मशीन के प्रकार (Types of Machines)

इस लेख में हम मशीन के प्रकार (Types of Machines) के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त करेंगे। तो आइए निम्नलिखित परिभाषाओं को पढ़ते हैं –

(1) उत्तोलक (Lever)

“उत्तोलक एक छड़ होती है जो किसी निश्चित बिन्दु के चारों ओर स्वतंत्रतापूर्वक घूम सकती है।” छड़ आवश्यकतानुसार सीधी या टेढ़ी हो सकती है। इसके निम्नलिखित बिन्दु होते हैं –

(a) आलंब (Fulcrum) – छड़ जिस स्थिर (fix) बिन्दु के चारों तरफ घूम सकती है उसे आलंब कहते हैं।

(b) आयास (Effort) – उत्तोलक को उपयोग में लाने के लिए उस पर जो बल लगाया जाता है, उसे आयास कहते हैं।

(c) भार (Load) – उत्तोलक द्वारा उठाया गया बोझ या किया गया कार्य, भार कहलाता है।

• उत्तोलक का सिद्धान्त (Principle of Lever)

आयास आयास भुजा = भार भार भुजा (Effort Effort Arm = Load × Load Arm.)

• मशीन या उत्तोलक का यांत्रिक लाभ (Mechanical Advantage of Lever)

उत्तोलक द्वारा उठाये गये भार तथा उस पर लगाये गये आयास (Effort) के अनुपात को उत्तोलक का यांत्रिक लाभ कहते हैं।

Μ.Α. = w (भार)/E. (आयाम)

• मशीन का वेग अनुपात (Velocity Ratio of Machine)

VR= आयास (Effort) बिंदु द्वारा चली गई दूरी /भार (Load) बिंदु द्वारा चली गई दूरी

जिस उत्तोलक में आयास पर कोई घर्षण नहीं होता उसका यांत्रिक लाभ व वेग अनुपात बराबर होता है।

• उत्तोलक के प्रकार (Types of Lever)

आलम्ब (Fulcrum or fix point), आयास (Effort) व भार (Weight of Load) की अलग-अलग स्थितियाँ संभव है। इसी आधार पर उत्तोलकों को तीन प्रकारों में बाँटा जा सकता है-

(a) प्रथम वर्ग के उत्तोलक (First class Lever)- इसमें आलम्ब (Fulerum), आयास (Effort) व भार (Load) के बीच में कहीं होता है। जैसे- कैंची, प्लास, सड़सी, कील उखाड़ने की मशीन, साइकिल ब्रेक इत्यादि ।

संतुलन में, E × PF = L × QF

उत्तोलक का यांत्रिक लाभ (MA) = Work/Effort

या M.A. =  1/E =  PF/QF = आयास भुजा/भार भुजा

इस प्रकार के उत्तोलकों में यांत्रिक लाभ 1 से अधिक, कम या बराबर कुछ भी हो सकता है। क्योंकि PF, QF से छोटा, बड़ा या बराबर भी हो सकता है।

(b) द्वितीय वर्ग के उत्तोलक (Second class Lever)- इसमें आलम्ब (Fulcrum) व आयास (Effort) के बीच में भार (Load) होता है।

इस प्रकार के उत्तोलकों में यांत्रिक लाभ सदैव 1 से अधिक होता है। क्योंकि PF सदैव QF से बड़ा होगा। जैसे – सरौता, नीबू निचोड़ने की मशीन, एक पहिए की कूड़ा ढोने वाली गाड़ी, कब्जे पर घूमने वाला दरवाजा इत्यादि।

(c) तृतीय वर्ग के उत्तोलक (Third class Lever)- इसमें आयास (Effort), भार (Load) व आलंब (Fulcrum) के बीच में होता है।

इसमें यांत्रिक लाभ सदैव 1 से कम होता है क्योंकि PF (आयास भुजा) का मान QF (भार भुजा) में सदैव कम होता है। इसके उदाहरण – चिमटा (Tongs), खेत जोतने का हल, मनुष्य का हाथ इत्यादि हैं।

(2) चक्र तथा धुरी (Wheel and Axle)

भारी वजन को सुविधाजनक दिशा व स्थान पर बल लगाकर ऊपर उठाने के लिए इस युक्ति (machine) का प्रयोग किया जाता है। जैसे – कुएं से पानी खींचने में। इसमें दो बेलन (Cylinder) होते हैं। दोनों का अक्ष (axis) समान होता है। एक बेलन की लम्बाई छोटी व त्रिज्या अधिक होती है जबकि दूसरे की लम्बाई अधिक व त्रिज्या कम होती है। पहला चक्र (wheel) व दूसरा धुरी (Axle) कहलाता है।

चक्र पर रस्सी लिपटी होती है जिस पर एक तरफ भार (Load) लटका या बंधा (tied) होता है व दूसरी तरफ बल लगाया जाता है।

इसका यांत्रिक लाभ निम्न सूत्र से निकाला जाता है-

यांत्रिक लाभ = चक्र की त्रिज्या (R)/धुरी की त्रिज्या (r) = वेग अनुपात

चूँकि R > r, अतः इसका यांत्रिक लाभ सदैव 1 से अधिक होता है।

(3) घिरनियाँ (Pulleys)

यह युक्ति भी चक्र तथा धुरी से ही मिलती-जुलती है। इसमें एक से अधिक घिरनियों का उपयोग भार को उठाने हेतु किया जाता है। घिरनियों का संयोजन (Coordination) इस प्रकार किया जाता है कि बल लगाने की दिशा व स्थान अत्यधिक सुविधाजनक हो जाय व हम कम से कम बल लगाकर अधिकाधिक कार्य कर सकें।

(4) स्क्रू जैक (Screw Jack)

इसका प्रयोग भारी वाहनों यथा कार, ट्रक, बस इत्यादि को नीचे से ऊपर उठाने के लिए किया जाता है ताकि उनकी नीचे से सफाई की जा सके या टायर व ट्यूब बदला जा सके। इसमें एक चूड़ी कटा बेलन होता है। उसके ऊपर अंदर से, चुड़ी कटा खोखला बेलन फिट कर दिया जाता है जो ऊपर नीचे गति करता है। जिस वस्तु को उठाना होता है उसके नीचे इसे लगा देते हैं और एक राड की सहायता से घुमाकर ऊपर उठाते हैं जिसके साथ ही वस्तु भी ऊपर उठ जाती है।

(5) आनत तल (Inclined plane)

जब कोई तल (Plane or Surface) किसी कोण पर झुका होता है तो उसे आनत तल कहते हैं। ट्रक आदि में भारी सामानों को लादने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। इसका लाभ यह है कि सभी भार (L) को सीधा ऊपर ऊर्ध्वाधर उठाने की अपेक्षा आनत तल पर खींचना अधिक आसान होता है क्योंकि इससे भार (Load) दो दिशाओं में वियोजित हो जाता है-

आनत तल के लम्बवत् नीचे की ओर = w cosθ व, आनत तल के समानान्तर नीचे की ओर = w sinθ इस प्रकार वस्तु का प्रभावी भार w sine ही रह जाता है जो कि W से कम होता है।

आनत तल का यांत्रिक लाभ (MA) = आनत तल की लंबाई/आनत तल की ऊँचाई or, Length of inclined plane/Height of inclined plane

गियर (Gear)

दाँतेदार पुल्लियों (Sanctioned Pullies) के संयोजन (Coordination) को हम गियर कहते हैं। इस युक्ति (Technique) का प्रयोग हम यंत्रों के यांत्रिक लाभ को कम या अधिक करने के लिए करते हैं। इसकी सहायता से पुल्लियों का वेग अनुपात भी परिवर्तित किया जा सकता है। यथा 100 दाँतों वाले गियरपुल्ली (Gear pully) के एक चक्कर घूमने पर 25 दाँतों वाला गियर पुल्ली चार चक्कर घूमता है अतः उसकी घूर्णन गति भी बड़ी पुल्ली से चार गुनी होगी। अतः

वेग अनुपात= बड़े पुली में दाँतों की संख्या/छोटे पुली में दाँतों की संख्या

गुरुत्व केंद्र (Centre of Gravity)

“किसी वस्तु का गुरुत्व केंद्र वह बिन्दु होता है जहाँ वस्तु का समस्त भार कार्य करता है, वस्तु चाहे जिस स्थिति में रखी जाय।”

चूँकि प्रत्येक वस्तु असंख्य अणुओं (molecules) से मिलकर बना होता है और प्रत्येक अणु को पृथ्वी द्वारा अपनी तरफ आकर्षित (attract) किया जाता है जिससे प्रत्येक कण पिण्ड पर नीचे अर्थात् पृथ्वी के केंद्र की ओर एक बल लगाता है जो एक दूसरे से समानान्तर माने जा सकते हैं क्योंकि पृथ्वी का गुरुत्व केंद्र पृथ्वी पर स्थित ‘वस्तु से भी बहुत दूर होता है। सभी बलों की प्रवृत्ति पिण्ड को घुमाने की होती है परन्तु पिण्ड संतुलन (equilibrium) में होता है अर्थात् किसी बिन्दु के सापेक्ष सभी बलों के आघूर्णों का बीजीय योग शून्य होता है। इस प्रकार उस बिन्दु पर सभी बलों का परिणामी बल नीचे की ओर कार्य करता है जो कि वस्तु के भार के बराबर होता है। इसे ही गुरुत्व केंद्र की संज्ञा दी जाती है। इस बिन्दु पर वस्तु के भार के बराबर उपरिमुखी बल लगाकर हम वस्तु को संतुलित रख सकते हैं।

गुरुत्व केंद्र के आधार पर संतुलन की व्याख्या

यदि किसी संतुलित पिण्ड (body) को संतुलनावस्था से जरा सा विस्थापित करने पर उसके गुरुत्व केंद्र के ठीक नीचे कार्यकारी भार (बल) रेखा अभी भी उसके आधार (base) से ही होकर गुजरती है तो विस्थापन बल हटाने पर वस्तु अपनी पूर्वावस्था (Preposition) में वापस आ जाती है। इस बात की संभावना तब अधिक होती है जब वस्तु का आधार व्यापक अथवा भारी अथवा दोनों हों। ऐसी वस्तुओं के संतुलन की प्रकृति स्थायी (Stable) होती है। क्योंकि उनका गुरुत्व केंद्र आधार के समीप होता है और विस्थापन के बाद भी भार की क्रिया रेखा आधार से ही गुजरती है।

(a) यदि किसी वस्तु का आकार ऐसा है या वस्तु ऐसी विशेष स्थिति (position) में रखी है कि उसके संतुलनावस्था (State of equilibrium) से जरा सा विस्थापन (Slight Change) से उसके भार की क्रिया रेखा उसके आधार से बाहर चली जाय तो वस्तु वापस पूर्वावस्था में नहीं आ पाती और इस प्रकार का संतुलन, अस्थायी (Unstable) संतुलन होता है। जैसे – सीधा रखे ठोस शंकु का संतुलन स्थायी प्रकृति का होता है परन्तु उल्टा रखे शंकु तथा पतली लम्बी छड़ का संतुलन अस्थायी प्रकृति का होता है।

(b) ऐसी वस्तुएं जिनके भार की क्रिया रेखा उन्हें संतुलनावस्था से विस्थापित करने पर नये आधार से होकर गुजरने लगती हैं वे न तो असंतुलित होती हैं और न ही वापस लौटने का प्रयत्न करती हैं। इसीलिए इनके संतुलन को उदासीन संतुलन कहते हैं। यथा- समतल पर पड़ा हुआ गोला, लेटा हुआ बेलन या शंकु ।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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