जन्तु विज्ञान (Zoology) : अध्याय – 5

जन्तु विज्ञान का संक्षिप्त इतिहास (Brief History of Zoology)

प्राचीनकालीन ग्रीस देश के कई दार्शनिकों ने जीवों के बारे में लिखा था। हिप्पोक्रेट्स (460-370 ईसा पूर्व) ने मानव रोगों पर प्रथम लेख लिखे। इसी कारण उन्हें “चिकित्सा शास्त्र का जनक” कहते हैं।* अरस्तू (Aristotle, 384-322 ईसा पूर्व) ने अपनी “जन्तु इतिहास (Historia animalium)” नामक पुस्तक में 500 जन्तुओं की रचना, स्वभाव, वर्गीकरण, जनन आदि का तथा मुर्गी के अण्डों में भ्रूणीय विकास का वर्णन किया। उन्हें इसीलिए, “विज्ञान, जीव विज्ञान तथा जन्तु विज्ञान का जनक (Father of Science, Biology and Zoology)” कहते हैं।*

वैदिक काल (1500-500 B.C.), में चार हिन्दू धर्म ग्रन्थों की रचना हुई जिन्हें वेद- क्रमशः ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद कहते हैं। इनमें सैंकड़ों प्रकार के जन्तुओं एवं वनस्पतियों के उल्लेख हैं। लगभग 600 वर्ष ईसा पूर्व, सुस्राता (Susrata) नामक हिन्दू दार्शनिक की पुस्तक, सुस्राता संहिता में जीवों के वर्गीकरण, मानव शरीर की संरचना और शल्य क्रिया (Surgery) तथा कृत्रिम अंगों एवं नेत्रों की सम्भावनाओं का उल्लेख है। उन्हें शल्य क्रिया का पिता “Father of Surgery” कहते हैं। ईसा के बाद प्लिइनी (सन् 23-79ई.-AD) ने 37 भागों में “प्रकृति विज्ञान (Natural History)” नामक वृहद् ग्रन्थ लिखा। गैलेन (130-200ई.) ने कुछ जन्तुओं के आन्तरांगों की कार्यिकी पर सबसे पहला प्रयोगात्मक अध्ययन किया। उन्हें, इसीलिए “प्रयोगात्मक कार्यिकी का पिता (Father of Experimental Physiology)” कहा जाता है।

इसके बाद लगभग 1000 वर्षों तक विज्ञान में प्रगति नहीं, वरन् अवनति हुई। यह विज्ञान का अन्धकार युग (Dark Age of Science) था।* 13वीं सदी में ऐल्बर्टस मैगनस (1200-1280 ई.) के “जन्तुओं पर (On Animals)” नामक ग्रन्थ से जन्तु विज्ञान का पुनर्जागरण (Period of Renaissance) हुआ। 16वीं सदी में जन्तुओं पर अनेक ग्रन्थ छपे। इसी सदी में सूक्ष्मदर्शी (Microscope) का आविष्कार हुआ और जीव-वैज्ञानिकों ने जन्तुओं का बहुमुखी अध्ययन प्रारम्भ किया। इन वैज्ञानिकों में विशेष उल्लेखनीय वैज्ञानिक अग्रलिखित थे। यथा-

• एण्ड्रियस विसैलियस (1514-1564): मानव शरीर की रचना का प्रयोगात्मक अध्ययन करके, सन् 1543 में, “On the Structure of the Human Body” नामक पुस्तक लिखी। “आधुनिक शारीरिकी के जनक (Father of Modern Anatomy)” माने जाते हैं।

• विलियम हार्वे (1578-1657): रुधिर परिसंचरण तन्त्र (1628) की खोज की।*

• जैकेरियस जैन्सन (1590) : अपने पिता, हान्स जैन्सन (H. Janssen) के साथ प्रथम संयुक्त प्रकाश सूक्ष्मदर्शी (compound light microscope) बनाया।

• रॉबर्ट हुक (1635-1703): सबसे पहले मृत पादप ऊतक (कॉर्क) में कोशिकाएँ देखीं (1665) और इन्हें “Cells” की संज्ञा दी।

• मारसेलो मैल्पीगी (1628-1694): रुधिर एवं ऊतकों का सूक्ष्मदर्शीय अध्ययन। कशेरुकियों के वृक्कों में मैल्पीगी सम्पुटों की तथा त्वचा की उपचर्म अर्थात् एपिडर्मिस (epidermis) में जननिक स्तर की खोज।

• एन्टोनी वॉन लुइवेनहॉक (1632-1723): शुक्राणुओं, रुधिराणुओं, पेशियों, प्रोटोजोआ, खमीर (yeast), जीवाणुओं (bacteria) आदि का अध्ययन किया। “सूक्ष्म-जैविकी (Microbiology) के जनक” कहलाते हैं।*

• कैरोलस लिनियस (1707-1778): अपनी पुस्तक, “Systema Naturae” (1735) में पादपों एवं जन्तुओं का वर्गीकरण किया और जीव-जातियों के नामों के लिए द्विनाम पद्धति (Binomial Nomenclature, 1749) बनाई। अतः इन्हें “आधुनिक वर्गिकी का जनक (Father of Modern Taxonomy)” कहते हैं।*

• बैरों जॉर्ज क्यूवियर (1769-1832): तुलनात्मक शारीरिकी (Comparative Anatomy) तथा जीवाश्मिकी (Palaeontology) की स्थापना की।*

• जीन बैप्टिस्टे डी लैमार्क (1744-1829): जैव-विकास के प्रथम तर्कसंगत मत का प्रतिपादन किया। “Philosophie Zoologique” (1809) नामक पुस्तक लिखी।

• रॉबर्ट ब्राउन (1773-1858): कोशिकाओं में “केन्द्रक” की उपस्थिति (1831), कोशिकाद्रव्य में “ब्राउनियन गति (Brownian movement)” तथा अनेक पादप जातियों के खोजकर्ता।*

• कार्ल अर्नस्ट वॉन बेयर (1792-1876): तुलनात्मक शारीरिकी एवं भ्रौणिकी का व्यापक अध्ययन किया। “आधुनिक भ्रौणिकी के जनक (Father of Modern Embryology)”।

• रिचर्ड ओवन (1804-1892): अंगों में समजातता (homology) एवं समरूपता (analogy) सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।

• एम. जे. श्लाइडेन एवं थियाडोर श्वान (1803-1881): सन् 1839 में कोशिका मत का प्रतिपादन किया।*

• चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन (1809-1882): सन् 1859 में प्रसिद्ध जैव-विकास मत का प्रतिपादन किया।*

• सर ग्रेगर जॉन मेण्डल (1822-1884): सन् 1866 में आनुवंशिकी (Genetics) के नियम बनाए।*

जन्तु विज्ञान के उपखण्ड (Branches of Zoology)

जन्तु विज्ञान की विषय-सामग्री में पिछली दो शताब्दियों से तीव्र विस्तार हुआ है। कारणस्वरूप जन्तु विज्ञान को कई उपखण्डों में विभक्त कर दिया गया है। यथा-

• पारिस्थितिकी या जीवपारिस्थितिकी (Ecology or Bionomics) : निर्जीव एवं सजीव वातावरण से जीवों (जन्तुओं एवं पादपों) के विविध सम्बन्धों का अध्ययन।

• आकारिकी (Morphology): आकृति एवं रचना का अध्ययन।

(a) बाह्य आकारिकी (External Morphology)।

(b) शारीरिकी (Anatomy): शरीर एवं विविध अंगों की विच्छेदन (dissection) द्वारा प्रदर्शित सकल रचना का नग्न आँखों द्वारा अध्ययन शारीरिकी कहलाता है।

(c) सूक्ष्म शारीरिकी (Microanatomy): सूक्ष्मदर्शियों एवं अन्य आधुनिक उपकरणों तथा विधियों द्वारा शरीर की सूक्ष्म संरचना का अध्ययन सूक्ष्म शारीरिकी कहलाता है। इसे तीन उपशाखाओं में बाँटते हैं। यथा-

(i) ऊतक विज्ञान अर्थात् औतिकी (Histology)।
(ii) कोशिका विज्ञान (Cytology)।
(iii) अणु जैविकी (Molecular Biology): सजीव पदार्थ के घटक यौगिकों अर्थात् जैव अणुओं (biomolecules) का अध्ययन।

• आस्टियोलॉजी (Osteology) – बोन (Bones) के बने कंकाल का अध्ययन।

• सारकोलॉजी (Sarcology)- पेशियों का अध्ययन किया जाता है।

• काँन्ड्रोलॉजी (Chondrology) – उपास्थि (Cartilage) का अध्ययन।

• इन्डोक्राइनोलॉजी (Endocrinology) – नलिका विहीन ग्रंथियों का अध्ययन किया जाता है।

• हीमैटोलॉजी (Haematology) – इसके अन्तर्गत रुधिर का अध्ययन किया जाता है।

• सीरोलॉजी (Serology) – रुधिर के सीरम तथा रुचिर आधान से सम्बन्धित अध्ययन। कार्डियोलॉजी (Cardiology) – हृदय की रचना तथा कार्यविधि का अध्ययन।

• न्यूरोलॉजी (Neurology) – तंत्रिका तंत्र (Nervous System) का अध्ययन।

इम्यूनोलॉजी (Immunology) – संक्रमण के विरुद्ध जन्नु- शरीर के प्रतिरोध (Resistance) का अध्ययन।

• क्रेनियोलॉजी (Craniology) – करोटि (Cranium) का अध्ययन।

• सुजननिकी (Eugenics) – इसमें मानव जाति का सुधार – आनुवंशिकी के नियमों के आधार पर, जिसमें मनुष्य की आने वाली पीढ़ियों के सुधार का अध्ययन किया जाता है।*

• यूथैनिक्स (Euthenics) – मनुष्य की आधुनिक पीढ़ी का अच्छे पालन-पोषण द्वारा सुधार का अध्ययन ।*

• यूफेनिक्स (Euphenics) – जीनिक रोगों का निवारण जिसमें जेनेटिक इन्जीनियरिंग (Genetic Engineering), का भी समावेश है। इससे मनुष्य जाति के सुधार में सहायता मिलती है।*

• गाइनेकोलॉजी (Gynaecology) – मादा जीवधारियों के प्रजनन अंगों का अध्ययन।

• एथनोलॉजी (Ethnology) – मनुष्य की जातियों का अध्ययन। *

• ओडोन्टोलॉजी (Odontology) – दाँतों का अध्ययन।

• ऑब्सटेट्रिक्स (Obstetrics) – चिकित्सा विज्ञान की वह शाखा, जिसके अन्तर्गत गर्भाधान, प्रसव एवं बच्चे के जन्म का अध्ययन किया जाता है।

• ऑप्थैल्मोलॉजी (Opthalmology) – चिकित्सा विज्ञान की वह शाखा, जिसके अन्तर्गत आंख एवं आंख के रोगों का अध्ययन किया जाता है।*

• आंकोलॉजी (Oncology) – चिकित्सा विज्ञान की वह  शाखा, जिसके अंतर्गत कैंसर एवं ट्यूमर का अध्ययन किया जाता है।*

• ऑर्थोपेडिक्स (Orthopaedics) – मांशपेशी एवं हड्डी से संबंधित रोगों के इलाज एवं रोकथाम की विधियों का अध्ययन।

• ऑटोरिनोलैरिजोलॉजी (Otorhinolaryngology)- चिकित्सा विज्ञान की वह शाखा जिसके अंतर्गत कान, नाक एवं गले का अध्ययन किया जाता है।

• ऑर्थोडोन्टिक्स (Orthodontics)- दंत विज्ञान की वह शाखा जिसमें दांत की अनियमितताओं तथा संबंधित बीमारियों का अध्ययन किया जाता है।

• ऑटोलॉजी (Otology) – चिकित्सा विज्ञान की वह शाखा, जिसमें कान (Ear) का अध्ययन किया जाता है।

• ओलफैक्टोलॉजी (Olfactology) – गंध की संवेदना का अध्ययन।

• एन्जियोलॉजी (Angiology) – रुधिर वाहिनी का अध्ययन। *

• डर्मेटोलॉजी (Dermatology) – त्वचा का अध्ययन।

• हिपेटोलॉजी (Hepatology) – यकृत का अध्ययन।

• नियोनेटोलॉजी (Neonatology) – नवजात शिशु का अध्ययन।

• फ्रीनोलॉजी (Phrenology) – मस्तिष्क के विभिन्न आयामों का अध्ययन। *

• ट्रोफोलॉजी (Trophology) – पोषण के विविध पहलुओं का अध्ययन।*

• कैलोलॉजी (Kalology) – मानव सौंदर्य का अध्ययन।*

• ऑप्टिकल कोहेरेंस टोमोग्राफी (Optical Coherence Tomography) – मानव शरीर के अंदर के भागों को देखने की यह एक नई तकनीक है। इस तकनीक से प्राप्त चित्र अल्ट्रासाउंड के चित्रों की अपेक्षा 10 गुणा अधिक स्पष्ट होते हैं।

• संरचना-आकारिकी (Tectology): शरीर के रचनात्मक संघटन (structural organization) का अध्ययन टेक्टोलॉजी कहलाता है।

• नासा विज्ञान (Rhinology): नासिका तथा इसके रोगों का अध्ययन।

• विकृतांग विज्ञान (Teratology): अंगों की जन्मजात विकृतियों तथा असामान्य वृद्धि का अध्ययन।

• निद्रा विज्ञान (Hypnology) : निद्रा (sleep) से सम्बन्धित अध्ययन ।

• स्वप्न विज्ञान (Oncirology) : स्वप्न सम्बन्धी अध्ययन।

• आचार-शास्त्र (Ethology): जन्तुओं के व्यवहार का अध्ययन। *

• वायु-जैविकी (Aerobiology) : उड़ने वाले जन्तुओं का अध्ययन।

• सरोवर विज्ञान (Limnology) : तालाबों, पोखरों, झीलों आदि के जीवों का अध्ययन।

• विकिरण-जैविकी (Radiobiology) : जीदों पर विकिरण के प्रभाव का अध्ययन विकिरण-जैविकी या ऐक्टिनोबायोलॉजी (Actinobiology) कहलाता है।*

• तन्तु सन्धि (Syndesmology) : कंकाल-सन्धियों एवं स्नायुओं का अध्ययन, ‘सिन्डेस्मोलॉजी’ कहलाता है।*

• केन्द्रक विज्ञान (Karyology) : कोशिका के केन्द्रक का अध्ययन कैरियोलॉजी कहलाता है।

• कृमि विज्ञान (Helminthology) : चपटे कृमियों का अध्ययन हेल्मिन्थोलॉजी कहलाता है।

• कीट विज्ञान (Entomology) : कीट-पतंगों (insects) का अध्ययन।

• चींटी विज्ञान (Myrmecology): चींटियों का अध्ययन पिपिलिका (चींटी) विज्ञान (Myrmecology) कहलाता है।

• मकड़ी विज्ञान (Arachnology): मकड़ियों का अध्ययन।*

• व्यक्तिवृत्त (Ontogeny): जीवन-वृत्त (life-cycle) का अध्ययन। *

• जातिवृत्त (Phylogeny): जाति के उद्विकास (evolution) के इतिहास का अध्ययन ।*

• वर्गिकी (Taxonomy) : जीव-जातियों के नामकरण एवं वर्गीकरण (nomenclature and classification) का अध्ययन।

• उद्विकास (Evolution) : जीव-जातियों के उद्भव एवं विभेदीकरण के इतिहास का अध्ययन।

• उपार्जिकी (Ctetology) : उपार्जित लक्षणों का अध्ययन टेटोलॉजी कहलाता है।*

• जीवाश्मिकी (Palaeontology): जीवाश्मों (fossils) का अध्ययन। *

• आनुवंशिकी (Genetics) : जीवों के आनुवंशिक लक्षणों और इनकी वंशागति का अध्ययन।

जन्तु जगत् का वर्गीकरण (Classification of Animals Kingdom)

प्रसिद्ध ग्रीक दार्शनिक अरस्तू (384-322 B.C.) ने सबसे पहले अपने समय में ज्ञात जन्तुओं को प्राकृतिक समानताओं एवं विषमताओं के आधार पर दो प्रमुख समूह में विभक्त किया। यथा-

1. ऐनैइमा (Anaima) : वे जन्तु जिनमें लाल रूधिर नहीं होता, • जैसे- स्पंज, नाइडेरिया, मोलस्का, आर्थोपोड़ा, इकाइनो-डर्मेटा आदि अकशेरूकी।

2. इनैइमा (Enaima) : वे जन्तु जिनमें लाल रूधिर होता हैं। इसमें उन्होंने केवल कशेरूकी जन्तु सम्मिलित किए और इन्हें दो उपसमूहों में विभक्त किया। यथा-

(a) जरायुज (Vivipara): बच्चे देने वाले, जैसे- मनुष्य, पशु एवं अन्य स्तनी।

(b) अण्डयुज (Ovipara) : अण्डे देने वाले, जैसे- मछलियाँ, उभयचर, साँप व अन्य सरीसृप एवं पक्षी।

ह्वीटेकर ने जीवों को पाँच जगत प्रणाली में विभक्त किया। यथा- (i) मोनरा अर्थात Prokaryotic जीव, जैसे : जीवाणु एवं हरे-नीले शैवाल (ii) प्रोटिस्टा अर्थात् एक कोशिकीय जन्तु, जैसे : पैरामिशयम अमीबा आदि। (iii) कवक (iv) पादप (v) जन्तु।

जन्तु का स्थूल वर्गीकरण (Gross Classification of Animals)

मुख्य विकासीय प्रवृतियों के आधार पर जन्तुओं का स्थूल वर्गीकरण अधोलिखित प्रकार से किया गया है- जन्तु-जगत अर्थात मेटाजोआ (Metazoa) को तीन भागों में विभक्त किया गया है। यथा-

1. मीसोजोआ (Mesozoa)
2. पैराजोआ (Parazoa)
3. यूमेटाजोआ (Eumetazoa)

1. मीसोजोआ : समुद्री, अकशेरुकी (invertebrate) जन्तुओं के सूक्ष्म, कृमिसदृश परजीवी। कुछ में शरीर द्विपार्वीय (bilat- eral)। ऊतक नहीं; एक या अधिक जनन कोशिकाओं के चारों ओर रोमाभि (ciliated) पाचन कोशिकाओं का बाहरी स्तर। एक ही संघ मीसोजोआ (Phylum Mesozoa)। उदाहरण- डाइसिएमा (Dicyema)। इन्हें प्रोटिस्टा तथा मेटाजोआ की संयोजक कड़ी के रूप में माना जाता है।*

2. पैराजोवा : कोशिकीय स्तर का संगठन, स्पष्ट मुख एवं पाचन गुहा का अभाव। देहभित्ति छिद्रयुक्त एवं द्विस्तरीय (diplo- blastic), अर्थात केवल दो भ्रूणीक जननिक स्तरों- एक्टोडर्म एवं एण्डोडर्म की बनी। एक ही संघ पोरीफरा, जैसे : साइकन।

3. यूमेटाजोआ : ऊतकीय या अंगीय स्तर का संगठन; मुख एवं पाचन गुहा उपस्थित। इसके दो प्रभाग हैं। यथा-

A. रेडिएटा : ऊतकीय स्तर, अरीय सममिति (radial symme- try), एक ही सयुक्त देह एवं पाचन गुहा। जैसे: सीलेन्ट्रेटा अथवा नाइडेरिया संघ के जीव।

B. बाइलैटरिया : शरीर त्रिस्तरीय (triploblastic) – तीन भ्रूणीय जननिक स्तरों से बना, अर्थात् भ्रूण में मीसोडर्म एवं द्विपार्वीय (bilateral) भी होता है। शरीर संगठन अंगीय स्तर का होता है। बाइलैटरिया (Bitateria) के दो उप-प्रभाग हैं। यथा-

(i) प्रोटोस्टोमिया (Protostomia) : युग्मनज अर्थात् जाइगोट का विदलन (cleavage) सर्पिल व निश्चयात्मक (spiral & determi- nate)। मुख कोरकरन्ध्र (blastopore) से या इसके निकट । मीसोडर्म प्राथमिक मीसोडर्मी कोशिकाओं से।

(ii) ड्यूटरोस्टोमिया (Deuterostomia) : युग्मनज अर्थात् जाइगोट का विदलन अरीय व अनिश्चयात्मक। गुदा कोरकरन्ध से या इसके निकट। मीसोडर्म गैस्टुला की आर्केन्ट्रॉन की दीवार से। सीलोम गुहा आर्केन्ट्रॉन की गुहा से या मीसोडर्म में चीर से। जैसे : कॉर्डेटा एवं इकाइनोडर्मेटा।

आधुनिकतम् विचारधारा के अनुसार, किसी भी एक जन्तु- जाति के निम्नलिखित लक्षण होते हैं-

(1) यह अन्तराप्रजनन (inter-breeding) करने वाले जन्तुओं की आबादी होती है।

(2) इस आबादी का एक जीन समूह (gene pool) होता है जिसमें कि जीन्स का स्वतन्त्र अपव्यूहन (free assortment) होता रहता है।

(3) इसकी प्रत्येक आबादी में वातावरणीय दशाओं के अनुसार अनुकूलन (adaptation) और प्राकृतिक चयन की प्रक्रियाएँ सदैव चलती रहती हैं।

(4) इस प्रकार, इसमें उद्विकास द्वारा नई जातियों की उत्पत्ति करने की मूल क्षमता होती है।

➤ जन्तुओं में मुख्य विकासीय प्रवृत्तियाँ (Major Evolutionary Trends in Animals)

जैव विकास क्रम में जन्तुओं में अधोलिखित प्रमुख लक्षणों का विकास हुआ है। यथा-

(A) जन्तु संरचना प्रणाली : जन्तु शरीर में तीन प्रकार की संरचना प्रणाली पायी जाती है।

(i) कोशिका पुंज प्रणाली (Cell aggregate plan) : ऐसे प्राणी, जिनके शरीर की रचना कोशिकाओं के पुंज से होती है, द्विस्तरीय (diploblastic) जीव कहलाते हैं। जैसे- पोरिफेरा। इनमें श्रम-विभाजन केवल नाम-मात्र का होता है तथा प्रत्येक कोशिका स्वतन्त्र रूप से श्वसन, पोषण, आदि करती है। इनमें ऊतक (tissue) तथा अंग (organs) नहीं होते हैं। ऐसे जीवों के शरीर कोशिकाओं की उत्पत्ति दो भ्रूणीय स्तरों- एक्टोडर्म (ectoderm) एवं एण्डोडर्म (endoderm) से होती है।*

(ii) अन्य कोष प्रणाली (Blind sac plan): ऐसे जीव जिसके शरीर में केवल एक कोष होता है, जो एक ही छिद्र द्वारा बाहर खुलता है अर्थात् इनमें मुखद्वार (mouth) तथा गुदाद्वार (anus) एक ही होता है। भोजन का पोषण इसी गुहा में होता है और पचे हुए भोजन का विसरण भी यहीं से होता है। इस कोष को हम जठरवाही गुहा (gastrovascular cavity) कहते हैं। उदाहरण- सीलेण्ट्रेट्रस (हाइड्रा) तथा प्लैटीहेल्मिन्थीज (फेसियोला)।

(iii) नली के अन्दर नली प्रणाली (Tube within tube plan) : इस प्रणाली के जन्तुओं में एक आहार नाल होती है जो दो द्वारों- मुखद्वार तथा गुदाद्वार- द्वारा बाहर खुलती है। मुख द्वारा भोजन ग्रहण किया जाता है और बिना पचा हुआ भोजन गुदा द्वारा बाहर निकाला जाता है (RAS/RTS)।* लगभग सभी जटिल जन्तु जैसे ऐनेलिडा (केंचुआ), आर्थोपोडा (कॉकरोच), मोलस्का (सीपी तथा घोंघा आदि) में पाया जाता है।

(B) देहगुहा (Body Cavity or Coelom): एक नली के अन्दर दूसरी नली प्रणाली वाले जन्तुओं में देहभित्ति (body wall) तथा आहारनाल के मध्य द्रव से भरी एक गुहा होती है, जिसे देहगुहा (Coelom or body cavity) कहते हैं। देहगुहा में अन्य अंग, जैसे यकृत, गुर्दा, प्लीहा आदि स्थित होते हैं। वास्तविक देहगुहा (true coelom) भ्रूणीय परिवर्धन के समय मीसोडर्म के विघटन से बनती है। प्रोटोजोआ, पोरिफेरा, सीलेण्ट्रेटा तथा चपटे कृमियों में सीलोम या देहगुहा नहीं होती। इसीलिए ये जन्तु अगुहिक या एसीलोमेट (acoelomate) कहलाते हैं। गोल कृमियों में देहगुहा भ्रूण की ब्लास्टोसील (blastocoel) से विकसित होती है, जिसे कूटगुहा या स्यूडोसील (pseudocoel) कहते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य सभी जन्तुओं में वास्तविक देहगुहा (true coelom) पायी जाती है। जिन जन्तुओं में वास्तविक गुहा पायी जाती है उन्हें सीलोमेट या गुहिक (coelomate) जन्तु कहते हैं, जैसे- ऐनेलिडा, आर्थोपोडा, मोलस्का, इकाइनोडर्मेटा तथा कॉर्डेटा।

(C) शरीर का आधार एवं सुरक्षा (Body Support and Protection) : कंकाल (Skeleton) शरीर को सुरक्षा तथा अवलम्ब दोनों ही प्रदान करता है। बाह्य कंकाल (exoskeleton), जैसे- क्यूटिकिल, नाखून, बाल, शल्क आदि शरीर को बाह्य वातावरण से सुरक्षा प्रदान करते हैं, जबकि अन्तःकंकाल (endoskeleton) सुदृढ़ होने के कारण, शरीर को ढांचा प्रदान करता है।

सरलतम जन्तुओं (सीलेण्ट्रेट्स) में बाह्य कंकाल नहीं होता।* कृमियों में क्यूटिकिल (cuticle); आर्थोपोड्स में काइटिन (chitin); मोलस्का में कवच (shell); कशेरुकी जन्तुओं में बाल, नख,शल्क, पिच्छ, आदि बाह्य कंकाल बनाते हैं। ये सभी, इन जन्तुओं को सुरक्षा प्रदान करते हैं।

अन्तःकंकाल कशेरुकी जन्तुओं में शरीर के अन्दर अस्थि (bone) अथवा उपास्थि (cartilage) के रूप में रहता है। यह कंकाल जन्तु शरीर को आकृति तथा आधार प्रदान करता है। अस्थियों पर मांसपेशियां चिपकी रहती हैं जो प्रचलन क्रिया में सहायक होती हैं। मस्तिष्क कोष (cranium) तथा कशेरुकाएं (vertebrae) क्रमशः मस्तिष्क (brain) तथा पृष्ठ तन्त्रिका रज्जु (dorsal nerve cord) को सुरक्षा प्रदान करते हैं।

(D) शरीर की सममिति (Body Symmetry): जन्तुओं के शरीर की सममिति (Symmetry) तीन प्रकार की होती है-

(i) असममिति (Asymmetry)- कुछ जन्तुओं के शरीर के अंगों का विन्यास इस प्रकार का होता है कि इन जन्तुओं को किसी भी तल में काट कर दो समान भागों में विभक्त नहीं किया जा सकता, उन्हें असममित (Asymmetrical) कहा जाता है। जैसे- स्पंज, घोंघा तथा अमीबा।

(ii) अरीय सममिति (Radial Symmetry) – जिन जन्तुओं के अंगों का विन्यास इस प्रकार होता है कि उनकी यदि किसी भी अर्द्धव्यास से काटा जाए तो वे दो समान भागों में विभक्त हो जाते है। जैसे- सीलेन्ट्रेटा (हाइड्रा)।

(iii) द्विपार्श्व सममिति (Bilateral Symmetry)- जिन जन्तुओं में अंगों का विन्यास इस प्रकार का होता है कि उनको केवल शरीर के ठीक मध्य से काटने पर ही दो समान भागों में विभक्त किया जा सकता है उन्हें सममित (Symmetrical) कहा जाता है। जैसे- मछली, मेंढक, चिड़िया, मनुष्य आदि। द्विपार्श्व सममिति जन्तुओं का अगला तथा पिछला सिरा पहचाना जा सकता है तथा इसी प्रकार पृष्ठतल तथा अधरतल को भी पहचाना जा सकता है।

ध्यातव्य है कि सबसे पहले शरीर में अरीय सममिति (radial symmetry) का विकास हुआ। तदोपरान्त त्रिस्तरीय अर्थात अंगीय स्तर के जन्तुओं में द्विपार्श्व सममिति (bilateral symmetry) का विकास हुआ।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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