राष्ट्रीय आय (National Income)
● राष्ट्रीय आय से तात्पर्य अर्थव्यवस्था द्वारा पूरे वर्ष के दौरान अन्तिम तौर पर उत्पादित वस्तुओं व सेवाओं के शुद्ध मूल्य के योग से होता है। इसमें विदेशों से अर्जित शुद्ध आय भी शामिल होती है। भारत में राष्ट्रीय आय के आँकड़ें वित्तीय वर्ष (1 अप्रैल से 31 मार्च तक) पर आधारित हैं।
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● सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product) : किसी वर्ष के दौरान निवासी उत्पादक इकाइयों द्वारा घरेलू सीमा के भीतर उत्पादित अन्य वस्तुओं तथा सेवाओं का मूल्य या इनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं के मूल्य का योग बाजार कीमत पर सकल घरेलू उत्पाद कहलाता है। बाजार मूल्य में परोक्ष कर जुटा होता है तथा सरकार द्वारा दी गई सब्सिडी को घटाया जाता है। सकल घरेलू उत्पाद में विदेशियों द्वारा देश में अर्जित आय को शामिल किया जाता है। किन्तु विदेशों से भारतीयों द्वारा भेजी गयी आय को शामिल नहीं किया जाता है।
● सकल राष्ट्रीय उत्पाद (Gross National Product) : बाजार कीमत पर राष्ट्रीय उत्पाद किसी वर्ष के दौरान निवासी उत्पादक इकाइयों द्वारा घरेलू सीमा के भीतर तथा बाहर उत्पादित वस्तुओं तथा सेवाओं का मूल्य बाजार कीमत पर राष्ट्रीय उत्पाद कहलाता है। इसमें सकल घरेलू उत्पाद की ही तरह परोक्ष कर जुटा हुआ तथा सब्सिडी घटी हुई है। इसमें स्थिर पूँजी का उपयोग भी सम्मिलित होता है। सकल घरेलू उत्पाद और सकल राष्ट्रीय उत्पाद मूलतः समान अवधारणा है। सकल घरेलू उत्पाद में निवासी उत्पादक इकाइयों या उत्पादन के निवासी साधनों द्वारा घरेलू सीमा से बाहर अर्जित आय को जोड़ देने से बाजार की कीमत पर सकल राष्ट्रीय उत्पाद प्राप्त हो जाएगा।
शुद्ध घरेलू उत्पाद (Net Domestic Product)
● शुद्ध घरेलू उत्पाद (Net Domestic Product) : सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में से स्थिर पूँजी के उपभोग या, ह्रास के मूल्य को घटाने से जो मूल्य प्राप्त होता है, वह शुद्ध घरेलू उत्पाद कहलाता है। इस प्रकार इसमें अन्य वस्तुओं के मूल्य में से ह्रास की राशि घटा दी जाती है।
● साधन लागत पर सकल घरेलू उत्पाद : साधन लागत पर किसी उत्पाद का मूल्य ज्ञात करने के लिए बाजार कीमत पर आकलित मूल्य में से निवल परोक्ष कर को घटाया जाता है। निवल परोक्ष कर, परोक्ष कर, तथा सब्सिडी का अन्तर होता है। इस तरह साधन लागत पर सकल घरेलू उत्पाद में से निवल परोक्ष कर को घटा दी जाती है।
साधन लागत पर सकल घरेलू उत्पाद = सकल घरेलू उत्पाद (बाजार कीमत) – निवल परोक्ष कर।
● साधन लागत पर निवल घरेलू उत्पाद (NDPFC) : साधन लागत पर निवल घरेलू उत्पाद को प्राप्त करने के लिए बाजार कीमत पर निवल (शुद्ध) घरेलू उत्पाद से निवल परोक्ष कर घटा दिया जाता है। निवल या शुद्ध होने के कारण सकल से स्थिर पूँजी का प्रयोग या ह्रास घटा दिया जाता है।
● राष्ट्रीय आय या साधन लागत पर निवल राष्ट्रीय उत्पाद (NNPFC) : साधन लागत पर शुद्ध उत्पाद (NNP) को राष्ट्रीय आय कहा जाता है। प्रचलित कीमतों (Current Price) पर शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद में से अप्रत्यक्ष कर को घटाने तथा सब्सिडी को जोड़ने से राष्ट्रीय आय प्राप्त होती है।
राष्ट्रीय आय = शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद (प्रचलित कीमतों पर) – अप्रत्यक्ष कर + सब्सिडी
● भारत में राष्ट्रीय आय के अनुमान : भारत में सबसे पहले 1868 में दादा भाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक “पॉवर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया” में प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 20 रुपये बताई थी। फिर डॉ० वी० के० आर० वी० राव ने 1951 में 1948-1949 के लिए भारत की कुल राष्ट्रीय आय 8,650 करोड़ रुपये बताई तथा प्रति व्यक्ति आय 246.9 रुपये बताई। इसके बाद राष्ट्रीय आय के आँकड़ों का संकलन करने के लिए सरकार ने केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन (Central Statistical Organization) की स्थापना की। यह संस्था नियमित रूप से राष्ट्रीय आय के आँकड़े प्रकाशित करती है।
● केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन
• स्थापना वर्ष वर्ष 1951
• मुख्यालय – नई दिल्ली
• इसकी औद्योगिक सांख्यिकी शाखा का मुख्यालय कोलकाता में है।
• राष्ट्रीय आय का आधार वर्ष 2011-2012 है।
• इसके वार्षिक प्रकाशन को राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी के नाम से जाना जाता है।
● राष्ट्रीय आय गणना में निम्न को शामिल किया जाता है :
• आय गणना वर्ष में उत्पादित अन्य वस्तुएँ तथा सेवायें।
• सरकार द्वारा जनता को प्रदत्त निःशुल्क सेवायें।
• कम्पनियों के लाभांश जो कंपनियों के लाभ के भाग होते हैं।
• सेवा निवृत्ति पेंशन जो कर्मचारियों के पारिश्रमिकी के भाग होते हैं।
• भविष्य निधि कोष (Provident Fund) में मालिकों का अंशदान।
• स्वयं उपभोग के लिए किया गया उत्पादन।
• संसद सदस्यों को दिया जाने वाला भत्ता ।
• भारतीय बैंकों तथा संस्थानों की विदेशी शाखा द्वारा अर्जित लाभ।
● राष्ट्रीय आय गणना में निम्न को सम्मिलित नहीं किया जाता है :
• नयी या पुरानी वस्तुएँ जो उस वर्ष उत्पादित नहीं है, जिस वर्ष राष्ट्रीय आय की गणना की जा रही है।
• वित्तीय सौदे, शेयर, ऋणपत्र आदि का क्रय-विक्रय, इनका राष्ट्रीय उत्पाद पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ता।
• विदेशों से प्राप्त उपहार
• हस्तान्तरण भुगतान जैसे- वृद्धावस्था पेंशन, बेरोजगारी भत्ता एवं अन्य निःशुल्क सेवायें।
• पूंजीगत लाभ या हानि, अप्रत्याशित लाभ
• एक फर्म द्वारा दूसरे को दिया जाने वाला लाभांश मध्यवर्ती वस्तुएँ जो अन्य वस्तुओं को तैयार होने में आगत के रूप में प्रयुक्त होती है।
• घिसावट या पूँजी का उपभोग। यह सकल उत्पाद का हिस्सा होता है पर शुद्ध उत्पाद में शामिल नहीं किया जाता है।
• परोक्ष कर, सकल उत्पाद में सम्मिलित होता है पर राष्ट्रीय आय में नहीं जोड़ा जाता।
• विदेशी तकनीकी विशेषज्ञों को दिया गया वेतन।
• भारत में विदेशी बैंकों तथा संस्थानों द्वारा अर्जित लाभ।
● वास्तविक राष्ट्रीय आय : मुद्रा की क्रय शक्ति में परिवर्तन के कारण राष्ट्रीय आय की वास्तविक स्थिति में परिवर्तन होता रहता है। वास्तविक राष्ट्रीय आय किसी आधार वर्ष के सापेक्ष शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद होता है।
वास्तविक राष्ट्रीय आय = प्रचलित कीमतों पर शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद/मूल्य सूचकांक ×100
● प्रति व्यक्ति आय (Per Capita Income): प्रति व्यक्ति आय राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक के औसत आय का अनुमान है। राष्ट्रीय आय को देश की कुल जनसंख्या से विभाजित कर प्रति व्यक्ति आय प्राप्त की जाती है।
प्रति व्यक्ति आय = राष्ट्रीय आय / संबंधित वर्ष की जनसंख्या
● राष्ट्रीय व्यय योग्य आय (National Dis- posable Income) : किसी अर्थव्यवस्था में विशेष वर्ष के लिए परिवारों को सभी स्त्रोतों से प्राप्त आय में से सरकार द्वारा उनकी आय तथा सम्पत्तियों पर लगाए गए कर का भुगतान करने के बाद बची शेष रकम को राष्ट्रीय व्यय योग्य आय कहा जाता है। इस रकम को वह अपनी इच्छानुसार खर्च करने को स्वतंत्र होता है। इस प्रकार यह उनकी क्रय शक्ति की भी माप है।
राष्ट्रीय योग्य आय = वैयक्तिक आय – प्रत्यक्ष कर
वैयक्तिक आय (Personal Income)
• वैयक्तिक आय (Personal Income) : किसी वर्ष में देश के समस्त निवासियों को होने वाली वास्तविक आय को वैयक्तिक आय कहा जाता है।
• भारत में राष्ट्रीय आय के अनुमान के लिए अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों को 6 बड़े क्षेत्रों तथा 14 उपक्षेत्रों में बाँटा जाता है।
• प्राथमिक क्षेत्र (Primary Sector) : कृषि, वानिकी, मछली पालन, खनन तथा उत्खनन (Minning and quarring)
• द्वितीय क्षेत्र (Secondary Sector) : विनिर्माण (Manufacturing) निर्माण (Con- struction), बिजली, गैस और जल आपूर्ति।
• परिवहन संचार एवं व्यापार (Transport Communication and Trade) परिवहन, भण्डारण और संचार, व्यापार, होटल एवं रेस्टोरेंट
•वित्त एवं वास्तविक सम्पदा (Finance and Real Estate) : बैंकिंग तथा बीमा, वास्तविक सम्पदा, भवनों का स्वामित्व तथा व्यावसायिक सेवायें।
• सामुदायिक एवं निजी सेवायें : सार्वजनिक प्रशासन एवं सुरक्षा, अन्य सेवायें
• विदेशी क्षेत्र (Foreign Sector) : विदेशी व्यापार
राष्ट्रीय आय को मापने की विधियाँ
• किसी देश की राष्ट्रीय आय को निम्न तीन विधियों द्वारा मापा जा सकता है-
(1) उत्पत्ति गणना विधि : इस पद्धति के अन्तर्गत देश में एक वर्ष में उत्पादित अन्तिम वस्तुओं तथा सेवाओं का शुद्ध मूल्य ज्ञात किया जाता है तथा उसके योग को “अन्तिम उपज योग” कहा जाता है। यह वास्तव में सकल घरेलू उत्पाद को दर्शाता है। राष्ट्रीय आय की गणना के लिए सकल घरेलू उत्पाद के मूल्य में विदेशों में अर्जित शुद्ध आय को जोड़ा जाता है तथा मूल्य हास को घटाया जाता है।
(2) आय गणना विधि : इस पद्धति में राष्ट्रीय आय की गणना के लिए विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत् व्यक्तियों तथा व्यावसायिक उपक्रमों की शुद्ध आय का योग प्राप्त किया जाता है।
(3) उपभोग बचत विधि : इस विधि को व्यय विधि भी कहा जाता है। इस विधि के अनुसार कुल आय या तो उपभोग पर व्यय की जाती है अथवा बचत पर। चूँकि इससे संबंधित आँकड़ें आसानी से उपलब्ध नहीं होते, इसलिए इसका प्रयोग कम किया जाता है।
•भारत में राष्ट्रीय आय की गणना के लिए मुख्य रूप से उत्पाद गणना विधि तथा आय गणना विधि का प्रयोग किया जाता है।
• प्रति व्यक्ति आय : प्रति व्यक्ति आय का आकलन भी दो प्रकार से किया जाता है-
(i) परंपरागत पद्धति
(ii) नूतन पद्धति ।
(i) परंपरागत पद्धति : इस पद्धति में प्रति व्यक्ति आय की गणना संबंधित राष्ट्र की मुद्रा की विनिमय दर के आधार पर की जाती है।
(ii ) नूतन पद्धति : इस पद्धति में प्रति व्यक्ति आय की गणना संबंधित राष्ट्र की मुद्रा की क्रय शक्ति के आधार पर की जाती है।
घाटे की वित्त व्यवस्था या हीनार्थ प्रबन्धन (Deficit Finance)
घाटे की वित्त व्यवस्था या हीनार्थ प्रबन्धन (Deficit Finance) : साधारण शब्दों में, जब सरकार के द्वारा आय से अधिक व्यय किये जाने का आय-व्ययक (बजट) तैयार किया जाता है और इस आय-व्ययक से उत्पन्न घाटे के लिये जो व्यवस्था की जाती है, उसी को घाटे की व्यवस्था कहा जाता है। घाटे की इस व्यवस्था को किस प्रकार किया जाये इसमें अर्थशास्त्रियों में आपस में मतभेद है। इसलिए जो अर्थशास्त्री इस घाटे की पूर्ति की जैसी व्यवस्था को उपर्युक्त समझते हैं, घाटे की व्यवस्था की परिभाषा भी उसी आधार पर देते हैं।
•इस घाटे को विदेशों से ऋण लेकर, आन्तरिक क्षेत्र से ऋण लेकर अथवा पत्र-मुद्रा निर्गमित करके पूरा किया जा सकता है। इसमें से कौन-सा मार्ग अपनाया जाये इसमें भी अर्थशास्त्रियों में मतभेद है।
•अमेरिका में घाटे की वित्त-व्यवस्था का तात्पर्य सार्वजनिक ऋण से समझा जाता है।
वहाँ के अर्थशास्त्रियों के अनुसार, जब कभी-भी व्यय, आय से अधिक हो और उसकी पूर्ति सभी जनता से अथवा बैंक से ऋण लेकर की जाये, तो उसे घाटे की अर्थव्यवस्था कहा जाता है। भारत में, आय से अधिक व्यय करना और उस अधिक व्यय को पत्र-मुद्रा के निर्गमन अथवा केन्द्रीय बैंक से लेकर पूरा किये जाने को ही घाटे की अर्थव्यवस्था कहा जाता है।
• डॉ. राव के अनुसार, “जब सरकार जान बूझकर किसी उद्देश्य से अपनी आय से अधिक व्यय करे और घाटे की पूर्ति देश में मुद्रा की मात्रा बढ़ाकर करे तो उसे घाटे की वित्त-व्यवस्था कहते हैं।”
कराधान (Taxation)
• कर (Tax) : कर एक प्रकार का अनिवार्य भुगतान है, जो उस व्यक्ति के अनिवार्य रूप से सरकार को देना होता है, जोकि कर आधार (Tax Base) से संबंधित होता है। कर आधार से अभिप्राय उससे है जिसको आधार बनाकर कर लगाया जाता है, जैसे- आयकर का कर आधार आय है, उत्पादन शुल्क का कर आधार उत्पादन है। फिलिप ई. टेलर के अनुसार, “कर सरकार को दिया गया वह अनिवार्य भुगतान है, जिसके बदले में करदाता किसी प्रत्यक्ष लाभ की आशा नहीं रखता है।”
सैलिगमैन (Seligman) – “कर सरकार को दिये जाने वाले उस अनिवार्य अंशदान को कहते हैं जो सबके सामान्य हित के लिये किये जाने वाले खर्चों के भुगतान में अदा किया जाता है और जिसका मिलने वाले विशेष लाभों से कोई सम्बन्ध नहीं होता।”
बैस्टेबिल (Bastable) – “कर किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह की सम्पत्ति का वह भाग होता है जो सार्वजनिक सेवाओं को चलाने के लिये अनिवार्य रूप से वसूल किया जाता है।”
प्रो. डी मार्को (De Marco) – “कर नागरिकों की आय का एक अंश है जिसे सरकार सामान्य सार्वजनिक सेवाओं के उत्पादन के आवश्यक साधन जुटाने के लिये लेती है।”
करों का वर्गीकरण
• करों को प्रत्यक्ष तथा परोक्ष दो वर्गों में बाँटने की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। सामान्य रूप से जब कर की देयता (Impact) तथा कर की बाह्यता (Inci- dence) एक ही व्यक्ति पर रहती है तो उसे प्रत्यक्ष कर कहते हैं।
• इसके विपरीत जब कर की देयता (Impact) तथा बाह्यता (Incidence) भिन्न-भिन्न व्यक्तियों पर होती है तो उसे अप्रत्यक्ष कर (Indirect tax) कहते हैं।
• प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों का यह वर्गीकरण एक सामान्य वर्गीकरण है, इस आधार को स्वीकार करने में एक कठिनाई आती है। वह यह कि किसी भी कर का भार अथवा बाह्यता का हमेशा सही-सही पता लगाना संभव नहीं होता।
(i) आनुपातिक, प्रगतिशील, प्रतिगामी तथा अधोगामी कर : करों की दर तथा करदाता की आर्थिक शक्ति के आधार पर करों को चार भागों में बाँटा गया है-
(1) आनुपातिक कर- आनुपातिक कर वह कर है जो आय के अनुपात में लगाया जाता है अर्थात् आय चाहे जितनी भी हो कर एक निश्चित दर अथवा प्रतिशत से लिया जाता है। आय में कमी अथवा वृद्धि का कर की दर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
(2) प्रगतिशाली कर (Progressive Tax) – प्रगतिशील कर वह है, जिसमें कर की प्रतिशत दर आय की वृद्धि के साथ बढ़ती जाती है अर्थात् जितनी अधिक आय होगी प्रगतिशील करारोपण होने पर कर की दर भी उतनी ही अधिक होगी।
• प्रगतिशील कर व्यवस्था करदान क्षमता के अनुकूल होने के कारण समाज में आर्थिक समानता तथा स्थायित्व को बनाये रखने में सहायक होती है। इस पद्धति में लोच, न्याय तथा मितव्ययिता के गुण भी उपलब्ध होते हैं परन्तु साथ ही यह प्रणाली पूँजी के संचय को हतोत्साहित तथा करों की चोरी को प्रोत्साहित करती है। इतना ही नहीं कुछ अर्थशास्त्री इसे अव्यावहारिक, अमितव्ययी तथा परिश्रम को हतोत्साहित करने वाली व्यवस्था भी मानते हैं।
(3) प्रतिगामी कर (Regressive Tax)- जब कर भार सम्पन्न लोगों की अपेक्षा निर्धनों पर अधिक पड़ता है तो उस कर को अवरोही तथा प्रतिगामी कर कहा जाता है।
• वर्तमान में ऐसे करों को कोई महत्व नहीं दिया जाता है।
(4) अधोगामी (Degressive Tax) – जब आय में वृद्धि के साथ करों की दर में बहुत मन्द गति से वृद्धि होती है तो इस प्रकार के कर को अधोगामी या ह्रासमान प्रगतिशील कर कहा जाता है। इस व्यवस्था में कर का भार धनी वर्ग पर निर्धनों की तुलना में अपेक्षाकृत कम पड़ता है। अन्य शब्दों में इस कर की प्रगतिशीलता की गति काफी मन्द होती है।
(II) विशिष्ट कर तथा मूल्यानुसार कर
(1) विशिष्ट कर (Specific Tax) – जब कर वस्तु की मात्रा या भार के अनुसार लगाया जाता है तो उसे विशिष्ट कर कहा जाता है। विशिष्ट करों का निर्धारण तथा प्रशासन सरल होता है। जैसे, चीनी पर 5 पैसे प्रति किलोग्राम की दर से कर लगाया जाये तो यह विशिष्ट कर कहलायेगा।
(2) मूल्यानुसार कर (Ad Valorem Tax) – जब कर वस्तु के मूल्य के अनुसार लगाया जाता है तो उसे मूल्यानुसार कर कहते हैं, जैसे-चीनी के मूल्य पर प्रति रुपया 5 पैसे की दर से लगा कर मूल्यानुसार कर कहलायेगा। मूल्यानुसार करों का अनुमान लगाना प्रायः कठिन होता है और इसके लिये समुचित प्रशासकीय व्यवस्था करनी पड़ती है परन्तु कर भार तथा कर अपवंचन की दृष्टि से मूल्यानुसार कर अधिक उत्तम होते हैं।
(III) व्यक्तिगत तथा अव्यक्तिगत कर
(1) व्यक्तिगत कर (Personal Tax) – कुछ कर व्यक्तियों पर लगाये जाते हैं। इन करों के निर्धारण के समय व्यक्ति विशेष की आर्थिक स्थिति आदि का कोई ध्यान नहीं रखा जाता। सभी व्यक्तियों को एक निश्चित मात्रा में कर देना पड़ता है। जैसे-तीर्थ स्थानों, पहाड़ी स्थानों आदि में प्रवेश के समय लिया जाने वाला प्रवेश शुल्क जिसे Toll Tax भी कहा जाता है।
(2) अव्यक्तिगत कर (Impersonal Tax) – जब कोई कर वस्तु के उत्पादन, निर्माण, क्रय-विक्रय आदि पर लगाया जाता है, जैसे-शराब के उत्पादन तथा विक्रय पर लगा कर, ऐसे करों को अव्यक्तिगत कर कहकर पुकारा जाता है। इन करों से वस्तु के मूल्यों में वृद्धि हो जाती है तथा इन्हें प्रायः उपभोक्ता ही चुकाते हैं।
सेनवैट (CENVAT)
• सेनवैट (CENVAT) : केन्द्रीय स्तर पर, केन्द्रीय मूल्य वर्धित कर (Central Value Added Tax- CENVAT) तथा राज्य स्तर पर वैट (Value Added Tax) लगाया जाता है। भारत में केन्द्रीय उत्पाद शुल्क संरचना के यौक्तिकीकरण से संबंधित है। भारत में, वैट को केन्द्र स्तर पर 1 मार्च, 1986 को माँडवैट (MODVAT) के अंतर्गत कुछ चुनिंदा वस्तुओं पर लागू करने के लिए किया गया था। बाद में एक संवैधानिक संशोधन के बाद 2004-05 से सेनवैट के अंतर्गत सेवा करों को भी शामिल कर लिया गया। उल्लेखनीय है कि राज्य स्तर पर वैट लागू किए जाने की उद्घोषणा डॉ. मनमोहन सिंह ने मुख्यमंत्रियों के एक सम्मेलन में वर्ष 1995 के दौरान की थी। VAT लागू करने वाला प्रथम राज्य हरियाणा था।
गुड्स एण्ड सर्विस टैक्स (GST)
• गुड्स एण्ड सर्विस टैक्स (GST) : यह एक अप्रत्यक्ष कर है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
(i) यह केन्द्रीय GST एवं राज्य GST दो स्तरों का होगा।
(ii) पूरे देश में एक ही रेट पर टैक्स लगेगा।
(iii) सर्विस टैक्स, सेल्स टैक्स, स्टाम्प शुल्क तथा उत्पाद शुल्क का GST में विलय होगा।
(iv) कर का भार निर्माण एवं सेवा दोनों पर समान रूप से वितरित होगा।
कराघात एवं करापात (Impact of Tax and Incidence of Tax)
• कराघात एवं करापात (Impact of Tax and Incidence of Tax) : कर का प्रारम्भिक मौद्रिक भार वहन करना कराघात तथा कर का अन्तिम रूप से मौद्रिक भार वहन करना करापात कहा जाता है। कराघात को “कराधान” तथा करापात को करभार भी कहते हैं। कराघात या कराधान का तात्पर्य कर का अस्थायी भार वहन करने से है, जबकि करापात से आशय कर का स्थायी रूप से वास्तव में कर भार वहन करने से होता है।
हरित कर (Green Tax) या पिगोवियन कर (Pigovion Tax)
• हरित कर (Green Tax) या पिगोवियन कर (Pigovion Tax) : किसी व्यक्ति या संगठन द्वारा प्रदूषण फैलाये जाने के कारण उन पर एक विशेष कर का आरोपण किया जाता है जो हरित कर (Green Tax) या “पिगोवियन कर” कहलाता है। यह कर वास्तव में, प्रदूषण से प्रभावित होने वाले व्यक्तियों के स्वास्थ्य पर खर्च करने के लिए प्रदूषण फैलाने वालों से लिया जाने वाला कर है।
टोबिन कर (Tobin Tax)
•टोबिन कर (Tobin Tax) : टोबिन कर नोबेल पुरस्कार विजेता ‘जेम्स टोबिन’ द्वारा प्रस्तावित एक वैश्विक कर है जिसे सभी विदेशी विनिमय सौदे पर लगाने की बात की गई थी अर्थात् अन्तर्देशीय वित्तीय लेन देन पर जो कर लगते हैं उसे टोबिन कर कहते हैं।
करारोपण के सिद्धान्त (Principle of Taxation)
• करारोपण के सिद्धान्त (Principle of Taxation) : सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने अपनी पुस्तक “Wealth of Nations” में करारोपण के निम्न चार सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था- (1) समानता अथवा न्यायशीलता का सिद्धान्त, (2) निश्चितता का सिद्धान्त, (3) सुविधा का सिद्धान्त तथा (4) मितव्ययिता का सिद्धान्त।
• करों में न्यायशीलता का अभिप्राय लोगों पर कर करदान क्षमता के आधार पर लगाए जाने चाहिए। करदान क्षमता का आशय किसी समाज को कर देने की उस सीमा से है जिससे अधिक कर किसी भी सरकार को नहीं लगानी चाहिए। करदान क्षमता का माप का आधार सम्पत्ति, आय, व्यय आदि हो सकता है।
वैदेशिक क्षेत्र (External Sector) : एक खुली अर्थव्यवस्था में जब एक देश का आर्थिक तथा व्यापारिक सम्बन्ध दूसरे देशों से होता है तो उनके बीच वस्तुओं, सेवाओं, पूँजी आदि का आदान-प्रदान या क्रय-विक्रय होता है। एक देश का विश्व के सभी देशों के सन्दर्भ में विदेशी व्यवहारों से उत्पन्न देयता तथा पावना की क्या स्थिति है। उसके पक्ष में है या विपक्ष में यह समस्या मुख्यतया भुगतान संतुलन खाता (Balance of Payment) से संबंधित है।
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निष्कर्ष:
हम आशा करते हैं कि आपको यह पोस्ट राष्ट्रीय आय जरुर अच्छी लगी होगी। राष्ट्रीय आय के बारें में काफी अच्छी तरह से सरल भाषा में समझाया गया है। अगर इस पोस्ट से सम्बंधित आपके पास कुछ सुझाव या सवाल हो तो आप हमें कमेंट बॉक्स में ज़रूर बताये। धन्यवाद!
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