लड़के और लड़कियों के रूप में बड़ा होना : अध्याय 4

लड़का या लड़की होना किसी की भी एक महत्त्वपूर्ण पहचान है, उसकी अस्मिता है। जिस समाज के बीच हम बड़े होते हैं, वह हमें सिखाता है कि लड़के और लड़कियों का कैसा व्यवहार स्वीकार करने योग्य है। उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। हम प्रायः यही सोचते हुए बड़े होते हैं कि ये बातें सब जगह बिलकुल एक-सी हैं। परंतु क्या सभी समाजों में लड़के और लड़कियों के प्रति एक जैसा ही नज़रिया है? इस पाठ में हम इसी प्रश्न का उत्तर जानने की कोशिश करेंगे।

हम यह भी देखेंगे कि लड़के और लड़कियों को दी जाने वाली अलग-अलग भूमिका उन्हें भविष्य में स्त्री और पुरुष की भूमिका – के लिए कैसे तैयार करती है। इस पाठ में हम देखेंगे कि अधिकांश समाज पुरुष व स्त्रियों को अलग-अलग प्रकार से महत्त्व देते हैं। स्त्रियाँ जिन भूमिकाओं का निर्वाह करती हैं, उन्हें पुरुषों द्वारा निर्वाह की जाने वाली भूमिकाओं और कार्य से कम महत्त्व दिया जाता है। इस पाठ में हम यह भी देखेंगे कि स्त्री और पुरुष के बीच काम के क्षेत्र में असमानताएँ कैसे उभरती हैं।

1920 के दशक में सामोआ द्वीप में बच्चों का बड़ा होना

सामोआ द्वीप प्रशांत महासागर के दक्षिण में स्थित छोटे-छोटे द्वीपों के समूह का ही एक भाग है। सामोअन समाज पर किए गए अनुसंधान की रिपोर्ट के अनुसार 1920 के दशक में बच्चे स्कूल नहीं जाते थे। वे बड़े बच्चों और वयस्कों से बहुत-सी बातें सीखते थे, जैसे – छोटे बच्चों की देखभाल या घर का काम कैसे करना आदि। द्वीपों पर मछली पकड़ना बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य था, इसलिए किशोर बच्चे मछली पकड़ने के लिए सुदूर यात्राओं पर जाना सीखते थे। लेकिन ये बातें वे अपने बचपन के अलग-अलग समय पर सीखते थे।

छोटे बच्चे जैसे ही चलना शुरू कर देते थे, उनकी माताएँ या बड़े लोग उनकी देखभाल करना बंद कर देते थे। यह ज़िम्मेदारी बड़े बच्चों पर आ जाती थी, जो प्रायः स्वयं भी पाँच वर्ष के आस-पास की उम्र के होते थे। लड़के और लड़कियाँ दोनों अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करते थे, लेकिन जब कोई लड़का लगभग नौ वर्ष का हो जाता था, वह बड़े लड़कों के समूह में सम्मिलित हो जाता था और बाहर के काम सीखता था, जैसे- मछली पकड़ना और नारियल के पेड़ लगाना आदि। लड़कियाँ जब तक तेरह-चौदह साल की नहीं हो जाती थीं, छोटे बच्चों की देखभाल और बड़े लोगों के छोटे-मोटे कार्य करती रहती थीं, लेकिन एक बार जब वे तेरह-चौदह साल की हो जाती थीं, वे अधिक स्वतंत्र होती थीं। लगभग चौदह वर्ष की उम्र के बाद वे भी मछली पकड़ने जाती थीं, बागानों में काम करती थीं और डलिया बुनना सीखती थीं। खाना पकाने का काम, अलग से बनाए गए रसोई घरों में ही होता था, जहाँ लड़कों को ही अधिकांश काम करना होता था और लड़कियाँ उनकी मदद करती थीं।

1960 के दशक में मध्य प्रदेश में पुरुष के रूप में मध्यप्र बड़ा होना

निम्नलिखित आलेख 1960 में मध्य प्रदेश के एक छोटे शहर में रहने और स्कूल जाने के वर्णन से लिया गया है।

कक्षा 6 में आने के बाद लड़के और लड़कियाँ अलग-अलग स्कूलों में जाते थे। लड़‌कियों के स्कूल, लड़कों के स्कूल से बिलकुल अलग ढंग से बनाए जाते थे। उनके स्कूल के बीच में एक आँगन होता था, जहाँ वे बाहरी दुनिया से बिलकुल अलग रह कर स्कूल की सुरक्षा में खेलती थीं। लड़कों के स्कूल में ऐसा कोई आँगन नहीं होता था, बल्कि उनके खेलने का मैदान बस एक बड़ा-सा खुला स्थान था जो स्कूल से लगा हुआ था। हर शाम स्कूल के बाद लड़के, सैकड़ों लड़कियों की भीड़ को सँकरी गलियों से जाते हुए देखते थे। सड़कों पर जाती हुई ये लड़कियाँ बड़ी गंभीर दिखती थीं। यह बात लड़कों से अलग थी, जो सड़कों को अनेक कामों के लिए उपयोग करते थे, जैसे – यूँ ही खड़े-खड़े खाली समय बिताने के लिए, दौड़ने और खेलने के लिए और साइकिल चलाने के करतबों को आजमाने के लिए। लड़कियों के लिए गली सीधे घर पहुँचने का एक माध्यम थी। लड़कियाँ हमेशा समूहों में जाती थीं। शायद उनके मन में यह डर रहता था कि कोई उन्हें छेड़ न दे या उन पर हमला न कर दे।

ऊपर के दो उदाहरणों को पढ़ने के बाद हमें लगता है कि बड़े होने के भी कई तरीके हैं। हम प्रायः सोचते हैं कि बच्चे एक ही तरीके से बड़े होते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम अपने अनुभवों से ही सबसे ज़्यादा परिचित होते हैं। यदि हम अपने परिवार के बुजुर्गों से बात करें तो पाएँगे कि उनका बचपन शायद हमारे बचपन से बहुत भिन्न था।

हम यह भी अनुभव करते हैं कि समाज, लड़के और लड़कियों में स्पष्ट अंतर करता है। यह बहुत कम आयु से ही शुरू हो जाता है, उदाहरण के लिए – उन्हें खेलने के लिए भिन्न खिलौने दिए जाते हैं। लड़कों को प्रायः खेलने के लिए कारें दी जाती हैं और लड़कियों को गुड़ियाँ। दोनों ही खिलौने, खेलने में बड़े आनंददायक हो सकते हैं, फिर लड़कियों को गुड़ियाँ और लड़कों को कारें ही क्यों दी जाती हैं? खिलौने, बच्चों को यह बताने का माध्यम बन जाते हैं कि जब वे बड़े होकर स्त्री और पुरुष बनेंगे, तो उनका भविष्य अलग-अलग होगा। अगर हम विचार करें, तो यह अंतर प्रायः प्रतिदिन की छोटी-छोटी बातों में बना कर रखा जाता है। लड़कियों को कैसे कपड़े पहनने चाहिए, लड़के पार्क में कौन-से खेल खेलें, लड़कियों को धीमी आवाज में बात करनी चाहिए और लड़कों को रौब से ये सब बच्चों को यह बताने के तरीके हैं कि जब वे बड़े होकर स्त्री और पुरुष बनेंगे, तो उनकी विशिष्ट भूमिकाएँ होंगी। बाद के जीवन में इसका प्रभाव हमारे अध्ययन के विषयां या व्यवसाय के चुनाव पर भी पड़ता है।

अधिकांश समाजों में, जिनमें हमारा समाज भी सम्मिलित है, पुरुषों और स्त्रियों की भूमिकाओं और उनके काम के महत्त्व को समान नहीं समझा जाता है। पुरुषों और स्त्रियों की हैसियत एक जैसी नहीं होती है। आओ देखें कि पुरुषों और स्त्रियों के द्वारा किए जाने वाले कामों में यह असमानता कैसे है।

घरेलू काम का मूल्य

हरमीत के परिवार को नहीं लगता था कि जसप्रीत घर का जो काम करती थी, वह वास्तव में काम था। उनके परिवार में ऐसी भावना का होना कोई निराली बात नहीं थी। सारी दुनिया में घर के काम की मुख्य ज़िम्मेदारी स्त्रियों की ही होती है, जैसे- देखभाल संबंधी कार्य, परिवार का ध्यान रखना, विशेषकर बच्चों, बुजुर्गों और बीमारों का। फिर भी, जैसा हमने देखा, घर के अंदर किए जाने वाले कार्यों को महत्त्वपूर्ण नहीं समझा जाता। मान लिया जाता है कि वे तो स्त्रियों के स्वाभाविक कार्य हैं, इसीलिए उनके लिए पैसा देने की कोई ज़रूरत नहीं है। समाज इन कार्यों को अधिक महत्त्व नहीं देता।

घर पर कार्य करने वालों का जीवन

उपर्युक्त कहानी में केवल हरमीत की माँ ही घर के काम नहीं करती थीं। काफ़ी सारा काम मंगला करती थी, जो उनके घरेलू काम में मदद के लिए लगाई गई थी। बहुत-से घरों में विशेषकर शहरों और नगरों में लोगों को घरेलू काम के लिए लगा लिया जाता है। वे बहुत काम करते हैं – झाडू लगाना, सफ़ाई करना, कपड़े और बर्तन धोना, खाना पकाना, छोटे बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल करना आदि। घर का काम करने वाली अधिकांशतः स्त्रियाँ होती हैं। कभी-कभी इन कार्यों को करने के लिए छोटे लड़के या लड़कियों को काम पर रख लिया जाता है। घरेलू काम का अधिक महत्त्व नहीं है, इसीलिए इन्हें मज़दूरी भी कम दी जाती है। घरेलू काम करने वालों का दिन सुबह पाँच बजे से शुरू होकर देर रात बारह बजे तक भी चलता है। जी-तोड़ मेहनत करने के बावजूद प्रायः उन्हें नौकरी पर रखने वाले उनसे सम्मानजनक व्यवहार नहीं करते हैं। दिल्ली में घरेलू काम करने वाली एक स्त्री मेलानी ने अपने अनुभव के बारे में इस तरह बताया –

“मेरी पहली नौकरी एक अमीर परिवार में लगी थी, जो तीन-मंजिले भवन में रहता था। मेमसाहब अजीब महिला थीं, जो हर काम करवाने के लिए चिल्लाती रहती थीं। मेरा काम रसोई का था। दूसरी दो लड़कियाँ सफ़ाई का काम करती थीं। हमारा दिन सुबह पाँच बजे शुरू होता। नाश्ते में हमें एक प्याला चाय और दो रूखी रोटियाँ मिलती थीं। हमें तीसरी रोटी कभी नहीं मिली। शाम के समय जब मैं खाना पकाती थी, दोनों लड़कियाँ मुझसे एक और रोटी माँगती रहती थीं। मैं चुपके से उन्हें एक रोटी दे देती थी और खुद भी एक रोटी ले लेती थी। हमें दिनभर काम करने के बाद बड़ी भूख लगती थी। हम घर में चप्पल नहीं पहन सकते थे। ठंड के मौसम में हमारे पैर सूज जाते थे।

मैं मेमसाहब से डरती थी. परंतु मुझे गुस्सा भी आता और अपमानित भी महसूस करती थी। क्या हम दिनभर काम नहीं करते थे? क्या हम कुछ सम्मानजनक व्यवहार के योग्य नहीं थे?”

वास्तव में, जिसे हम घरेलू काम कहते हैं, उसमें अनेक कार्य सम्मिलित रहते हैं। इनमें से कुछ कामों में बहुत शारीरिक श्रम लगता है। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में औरतों और लड़कियों को दूर-दूर से पानी लाना पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्त्रियों और लड़कियों को जलाऊ लकड़ी के भारी गट्ठर सिर पर ढोने पड़ते हैं। कपड़े धोने, सफ़ाई करने, झाडू लगाने और वज़न उठाने के कामों में झुकने, उठाने और सामान लेकर चलने की ज़रूरत होती है। बहुत-से काम जैसे खाना बनाने आदि में लंबे समय तक गर्म चूल्हे के सामने खड़ा रहना पड़ता है। स्त्रियाँ जो काम करती हैं, वह भारी और थकाने वाला शारीरिक काम होता है, जबकि हम आमतौर पर सोचते हैं कि पुरुष ही ऐसा काम कर सकते हैं।

घरेलू और देखभाल के कामों का एक अन्य पहलू, जिसे हम महत्त्व नहीं देते, वह है इन कामों में लगने वाला लंबा समय। वास्तव में यदि हम स्त्रियों द्वारा किए जाने वाले घर के और बाहर के कामों को जोड़ें, तो हमें पता चलेगा कि काम करती हैं। ताकुल मिलाकर स्त्रियाँ पुरुषों से अधिक निम्न तालिका में भारत के केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन द्वारा किए गए विशेष अध्ययन के कुछ आँकड़े हैं (1998-99)। देखिए, क्या आप रिक्त स्थानों को भर सकते हैं?

महिलाओं का काम और समानता

जैसा कि हमने देखा, महिलाओं के घरेलू और देखभाल के कामों को कम महत्त्व देना एक व्यक्ति या परिवार का मामला नहीं है। यह स्त्रियों और पुरुषों के बीच असमानता की एक बड़ी सामाजिक व्यवस्था का ही भाग है। इसीलिए इसके समाधान हेतु, जो कार्य किए जाने हैं वे केवल व्यक्तिगत या पारिवारिक स्तर पर नहीं, वरन् शासकीय स्तर पर भी होने चाहिए। हम जानते हैं कि समानता हमारे संविधान का महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है। संविधान कहता है कि स्त्री या पुरुष होने के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता, परंतु वास्तविकता में लिंगभेद किया जाता है। सरकार इसके कारणों को समझने के लिए और इस स्थिति का सकारात्मक निदान ढूँढ़ने के लिए वचनबद्ध है।

उदाहरण के लिए सरकार जानती है कि बच्चों की देखभाल और घर के काम का बोझ महिलाओं और लड़कियों पर पड़ता है। स्वाभाविक रूप से इसका असर लड़कियों के स्कूल जाने पर भी पड़ता है। इससे ही निश्चित होता है कि क्या महिलाएँ घर के बाहर काम कर सकेंगी और यदि करेंगी, तो किस प्रकार का काम या कार्यक्षेत्र चुनेंगी। पूरे देश के कई गाँवों में शासन ने आँगनवाड़ियाँ और बालवाड़ियाँ खोली हैं। शासन ने एक कानून बनाया है, जिसके तहत यदि किसी संस्था में महिला कर्मचारियों की संख्या 30 से अधिक है, तो उसे वैधानिक रूप से बालवाड़ी (क्रेश) की सुविधा देनी होगी। बालवाड़ी की व्यवस्था होने से बहुत-सी महिलाओं को घर से बाहर जाकर काम करने में सुविधा होगी। इससे बहुत-सी लड़कियों का स्कूल जाना भी संभव हो सकेगा।

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अभ्यास

1. साथ में दिए गए कुछ कथनों पर विचार कीजिए और बताइए कि वे सत्य हैं या असत्य? अपने उत्तर के समर्थन में एक उदाहरण भी दीजिए।
Ans.
(क) सभी समुदाय और समाजों में लड़कों और लड़कियों की भूमिकाओं के बारे में एक जैसे विचार नहीं पाए जाते।

Ans.  यह सत्य है। अलग-अलग समुदाय और समाजों में लड़कों और लड़कियों की भूमिकाओं के बारे में अलग-अलग विचार देखने को मिलते हैं। समोआ में लड़‌कियाँ भी बड़ी होकर मछली पकड़ने जाती हैं। समोआ के लड़के रसोई में भी काम करते हैं। लेकिन हमारे देश में ऐसा नहीं है।

(ख) हमारा समाज बढ़ते हुए लड़कों और लड़कियों में कोई भेद नहीं करता।

Ans. यह असत्य है। हमारे समाज में बढ़ते हुए लड़कों और लड़‌कियों में भेदभाव होता है। लड़के स्कूल के बाद बाहर खेल भी सकते हैं, लेकिन लड़‌कियों को स्कूल से सीधा घर पहुँचना होता है।

(ग) वे महिलाएँ जो घर पर रहती हैं कोई काम नहीं करतीं।

Ans. यह असत्य है। महिलाओं को घर पर बहुत काम करना पड़ता है। उन्हें घर की साफ सफाई, खाना पकाना, बच्चों और बूढ़ों की देखभाल करना, आदि काम करने पड़ते हैं।

(घ) महिलाओं के काम, पुरुषों के काम की तुलना में कम मूल्यवान समझे जाते हैं।

Ans. यह सत्य है। महिलाएँ जब घर का कामकाज करती हैं तो इसे काम समझा ही नहीं जाता है। अधिकतर मामलों में कामकाजी महिलाओं का वेतन पुरुषों के मुकाबले कम होता है।

2. घर का काम अदृश्य होता है और इसका कोई मूल्य नहीं चुकाया जाता। घर के काम शारीरिक रूप से थकाने वाले होते हैं। घर के कामों में बहुत समय खप जाता है।

अपने शब्दों में लिखिए कि ‘अदृश्य होने’ ‘शारीरिक रूप से थकाने’ और ‘समय खप जाने’ जैसे वाक्यांशों से आप क्या समझते हैं? अपने घर की महिलाओं के काम के आधार पर हर बात को एक उदाहरण से समझाइए।

Ans. अदृश्य होनाः इसका मतलब है किस जब काम हो रहा होता है तो किसी को नजर नहीं आता है। यह तभी नजर आता है जब काम नहीं होता है। घर के अन्य लोगों को समय पर नाश्ता पानी मिलता रहता है तो उन्हें उसकी कीमत नहीं मालूम होती है। यदि किसी एक दिन समय पर नाश्ता नहीं मिलता है तो फिर घर में हो सकता है भूचाल आ जाए।

शारीरिक रूप से थका देने वालाः घरेलू काम काज में बहुत मेहनत लगती है। खाना पकाते समय तपते चूल्हे के आगे घंटों खड़े रहना पड़ता है। बरतन धोने में कमर में दर्द होने लगता है। कपड़े खंगालते और निचोड़ते समय बार बार झुकना पड़ता है।

बहुत समय खपता है: घरेलू कामकाज में बहुत समय लगता है। एक बार पूरे परिवार के लिए नाश्ता बनाने में कम से कम दो घंटे लग सकते हैं। घर की साफ सफाई में दो तीन घंटे आसानी से बीत जाते हैं। जब पूरे घर के कपड़े धोने होते हैं ,तो चार पाँच घंटे ऐसे ही बीत जाते हैं।

3. ऐसे विशेष खिलौनों की सूची बनाइए, जिनसे लड़के खेलते हैं और ऐसे विशेष खिलौनों की भी सूची बनाइए, जिनसे केवल लड़कियाँ खेलती हैं। यदि दोनों सूचियों में कुछ अंतर है, तो सोचिए और बताइए कि ऐसा क्यों है? सोचिए कि क्या इसका कुछ संबंध इस बात से है कि आगे चलकर वयस्क के रूप में बच्चों को क्या भूमिका निभानी होगी?
Ans. लड़कों के खिलौने: बैट, बॉल, कार, गिल्ली डंडा, पतंग, लट्टू, आदि।

लड़कियों के खिलौनेः गुड़िया, किचन सेट, मेकअप सेट, सॉफ्ट टॉय, आदि।

लड़कों को ऐसे खिलौने दिए जाते हैं जिनसे खेलने के लिए उन्हें दौड़धूप करना पड़ता है। ऐसा माना जाता है कि लड़का बड़ा होकर घर से बाहर निकलेगा और फिर उसे काफी दौड़धूप करनी पड़ेगी।

लड़कियों को ऐसे खिलौने दिए जाते हैं जिनसे खेलते हुए वे किसी की देखभाल करती हैं या फिर किसी का श्रृंगार करती हैं या फिर झूठ-मूठ में खाना पकाती हैं। ऐसा माना जाता है कि लड़की बड़ी होकर घर संभालेगी।

4. अगर आपके घर में या आस-पास, घर के कामों में मदद करने वाली कोई महिला है तो उनसे बात कीजिए और उनके बारे में थोड़ा और जानने की कोशिश कीजिए कि उनके घर में और कौन-कौन हैं? वे क्या करते हैं? उनका घर कहाँ है? वे रोज़ कितने घंटे तक काम करती हैं? वे कितना कमा लेती हैं? इन सारे विवरणों को शामिल कर, एक छोटी-सी कहानी लिखिए।
Ans. मेरे घर में काम करने वाली महरी का नाम लतिका है। वह हमारे अपार्टमेंट के सामने बनी झोपड़पट्टी में रहती है। उसके छोटे से कमरे में छः लोग रहते हैं: उसका पति और उसके चार बच्चे। एक ही कमरे में बिस्तर हैं और चूल्हा भी है। झोपड़पट्टी में करीब एक हजार लोग रहते हैं लेकिन इतने लोगों के लिए केवल पाँच शौचालय हैं। लतिका का पति घूम घूम कर लोगों के कान साफ करता है। उससे जो थोड़ी बहुत कमाई होती है उसे वह शराब पीने पर खर्च कर देता है। कभी कभी वह लतिका और उसके बच्चों की पिटाई भी कर देता है। लतिका रोज सुबह पाँच बजे अपने घर से काम के लिए चल देती है। दोपहर के एक बजे तक सात-आठ घरों में झाडू पोंछा करने के बाद वह अपने घर वापस जाती है। उसके बाद वह अपने बच्चों के लिए भोजन पकाती है और घर की साफ सफाई करती है। शाम चार बजे वह फिर से हमारे अपार्टमेंट में काम करने पहुँच जाती है। शाम का काम समाप्त होने में रात के कोई दस बज जाते हैं। उसके बाद थकी हारी लतिका अपने घर पहुँचती है। वह हर महीने आठ से दस हजार रुपए कमा लेती है। उसमें से तीन हजार रुपए तो घर के किराए में निकल जाते हैं।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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