बैरकपुर में अपने अफ़सरों पर हमला करने के आरोप में फाँसी पर लटका दिया गया। चंद दिन बाद मेरठ में तैनात कुछ सिपाहियों ने नए कारतूसों के साथ फ़ौजी अभ्यास करने से इनकार कर दिया। सिपाहियों को लगता था कि उन कारतूसों पर गाय और सूअर की चर्बी का लेप चढ़ाया गया था। 85 सिपाहियों को नौकरी से निकाल दिया गया। उन्हें अपने अफसरों का हुक्म न मानने के आरोप में 10-10 साल की सज़ा दी गई। यह 9 मई 1857 की बात है।

मेरठ में तैनात दूसरे भारतीय सिपाहियों की प्रतिक्रिया बहुत ज़बरदस्त रही। 10 मई को सिपाहियों ने मेरठ की जेल पर धावा बोलकर वहाँ बंद सिपाहियों को आज़ाद करा लिया। उन्होंने अंग्रेज़ अफ़सरों पर हमला करके उन्हें मार गिराया। उन्होंने बंदूक और हथियार कब्जे में ले लिए और अंग्रेर्जा की इमारतों व संपत्तियों को आग के हवाले कर दिया। उन्होंने फ़िरंगियों के खिलाफ़ युद्ध का ऐलान कर दिया। सिपाही पूरे देश में अंग्रेज़ों के शासन को खत्म करने पर आमादा थे। लेकिन सवाल यह था कि अंग्रेज़ों के जाने के बाद देश का शासन कौन चलाएगा। सिपाहियों ने इसका भी जवाब ढूँढ़ लिया था। वे मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र को देश का शासन सौंपना चाहते थे।

मेरठ के कुछ सिपाहियों की एक टोली 10 मई की रात को घोड़ों पर सवार होकर मुँह अँधेरे ही दिल्ली पहुँच गई। जैसे ही उनके आने की ख़बर फैली, दिल्ली में तैनात टुकड़ियों ने भी बग़ावत कर दी। यहाँ भी अंग्रेज़ अफ़सर मारे गए। देशी सिपाहियों ने हथियार व गोला बारूद कब्ज़े में ले लिया और इमारतों को आग लगा दी। विजयी सिपाही लाल किले की दीवारों के आसपास जमा हो गए। वे बादशाह से मिलना चाहते थे। बादशाह अंग्रेजों की भारी ताकत से दो-दो हाथ करने को तैयार नहीं थे लेकिन सिपाही भी अड़े रहे। आख़िरकार वे जबरन महल में घुस गए और उन्होंने बहादुर शाह ज़फ़र को अपना नेता घोषित कर दिया।

बूढ़े बादशाह को सिपाहियों की यह माँग माननी पड़ी। उन्होंने देश भर के मुखियाओं और शासकों को चिट्ठी लिखकर अंग्रेज़ों से लड़ने के लिए भारतीय राज्यों का एक संघ बनाने का आह्वान किया। बहादुर शाह के इस एकमात्र कदम के गहरे परिणाम सामने आए।

अंग्रेज़ों से पहले देश के एक बहुत बड़े हिस्से पर मुग़ल साम्राज्य का ही शासन था। ज्यादातर छोटे शासक और रजवाड़े मुगल बादशाह के नाम पर ही अपने इलाकों का शासन चलाते थे। ब्रिटिश शासन के विस्तार से भयभीत ऐसे बहुत सारे शासकों को लगता था कि अगर मुग़ल बादशाह दोबारा शासन स्थापित कर लें तो वे मुग़ल आधिपत्य में दोबारा अपने इलाकों का शासन बेफिक्र होकर चलाने लगेंगे।

अंग्रेज़ों को इन घटनाओं की उम्मीद नहीं थी। उन्हें लगता था कि कारतूसों के मुद्दे पर पैदा हुई उथल-पुथल कुछ समय में शांत हो जाएगी। लेकिन जब बहादुर शाह ज़फ़र ने बग़ावत को अपना समर्थन दे दिया तो स्थिति रातोंरात बदल गई। अकसर ऐसा होता है कि जब लोगों को कोई रास्ता दिखाई देने लगता है तो उनका उत्साह और साहस बढ़ जाता है। इससे उन्हें आगे बढ़ने की हिम्मत, उम्मीद और आत्मविश्वास मिलता है।

बग़ावत फैलने लगी

जब दिल्ली से अंग्रेज़ों के पैर उखड़ गए तो लगभग एक हफ़्ते तक कहीं कोई विद्रोह नहीं हुआ। ज़ाहिर है खबर फैलने में भी कुछ समय तो लगना ही था। लेकिन फिर तो विद्रोहों का सिलसिला ही शुरू हो गया।

एक के बाद एक, हर रेजिमेंट में सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया और वे दिल्ली, कानपुर व लखनऊ जैसे मुख्य बिंदुओं पर दूसरी टुकड़ियों का साथ देने को निकल पड़े। उनकी देखा-देखी कस्बों और गाँवों के लोग भी बग़ावत के रास्ते पर चलने लगे। वे स्थानीय नेताओं, ज़मींदारों और मुखियाओं के पीछे संगठित हो गए। ये लोग अपनी सत्ता स्थापित करने और अंग्रेज़ों से लोहा लेने को तैयार थे। स्वर्गीय पेशवा बाजीराव के दत्तक पुत्र नाना साहेब कानपुर के पास रहते थे। उन्होंने सेना इकट्ठा की और ब्रिटिश सैनिकों को शहर से खदेड़ दिया। उन्होंने खुद को पेशवा घोषित कर दिया।

उन्होंने ऐलान किया कि वह बादशाह बहादुर शाह जफर के तहत गवर्नर हैं। लखनऊ की गद्दी से हटा दिए गए नवाब वाजिद अली शाह के बेटे बिरजिस क़द्र को नया नवाब घोषित कर दिया गया। बिरजिस क़द्र ने भी बहादर शाह ज़फ़र को अपना बादशाह मान लिया। उनकी माँ बेगम हजरत महल ने अंग्रेज़ों के खिलाफ़ विद्रोहों को बढ़ावा देने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई भी विद्रोही सिपाहियों के साथ जा मिलीं। उन्होंने नाना साहेब के सेनापति ताँत्या टोपे के साथ मिलकर अंग्रेज़ों को भारी चुनौती दी। मध्य प्रदेश के मांडला क्षेत्र में, राजगढ़ की राजी अवन्ति बाई लोधी ने 4,000 सैनिकों की फौज तैयार की और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ उसका नेतृत्व किया क्योंकि ब्रिटिश शासन ने उनके राज्य के प्रशासन पर नियंत्रण कर लिया था।

विद्रोही टुकड़ियों के सामने अंग्रेज़ों की संख्या बहुत कम थी। बहुत सारे मोर्चों पर उनकी ज़बरदस्त हार हुई। इससे लोगों को यक़ीन हो गया कि अब अंग्रेज़ों का शासन खत्म हो चुका है। अब लोगों को विद्रोहों में कूद पड़ने का गहरा आत्मविश्वास मिल गया था। खासतौर से अवध के इलाके में चौतरफा बग़ावत की स्थिति थी। 6 अगस्त 1857 को लेफ्टिनेंट कर्नल टाइटलर ने अपने कमांडर-इन-चीफ़ को टेलीग्राम भेजा जिसमें उसने अंग्रेज़ों के भय को व्यक्त किया था- “हमारे लोग विरोधियों की संख्या और लगातार लड़ाई से थक गए हैं। एक-एक गाँव हमारे खिलाफ है। ज़मींदार भी हमारे खिलाफ़ खड़े हो रहे हैं।”

इस दौरान बहुत सारे महत्त्वपूर्ण नेता सामने आए। उदाहरण के लिए, फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्ला शाह ने भविष्यवाणी कर दी कि अंग्रेज़ों का शासन जल्दी ही ख़त्म हो जाएगा। वह समझ चुके थे कि जनता क्या चाहती है। इसी आधार पर उन्होंने अपने समर्थकों की एक विशाल संख्या जुटा ली। अपने समर्थकों के साथ वे भी अंग्रेज़ों से लड़ने लखनऊ जा पहुँचे। दिल्ली में अंग्रेज़ों का सफ़ाया करने के लिए बहुत सारे ग़ाज़ी यानी धर्मयोद्धा इकट्ठा हो गए थे। बरेली के सिपाही बख्त खान ने लड़ाकों की एक विशाल टुकड़ी के साथ दिल्ली की ओर कूच कर दिया। वह इस बग़ावत में एक मुख्य व्यक्ति साबित हुए। बिहार के एक पुराने ज़मींदार कुँवर सिंह ने भी विद्रोही सिपाहियों का साथ दिया और महीनों तक अंग्रेज़ों से लड़ाई लड़ी। तमाम इलाकों के नेता और लड़ाके इस युद्ध में हिस्सा ले रहे थे।

चित्र 12 – विद्रोही सिपाही मेरठ से दिल्ली की तरफ़ कूच करते हैं।

शुरू में, अंग्रेज़ी सेनाओं को दिल्ली की भारी किले-बंदी को तोड़ने में मुश्किल हुई। 3 सितंबर 1857 को अंग्रेज़ी सेनाओं को और ज्यादा हथियार गोले आदि पहुँचाए गए। ये गाड़ियों पर लदे हुए थे जिन्हें हाथी खींच रहे थे और इनकी कतार 7 मील लंबी थी।

कंपनी का पलटवार

इस उथल-पुथल के बावजूद अंग्रेज़ों ने हिम्मत नहीं छोड़ी। कंपनी ने अपनी पूरी ताकत लगाकर विद्रोह को कुचलने का फैसला लिया। उन्होंने इंग्लैंड से और फ़ौजी मँगवाए, विद्रोहियों को जल्दी सज़ा देने के लिए नए कानून बनाए और विद्रोह के मुख्य केंद्रों पर धावा बोल दिया। सितंबर 1857 में दिल्ली दोबारा अंग्रेज़ों के कब्ज़े में आ गई। अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा दी गई। उनके बेटों को उनकी आँखों के सामने गोली मार दी गई। बहादुर शाह और उनकी पत्नी बेगम ज़ीनत महल को अक्तूबर 1858 में रंगून जेल में भेज दिया गया। इसी जेल में नवंबर 1862 में बहादुर शाह ज़फ़र ने अंतिम साँस ली।

दिल्ली पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो जाने का यह मतलब नहीं था कि विद्रोह खत्म हो चुका था। इसके बाद भी लोग अंग्रेज़ों से टक्कर लेते रहे। व्यापक बग़ावत की विशाल ताकत को कुचलने के लिए अंग्रेज़ों को अगले दो साल तक लड़ाई लड़नी पड़ी।

मार्च 1858 में लखनऊ अंग्रेज़ों के कब्ज़े में चला गया। जून 1858 में रानी लक्ष्मीबाई की शिकस्त हुई और उन्हें मार दिया गया। दुर्भाग्यवश, ऐसा ही रानी अवन्ति बाई लोधी के साथ हुआ। खेड़ी की शुरुआती विजय के बाद उन्होंने अपने आप को अंग्रेज़ी फौज़ से घिरा पाया और वे शहीद हो गईं।

ताँत्या टोपे मध्य भारत के जंगलों में रहते हुए आदिवासियों और किसानों की सहायता से छापामार युद्ध चलाते रहे।

जिस तरह पहले अंग्रेज़ों के खिलाफ़ मिली सफलताओं से विद्रोहियों को उत्साह मिला था उसी तरह विद्रोही ताकतों की हार से लोगों की हिम्मत टूटने लगी। बहुत सारे लोगों ने विद्रोहियों का साथ छोड़ दिया। अंग्रेज़ों ने भी लोगों का विश्वास जीतने के लिए हर संभव प्रयास किया। उन्होंने वफ़ादार भूस्वामियों के लिए ईनामों का ऐलान कर दिया। उन्हें आश्वासन दिया गया कि उनकी ज़मीन पर उनके परंपरागत अधिकार बने रहेंगे। जिन्होंने विद्रोह किया था उनसे कहा गया कि अगर वे अंग्रेज़ों के सामने समर्पण कर देते हैं और अगर उन्होंने किसी अंग्रेज़ की हत्या नहीं की है तो वे सुरक्षित रहेंगे और ज़मीन पर उनके अधिकार और दावेदारी बनी रहेगी। इसके बावजूद सैकड़ों सिपाहियों, विद्रोहियों, नवाबों और राजाओं पर मुकदमे चलाए गए और उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया।

चित्र 14-अंग्रेज़ टुकड़ियाँ दिल्ली में घुसने के लिए कश्मीरी गेट को बारूद से उड़ा देती हैं।

विद्रोह के बाद के साल

अंग्रेज़ों ने 1859 के आखिर तक देश पर दोबारा नियंत्रण ‘पा लिया था लेकिन अब वे पहले वाली नीतियों के सहारे शासन नहीं चला सकते थे।

चित्र 15 – अंग्रेज़ टुकड़ियाँ कानपुर के पास विद्रोहियों को पकड़ लेती हैं। ध्यान से देखें कि किस तरह कलाकार ने अंग्रेज़ सिपाहियों को बहादुरी से विद्रोहियों पर धावा बोलते हुए दिखाया है।

अंग्रेज़ों ने जो अहम बदलाव किए वे निम्नलिखित हैं

1. ब्रिटिश संसद ने 1858 में एक नया कानून पारित किया और ईस्ट इंडिया कंपनी के सारे अधिकार ब्रिटिश साम्राज्य के हाथ में सौंप दिए ताकि भारतीय मामलों को ज़्यादा बेहतर ढंग से सँभाला जा सके। ब्रिटिश मंत्रिमंडल के एक सदस्य को भारत मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया। उसे भारत के शासन से संबंधित मामलों को सँभालने का ज़िम्मा सौंपा गया। उसे सलाह देने के लिए एक परिषद् का गठन किया गया जिसे इंडिया काउंसिल कहा जाता था। भारत के गवर्नर-जनरल को वायसराय का ओहदा दिया गया। इस प्रकार उसे इंगलैंड के राजा रानी का निजी प्रतिनिधि घोषित कर दिया गया। फलस्वरूप, अंग्रेज़ सरकार ने भारत के शासन की जिम्मेदारी सीधे अपने हाथों में ले ली।

2. देश के सभी शासकों को भरोसा दिया गया कि भविष्य में कभी भी उनके भूक्षेत्र पर कब्ज़ा नहीं किया जाएगा। उन्हें अपनी रियासत अपने वंशजों, यहाँ तक कि दत्तक पुत्रों को सौंपने की छूट दे दी गई। लेकिन उन्हें इस बात के लिए प्रेरित किया गया कि वे ब्रिटेन की रानी को अपना अधिपति स्वीकार करें। इस तरह, भारतीय शासकों को ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन शासन चलाने की छूट दी गई।

3. सेना में भारतीय सिपाहियों का अनुपात कम करने और यूरोपीय सिपाहियों की संख्या बढ़ाने का फैसला लिया गया। यह भी तय किया गया कि अवध, बिहार, मध्य भारत और दक्षिण भारत से सिपाहियों को भर्ती करने की बजाय अब गोरखा, सिखों और पठानों में से ज़्यादा सिपाही भर्ती किए जाएँगे।

4. मुसलमानों की ज़मीन और संपत्ति बड़े पैमाने पर जब्त की गई। उन्हें संदेह व शत्रुता के भाव से देखा जाने लगा। अंग्रेजों को लगता था कि यह विद्रोह उन्होंने ही खड़ा किया था।

5. अंग्रेज़ों ने फैसला किया कि वे भारत के लोगों के धर्म और सामाजिक रीति-रिवाजों का सम्मान करेंगे।

6. भूस्वामियों और जमींदारों की रक्षा करने तथा ज़मीन पर उनके अधिकारों को स्थायित्व देने के लिए नीतियाँ बनाई गई।

इस प्रकार, 1857 के बाद इतिहास का एक नया चरण शुरू हुआ।

“खुर्दा संग्राम – एक केस स्टडी”

1857 की घटना से बहुत पहले, उसी प्रकार की एक घटना सन् 1817 में खुर्दा नामक स्थान पर घटित हुई थी। हमारे लिए उस घटना का अध्यवन करना और इस बात पर विचार करना भी शिक्षाप्रद होगा कि कैसे अंग्रेज़ों की औपनिवेशिक नीतियों के खिलाफ़ 19वीं सदी की शुरुआत से ही देश के विभिन्न हिस्सों में असंतोष निर्मित होने लगा था।

खुर्दा, जो कि ओडिशा के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित एक छोटा राज्य था, वह 19वीं शताब्दी की शुरुआत में 105 गढ़ों, जिनमें 60 बड़े और 1109 छोटे गांव सम्मिलित थे, एक जनबहुल उपजाऊ क्षेत्र था। इसके शासक, राजा बीरकिशोर देव को स्वः अधिकृत चार परगनाओं को तथा जगन्नाथ मंदिर के संचालन अधिकार समेत 14 गढ़जातों के प्रशासनिक उत्तरदायित्व को पूर्व में दबाव में आकर मराठाओं को सौंप देना पड़ा था। उनके पुत्र तथा उत्तराधिकारी, मुकुंद देव (द्वितीय) इस दुर्दशा से विचलित थे। अतः अंग्रेजों और मराठों के बीच जारी संघर्ष में अपने लिए एक मौका देखते हुए उन्होंने अपने खोए हुए क्षेत्रों तथा जगन्नाथ मंदिर की देखरेख से संबंधित अधिकारों की पुनः प्राप्ति हेतु अंग्रेज़ों के साथ सलाह मशवरा शुरू कर दिया था। परंतु 1803 में आडिशा को अपने कब्ज़ में लेने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें इन दोनों मुद्दों में से किसी पर भी सकारात्मक कार्यवाही करने की दिशा में कोई रुचि नहीं दिखाई। परिणामतः ओडिशा के दूसरे सामंत राजाओं के साथ मिलकर तथा मराठाओं के गुप्त समर्थन से उन्होंने जबरन अपने अधिकारों को लागू करने का प्रयास किया। इसकी वजह से उन्हें अपने पद से विस्थापित होना पड़ा तथा अंग्रेज़ों ने उनके राज्य को अपने में मिला लिया। सांत्वना के रूप में एक नियमित अनुदान के साथ, जो कि उनकी पूर्व भूसंपत्ति के राजस्व का मात्र एक दश्मांस था, अंग्रेजों ने उन्हें जगन्नाथ मंदिर की देखरेख का दायित्व दिया तथा उनका निवास पी में निश्चित कर दिया। इस अनैतिक व्यवस्था से आओडिशा में दमनकारी विदेशी शासन के एक एसे युग का प्रारंभ हुआ जिसने 1817 में एक गंभीर सशस्त्र संग्राम का मार्ग प्रशस्त किया।

खुर्दा को अपने अधीन करने के तुरंत बाद अंग्रेजों ने राजस्व निवृत जमीन पर कर लगाने की नीति अपनाई। इसमें राज्य के पूर्व सैनिक वर्ग, जिन्हें ‘पाइक’ के नाम से जाना जाता था, उनका जीवन बुरी तरह से प्रभावित हुआ। इस नीति की भयावहता राजस्व की माँग में अनुचित वृद्धि और इस संग्रह के दमनकारी तरीकों से और बढ़ गई थी। इस कार्यवाही के फलस्वरूप 1805 और 1817 के बीच में खुर्दा से बड़े पैमाने पर लोग जमीन छोड़कर चले गए। फिर भी अंग्रेज़ों ने अस्थायी बंदोबस्त के तहत राजस्व भुगतान की नीति को चालू रखा जिसमें जमीन की उपजाऊ क्षमता तथा रैयतों की भुगतान की क्षमता की अनदेखी करते हुए हर वर्ष राजस्व की माँगों में वृद्धि की गई। यहाँ तक कि प्राकृतिक आपदाओं के समय में भी कोई उदारता नहीं दिखाई गई जबकि ओडिशा में ऐसी आपदाएँ अकसर आती रहती थीं। बकायादारों की ज़मीन को षड्यंत्रकारी राजस्व अधिकारियों या फिर बंगाल के सट्टेबाज़ों को बेच दिया गया।

खुर्दा के विस्थापित राजा का वंशानुगत सेनानायक, जगबंधु विद्याधर महापात्र भ्रमरवर राय, जिन्हें लोग बक्सी जगबंधु के नाम से जानते थे, वह ऐसे बेदखल हुए जमींदारों में से एक थे। व्यावहारिक रूप से व एक भिखारी बन गए थे। अपने तथा अपने जैसे जमीन से बेदखल हुए लोगों की ओर से संघर्ष करने का निश्चय करने से पूर्व प्रायः दो साल तक उन्होंने खुर्दा के लोगों के स्वैछिक दान से अपना सुजारा किया। बीते हुए वर्ष क साथ-साथ जो तकलीफ़ इन शिकायतों के साथ जुड़ गई थीं, वे थी (क) अंग्रेजों द्वारा इस क्षेत्र में चांदी के सिक्कों का प्रचलन, (ख) इस नई मुद्रा में राजस्व के भुगतान पर जार देना, (ग) स्वाद्य सामग्री की कीमतों में अभूतपूर्व वृद्धि तथा नमक की आपूर्ति में कमी जो कि कंपनी के एकाधिकार नीति के चलते लगभग दुर्लभ हो गया था और जिसके कारण ओडिशा के पारंपरिक रूप से नमक बनाने वाले इस काम से वंचित हो गए थे, और (घ) स्थानीय जमींदारियों की कलकत्ता में नीलामी जिसके कारण ओडिशा में बंगाल के अनुपस्थित जमींदारों का आगमन हुआ। इसके अतिरिक्त असंवेदनशील तथा भ्रष्ट पुलिस प्रशासनिक व्यवस्था ने भी स्थिति को और दुष्कर बना दिया जिसके चलते होने वाले सशस्त्र संग्राम ने और भयावह आकार धारण कर लिया।

29 मार्च, 1817 को इस संग्राम की शुरुआत तब हो गई जब पाइकों ने बानपुर में स्थित पुलिस चौकी और अन्य सरकारी संस्थानों पर हमला कर दिया और सौ से अधिक लोगों की हत्या करने के साथ-साथ सरकारी खजाने में से एक बड़ी रकम लेकर चले गए। शीघ्र ही खुर्दा को केंद्र करते हुए इस घटना की लहर अलग-अलग दिशाओं में फैल गई।

उत्साह से भरपूर जमींदार और रैयत, पाइकों के साथ मिल गए। जो उनके साथ नहीं मिले उन्हें प्रताड़ित किया गया। एक “कर मत दो” अभियान भी शुरू किया गया। अंग्रेजों ने पाइकों को उनके जमे हुए स्थान से हटाने की कोशिश की, परंतु असफल रहे। 14 अप्रैल 1817 को बक्सी जगबंधु ने 5 से 10 हजार पाइको और कंध जनजाति के वोद्धाओं की अगवाही कर पूरी को कब्जे में ले लिया और मुकंद देव (द्वितीय) को उनकी झिझक के बावजूद राजा घोषित कर दिया। जगन्नाथ मंदिर के पुजारियों ने भी पाइका को अपना भरपूर समर्थन प्रदान किया।

स्थिति को हाथ से निकलते हुए देख अंग्रेजों ने “मार्शल लॉ लागू कर दिया। जल्द ही पोषित राना पकडे गए और उन्हें उनके पुत्र सहित कटक में कारावास दे दिया गया। बक्सी ने, अपने करीबी सहयागी, कृष्ण चंद्र भ्रमरवर राय के साथ मिलकर कटक और खुर्दा के बीच वातायात के सारे माध्यम को काटने का प्रयास किया। इसके साथ-साथ संपर्ष ओडिशा के दक्षिण और उत्तर-पश्चिमी हिस्सों में फैल गया। परिणामस्वरूप अंग्रेजों न मेजर जनरल मार्टिनडल का पाइको के चंगुल से पूर क्षेत्र को मुक्त कराने के लिए भेजा तथा बक्सी जगबंधु और उनके साथियों को पकड़वाने के लिए पुरस्कार की भी घाषणा की। इस प्रकार ना सामरिक कार्रवाई चली उसमें सेकड़ों पाइक पार गए, कई घने जंगलों में चल गए और अन्य सामूहिक क्षमा योजना के तहत अपने परा में लोट गए। इस तरह से अंग्रेजों ने मई 1817 तक खुर्दा के संग्राम को लगभग कार में कर लिया।

परंतु खुर्दा के के बाहरी क्षेत्र में बक्सी जगबंधु ने कजंग के राजा जैसे सहयोगी की मदद से और पाइकों के उनके प्रति अटूट निष्ठा के कारण इस संघर्ष को मई 1825 तक जारी रखा, जब उन्होंने अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इसके उपरांत अंग्रेजों ने खुर्दा के लोगों के प्रति अपनी ओर से ‘दयालु, अनुग्रहित और सहनशीलता’ की नीति अपनाई। पुलिस और न्यायिक व्यवस्था में आवश्यक सुधार किया। नमक की कीमतों में कमी की गई। जिन राजस्व अधिकारियों को भ्रष्ट पाया गया उन्हें कार्य से निष्कासित कर दिया और बेदखल जमींदारों को अपनी जमीन लौटा दी गईी दिवंगत खुर्दा के राजा के पुत्र रामचंद्र देव (तृतीय) को स्वतंत्र कर पूरी जाने दिया गया और 26,000 रुपये के अनुदान के साथ उन्हें जगन्नाथ मंदिर की देखरेख का दायित्व भी सौंपा गया। संक्षेप में, यह ओडिशा में अंग्रेजों के विरुद्ध पहला लोकप्रिय सशस्त संघर्ष था जिसका उस क्षेत्र में ब्रिटिश

शासन पर दूरगामी प्रभाव पड़ा। अतः इसे मात्र ‘पाइक विद्रोह’ कहना, इसे कमतर कर आंकना होगा।

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फिर से याद करें

1. झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की अंग्रेज़ों से ऐसी क्या माँग थी जिसे अंग्रेज़ों ने ठुकरा दिया?
Ans.
झाँसी की रानी तक्ष्मीबाई चाहती थी कि अंग्रेज उनके पति की मृत्यु के बाद उनके गोद लिए हुए पुत्र को झाँसी का राजा मान लें, परन्तु अंग्रेजों ने उनकी यह मांग ठुकरा दी।

2. ईसाई धर्म अपनाने वालों के हितों की रक्षा के लिए अंग्रेज़ों ने क्या किया?
Ans.
 1850 में एक नया कानून बनाया गया जिससे ईसाई धर्म को अपनाना और आसान हो गया। इस कानून में प्रावधान किया गया था कि अगर कोई भारतीय व्यक्ति ईसाई धर्म अपनाता है तो उसके पूर्वजों की संपत्ति पर उसका अधिकार पहले जैसे ही रहेगा।

3. सिपाहियों को नए कारतूसों पर क्यों ऐतराज़ था?
Ans.
नए कारतूसों पर ऐतराज का कारण-

1. सिपाहियों को लगता था कि कारतूस पर लगी पट्टी को बनाने में गाय व सुअर की चर्बी का प्रयोग किया गया है।

2. बंदूक में कारतूस लगाने के लिए कारतूस पर लगी पट्टी दाँत से काटनी पड़ती थी।

3. इससे हिंदू एवं मुसलमान सिपाहियों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचती थी।

4. अंतिम मुग़ल बादशाह ने अपने आखिरी साल किस तरह बिताए?
Ans.
सितंबर 1857 में दिल्ली दोबारा अंग्रेज़ों के कब्जे में आ गई। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। उनके बेटों को उनकी आँखों के सामने गोली मार दी गई। बहादुर शाह और उनकी पत्नी बेगम जीनत महल को अक्तूबर 1858 में रंगून जेल में भेज दिया गया। इसी जेल में नवंबर 1862 में बहादुर शाह जफर ने अंतिम साँस ली। इस पर उन्होंने अपने अंतिम साल जेल में घुटः घुट कर गुज़ारे।

आइए विचार करें

5. मई 1857 से पहले भारत में अपनी स्थिति को लेकर अंग्रेज़ शासकों के आत्मविश्वास के क्या कारण थे?
Ans.
अंग्रेज शासकों के आत्मविश्वास के कारण

1. अंग्रेजों की सोच थी कि भारतीय सिपाही उनके विश्वसनीय है, क्योंकि 1857 से पहले उन्होंने भारतीय सिपाहियों की सहायता से कई लड़ाइ‌याँ जीती थीं तथा बड़े बड़े विद्रोह कुचले थे।

2. अंग्रेज शासक जानते थे कि कई स्थानीय राजा व जमींदार उनके शासन का समर्थन करते हैं, क्योंकि स्थानीय शासकों ने अपने हितों की रक्षा के लिए कंपनी के साथ बातचीत की।

3. स्थानीय शासकों की स्वतंत्रता घटती जा रही थी, क्योंकि उनकी सेनाओं को भंग कर दिया गया था। तथा उनके राजस्व वसूलने के अधिकार छीन लिए गए थे।

अतः वे भारत में अपनी स्थिति को लेकर आत्मविश्वास से भरे हुए थे।

अथवा

मई 1857 से पहले भारत में अपनी स्थिति को लेकर अंग्रेज शासकों के आत्मविश्वास के कई कारण थेः

(क) अठारहवीं सदी के मध्य ही देशी राजाओं और नवाबों की शक्ति छिनने लगी थी। उनकी सत्ता और सम्मान, दोनों ही समाप्त होते जा रहे थे। बहुत से देशी राजाओं के दरबार में रेजिडेंट नियुक्त कर दिए गए थे जिससे उनकी स्वतंत्रता घटती जा रही थी। उनकी सेनाओं को भी भंग कर दिया गया था। उनके राजस्व वसूली के अधिकार तथा प्रदेश एक-एक करके छीने जा रहे थे।

(ख) अनेक स्थानीय शासकों ने अपने हितों गई रक्षा के लिए कंपनी के साथ बातचीत भी की। उदाहरण के लिए झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई चाहती थीं कंपनी उनके पति मृत्यु के बाद उनके गोद लिए हुए पुत्र को राजा मान ते। इसी प्रकार पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहिब ने भी कंपनी से निवेदन किया कि उनके पिता को जो पेंशन मिलती है, उनकी मृत्यु के बाद वह उन्हें मिलने लगे। परंतु अपनी श्रेष्ठता और सैनिक शक्ति के नशे में चूर कंपनी ने इन निवेदनों को ठुकरा दिया।

(ग) 1801 में अवध पर एक सहायक संधि थोपी गयी। 1856 में अंग्रेजों ने अवध को अपने अधिकार में ले लिया। गवर्नरः जनरल डलहोजी ने अवध के शासक पर यह आरोप लगाया कि उनके राज्य का शासन ठीक से नहीं चलाया जा रहा है। इसलिए शासन में सुधार लाने के लिए ब्रिटिश प्रभुत्व जरूरी है।

(घ) कंपनी ने मुगलों के शासन को समाप्त करने की भी पूरी योजना बना ली। कंपनी द्वारा जारी किए गए सिक्कों पर से मुराल बादशाह का नाम हटा दिया गया था। 1849 में गवर्नर जनरल डलहोजी ने घोषणा की कि बहादुर शाह जफर की मृत्यु के बाद उनके परिवार को लाल किले से निकाल कर दिल्ली में कहीं ओर बसाया जाएगा।

(ङ) 1856 में गवर्नरः जनरत कैनिंग ने निर्णय लिया कि बहादुर शाह जफर अंतिम मुगल बादशाह होंगे। उनकी मृत्यु के बाद’ बादशाह’ की पदवी समाप्त कर दी जाएगी और उनके किसी भी वंशज को बादशाह नहीं माना जाएगा। उन्हें केवल राजकुमारों के रूप में ही मान्यता दी जाएगी। सच तो यह है कि अपनी बढ़ती हुई शक्ति के साथः साथ अंग्रेज़ी शासकों का आत्मविश्वास भी बढ़ता जा रहा था।

6. बहादुर शाह ज़फ़र द्वारा विद्रोहियों को समर्थन दे देने से जनता और राज-परिवारों पर क्या असर पड़ा?
Ans.
जनता और राज-परिवारों पर प्रभाव:

1. बहादुर शाह जफर के समर्थन से जनता बहुत उत्साहित हुई उनका उत्साह और साहस बढ़ गया। इससे उन्हें आगे बढ़ने की हिम्मत, उम्मीद और आत्मविश्वास मिला।

2. ब्रिटिश शासन के विस्तार से भयभीत बहुत सारे शासकों को लगने लगा कि अब फिर से मुगल बादशाह अपना शासन स्थापित कर लेंगे जिससे वे अपने इलाकों में बेफिक्र होकर शासन चला सकेंगे।

3. विभिन्न ब्रिटिश नीतियों के कारण जिन राज परिवारों ने अपनी सत्ता खो दी थी वे इस खबर से बहुत । खुश थे, क्योंकि उन्हें लगने लगा था कि अब ब्रिटिश राज खत्म हो जाएगा और उन्हें अपनी सत्ता वापस मिल जाएगी।

अथवा

जनता में पहले ही अंग्रेजों की नीतियों के कारण रोष फैला हुआ था। नए कारतूसों की घटना ने सैनिकों के साथ-साथ जनता के रोष को भी बढ़ा दिया था। अंग्रेजों को लगता था कि नए कारतूसों के कारण पैदा हुई उथल पुथल कुछ समय में शांत हो जाएगी। परंतु जब बहादुर शाह जफर ने विद्रोह को अपना समर्थन दे दिया तो स्थिति बदल गई। प्रायः ऐसा होता है कि जब लोगों को कोई रास्ता दिखाई देने लगता है तो उनका उत्साह और साहस बढ़ जाता है। इससे उन्हें आगे बढ़ने के लिए आत्मबल मिलता है और यही हुआ। समाचार फैलते ही स्थान स्थान पर विद्रोह होने लगे। इन्हें कुचलने के लिए अंग्रेजों को अगले दो साल तक संघर्ष करना पड़ा। अंग्रेजों से पहले देश के एक बहुत बड़े भाग पर मुगल साम्राज्य का शासन था। अधिकतर छोटे शासक और रजवाड़े मुगल बादशाह के नाम पर ही अपने-अपने प्रदेश का शासन चलाते थे। अब वे ब्रिटिश शासन के विस्तार से भयभीत थे। वे सोचते थे कि यदि मुगल बादशाह दोबारा शासन स्थापित कर लें तो वे मुगल आधिपत्य में दोबारा अपने प्रदेश का शासन निश्चित होकर चलाने लगेंगे। अतः वे भी विद्रोह के समर्थक बन गए।

7. अवध के बागी भूस्वामियों से समर्पण करवाने के लिए अंग्रेजों ने क्या किया ?
Ans.
अंग्रेजों ने अवध के बागी भूस्वामियों से समर्पण करवाने के लिए निम्नलिखिति प्रयास किए :-

• अंग्रेजों ने कहा कि जो भूस्वामी वफादार रहेगा उनको इनाम दिया जायेगा।

• जो भूस्वामी विद्रोह में भाग लें चुके थे। उन्हें विद्रोह से बाहर निकलने को कहा गया। अगर वे विद्रोह नहीं करेंगे तो जमीन पर उनको पूरा अधिकार दे दिया जायेगा।

• अगर किसी भूस्वामियों ने अंग्रेजी अधिकारी की हत्या नहीं की है तो वे सुरक्षित रहेंगे।

• आखिरी में अंग्रेज जिन भूस्वामियों दबा नहीं पाए तो उन पर केस चला दिया। अंत में काफी भूस्वामियों को फांसी पर लटका दिया।

8. 1857 की बात के फलस्वरूप अंग्रेजों ने अपनी नीतियाँ किस तरह बदली ?
Ans.
 1857 की बगावत के बाद अंग्रेजों ने अपनी नीतियों में कई बदलाव किए, जिनमें से कुछ नीचे दिए गए हैं।

भारत के शासन को सीधा ब्रिटिश क्राउन के तहत कर दिया गया। भारत में गवर्नर जेनरल की जगह वाईसरॉय को नियुक्त किया गया।

ब्रिटिश पार्लियामेंट में भारत के शासन की देखरेख के लिए इंडिया काउंसिल बनाया गया।

स्थानीय राजाओं और नवाबों को कहा गया कि भविष्य में कभी भी उनके इलाकों पर कब्जा नहीं किया जायेगा। • स्थानीय धार्मिक और सामाजिक रीति रिवाजों को सम्मान देने की नीति अपनाई गई।

अथवा

(1) ब्रिटिश संसद ने 1858 में एक नया कानून पारित किया। इसके अनुसार ईस्ट इंडिया कंपनी के सभी अधिकार ब्रिटिश सम्राट को सौंप दिए गए, ताकि भारतीय मामलों से बेहतर ढंग से निपटा जा सके। ब्रिटिश मंत्रिमंडल के एक सदस्य को भारत मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया। उसे भारत के शासन से संबंधित मामलों को सँभालने की जिम्मेदारी सौंपी गई। उसे सलाह देने के लिए एक परिषद् बनाई गई जिसे इंडिया काउंसिल कहा जाता था। भारत के गवर्नर-जनरल को वायसराय का पद दिया गया और उसे इंग्लैंड के राजा या रानी का निजी प्रतिनिधि घोषित कर दिया गया। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार ने भारत के शासन की जिम्मेदारी सीधे अपने हाथों में ते ती।

(2) देश के सभी शासकों को भरोसा दिलाया गया कि भविष्य में कभी भी उनके भूक्षेत्र पर अधिकार नहीं किया जाएगा। उन्हें अपनी रियासत अपने वंशजों, यहाँ तक कि दत्तक पुत्रों को सौंपने को भी छूट दे दी गई। परंतु उन्हें इस बात के लिए प्रेरित किया गया कि वे ब्रिटेन की रानी को अपना अधिपति स्वीकार करें। भारतीय शासकों को ब्रिटिश शासन के अधीन शासन चलाने की छूट दे दी गई।

(3) सेना में भारतीय सिपाहियों का अनुपात कम करने और यूरोपीय सिपाहियों की संख्या के निर्णय लिया गया। यह भी

निश्चित किया गया कि अवध, बिहार, मध्य भारत और दक्षिण भारत से सिपाहियों को की बजाय अब गोरखा, सिखों और

पठानों में से अधिक सिपाही भर्ती किए जाएँगे।

(4) मुसलमानों की जमीन और संपत्ति बड़े पैमाने पर जब्त की गई। उन्हें शत्रुता की दृष्टि से देखा जाने लगा। अंग्रेजों को लगता था कि 1857 का विद्रोह मुसलमानों ने ही खड़ा किया है।

(5) अंग्रेजों ने निर्णय लिया कि वे भारतीय धर्मों ओर सामाजिक रिवाजों का सम्मान करेंगे।

(6) भू-स्वामियों और जमींदारों की रक्षा करने तथा जमीन पर उनके को बनाये रखने के लिए नई नीतियाँ बनाई गई।

इस प्रकार, 1857 के बाद भारत में अंग्रेजी शासन के इतिहास का एक नया चरण आरंभ हुआ।

9. पता लगाएँ कि सन सत्तावन की लड़ाई के बारे में आपके इलाके या आपके परिवार के लोगों को किस तरह की कहानियों और गीत याद है? इस महान विद्रोह से संबंधित कौन सी यादें अभी लोगों को उत्तेजित करती हैं?
Ans.
छात्र प्रश्न का उत्तर खुद लिखें।

10. झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के बारे में और पत्ता लगाएँ। आप उन्हें अपने समय की विलक्षण महिला क्यों मानते है?
Ans.
रानी लक्ष्मीबाई भारत के स्वतंत्रता संग्राम की चिंताओं में से एक थीं। उसकी माँ की मृत्यु के बाद उसके पिता ने उसे पाता था। उन्होंने तीरंदाजी, तलवारबाजी, आत्मरक्षा और अन्य कौशल सीखने में उनका समर्थन और प्रोत्साहित किया। उन्होंने झांसी के राजा गंगाधर राव नेवालकर से शादी की। उसके बेटे की उसके जन्म के कुछ महीनों बाद मृत्यु हो गई। उन्होंने गंगाधर राव के चचेरे भाई के बेटे को गोद लिया। राजा की मृत्यु के बाद, उनके दत्तक पुत्र दामोदर राव को उनका उत्तराधिकारी माना जाता था। लेकिन तब अंग्रेजों ने गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी के अधीन उन्हें झांसी के उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता देने की उनकी मांग को खारिज कर दिया और झांसी पर कब्जा कर लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी पर प्रभुत्व नहीं छोड़ने का फैसला किया। वह तांतिया टोपे और नाना साहब के समर्थन से 1857 के विद्रोह में शामिल हुईं। उसने अपने बेटे को पीठ पर बांधकर बहादुरी से लड़ाई लड़ी। 1858 में राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए बहादुरी से लड़ते हुए उनकी मृत्यु हो गई। लक्ष्मीबाई अपने समय की असाधारण महिला थीं। वह बचपन से ही बहादुर थी और उसने एक सैनिक के सभी कोशत सीखे थे। अपने जीवन के अंतिम क्षण तक उन्होंने कभी भी ब्रिटिश शासन के खिलाफ हार मानने को स्वीकार नहीं किया। अपनी मृत्यु के बाद भी वह अंग्रेजों द्वारा कब्जा नहीं करना बाहती थी और उनकी इच्छा के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया गया था। आज के दौर में ऐसी महिलाएं कहा है। वो अपने समय और अपने समय की भी एक प्रेरणादायक महिला रही है।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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