क्या आपने कभी सोचा है कि दो सौ साल पहले बच्चों की ज़िंदगी कैसी रही होगी? आजकल मध्यवर्गीय परिवारों की ज़्यादातर लड़कियाँ स्कूल जाती हैं और उनमें से बहुत सारी लड़कों के साथ पढ़ती हैं। बड़ी होने पर उनमें से बहुत सारी लड़कियाँ कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में जाती हैं और विभिन्न प्रकार की नौकरियाँ करती हैं। कानूनन शादी के लिए उनका बालिग होना ज़रूरी है और कानून के अनुसार, वे किसी भी जाति व समुदाय के व्यक्ति से शादी कर सकती हैं। यहाँ तक कि विधवाएँ भी दोबारा शादी कर सकती हैं। पुरुषों की तरह सभी महिलाएँ वोट डाल सकती हैं और चुनाव लड़ सकती हैं। बेशक, सभी महिलाएँ इन अधिकारों का उपभोग नहीं कर पातीं। गरीबों को शिक्षा के मौके मुश्किल से मिलते हैं, कम मिलते हैं या मिल ही नहीं पाते। बहुत सारे परिवारों में लड़कियाँ अपनी इच्छानुसार पति भी नहीं चुन सकतीं। दो सौ साल पहले हालात बहुत भिन्न थे। ज़्यादातर बच्चों की शादी बहुत कम उम्र में ही कर दी जाती थी। हिंदू व मुसलमान, दानों धर्मों के पुरुष एक से ज्यादा पत्नियां रख सकते थे।
चित्र 1 – सती, बालथाज़र सॉल्विन द्वारा बनाया गया चित्र, 1813.
भारत आने वाले यूरोपीय चित्रकारों द्वारा बनाई गई सती की बहुत सारी तसवीरों में से यह एक है। सती प्रथा को पूर्वी समाजों की बर्बरता के सबूत के तौर पर देखा जाता था।
देश के कुछ भागों में विधवाओं से ये उम्मीद की जाती थी कि वे अपने पति की चिता के साथ ही जिंदा जल जाएँ। इस तरह स्वेच्छा से या ज़बरदस्ती मार दी गई महिलाओं को “सती” कहकर महिमामंडित किया जाता था। ‘सती’ शब्द का अर्थ ही सदाचारी महिला था। संपत्ति पर भी महिलाओं के अधिकार बहुत सीमित थे। शिक्षा तक महिलाओं की प्रायः कोई पहुँच नहीं थी। देश के बहुत सारे भागों में लोगों का विश्वास था कि अगर औरत पढ़ी-लिखी होगी तो वह जल्दी विधवा हो जाएगी।
समाज में सिर्फ़ स्त्रियों और पुरुषों के बीच ही फ़र्क नहीं था। ज़्यादातर इलाकों में लोग जातियों में भी बँटे हुए थे। ब्राह्मण और क्षत्रिय खुद को “ऊँची जाति” का मानते थे। इसके बाद व्यापार और महाजनी आदि से जुड़ी जातियों (जिन्हें प्रायः वैश्य कहा जाता था) का स्थान आता था। फिर काश्तकार, बुनकर व कुम्हार जैसे दस्तकार आते थे (जिन्हें शूद्र कहा जाता था)। इस श्रेणीक्रम की सबसे निचली पायदान पर ऐसी जातियाँ थीं जो गाँवों-शहरों को साफ़-सुथरा रखती थीं या ऐसे काम धंधे करती थीं जिन्हें ऊँची जातियों के लोग “दूषित कार्य” मानते थे यानी ऐसे काम जिनकी वजह से उनकी जाति ‘भ्रष्ट’ हो जाती थी। ऊँची जातियाँ निचले पायदान पर खड़ी इन जातियों के लोगों को “अछूत” मानती थीं। इन लोगों को मंदिरों में प्रवेश करने, सवर्ण जातियों के इस्तेमाल वाले कुओं से पानी निकालने या ऊँची जातियों के आधिपत्य वाले घाट-तालाबों पर नहाने की छूट नहीं होती थी। उन्हें निम्न दर्जे का मनुष्य माना जाता था। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के दौरान इनमें से बहुत सारे कायदे-कानून और नज़रिये धीरे-धीरे बदलते गए। आइए देखें कि ऐसा कैसे हुआ।
परिवर्तन की दिशा में उठते कदम
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से ही हमें सामाजिक रीति-रिवाज़ों और मूल्य-मान्यताओं से संबंधित बहस-मुबाहिसे और चर्चाओं का स्वरूप बदलता दिखाई देता है। इसकी एक अहम वजह यह थी कि संचार के नए तरीके विकसित हो रहे थे। पहली बार किताबें, अख़बार, पत्रिकाएँ, पर्चे और पुस्तिकाएँ छप रही थीं। ये चीजें न केवल पुराने साधनों के मुकाबले सस्ती थीं बल्कि उन पांडुलिपियों के मुकाबले ज़्यादा लोगों की पहुँच में भी थीं जिनके बारे में आप कक्षा 7 में पढ़ चुके हैं। लिहाज़ा, आम लोग भी उन चीज़ों को पढ़ सकते थे। उनमें से बहुत सारे अपनी भाषाओं में लिख सकते थे और अपने विचार व्यक्त कर सकते थे। नए शहरों में तमाम तरह के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और धार्मिक मुद्दों पर पुरुषों (और कभी-कभी महिलाओ) के बीच चर्चा होती रहती थी। ये चर्चाएँ आम जनता तक पहुँच सकती थीं और सामाजिक परिवर्तन के आंदोलनों से जुड़ी होती थीं। इस तरह की बहसें अकसर भारतीय सुधारकों और सुधार संगठनों की तरफ़ से शुरू होती थीं। राजा राममोहन रॉय (1772-1833) इसी तरह के एक सुधारक थे। उन्होंने कलकत्ता में ब्रह्मो सभा के नाम से एक सुधारवादी संगठन बनाया था (जिसे बाद में ब्रह्मो समाज के नाम से जाना गया)। राममोहन रॉय जैसे लोगों को सुधारक इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे मानते थे कि समाज में परिवर्तन लाना और अन्यायपूर्ण तौर-तरीकों से छुटकारा पाना ज़रूरी है। उनका विचार था कि इस तरह के परिवर्तन लाने के लिए लोगों को इस बात के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए कि वे पुराने व्यवहार को छोड़कर जीवन का नया ढंग अपनाने के लिए तैयार हों।
राममोहन रॉय देश में पश्चिमी शिक्षा का प्रसार करने और महिलाओं के लिए ज़्यादा स्वतंत्रता व समानता के पक्षधर थे। उन्होंने इस बारे में लिखा है कि किस तरह महिलाओं को जबरन घरेलू कार्यों से बाँधकर रखा जाता था, उनकी दुनिया घर और रसोई तक ही सीमित कर दी जाती थी और उन्हें बाहर जांकर पढ़ने-लिखने की इजाज़त नहीं दी जाती थी।
विधवाओं की ज़िंदगी में बदलाव लाने की कोशिश
राममोहन रॉय इस बात से काफी दुखी थे कि विधवा औरतों को अपनी ज़िंदगी में भारी कष्टों का सामना करना पड़ता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने सती प्रथा के खिलाफ़ मुहिम छेड़ी थी।
चित्र 2 – राजा राममोहन रॉय, रेमब्रांट पील द्वारा बनाया गया चित्र, 1833.
राममोहन रॉय संस्कृत, फ़ारसी तथा अन्य कई भारतीय एवं यूरोपीय भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे। उन्होंने अपने लेखन के ज़रिए यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि प्राचीन ग्रंथों में विधवाओं को जलाने की अनुमति कहीं नहीं दी गई है। जैसा कि आपने अध्याय 6 में पढ़ा है, उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ तक बहुत सारे अंग्रेज़ अफ़सर भी भारतीय परंपराओं और रीति-रिवाज़ों की आलोचना करने लगे थे। वे राममोहन रॉय के विचारों को सही मानते थे क्योंकि उनकी एक विद्वान व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठा थी। फलस्वरूप, 1829 में सती प्रथा पर पाबंदी लगा दी गई।
राममोहन रॉय ने इस अभियान के लिए जो रणनीति अपनाई उसे बाद के सुधारकों ने भी अपनाया। जब भी वे किसी हानिकारक प्रथा को चुनौती देना चाहते थे तो अकसर प्राचीन धार्मिक ग्रंथों से ऐसे श्लोक या वाक्य ढूँढ़ने का प्रयास करते थे जो उनकी सोच का समर्थन करते हों। इसके बाद वे दलील देते थे कि संबंधित वर्तमान रीति-रिवाज़ प्रारंभिक परंपरा के खिलाफ़ हैं।
चित्र 3 – कुंडों पर झूलने का त्योहार।
इस लोकप्रिय त्योहार में भक्त पारंपरिक अनुष्ठानों के तहत अजीब तरह से कष्ट सहने का अभ्यास करते थे। वे अपनी खाल में कुंडा भेदकर एक झूले पर लटक जाते थे। उन्नीसवीं शताब्दी के पर्वार्ध में जब यूरोपीय अफ़सरों ने भारतीय रीति-रिवाज़ों और अनुष्ठानों को बर्बर कहकर उनकी आलोचना शुरू की तो इस त्योहार की ख़ासतौर से आलोचना की गई।
“पहले हम उन्हें लकड़ियों में बाँध देते हैं”
राममोहन रॉय ने अपने विचारों का प्रसार करने के लिए बहुत सारे पर्चे लिखे थे। इनमें से कुछ पर्चे किसी ख़ास रिवाज़ के समर्थक और आलोचकों के बीच बहस के रूप में लिखे गए थे। सती प्रथा के बारे में इसी तरह का एक उदाहरण देखिए-
सती समर्थक
औरतें कुदरती तौर पर कम समझदार, बिना दृढ़ संकल्प वाली, भरोसे के योग्य नहीं होती हैं। … उनमें से बहुत सारी खुद ही अपने पति की मृत्यु के बाद उसके साथ जाने की कामना करने लगती हैं; परंतु वे कहीं धधकती आग से भाग न निकलें, इसलिए पहले हम उन्हें चिता की लकड़ियों में कस कर बाँध देते हैं।
सती विरोधी
आप लोगों ने महिलाओं को अपनी स्वाभाविक क्षमता का प्रदर्शन करने का सही मौका ही कब दिया? फिर भला तुम ये कैसे कह सकते हो कि उनमें समझ नहीं होती? अगर ज्ञान और शिक्षा के बाद भी कोई व्यक्ति न समझ सकता हो या पढ़ाई गई चीज़ों को ग्रहण न कर पाए तो हम उसे अक्षम मान सकते हैं; परंतु अगर तुम औरतों को पढ़ने का मौका ही नहीं दोगे तो तुम उन्हें कमतर कैसे कह सकते हो !
उदाहरण के लिए, प्रसिद्ध सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने भी विधवा विवाह के पक्ष में प्राचीन ग्रंथों का ही हवाला दिया था। अंग्रेज़ सरकार ने उनका यह सुझाव मान लिया और 1856 में विधवा विवाह के पक्ष में एक कानून पारित कर दिया। जो विधवाओं के विवाह का विरोध करते थे उन्होंने विद्यासागर का भी विरोध किया और यहाँ तक कि उनका बहिष्कार कर दिया।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक विधवा विवाह के पक्ष में चलाया जा रहा आंदोलन देश के अन्य भागों में भी फैल गया था। मद्रास प्रेज़ीडेंसी के तेलुगू भाषी इलाकों में वीरेशलिंगम पंतुलु ने विधवा विवाह के समर्थन में एक संगठन बनाया था। लगभग उसी समय बम्बई में युवा बुद्धिजीवियों और सुधारकों ने भी विधवा विवाह के प्रचार-प्रसार का संकल्प लिया। उत्तर में आर्य समाज की स्थापना करने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी विधवा विवाह का समर्थन किया।
चित्र 4 – स्वामी दयानंद सरस्वती। दयानंद ने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की थी। आर्य समाज ने हिंदू धर्म को सुधारने का प्रयास किया था।
इसके बावजूद विवाह करने वाली विधवा महिलाओं की संख्या काफ़ी कम थी। विवाह करने वाली विधवाओं को समाज में आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता था। इस तरह, रूढ़िवादी तबके इस नए कानून का विरोध करते रहे।
लड़कियाँ स्कूल जाने लगती हैं
बहुत सारे सुधारकों को लगता था कि महिलाओं की दशा सुधारने के लिए लड़कियों को शिक्षित करना ज़रूरी है।
कलकत्ता में विद्यासागर और बम्बई में बहुत सारे अन्य सुधारकों ने लड़कियों के लिए स्कूल खोले। उन्नीसवीं सदी के मध्य में जब इस तरह के प्रारंभिक स्कूल खुले तो बहुत सारे लोग उनसे डरते थे। लोगों को भय था कि स्कूल वाले लड़कियों को घर से निकाल ले जाएँगे और उन्हें घरेलू कामकाज नहीं करने देंगे। स्कूल जाने के लिए लड़कियों को सार्वजनिक स्थानों से गुज़र कर जाना पड़ता था। बहुत सारे लोगों को लगता था कि इससे लड़कियाँ बिगड़ जाएँगी। उनकी मान्यता थी कि लड़कियों को सार्वजनिक स्थानों से दूर रहना चाहिए। फलस्वरूप, उन्नीसवीं सदी में पढ़ने-लिखने वाली ज़्यादातर महिलाओं को उनके उदार विचारों वाले पिता या पति की देखरेख में घर पर ही पढ़ाया जाता रहा। कई महिलाओं ने बिना किसी की मदद लिए खुद ही पढ़ना-लिखना सीखा। क्या आपको याद है पिछले साल की सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन पुस्तक में आपने राशसुंदरी देबी के बारे में क्या पढ़ा था? वे ऐसी महिलाओं में से थीं जिन्होंने रात में दीये की टिमटिमाती लौ में चोरी-छिपे ही लिखना-पढ़ना सीखा था।
उन्नीसवीं सदी के आखिरी हिस्से में आर्य समाज द्वारा पंजाब में और ज्योतिराव फुले द्वारा महाराष्ट्र में लड़कियों के लिए स्कूल खोले गए।
चित्र 6 – हिंदू महाविद्यालय की छात्राएँ, 1875.
उन्नीसवीं शताब्दी में जब लड़कियों के लिए स्कूल खोले गए तो आमतौर पर माना जाता था कि लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई लड़कों की पढ़ाई-लिखाई से कम सख्त होनी चाहिए। हिंदू महिला विद्यालय ऐसे शुरुआती संस्थानों में से था जहाँ वही शिक्षा दी जाती थी जो उस समय लड़कों को दी जा रही थी।
उत्तर भारत के कुलीन मुस्लिम परिवारों की महिलाएँ अरबी में कुरान शरीफ़ पढ़ना सीखने लगीं। उन्हें घर पर ही पढ़ाने के लिए शिक्षिकाएँ रखी जाती थीं। इस स्थिति को देखते हुए मुमताज़ अली जैसे कुछ सुधारकों ने कुरान शरीफ़ की आयतों का हवाला देकर कहा कि महिलाओं को भी शिक्षा का अधिकार मिलना चाहिए। उन्नीसवीं सदी के आख़िर से ही उर्दू में उपन्यासों का सिलसिला शुरू हुआ। इन उपन्यासों में महिलाओं को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाता था कि वे धर्म और घरेलू साज-सँभाल के बारे में पढ़ें।
महिलाओं के बारे में महिलाएँ लिखने लगीं
बीसवीं सदी की शुरुआत से ही बहुत सारी मुस्लिम महिलाओं ने महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अहम भूमिका अदा की। जैसे, भोपाल की बेगमों ने अलीगढ़ में लड़कियों के लिए प्राथमिक स्कूल खोला। बेगम रुकैया सखावत हुसैन भी इस दौर की एक प्रभावशाली महिला थीं जिन्होंने कलकत्ता और पटना में मुस्लिम लड़कियों के लिए स्कूल खोले। वह रूढ़िवादी विचारों की कटु आलोचक थीं और उनका मानना था कि प्रत्येक धर्म के धार्मिक नेताओं ने औरतों को निचले दर्जे में रखा है।
1880 के दशक तक आते-आते भारतीय महिलाएँ विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने लगी थीं। उनमें से कुछ चिकित्सक और कुछ शिक्षिका बन गईं। बहुत सारी महिलाएँ लिखने लगीं और उन्होंने समाज में महिलाओं की स्थिति पर अपने आलोचनात्मक विचार प्रकाशित किए। पूना में घर पर ही रहकर शिक्षा प्राप्त करने वाली तारांबाई शिंदे ने स्त्रीपुरुषतुलना नाम से एक किताब प्रकाशित की जिसमें पुरुषों और महिलाओं के बीच मौजूद सामाजिक फ़र्कों की आलोचना की गई थी।
संस्कृत की महान विद्वान पंडिता रमाबाई का मानना था कि हिंदू धर्म महिलाओं का दमन करता है। उन्होंने ऊँची जातियों की हिंदू महिलाओं की दुर्दशा पर एक किताब भी लिखी थी। उन्होंने पूना में एक विधवागृह की स्थापना की जहाँ ससुराल वालों के हाथों अत्याचार झेल रही महिलाओं को पनाह दी जाती थी। वहाँ महिलाओं को ऐसी चीजें सिखाई जाती थीं जिनके सहारे वे अपनी रोजी-रोटी चला सकें।
ज़ाहिर है कि इन सब बातों से रूढ़िवादी खेमे के लोग काफ़ी आग-बबूला हुए। उदाहरण के लिए, बहुत सारे हिंदू राष्ट्रवादियों को लगने लगा था कि हिंदू महिलाएँ पश्चिमी तौर-तरीके अपना रही हैं जिससे हिंदू संस्कृति भ्रष्ट होगी और पारिवारिक संस्कार नष्ट हो जाएँगे। रूढ़िवादी मुसलमान भी इन बदलावों के नतीजों को लेकर चिंतित थे।
जैसा कि आप देख सकते हैं, उन्नीसवीं सदी के आखिर तक खुद महिलाएँ भी सुधारों के लिए बढ़-चढ़ कर प्रयास करने लगी थीं। उन्होंने किताबें लिखीं, पत्रिकाएँ निकालीं, स्कूल और प्रशिक्षण केंद्र खोले तथा महिलाओं को संगठित किया। बीसवीं सदी की शुरुआत से वे महिलाओं को मताधिकार, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ और शिक्षा के अधिकार के बारे में कानून बनवाने के लिए राजनीतिक दबाव समूह बनाने लगी थीं। उनमें से कुछ महिलाओं ने 1920 के दशक के बाद विभिन्न प्रकार के राष्ट्रवादी और समाजवादी आंदोलनों में हिस्सा भी लिया।
बीसवीं शताब्दी में, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस जैसे नेताओं ने महिलाओं के लिए और अधिक स्वतंत्रता व समानता की माँगों का समर्थन किया। राष्ट्रीय नेताओं ने आश्वासन दिया कि स्वतंत्रता मिलने पर सभी पुरुषों व महिलाओं को वोट डालने का अधिकार दे दिया जाएगा। परंतु उनका आह्वान था कि जब तक स्वतंत्रता नहीं मिल जाती तब तक महिलाओं को अंग्रेज़ी राज विरोधी संघर्ष में ही ज़ोर लगाना चाहिए।
बाल विवाह के विरुद्ध कानून
महिला संगठनों के विकास तथा इन मुद्दों पर हो रहे लेखन की वजह से सुधारों के पक्ष में आवाज़ और मज़बूत हुई। लोग बाल विवाह जैसी स्थापित परंपराओं को चुनौती देने लगे। केंद्रीय विधान सभा में बहुत सारे सांसद थे जिन्होंने बाल विवाह पर पाबंदी हेतु कानून बनाने के लिए संघर्ष किया। 1929 में बाल विवाह निषेध अधिनियम पारित किया गया। इस कानून के बारे में वैसी कड़वी बहसें और संघर्ष नहीं हुए जैसे पुराने सुधारवादी कानूनों के बारे में हुए थे। इस कानून के अनुसार 18 साल से कम उम्र के लड़के और 16 साल से कम उम्र की लड़की की शादी नहीं की जा सकती। बाद में, यह उम्र बढ़ाकर क्रमशः 21 साल व 18 साल कर दी गई।
चित्र 8 – आठ साल की दुल्हन ।
यह बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में एक बाल वधू का चित्र है। क्या आपको पता है कि आज भी हमारे देश में 20 प्रतिशत से ज़्यादा लड़कियों की शादी 18 साल से पहले ही हो जाती है?
जाति और समाज सुधार
हमने अभी जिन समाज सुधारकों का ज़िक्र किया है उनमें से कई जातीय गैर-बराबरी के भी विरोधी थे। राममोहन रॉय ने जाति व्यवस्था की आलोचना करने वाले एक पुराने बौद्ध ग्रंथ का अनुवाद किया। प्रार्थना समाज भक्ति परंपरा का समर्थक था जिसमें सभी जातियों की आध्यात्मिक समानता पर जोर दिया गया था। जाति उन्मूलन के लिए काम करने के लिए बम्बई में 1840 में परमहंस मंडली का गठन किया गया। इन सुधारकों और सुधार संगठनों के सदस्यों में से बहुत सारे ऊँची जातियों के लोग थे। गुप्त बैठकों में ये सुधारक भोजन और स्पर्श जैसे मामलों में जातीय कायदे-कानूनों का उल्लंघन करते थे जिससे अपने जीवन में भी जातीय पूर्वाग्रहों और बंधनों से निजात पा सकें।
कई लोग ऐसे थे जो जाति आधारित समाज व्यवस्था में होने वाले अन्याय के विरुद्ध थे। उन्नीसवीं सदी में ईसाई प्रचारक आदिवासी समुदायों और “निचली” जातियों के बच्चों के लिए स्कूल खोलने लगे थे। इस प्रकार, इन बच्चों को बदलती दुनिया में अपना रास्ता ढूँढ़ने के नए साधन मिलने लगे थे।
चित्र 9 – एक कुली जहाज़, उन्नीसवीं शताब्दी।
जॉन एलेन नामक इस कुली जहाज़ के द्वारा भारतीय मज़दूरों को मॉरिशस ले जाया जाता था जहाँ उन्हें तरह-तरह के कठोर काम करने पड़ते थे। इनमें से ज़्यादातर मज़दूर निचली जातियों के होते थे।
उसी समय बहुत सारे गरीब लोग शहरों में निकल रही नई नौकरियों की तलाश में गाँव छोड़कर भी जा रहे थे। नए कारखानों और नगरपालिकाओं में नई नौकरियाँ निकल रही थीं। कल्पना कीजिए कि इससे मज़दूरी की कितनी माँग पैदा हुई होगी। शहरों में नालियाँ बनाई जानी थीं, सड़कें बिछनी थीं, इमारतों का निर्माण होना था और शहरों को साफ़ किया जाना था। इसके लिए कुलियों, खुदाई करने वालों, बोझा ढोने वालों, ईंट बनाने वालों, नालियाँ साफ़ करने वालों, सफ़ाईकर्मियों, पालकी ढोने वालों, रिक्शा खींचने वालों की ज़रूरत थी। यह श्रम कहाँ से आया? इन कामों को सँभालने के लिए गाँवों और छोटे कस्बों के गरीब शहरों की तरफ़ जाने लगे जहाँ मज़दूरी की माँग पैदा हो रही थी। शहर जाने वालों में से बहुत सारे “निम्न” जातियों के लोग भी थे। कुछ लोग असम, मॉरिशस, त्रिनीदाद और इंडोनेशिया आदि स्थानों पर बागानों में काम करने भी चले गए। नए स्थानों पर काम अकसर बहुत कठोर था। परंतु गरीबों, निचली जातियों के लोगों को यह गाँवों में सवर्ण ज़मींदारों द्वारा उनके जीवन पर दमनकारी कब्ज़े और दैनिक अपमान से छूट निकलने का एक मौका था।
चित्र 11 – गुजरात के दुबला समुदाय के लोग बाज़ार के लिए आम ढोकर ले जा रहे हैं। दुबला मज़दूर सवर्ण ज़मींदारों के पास मज़दूरी करते थे। वे उनके खेत सँभालते थे और ज़मींदार के घर-आँगन में तमाम छोटे-बड़े काम करते थे।
इसके अलावा दूसरी तरह की नौकरियाँ भी सामने आ रही थीं। उदाहरण के लिए सेना में भी लोगों की ज़रूरत बढ़ गई थी। अछूत माने जाने वाले महार समुदाय के बहुत सारे लोगों को महार रेजीमेंट में नौकरी मिल गई। दलित आंदोलन के नेता बी. आर. अम्बेडकर के पिता एक सैनिक स्कूल में ही पढ़ाते थे।
समानता और न्याय की माँग
उन्नीसवीं सदी के दूसरे हिस्से तक गैर-ब्राह्मण जातियों के भीतर से भी लोग जातीय भेदभाव के खिलाफ़ आवाज़ उठाने लगे थे। उन्होंने सामाजिक समानता और न्याय की माँग करते हुए आंदोलन शुरू कर दिए थे।
मध्य भारत में सतनामी आंदोलन की शुरुआत घासीदास ने की, जिन्होंने चमड़े का काम करने वालों को संगठित किया और उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए आंदोलन छेड़ दिया। पूर्वी बंगाल में हरिदास ठाकुर के मतुआ पंथ ने चांडाल काश्तकारों के बीच काम किया। हरिदास ने जाति व्यवस्था को सही ठहराने वाले ब्राह्मणवादी ग्रंथों पर सवाल उठाया। जिसे आज केरल कहा जाता है, वहाँ ऐझावा जाति के श्री नारायण गुरु ने अपने लोगों के बीच एकता का आदर्श रखा। उन्होंने जातिगत भिन्नता के आधार पर लोगों के बीच भेदभाव करने का विरोध किया। उनके अनुसार सारी मानवता की एक ही जाति है। उनका एक महत्त्वपूर्ण कथन था ‘ओरु जाति, ओरु मतम्, ओरु देवम मनुष्यानु’ (मानवता की एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर)। इन सभी पंथों की स्थापना ऐस लागां ने की थी जो गैर-ब्राह्मण जातियों से थे और उनके बीच ही काम करते थे। उन्होंने उन आदतों और तौर-तरीकों को बदलने का प्रयास किया जो प्रभुत्वशाली जातियों का अपमान करने के लिए उकसाती थीं। उन्होंने अधीनस्थ जातियों में स्वाभिमान का भाव पैदा करने का प्रयास किया।
गुलामगीरी
“निम्न जाति” नेताओं में ज्योतिराव फुले सबसे मुखर नेताओं में से थे। 1827 में जन्मे ज्योतिराव फुले ने ईसाई प्रचारकों द्वारा खोले गए स्कूलों में शिक्षा पाई थी। बड़े होने पर उन्होंने जाति आधारित समाज में फैले अन्याय के बारे में अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने ब्राह्मणों के इस दावे पर खुलकर हमला बोला कि आर्य होने के कारण वे औरों से श्रेष्ठ हैं। फुले का तर्क था कि आर्य विदेशी थे, जो उपमहाद्वीप के बाहर से आए थे और उन्होंने इस मिट्टी के असली वारिसों आर्यों के आने से पहले यहाँ रह रहे मूल निवासियों – को हराकर उन्हें गुलाम बना लिया था। जब आर्यों ने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया तो वे पराजित जनता को नीच, निम्न जाति वाला मानने लगे। फुले के अनुसार, “ऊँची” जातियों का उनकी ज़मीन और सत्ता पर कोई अधिकार नहीं है- यह धरती यहाँ के देशी लोगों की, कथित निम्न जाति के लोगों की है।
फुले ने दावा किया कि आर्यों के शासन से पहले यहाँ स्वर्ण युग था। तब योद्धा-किसान ज़मीन जोतते थे और मराठा देहात पर न्यायसंगत और निष्पक्ष तरीके से शासन करते थे। उन्होंने सुझाव दिया कि शूद्रों (श्रमिक जातियाँ) और अतिशूद्रों (अछूत) को जातीय भेदभाव ख़त्म करने के लिए संगठित होना चाहिए। फुले द्वारा स्थापित किए गए सत्यशोधक समाज नामक संगठन ने जातीय समानता के समर्थन में मुहिम चलाई।
1873 में फुले ने गुलामगीरी (गुलामी) नामक एक किताब लिखी। इससे लगभग दस साल पहले अमेरिकी गृह युद्ध हो चुका था जिसके फलस्वरूप अमरीका में दास प्रथा ख़त्म कर दी गई थी। फुले ने अपनी पुस्तक उन सभी अमरीकियों को समर्पित की जिन्होंने गुलामों को मुक्ति दिलाने के लिए संघर्ष किया था। इस तरह उन्होंने भारत की “निम्न” जातियों और अमरीका के काले गुलामों की दुर्दशा को एक-दूसरे से जोड़ दिया।
जैसा कि इस उदाहरण से पता चलता है, फुले ने जाति व्यवस्था की अपनी आलोचना को सभी प्रकार की गैर-बराबरी से जोड़ दिया था। वह “उच्च” जाति महिलाओं की दुर्दशा, मज़दूरों की मुसीबतों और “निम्न” जातियों के अपमानपूर्ण हालात के बारे में गहरे तौर पर चिंतित थे। जाति सुधार का यह आंदोलन बीसवीं सदी में भी पश्चिम भारत में बी.आर. अम्बेडकर और दक्षिण में ई.वी. रामास्वामी नायकर जैसे महान दलित नेताओं के नेतृत्व में चलता रहा।
मंदिरों में कौन जा सकता था?
अम्बेडकर एक महार परिवार में पैदा हुए थे। बचपन में उन्होंने इस बात को बहुत नज़दीक से देखा था कि रोज़ाना की ज़िंदगी में जातीय भेदभाव और पूर्वाग्रह क्या होता है। स्कूल में उन्हें कक्षा के बाहर ज़मीन पर बैठना पड़ता था। उन्हें सवर्ण बच्चों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले नलकों से पानी पीने की इजाज़त नहीं थी। स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें उच्च अध्ययन के लिए अमरीका जाने हेतु फैलोशिप मिल गई थी। 1919 में भारत लौटने पर उन्होंने समकालीन समाज में “उच्च” जातीय सत्ता संरचना पर काफ़ी लिखा।
चित्र 14 – मदुरै मंदिर का प्रवेशद्वार, टॉमस डेनियल द्वारा बनाया गया चित्र, 1792.
मंदिर प्रवेश आंदोलन से पहले “अछूतों” को इस तरह के प्रवेशद्वारों के आसपास भी फटकने नहीं दिया जाता था।
सन् 1927 में अम्बेडकर ने मंदिर प्रवेश आंदोलन शुरू किया जिसमें महार जाति के लोगों ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया। ब्राह्मण पुजारी इस बात पर बहुत आग-बबूला हुए कि दलित भी मंदिर के जलाशय का पानी इस्तेमाल कर रहे हैं।
1927 से 1935 के बीच अम्बेडकर ने मंदिरों में प्रवेश के लिए ऐसे तीन आंदोलन चलाए। वह पूरे देश को दिखाना चाहते थे कि समाज में जातीय पूर्वाग्रहों की जकड़ कितनी मज़बूत है।
गैर-ब्राह्मण आंदोलन
बीसवीं सदी के आरंभ में गैर-ब्राह्मण आंदोलन शुरू हुआ। यह प्रयास उन गैर-ब्राह्मण जातियों का था जिन्हें शिक्षा, धन और प्रभाव हासिल हो चुका था। उनका तर्क था कि ब्राह्मण तो उत्तर से आए उन आर्य आक्रमणकारियों के वंशज हैं जिन्होंने यहाँ के मूल निवासियों- देशी द्रविड़ नस्लों – को हराकर दक्षिणी भूभाग पर विजय हासिल की थी। उन्होंने सत्ता पर ब्राह्मणवादी दावे को भी चुनौती दी।
पेरियार के नाम से प्रसिद्ध ई.वी. रामास्वामी नायकर एक मध्यवर्गीय परिवार में पले-बढ़े थे। अपने प्रारंभिक जीवन में वे संन्यासी थे और उन्होंने संस्कृत शास्त्रों का गंभीरता से अध्ययन किया था। बाद में वे कांग्रेस के सदस्य बने परंतु जब उन्होंने राष्ट्रवादियों द्वारा आयोजित की गई एक दावत में देखा कि वहाँ बैठने के लिए जातियों के हिसाब से अलग-अलग इंतज़ाम किया हुआ है तो उन्होंने हताश होकर पार्टी छोड़ दी। इस दावत में निम्न जातियों और उच्च जातियों के लिए अलग-अलग बैठने का इंतजाम किया गया था। पेरियार की समझ में आ चुका था कि “अछूतों” को अपने स्वाभिमान के लिए खुद लड़ना होगा। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने स्वाभिमान आंदोलन शुरू किया। उनका कहना था कि मूल तमिल और द्रविड़ संस्कृति के असली वाहक अछूत ही हैं जिन्हें ब्राह्मणों ने अपने अधीन कर लिया है। उनका मानना था कि सभी धार्मिक नेता और मुखिया सामाजिक विभाजनों और असमानता को ईश्वरप्रदत्त मानते हैं इसलिए सामाजिक समानता के लिए सभी धमों से अछूतों को खुद मुक्ति पानी होगी।
पेरियार हिंदू वेद पुराणों के कट्टर आलोचक थे। खासतौर से मनु द्वारा रचित संहिता, भगवदगीता और रामायण के वे कटु आलोचक थे। उनका कहना था कि ब्राह्मणों ने निचली जातियों पर अपनी सत्ता तथा महिलाओं पर पुरुषों का प्रभुत्व स्थापित करने के लिए इन पुस्तकों का सहारा लिया है।
ये दलीलें लोगों को सहज रास नहीं आईं। निम्न जातीय नेताओं के भाषणों, विचारपूर्ण लेखन और आंदोलनों से उच्च जातीय राष्ट्रवादी नेताओं के बीच कुछ आत्ममंथन और आत्मालोचना की प्रक्रिया शुरू हुई। परंतु, रूढ़िवादी हिंदू समाज ने भी उत्तर में सनातन धर्म सभाओं तथा भारत धर्म महामंडल और बंगाल में ब्राह्मण सभा जैसे संगठनों के ज़रिए इन रुझानों का सख्ती से विरोध किया। इन संगठनों का मकसद यही था कि हिंदू धर्म में जातीय ऊँच-नीच को जो महत्त्व दिया जाता है उस पर कोई आँच न आए। वे साबित करना चाहते थे कि इस बात को धार्मिक ग्रंथों में भी मान्यता मिली हुई है। औपनिवेशिक काल के बाद भी जाति के सवाल पर बहस और संघर्ष चलते रहे और ये आज भी जारी हैं।
सुधारों के लिए संगठित होना
ब्रह्मो समाज
ब्रह्मो समाज की स्थापना 1830 में की गई थी। यह संस्था सभी प्रकार की मूर्ति पूजा और बलि के विरुद्ध थी और इसके अनुयायी उपनिषदों में विश्वास रखते थे। इसके सदस्यों को अन्य धार्मिक प्रथाओं या परंपराओं की आलोचना करने का अधिकार नहीं था। ब्रह्मो समाज ने विभिन्न धर्मों के आदशों खासतौर से हिंदुत्व और ईसाई धर्म के विचारों की आलोचनात्मक व्याख्या करते हुए उनके नकारात्मक और सकारात्मक पहलुओं पर प्रकाश डाला।
डेरोजियो एवं यंग बंगाल
1820 के दशक में हेनरी लुई विवियन डेरोत्रियो हिंदू कॉलेज, कलकत्ता में अध्यापक थे। उन्होंने अपने विद्यार्थियों को आमूल परिवर्तनकारी विचारों से अवगत कराया और उन्हें तमाम तरह की सत्ता पर सवाल खड़ा करने के लिए प्रोत्साहित किया। उनके द्वारा शुरू किए गए यंग बंगाल मूवमेंट में उनके विद्यार्थियों ने परंपराओं और रीति-रिवाजों पर उँगली उठाई, महिलाओं के लिए शिक्षा की माँग की और सोच व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अभियान चलाया।
रामकृष्ण मिशन और विवेकानंद
रामकृष्ण मिशन का नाम स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस के नाम पर रखा गया था। यह मिशन समाज सेवा और निस्वार्थ श्रम के ज़रिए मुक्ति के लक्ष्य पर ज़ोर देता था।
स्वामी विवेकानंद (1863-1902) जिनका मूल नाम नरेंद्रनाथ दत्त था, उन्होंने श्री रामकृष्ण की सरल शिक्षाओं को अपने प्रतिभाशाली संतुलित आधुनिक विचारधारा से जोड़ कर संपूर्ण विश्व में प्रसारित किया। 1893 में शिकागो में विश्व धर्म संसद में ऊन्हें सुनने के बाद न्यूयॉर्क हेराल्ड ने विवरण दिया कि, “ऐसे विद्वान राष्ट्र में धर्म प्रचारकों को भेजना कितना मूर्खतापूर्ण है। वास्तव में, स्वामी विवेकानंद आधुनिक समय के पहले भारतीय थे जिन्होंने विश्वव्यापी स्तर पर वेदांत दर्शन के आध्यात्मिक गौरव को पुनर्स्थापित किया, लेकिन उनका उद्देश्य केवल धर्म की व्याख्या करना नहीं था। अपने देशवासियों की निर्धनता और ईशा से उन्हें अतिशय दुःख हुआ। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि कोई भी सुधार तभी सफल हो सकता है जब जनसमूह की दशा उन्नत हो। अतः भारत के लोगों को उन्होंने ‘रसोईघर के धर्म’ की संकीर्ण चारदीवारी से बाहर निकलने और राष्ट्र की सेवा में एक जुट होने का आह्वान किया। इस आह्वान द्वारा भारतीय राष्ट्रवाद की प्रारंभिक अवस्था में उन्हनि असाधारण योगदान दिया। किंतु राष्ट्रवाद के बारे में उनका भाव संकीर्ण नहीं था। उन्हें यह विश्वास था कि मानवजाति को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है उन पर तभी काबू पाया जा सकता है जब विश्व के सभी राष्ट्र एक समान धरातल पर एक साथ आएँ। अतः एक सामान्य आध्यात्मिक विरासत के आधार पर उन्होंने युवाओं को एक होने का उपदेश दिया। इस उद्बोधन में वह वास्तव में नई विचारधारा के प्रतीक और भविष्य के लिए एक महान शक्ति का स्रोत’ बन गए।
प्रार्थना समाज
1867 में बम्बई में स्थापित प्रार्थना समाज ने जातीय बंधनों को खत्म करने और बाल विवाह के उन्मूलन के लिए प्रयास किया। प्रार्थना समाज ने महिलाओं की शिक्षा को प्रोत्साहित किया और विधवा विवाह पर लगी पाबंदी के खिलाफ आवाज उठाई। उसकी धार्मिक बैठकों में हिंदू, बौद्ध और ईसाई ग्रंथों पर विचार-विमर्श किया जाता था।
बेद समाज
मद्रास (चेन्नई) में 1864 में वेद समाज की स्थापना हुई। वेद समाज ब्रह्मो समाज से प्रेरित था। वेद समाज ने जातीय भेदभाव को समाप्त करने और विधवा विवाह तथा महिला शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए काम किया। इसके सदस्य एक ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते थे। उन्होंने रूढ़िवादी हिंदुत्व के अंधविश्वासों ओर अनुष्ठानों की सख्त निंदा की।
अलीगढ़ आंदोलन
सैय्यद अहमद खाँ द्वारा 1875 में अलीगढ़ में खोले गए मोहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज को ही बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के नाम से जाना गया। यहाँ मुसलमानों को पश्चिमी विज्ञान के साथ-साथ विभिन्न विषयों की आधुनिक शिक्षा दी जाती थी। अलीगढ़ आंदोलन का शैक्षणिक सुधारों के क्षेत्र में गहरा प्रभाव रहा है।
सिंह सभा आंदोलन
सिखों के सुधारवादी संगठन के रूप में सिंह सभाओं की स्थापना 1873 में अमृतसर से शुरू हुई थी। बाद में 1879 में लाहौर में भी सिंह सभा का गठन किया गया। इन सभाओं ने सिख धर्म को अंधविश्वासों, जातीय भेदभाव और ऐसे आचरण जिसे वे गैर-सिख समझती थीं, से मुक्त कराने का प्रयास किया। उन्होंने सिखों को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया जिसमें अकसर आधुनिक ज्ञान के साथ-साथ सिख धर्म के सिद्धांतों को भी पढ़ाया जाता था।
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फिर से याद करें
1. निम्नलिखित लोगों ने किन सामाजिक विचारों का समर्थन और प्रसार किया-
राममोहन रॉय
Ans. सती प्रथा उन्मूलन
दयानंद सरस्वती
Ans. विधवा विवाह का समर्थन
वीरेशलिंगम पंतुलु
Ans. विधवा विवाह का समर्थन में एक संगठन बनाया
ज्योतिराव फुले
Ans. महाराष्ट्र में लड़कियों के लिए स्कूल खोले तथा पिछड़ी जातियों का उद्धार।
पंडिता रमाबाई
Ans. पूना में एक विधवागृह की स्थापना।
पेरियार
Ans. हिंदू वेद पुराणों की आलोचना।
मुमताज़ अली
Ans. कुरान शरीफ़ की आयतों का हवाला देकर कहा कि महिलाओं को भी शिक्षा का अधिकार मिलना बाहिए।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर
Ans. विधवा विवाह का समर्थन, स्त्री शिक्षा के लिए प्रयास।
2. निम्नलिखित में से सही या गलत बताएँ
(क) जब अंग्रेज़ों ने बंगाल पर कब्जा किया तो उन्होंने विवाह, गोद लने, संपत्ति उत्तराधिकार आदि के बारे में नए कानून बना दिए। (सही)
(ख) समाज सुधारकों को सामाजिक तौर-तरीकों में सुधार के लिए प्राचीन ग्रंथां से दर रहना पड़ता था। (गलत)
(ग) सुधारकों को देश के सभी लोगों का पूरा समर्थन मिलता था। (गलत)
(घ) बाल विवाह निषेध अधिनियम 1829 में पारित किया गया था। (गलत)
आइए विचार करें
3. प्राचीन ग्रंथों के ज्ञान से सुधारकों को नए कानून बनवाने में किस तरह मदद मिली?
Ans. प्राचीन ग्रंथों के ज्ञान से सुधारकों को नए कानून बनवाने में काफी मदद मिली। ऐसे सुधारक अक्सर पुराने ग्रंथों की बातों का उल्लेख करके अपने पक्ष में लोगों को समझाते थे। प्राचीन ग्रंथों के प्रति लोगों के मन बहुत सम्मान होता था। इसलिए उन ग्रंथों की बातों के इस्तेमाल से लोगों को समझाने में सहूलियत होती थी।
अथवा
राजा राममोहन राय नए कानून को लाने में बहुत बड़ा योगदान दिया। उन्होंने कलकत्ता में ब्राहो सभा के नाम से एक सुधारवादी संगठन बनाया। राममोहन का कहना था कि समाज में परिवर्तन लाना और अन्यायपूर्ण तोर-तरीकों से छुटकारा पाना जरुरी है। उनका विचार था कि इस तरह के परिवर्तन लाने के लिए लोगों को इस बात के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए कि वे पुराने व्यवहार को छोड़कर जीवन का नया ढंग अपनाने के लिए तैयार हो। राममोहन हेमशा से महिलाओं की शिक्षाओं को बढ़ावा देते थे।
उदाहरण राजा राममोहन राय ने अपने लेखों से यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि प्राचीन ग्रंथों में विधवाओं को जलाने की कहीं भी अनुमति नहीं दी गई है। अतः उनकी मांग पर 1829 ई० में सती प्रथा पर कानूनी रोक लगा दी। प्रसिद्ध सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने भी विधवा विवाह के पक्ष में प्राचीन ग्रंथों का हवाला दिया था। 1856 ई० में विधवा विवाह के पक्ष में एक कानून पारित कर दिया गया। अंग्रेजी काल में पारित होने वाले अन्य कानूनों के पीछे भी प्राचीन ग्रंथों का ही योगदान था।
4. लड़कियों को स्कूल न भेजने के पीछे लोगों के पास कौन-कौन से कारण होते थे?
Ans. लड़कियों को स्कूल न भेजने के पीछे कई कारण थे:-
• लोगों को लगता था कि अगर लड़कियां पढ़ लेंगी तो घर का काम कोन करेगा?
• पढ़ने वाली लड़कियां घर का काम नहीं कर पायेंगी। जिससे घरेलू काम करने में दिक्कत होगी।
• लोगों को विश्वास था कि अगर ओरत पढ़ी-लिखी होगी तो वह जल्दी विधवा हो जाएगी।
• अगर लड़की पढ़ी लिखी होगी तो संपत्ति पर अपना अधिकारी जमाना शुरू कर देगी।
• लड़कियां स्कूल कैसे जाएंगी और सार्वजनिक स्थानों से कैसे निकलेंगी। सब कारण थे स्कूल न भेजने के।
5. ईसाई प्रचारकों की बहुत सारे लोग क्यों आलोचना करते थे? क्या कुछ लोगों ने उनका समर्थन भी किया होगा? यदि हाँ तो किस कारण?
Ans. कई लोग जाति आंधारित समाज के आदिवासी समुदायों तथा पिछड़े वर्गों से होने वाले अन्याय से दुखी थे। वे समानता के व्यवहार की कामना करते थे। ईसाई प्रचारकों ने जब इनके बच्चों के लिए स्कूल खोले तो अन्य जातियों के बच्चों की तरह वह भी स्कूल जाने लगे। कुछ आदिवासी समुदायों को ईसाई धर्म में भी परिवर्तित किया जा रहा था। इसलिए बहुत से लोग ईसाई प्रचारकों की आलोचना करने लगे थे। परंतु कुछ सुधारक ऐसे भी थे जो इन लोगों को समाज में सम्मान दिताना चाहते थे। इन लोगों, विशेषकर सुधारकों ने ईसाई प्रचारकों द्वारा पिछड़ी जातियों के हित में उठाए गये कदमों का समर्थन किया।
6. अंग्रेज़ों के काल में ऐसे लोगों के लिए कौन-से नए अवसर पैदा हुए जो “निम्न” मानी जाने वाली जातियों से संबंधित थे?
Ans. अंग्रेजों के समय शहर विकसित होने लगे थे। ऐसे में निर्माण कार्य में तेजी आई। सड़कें बनीं, नालियों बनी और नये भवन बने। इन कामों के लिए मजदूरों की जरूरत पड़ी। तेजी से बढ़ते शहरों में माल ढ़ोने के लिए कुली और रिक्शा खींचने के लिए मजदूरों की जरूरत पड़ने लगी। ऐसे कामों के लिए कोई सवर्ण कभी भी तैयार नहीं होता और ऐसे काम निचली जाति के लोगों के लायक ही माने जाते थे।
अथवा
निम्र मानी जाने वाली जातियां सवर्ण जमींदारों के उत्पीड़न से दुःखी थीं। उन्हें ऐसे काम करने पड़ते थे जो घृणित समझे जाते थे। अंग्रेजी काल में शहरों के विस्तार से काम के नए अवसर पैदा हुए और श्रम की मांग बढ़ गई। शहरों में कृतियों खुदाई करने वालों, बोझा ढोने वालों, ईंट बनाने वालों, सफाई कर्मियों, नालियां साफ करने वालों, रिक्या खींचने वालों आदि की जरूरत थी। इन कामों के लिए गाँवों और छोटे कस्बों के गरीब लोग शहरों की ओर जाने लगे। इनमें बहुत से लोग पिछड़े वर्गों के भी थे। इन कामों के अतिरिक्त कुछ लोग असम, मॉरिशस, त्रिनिदाद तथा इंडोनेशिया आदि स्थानों पर बागानों में काम करने भी चले गए। भले ही नए स्थानों पर काम बहुत कठोर था। उत्पीडित जातियों के लोगों के लिए यह गाँवों में सवर्ण जमींदारों के दमनकारी नियंत्रण से मुक्ति पाने का अवसर था।
7. ज्योतिराव और अन्य सुधारकों ने समाज में जातीय असमानताओं की आलोचनाओं को किस तरह सही ठहराया?
Ans. 1. ज्योतिराव फुले ने ब्राह्मणों की इस बात को गलत ठहराया कि आर्य होने के कारण वे अन्य लोगों से श्रेष्ठ हैं। फुते का तर्क था कि आर्य उपमहाद्वीप के बाहर से आए थे उन्होंने यहाँ के मूल निवासियों को हरा कर गुलाम बना लिया तथा पराजित जनता को निम्र जाति वाला मानने लगे।
2. पेरियार ने हिंदू वेद पुराणों की आलोचना की उनका मानना था कि ब्राह्मणों ने निचली जातियों पर अपनी सत्ता तथा महिलाओं पर पुरुषों का प्रभुत्व स्थापित करने के लिए इन पुस्तकों का सहारा लिया है।
3. हरिदास ठाकुर ने भी जाति व्यवस्था सही ठहराने वाले ब्राह्मणवादी ग्रंथों पर सवाल उठाया।
4. अम्बेडकर ने भी मंदिर प्रवेश आंदोलन’ के द्वारा समकालीन समाज में उच्च जातीय संरचना पर सवाल उठाए। वह इस आंदोलन के द्वारा पूरे देश को दिखाना चाहते थे कि समाज में जातीय पूर्वाग्रहों की जकड़ कितनी मजबूत है।
8. फुले ने अपनी पुस्तक गुलामगीरी को गुलामों की आजादी के लिए चल रहे अमेरिकी आंदोलन को समर्पित क्यों किया?
Ans. डॉ० अंबेडकर जी ने मंदिर प्रवेश आंदोलन 1927 ई० में शुरू किया। इसमें समाज के पिछड़े वर्गों ने बड़ी संख्या में भाग लिया, क्योंकि उन्हें मंदिरों में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। ब्राह्मण पुजारी इस बात पर बहुत आग बबूला हुए कि पिछड़े वर्गों के लोग भी मंदिर के जलाशय का पानी प्रयोग कर रहे हैं। 1927 से 1935 के बीच अंबेडकर जी ने मंदिरों में प्रवेश के लिए ऐसे तीन आंदोलन चलाए। वह पूरे देश को दिखाना चाहते थे कि समाज जातीय पूर्वाग्रहों से पूरी तरह ग्रस्त है। वह इन पूर्वाग्रहों को मिटा कर सामाजिक समानता को दूर करना चाहते थे और पिछड़े वर्गों के लोगों को सम्मान दिलाना चाहते थे।
9. मंदिर प्रवेश आंदोलन के जरिए अम्बेडकर क्या हासिल करना चाहते थे?
Ans. 1. अंबेडकर एक महार परिवार में पैदा हुए थे, इसलिए उन्होंने बचपन से जातीय भेदभाव और पूर्वाग्रह को नजदीक से देखा था।
2. समकालीन समाज में उच्च जातीय सत्ता संरचना के कारण निम्न जातियों के साथ असमानता, बुरा व्यवहार तथा भेदभाव हो रहा था।
3. 1927 में 1935 के बीच अंबेडकर ने मंदिरों में प्रवेश के लिए तीन मंदिर प्रवेश’ आंदोलन चलाए।
4. जिसके माध्यम से वह देश को दिखाना चाहते थे कि समाज में जातीय पूर्वाग्रहों की जकड़ कितनी मजबूत है. लेकिन लगातार विरोध करने पर इसको कमजोर किया जा सकता है।
अथवा
ज्योतिराव फूले तथा रामास्वामी नायकर ने महसूस किया कि राष्ट्रीय आंदोलन जातीय असमानता पर आधारित है। इसमें सभी जातियों को समान दर्जा प्राप्त नहीं है। नायकर कांग्रेस के सदस्य बने थे। उन्हें उस समय बहुत निराशा हुई जब कांग्रेस के एक भोज में उच्च तथा निम्न कहीं जाने वाली जातियों के लिए अलग अलग बैठने की व्यवस्था की गई। हताश होकर उन्होंने पार्टी छोड़ दी और राष्ट्रीय आंदोलन के आलोचक बन गए। उनकी समझ में आ था कि उन्हें अपने अधिकारों तथा स्वाभिमान के लिए स्वयं लड़ाई लड़नी होगी। इस लड़ाई को उन्होंने स्वाभिमान आंदोलन का नाम दिया। उनके आंदोलन को देखते हुए कांग्रेस ने अछूतोद्धार को भी राष्ट्रीय आंदोलन का लक्ष्य घोषित कर दिया।
10. ज्योतिराव फुले और रामास्वामी नायकर राष्ट्रीय आंदोलन की आलोचना क्यों करते थे? क्या उनकी आलोचना से राष्ट्रीय संघर्ष में किसी तरह की मदद मिली।
Ans. नायकर जब एक बार कांग्रेस की एक भोज में गए तो देखा कि वहाँ जाति के आधार पर बैठने की अलग-अलग व्यवस्था थी। यह देखकर उन्हें बहुत गुस्सा आया। उस घटना के बाद वे राष्ट्रीय आंदोलन के आलोचक बन गए। फुले का कहना था कि राष्ट्रवादी आंदोलन के सवर्ण नेता केवल उपनिवेशवाद का विरोध कर रहे थे। एक बार जब उन्हें दोबारा सत्ता मिल जाती तो वे फिर से निचली जातियों के खिलाफ भेदभाव शुरु कर देते।
दक्षिण अफ्रीका से जब महात्मा गांधी भारत लौटे तो उन्होंने छुआछूत के खिलाफ होने वाली बहस को आगे लाया। ऐसा इस चेष्टर में साफ नहीं है, लेकिन हम अनुमान लगा सकते हैं कि महात्मा गांधी पर इन दोनों सुधारकों के विचारों का प्रभाव पड़ा होगा।
अथवा
ज्योतिराव फुले और रामास्वामी नायकर राष्ट्रीय आंदोलनों के आलोचक थे। उनके अनुसार, उपनिवेशवादी और उच्च जातियाँ दोनों बाहरी थे और उन्होंने स्वदेशी तोगों पर अत्याचार किया और उन्हें अपने अधीन कर लिया और उन्हें निम्न वर्ग मानते थे। ज्योतिराव फुले ने हमेशा उच्च जाति को बाहरी लोगों के रूप में माना था जिन्होंने लोगों को अपनी जमीन पर प्रताड़ित किया और उन्हें निम्न और निम्न जाति के रूप में माना। उनके अनुसार, उच्च जाति के लोगों ने राष्ट्रवादी आंदोलनों में भाग लिया ताकि एक बार उपनिवेशवादी देश छोड़ दें, वे फिर से निचली जातियों के लोगों पर अपनी शक्ति का उपयोग कर सकें। आरएन के अनुसार रामास्वामी नायकर द्रविड़ संस्कृति के सच्चे समर्थक थे, जिन्हें अछूत माना जाता था और ब्राह्मणों द्वारा उत्पीड़ित किया जाता था। उनका मानना था कि निचली जाति को अपनी मर्यादा के लिए संघर्ष करना पड़ता है। इन आलोचनाओं ने उच्च जाति के राष्ट्रवादी नेताओं के बीच पुनर्विचार और आत्म-निंदा करने में मदद की।