भारतीय पूँजी बाजार | Indian Capital Market |

भारतीय पूँजी बाजार

भारतीय पूँजी बाजार को मुख्य रूप से दो वर्गों में बाँटा जाता है।

गिल्ट एड्ज बाजार
औद्योगिक प्रतिभूति बाजार।

● पूँजी बाजार में लंबी अवधि के उधार लिए एवं दिए जाते हैं। यहाँ पूँजीगत वस्तुओं का समझौता नहीं होता है, परन्तु पूँजी निवेश को बढ़ाने में पूँजी बाजार सहायक होता है।

गिल्ट एड्ज बाजार में रिजर्व बैंक के माध्यम से सरकारी एवं अर्द्ध-सरकारी प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय किया जाता है।

औद्योगिक प्रतिभूति बाजार में नए स्थापित होने वाले या पहले से स्थापित औद्योगिक उपक्रमों के शेयरों एवं डिबेन्चरों का क्रय-विक्रय किया जाता है।

भारतीय शेयर बाजार

● शेयरों एवं अंशपत्रों का क्रय-विक्रय जिस बाजार में होता है उसे शेयर बाजार कहते हैं। यह निश्चित एवं नियत स्थानों पर ही होते हैं, जिन्हें स्टॉक एक्सचेंज के नाम से जाना जाता है।

बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (BSE) एशिया का सबसे पुराना स्टॉक एक्सचेंज है। इसकी स्थापना 1875 ई. में की गई थी।

● बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज ने एक पब्लिक लिमिटेड कम्पनी का दर्जा 19 अगस्त, 2005 को प्राप्त किया गया।

● अहमदाबाद स्टॉक एक्सचेंज ने 1844 ई. में सूती मिलों के शेयरों के लेन-देन की सुविधा प्रदान की थी।

राष्ट्रीय शेयर बाजार (NSE) की स्थापना, फेरवानी समिति की अनुशंसा पर की गई थी। वर्ष 1992 के अनुसार इसकी प्रारम्भिक पूँजी 25 करोड़ रुपये थी।

● राष्ट्रीय स्टॉक एक्सचेंज का प्रमुख प्रवर्तक भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (IDBI) है

● राष्ट्रीय शेयर बाजार का मुख्यालय (वर्ती) मुम्बई में है। इसका आधार वर्ष 1983-84 है।

● मिबोर (MIBOR) एवं मिबिड (MIBID) राष्ट्रीय शेयर बाजार की दो रेफरेन्स दरें हैं।

● बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज को पहले दलाल स्ट्रीट कहा जाता था। इसका संवेदी शेयर सूचकांक 30 शेयरों का होता है।

● भारत में 20 मान्यता प्राप्त स्टॉक एक्सचेंज हैं।

● फरवरी 2012 में ग्रीनेक्स-नाम से देश का पहला पर्यावरण अनुकूल शेयर मूल्य सूचकांक की बीएसई द्वारा शुरू किया गया।

वायदा कारोबार

● वायदा कारोबार के अंतर्गत कच्चा तेल, खाद्य पदार्थ, धातुओं आदि का व्यापार होता है। शेयरों के कारोबार हेतु शेयर बाजार की तर्ज पर कमोडिटी बाजार में कमोडिटी एक्सचेंज की स्थापना की गई।

● भारत के चार कॉमोडिटी एक्सचेंज निम्नलिखित हैं

1. मल्टी कॉमोडिटी एक्सचेंज (मुम्बई)
2. नेशनल कॉमोडिटी एण्ड डेरीइवेटिव्स एक्सजेंज (मुम्बई)
3. नेशनल मल्टी कॉमोडिटी एक्सचेंज (अहमदाबाद)
4. इण्डिया कॉमोडिटी एक्सचेंज (गुड़गाँव)

● ऑवर द काउण्टर एक्सचेंज ऑफ इण्डिया (OTCEI) की स्थापना नवम्बर, 1992 बॉम्बे में की गई। इसमें उन कम्पनियों को सूचीबद्ध किया गया है, जिनकी पूँजी का स्तर 30 लाख से 25 करोड़ रुपये तक हो।

भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी)

● यह एक गैर-संवैधानिक संस्था है।

● सेबी की स्थापना 12 अप्रैल, 1988 को को गई थी, परन्तु इसे वैधानिक दर्जा 30 जनवरी, 1992 को दिया गया था।

● इसकी स्थापना दामोदर समिति की सिफारिश पर हुई।

● यह, शेयर बाजार में होने वाले कारोबार को नियन्त्रित एवं विनियमित करती है।

● अगस्त 2008 के सर्वप्रथम राष्ट्रीय स्टॉक एक्सजेंज (NSE) द्वारा विदेशी मुद्रा के वायदा कारोबार की स्वीकृति प्रदान की गई थी।

● सेबी का मुख्यालय मुम्बई में है, जबकि इसके क्षेत्रीय कार्यालय चेन्नई, दिल्ली एवं कोलकाता में हैं।

● सेबी संशोधन विधेयक 2008 द्वारा शेयर बाजार को मान्यता प्रदान करने का अधिकार सेबी को दिया गया है। सेबी की प्रवर्तक कम्पनियाँ IDBI, ICICI तथा IFCI हैं।

फॉरवर्ड मार्केट कमीशन इंडिया (FMC)

इसका मुख्यालय मुम्बई में है। यह एक नियामक प्राधिकरण है जो केन्द्रीय मंत्रालय, उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण के अंतर्गत आता है। यह फॉरवार्ड कंडैक्ट्स (रेगुलेशन) एक्ट, 1952 के द्वारा 1953 ई. में एक नियामक बॉडी के रूप में आया। यह आयोग 22 कमोडिटी ट्रेडिंग करने को अनुमति देता है जिसमें तीन राष्ट्रीय स्तर के है।

राष्ट्रीय निवेश कोष

● इसकी स्थापना 2005 ई. में हुई।

● सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश से प्राप्त राजस्व के सुनिश्चित उपयोग हेतु गठन किया गया।

● इस राशि के 75% भाग का उपयोग सामाजिक क्षेत्र के विकास हेतु तथा 25% राशि का उपयोग सार्वजनिक क्षेत्र की इकाईयों में निवेश हेतु किया जाएगा।

● औपचारिक रूप से इसकी शुरुआत वर्ष 2007 में पॉवर ग्रिड कॉर्पोरेशन के विनिवेश से हुई।

● 17 जनवरी, 2013 को सरकार ने इसका पुनर्गठन किया है, जिसके अंतर्गत 2013-14 से विनिवेश से प्राप्त धनराशि को लोक लेखा में जमा कराया जाता है। यह धन राशि तब तक वहीं रहेगी जब तक इसे अनुमोदित उद्देश्यों के लिए निकाला न जाए।

विश्व के प्रमुख शेयर मूल्य सूचकांक (शेयर बाजार )

शेयर मूल्य सूचकांकस्टॉक एक्सचेंज
डॉलेक्स (Dolex), सेंसेक्स (SENSEX), एस एंड पीसीएनएक्स निफ्टी फिफ्टी, बैंकेक्स (Bankex)मुम्बई
डो जोन्स (Dow Jones)न्यूयॉर्क
निक्की (Nikkei)टोकियो
मिड डेक्स (MID DAX)फ्रैंक फर्ट (जर्मनी)
हांग सेंग (HANG SENG)हांगकांग
सिमेक्स (SIMEX), स्ट्रेट्स टाइम्स (Strait Times)सिंगापुर
कोस्पी (KOSPI)कोरिया
सेट (SET)थाईलैंड
तेन (TAIEN)ताइवान
शंघाई कॉमचीन
नॉसडैक (Nasdaq)संयुक्त राज्य अमेरिका
एस एंड पी (SP)कनाडा
बोवेस्पाब्राजील
 आई.बी.एक्स (IBX)ब्राजील
मिब्टेलइटली
आईपीसी (I.P.C.)मेक्सिको
जकार्ता कम्पोजिटइंडोनेशिया
KLSE कम्पोजिटमलेशिया
सियोल कम्पोजिट दक्षिण कोरिया

मौद्रिक नीति Monetary Policy

सामान्यतया मौद्रिक नीति से आशय सरकार अथवा बैंक की उस नियन्त्रण नीति से लगाया जाता है जिसके अन्तर्गत कुछ निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये मुद्रा की मात्रा, उसकी लागत तथा उसके उपयोग को नियन्त्रित करने के उपाय किये जाते हैं। अतः कहा जाता है कि मौद्रिक नीति से अभिप्राय केन्द्रीय बैंकों की साख नियन्त्रण नीति से है, परन्तु यह मौद्रिक नीति का एक संकुचित अर्थ है। मौद्रिक नीति के मुख्य अवयव तीन हैं: (1) मुद्रा की मात्रा (2) साख की मात्रा (3) ब्याज दर।

मौद्रिक नीति का संचालन देश के केन्द्रीय बैंक (भारत में RBI) द्वारा किया जाता है। रिजर्व बैंक द्वारा मंदीकाल में या संकुचन काल में मौद्रिक नीति के उपकरणों में उदारता लाते हुए देश में साख की मात्रा को बढ़ाने का प्रयास किया जाता है जिसे सस्ती मौद्रिक नीति कहते हैं। रिजर्व बैंक द्वारा मुद्रास्फीति काल में मुद्रा एवं साख की मात्रा को नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता है जिसे महँगी मौद्रिक नीति कहते हैं।

रिजर्व बैंक एवं साख नियंत्रण (Reserve Bank and credit control): भारतीय रिजर्व बैक द्वारा अर्थव्यवस्था में साख की मात्रा को नियंत्रित करने के लिए निम्न दो प्रकार के उपायों का सहारा लिया जाता है:

(क) परिमाणात्मक साख नियंत्रण और (ख) चयनात्मक या गुणात्मक साख नियंत्रण।

परिमाणात्मक साख नियंत्रण (Quantitative credit control) : बैंक दर (Bank rate or Discount rate) : जिस दर पर रिजर्व बैंक बिलों की पुनर्कटौती करता है उसे बैंक दर कहते हैं। पुनर्बट्टा का अर्थ यह है कि जब किसी व्यापारी को धन की जरूरत होती है तब वह अपने बिल ऑफ एक्सचेंज या प्रतिभूतियों को व्यापारिक बैंकों को बट्टे पर बेचता है, जैसे 100 रुपए की प्रतिभूति 80 रुपए में बेचना।

खुले बाजार की क्रियाएँ (Open market operations) : खुले बाजार की क्रियाओं को साख नियंत्रण का सबसे प्रभावी विधि • माना जाता है। संकुचित अर्थ में खुले बाजार की क्रियाओं का आशय केन्द्रीय बैंक द्वारा सरकारी प्रतिभूतियों के क्रय विक्रय से ही लगाया जाता है। केन्द्रीय बैंक जब साख की मात्रा में वृद्धि करना चाहता है तब सरकारी प्रतिभूतियाँ बाजार से खरीदना प्रारंभ कर देता है जब स्फीति के समय रिजर्व बैंक सरकारी प्रतिभूतियाँ बेचना शुरू कर देता है।

पुनर्क्रय विकल्प अर्थात् रेपो (Repo Repurchase option) : रेपो खुले बाजार की क्रियाओं का एक भाग होता है। रेपो एक ऐसा विनिमय है जिसके अन्तर्गत बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थाएँ ये अल्पकालीन पूँजी प्राप्त करती है अथवा निवेश करती है। रेपो व्यवहार के अन्तर्गत रिजर्व बैंक व्यापारिक बैंकों को कम अवधि के प्रतिभूतियों के आधार पर अल्पकालिक ऋण देता है।

रिर्वस रेपो दर : रिवर्स रेपो दर वह दर होती है जिस पर रिजर्व बैंक व्यापारिक बैंकों से अत्यल्प अवधि की प्रतिभूतियों के आधार पर अल्पकालिक ऋण लेता है।

नकद कोष अनुपात (Cash Reserve Ratio) : व्यापारिक बैंकों को अपनी शुद्ध माँग एवं समय जमाओं का कुछ निश्चित प्रतिशत नकद रूप में केन्द्रीय बैंक के पास रखना पड़ता है जिसे नकद कोष अनुपात (CRR) कहते हैं। रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 22(1) के अनुसार “रिजर्व बैंक को यह अधिकार है कि वह CRR की दर 3 प्रतिशत से 15 प्रतिशत के बीच निर्धारित कर सकता है।

वैधानिक तरलता अनुपात (Statutory Liquidity Ratio: SLR) : इसके अन्तर्गत व्यापारिक बैंकों को अपनी कुल सम्पत्ति का पूर्व निर्धारित प्रतिशत नकद, सोना, सरकारी प्रतिभूतियों तथा अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियों में निवेश करना आवश्यक होता है। इससे बैंकों की तरलता सुनिश्चित होती है। कानून के अनुसार RBI द्वारा SLR का निर्धारण 25 प्रतिशत से 40 प्रतिशत के मध्य किया जा सकता है। SLR की निचली सीमा (25 प्रतिशत) को समाप्त कर दिया गया है।

सीमान्त स्थायी सुविधा दर (Marginal Standing Facility rate) : सीमान्त स्थायी सुविधा दर रिजर्व बैंक द्वारा 9 मई, 2011 से लागू एक नई धारणा है। शुरू में इसकी दर MSF की दर रेपो दर से 100 आधार बिन्दु अधिक होने की बात की गई है। यह वह दर होता है जिसके अंतर्गत बैंक रात भर के लिए ऋण प्राप्त कर सकेंगे।

चयनात्मक या गुणात्मक साख नियंत्रण (Selective Credit control) : इस विधि को साख नियंत्रण की प्रत्यक्ष विधि कहते हैं। चयनात्मक या गुणात्मक साख नियंत्रण का उद्देश्य साख के प्रयोग को नियंत्रित करके व्यापारिक बैंकों द्वारा अवांछित आर्थिक क्रियाओं के लिए साख देने पर रोक लगाना या उन्हें हतोत्साहित करना होता है। गुणात्मक साख नियंत्रण की विधियाँ सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को प्रभावित न करके केवल विशेष क्षेत्र की आर्थिक अथवा वित्तीय क्रियाओं को प्रभावित करते हैं।

• रिजर्व बैंक ने सर्वप्रथम इसका प्रयोग 1956 ई. में किया था। यह प्रयोग बैंकों के बहुत अधिक मात्रा में बढ़ते हुए अग्रिमों के सन्दर्भ में किया गया था। रिजर्व बैंक ने चयनात्मक अस्त्र के रूप में कुछ विशिष्ट प्रतिभूतियों के आड़ में ऋण देने के सम्बन्ध में न्यूनतम सीमा या मार्जिन निर्धारण, ऋण की ऊपरी सीमा का निर्धारण, विभेदात्मक ब्याज दर एवं नैतिक दबाव का प्रयोग किया है। नैतिक दबाव के अन्तर्गत व्यापारिक बैंकों को मार्ग दर्शन पत्र लिखे जाते हैं।

बेसल मानक

बेसल मानक : बैंक पर्यवेक्षण पर बेसल कमेटी (Basel Committe on Bank Supervision-BCBS) द्वारा समझौतों का एक सेट जो पूंजीगत जोखिम, बाजार जोखिम तथा संचालकीय जोखिम के संदर्भ में बैंकिंग विनियामकों पर सिफारिशें देती हैं। मानदंडों के मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि वित्तीय संस्थान अपनी देयताओं एवं अप्रत्याशित घाटों की पूर्ति के लिए पर्याप्त पूँजी अपने पास सुरक्षित रखे।

बेसल-1 : बैंक पर्यवेक्षण पर बेसल कमेटी द्वारा वित्तीय संस्थानों द्वारा साख जोखिम को कम करने हेतु अपने पास रखे जाने वाली न्यूनतम पूँजी अनिवार्यता है बेसल-1 मानदंड। ये मानदंड पहली बार वर्ष 1988 में रखे गये थे। इसके अंतर्गत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कारोबार करने वाले वित्तीय संस्थानों को अपनी जोखिम भारांश संपदा (Risk Weighted assets) के बराबर या न्यूनतम 8 प्रतिशत टीयर-1 एवं टीयर-2 पूंजी अपने पास रखना अनिवार्य किया गया है।

बेसल-II : बेसल II बेसल मानदंड का दूसरा चरण है। यह 26 जून, 2004 को जारी किया गया और वर्ष 2006 से लागू करने का प्रावधान किया गया। जहाँ बेसल एक साख जोखिम पर केंद्रित था वहीं बेसल दो का उद्देश्य वित्तीय संस्थानों द्वारा अलग रखे जानी वाली पूँजी के लिए मानक तैयार करना एवं उसका विनयमन करना था। बैकों को निवेश एवं कर्ज देने की अपनी गतिविधियों के साथ जुड़े जोखिमों के मद्देनजर पूँजी अलग रखना जरूरी होता है। बेसल II मानदंड मुख्यत: तीन कारकों पर प्रभाव डालता है। ये हैं; पूंजी पर्याप्तता, पर्यवेक्षीय मूल्यांकन एवं बाजार अनुशासन।

बेसल कमेटी इन तीनों कारकों जोखिमों के मद्देनजर पूँजी अलग रखना जोखिम प्रबंधन के तीन स्तंभ मानती है। बेसल 2 मानदंड की पूंजी पर्याप्तता स्तंभ के अंतर्गत बैंकों के लिए 8 प्रतिशत की पूंजी पर्याप्तता अनुपात (Capital Adequacy Ratio-CAR) या जोखिम भारांश संपदा अनुपात (Capital to Risk Weighted Assets Ratio- CRAR) बनाए रखना अनिवार्य है।

सामान्यतः बैंक तीन प्रकार की जोखिमों का  सामना करते हैं; ऋण संबंधी जोखिम, संचालकीय जोखिम एवं बाजार जोखिम। पर्यवेक्षीय मूल्यांकन (Supervisory Review) के अंतर्गत बेसल 2 मानदंड यह सुनिश्चित करना चाहता है कि बैंक न केवल अपने जोखिमों की भरपाई के लिए अपने पास पर्याप्त पूंजी रखे वरन् अपने जाखिमों की निगरानी एवं प्रबंधन के क्रम में बेहतर जोखिम प्रबंधन तकनीक का उपयोग एवं विकास भी करे। बाजार अनुशासन (Mar- ket Discipline) बैंकों पर अपनी बैंकिंग व्यवसाय को सुरक्षित, सुदृढ़ एवं प्रभावी तरीके से संचालन करने का निर्देश देता है। बैंकों के लिए अपनी पूँजी, जोखिम विवरण या एक्सपोजर देना अनिवार्य है ताकि बाजार के भागीदार उस बैंक की पूँजी पर्याप्तता का अनुमान लगा सके।

● बेसल III : वर्ष 2008 की अमेरिकी सब प्राइम संकट एवं वैश्विक संकट के परिप्रेक्ष्य में बेसल III मानक तैयार किये गये। बेसल II में किसी खास बैंक के जोखिमों एवं विनियमनों को केंद्र में रखा गया था पर आर्थिक संकट को देखते हुये पूरी आर्थिक व्यवस्था की वित्तीय स्थिरता पर बेसल-III मानक के केंद्र में रखा गया है। इसके अंतर्गत बैंकों को जोखिम संपदा भारांश का 4.5 प्रतिशत कॉमन इक्विटी (बेसल-11 मानक में यह 2 प्रतिशत था) एवं 6 प्रतिशत टीयर 1 पूंजी (बेसल – II में यह 4 प्रतिशत था) अपने पास रखने होंगे।

• बैंकों के पास 2.5 प्रतिशत का अतिरिक्त पूंजी बफर भी रखना होगा। जो बैंक इस बफर को नहीं रख पाएँगे उन्हें शेयर पुनर्खरीद, लाभांश एवं बोनस भुगतान पर प्रतिबंध का सामना करना पड़ेगा।

भारत में बेसल-III मानक 1 अप्रैल, 2013 से विभिन्न चरणों में लागू हो गया। बेसल-III के पूँजी विनियमन संबंधी मानदंड पूरी तरह से 31 मार्च, 2018 तक लागू हो जाएँगे।

• भारतीय रिजर्व बैंक ने बैंकिंग प्रणाली को अधिक सुरक्षित बनाने के उद्देश्य से बेसल-III कैपिटल रेग्युलेशंस हेतु दिशा-निर्देश जारी कर दिए हैं।

• ड्रॉफ्ट गाइडलाइंस के अंतर्गत बैंकों के लिए पूँजी की न्यूनतम सीमा निर्धारित की गई है, जो इस प्रकार हैं-

• बैंकों की टियर-1 पूँजी उनके जोखिम-भारित परिसंपत्ति के 7% से कम नहीं हो सकती।

• बैंकों की पूँजी जोखिम-भारित परिसंपत्ति के 9 प्रतिशत से कम नहीं होनी चाहिए।

• बैंकों को जोखिम-भारित परिसंपत्ति के 2.5 प्रतिशत के बराबर पूँजी संरक्षण बफर रखना अनिवार्य ।

क्रेडिट रेटिंग (Credit Rating)

• क्रेडिट रेटिंग (Credit Rating) : क्रेडिट रेटिंग किसी भी देश, संस्था या व्यक्ति की साख या उसके भुगतान करने की क्षमता का मूल्यांकन होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि कोई वित्तीय संस्था, देश या व्यक्ति आर्थिक रूप से कितना मजबूत है या उसकी ऋण लेने की क्षमता कितनी है। रेटिंग एक तरह से मूल्यांकन ही है जिसके तहत देशों, बड़ी कंपनियों या बड़े पैमाने पर उधार लेने वालों का मूल्यांकन किया जाता है। इस मूल्यांकन पर निर्भर करता है कि उधार लेने वाले की स्थिति कैसी है और उनकी उधार लौटाने की क्षमता कितनी है। अच्छे मूल्यांकन का अर्थ है कम ब्याज पर आसानी से कर्ज। खराब मूल्यांकन का अर्थ है ऊँची दरों पर मुश्किल से कर्ज।

• इस समय रेटिंग की दुनिया में तीन बड़े नाम हैं- स्टैंडर्ड एंड पूअर, मूडीज और फिचा इनमें सबसे पुरानी क्रेडिट रेटिंग एजेंसी है स्टैंडर्ड एंड पूअर जिसकी नींव 1860 ई. में हेनरी पूअर ने रखी थी। भारत में क्रेडिट रेटिंग निर्धारित करने वाले मुख्यतः 4 संगठन हैं- क्रिसिल (CRISIL), इक्रा (ICRA), केयर (CARE), और ओनिक्रा (ONICRA)।

क्रेडिट रेटिंग :
एएए: सबसे मजबूत सबसे बेहतर
एए: अपने वादों को पूरा करने की अच्छी क्षमता
एः अपने वादों को पूरा करने की क्षमता पर बदली विपरीत परिस्थितियों का प्रभाव पड़ सकता है।

बीबीबी : अपने वादों को पूरा करने की क्षमता लेकिन विपरीत आर्थिक स्थिति से प्रभावित होने की अधिक संभावना।

• सीसी : वर्तमान में बहुत कमजोर।
डी: उधार लौटाने में असक्षम ।

बैंकिंग लोकपाल योजना : बैंक के ग्राहकों की शिकायतों का निदान करने के लिए रिजर्व बैंक ने 14 जून, 1995 से देशभर में बैंकिंग लोकपाल लागू किया है। इसका उद्देश्य आम जनता को एक पारदर्शी और विश्वसनीय विवाद समाधान का व्यवस्था करना है।

• कोई भी ग्राहक जिसकी सेवा संबंधी शिकायतों का निपटारा संतोष जनक तरीके से संबंधित बैंक शाखा तथा उसके शीर्ष प्रबंधन द्वारा 2 माह के भीतर नहीं किया जाता तो वह बैंकिंग लोकपाल के पास एक वर्ष के भीतर शिकायत कर सकता है।

राजकोषीय नीति (Fiscal Policy)

राजकोषीय नीति (Fiscal Policy) : राजकोषीय नीति अथवा प्रशुल्क नीति से हमारा आशय सरकार की आय, व्यय तथा ऋण से सम्बन्धित क्रियाओं से होता है। प्रो. आर्थर स्मिथ ने राजकोषीय नीति को परिभाषित करते हुए लिखा है कि, “राजकोषीय नीति वह नीति है जिसमें सरकार अपने व्यय तथा आगम के कार्यक्रम की राष्ट्रीय आय, उत्पादन तथा रोजगार पर वांछित प्रभाव डालने तथा अवांछित प्रभावों को रोकने के लिये प्रयुक्त करती है।”

• राजकोषीय नीति के अन्तर्गत बजट की वे समस्त क्रियाएँ आती हैं जिनके अन्तर्गत राज्य के द्वारा धन एकत्रित करना, उसका व्यय करना, ऋण प्राप्त करना एवं ऋणों का भुगतान करना, वित्तीय प्रबन्ध करना आदि सम्मिलित हैं।

राजकोषीय नीति का महत्व (Importance of Fiscal Policy)

राजकोषीय नीति का महत्व (Importance of Fiscal Policy) : प्राचीन काल में जब राज्य के केवल कुछ गिने-चुने ही कार्य थे; जैसे-राष्ट्र की प्रतिरक्षा करना, आन्तरिक अशान्ति और न्याय की स्थापना करना आदि उस समय राजकोषीय नीति का महत्व इतना नहीं था, लेकिन जैसे-जैसे राज्य-कार्यों एवं उत्तरदायित्वों में वृद्धि होती गई वैसे-वैसे राजकोषीय नीति का महत्व बढ़ता गया।

● अर्द्ध-विकसित देशों में अनेक आर्थिक समस्याएँ अपना विकराल रूप प्रकट कर रही हैं; जैसे-बेरोजगारी की समस्या, बढ़ते हुए मूल्यों की समस्या, मुद्रा-स्फीति की समस्या, जनसंख्या की कृषि पर अधिक निर्भरता आदि। इन समस्याओं का समाधान करने के लिये हमें राजकोषीय नीति का सहारा लेना पड़ता है।

● राजकोषीय नीति का निर्धारण इस प्रकार से करना पड़ता है कि बचत में वृद्धि हो जिससे अधिक पूँजी निर्माण हो तथा देश का नियोजित ढंग से आर्थिक विकास किया जा सके। सरकार राजकोषीय नीति के द्वारा ही उद्योगों को संरक्षण एवं सहायता देकर उत्पादन में वृद्धि कर सकती है तथा अवांछनीय उद्योगों पर कर आदि में वृद्धि करके सामाजिक कल्याण में वृद्धि करती है। रोजगार के आधुनिक सिद्धान्तों के कारण राजकोषीय नीति का महत्व और भी अधिक हो गया है। वास्तव में सरकार राजकोषीय नीति का सहारा लेकर देश के आर्थिक विकास को प्रभावित करते हुए आर्थिक कल्याण को अधिकतम कर सकती है।

● संक्षेप में, मायर तथा बाल्डविन के अनुसार यह कहा जा सकता है कि अर्द्ध-विकसित देशों में राजकोषीय नीति का व्यापक एवं प्रभावशाली प्रयोग विकास के लिये अति आवश्यक है।

भारत तथा अन्य अर्द्ध-विकसित देशों में राजकोषीय नीति की सीमाएँ

(1) अर्द्ध-विकसित देशों में एक समन्वित एवं उचित कर प्रणाली के लिये आवश्यक परिस्थितियों का अभाव पाया जाता है।
(2) इन देशों में प्रत्येक स्थान पर मुद्रा का चलन नहीं होता है। अतः राजकोषीय नीति पूर्ण रूप से प्रभावशाली नहीं हो पाती है।
(3) समंकों या आँकड़ों का अभाव होने के कारण आय-व्यय तथा बचत संबंधी तथ्यों की पूर्ण जानकारी प्राप्त नहीं हो सकती है।
(4) जनता का सहयोग प्राप्त नहीं होने के कारण राजकोषीय नीति अपने लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सकती है।
(5) नैतिक मूल्यों के अभाव में भ्रष्टाचार एवं कर-चोरी को बढ़ावा मिलता है जिसमें राजकोषीय नीति की सफलता में बाधा पड़ती है।

यह भी पढ़ें: मुद्रा (Money)

निष्कर्ष:

हम आशा करते हैं कि आपको यह पोस्ट भारतीय पूँजी बाजार जरुर अच्छी लगी होगी। भारतीय पूँजी बाजार के बारें में काफी अच्छी तरह से सरल भाषा में समझाया गया है। अगर इस पोस्ट से सम्बंधित आपके पास कुछ सुझाव या सवाल हो तो आप हमें कमेंट बॉक्स में ज़रूर बताये। धन्यवाद!

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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