पादप जगत : अध्याय – 2 , भाग – 2

जीवाणु

जीवाणुओं का पता सर्वप्रथम एण्टोनी वॉन ल्यूवेनहॉक (1683) ने लगाया था। * एरनबर्ग (1829) ने इन्हें जीवाणु (bacteria) नाम दिया। फ्रांस के वैज्ञानिक लुई पाश्चर (1876) ने बताया कि किण्वन (fermentation) की क्रिया जीवाणुओं द्वारा होती है।* जर्मन वैज्ञानिक रॉबर्ट कोच (1881) ने बताया कि पशुओं में एन्ट्रैक्स, मनुष्य में क्षय रोग (T.B.) तथा हैजा (Cholera) आदि रोग जीवाणुओं के कारण होते हैं। इन्होंने जीवाणुओं का कृत्रिम संवर्धन किया।* इन्होंने रोगाणुओं द्वारा रोगों की उत्पत्ति (germ theory of dis- eases) प्रतिपादित की।* जोसेफ लिस्टर (1867) ने जीवाणुओं के सम्बन्ध में प्रथम बार प्रतिरोधी मत (antiseptic theory) प्रस्तुत की।* जीवाणुओं के अध्ययन को जीवाणु विज्ञान (Bacteriology) कहते हैं। एण्टोनी वॉन ल्यूवेनहॉक को जीवाणु विज्ञान का जनक (father of bacteriology), लुई पाश्चर को सूक्ष्म जीव विज्ञान (microbiology) का जनक तथा रॉबर्ट कोच को आधुनिक जीवाणु विज्ञान का जनक (father of modern bacteriology) कहा जाता है।* ओसवाल्ड टिप्पो (1942) ने जीवाणुओं को संघ शाइजोमाइकोफाइटा के अन्तर्गत रखा।*

➤ जीवाणुओं के सामान्य लक्षण

1. जीवाणु सबसे सरल, अतिसूक्ष्म तथा एक कोशीय (unicel- lular), आद्य (primitive) जीव है।

2. ये विश्वजनीन अर्थात् सर्वव्यापी (cosmopolitan) जीव हैं जो जल, थल, वायु, जीवित व मृत पौधों तथा जन्तुओं पर वास करते हैं।

3. ये बर्फ व गर्म जल के झरनों में 80°C तक के तापक्रम पर भी पाये जाते हैं।

4. इनमें कोशा-भित्ति (cell wall) पायी जाती है जिसके कारण इन्हें पादप जगत् में रखते हैं।*

5. इनमें सुविकसित लवक (plastids), माइटोकॉण्ड्यिा, गॉल्जीकाय (Golgi complex), अन्तः द्रव्यी जालिका (endoplas- mic reticulum), आदि कोशिकांग नहीं पाये जाते हैं।*

6. जीवाणु कोशा में केन्द्रक के चारों ओर केन्द्रक कला (nuclear membrane) नहीं होती तथा केन्द्रिका (nucleolus) भी अनुपस्थित होती है। * कोशाद्रव्य में उपस्थित केन्द्रकीय पदार्थ (nuclear material) को आरम्भी केन्द्रक (incipient nucleus) कहते हैं तथा ऐसी कोशा को प्रोकैरियोटिक कोशा (prokaryotic cell) कहते हैं।*

7. इनमें जीवद्रव्य कला कुछ स्थानों पर अन्दर की ओर अनेक बार वलित होकर मध्यकाय (mesosomes) बनाती है। इन पर श्वसन विकर (respiratory enzymes) होते हैं जो श्वसन में भाग लेते हैं।*

8. प्रकाश-संश्लेषी जीवाणुओं में हरितलवक (chloroplast) जैसी रचना नहीं होती बल्कि एक लैमिला (unilamellate) रचना वाले अनेक थायलैकायड्स (thylakoids), जीवद्रव्य में बिखरे रहते हैं।*

9. जीवाणु के राइबोसोम 70S प्रकार के होते हैं, जो जीवद्रव्य में स्वतन्त्र रहते हैं और प्रायः पॉलीसोम या पॉलीराइबोसोम (poly- some or polyribosome) के रूप में नहीं होते हैं।*

10. इनकी कोशा-भित्ति में एसीटिलग्लूकोसेमीन तथा एसीटिलम्यूरेमिक अम्ल नामक दो प्रमुख शर्करा व्युत्पन्न (sugar derivatives) होते हैं जो अन्य जीवों में नहीं होते हैं।*

11. इनमें जनन सामान्यतः द्वि-विभाजन (binary fission) द्वारा होता है जो एकप्रकार का असूत्री (amitotic) विभाजन होता है।*

12. जीवाणु में लैंगिक जनन (sexual reproduction) स्पष्ट युग्मकों के संलयन (fusion) द्वारा नहीं होता। इनमें आनुवंशिक लक्षणों में परिवर्तन आनुवंशिक पुनर्संयोजन (genetic recombina- tion) की विभिन्न विधियों द्वारा सम्पन्न होता है। इनमें लैंगिक जनन को संयुग्मन (conjugation), रूपान्तरण (transformation) तथा पारक्रमण (transduction) द्वारा व्यक्त किया जाता है।*

जीवाणु अतिसूक्ष्म एवं साधारण जीव हैं। ये प्रायः एककोशीय होते हैं, परन्तु कभी-कभी कोशाओं की संख्या 20 तक होती है। इनकी लम्बाई 2 से 5 माइक्रोन (µ) तक होती है। कुछ जीवाणु 60μ तक की लम्बाई के होते हैं। (1µ = 0.001mm)। सबसे कम लम्बाई का जीवाणु डाइएलिस्टर न्यूमोसिन्टीस (0.15 µ-0.3 µ) तथा अधिकतम लम्बाई का जीवाणु स्पाइरिलम वालुटेन्स (Spirillum volutans-15µ) होता है, परन्तु सबसे बड़ा जीवाणु बेजियाटोआ मिराबिलिस (Beggiatoa mirabilis) होता है। जीवाणु आकार एवं आकृति के आधार पर निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-

(a) छड़ाकार या बैसिलस (Bacillus) (बहुवचन Bacilli)- ये छड़नुमा (rod-like) या बेलनाकार (cylindrical) होते हैं। ये या तो अकेले होते हैं, या समूहों के रूप में पाए जाते हैं।

(b) गोलाकार या कोकस (Coccus) (बहुवचन Cocci) – ये गोलाकार (spherical) तथा सबसे छोटे जीवाणु होते हैं। कोशिकाओं के विन्यास के आधार पर ये कई प्रकार के होते हैं:

(i) माइक्रोकोकस (Micrococcus) – अकेले, एक कोशिका के रूप में।

(ii) डिप्लोकोकस (Diplococcus) – दो-दो कोशिकाओं के समूह में, उदाहरणतः डिप्लोकोकस न्यूमोनी।

(iii) टेट्राकोकस (Tetracoccus)- चार-चार कोशिकाओं के समूह में।

(iv) स्ट्रेप्टोकोकस (Streptococcus) – अनेक कोशिकाएं एक श्रृंखला में। उदाहरण-स्ट्रेप्टोकोकस लैक्टिस।

(v) स्टैफाइलोकोकस (Staphylococcus) – अनेक कोशिकाएं गुच्छे के रूप में। उदाहरण, स्टैफाइलोकोकस ऑरियस ।

(c) कामा-आकार (Comma shaped) – अंग्रेजी के चिह्न कामा (,) के आकार के। उदाहरण-बिब्रियो कॉलेरी।

(d) सर्पिलाकार (Spirillum) – स्प्रिंग या स्क्रू के आकार के।

➤ जीवाणु कोशिका की संरचना

जीवाणु कोशा एक भित्ति से घिरी रहती है। यह पॉलिसैकेराइड, लिपिड और प्रोटीन की बनी होती है। * कुछ जीवाणुओं में काइटिन (chitin) भी होता है। कुछ जीवाणुओं की कोशा-भित्ति में सेलुलोज (cellulose) भी पाया जाता है। इस भित्ति के चारों ओर अवपंक (slime) की बनी एक परत होती है। जीवाणु वृद्धि के समय अवपंक की बनी यह परत फूल जाती है और सख्त होकर एक कैप्सूल (capsule) बनाती है। वे जीवाणु, जो कैप्सूल बनाते हैं कैप्सुलेटिड (capsulated) कहलाते हैं। कैप्सूल की उपस्थिति जीवाणुओं के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह जीवाणुओं की प्रतिकूल वातावरण से रक्षा करता है और संचित खाद्य-पदार्थों के संग्रहालय के रूप में काम करता है। इसके साथ ही जीवाणुओं के उत्सर्जी पदार्थ भी इसमें एकत्रित होते रहते हैं। दूसरी ओर कैप्सूल की उपस्थिति जन्तुओं के रोग के संक्रमण में सहायता देती है, क्योंकि कैप्सूल के कारण जन्तुओं के रक्त में रहने वाली श्वेत-रक्त कणिकाएँ (White blood corpuscles or WBCs) जीवाणुओं को नष्ट नहीं कर पाती, जिसके कारण रोग फैलता है। कैप्सूल का निर्माण डेक्सट्रान, डेक्सट्रिन, लेवैन, सेलुलोज व पॉलिसैकेराइड्स आदि पदार्थों से होता है।

जीवाणुओं की कोशा-भित्ति के अन्दर जीवद्रव्य होता है, जो बाहर की ओर जीवद्रव्यी कला (photoplasmic membrane) से घिरा रहता हैं। यह कला फॉस्फोलिपिड एवं प्रोटीन की बनी होती है। जीवद्रव्यी कला और जीवद्रव्य की रासायनिक एवं भौतिक प्रकृति पर जीवाणुओं का अभिरंजन (stain- ing) निर्भर करता है। तरुण (young) अवस्था के जीवाणु में रिक्तिकाएँ नहीं होती, परन्तु परिपक्व अवस्था वाले जीवाणु में इनका विकास हो जाता हैं। इन रिक्तिकाओं में कोशारस (cell sap) व संगृहीत भोजन रहता हैं। जीवद्रव्य (protoplasm) में ग्लाइकोजन, वसा (fats), वॉल्युटिन कण (volutin granules) होते हैं। हरे जीवाणुओं में एक विशेष प्रकार का क्लोरोबियम क्लोरोफिल बैक्टीरियोविरिडिन और बैंगनी जीवाणुओं में बैक्टीरियोपरप्यूरिन एवं बैक्टीरियो क्लोरोफिल होते हैं, जिनके कारण ये प्रकाश-संश्लेषण कर सकते हैं। जीवाणुओं में कैरिटीनाभ वर्णक (carotenoid pigments) भी होते हैं। जीवाणुओं में 70S प्रकार के राइबोसोम पाये जाते हैं, परन्तु माइटोकॉण्ड्रिया, अन्तःद्रव्यी जालिका (endoplasmic reticulum) तथा लवक (plastids) नहीं होते।* कोशाद्रव्य में कुछ कलाएँ जो मध्यकाय या मीजोसोम्स (mesosomes) कहलाती हैं, उपस्थित होती हैं। ये जीवद्रव्य में जीवद्रव्य कला (plasmalemma) के अन्तर्वलन (invagination) से बनी मुड़ी- तुड़ी रचनाएँ होती हैं। ये उच्च वर्ग के पौधों में पायी जाने वाली माइटोकॉण्ड्रिया के समवृत्ति अंग (analogous organs) हैं। यद्यपि मीलोसोम्स में श्वसन क्रिया होती है, परन्तु ऑक्सी-श्वसन (aero- bic respiration) करने वाले सभी जीवाणुओं में पूर्ण जीवद्रव्य कला (plasma membrane) पर ही ऑक्सी-श्वसन (aerobic res- piration) क्रिया होती है।

जीवाणु कोशा में एक निश्चित केन्द्रक नहीं होता, अर्थात् इनमें केन्द्रक कला, केन्द्रिका तथा सामान्य प्रकार के गुणसूत्र नहीं होते।* कोशाद्रव्य के केन्द्र में एक स्वच्छ भाग होता है जिसे केन्द्रकाभ (nucleoid) कहते हैं। एशरिकिया कोली नामक जीवाणु के आनुवंशिक अनुसन्धानों से ज्ञात हुआ है कि केन्द्रकाभ (nucleoid) में एक 700- 1400 µm लम्बा वलयित द्विसूत्रीय डीएनए का तन्तु होता है जो स्थान-स्थान पर मुड़ा होता है। इसमें हिस्टोन प्रोटीन डीएनए (DNA) तन्तु से नहीं लगे होते हैं। जीवाणुओं में उपस्थित केन्द्रकाभ (nucleoid) को आरम्भी केन्द्रक (incipient nucleus) कहते हैं।

वास्तविक केन्द्रक न होने के कारण जीवाणुओं को प्रोकैरिओटा (prokaryota) वर्ग में रखा जाता है और मोनेरा जगत् (Kingdom- Monera) में वर्गीकृत करते हैं।*

प्लास्मिड (Plasmid) तथा एपिसोम (Episome)

E.coli जीवाणु में प्रायः गुणसूत्र से अलग कुछ आनुवंशिकीय पदार्थ (extra-chromosomal genetic materials) होते हैं जिन्हें प्लास्मिड (plasmid) कहते हैं। इनमें कोशा के कुल डीएनए (DNA) का 0.5 से 2% भाग होता है।

प्लास्मिड (plasmid) छोटे गोल द्विसूत्रीय डीएनए (double stranded DNA) हैं जो मुख्य डीएनए से अलग रहते हैं तथा इनका द्विगुणन भी स्वतन्त्र रूप से होता है। जीवाणु इनकी अनुपस्थिति में भी रह सकता है।

वे प्लास्मिड (plasmid) जो मुख्य गुणसूत्र का भाग भी बन सकते हैं, एपिसोम (Episome) कहलाते हैं। * एपिसोम गुणसूत्र के साथ लगकर तथा उससे पृथक भी द्विगुणन (replicate) कर सकते हैं जबकि प्लास्मिड, पोषक गुणसूत्र से पृथक रहकर ही द्विगुणन करते हैं। दूसरे शब्दों में सभी प्लास्मिड्स को एपीसोम कहा जा सकता है जबकि सभी एपीसोम्स को प्लास्मिड्स नहीं कहा जा सकता।

➤ जीवाणुओं का आर्थिक महत्व

A. लाभप्रद क्रियाएँ

1. कृषि में (In agriculture) – कुछ जीवाणु भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं। सभी पौधों के लिये नाइट्रोजन आवश्यक है। वायुमण्डल में नाइट्रोजन लगभग 78% होती है।* प्रायः पौधें नाइट्रेट्स (NO3) के रूप में नाइट्रोजन लेते हैं। पृथ्वी में नाइट्रेट्स (NO3) निम्न प्रकार से बनते हैं-

(i) नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणुओं द्वारा – कुछ जीवाणु या तो पृथ्वी में स्वतन्त्र रूप से पाये जाते हैं, जैसे एजोटोबैक्टर तथा क्लॉस्ट्रिडियम आदि या लेग्युमिनोसी कुल के पौधों की जड़ों की गाँठों (root nodules) में पाये जाते हैं, जैसे राइजोबियम लेग्युमिनोसेरम। इन जीवाणुओं में वायुमण्डल की स्वतन्त्र नाइट्रोजन को नाइट्रोजन यौगिकों में बदलने की सामर्थ्य होती है। राइजोबियम लेग्युमिनोसेरम जीवाणु * पौधे के साथ सहजीवन व्यतीत करता है। यह जीवाणु मूलरोमों द्वारा जड़ में प्रवेश करता है। इसके संक्रमण के प्रभाव से बल्कुट (cortex) की कोशाएँ तेजी से विभाजित होने लगती हैं और गाँठे (nodules) बनाती हैं। नई बनने वाली कोशाएँ चतुर्गुणित (tetraploid) होती हैं जबक्ति अन्य कोशाएँ द्विगुणित ही रहती हैं। इन गाँठों में लेग- हीमोग्लोबिन नामक लाल वर्णक (pigment) भी पाया जाता है। यह नाइट्रोजन स्थिरीकरण में विशेष रूप से सहायक है। जिन गाँठों में यह नहीं होता वे नाइट्रोजन स्थिरीकरण नहीं कर पाती।

सहजीवी नाइट्रोजन स्थिरीकरण अन्य जीवाणुओं द्वारा भी होता है, जैसे सेस्बेनिया रोजट्राटा के तने में पायी जाने वाली गाँठो में ऐरोराइजोबियम, आर्डीसिया (Ardisia) की पत्ती की गाँठों में माइकोबैक्टीरियम, केजुराइना (Casuarina) तथा रुबस (Rubus) पौधों (दोनों non-legumes हैं) की जड़ों की गाँठों में फ्रेन्किया (Frankia) जीवाणु पाये जाते हैं।

(ii) नाइट्रीकारक जीवाणु – ये जीवाणु अमोनिया की नाइट्रोजन को ऑक्सीकृत करके नाइट्राइट (NO2) में बदल देते हैं, जैसे नाइट्रोसोकोकस एवं नाइट्रोसोमोनासा कुछ जीवाणु नाइट्राइट (NO2) यौगिकों को फिर से ऑक्सीकृत करके नाइट्रेट में बदल देते हैं, जैसे नाइट्रोबैक्टर । इन क्रियाओं में मुक्त हुई ऊर्जा जीवाणुओं के रसायन संश्लेषण में उपयोग की जाती है।*

2NH3 +3Ο₂  2HΝΟ₂ Nitrous acid + 2H₂O + energy

2NO2 + Ο₂ 2NO3 Nitrate ion + Energy

इस प्रकार नाइट्रीकारक जीवाणु (nitrifying bacteria) भूमि में नाइट्रेट यौगिकों की उपलब्धता बनाये रहते हैं।

(iii) मृत पौधों तथा जन्तुओं का सड़ना – कुछ जीवाणु, जैसे बैसिलसमायकोयड्स, बैसिलस रेमोसस तथा बैसिलस बुल्गेरिस आदि पौधों और जन्तुओं के मृत शरीर पर आक्रमण करके उनके जटिल यौगिकों को सरल पदार्थों, जैसे जल (H₂O), कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂), नाइट्रेट (NO3), सल्फेट (SO2-4) इत्यादि में बदल देते हैं, जिससे भूमि की उर्वरा (fertility) शक्ति बढ़ जाती है।

(iv) सल्फर जीवाणु (Sulphur bacteria) – भूमि में रहने वाले कुछ सल्फर जीवाणु, जैसे थायोबैसिलस प्रोटीन पदार्थों के सड़ने से प्राप्त हाइड्रोजन सल्फाइड (H₂S) को सल्फ्यूरिक अम्ल (H₂SO₄) में बदल देते हैं। सल्फ्यूरिक अम्ल कुछ लवणों (salts) से क्रिया करके उन्हें सल्फेट में बदल देता हैं। सल्फर उपापचय के लिये पौधे इन सल्फेट लवणों का अवशोषण कर देते हैं।

2H₂S + O₂ 2S + 2H₂O + Energy

2S + 2H₂O + 3O₂ → 2H₂SO₄ + Energy

2. डेरी में (In dairy) –

दूध में स्ट्रेप्टोकोकस लैक्टिस एवं लैक्टोबैसिलस लैक्टिस नामक जीवाणु पाये जाते हैं। ये जीवाणु दूध में पायी जाने वाली लैक्टोस शर्करा का किण्वन करके लैक्टिक अम्ल (lactic acid) बनाते हैं जिसके कारण दूध खट्टा हो जाता है।* दूध को 15 सेकण्ड तक 71°C पर (अथवा 62.8°C पर 30 मिनट) गर्म करके शीघ्रता से ठण्डा करने पर लैक्टिक अम्ल जीवाणुओं की संख्या कम हो जाती है। इस क्रिया को पाश्चुरीकरण (pasteurization) कहते हैं।*

लैक्टिक अम्ल जीवाणु (lactic acid bacteria) दूध में पाये जाने वाले केसीन नामक प्रोटीन की छोटी-छोटी बूँदों को एकत्रित करके दही जमाने में सहायता करते हैं। दही को मथने (churning) से मक्खन वसा की गोल बूँदों के रूप में निकलता है। मक्खन को गर्म करके घी तैयार किया जाता है।

दूध में पाये जाने वाले प्रोटीन केसीन (casein) के जमने पर उसे जीवाणुओं द्वारा किण्व (fement) किया जाता है जिससे झागदार, मुलायम व भिन्न स्वाद वाला पदार्थ पनीर बनता है। इस क्रिया में लैक्टोबैसिलस लैक्टिस तथा ल्यूकोनोस्टोक सिट्रोवोरम भाग लेते हैं। दूध को स्ट्रेप्टोकोकस थर्मोफिलस तथा लैक्टोबैसिलस बुल्गेरिकस के द्वारा 40-46°C पर जमाकर, यीस्ट द्वारा आंशिक किण्वन (fermentation) कराया जाता है, तो पोषक पदार्थ योगर्ट (दही-yo- ghurt) प्राप्त होता हैं।

• कुछ डेरी पदार्थ (dairy products) एवं उनके बनने में भाग लेने वाले जीवाणु (bacteria) निम्नलिखित हैं। यथा-

दही (Curd) स्ट्रेप्टोकोकस लैक्टिस, पनीर (Cheese) लैक्टोबैसिलस लैक्टिस, मक्खन (Butter)- स्ट्रेप्टोकोक्स लैक्टिस तथा दही (Yoghurt) – लैक्टोबैसिलस बुल्गेरिकस ।

3. औद्योगिक महत्व (Industrial value) – औद्योगिक दृष्टिकोण से जीवाणु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं-

(i) सिरका उद्योग (Vinegar industry) – सिरके (vinegar) का निर्माण शर्करा घोल (sugar solution) से एसीटोबैक्टर ऐसीटी नामक जीवाणु द्वारा होता है।*

CH3CH₂OH + O₂ → CH3 COOH + H₂O

(ii) एल्कोहॉल एवं ऐसीटोन (Alcohol and acetone) – शर्करा के घोल से ब्यूटाइल ऐल्कोहॉल एवं ऐसीटोन का निर्माण क्लॉस्ट्रिडियम एसीटोब्यूटाइलिकम जीवाणु द्वारा किया जाता है।

(iii) रेशे का रेटिंग (Fibre ratting) इस विधि से जूट, पटसन (hemp) तथा सन (flax) के रेशे तैयार किये जाते हैं। सन बनाने में लाइनम (Linum usitatissimum) के तनों, पटसन (hemp) बनाने में क्रोटेलेरिया जन्सिया (Crotalaria juncea) के तनों और जूट बनाने में कोरकोरस केप्सुलेरिस (Corchorus capsularis) के तनों की रेटिंग की जाती है। इस विधि में तनों को कुछ दिनों के लिए जल में डुबो देते हैं तथा जब तना सड़ने लगता है तो तनो को पीट- पीटकर रेशों को पृथक कर लेते हैं। इस प्रकार से रेशों को पृथक् करने को ही रेटिंग कहते हैं। यह क्रिया जल में पाये जाने वाले जीवाणु, क्लॉस्ट्रिडियम ब्यूटाइरिकम, क्लॉस्ट्रिडियम फैल्सीनियम एवं क्लॉस्ट्रिडियम पैक्टीनोवोरम द्वारा होती हैं।*

(iv) तम्बाकू उद्योग में कुछ जीवाणुओं, जैसे बैसीलस मेगाथीरियम एवं माइक्रोकोकस कैन्डिडैन्स द्वारा तम्बाकू की पत्ती में सुगन्ध एवं स्वाद बढ़ जाता है जो कि इन जीवाणुओं की किण्वन क्रिया (fermentation) द्वारा होता है।

(v) चाय उद्योग में (In tea industry) – माइक्रोकोकस कैन्डीडैन्स द्वारा चाय की पत्तियों पर किण्वन क्रिया द्वारा क्यूरिंग (curing) किया जाता है।* इस क्रिया द्वारा चाय की पत्तियों में विशेष स्वाद आ जाता है।

(vi) चमड़ा कमाने का उद्योग (Tanning of leather) – कुछ जीवाणु जन्तुओं की त्वचा पर पाये जाने वाले वसा आदि का विघटन कर देते हैं जिससे त्वचा व बाल पृथक् हो जाते हैं और यह चमड़ा प्रयोग के योग्य हो जाता है।

(vii) अन्य पदार्थों के निर्माण में (In the synthesis of other substances) – जीवाणुओं का उपयोग निम्नलिखित पदार्थों के संश्लेषण में भी किया जाता है-

• लाइसिन (Lysine)माइक्रोकोकस ग्लूटेमिकस (Micrococcus glutarnicus)
• स्ट्रेप्टोकाइनेस (Streptokinase)*स्ट्रेप्टोकोकस इक्वीसीमिलिस (S. equisimilis)
• विटामिन C (Vitamin C)ऐसीटोबैक्टर (Acetobacter)
• विटामिन B12 (Vitamin B12)*स्ट्रेप्टोमाइसिस ओलिएसिअस (S. oliaceous)
• ड्रेक्सट्रॉन (Dextron)ल्यूकोनोस्टॉक मीजेन्टीरॉयड्स (Leuconostoc mesenteroides)
• विटामिन B. (Vitamin B₂)*क्लॉस्ट्रिडियम ऐसीटोब्यूटाइलिकम (Clostridium acetobutylicum)

4. औषधियाँ (Medicines) – कुछ प्रतिजैविकी औषधियाँ (antibiotic medicines) जीवाणुओं की क्रिया द्वारा बनायी जाती हैं, जैसे, बैसिलस ब्रेविस से प्रतिजैविकी थाइरोथिन (antibiotic- Thyrothrin) और बैसिलस सबटिलिस से प्रतिजैविकी सबटिलिन (antibiotic-subtilin) तथा स्ट्रेप्टोमाइसीज की विभिन्न जातियों से निम्न प्रतिजैविक बनाये जाते हैं –

प्रतिजैविकी (antibiotic) का नामजीवाणु, जिससे बनाया जाता है
• Streptomycinस्ट्रेप्टोमाइसीज ग्रीसस
• Chloromycetin*स्ट्रे. बेनेसुएली
• AureomycinS. aureofaciens
• Terramycinस्ट्रे. रैमोसस
• Neomycinस्ट्रे. फ्रेडी

5. विविध (Miscellaneous)

(1) मल पदार्थों का नाश (disposal of sewage) : कुछ जीवाणु कार्बनिक मल पदार्थों, जैसे-गोबर, मल व पेड़-पौधों की सड़ी-गली पत्तियों को खाद तथा ह्यूमस (humus) में बदलकर उपयोगी बनाते हैं।

2. मनुष्य के सहजीवी जीवाणु : एशरिकिया कोली नामक जीवाणु मनुष्य व दूसरे जन्तुओं की छोटी आंत में रहता है और विटामिन का निर्माण करता है।*

(B) हानिकारक क्रियाएँ (Harmful Activities)

(1) मनुष्य के रोग : जीवाणु मनुष्य में अनेक रोग पैदा करते हैं। इन रोगों का विवेचन इस पुस्तक पुस्तक के भागः 2 के संक्रामक रोग के अध्याय में किया गया है।

(2) जीवाणुओं द्वारा जानवरों में होने वाली बीमारियों का विवेचन इस प्रकाशन की पुस्तक ‘कृषि प्रौद्योगिकी’ में किया गया है।

4. भूमि की उर्वरता कम करना (Reduction of soil fertility)- कुछ जीवाणु, जैसे थायोबैसिलस डिनाइट्रीफिकेन्स और माइक्रोकोकस डिनाइट्रीफिकेन्स नाइट्रोजन यौगिकों को स्वतन्त्र नाइट्रोजन व अमोनिया में बदल देते हैं। यह क्रिया विनाइट्रीकरण (denitrification) कहलाती है। इससे भूमि की उर्वरता कम हो जाती है।*

NO3 → NO2 → N2

5. भोजन का नाश (Food spoilage)- मृतोपजीवी जीवाणुओं की बहुत-सी जातियाँ खाद्य वस्तुओं (माँस, मछली, मक्खन, फल एवं शाक, आदि) को नष्ट कर देती हैं। क्लॉस्ट्रिडियम बॅटुलिनम माँस एवं दूसरे अधिक प्रोटीन वाले खाद्यों को नष्ट करता है।

खाने-पीने की वस्तुओं को सड़ने से बचाने के लिए सुखाकर या नमक या शक्कर या तेल मिलाकर रखा जाता है। मुरब्बे में बहुतायत से डाली शक्कर जीवद्रव्यकुंचन (Plasmolysis) द्वारा जीवाणु कोशा का सारा जल सोखकर उनकी वृद्धि बन्द कर देती है।*

6. कपास का नाश- जीवाणु स्पाईरोकीट साइटोफेज (Spirochaete cytophage) रुई के रेशों का नाश करता है।

7. पेनिसिलिन का नाश- कुछ जीवाणु, विकर (enzymes) पेनिसिलेस (Penicillase) बनाते हैं जो पेनिसिलिन को नष्ट करते हैं।

इस प्रकार उपरोक्त विवेचन के बाद यह कहा जा सकता है कि जीवाणु हमारे मित्र तथा शत्रु दोनों हैं। जीवाणु जनित रोगों की रोकथाम के लिए निम्नलिखित प्रमुख वेक्सीन (vaccines) हैं-

(i) ट्रिपल वेक्सीन (Triple vaccine) DPT- यह वेक्सीन डिफ्थीरिया (Diphtheria), पर्दुसिस या कुकर खाँसी (Pertusis = whooping cough) तथा टिटेनस (Tetanus) की रोकथाम हेतु है।*

(ii) बीसीजी (BCG-Bacillus Calmette Guerin)- यह तपेदिक T.B.) की रोकथाम हेतु दिया जाता है।*

➤  ग्राम धनात्मक तथा ग्राम ऋणात्मक जीवाणु

ग्राम +ve जीवाणु की कोशा भित्ति मोटी (लगभग 25.30 nm) होती है। इसका शुष्क भार कोशा के भार का 20-40% होता है। कोशा भित्ति में वसा की मात्रा कम (1 से 4%) होती है। इसकी भित्ति में टीकोइक अम्ल (teichoic acid) पाया जाता है। ये प्रतिजैविकों के प्रति कम प्रतिरोधी होते हैं। ये प्रतिजैविकों से नष्ट हो जाते हैं।

ग्राम -ve जीवाणु की कोशाभित्ति अपेक्षाकृत पतली (10-25 nm) होती है। इसका शुष्क भार कोशा के भार का 10-20% होता है। कोशा भित्ति में वसा की मात्रा अधिक (11-22%) होती है। इसकी भित्ति में टीकोइक अम्ल नहीं पाया जाता। ये प्रतिजैविकों के प्रति अधिक प्रतिरोधी होते हैं। ये प्रतिजैविकों से नष्ट नहीं होते। ये प्रायः रोगजनक होते हैं।*

यह भी पढ़ें : पादप जगत : अध्याय – 2 , भाग – 1

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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