स्थलमंडल (lithosphere) किसे कहते हैं ?

स्थलमंडल (lithosphere) किसे कहते हैं ?

पृथ्वी की सम्पूर्ण बाह्य परत, जिस पर महाद्वीप एवं महासागर स्थित हैं, स्थलमंडल कहलाती है। पृथ्वी के कुल 29% भाग पर स्थल तथा 71% भाग पर जल है। पृथ्वी के भू-क्षेत्रफल व जल क्षेत्रफल का अनुपात 3:7 का है।

☛ पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध का 61% तथा दक्षिणी गोलार्द्ध के 81% क्षेत्रफल में जल का साम्राज्य है।

☛ पृथ्वी पर अधिकतम ऊँचाई माउण्ट एवरेस्ट (8,850 मीटर) की तथा अधिकतम गहराई मेरियाना गर्त (11,022 मी.)* की है। इस प्रकार पृथ्वी की अधिकतम ऊँचाई एवं अधिकतम गहराई में लगभग 20 किमी का अंतर है।

स्थलमंडल महाद्वीपीय क्षेत्रों में अधिक मोटी (40 किमी) और महासागरीय क्षेत्रों में अपेक्षाकृत पतली (12-20 किमी) है।

चट्टान (Rock) किसे कहते हैं ?

पृथ्वी की सतह के कठोर भाग को चट्टान कहते हैं, जो पृथ्वी की बाहरी परत की संरचना की मूलभूत इकाइयाँ हैं। उत्पत्ति के आधार पर यह तीन प्रकार की होती है-

1. आग्नेय चट्टान (Igneous rock): यह ग्मा या लावा के जमने से बनती है। जैसे ग्रेनाइट, बेसाल्ट, पेग्माटाइट, डायोराइट, ग्रेबो आदि।

☛ आग्नेय चट्टान स्थूल परतरहित, कठोर संघनन एवं जीवाश्मरहित होती है। आर्थिक रूप से यह बहुत ही सम्पन्न चट्टान है। इसमें चुम्बकीय लोहा, निकल, ताँबा, सीसा, जस्ता, क्रोमाइट, मैंगनीज,सोना तथा प्लेटिनम पाये जाते हैं।

☛ बेसाल्ट में लोहे की मात्रा सर्वाधिक होती है। इस चट्टान से काली मिट्टी का निर्माण होता है।

पैग्माटाइट : कोडरमा (झारखंड) में पाया जाने वाला अभ्रक इन्हीं शैलों में मिलता है।

आग्नेय चट्टानी पिण्ड (Igneous Rock Bodies): मैग्मा के ठण्डा होकर ठोस रूप धारण करने से विभिन्न प्रकार के आग्नेय चट्टानी पिण्ड बनते हैं। इनका नामकरण इनके आकार, रूप, स्थिति तथा आस-पास पायी जाने वाली चट्टानों के आधार पर किया जाता है। अधिकांश चट्टानी पिण्ड अन्तर्वेधी आग्नेय चट्टानों से बनते हैं।

a) वैथोलिथ (Batholith): यह सबसे बड़ा आग्नेय चट्टानी पिण्ड है, जो अन्तर्वेधी चट्टानों से बनता है। यह एक पातालीय पिण्ड है। यह एक बड़े गुम्बद के आकार का होता है जिसके किनारे खड़े होते हैं। इसका ऊपरी तल विषम होता है। यह मूलतः ग्रेनाइट से बनता है। संयुक्त राज्य अमेरिका का इदाहो बैथोलिथ 40 हजार वर्ग किमी से भी अधिक विस्तृत है। कनाडा का कोस्ट रेंज बैथोलिय इदाहो से भी बड़ा है।

(b) स्टॉक (Stock): छोटे आकार के बैथोलिथ को स्टॉक कहते हैं। इसका ऊपरी भाग गोलाकार गुम्बदनुमा होता है। स्टॉक का विस्तार 100 वर्ग किमी से कम होता है।

(c) लैकोलिथ (Lacolith): जब मैग्मा ऊपर की परत को जोर से ऊपर को उठता है और गुम्बदकार रूप में जम जाता है तो इसे लैकोलिथ कहते हैं। मैग्मा के तेजी से ऊपर उठने के कारण यह गुम्बदाकार ठोस पिण्ड छतरीनुमा दिखाई देता है। उत्तरी अमेरिका के पश्चिमी भाग में लैकोलिथ के कई उदाहरण मिलते हैं।

नोट : लैकोलिथ बहिर्वेधी ज्वालामुखी पर्वत का ही एक अन्तर्वेधी प्रतिरूप है।

(d) लैपोलिथ (Lapolith) : जब मैग्मा जमकर तश्तरीनुमा आकार ग्रहण कर लेता है, तो उसे लैपोलिथ कहते हैं। लैपोलिथ दक्षिण अमेरिका में मिलते हैं।

(e) फैकोलिथ (Phacolith): जब मैग्मा लहरदार आकृति में जमता है, तो फैकोलिथ कहलाता है।

(f) सिल (Sill): जब मैग्मा भू-पृष्ठ के समानान्तर परतों में फैलकर जमता है, तो उसे सिल कहते हैं। इसकी मोटाई एक मीटर से लेकर सैकड़ों मीटर तक होती है। छत्तीसगढ़ तथा झारखंड में सिल पाये जाते हैं। एक मीटर से कम मोटाई वाले सिल को शीट (Sheet) कहते हैं।

(g) डाइक (Dyke or Dike) : जब मैग्मा किसी लम्बवत् दरार में जमता है तो डाइक कहलाता है। झारखंड के सिंहभूम जिले में अनेक डाइक दिखाई देते हैं।

2. अवसादी चट्टान (Sedimentary rock) :

प्रकृति के कारकों द्वारा निर्मित छोटी-छोटी चट्टानें किसी स्थान पर जमा हो जाती हैं और बाद के काल में दबाव या रासायनिक में दबाव या रासायनिक लिग्नाइट कोयला एंथ्रोसाइट कोयला प्रतिक्रिया या अन्य कारणों के द्वारा परत जैसी ठोस रूप में निर्मित हो जाती हैं। इन्हें ही अवसादी चट्टान कहते हैं। जैसे-बलुआ पत्थर, चूना पत्थर, स्लेट, कांग्लोमरेट, नमक की चट्टान एवं शेलखरी आदि ।

☛ अवसादी चट्टानें परतदार होती हैं। इनमें वनस्पति एवं जीव-जन्तुओं का जीवाश्म पाया जाता है। इन चट्टानों में लौह अयस्क, फास्फेट, कोयला एवं सीमेन्ट बनाने की चट्टान पायी जाती हैं।

☛ खनिज-तेल अवसादी चट्टानों में पाया जाता है। अप्रवेश्य चट्टानों की दो परतों के बीच यदि प्रवेश्य शैल की परत आ जाए तो खनिज-तेल के लिए अनुकूल स्थिति पैदा हो जाती है।

☛ दामोदर, महानदी तथा गोदावरी नदी बेसिनों की अवसादी चट्टानों में कोयला पाया जाता है।

☛ आगरा का किला तथा दिल्ली का लाल किला बलुआ पत्थर नामक अवसादी चट्टानों का बना है।

3. कायान्तरित चट्टान (Metamorphic rock)
कायान्तरित चट्टान का रूपांतरण : कायान्तरित कायान्तरित ताप, दाब एवं रासायनिक स्लेट क्रियाओं के कारण आग्नेय एवं फाइलाइट फाइलाइट सिस्ट अवसादी चट्टानों से कायान्तरित चट्टान का निर्माण होता है।

ज्वालामुखी (Volcano) किसे कहते हैं ?

ज्वालामुखी (Volcano) भू-पटल पर वह प्राकृतिक छेद या दरार है, जिससे होकर पृथ्वी का पिघला पदार्थ लावा, राख, भाप तथा अन्य गैसें बाहर निकलती हैं। बाहर हवा में उड़ा हुआ लावा शीघ्र ही ठंदा होकर छोटे ठोस टुकड़ों में बदल जाता है, जिसे सिंडर कहते हैं। उद्गार में निकलने वाली गैसों में वाष्प का प्रतिशत सर्वाधिक होता है। उद्गार अवधि अनुसार ज्वालामुखी तीन प्रकार की होती है-

1. सक्रिय ज्वालामुखी (Active volcano): इसमें अक्सर उद्‌गार होता है। वर्तमान समय में विश्व में सक्रिय ज्वालामुखियों की सरका 500 है। इनमें प्रमुख है, इटली का एटना तथा स्ट्राम्बोठी संख्या (उत्तर अमेरिका) में स्थित कोलिमा ज्वालामुखी बहुत ही सक्रिय ज्वालामुखी है। इसमें 40 बार से अधिक बार उद्‌गार हो चुका है। स्टाम्बोली भूमध्य सागर में सिसठी के उत्तर में छिपारी द्वीप पर अवस्थित है। इसमें सदा प्रज्वलित गैस निकला करती है, जिससे आस-पास का भाग प्रकाशित रहता है, इस कारण इस ज्वालामुखी को ‘भूमध्य सागर का प्रकाश स्तम्भ’ कहते हैं।

2. प्रसुप्त ज्वालामुखी (Dormant volcano) : जिसमें निकट अतीत में उद्गार नहीं हुआ है। लेकिन इसमें कभी भी उद्‌गार हो सकता है। उदाहरण हैं-विसुवियस (भूमध्य सागर), क्राकाटोवा (मुंडा जलडमरूमध्य), फ्यूजीयामा (जापान), मेयन (फिलीपीन्स)।

3. शान्त ज्वालामुखी (Extinct volcano) : वैसा ज्वालामुखी जिसमें ऐतिहासिक काल से कोई उद्गार नहीं हुआ है और जिसमें पुनः उद्गार होने की संभावना नहीं हो। इसके उदाहरण हैं-कोह सुल्तान एवं देमवन्द (ईरान), पोपा (म्यांमार), किलीमंजारो (अफ्रीका), (c चिम्बराजो (दक्षिण अमरीका)।

☛ कुल सक्रिय ज्वालामुखी का अधिकांश प्रशान्त महासागर के तटीय भाग में पाया जाता है। प्रशान्त महासागर के परिमेखला को ‘अग्नि वलय’ (Fire ring of the pacific) भी कहते हैं।

☛ सबसे अधिक सक्रिय ज्वालामुखी अमेरिका एवं एशिया महाद्वीप के तटों पर स्थित है।

☛ आस्ट्रेलिया महाद्वीप में एक भी ज्वालामुखी नहीं है।

गेसर (Geyser) : बहुत से ज्वालामुखी क्षेत्रों में उद्गार के समय दरारों तथा सुराखों से होकर जल तथा वाष्प कुछ अधिक ऊँचाई तक निकलने लगते हैं। इसे ही गेसर कहा जाता है। जैसे ओल्ड फेथफुल गेसर, यह U.S.A. के यलोस्टोन पार्क में है। इसमें प्रत्येक मिनट उद्गार होता रहता है।

धुआँरे (Fumaroles) : ज्वालामुखी क्रिया के अंतिम अवस्था के प्रतीक है। इनसे गैस व जलवाष्प निकला करते हैं। गंधक युक्त धुंआँरों को सोलफतारा कहा जाता है। अलस्का (USA) के कटमई पर्वत को हजारों धुआँरों की घाटी (A valley of ten thousand smokes) कहा जाता है। ईरान का कोह सुल्तान धुआँरा व न्यूजीलैंड की प्लेन्टी की खाड़ी में स्थित ह्वाइट द्वीप का धुआँरा भी प्रसिद्ध है।

☛ विश्व का सबसे ऊँचा ज्वालामुखी पर्वत कोटापैक्सी (ऊँचा 19,613 फीट) इक्वाडोर में है।

☛ विश्व की सबसे ऊँचाई पर स्थित सक्रिय ज्वालामुखी ओजस डेल सालाडो एण्डीज पर्वतमाला में अर्जेन्टीना-चिली देश के सीमा पर स्थित है।

☛ विश्व की सबसे ऊँचाई पर स्थित शान्त ज्वालामुखी एकांकागुआ (Aconcagua) एण्डीज पर्वतमाला पर ही स्थित है, जिसकी ऊँचाई 6960 मीटर है।

भूकम्प किसे कहते हैं ?

भूगर्भशास्त्र की एक विशेष शाखा, जिसमें भूकम्पों का अध्ययन किया है, सिस्मोलॉजी कहलाता है। भूकम्प में तीन तरह के कम्पन होते हैं- जाता

1. प्राथमिक अथवा पी. तरंगें (Primary or P. waves): यह तरंग पृथ्वी के अन्दर प्रत्येक माध्यम से होकर गुजरती है। इसकी औसत वेग 8 किमी प्रति सेकेण्ड होती है। यह गति सभी तरंगों से अधिक होती है। जिससे ये तरंगें किसी भी स्थान पर सबसे पहले पहुँचती है। पृथ्वी से गुजरने के लिए इन तरंगों द्वारा अपनाया गया मार्ग नतोदर होता है।

2. द्वितीय अथवा एस. तरंगें (Secondary or S waves) : इन्हें अनुप्रस्थ तरंगें भी कहते हैं। यह तरंग केवल ठोस माध्यम से होकर गुजरती है (औसत वेग 4 किमी प्रति सेकेण्ड)।

3. सतही अथवा एल-तरंगें (Surface or L-waves) : इन्हें धरातलीय या लम्बी तरंगों के नाम से भी पुकारा जाता है। इन तरंगों की खोज H. D. Love ने की थी। इन्हें कई बार Love waves के नाम से भी पुकारा जाता है। इनका अन्य नाम R-waves (Ray Light waves) है। ये तरंगें मुख्यतः धरातल तक ही सीमित रहती है। ये ठोस, तरल तथा गैस तीनों माध्यमों में से गुजर सकती हैं। इसकी चाल 1.5-3 किमी प्रति सेकेण्ड है। सतही तरंगें अत्यधिक विनाशकारी होती हैं।

☛ भूकम्पीय तरंगों को सिस्मोग्राफ (Seismograph) नामक यंत्र द्वारा रेखांकित किया जाता है। इससे इनके व्यवहार के सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य निकलते हैं:

(a) सभी भूकम्पीय तरंगों का वेग अधिक घनत्व वाले पदार्थों में से गुजरने पर बढ़ जाता है तथा कम घनत्व वाले पदार्थों में से गुजरने पर घट जाता है।

(b) केवल प्राथमिक तरंगें ही पृथ्वी के केन्द्रीय भाग से गुजर सकती है। परन्तु वहाँ पर उनका वेग कम हो जाता है।

(c) गौण तरंगें द्रव पदार्थ में से नहीं गुजर सकतीं।

(d) एल-तरंगें केवल धरातल के पास ही चलती हैं।

(e) विभिन्न माध्यमों में से गुजरते समय ये तरंगें परावर्तित तथा अपवर्तित होती हैं।

केन्द्र : भूकम्प के उद्भव स्थान को उसका केन्द्र कहते हैं। भूकम्प के केन्द्र के निकट P, Sतथा तीनों प्रकार की तरंगें पहुँचती हैं। पृथ्वी के भीतरी भागों में ये तरंगें अपना मार्ग बदलकर भीतर की ओर अवतल मार्ग पर यात्रा करती हैं। भूकम्प केन्द्र से धरातल के साथ 11,000 किमी की दूरी तक P तथा S-तरंगें पहुँचती हैं। केन्द्रीय भाग (Core) पर पहुँचने पर S-तरंगें लुप्त हो जाती हैं और P-तरंगें अपवर्तित हो जाती हैं। इस कारण भूकम्प के केन्द्र से 11,000 किमी के बाद लगभग 5,000 किमी तक कोई भी तरंग नहीं पहुँचती है। इस क्षेत्र को छाया क्षेत्र (Shadow Zone) कहा जाता है।

अधिकेन्द्र (Epicentre): भूकम्प के केन्द्र के ठीक ऊपर पृथ्वी की सतह पर स्थित बिन्दु को भूकम्प का अधिकेन्द्र कहते हैं।अधिकेन्द्र पर सबसे पहले पी. तरंगें पहुँचती हैं।
☛ अन्तःसागरीय भूकम्पों द्वारा उत्पन्न लहरों को जापान में सुनामी कहा जाता है।

☛ जिन संवेदनशील यंत्रों द्वारा भूकम्पीय तरंगों की तीव्रता मापी जाती है, उन्हें भूकम्पलेखी या सीस्मोग्राफ (Seismograph) कहते हैं, इसके तीन स्केल हैं-1 रॉसी फेरल स्केल 2. मरकेली स्केल 3. रिक्टर स्केल ।

रिक्टर स्केल (Richter Scale): भूकम्प की तीव्रता या ऊर्जा मापने वाली रिक्टर स्केल का विकास अमेरिकी वैज्ञानिक चार्ल्स रिक्टर द्वारा 1935 ई. में की गई थी। यह एक लघुगणकीय पैमाना है जिसका पाठ्यांक 1 से 9 तक होता है। रिक्टर स्केल पर प्रत्येक अगली इकाई पिछली इकाई की तुलना में 10 गुना अधिक तीव्रता रखता है। इस स्केल पर 2.0 या 3.0 की तीव्रता का अर्थ हल्का भूकंप होता है; जबकि 6.2 की तीव्रता का अर्थ शक्तिशाली भूकंप होता है।

विभिन्न स्थलाकृतियाँ (Different Types of Topographic):

निर्माण के आधार पर स्थलाकृतियाँ तीन प्रकार की होती हैं- पर्वत, पठार तथा मैदान

1. पर्वत: उत्पत्ति के अनुसार पर्वत चार प्रकार के होते हैं-

(a) ब्लॉक पर्वत (Block mountain): जब चट्टानों में स्थित भ्रंश के कारण मध्य भाग नीचे धँस जाता है तथा अगल-बगल के भाग ऊँचे उठे प्रतीत होते हैं, तो ब्लॉक पर्वत कहलाते हैं। बीच में धँसे भाग को रिफ्ट घाटी कहते हैं। इन पर्वतों के शीर्ष समतल तथा किनारे तीव्र भ्रंश-कगारों से सीमित होते हैं। इस प्रकार के पर्वत के उदाहरण हैं-वॉस्जेस (फ्रांस), ब्लैक फॉरेस्ट (जर्मनी), साल्ट रेंज (पाकिस्तान) ।

(b) अवशिष्ट पर्वत (Residual Mountain): ये पर्वत चट्टानों के अपरदन के फलस्वरूप निर्मित होते हैं; जैसे-विन्ध्याचल एवं सतपुड़ा, नीलगिरी, पारसनाथ, राजमहल की पहाड़ियाँ (भारत), सीयरा (स्पेन), गैसा एवं बूटे (अमेरिका)।

(c) संचित पर्वत (Accumulated Mountain): भूपटल पर मिट्टी, बालू, कंकर, पत्थर, लावा के एक स्थान पर जमा होते रहने के कारण बनने वाला पर्वत । रेगिस्तान में बनने वाले बालू के स्तूप इसी श्रेणी में आते हैं।

(d) वलित पर्वत (Fold Mountain): ये पृथ्वी की आन्तरिक शक्ति यों से धरातल की चट्टानों के मुड़ जाने से बनते हैं। ये लहरदार पर्वत हैं, जिनपर असंख्य अपनतियाँ और अभिनतियाँ होती हैं; जैसे-हिमालय, आल्पस, यूराल, रॉकीज, एण्डीज आदि ।

☛ वलित पर्वतों के निर्माण का आधुनिक सिद्धान्त प्लेट टेक्टॉनिक (Plate Tectonics) की संकल्पना पर आधारित है। जहाँ आज हिमालय पर्वत खड़ा है वहाँ किसी समय में टेथिस सागर नामक विशाल भू-अभिनति अथवा भू-द्रोणी थी। दक्षिण पठार के उत्तर की ओर विस्थापन के कारण टेथिस सागर में बल पड़ गए और वह ऊपर उठ गया जिससे संसार का सबसे ऊँचा पर्वत हिमालय का निर्माण हुआ है।

☛ भारत का अरावली पर्वत विश्व के सबसे पुराने वलित पर्वतों में गिना जाता है, इसकी सबसे ऊँची चोटी माउण्ट आबू के निकट गुरुशिखर है, जिसकी समुद्रतल से ऊँचाई 1,722 मीटर है। कुछ विद्वान अरावली पर्वतों को अवशिष्ट पर्वत का उदाहरण मानते हैं।

2. पठार (Plateau): धरातल का विशिष्ट स्थल रूप, जो अपने आस-पास के स्थल से पर्याप्त ऊँचा होता है तथा शीर्ष भाग चौड़ा और सपाट होता है। सामान्यतः पठार की ऊँचाई 300 से 500 फीट होती है। कुछ अधिक ऊँचाई वाला पठार है-तिब्बत का पठार (16,000 फीट), बोलीविया का पठार (12,000 फीट), कोलम्बिया का पठार (7,800 फीट)। पठार निम्न प्रकार के होते हैं

(a) अन्तर्पवतीय पठार : पर्वतमालाओं के बीच बने पठार

b) पर्वतपदीय पठारः पर्वततल व मैदान के बीच उठे समतल भाग ।

c) महाद्वीपीय पठार : जब पृथ्वी के भीतर जमा लैकोलिथ भू-पृष्ठ के अपरदन के कारण सतह पर उभर आते हैं, तब ऐसे पठार बनते हैं; जैसे-दक्षिण का पठार ।

(d) तटीय पठार: समुद्र के तटीय भाग में स्थित पठार ।

(e) गुम्बदाकार पठार: चलन क्रिया के फलस्वरूप निर्मित पठार; जैसे- रामगढ़ गुम्बद (भारत) ।

3. मैदान (Plain): 500 फीट से कम ऊँचाई वाले भूपृष्ठ के समतल भाग को मैदान कहते हैं। मैदान अनेक प्रकार के होते हैं-

A. अपरदनात्मक मैदान : नदी, हिमानी, पवन जैसी शक्तियों के अपरदन से इस प्रकार के मैदान बनते हैं, जो निम्न हैं-
(a) लोएस मैदान : हवा द्वारा उड़ाकर लाई गयी मिट्टी एवं बालू के कणों से निर्मित होता है।
(b) कार्स्ट मैदान : चूने पत्थर की चट्टानों के घूलने से निर्मित मैदान ।

(c) समप्राय मैदान : समुद्र तल के निकट स्थित मैदान, जिनका निर्माण नदियों के अपरदन के फलस्वरूप होता है।

(d) ग्लेशियल मैदान : हिम के जमाव के कारण निर्मित दलदली मैदान, जहाँ केवल वन ही पाए जाते हैं।

(e) रेगिस्तानी मैदान : वर्षा के कारण बनी नदियों के बहने के फलस्वरूप इसका निर्माण होता है।

B. निक्षेपात्मक मैदान : नदी निक्षेप द्वारा बड़े-बड़े मैदानों का निर्माण होता है। इसमें गंगा, सतलज, मिसीसिपी एवं ह्वांग्हो के मैदान प्रमुख हैं। इस प्रकार के मैदानों में जलोढ़ का मैदान, डेल्टा का मैदान प्रमुख हैं।

वन किसे कहते हैं ?

वन निम्न प्रकार के होते हैं-

1. उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन (Tropical Evergreen rain forest): इस प्रकार का वन विषुवत्रेखीय प्रदेश और उष्णकटिबंधीय प्रदेशों में पाये जाते हैं, जहाँ 200 सेमी अधिक वर्षा होती है। यहाँ पेड़ों की पत्तियाँ चौड़ी होती हैं।

नोट : ऐनाकोंडा विश्व का सबसे बड़ा साँप उष्ण कटिबंधीय सदाबहार वन में ही पाया जाता है।

2. उष्ण कटिबन्धीय अर्ध पतझड़ वन (Tropical semi deciduous forest): 150 सेमी से कम वर्षा प्राप्त करने वाला वन । साल, सागवान एवं बाँस आदि इसी वन में पाये जाते हैं।

3. विषुवत् रेखीय वन : इन वनों में वृक्ष और झाड़ियों का मिश्रण होता है-जैतून, कॉर्क तथा ओक यहाँ के मुख्य वृक्ष हैं।

4. टैगा वनः ये सदाबहार वन हैं। इस वन के वृक्ष की पत्तियाँ नुकीली होती हैं।

5. टुण्ड्रा वन: यह बर्फ से ढँका रहता है। गर्मी में यहाँ मॉस तथा लाइकेन उगते हैं।

6. पर्वतीय वन : यहाँ चौड़ी पत्ती वाले शंकुधारी वृक्ष पाये जाते हैं।

घास के मैदान :

घास-भूमियों को दो वर्गों में विभाजित किया गया है-

1. उष्णकटिबंधीय घास-भूमियाँ : इसे अलग-अलग देशों में अलग- अलग नाम से जाना जाता है; जैसे-सवाना (अफ्रीका), कम्पोज (ब्राजील), लानोस (वेनेजुएला व कोलम्बिया) ।

2. शीतोष्ण कटिबंधीय घास-भूमियाँ : इसे निम्न नाम से जाना जाता है-प्रेयरी (संयुक्त राज्य अमेरिका व कनाडा), पम्पास (अर्जेन्टीना), वेल्ड (दक्षिण अफ्रीका), डाउन्स (आस्ट्रेलिया), स्टेपी (एशिया, यूक्रेन, रूस, चीन के मंचूरिया प्रदेश)।

Read More: पृथ्वी की आन्तरिक संरचना और उसका सौर्थिक संबंध

निष्कर्ष:

हम आशा करते हैं कि आपको यह पोस्ट स्थलमंडल जरुर अच्छी लगी होगी। स्थलमंडल के बारें में काफी अच्छी तरह से सरल भाषा में उदाहरण देकर समझाया गया है। अगर इस पोस्ट से सम्बंधित आपके पास कुछ सुझाव या सवाल हो तो आप हमें कमेंट बॉक्स में ज़रूर बताये। धन्यवाद!

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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