औद्योगीकरण का युग : अध्याय 4

चित्र 1 डॉन ऑफ द सेंचुरी, ई.टी. पॉल म्यूजिक कंपनी, न्यूयॉर्क (अमेरिका) एवं इंग्लैंड, 1900

ई.टी. पॉल म्यूज़िक कंपनी ने सन् 1900 में संगीत की एक किताब प्रकाशित की थी जिसकी जिल्द पर दी गई तसवीर में ‘नयी सदी के उदय’ (डॉन ऑफ़ द सेंचुरी) (चित्र 1) का ऐलान किया था। जैसा कि आप इस चित्र में देख सकते हैं, तसवीर के मध्य में एक देवी जैसी तसवीर है। यह देवी हाथ में नयी शताब्दी की ध्वजा लिए प्रगति का फ़रिश्ता दिखाई देती है। उसका एक पाँव पंखों वाले पहिये पर टिका हुआ है। यह पहिया समय का प्रतीक है। उसकी उड़ान भविष्य की ओर है। उसके पीछे उन्नति के चिह्न तैर रहे हैं : रेलवे, कैमरा, मशीनें, प्रिंटिंग प्रेस और कारखाना।

मशीन और तकनीक का यह महिमामंडन एक अन्य तसवीर में और भी ज्यादा साफ़ दिखाई देता है। यह तसवीर एक व्यापारिक पत्रिका के पन्नों पर सौ साल से भी पहले छपी थी (चित्र 2)। इस तसवीर में दो जादूगर दिखाए गए हैं। ऊपर वाले हिस्से में प्राच्य (Orient) इलाके का अलादीन है जिसने अपने जादुई चिराग को रगड़ कर एक भव्य महल का निर्माण कर दिया है। नीचे एक आधुनिक मेकैनिक है जो अपने आधुनिक औज़ारों से एक नया जादू रच रहा है। वह पुल, पानी के जहाज, मीनार और गगनचुंबी इमारतें बनाता है। अलादीन पूरब और अतीत का प्रतीक है; मेकैनिक पश्चिम और आधुनिकता का।

ये तसवीरें आधुनिक विश्व की विजयगाथा कहती हैं। इस गाथा में आधुनिक विश्व द्रुत तकनीकी बदलावों व आविष्कारों, मशीनों व कारखानों, रेलवे और वाष्पपोतों की दुनिया के रूप में दर्शाया गया है। इसमें औद्योगीकरण का इतिहास विकास की कहानी के रूप में सामने आता है और आधुनिक युग तकनीकी प्रगति के भव्य युग के रूप में उभरता है।

अब ये छवियाँ और ये संबंध लोकमानस का हिस्सा बन चुके हैं। क्या आप भी तेज़ औद्योगीकरण को प्रगति व आधुनिकता के काल के रूप में नहीं देखते? क्या आपको नहीं लगता कि रेलवे और फैक्ट्रियों का निर्माण, गगनचुंबी इमारतों व पुलों का विस्तार समाज के विकास का द्योतक होता है?

ये छवियाँ किस प्रकार विकसित हुई हैं? इन विचारों से हमारा क्या संबंध है? क्या औद्योगीकरण के लिए तीव्र तकनीकी विकास हमेशा जरूरी होता है? क्या आज भी हम तमाम तरह के कामों के दिनोंदिन बढ़ते मशीनीकरण का गुणगान कर सकते हैं? औद्योगीकरण से लोगों की जिंदगी पर क्या असर पड़ा है? ऐसे सवालों का जवाब देने के लिए हमें औद्योगीकरण के इतिहास को समझना पड़ेगा।

इस अध्याय में हम यही इतिहास पढ़ेंगे। यहाँ हम दुनिया के पहले औद्योगिक राष्ट्र-ब्रिटेन और उसके बाद भारत में औद्योगीकरण का अध्ययन करेंगे जहाँ औद्योगिक बदलावों का पैटर्न औपनिवेशिक शासन से तय हो रहा था।

चित्र 2- दो जादूगर, इनलैंड प्रिंटर्स में प्रकाशित, 26 जनवरी 1901

1. औद्योगिक क्रांति से पहले

औद्योगीकरण को अकसर हम कारखानों के विकास के साथ ही जोड़कर देखते हैं। जब हम औद्योगिक उत्पादन की बात करते हैं तो हमारा आशय फैक्ट्रियों में होने वाले उत्पादन से होता है। और जब हम औद्योगिक मजदूरों की बात करते हैं, तो भी हमारा आशय कारखानों में काम करने वाले मजदूरों से ही होता है। औद्योगीकरण के इतिहास अकसर प्रारंभिक फैक्ट्रियों की स्थापना से शुरू होते हैं।

पर इस सोच में एक समस्या है। दरअसल, इंग्लैंड और यूरोप में फैक्ट्रियों की स्थापना से भी पहले ही अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन होने लगा था। यह उत्पादन फैक्ट्रियों में नहीं होता था। बहुत सारे इतिहासकार औद्योगीकरण के इस चरण को आदि-औद्योगीकरण (proto- industrialisation) का नाम देते हैं।

सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों की तरफ़ रुख करने लगे थे। वे किसानों और कारीगरों को पैसा देते थे और उनसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए उत्पादन करवाते थे। उस समय विश्व व्यापार के विस्तार और दुनिया के विभिन्न भागों में उपनिवेशों की स्थापना के कारण चीजों की माँग बढ़ने लगी थी। इस माँग को पूरा करने के लिए केवल शहरों में रहते हुए उत्पादन नहीं बढ़ाया जा सकता था। वजह यह थी कि शहरों में शहरी दस्तकारी और व्यापारिक गिल्ड्स काफ़ी ताकतवर थे। ये गिल्ड्स उत्पादकों के संगठन होते थे। गिल्ड्स से जुड़े उत्पादक कारीगरों को प्रशिक्षण देते थे, उत्पादकों पर नियंत्रण रखते थे, प्रतिस्पर्धा और मूल्य तय करते थे तथा व्यवसाय में नए लोगों को आने से रोकते थे। शासकों ने भी विभिन्न गिल्ड्स को खास उत्पादों के उत्पादन और व्यापार का एकाधिकार दिया हुआ था। फलस्वरूप, नए व्यापारी शहरों में कारोबार नहीं कर सकते थे। इसलिए वे गाँवों की तरफ़ जाने लगे।

चित्र 3 अठारहवीं सदी में कताई।

गाँवों में गरीब काश्तकार और दस्तकार सौदागरों के लिए काम करने लगे। जैसा कि आपने पिछले साल की पाठ्यपुस्तक में देखा है, यह एक ऐसा समय था जब खुले खेत खत्म होते जा रहे थे और कॉमन्स की बाड़ाबंदी की जा रही थी। अब तक अपनी रोजी-रोटी के लिए साझा जमीनों से जलावन की लकड़ी, बेरियाँ, सब्ज़ियाँ, भूसा और चारा आदि बीन कर काम चलाने वाले छोटे किसान (कॉटेजर) और गरीब किसान आमदनी के नए स्रोत ढूँढ़ रहे थे। बहुतों के पास छोटे-मोटे खेत तो थे लेकिन उनसे घर के सारे लोगों का पेट नहीं भर सकता था। इसीलिए, जब सौदागर वहाँ आए और उन्होंने माल पैदा करने के लिए पेशगी रकम दी तो किसान फ़ौरन तैयार हो गए। सौदागरों के लिए काम करते हुए वे गाँव में ही रहते हुए अपने छोटे-छोटे खेतों को भी सँभाल सकते थे।

इस आदि-औद्योगिक उत्पादन से होने वाली आमदनी ने खेती के कारण सिमटती आय में बड़ा सहारा दिया। अब उन्हें पूरे परिवार के श्रम संसाधनों के इस्तेमाल का मौका भी मिल गया।

इस व्यवस्था से शहरों और गाँवों के बीच एक घनिष्ठ संबंध विकसित हुआ। सौदागर रहते तो शहरों में थे लेकिन उनके लिए काम ज्यादातर देहात में चलता था। इंग्लैंड के कपड़ा व्यवसायी स्टेप्लर्स (Staplers) से ऊन खरीदते थे और उसे सूत कातने वालों के पास पहुँचा देते थे। इससे जो धागा मिलता था उसे बुनकरों, फुलर्जा (Fullers), और रंगसाजों के पास ले जाया जाता था। लंदन में कपड़ों की फिनिशिंग होती थी। इसके बाद निर्यातक व्यापारी कपड़े को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेच देते थे। इसीलिए लंदन को तो फिनिशिंग सेंटर के रूप में ही जाना जाने लगा था।

यह आदि-औद्योगिक व्यवस्था व्यवसायिक आदान-प्रदान के नेटवर्क का हिस्सा थी। इस पर सौदागरों का नियंत्रण था और चीजों का उत्पादन कारखानों की बजाय घरों में होता था। उत्पादन के प्रत्येक चरण में प्रत्येक सौदागर 20-25 मज़दूरों से काम करवाता था। इसका मतलब यह था कि कपड़ों के हर सौदागर के पास सैकड़ों मजदूर काम करते थे।

1.1 कारखानों का उदय

इंग्लैंड में सबसे पहले 1730 के दशक में कारखाने खुले लेकिन उनकी संख्या में तेजी से इज्ज़ाफ़ा अठारहवीं सदी के आखिर में ही हुआ।

कपास (कॉटन) नए युग का पहला प्रतीक थी। उन्नीसवीं सदी के आखिर में कपास के उत्पादन में भारी बढ़ोतरी हुई। 1760 में ब्रिटेन अपने कपास उद्योग की जरूरतों को पूरा करने के लिए 25 लाख पौंड कच्चे कपास का आयात करता था 1787 में यह आयात बढ़कर 220 लाख पौंड तक पहुँच गया। यह इज़ाफ़ा उत्पादन की प्रक्रिया में बहुत सारे बदलावों का परिणाम था। आइए देखें कि ये बदलाव कौन से थे।

चित्र 4 – लंकाशायर की एक कॉटन मिल, सी.ई. टर्नर द्वारा बनाया चित्र, दि इलस्ट्रेटेड लंदन न्यूज, 1925 

अठारहवीं सदी में कई ऐसे आविष्कार हुए जिन्होंने उत्पादन प्रक्रिया (कार्डिंग, ऐंठना व कताई, और लपेटने) के हर चरण की कुशलता बढ़ा दी। प्रति मज़दूर उत्पादन बढ़ गया और पहले से ज्यादा मजबूत धागों व रेशों का उत्पादन होने लगा। इसके बाद रिचर्ड आर्कराइट ने सूती कपड़ा मिल की रूपरेखा सामने रखी। अभी तक कपड़ा उत्पादन पूरे देहात में फैला हुआ था। यह काम लोग अपने-अपने घर पर ही करते थे। लेकिन अब मँहगी नयी मशीनें खरीदकर उन्हें कारखानों में लगाया जा सकता था। कारखाने में सारी प्रक्रियाएँ एक छत के नीचे और एक मालिक के हाथों में आ गई थीं। इसके चलते उत्पादन प्रक्रिया पर निगरानी, गुणवत्ता का ध्यान रखना और मजदूरों पर नज़र रखना संभव हो गया था। जब तक उत्पादन गाँवों में हो रहा था तब तक ये सारे काम संभव नहीं थे।

उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में कारखाने इंग्लैंड के भूदृश्य का अभिन्न अंग बन गए थे। ये नए कारखाने इतने विशाल, और नयी प्रौद्योगिकी की ताकत इतनी जादुई दिखाई देती थी कि उस समय के लोगों की आँखें चौंधिया जाती थीं। लोगों का ध्यान कारखानों पर टिका रह जाता था। वे इस बात को मानो भूल ही जाते थे कि उनकी आँखों से ओझल गलियों और वर्कशॉप्स में अभी भी उत्पादन चालू है।

1.2 औद्योगिक परिवर्तन की रफ्तार

औद्योगीकरण की प्रक्रिया कितनी तेज थी? क्या औद्योगीकरण का मतलब केवल फैक्ट्री उद्योगों के विकास तक ही सीमित होता है?

चित्र 5 – औद्योगिक मैनचेस्टर, एम. जैक्सन का चित्र, व इलस्ट्रेटेड लंदन न्यूज, 1857 

पहला : सूती उद्योग और कपास उद्योग ब्रिटेन के सबसे फलते-फूलते उद्योग थे। तेजी से बढ़ता हुआ कपास उद्योग 1840 के दशक तक औद्योगीकरण के पहले चरण में सबसे बड़ा उद्योग बन चुका था। इसके बाद लोहा और स्टील उद्योग आगे निकल गए। 1840 के दशक से इंग्लैंड में और 1860 के दशक से उसके उपनिवेशों में रेलवे का विस्तार होने लगा था। फलस्वरूप लोहे और स्टील की ज़रूरत तेजी से बढ़ी। 1873 तक ब्रिटेन के लोहा और स्टील निर्यात का मूल्य लगभग 7.7 करोड़ पौंड हो गया था। यह राशि इंग्लैंड के कपास निर्यात के मूल्य से दोगुनी थी।

दूसरा : नए उद्योग परंपरागत उद्योगों को इतनी आसानी से हाशिए पर नहीं ढकेल सकते थे। उन्नीसवीं सदी के आखिर में भी तकनीकी रूप से विकसित औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों की संख्या कुल मज़दूरों में 20 प्रतिशत से ज्यादा नहीं थी। कपड़ा उद्योग एक गतिशील उद्योग था लेकिन उसके उत्पादन का बड़ा हिस्सा कारखानों में नहीं बल्कि घरेलू इकाइयों में होता था।

तीसरा : यद्यपि ‘परंपरागत’ उद्योगों में परिवर्तन की गति भाप से चलने वाले सूती और धातु उद्योगों से तय नहीं हो रही थी लेकिन ये परंपरागत उद्योग पूरी तरह ठहराव की अवस्था में भी नहीं थे। खाद्य प्रसंस्करण, निर्माण, पॉटरी, काँच के काम, चर्मशोधन, फर्नीचर और औजारों के उत्पादन जैसे बहुत सारे गैर-मशीनी क्षेत्रों में जो तरक्की हो रही थी वह मुख्य रूप से साधारण और छोटे-छोटे आविष्कारों का ही परिणाम थी।

चौथा : प्रौद्योगिकीय बदलावों की गति धीमी थी। औद्योगिक भूदृश्य पर ये बदलाव नाटकीय तेज़ी से नहीं फैले। नयी तकनीक मँहगी थी। सौदागर व व्यापारी उनके इस्तेमाल के सवाल पर फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाते थे। मशीनें अकसर खराब हो जाती थीं और उनकी मरम्मत पर काफ़ी खर्चा आता था। वे उतनी अच्छी भी नहीं थीं जितना उनके आविष्कारकों और निर्माताओं का दावा था।

चित्र 6 – इंग्लैंड में एक रेलवे कारखाने में फ़िटिंग शॉप, दि इलस्ट्रेटेड लंदन न्यूज, 1849

इस बात को समझने के लिए आइए भाप के इंजन का उदाहरण लें। जेम्स वॉट ने न्यूकॉमेन द्वारा बनाए गए भाप के इंजन में सुधार किए और 1871 में नए इंजन को पेटेंट करा लिया। इस मॉडल का उत्पादन उनके दोस्त उद्योगपति मैथ्यू बूल्टन ने किया। पर, सालों तक उन्हें कोई खरीदार नहीं मिला। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक पूरे इंग्लैंड में भाप के सिर्फ 321 इंजन थे। इनमें से 80 इंजन सूती उद्योगों में, 9 ऊन उद्योगों में और बाकी खनन, नहर निर्माण और लौह कार्यों में इस्तेमाल हो रहे थे। और किसी उद्योग में भाप के इंजनों का इस्तेमाल काफ़ी समय बाद तक भी नहीं हुआ। यानी मजदूरों की उत्पादन क्षमता को कई गुना बढ़ाने की संभावना वाली सबसे शक्तिशाली प्रौद्योगिकी को अपनाने में भी उद्योगपति बहुत हिचकिचा रहे थे।

चित्र 7- 1830 की एक कताई फैक्ट्री।

अब इतिहासकार इस बात को मानने लगे हैं कि उन्नीसवीं सदी के मध्य का औसत मज़दूर मशीनों पर काम करने वाला नहीं बल्कि परंपरागत कारीगर और मज़दूर ही होता था।

2.  हाथ का श्रम और वाष्प शक्ति

विक्टोरिया कालीन ब्रिटेन में मानव श्रम की कोई कमी नहीं थी। गरीब किसान और बेकार लोग कामकाज की तलाश में बड़ी संख्या में शहरों को जाते थे। जैसा कि आप आगे जानेंगे, जब श्रमिकों की बहुतायत होती है तो वेतन गिर जाते हैं। इसीलिए, उद्योगपतियों को श्रमिकों की कमी या वेतन के मद में भारी लागत जैसी कोई परेशानी नहीं थी। उन्हें ऐसी मशीनों में कोई दिलचस्पी नहीं थी जिनके कारण मज़दूरों से छुटकारा मिल जाए और जिन पर बहुत ज्यादा खर्चा आने वाला हो।

बहुत सारे उद्योगों में श्रमिकों की माँग मौसमी आधार पर घटती-बढ़ती रहती थी। गैसघरों और शराबखानों में जाड़ों के दौरान खासा काम रहता था। इस दौरान उन्हें ज्यादा मज़दूरों की जरूरत होती थी। क्रिसमस के समय बुक बाइंडरों और प्रिंटरों को भी दिसंबर से पहले अतिरिक्त मज़दूरों की दरकार रहती थी। बंदरगाहों पर जहाजों की मरम्मत और साफ़-सफाई व सजावट का काम भी जाड़ों में ही किया जाता था। जिन उद्योगों में मौसम के साथ उत्पादन घटता-बढ़ता रहता था वहाँ उद्योगपति मशीनों की बजाय मजदूरों को ही काम पर रखना पसंद करते थे।

चित्र 8- काम की तलाश में निकले लोग, दि इलस्ट्रेटेड लंदन न्यूज, 1879

बहुत सारे उत्पाद केवल हाथ से ही तैयार किए जा सकते थे। मशीनों से एक जैसे तय किस्म के उत्पाद ही बड़ी संख्या में बनाए जा सकते थे। लेकिन बाजार में अकसर बारीक डिज़ाइन और खास आकारों वाली चीजों की काफ़ी माँग रहती थी। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन में उन्नीसवीं सदी के मध्य में 500 तरह के हथौड़े और 45 तरह की कुल्हाड़ियाँ बनाई जा रही थीं। इन्हें बनाने के लिए यांत्रिक प्रौद्योगिकी की नहीं बल्कि इनसानी निपुणता की जरूरत थी।

विक्टोरिया कालीन ब्रिटेन में उच्च वर्ग के लोग-कुलीन और पूँजीपति वर्ग- हाथों से बनी चीज़ों को तरजीह देते थे। हाथ से बनी चीज़ों को परिष्कार और सुरुचि का प्रतीक माना जाता था। उनकी फिनिश अच्छी होती थी। उनको एक-एक करके बनाया जाता था और उनका डिज़ाइन अच्छा होता था। मशीनों से बनने वाले उत्पादों को उपनिवेशों में निर्यात कर दिया जाता था।

चित्र 9- लोहे की फैक्ट्री में मजदूर, उत्तर-पूर्व इंग्लैंड, विलियम बेल स्कॉट की पेंटिंग, 1861

जिन देशों में मज़दूरों की कमी होती है वहाँ उद्योगपति मशीनों का इस्तेमाल करना ज़्यादा पसंद करते हैं ताकि कम से कम मज़दूरों का इस्तेमाल करके वे अपना काम चला सकें। उन्नीसवीं सदी के अमेरिका में यही स्थिति थी। लेकिन ब्रिटेन में कामगारों की कोई कमी नहीं थी।

विल थोर्न मौसमी काम की तलाश में निकलने वाले मजदूरों में से एक थे। उन्होंने ईंटें ढोई और अन्य छोटे-मोटे काम किए। वह बताते हैं कि नौकरी के इच्छुक किस तरह पैदल लंदन जाते थे –

‘मैं हमेशा लंदन जाना चाहता था। मेरी इच्छा हमेशा एक पुराने दोस्त के खतों को पढ़कर और मजबूत हो जाती थी… वह ओल्ड केंट रोड गैस वर्क्स में काम करता है… आखिरकार मैंने जाने का मन बना लिया… नवंबर 1881 में। दो दोस्तों के साथ मैं सफ़र पर निकल पड़ा। हम इस आशा से भरे हुए थे कि वहाँ पहुँचते ही अपने दोस्त की मदद से हमें रोजगार मिल जाएगा।.

जब हम निकले तो हमारे पास खास कोई पैसा नहीं था। लंदन तक के रास्ते के लिए खाने और रात को ठहरने का पैसा भी नहीं था। कई दिन हम 20 मील और कई बार उससे कम पैदल चलते थे… तीसरे दिन हमारे पैसे खत्म हो गए… दो रातें हमने बाहर ही सोते हुए गुजारीं… एक बार भूसे के ढेर तले और एक बार खेत में बने एक शेड में… लंदन पहुँचने पर मैंने अपने दोस्त को ढूँढ़ने का प्रयास किया।… लेकिन नाकामयाब रहे। पैसा तो जा ही चुका था। इसलिए अब हमारे पास देर रात तक यहाँ-वहाँ भटकते रहने के अलावा और कोई चारा नहीं था। शाम को हम सोने का कोई ठिकाना ढूँढ़ते थे। हमने एक पुरानी इमारत ढूँढ़ी और एक रात उसी में बिताई। अगले दिन इतवार था। दोपहर बाद हम ओल्ड केंट गैस वर्क्स पहुँचे। वहाँ हमने काम के लिए अर्जी दे दी। यह देखकर मेरे अचरज की सीमा न रही कि हम जिसे ढूँढ़ रहे थे वह वहीं काम कर रहा था। उसने फोरमैन से बात की और मुझे नौकरी पर रख लिया गया।’

2.1 मजदूरों की जिंदगी

बाज़ार में श्रम की बहुतायत से मज़दूरों की जिंदगी भी प्रभावित हुई। जैसे ही नौकरियों की खबर गाँवों में पहुँची सैकड़ों की तादाद में लोगों के हुजूम शहरों की तरफ़ चल पड़े। नौकरी मिलने की संभावना यारी दोस्ती, कुनबे कुटुंब के ज़रिए जान-पहचान पर निर्भर करती थी। अगर किसी कारखाने में आपका रिश्तेदार या दोस्त लगा हुआ है तो नौकरी मिलने की संभावना ज्यादा रहती थी। सबके पास ऐसे सामाजिक संपर्क नहीं होते थे। रोज़गार चाहने वाले बहुत सारे लोगों को हफ्तों इंतज़ार करना पड़ता था। वे पुलों के नीचे या रैन बसेरों में राते काटते थे। कुछ बेरोजगार शहर में बने निजी रैनबसेरों में रहते थे। बहुत सारे निर्धन कानून विभाग द्वारा चलाए जाने वाले अस्थायी बसेरों में रुकते थे।

चित्र 10-  बेघर और भूखे, सेमुअल ल्यूक फिल्देस की पेंटिंग, 1874

बहुत सारे उद्योगों में मौसमी काम की वजह से कामगारों को बीच-बीच में बहुत समय तक खाली बैठना पड़ता था। काम का सीज़न गुजर जाने के बाद गरीब दोबारा सड़क पर आ जाते थे। कुछ लोग जाड़ों के बाद गाँवों में चले जाते थे जहाँ इस समय काम निकलने लगता था। लेकिन ज़्यादातर शहर में ही छोटा-मोटा काम ढूँढ़ने की कोशिश करते थे जो उन्नीसवीं सदी के मध्य तक भी आसान काम नहीं था।

चित्र 11 स्पिनिंग जेनी, टी.ई. निकल्सन द्वारा बनाया गया रेखाचित्र, 1835

उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में वेतन में कुछ सुधार आया। लेकिन इससे मज़दूरों की हालत में बेहतरी का पता नहीं चलता। औसत आँकड़ों से अलग-अलग व्यवसायों के बीच आने वाले फ़र्क और साल-दर-साल होने वाले उतार-चढ़ाव छिपे रह जाते थे। मिसाल के तौर पर, जब लंबे नेपोलियनी युद्ध के दौरान कीमतें तेज़ी से बढ़ीं तो मज़दूरों की आय के वास्तविक मूल्य में भारी कमी आ गई। अब उन्हें वेतन तो पहले जितना मिलता था लेकिन उससे वे पहले जितनी चीजें नहीं खरीद सकते थे। मजदूरों की आमदनी भी सिर्फ वेतन दर पर ही निर्भर नहीं होती थी। रोजगार की अवधि भी बहुत महत्त्वपूर्ण थी : मजदूरों की औसत दैनिक आय इससे तय होती थी कि उन्होंने कितने दिन काम किया है। उन्नीसवीं सदी के मध्य य में सबसे अच्छे हालात में भी लगभग 10 प्रतिशत शहरी आबादी निहायत गरीब थी। 1830 के दशक में आई आर्थिक मंदी जैसे दौरों में बेरोजगारों की संख्या विभिन्न क्षेत्रों में 35 से 75 प्रतिशत तक पहुँच जाती थी।

बेरोजगारी की आशंका के कारण मज़दूर नयी प्रौद्योगिकी से चिढ़ते थे। जब ऊन उद्योग में स्पिनिंग जेनी मशीन का इस्तेमाल शुरू किया गया तो हाथ से ऊन कातने वाली औरतें इस तरह की मशीनों पर हमला करने लगीं। जेनी के इस्तेमाल पर यह टकराव लंबे समय तक चलता रहा।

चित्र 12 मध्य लंदन में निर्माणाधीन एक उथला भूमिगत रेलवे स्टेशन, इलस्ट्रेटेड टाइम्स, 1868

1840 के दशक के बाद शहरों में निर्माण की गतिविधियाँ तेजी से बढ़ीं। लोगों के लिए नए रोजगार पैदा हुए। सड़कों को चौड़ा किया गया, नए रेलवे स्टेशन बने, रेलवे लाइनों का विस्तार किया गया, सुरंगें बनाई गईं, निकासी और सीवर व्यवस्था बिछाई गई, नदियों के तटबंध बनाए गए। परिवहन उद्योग में काम करने वालों की संख्या 1840 के दशक में दोगुना और अगले 30 सालों में एक बार फिर दोगुना हो गई।

एक मजिस्ट्रेट ने 1790 में एक ऐसी घटना के बारे में बताया जिसमें उसे मजदूरों के हमले से निर्माता की संपत्ति की रक्षा के लिए बुलाया गया था:

‘कोयला मजदूरों और उनकी बीवियों के गिरोह की परेशानी के कारण… क्योंकि उनकी बीवियों का काम स्पिनिंग इंजन के कारण छिन गया था… शुरू में वे बड़े अड़ियल ढंग से आगे बढ़े। ऊन उत्पादन में अभी अपनाई गई मशीनों को वे टुकड़े-टुकड़े कर देना चाहते थे क्योंकि उनकी वजह से शारीरिक श्रम की माँग घटने वाली थी। औरतों ने हंगामा मचाया हुआ था। आदमियों को समझाना आसान था इसलिए कुछ खींचतान के बाद उन्हें शांतिपूर्वक घर जाने के लिए तैयार कर लिया गया।

जे.एल. हैमंड एवं बी. हैमंड, द स्किल्ड लेबरर 1760-1832, मैक्सिन बर्ग, दि एज ऑफ़ मैन्युफैक्चर्स में उद्धृत।

3. उपनिवेशों में औद्योगीकरण

आइए अब भारत पर नज़र डालें और देखें कि एक उपनिवेश का औद्योगीकरण कैसे होता है। यहाँ भी हम कारखाना उद्योग के साथ-साथ गैर-मशीनी क्षेत्र पर भी ध्यान देंगे। हमारा अध्ययन मुख्य रूप से कपड़ा उद्योग तक ही सीमित रहेगा।

3.1 भारतीय कपड़े का युग

मशीन उद्योगों के युग से पहले अंतर्राष्ट्रीय कपड़ा बाज़ार में भारत के रेशमी और सूती उत्पादों का ही दबदबा रहता था। बहुत सारे देशों में मोटा कपास पैदा होता था लेकिन भारत में पैदा होने वाला कपास महीन किस्म का था। आर्मीनियन और फ़ारसी सौदागर पंजाब से अफ़गानिस्तान, पूर्वी झारस और मध्य एशिया के रास्ते यहाँ की चीजें लेकर जाते थे। यहाँ के बने महीन कपड़ों के थान ऊँटों की पीठ पर लाद कर पश्चिमोत्तर सीमा से पहाड़ी दरों और रेगिस्तानों के पार ले जाए जाते थे। मुख्य पूर्व औपनिवेशिक बंदरगाहों से फलता-फूलता समुद्री व्यापार चलता था। गुजरात के तट पर स्थित सूरत बंदरगाह के ज़रिए भारत खाड़ी और लाल सागर के बंदरगाहों से जुड़ा हुआ था। कोरोमंडल तट पर मछलीपटनम और बंगाल में हुगली के माध्यम से भी दक्षिण-पूर्वी एशियाई बंदरगाहों के साथ खूब व्यापार चलता था।

निर्यात व्यापार के इस नेटवर्क में बहुत सारे भारतीय व्यापारी और बैंकर सक्रिय थे। वे उत्पादन में पैसा लगाते थे, चीज़ों को लेकर जाते थे और निर्यातकों को पहुँचाते थे। माल भेजने वाले आपूर्ति सौदागरों के जरिये बंदरगाह नगर देश के भीतरी इलाकों से जुड़े हुए थे। ये सौदागर बुनकरों को पेशगी देते थे, बुनकरों से तैयार कपड़ा खरीदते थे और उसे बंदरगाहों तक पहुँचाते थे। बंदरगाह पर बड़े जहाज मालिक और निर्यात व्यापारियों के दलाल कीमत पर मोल-भाव करते थे और आपूर्ति सौदागरों से माल खरीद लेते थे।

1750 के दशक तक भारतीय सौदागरों के नियंत्रण वाला यह नेटवर्क टूटने लगा था।

यूरोपीय कंपनियों की ताकत बढ़ती जा रही थी। पहले उन्होंने स्थानीय दरबारों से कई तरह की रियायतें हासिल कीं और उसके बाद उन्होंने व्यापार पर इज़ारेदारी अधिकार प्राप्त कर लिए। इससे सूरत व हुगली, दोनों पुराने बंदरगाह कमजोर पड़ गए। इन बंदरगाहों से होने वाले निर्यात में नाटकीय कमी आई। पहले जिस कर्जे से व्यापार चलता था वह खत्म होने लगा। धीरे-धीरे स्थानीय बैंकर दिवालिया हो गए। सत्रहवीं सदी के आखिरी सालों में सूरत बंदरगाह से होने वाले व्यापार का कुल मूल्य 1.6 करोड़ रुपये था। 1740 के दशक तक यह गिर कर केवल 30 लाख रुपये रह गया था।

चित्र 13 सूरत में एक इंग्लिश फैक्ट्री, सत्रहवीं सदी का चित्र।

सूरत व हुगली कमजोर पड़ रहे थे और बंबई व कलकत्ता की स्थिति सुधर रही थी। पुराने बंदरगाहों की जगह नए बंदरगाहों का बढ़ता महत्त्व औपनिवेशिक सत्ता की बढ़ती ताक़त का संकेत था। नए बंदरगाहों के जरिए होने वाला व्यापार यूरोपीय कंपनियों के नियंत्रण में था और यूरोपीय जहाजों के जरिए होता था। बहुत सारे पुराने व्यापारिक घराने ढह चुके थे। जो बचे रहना चाहते थे उनके पास भी यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों के नियंत्रण वाले नेटवर्क में काम करने के अलावा कोई चारा नहीं था।

इन बदलावों ने बुनकरों व अन्य कारीगरों की जिंदगी को किस तरह प्रभावित किया?

3.2 बुनकरों का क्या हुआ?

1760 के दशक के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी की सत्ता के सुदृढ़ीकरण की शुरुआत में भारत के कपड़ा निर्यात में गिरावट नहीं आई। ब्रिटिश कपास उद्योग अभी फैलना शुरू नहीं हुआ था और यूरोप में बारीक भारतीय कपड़ों की भारी माँग थी। इसलिए कंपनी भी भारत से होने वाले कपड़े के निर्यात को ही और फैलाना चाहती थी।

1760 और 1770 के दशकों में बंगाल और कर्नाटक में राजनीतिक सत्ता स्थापित करने से पहले ईस्ट इंडिया कंपनी को निर्यात के लिए लगातार सप्लाई आसानी से नहीं मिल पाती थी। बुने हुए कपड़े को हासिल करने के लिए फ़्रांसीसी, डच और पुर्तगालियों के साथ-साथ स्थानीय व्यापारी भी होड़ में रहते थे। इस प्रकार बुनकर और आपूर्ति सौदागर खूब मोल-भाव करते थे और अपना माल सबसे ऊँची बोली लगाने वाले खरीदार को ही बेचते थे। लंदन भेजे गए अपने पत्र में कंपनी के अफ़सरों ने आपूर्ति में मुश्किल और ऊँचे दामों का बार-बार जिक्र किया है।

लेकिन एक बार ईस्ट इंडिया कंपनी की राजनीतिक सत्ता स्थापित हो जाने के बाद कंपनी व्यापार पर अपने एकाधिकार का दावा कर सकती थी। फलस्वरूप उसने प्रतिस्पर्धा खत्म करने, लागतों पर अंकुश रखने और कपास व रेशम से बनी चीज़ों की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए प्रबंधन और नियंत्रण की एक नयी व्यवस्था लागू कर दी। यह काम कई चरणों में किया गया।

पहला : कंपनी ने कपड़ा व्यापार में सक्रिय व्यापारियों और दलालों को खत्म करने तथा बुनकरों पर ज्यादा प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की। कंपनी ने बुनकरों पर निगरानी रखने, माल इकट्ठा करने और कपड़ों की गुणवत्ता जाँचने के लिए वेतनभोगी कर्मचारी तैनात कर दिए जिन्हें गुमाश्ता कहा जाता था।

दूसरा : कंपनी को माल बेचने वाले बुनकरों को अन्य खरीदारों के साथ कारोबार करने पर पाबंदी लगा दी गई। इसके लिए उन्हें पेशगी रकम दी जाती थी। एक बार काम का ऑर्डर मिलने पर बुनकरों को कच्चा माल खरीदने के लिए कर्जा दे दिया जाता था। जो कर्जा लेते थे उन्हें अपना बनाया हुआ कपड़ा गुमाश्ता को ही देना पड़ता था। उसे वे किसी और व्यापारी को नहीं बेच सकते थे।

जैसे-जैसे कर्जे मिलते गए और महीन कपड़े की माँग बढ़ने लगी, ज्यादा कमाई की आस में बुनकर पेशगी स्वीकार करने लगे। बहुत सारे बुनकरों के पास जमीन के छोटे-छोटे पट्टे थे जिन पर वे खेती करते थे और अपने परिवार की जरूरतें पूरी कर लेते थे। अब वे इस जमीन को भाड़े पर देकर पूरा समय बुनकरी में लगाने लगे। अब पूरा परिवार यही काम करने लगा। बच्चे व औरतें, सभी कुछ न कुछ काम करते थे।

लेकिन जल्दी ही बहुत सारे बुनकर गाँवों में बुनकरों और गुमाश्तों के बीच टकराव की खबरें आने लगीं। इससे पहले आपूर्ति सौदागर अकसर बुनकर गाँवों में ही रहते थे और बुनकरों से उनके नजदीकी ताल्लुकात होते थे। वे बुनकरों की जरूरतों का खयाल रखते थे और संकट के समय उनकी मदद करते थे। नए गुमाश्ता बाहर के लोग थे। उनका गाँवों से पुराना सामाजिक संबंध नहीं था। वे दंभपूर्ण व्यवहार करते थे, सिपाहियों व चपरासियों को लेकर आते थे और माल समय पर तैयार न होने की स्थिति में बुनकरों को सज़ा देते थे। सजा के तौर पर बुनकरों को अकसर पीटा जाता था और कोड़े बरसाए जाते थे। अब बुनकर न तो दाम पर मोलभाव कर सकते थे और न ही किसी और को माल बेच सकते थे। उन्हें कंपनी से जो कीमत मिलती थी वह बहुत कम थी पर वे कुर्जों की वजह से कंपनी से बँधे हुए थे।

कर्नाटक और बंगाल में बहुत सारे स्थानों पर बुनकर गाँव छोड़ कर चले गए। वे अपने रिश्तेदारों के यहाँ किसी और गाँव में करघा लगा लेते थे। कई स्थानों पर कंपनी और उसके अफ़सरों का विरोध करते हुए गाँव के व्यापारियों के साथ मिलकर बुनकरों ने बगावत कर दी। कुछ समय बाद बहुत सारे बुनकर कर्जा लौटाने से इनकार करने लगे। उन्होंने करघे बंद कर दिए और खेतों में मजदूरी करने लगे।

उन्नीसवीं सदी आते-आते कपास बुनकरों के सामने नयी समस्याएँ पैदा हो गईं।

पटना के आयुक्त ने लिखा –

‘ऐसा लगता है कि 20 साल पहले जहानाबाद और बिहार में कपड़ों का बड़े पैमाने पर उत्पादन होता था। जहानाबाद में यह बिल्कुल बंद हो गया है। जबकि बिहार में बहुत कम उत्पादन होता है। यह मैनचेस्टर में बनी सस्ती और टिकाऊ वस्तुओं का परिणाम है जिनसे स्थानीय निर्माता प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते।’

जे. कृष्णमूर्ति, ‘डीइंडस्ट्रियलाइजेशन ऑफ़ गैंगेटिक बिहार ड्यूरिंग द नाइनटींथ सेंचुरी’, दि इंडियन इकोनॉमिक एंड सोशल हिस्ट्री रिव्यू, 1985, में उद्धृत ।

3.3 भारत में मैनचेस्टर का आना

1772 में ईस्ट इंडिया कंपनी के अफ़सर हेनरी पतूलो ने कहा था कि भारतीय कपड़े की माँग कभी कम नहीं हो सकती क्योंकि दुनिया के किसी और देश में इतना अच्छा माल नहीं बनता। लेकिन हम देखते हैं कि उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में भारत के कपड़ा निर्यात में गिरावट आने लगी जो लंबे समय तक जारी रही। 1811-12 में सूती माल का हिस्सा कुल निर्यात में 33 प्रतिशत था। 1850-51 में यह मात्र 3 प्रतिशत रह गया था।

ऐसा क्यों हुआ? उसके निहितार्थ क्या थे?

जब इंग्लैंड में कपास उद्योग विकसित हुआ तो वहाँ के उद्योगपति दूसरे देशों से आने वाले आयात को लेकर परेशान दिखाई देने लगे। उन्होंने सरकार पर दबाव डाला कि वह आयातित कपड़े पर आयात शुल्क वसूल करे जिससे मैनचेस्टर में बने कपड़े बाहरी प्रतिस्पर्धा के बिना इंग्लैंड में आराम से बिक सकें। दूसरी तरफ़ उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी पर दबाव डाला कि वह ब्रिटिश कपड़ों को भारतीय बाजारों में भी बेचे। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में ब्रिटेन के वस्त्र उत्पादों के निर्यात में नाटकीय वृद्धि हुई। अठारहवीं सदी के आखिर में भारत में उत्पादों का न के बराबर निर्यात होता था। 1850 तक आते-आते सूती का आयात भारतीय आयात में 31 प्रतिशत हो चुका था। 1870 तक यह आँकड़ा 50 प्रतिशत से ऊपर चला गया।

इस प्रकार भारत में कपड़ा बुनकरों के सामने एक-साथ दो समस्याएँ थीं। उनका निर्यात बाज़ार ढह रहा था और स्थानीय बाजार सिकुड़ने लगा था।

स्थानीय बाजार में मैनचेस्टर के आयातित मालों की भरमार थी। कम लागत पर मशीनों से बनने वाले आयातित कपास उत्पाद इतने सस्ते थे कि बुनकर उनका मुकाबला नहीं कर सकते थे। 1850 के दशक तक देश के ज्यादातर बुनकर इलाकों में गिरावट और बेकारी के ही किस्सों की भरमार थी।

चित्र 15- बॉम्बे हार्बर, अठारहवीं सदी के आख़िर का चित्र।

1860 के दशक में बुनकरों के सामने नयी समस्या खड़ी हो गई। उन्हें अच्छी कपास नहीं मिल पा रही थी। जब अमेरिकी गृहयुद्ध शुरू हुआ और अमेरिका से कपास की आमद बंद हो गई तो ब्रिटेन भारत से कच्चा माल मँगाने लगा। भारत से कच्चे कपास के निर्यात में इस वृद्धि से उसकी कीमत आसमान छूने लगी। भारतीय बुनकरों को कच्चे माल के लाले पड़ गए। उन्हें मनमानी कीमत पर कच्ची कपास खरीदनी पड़ती थी। ऐसी सूरत में बुनकरी के सहारे पेट पालना संभव नहीं था।

उन्नीसवीं सदी के आखिर में बुनकरों और कारीगरों के सामने एक और समस्या आ गई। अब भारतीय कारखानों में उत्पादन होने लगा और बाजार मशीनों की बनी चीज़ों से पट गया था। ऐसे में बुनकर उद्योग किस तरह कायम रह सकता था?

सेंसस रिपोर्ट ऑफ़ सेन्ट्रल प्रोविंसेज़ में बुनकरों के कोष्टि समुदाय के बारे में कहा गया था –

‘भारत के अन्य भागों में महीन कपड़ा बनाने वाले बुनकरों की तरह कोष्टियों का भी बुरा समय चल रहा है। वे मैनचेस्टर से इतनी भारी ताद में आने वाली आकर्षक चीजों का मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं। हाल के सालों में वे बड़ी संख्या में यहाँ से जाने लगे हैं। वे मुख्य रूप से बिहार का रुख कर रहे हैं जहाँ दिहाड़ी मजदूर के तौर पर उन्हें रोजी-रोटी मिल जाती है…’

सेंसस रिपोर्ट ऑफ़ सेन्ट्रल प्रोविंसेज, 1872, सुमित गुहा ‘द हैंडलूम इंडस्ट्री इन सेंट्रल इंडिया, 1825-1950’, दि इंडियन इकोनॉमिक एंड सोशल हिस्ट्री रिव्यू, 1989, में उद्धृत ।

4. फैक्ट्रियों का आना

बंबई में पहली कपड़ा मिल 1854 में लगी और दो साल बाद उसमें उत्पादन होने लगा। 1862 तक वहाँ ऐसी चार मिलें काम कर रही थीं। उनमें 94,000 तकलियाँ और 2,150 करघे थे। उसी समय बंगाल में जूट मिलें खुलने लगीं। वहाँ देश की पहली जूट मिल 1855 में और दूसरी 7 साल बाद 1862 में चालू हुई। उत्तरी भारत में एल्गिन मिल 1860 के दशक में कानपुर में खुली। इसके साल भर बाद अहमदाबाद की पहली कपड़ा मिल भी चालू हो गई। 1874 में मद्रास में भी पहली कताई और बुनाई मिल खुल गई।

ये उद्योग कौन लगा रहा था? उनके लिए पूँजी कहा से आ रही थी? मिलों में काम करने वाले कौन थे?

चित्र 16 – जमशेदजी जीजीभोये।

जीजीभोये एक पारसी बुनकर के बेटे थे। अपने समय के बहुत सारे लोगों की तरह उन्होंने भी चीन के साथ व्यापार और जहाजरानी का काम किया था। उनके पास जहाजों का एक विशाल बेड़ा था। अंग्रेज और अमेरिकी जहाज कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा के कारण 1850 के दशक तक उन्हें सारे जहाज बेचने पड़े।

4.1 प्रारंभिक उद्यमी

देश के विभिन्न भागों में तरह-तरह के लोग उद्योग लगा रहे थे। आइए देखें ये कौन लोग थे।

बहुत सारे व्यावसायिक समूहों का इतिहास चीन के साथ व्यापार के जमाने से चला आ रहा था। जैसा कि पिछले साल की किताब में आपने पढ़ा था, अठारहवीं सदी के आखिर से ही अंग्रेज़ भारतीय अफ़ीम का चीन को निर्यात करने लगे थे। उसके बदले में वे चीन से चाय खरीदते थे जो इंग्लैंड जाती थी। इस व्यापार में बहुत सारे भारतीय कारोबारी सहायक की हैसियत में पहुँच गए थे। वे पैसा उपलब्ध कराते थे, आपूर्ति सुनिश्चित करते थे और माल को जहाजों में लाद कर रवाना करते थे। व्यापार से पैसा कमाने के बाद उनमें से कुछ व्यवसायी भारत में औद्योगिक उद्यम स्थापित करना चाहते थे। बंगाल में द्वारकानाथ टैगोर ने चीन के साथ व्यापार में खूब पैसा कमाया और वे उद्योगों में निवेश करने लगे। 1830-1840 के दशकों में उन्होंने 6 संयुक्त उद्यम कंपनियाँ लगा ली थीं। 1840 के दशक में आए व्यापक व्यावसायिक संकटों में औरों के साथ-साथ टैगोर के उद्यम भी बैठ गए। लेकिन उन्नीसवीं सदी में चीन के साथ व्यापार करने वाले बहुत सारे व्यवसायी सफल उद्योगपति भी साबित हुए। बंबई में डिनशॉ पेटिट और आगे चलकर देश में विशाल औद्योगिक साम्राज्य स्थापित करने वाले जमशेदजी नुसरवानजी टाटा जैसे पारसियों ने आंशिक रूप से चीन को निर्यात करके और आंशिक रूप से इंग्लैंड को कच्ची कपास निर्यात करके पैसा कमा लिया था। 1917 में कलकत्ता में देश की पहली जूट मिल लगाने वाले मारवाड़ी व्यवसायी सेठ हुकुमचंद ने भी चीन के साथ व्यापार किया था। यही काम प्रसिद्ध उद्योगपति जी.डी. बिड़ला के पिता और दादा ने किया।

चित्र 17 – द्वारकानाथ टैगोर ।

पूँजी इकट्ठा करने के लिए अन्य व्यापारिक नेटवर्कों का सहारा लिया गया। मद्रास के कुछ सौदागर बर्मा से व्यापार करते थे जबकि कुछ के मध्य-पूर्व व पूर्वी अफ्रीका में संबंध थे। इनके अलावा भी कुछ वाणिज्यिक समूह थे लेकिन वे विदेश व्यापार से सीधे जुड़े हुए नहीं थे। वे भारत में ही व्यवसाय करते थे। वे एक जगह से दूसरी जगह माल ले जाते थे, सूद पर पैसा चलाते थे, एक शहर से दूसरे शहर में पैसा पहुँचाते थे और व्यापारियों को पैसा देते थे। जब उद्योगों में निवेश के अवसर आए तो उनमें से बहुतों ने फैक्ट्रियाँ लगा लीं।

जैसे भारतीय व्यापार पर औपनिवेशिक शिकंजा कसता गया, वैसे-वैसे भारतीय व्यावसायियों के लिए जगह सिकुड़ती गई। उन्हें अपना तैयार माल यूरोप में बेचने से रोक दिया गया। अब वे मुख्य रूप से कच्चे माल और अनाज- कच्ची कपास, अफ़ीम, गेहूँ और नील-का ही निर्यात कर सकते थे जिनकी अंग्रेज़ों को जरूरत थी। धीरे-धीरे उन्हें जहाजरानी व्यवसाय से भी बाहर धकेल दिया गया।

चित्र 18 – साझेदारों की टोली जे.एन. टाटा, आर.डी. टाटा, सर आर.जे. टाटा और सर डी.जे. टाटा।

पहले विश्वयुद्ध तक यूरोपीय प्रबंधकीय एजेंसियाँ भारतीय उद्योगों के विशाल क्षेत्र का नियंत्रण करती थीं। इनमें बर्ड हीगलर्स एंड कंपनी, एंड्रयू यूल, और जार्डीन स्किनर एंड कंपनी सबसे बड़ी कंपनियाँ थीं। ये एजेंसियाँ पूँजी जुटाती थीं, संयुक्त उद्यम कंपनियाँ लगाती थीं और उनका प्रबंधन सँभालती थीं। ज्यादातर मामलों में भारतीय वित्तपोषक (फाइनेंसर) पूँजी उपलब्ध कराते थे जबकि निवेश और व्यवसाय से संबंधित फ़ैसले यूरोपीय एजेंसियाँ लेती थीं। यूरोपीय व्यापारियों-उद्योगपतियों के अपने वाणिज्यिक परिसंघ थे जिनमें भारतीय व्यवसायियों को शामिल नहीं किया जाता था।

4.2 मजदूर कहाँ से आए?

फैक्ट्रियाँ होंगी तो मजदूर भी होंगे। फैक्ट्रियों के विस्तार से मजदूरों की माँग बढ़ने लगी। 1901 में भारतीय फैक्ट्रियों में 5,84,000 मजदूर काम करते थे। 1946 तक यह संख्या बढ़कर 24,36,000 हो चुकी थी। ये मजदूर कहाँ से आए?

ज्यादातर औद्योगिक इलाकों में मज़दूर आसपास के जिलों से आते थे। जिन किसानों-कारीगरों को गाँव में काम नहीं मिलता था वे औद्योगिक केंद्रों की तरफ़ जाने लगते थे। 1911 में बंबई के सूती कपड़ा उद्योग में काम करने वाले 50 प्रतिशत से ज्यादा मज़दूर पास के रत्नागिरी जिले से आए थे। कानपुर की मिलों में काम करने वाले ज्यादातर कानपुर जिले के ही गाँवों से आते थे। मिल मजदूर बीच-बीच में अपने गाँव जाते रहते थे। वे फ़सलों की कटाई व त्यौहारों के समय गाँव लौट जाते थे।

चित्र 19 – बंबई के एक मिल के युवा कामगार, बीसवीं सदी की शुरुआत ।

बाद में, जब नए कामों की खबर फैली तो दूर-दूर से भी लोग आने लगे। उदाहरण के लिए, संयुक्त प्रांत के लोग बंबई के कपड़ा मिलों और कलकत्ता के जूट मिलों में काम करने के लिए पहुँच रहे थे।

नौकरी पाना हमेशा मुश्किल था। हालाँकि मिलों की संख्या बढ़ती जा रही थी और मज़दूरों की माँग भी बढ़ रही थी लेकिन रोजगार चाहने वालों की संख्या रोज़गारों के मुकाबले हमेशा ज्यादा रहती थी। मिलों में प्रवेश भी निषिद्ध था। उद्योगपति नए मज़दूरों की भर्ती के लिए प्रायः एक जॉबर रखते थे। जॉबर कोई पुराना और विश्वस्त कर्मचारी होता था। वह अपने गाँव से लोगों को लाता था, उन्हें काम का भरोसा देता था, उन्हें शहर में जमने के लिए मदद देता था और मुसीबत में पैसे से मदद करता था। इस प्रकार जॉबर ताकतवर और मजबूत व्यक्ति बन गया था। बाद में जॉबर मदद के बदले पैसे व तोहफों की माँग करने लगे और मज़दूरों की जिंदगी को नियंत्रित करने लगे।

चित्र 20 मुख्य जॉबर।

समय के साथ फैक्ट्री मज़दूरों की संख्या बढ़ने लगी। लेकिन जैसा कि आप देखेंगे, कुल औद्योगिक श्रम शक्ति में उनका अनुपात बहुत छोटा था।

बंबई के एक मिल मजदूर वसंत पारकर ने कहा-

‘मजदूर अपने बेटों को मिल में काम पर रखवाने के लिए जॉबर को पैसा देते थे…। मिल मजदूर शारीरिक और भावनात्मक रूप से उसके गाँव से गहरे तौर पर जुड़े होते थे। वह गाँव जाकर फसलों की कटाई करता था। कोंकणी लोग धान काटने और घाटी यानी गन्ना काटने गाँव में जाते थे। यह एक स्वीकृत व्यवस्था थी जिसके लिए मिल वाले छुट्टी दे देते थे।’

मीना मेनन एवं नीरा अदरकर, वन हंड्रेड इयर्स वन हंड्रेड वॉइसेज, 2004

चित्र 21- अहमदाबाद के एक मिल में कताई में लगी मज्जदूर औरतें।

भाई भोसले बंबई के ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता थे। 1930-40 के दशकों में बिताए अपने बचपन को उन्होंने इस प्रकार याद किया –

‘उस जमाने में दस घंटे की शिफ्ट होती थी। शाम पाँच बजे से सुबह तीन बजे तक काम के सबसे भयानक घंटे। मेरे पिताजी ने 35 साल नौकरी की। उन्हें दमा जैसी बीमारी हो गई और वे काम करने से लाचार हो गए…। इसके बाद मेरे पिताजी वापस गाँव चले गए।’

मीना मेनन एवं नीरा अदरकर, वन हंड्रेड इयर्स : वन हंड्रेड वॉइसेज, 2004

5. औद्योगिक विकास का अनूठापन

भारत में औद्योगिक उत्पादन पर वर्चस्व रखने वाली यूरोपीय प्रबंधकीय एजेंसियों की कुछ खास तरह के उत्पादों में ही दिलचस्पी थी। उन्होंने औपनिवेशिक सरकार से सस्ती कीमत पर जमीन लेकर चाय व कॉफ़ी के बागान लगाए और खनन, नील व जूट व्यवसाय में पैसे का निवेश किया। इनमें से ज्यादातर ऐसे उत्पाद थे जिनकी भारत में बिक्री के लिए नहीं बल्कि मुख्य रूप से निर्यात के लिए आवश्यकता थी।

उन्नीसवीं सदी के आखिर में जब भारतीय व्यवसायी उद्योग लगाने लगे तो उन्होंने भारतीय बाजार में मैनचेस्टर की बनी चीजों से प्रतिस्पर्धा नहीं की। भारत आने वाले ब्रिटिश मालों में धागा बहुत अच्छा नहीं था इसलिए भारत के शुरुआती सूती मिलों में कपड़े की बजाय मोटे सूती धागे ही बनाए जाते थे। जब धागे का आयात किया जाता था तो वह हमेशा बेहतर किस्म का होता था। भारतीय कताई मिलों में बनने वाले धागे का भारत के हथकरघा बुनकर इस्तेमाल करते थे या उन्हें चीन को निर्यात कर दिया जाता था।

चित्र 22 मदास चेम्बर ऑफ कॉमर्स का पहला दफ्तर ।

बीसवीं सदी के पहले दशक तक भारत में औद्योगीकरण का ढर्रा कई बदलावों की चपेट में आ चुका था। स्वदेशी आंदोलन को गति मिलने से राष्ट्रवादियों ने लोगों को विदेशी कपड़े के बहिष्कार के लिए प्रेरित किया। औद्योगिक समूह अपने सामूहिक हितों की रक्षा के लिए संगठित हो गए और उन्होंने आयात शुल्क बढ़ाने तथा अन्य रियायतें देने के लिए सरकार पर दबाव डाला। 1906 के बाद चीन भेजे जाने वाले भारतीय धागे के निर्यात में भी कमी आने लगी थी। चीनी बाजारों में चीन और जापान की मिलों के उत्पाद छा गए थे। फलस्वरूप, भारत के उद्योगपति धागे की बजाय कपड़ा बनाने लगे। 1900 से 1912 के भारत में सूती कपड़े का उत्पादन दोगुना हो गया।

पहले विश्व युद्ध तक औद्योगिक विकास धीमा रहा। युद्ध ने एक बिलकुल नयी स्थिति पैदा कर दी थी। ब्रिटिश कारखाने सेना की जरूरतों को पूरा करने के लिए युद्ध संबंधी उत्पादन में व्यस्त थे इसलिए भारत में मैनचेस्टर के माल का आयात कम हो गया। भारतीय बाजारों को रातोंरात एक विशाल देशी बाज़ार मिल गया। युद्ध लंबा खिंचा तो भारतीय कारखानों में भी फ़ौज के लिए जूट की बोरियाँ, फ़ौजियों के लिए वर्दी के कपड़े, टेंट और चमड़े के जूते, घोड़े व खच्चर की जीन तथा बहुत सारे अन्य सामान बनने लगे। नए कारखाने लगाए गए।

पुराने कारखाने कई पालियों में चलने लगे। बहुत सारे नए मजदूरों को काम पर रखा गया और हरेक को पहले से भी ज्यादा समय तक काम करना पड़ता था। युद्ध के दौरान औद्योगिक उत्पादन तेज़ी से बढ़ा।

युद्ध के बाद भारतीय बाजार में मैनचेस्टर को पहले वाली हैसियत कभी हासिल नहीं हो पायी। आधुनिकीकरण न कर पाने और अमेरिका, जर्मनी व जापान के मुकाबले कमजोर पड़ जाने के कारण ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी। कपास का उत्पादन बहुत कम रह गया था और ब्रिटेन से होने वाले सूती कपड़े के निर्यात में जबरदस्त गिरावट आई। उपनिवेशों में विदेशी उत्पादों को हटाकर स्थानीय उद्योगपतियों ने घरेलू बाजारों पर कब्जा कर लिया और धीर-धीरे अपनी स्थिति मजबूत बना ली।

5.1 लघु उद्योगों की बहुतायत

हालाँकि युद्ध के बाद फैक्ट्री उद्योगों में लगातार इजाफ़ा हुआ लेकिन अर्थव्यवस्था में विशाल उद्योगों का हिस्सा बहुत छोटा था। उनमें से ज्यादातर – 1911 में 67 प्रतिशत बंगाल और बंबई में स्थित थे। बाकी पूरे देश में छोटे स्तर के उत्पादन का ही दबदबा रहा। पंजीकृत फैक्ट्रियों में कुल औद्योगिक श्रम शक्ति का बहुत छोटा हिस्सा ही काम करता था। यह संख्या 1911 में 5 प्रतिशत और 1931 में 10 प्रतिशत थी। बाकी मजदूर गली-मोहल्लों में स्थित छोटी-छोटी वर्कशॉप और घरेलू इकाइयों में काम करते थे।

चित्र 23- हाथ से बुना कपड़ा।

कुछ मामलों में तो बीसवीं सदी के दौरान हाथ से होने वाले उत्पादन में दरअसल इज़ाना हुआ था। यह बात हथकरघा क्षेत्र के बारे में भी सही है जिसकी हमने पीछे चर्चा की थी। सस्ते मशीन निर्मित धागे ने उन्नीसवीं सदी में कताई उद्योग को तो खत्म कर दिया था लेकिन तमाम समस्याओं के बावजूद बुनकर अपना व्यवसाय किसी तरह चलाते रहे। बीसवीं सदी में हथकरघों पर बने कपड़े के उत्पादन में लगातार सुधार हुआ। 1900 से 1940 के बीच यह तीन गुना हो चुका था।

ऐसा कैसे हुआ?

इसके पीछे आंशिक रूप से तकनीकी बदलावों का हाथ था। अगर लागत में बहुत ज्यादा इज़ाफ़ा न हो और उत्पादन बढ़ सकता हो तो हाथ से काम करने वालों को नयी तकनीक अपनाने में कोई परेशानी नहीं होती। इसलिए, बीसवीं सदी के दूसरे दशक तक आते-आते हम ऐसे बुनकरों को देखते हैं जो फ्लाई शटल वाले करघों का इस्तेमाल करते थे। इससे कामगारों की उत्पादन क्षमता बढ़ी, उत्पादन तेज़ हुआ और श्रम की माँग में कमी आई। 1941 तक भारत में 35 प्रतिशत से ज्यादा हथकरघों में फ्लाई शटल लगे होते थे। त्रावणकोर, मद्रास, मैसूर, कोचीन, बंगाल आदि क्षेत्रों में तो ऐसे हथकरघे 70-80 प्रतिशत तक थे। इसके अलावा भी कई छोटे-छोटे सुधार किए गए जिनसे बुनकरों को अपनी उत्पादकता बढ़ाने और मिलों से मुकाबला करने में मदद मिली।

मिलों के साथ प्रतिस्पर्धा का मुकाबला कर पाने के मामले में कुछ बुनकर औरों से बेहतर स्थिति में थे। बुनकरों में से कुछ मोटा कपड़ा बनाते थे जबकि कुछ महीन किस्म के कपड़े बुनते थे। मोटे कपड़े को मुख्य रूप से गरीब ही खरीदते थे और उसकी माँग में भारी उतार-चढ़ाव आते थे। खराब फसल और अकाल के समय जब ग्रामीण गरीबों के पास खाने को कुछ नहीं होता था और नकद आय के साधन खत्म हो जाते थे तो वे कपड़ा नहीं खरीद सकते थे। बेहतर क़िस्म के कपड़े की माँग खाते-पीते तबके में ज्यादा थी। उसमें उतार-चढ़ाव कम आते थे। जब गरीब भूखों मर रहे होते थे तब भी अमीर यह कपड़ा खरीद सकते थे। अकालों से बनारसी या बालूचरी साड़ियों की बिक्री पर असर नहीं पड़ता था। वैसे भी, जैसा कि आप देख चुके है, मिल विशेष प्रकार की बुनाई की नकल नहीं कर सकते थे। बुने हुए बॉर्डर वाली साड़ियों या मद्रास की प्रसिद्ध लुंगियों की जगह ले लेना मिलों के लिए आसान नहीं था।

ऐसा भी नहीं है कि बीसवीं सदी में भी उत्पादन बढ़ाते जा रहे बुनकरों व अन्य दस्तकारों को हमेशा फ़ायदा ही हो रहा था। उनकी जिंदगी बहुत कठोर थी। उन्हें दिन-रात काम करना पड़ता था। अकसर पूरा परिवार-बच्चे, बूढ़े, औरतें-उत्पादन के किसी न किसी काम में हाथ बढ़ाता था। लेकिन ये फैक्ट्रियों के युग में अतीत के अवशेष भर नहीं थे। उनका जीवन और श्रम औद्योगीकरण की प्रक्रिया का अभिन्न अंग थे।

चित्र 24- भारत में बड़े पैमाने के उद्योगों वाले इलाके, 1931

6. वस्तुओं के लिए बाजार

हम देख चुके हैं कि किस तरह ब्रिटिश निर्माताओं ने भारतीय बाजार पर क़ब्ज़े के लिए प्रयास किया और किस तरह भारतीय बुनकरों व दस्तकारों, व्यापारियों व उद्योगपतियों ने औपनिवेशिक नियंत्रण का विरोध किया, आयात शुल्क सुरक्षा के लिए माँग उठाई, अपने लिए जगह बनाई और अपने माल के बाज़ार को फैलाने का प्रयास किया।

जब नयी चीजें बनती हैं तो लोगों को उन्हें खरीदने के लिए प्रेरित भी करना पड़ता है। लोगों को लगना चाहिए कि उन्हें उस उत्पाद की जरूरत है। इसके लिए क्या किया गया?

नए उपभोक्ता पैदा करने का एक तरीका विज्ञापनों का है। जैसा कि आप जानते हैं, विज्ञापन विभिन्न उत्पादों को जरूरी और वांछनीय बना लेते हैं। वे लोगों की सोच बदल देते हैं और नयी जरूरतें पैदा कर देते हैं। आज हम एक ऐसी दुनिया में हैं जहाँ चारों तरफ़ विज्ञापन छाए हुए हैं। अखबारों, पत्रिकाओं, होर्डिंग्स, दीवारों, टेलीविज़न के परदे पर, सब जगह विज्ञापन छाए हुए हैं। लेकिन अगर हम इतिहास में पीछे मुड़कर देखें तो पता चलता है कि औद्योगीकरण की शुरुआत से ही विज्ञापनों ने विभिन्न उत्पादों के बाजार को फैलाने में और एक नयी उपभोक्ता संस्कृति रचने में अपनी भूमिका निभाई है।

चित्र 25 – ग्राइपवॉटर का कैलेंडर, एम.वी. धुरंधर का चित्र, 1928

जब मैनचेस्टर के उद्योगपतियों ने भारत में कपड़ा बेचना शुरू किया तो वे कपड़े के बंडलों पर लेबल लगाते थे। लेबल का फ़ायदा यह होता था कि खरीदारों को कंपनी का नाम व उत्पादन की जगह पता चल जाती थी। लेबल ही चीज़ों की गुणवत्ता का प्रतीक भी था। जब किसी लेबल पर मोटे अक्षरों में ‘मेड इन मैनचेस्टर’ लिखा दिखाई देता तो खरीदारों को कपड़ा खरीदने में किसी तरह का डर नहीं रहता था।

चित्र 26 (क) मैनचेस्टर के लेबल, बीसवीं सदी का प्रारंभ।

चित्र 26 (ख) मैनचेस्टर के लेबल पर महाराजा रणजीत सिंह का चित्र।

लेबलों पर सिर्फ़ शब्द और अक्षर ही नहीं होते थे। उन पर तस्वीरें भी बनी होती थीं जो अकसर बहुत सुंदर होती थीं। अगर हम पुराने लेबलों को देखें तो उनके निर्माताओं की सोच, उनके हिसाब-किताब और लोगों को आकर्षित करने के उनके तरीकों का अंदाजा लगा सकते हैं।

इन लेबलों पर भारतीय देवी-देवताओं की तसवीरें प्रायः होती थीं। देवी-देवताओं की तसवीर के बहाने निर्माता ये दिखाने की कोशिश करते थे कि ईश्वर भी चाहता है कि लोग उस चीज़ को खरीदें। कृष्ण या सरस्वती की तसवीरों का फ़ायदा ये होता था कि विदेशों में बनी चीज़ भी भारतीयों को जानी-पहचानी सी लगती थी।

उन्नीसवीं सदी के आखिर में निर्माता अपने उत्पादों को बेचने के लिए कैलेंडर छपवाने लगे थे। अखबारों और पत्रिकाओं को तो पढ़े-लिखे लोग ही समझ सकते थे लेकिन कैलेंडर उनको भी समझ में आ जाते थे जो पढ़ नहीं सकते थे। चाय की दुकानों, दफ्तरों व मध्यवर्गीय घरों में ये कैलेंडर लटके रहते थे। जो इन कैलेंडरों को लगाते थे वे विज्ञापन को भी हर रोज, पूरे साल देखते थे। इन कैलेंडरों में भी नए उत्पादों को बेचने के लिए देवताओं की तसवीर होती थी।

देवताओं की तसवीरों की तरह महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों, सम्राटों व नवाबों की तस्वीरें भी विज्ञापनों व कैलेंडरों में खूब इस्तेमाल होती थीं। इनका संदेश अकसर यह होता था : अगर आप इस शाही व्यक्ति का सम्मान करते हैं तो इस उत्पाद का भी सम्मान कीजिए; अगर इस उत्पाद को राजा इस्तेमाल करते हैं या उसे शाही निर्देश से बनाया गया है तो उसकी गुणवत्ता पर सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता।

जब भारतीय निर्माताओं ने विज्ञापन बनाए तो उनमें राष्ट्रवादी संदेश साफ़ दिखाई देता था। इनका आशय यह था कि अगर आप राष्ट्र की परवाह करते हैं तो उन चीजों को खरीदिए जिन्हें भारतीयों ने बनाया है। है। ये विज्ञापन स्वदेशी के राष्ट्रवादी संदेश के वाहक बन गए थे।

निष्कर्ष

ज़ाहिर है कि उद्योगों के युग में बड़े-बड़े प्रौद्योगिकीय बदलाव आए है, फैक्ट्रि‌यों का उदय हुआ है और नयी औद्योगिक श्रमशक्ति अस्तित्व में आई है। लेकिन जैसा कि आपने देखा है, इस युग में हाथ से बनने वाली चीजें और छोटे पैमाने का उत्पादन भी औद्योगिक भूदृश्य का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा रहा है।

चित्र 1 और 2 को दोबारा देखिए। अब बताइए कि ये छवियाँ क्या दर्शाती है।

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संक्षेप में लिखें

1. निम्नलिखित की व्याख्या करें-

(क) ब्रिटेन की महिला कामगारों ने स्पिनिंग जेनी मशीनों पर हमले किए।
Ans.
 जेम्स हरग्रीज़ ने 1764 में स्पिनिंग जेनी नामक मशीन बनाई थी। इस मशीन ने कताई की प्रक्रिया तेज कर दी और मज़दूरों की माँग घटा दी। एक ही पहिया घुमाने वाला एक मजदूर बहुत सारी तकलियों को घुमा देता था और एक साथ कई धागे बनने लगते थे। जब इन मशीनों का प्रयोग शुरू हुआ तो हाथ से ऊन कातने वाली औरतें इस तरह की मशीनों पर हमला करने लगी क्योंकि इस मशीन की वजह से उनका काम छिन गया था। इस मशीन की वजह । से शारीरिक श्रम की माँग घटने के कारण बहुत-सी महिलाएँ बेरोजगार हो गई थीं। इसलिए उन्होंने स्पिनिंग जेनी के प्रयोग का विरोध किया।

(ख) सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों में किसानों और कारीगरों से काम करवाने लगे।
Ans.

  1. 17वीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों की तरफ़ रुख करने लगे थे। वे किसानों और कारीगरों को पैसा देते थे और उनसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए उत्पादन करवाते थे।
  2. उस समय विश्व व्यापार के विस्तार और दुनिया के विभिन्न भागों में उपनिवेशों की स्थापना के कारण चीजों की माँग बढ़ने लगी थी। इस माँग को पूरा करने के लिए केवल शहरों में रहते हुए उत्पादन नहीं बढ़ाया जा सकता था। इसलिए नए व्यापारी गाँवों की तरफ जाने लगे।
  3. गाँवों में गरीब काश्तकार और दस्तकार सौदागरों के लिए काम करने लगे। यह वह समय था जब छोटे व गरीब किसान आमदनी के नए स्रोत हूँढ़ रहे थे।
  4. इसलिए जब सौदागर वहाँ आए और उन्होंने माल पैदा करने के लिए पेशगी रकम दी तो किसान फौरन तैयार हो गए।
  5. सौदागरों के लिए काम करते हुए वे गाँव में ही रहते हुए अपने छोटे-छोटे खेतों को भी संभाल सकते थे।
  6. इससे कुटीर उद्योग को बल मिला।

(ग) सूरत बंदरगाह अठारहवीं सदी के अंत तक हाशिये पर पहुँच गया था।
Ans.
1750 के दशक तक भारतीय सौदागरों के नियंत्रण वाला नेटवर्क टूट गया। यूरोपीय कंपनियों की ताकत बढ़ती जा रही थी। उन्होंने पहले स्थानीय दरबारों से कई तरह की रियायतें हासिल की और उसके बाद उन्होंने व्यापार पर इजारेदारी अधिकार प्राप्त कर लिए। इससे सूरत जैसे बंदरगाह कमजोर पड़ गए। इन बंदरगाहों से होनेवाले निर्यात में नाटकीय कमी आई। पहले जिस कर्जे से व्यापार चलता था वह खत्म होने लगा। धीरे-धीरे स्थानीय बैंकर दिवालिया हो गए। 17वीं सदी के आखिरी सालों में सूरत बंदरगाह से होने वाला व्यापार का कुल मूल्य 1.6 करोड़ रुपये था। 1740 के दशक तक यह गिर कर केवल 30 लाख रुपये रह गया था। इस प्रकार 18वीं सदी के अंत तक सूरत बंदरगाह हाशिए पर हो गया था।

(घ) ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में बुनकरों पर निगरानी रखने के लिए गुमाश्तों को नियुक्त किया था।
Ans.
ईस्ट इंडिया कंपनी भारत के वस्त्र व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित करना चाहती थी। अतः कंपनी ने वस्त्र व्यापर की प्रतिस्पर्धा को खत्म करने, लागतों पर अंकुश रखने और कपास का रेशम से बनी चीजों की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए प्रबंधन व नियंत्रण की एक नई व्यवस्था लागू कर दी।

कंपनी ने कपड़ा व्यापार में क्रियाशील व्यापारियों और दलालों को समाप्त करने तथा बुनकरों पर अधिक प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित करने का प्रयत्न किया। कंपनी ने बुनकरों पर निगरानी रखने, माल एकत्रित करने और कपड़ों की गुणवत्ता जाँचने के लिए वेतनभोगी कर्मचारी तैनात कर दिए जिन्हें गुमाश्ता कहा जाता था।

2. प्रत्येक वक्तव्य के आगे ‘सही’ या ‘गलत’ लिखें-

(क) उन्नीसवीं सदी के आखिर में यूरोप की कुल श्रम शक्ति का 80 प्रतिशत तकनीकी रूप से विकसित औद्योगिक क्षेत्र में काम कर रहा था। (सही)

(ख) अठारहवीं सदी तक महीन कपड़े के अंतर्राष्ट्रीय बाजार पर भारत का दबदबा था। (सही)

(ग) अमेरिकी गृहयुद्ध के फलस्वरूप भारत के कपास निर्यात में कमी आई। (गलत)

(घ) प्लाई शटल के आने से हथकरघा कामगारों की उत्पादकता में सुधार हुआ। (सही)

3. पूर्व-औद्योगीकरण का मतलब बताएँ।
Ans.
औद्योगीकरण का इतिहास प्रारंभिक फैक्टरियों की स्थापना से शुरू होता है। इंग्लैंड और यूरोप में फैक्टरियों की स्थापना से भी पहले ही अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन होने लगा था। यह उत्पादन फैक्टरियों में नहीं होता था। बहुत सारे इतिहासकार औद्योगीकरण के इस चरण को पूर्व-औद्योगीकरण कहते हैं। इस पूर्व-औद्योगीकरण की अवस्था में व्यावसायिक आदान-प्रदान होता था। इस पर सौदागरों का नियंत्रण था और चीजों का उत्पादन कारखानों की बजाय घरों पर होता था। उत्पादन के प्रत्येक चरण में प्रत्येक सौदागर 20-25 मजदूरों से काम करवाता था। इस प्रकार औद्योगीकरण से पहले, फैक्टरियों की स्थापना से पहले के उत्पादन कार्य को आदि-औद्योगीकरण कहा जाता था।

चर्चा करें

1. उन्नीसवीं सदी के यूरोप में कुछ उद्योगपति मशीनों की बजाय हाथ से काम करने वाले श्रमिकों को प्राथमिकता क्यों देते थे।
Ans.
19वीं सदी के यूरोप में कुछ उद्योगपति मशीनों की बजाए हाथ से काम करने वाले श्रमिकों को प्राथमिकता देते थे। इसके निम्नलिखित कारण थे

  1. विक्टोरिया कालीन ब्रिटेन में मानव श्रम की कोई कमी नहीं थी। इसलिए कम वेतन पर मजदूर मिल जाते थे। अतः उद्योगपति मशीनों की बजाए हाथ से काम करने वाले श्रमिकों को ही रखते थे।
  2. जिन उद्योगों में मौसम के साथ उत्पादन घटता-बढ़ता रहता था वहाँ उद्योगपति मशीनों की बजाए मजदूरों को ही काम | पर रखना पसंद करते थे।
  3. बहुत सारे उत्पाद केवल हाथ से ही तैयार किए जा सकते थे। मशीनों से एक जैसे उत्पाद ही बड़ी संख्या में बनाए जा | सकते थे। लेकिन बाजार में अक्सर बारीक डिजाइन और खास आकारों वाली चीजों की काफी माँग रहती थी । इन्हें बनाने के लिए यांत्रिक प्रौद्योगिकी की नहीं बल्कि इन्सानी निपुणता की जरूरत थी।
  4. विक्टोरिया कालीन ब्रिटेन में उच्च वर्ग के कुलीन लोग हाथों से बनी चीजों को महत्व देते थे। हाथ से बनी चीजों को परिष्कार और सुरूचि का प्रतीक माना जाता था। उनको एक-एक करके बनाया जाता था और उनका डिजाइन भी अच्छा होता था।
  5. यदि थोड़ी मात्रा में उत्पादन करना हो तो उसे मशीनों की बजाय श्रमिकों से ही कराया जाता था।
  6. क्रिसमस के समय बाइंडरों और प्रिंटरों का कार्य मशीनों की बजाए मजदूरों की सहायता से अधिक अच्छी तरह से हो सकता था।
  7. विक्टोरिया कालीन ब्रिटेन के उच्च वर्ग के कुलीन व पूँजीपति वर्ग के लोग हाथों से बनी वस्तुओं को अधिक महत्त्व देते थे क्योंकि ये वस्तुएँ सुरुचि और परिष्कार की प्रतीक थी। इनमें अच्छी फिनिशिंग यानि सफाई होती थी। इनमें डिजाइनों की विविधता होती थी तथा इन्हें बड़ी मेहनत से बनाया जाता था।

2. ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय बुनकरों से सूती और रेशमी कपड़े की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए क्या किया।
Ans.
ईस्ट इंडिया कंपनी की राजनीतिक सत्ता स्थापित हो जाने के बाद कंपनी व्यापार पर अपने एकाधिकार का दावा कर सकती थी।

(i) उसने प्रतिस्पर्धा खत्म करने, लागतों पर अंकुश रखने और कपास व रेशम से बनी चीज़ों की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए प्रबंधन और नियंत्रण की एक नयी व्यवस्था लागू कर दी। यह काम कई चरणों में किया गया।

(ii) कंपनी ने कपड़ा व्यापार में सक्रिय व्यापारियों और दलालों को खत्म करने तथा बुनकरों पर ज़्यादा प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की।

(iii) कंपनी ने बुनकरों पर निगरानी रखने, माल इकट्ठा करने और कपड़ों की गुणवत्ता जाँचने के लिए वेतनभोगी कर्मचारी तैनात कर दिए जिन्हें गुमाश्ता कहा जाता था।

(iv) कंपनी को माल बेचने वाले बुनकरों को अन्य खरीदारों के साथ कारोबार करने पर पाबंदी लगा दी गई। इसके लिए उन्हें पेशगमी रक़म दी जाती थी।

(v) एक बार काम का ऑर्डर मिलने पर बुनकरों को कच्चा माल खरीदने के लिए कर्ज़ा दे दिया जाता था। जो कर्ज़ा लेते थे उन्हें अपना बनाया हुआ कपड़ा गुमाश्ता को ही देना पड़ता था। उसे वे किसी और व्यापारी को नहीं बेच सकते थे।

3. कल्पना कीजिए कि आपको ब्रिटेन तथा कपास के इतिहास के बारे में विश्वकोश के लिए लेख लिखने को कहा गया है। इस अध्याय में दी गई जानकारियों के आधार पर अपना लेख लिखिए।
Ans.
औद्योगिक क्रांति की शुरुआत सबसे पहले इंग्लैंड में 1730 के दशक में हुई। इंग्लैंड में सबसे पहले स्थापित होने वाले कारखानों में कपास के कारखाने प्रमुख थे।

कपास (कॉटन) नए युग का पहला प्रतीक थी। उन्नीसवीं सदी के अंत में कपास के उत्पादन में भारी वृद्धि हुई। 1760 में ब्रिटेन अपने कपास उद्योग की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए 25 लाख पौंड कच्चे कपास का आयत करता था। 1787 में आयात बढ़कर 220 लाख पौंड तक पहुँच  गया। यह वृद्धि उत्पादन की प्रक्रिया में बहुत सारे बदलावों का परिणाम थी।

अठारहवीं सदी में कई ऐसे आविष्कार हुए जिन्होंने उत्पादन प्रक्रिया के हर चरण की कुशलता बढ़ा दी। प्रति मजदूर उत्पादन बढ़ गया और पहले से अधिक मजबूत धागों व रेशों का उत्पादन होने लगा। इसके बाद रिचर्ड आर्कराइट ने सूती कपड़ा मिल की रूपरेखा सामने रखी। अत: इंग्लैंड में सूती कपड़े के नए कारखानें की स्थापना हुई।

4. पहले विश्व युद्ध के समय भारत का औधोगिक उत्पादन क्यों बढ़ा?
Ans.
प्रथम विश्व युद्ध के समय भारत का औद्योगिक उत्पादन बढ़ा। इसके लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे

  1. ब्रिटिश कारखाने सेना की जरूरतों को पूरा करने के लिए युद्ध संबंधी उत्पादन में व्यस्त थे। इसलिए भारत में मैनचेस्टर के माल का आयात कम हो गया। भारतीय बाजारों को रातों-रात एक विशाल देशी बाजार मिल गया।
  2. भारतीय कारखानों में भी फौज के लिए जूट की बोरियाँ, फौजियों के लिए वर्दी के कपड़े, टेंट और चमड़े के जूते, घोड़े व खच्चर की जीन तथा बहुत सारे अन्य सामान बनने लगे।
  3. नए कारखाने लगाए गए। पुराने कारखाने कई पालियों में चलने लगे। बहुत सारे नये मजदूरों को काम मिल गया। उद्योगपतियों के साथ-साथ मजदूरों को भी फायदा हुआ, उनके वेतन में बढ़ोतरी होने से उनकी कायापलट हो गई।
  4. प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार को फँसा देखकर राष्ट्रवादी नेताओं ने भी स्वदेशी चीजों के प्रयोग पर बल देना शुरू कर दिया जिससे भारतीय उद्योगों को और अधिक बढ़ावा मिला।

इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध के कारण विदेशी उत्पादों को हटाकर स्थानीय उद्योगपतियों ने घरेलू बाजारों पर कब्जा कर लिया और धीरे-धीरे अपनी स्थिति मजबूत बना ली।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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