शहरी क्षेत्र में आजीविका : अध्याय 8

सड़कों पर काम करना

हम वह शहर है जिसमें मेरी मौसेरी बहन रहती यह है। मैं यहाँ गिनी-चुनी बार ही आई हूँ। यह बहुत बड़ा शहर है। एक बार जब मैं यहाँ आई तो मेरी मौसेरी बहन मुझे घुमाने के लिए ले गई थी। हम तड़के ही घर से निकल गई थीं। जैसे ही हम मुख्य सड़क की तरफ मुड़े, हमने देखा कि वहाँ काफ़ी चहल-पहल थी। सब्ज़ी बेचने वाली अपनी रेहड़ी पर टमाटर, गाजर व खीरे को सजाने में व्यस्त थी ताकि लोग देख सकें कि उसके पास बेचने के लिए क्या-क्या है। उसकी बगल में फुटपाथ पर एक फूलवाली बैठी थी। वह सुंदर, रंगीन व तरह-तरह के फूल बेच रही थी। हमने उससे लाल और पीला गुलाब खरीदा।

सड़क के दूसरी तरफ पटरी पर एक व्यक्ति अखबार बेच रहा था और वह चारों ओर से लोगों से घिरा हुआ था। हर कोई अखबार को पढ़ना चाहता था। वहाँ से बसें ज़ोर-ज़ोर से हॉर्न बजाती हुई गुजर रही थीं।

ऑटोरिक्शा स्कूल के बच्चों से ठसाठस भरे हुए थे। पास के पेड़ के नीचे एक मोची छोटे से टिन के बक्से से अपना सामान निकाल रहा था। वहीं सड़क के किनारे नाई अपना काम शुरू कर चुका था, उसके पास एक ग्राहक पहले से ही था जो सुबह-सुबह दाढ़ी बनवाना चाहता था। सड़क से थोड़ी दूर जाकर एक औरत ठेलागाड़ी में प्लास्टिक की बोतलें, डिब्बे, बालों की पिन व चिमटी ले जा रही थी। वहीं पर एक दूसरा व्यक्ति घर-घर बेचने के लिए साइकिल पर सब्ज़ियाँ ले जा रहा था।

पर आ गई जहाँ हम उस जगह पर आ रिक्शेवाले एक कतार में खड़े होकर ग्राहक का इंतज़ार कर रहे थे। हमने एक को बाज़ार जाने के लिए तय किया। बाजार वहाँ से दो किलोमीटर पर था।

**बच्चू माँझी – एक रिक्शावाला

मैं बिहार के एक गाँव से आया हूँ जहाँ में मिस्त्री का था। मेरी बीवी और तीन बच्चे गाँव में ही रहते हैं। काम करता

हमारे पास जमीन नहीं है। गाँव में मिस्त्रीगिरी का काम लगातार नहीं मिलता था। जो कमाई होती थी वह परिवार के लिए पूरी नही पड़ती थी। जब में शहर पहुँचा तो मैंने यह पुराना रिक्शा खरीदा और इसका पैसा किस्तों में चुकाया। यह काफ़ी साल पहले की बात है।

रोज सुबह बस स्टॉप पर पहुँच जाता हूँ और ग्राहक जहाँ भी जाना चाहें, उन्हें वहाँ छोड़ देता हूँ। फिर रात को आठ-नौ बजे तक रिक्शा चलाता हूँ। मैं शहर की एक कॉलोनी में आस-पास करीब छः किलोमीटर तक रिक्शा चलाता हूँ। दूरी के हिसाब से हर ग्राहक मुझे 10-30 रुपये तक देता है। जब तबीयत खराब हो जाती है तब मैं यह काम नहीं कर पाता। उन दिनों कमाई बिल्कुल नहीं हो पाती।

मैं अपने दोस्तों के साथ किराए के कमरे में रहता हूँ। वे सब पास की फ़ैक्टरी में काम करते हैं। रोज 200-300 रुपये तक मेरी कमाई हो जाती है जिसमें से 100-150 रुपये खाने और किराए पर खर्च हो जाते हैं। बाकी में परिवार के लिए बचा लेता हूँ। साल में दो तीन बार में अपने परिवार से मिलने गाँव जाता हूँ। जो पैसा शहर से भेजता हूँ. मेरा परिवार उसी पर जीता है। कभी-कभार मेरी बीवी खेतों में मजदूरी करके थोड़ा-बहुत कमा लेती है।**

बच्चू माँझी की तरह ही शहर में कई सारे लोग सड़कों पर काम करते हैं। वे चीजें बेचते हैं, उनकी मरम्मत करते हैं या कोई सेवा देते हैं। वे स्व-रोज़गार में लगे हैं। उनको कोई दूसरा व्यक्ति रोज़गार नहीं देता है इसीलिए। उन्हें अपना काम खुद ही सँभालना पड़ता है। वे खुद योजना बनाते हैं कि कितना माल खरीदें और कहाँ व कैसे अपनी दुकान लगाएँ। उनकी दुकानें अस्थायी होती हैं। कभी-कभी तो टूटे-फूटे गत्ते के डिब्बों या बक्सों पर कागज़ फैलाकर दुकान बन जाती है या खंबों पर तिरपाल या प्लास्टिक चढ़ा लेते हैं। वे अपने ठेले या सड़क की पटरी पर प्लास्टिक बिछा कर भी काम चलाते हैं। उनको पुलिस कभी भी अपनी दुकान हटाने को कह देती है। उनके पास कोई सुरक्षा नहीं होती। कई ऐसी भी जगहें हैं जहाँ ठेलेवालों को घुसने ही नहीं दिया जाता। ठेलेवाले जो चीजें बेचते हैं वे अक्सर घर पर उनके परिवारवाले बनाते हैं। परिवारवाले चीज़ों को ख़रीद कर साफ करके, छाँट करके बेचने के लिए तैयार करते हैं। उदाहरण के लिए जो सड़कों पर खाना या नाश्ता बेचते हैं वह ज़्यादातर घर पर ही बनाया जाता है। अहमदाबाद शहर के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि काम करने वालों में से 12 प्रतिशत लोग सड़कों पर काम कर रहे थे।

हमारे देश के शहरी इलाकों में लगभग एक करोड़ लोग फुटपाथ और ठेलों पर सामान बेचते हैं। अभी हाल-फिलहाल तक गलियों और फुटपाथ पर इस काम को यातायात और पैदल चलनेवाले लोगों के लिए एक रुकावट की तरह देखा जाता था। लेकिन कई संस्थाओं के प्रयास से अब इसको सभी के लिए उपयोगी और आजीविका कमाने के अधिकार के रूप में देखा जा रहा है। सरकार भी उस कानून को बदलने पर विचार कर रही है जिससे उनपर प्रतिबंध लगा हुआ था। कानून में बदलाव आने से उनके पास काम करने की जगह होगी और यातायात एवं लोगों का आवागमन भी सहज रूप से हो पाएगा। ऐसा सुझाव है कि शहरों में कुछ इलाके फुटपाथ और ठेलों पर सामान बेचने वालों के लिए तय कर दिए जाएँ। यह भी सुझाव है कि उन्हें खुले रूप से आने-जाने की अनुमति हो और वे लोग उन समितियों में रखे जाएँ जो इन मुद्दों पर निर्णय लेती हैं।

बाज़ार में

जब हम बाज़ार पहुँचीं तो दुकानें अभी खुलनी शुरू ही हुई थीं। लेकिन त्योहार के कारण वहाँ बहुत भीड़ हो चुकी थी। वहाँ मिठाई, खिलौने, कपड़े, चप्पल, बर्तन, बिजली के सामान इत्यादि की दुकानों की कतार पर कतार थी। एक कोने में दाँतों के डॉक्टर का क्लीनिक था। मेरी मौसेरी बहन ने उनसे पहले से ही समय ले रखा था। हम वहाँ पहले पहुँच गईं जिससे हमारी बारी न चली जाए। हमें थोड़ी देर एक कमरे में इंतजार करना पड़ा। डॉक्टर ने उसके दाँतों का परीक्षण किया और दाँत का छेद भरवाने के लिए अगले दिन आने को कहा। वह बहुत डर गई थी क्योंकि उसने सोचा कि एक तो अपना दाँत खराब होने दिया और ऊपर से इतना दर्द सहन करना पड़ेगा।

डॉक्टर के यहाँ से हम सिले हुए कपड़ों के एक शोरूम पर गईं क्योंकि मैं कुछ सिले-सिलाए कपड़े खरीदना चाहती थी। इस शोरूम की तीन मंज़िलें थीं और हर मंजिल पर अलग तरीके के कपड़े थे। हम तीसरी मंजिल पर पहुँचीं जहाँ लड़कियों के कपड़े रखे हुए थे।

बड़ी दुकान में

हरप्रीत – पहले मेरे पापा और चाचा एक छोटी-सी दुकान पर काम करते थे। इतवार को और त्योहारों के समय मैं और मेरी माँ उनकी मदद करते थे। मैंने कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद वहाँ काम करना शुरू किया। अब मेरी पत्नी वंदना और मैं यह शोरूम चलाते हैं।

वन्दना – हमने कुछ साल पहले यह शोरूम खोला। मैं एक ड्रेस डिज़ायनर हूँ। मैंने तरह-तरह के फ़ैशन के कपड़े बनाने की पढ़ाई की है। लेकिन आजकल लोग कपड़े सिलवाने की जगह सिले-सिलाए यानी रेडीमेड कपड़े खरीदना पसंद करते हैं। इसलिए मेरा ध्यान इस बात पर ज़्यादा रहता है कि कैसे इन रेडीमेड कपड़ों को आकर्षक रूप से सजाकर रखा जाए।

हम अपने शोरूम के लिए अलग-अलग जगहों से सामान खरीदते हैं। ज़्यादातर माल मुंबई, अहमदाबाद, लुधियाना और त्रिपुर से आता है। कुछ सामान दिल्ली के पास के शहरों जैसे गुड़गाँव और नोएडा से भी आता है। कुछ कपड़े हम विदेशों से भी मँगवाते हैं। इस शोरूम को सही रूप से चलाने के लिए हमें कई चीजें करनी पड़ती हैं। हम विभिन्न अखबारों में, सिनेमा हॉल में, टेलीविज़न व रेडियो चैनल पर विज्ञापन देते हैं। अभी तो यह शोरूम किराए पर है, पर हम इसे जल्द ही खरीद लेंगे। जब से यह बाज़ार आस-पास रहने वाले लोगों के लिए मुख्य बाज़ार बन गया है तबसे हमारा व्यापार बहुत बढ़ गया है। हमने एक कार खरीद ली है और पास की सोसायटी में एक फ़्लैट भी ले लिया है।

हरप्रीत और वंदना की तरह कई लोग हैं जिनके पास शहर के बाज़ारों में अपनी दुकानें हैं। ये दुकानें छोटी-बड़ी हैं और लोग अलग-अलग चीजें बेचते हैं। ज्यादातर व्यापारी अपनी दुकान या व्यापार खुद सँभालते हैं। वे किसी दूसरे की नौकरी नहीं करते। लेकिन वे खुद कई लोगों को मैनेजर या सहायक की तरह नौकरी पर रखते हैं।

ये पक्की दुकानें होती हैं जिनके पास नगर निगम से व्यापार करने के लिए लाइसेंस होता है। नगर निगम यह निश्चित करता है कि सप्ताह में कौन से दिन बाज़ार बंद रहेगा। उदाहरण के लिए इस बाज़ार में दुकानें बुधवार को बंद रहती हैं। इस बाज़ार में छोटे-छोटे दफ़्तर और अन्य दुकानें भी हैं जो बैंक, कूरियर इत्यादि की सेवाएँ देती हैं।

फैक्ट्री में

मैं अपने एक कपड़े पर जरी का काम करवाना चाहती थी जो मुझे एक खास मौके पर पहनना था। मेरी बहन ने कहा कि वह निर्मला को जानती है जो एक कपड़े सिलने की फैक्ट्री में काम करती है। निर्मला के पड़ोसी ज़री और कढ़ाई का काम करते हैं। हमने बस पकड़ी और फ़ैक्ट्री की तरफ चल पड़ीं। बस खचाखच भरी हुई थी। हर स्टॉप पर लोग चढ़ते ही जा रहे थे और कोई भी उतरने का नाम नहीं ले रहा था। अपनी जगह बनाने के लिए लोग एक-दूसरे को धक्का दे रहे थे। मेरी बहन ने मुझे एक कोने पर खड़ा कर दिया ताकि भीड़ में हमारा भुरता न बन जाए। मुझे हैरानी हो रही थी कि लोग रोज़ ऐसे कैसे सफ़र करते हैं। जैसे ही बस फैक्ट्री के पास पहुँची लोग उतरने लगे। हम भी एक मोड़ पर उतर गईं। आह! जान में जान आई।

मोड़ पर बड़े सारे लोग समूहों में बाड़ों पर बैठे हुए थे। कुछ टिककर खड़े हुए थे। उन्हें देखकर लग रहा था कि वे शायद किसी का इंतज़ार कर रहे थे। कुछ लोग स्कूटरों पर सवार उनसे बात कर रहे थे और रेट’ को लेकर मोल-तोल कर रहे थे। मेरी बहन ने समझाया कि यह ‘लेबर चौक’ कहलाता है। ये दिहाड़ी पर काम करने वाले मज़दूर और मिस्त्री हैं। कुछ जहाँ भवन बन रहे होते हैं वहाँ मज़दूरी करते हैं। कुछ बोझा ढोते हैं और ट्रकों से सामान उतारते हैं। कुछ लोग टेलीफ़ोन की लाइन और पानी की पाइप के लिए खुदाई का काम भी करते हैं।

लेकिन इन्हें हमेशा काम नहीं मिलता। ऐसे हजारों अनियमित मज़दूर शहर में हैं।

हम फ़ैक्ट्री में घुसे तो हमने पाया कि वहाँ अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग विभाग थे। उनमें ऐसा लग रहा था कि लोगों की कभी न खत्म होने वाली पंक्तियाँ थीं। जहाँ कपड़े सिले जा रहे थे उस विभाग में हमने देखा कि लोग छोटे से कमरे में मशीनों पर काम कर रहे थे। एक-एक व्यक्ति एक-एक सिलाई की मशीन पर लगा हुआ था और हर कमरे में ऐसी बहुत सारी मशीनें थीं। जो कपड़े तैयार हो रहे थे वे कमरे में एक तरफ तह कर के लगाए जा रहे थे।

हमने निर्मला को ऐसी ही एक जगह पर पाया। वह मेरी बहन से मिलकर बहुत खुश हुई और उसने वादा किया कि मेरे कपड़ों पर ज़री का काम करवा देगी।

निर्मला कपड़े निर्यात करने वाली एक कंपनी में दर्जी का काम करती है। जिस फ़ैक्ट्री में वह काम करती है वहाँ अमरीका, इंग्लैंड, जर्मनी और नीदरलैंड जैसे देशों के लोगों के लिए गर्मी के कपड़े सिले जाते हैं। दिसंबर से अप्रैल तक निर्मला पर काम का बोझ बहुत ज़्यादा रहता है। है। अक्सर वह 9 बजे सुबह काम शुरू करती है और रात 10 बजे तक ही काम निपट पाता है। कई बार और भी देर हो जाती है। वह हफ्ते में छः दिन काम करती है। जब काम जल्दी का होता है तो उन्हें इतवार को भी काम पर जाना पड़ता है। निर्मला को रोज़ आठ घंटे काम करने के ₹280 मिलते हैं और अतिरिक्त ₹ 100 देर तक काम करने का मिलता है। जून तक काम खत्म हो जाता है तो फ़ैक्ट्रीवाले इन दर्जियों की संख्या घटा देते हैं। निर्मला को भी निकाल दिया जाएगा। हर साल करीब तीन से चार महीने के लिए उसके पास काम नहीं रहता है।

निर्मला की तरह ज्यादातर कारीगर अनियमित रूप से काम में लगे हुए हैं। मतलब उनको काम पर तभी आना होता है जब मालिक को ज़रूरत होती है। उनको रोज़गार तभी मिलता है जब मालिक को बहुत सारा काम मिल जाता है या फिर खास मौसमों में काम मिलता है। साल के बचे हुए समय में उन्हें दूसरा काम ढूँढ़ना पड़ता है। निर्मला की तरह की नौकरियाँ स्थायी नहीं होतीं। अगर कारीगर अपनी तनख्वाह या परिस्थितियों के बारे में शिकायत करते हैं तो उन्हें निकाल दिया जाता है। नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं होती और अगर कोई बुरा व्यवहार करे तो उनके बचाव के लिए कुछ नहीं होता। उनसे बहुत लंबे समय तक रोज़ काम करने की उम्मीद भी रखी जाती है। उदाहरण के लिए बिजली से चलने वाले करघों की यानी पावरलूम फ़ैक्ट्री में मज़दूर दिन और रात की पालियों में बारह-बारह घंटे तक काम करते हैं। उन्हें आठ घंटों से ज़्यादा काम करने की मज़दरी अलग से नहीं मिलती।

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दफ़्तर में

मेरी मौसी सुधा विपणन प्रबंधक यानी मार्केटिंग मैनेजर हैं। उन्होंने हमें शाम साढ़े पाँच से पहले अपने दफ़्तर पहुँचने को कहा था। हमने सोचा कि देर न हो जाए इसीलिए ऑटोरिक्शा ले लिया जिसने हमें बिल्कुल समय पर पहुँचा दिया। उनका दफ़्तर ऐसी जगह पर था जहाँ चारों तरफ बड़ी-बड़ी इमारतें थीं। उनमें से सैकड़ों लोग बाहर आ रहे थे। कुछ कार पार्किंग की तरफ बढ़ रहे थे और कुछ बसों की पंक्तियों की तरफ।

मौसी एक बिस्कुट बनाने वाली कंपनी में मैनेजर का काम करती हैं। बिस्कुट शहर के बाहर एक फ़ैक्ट्री में बनाए जाते हैं। मौसी पचास विक्रेताओं (सेल्समैन) के काम का निरीक्षण करती हैं जो शहर के विभिन्न भागों में आते-जाते हैं। ये लोग दुकानदारों से बड़े-बड़े आर्डर लेते हैं और उनसे भुगतान इकट्ठा करते हैं।

काम को सुचारु रूप से चलाने के लिए मौसी ने शहर को छः भागों में बाँट दिया है और वे हर हफ़्ते एक भाग के विक्रेताओं से मिलती हैं। वे उनकी प्रगति रपट देखती हैं और उनकी समस्याओं पर चर्चा करती हैं। उनको पूरे शहर में बिक्री की योजना बनानी होती है और अक्सर देर रात तक काम करना पड़ता है। उन्हें काम के सिलसिले में यात्राएँ भी करनी पड़ती हैं। मौसी को नियमित तनख्वाह मिलती है और वह बिस्कुट कंपनी की स्थायी कर्मचारी हैं। वे यह उम्मीद रख सकती हैं कि उनकी नौकरी लंबे समय तक चलेगी। स्थायी कर्मचारी होने के कारण उनको निम्नलिखित फायदे भी मिलते हैं –

बुढ़ापे के लिए बचत – उनकी तनख्वाह का एक भाग भविष्य निधि में सरकार के पास डाल दिया जाता है। इस बचत पर ब्याज भी मिलता है। नौकरी से सेवानिवृत्त होने पर यह पैसा मिल जाता है।

छुट्टियाँ – इतवार और राष्ट्रीय त्योहारों के लिए छुट्टी मिलती है। उनको वार्षिक छुट्टी के रूप में भी कुछ दिन मिलते हैं।

परिवार के लिए चिकित्सा की सुविधाएँ- कंपनी एक सीमा तक कर्मचारी और उनके परिवारजनों के इलाज का खर्चा उठाती है। अगर तबीयत खराब हो जाए तो कर्मचारी को बीमारी के दौरान छुट्टी मिलती है।

शहर में ऐसे कई कर्मचारी होते हैं जो दफ़्तरों, फैक्ट्रियों और सरकारी विभागों में काम करते है जहाँ उन्हें नियमित और स्थायी कर्मचारी की तरह रोज़गार मिलता है। वे लगातर उसी दफ़्तर या फ़ैक्ट्री में काम पर जाते हैं। उनका काम भी तय होता है। उनको हर महीने तनख्वाह मिलती है। अगर फैक्ट्री में काम कम हो तो भी उन्हें अनियमित रूप से काम करने वाले मज़दूरों की तरह निकाला नहीं जाता।

आखिर दिन खत्म हुआ और हम मौसी की कार में थकी-माँदी बैठ गईं। लेकिन आज बहुत मज़ा आया। मैंने सोचा कि कितना अच्छा है कि शहर में इतने सारे लोग इतनी तरह का काम करते हैं। वे कभी एक-दूसरे से मिलते भी नहीं, मगर उनका काम उन्हें बाँधता है और शहरी जीवन को बनाए रखता है।

अभ्यास

1. नीचे लेबर चौक पर आने वाले मज़दूरों की जिंदगी का विवरण दिया गया है। इसे पढ़िए और आपस में चर्चा कीजिए कि लेबर चौक पर आने वाले मज़दूरों के जीवन की क्या स्थिति है?

लेबर चौक पर जो मज़दूर रहते हैं उनमें से ज़्यादातर अपने रहने की स्थायी व्यवस्था नहीं कर पाते और इसलिए वे चौक के पास फुटपाथ पर सोते हैं या फिर पास के रात्रि विश्राम गृह (रैन बसेरा) में रहते हैं। इसे नगरनिगम चलाता है और इसमें छः रुपया एक बिस्तर का प्रतिदिन किराया देना पड़ता है। सामान की सुरक्षा का कोई इंतज़ाम न रहने के कारण वे वहाँ के चाय या पान-बीड़ी वालों की दुकानों को बैंक के रूप में इस्तेमाल करते हैं। उनके पास वे पैसा जमा करते हैं और उनसे उधार भी लेते हैं। वे अपने औज़ारों को रात में उनके पास हिफाजत के लिए छोड़ इ देते हैं। दुकानदार मज़दूरों के सामान की सुरक्षा के साथ ज़रूरत पड़ने पर उन्हें कर्ज भी देते हैं।
Ans.
• ये कर्मचारी या तो दिहाड़ी मजदूर हैं या अपना काम करते हैं जैसे बोझा ढोना रेहड़ी या रिक्शा चलाना। जब बीमार पड़ते है तो उस दिन काम नही कर पाते।

• ये फटेहाल खुली सड़को पर रहते है।

• बरसात में रैन बसेरों में सोने के लिए उन्हें पैसे देने होते हैं।

2. एक स्थायी और नियमित नौकरी अनियमित काम से किस तरह अलग है?
Ans.
स्थायी और नियमित कर्मचारी को मासिक तनख्वाह और अन्य अनेक लाभ मिलते है, जैसे रविवार की छुट्टी, राष्ट्रीय त्योहारों की छुट्टी, एक सीमा तक इलाज का खर्चा तथा अन्य लाभ। उनके काम करने के समय निश्चत होते हैं। अनियमित कर्मचारियों को दिहाड़ी मिलती है। जिस दिन वे काम नहीं करते तो उन्हें पैसा नहीं मिलता। उन्हें कोई छुट्टी नहीं मिलती, बुढ़ापे में अन्य कोई लाभ और अतिरिक्त पैसा नही मिलता।

3. सुधा को अपने वेतन के अलावा और कौन-से लाभ मिलते हैं?
Ans.
• रविवार और राष्ट्रीय त्योहारों की छुट्टी

• कुछ दिनों का वार्षिक अवकाश

• उनको और उनके परिवार को एक सीमा तक मुफ्त इलाज की सुविधा।

• बुढ़ापे के लिए बचतः उसकी तनख्वाह का एक भाग भविष्य निधि में सरकार के पास डाल दिया जाता है। इस बचत पर ब्याज भी मिलता है।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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