मुद्रा (Money): मुद्रा के मूल्य में उतार चढ़ाव

मुद्रा (Money)

मुद्रा (Money) : मुद्रा की प्रकृति और कार्य (Nature and Functions of Money) “मुद्रा एक ऐसी वस्तु है जो व्यापक क्षेत्र में विनिमय के माध्यम, मूल्य के मापक, स्थगित भुगतानों के मान एवं मूल्य के संचय के साधन के बारे में सामान्य रूप से स्वीकार की जाती है एवं जिसे राजकीय संरक्षण अथवा मान्यता भी प्राप्त होती है।”

मुद्रा के मुख्य कार्य दो होते हैं- विनिमय का माध्यम तथा मूल्य का मापक। स्थगित भुगतानों का देयमान, मूल्य का संचय, मूल्य का हस्तान्तरण आदि इसके सहायक कार्य हैं। मुद्रा के अन्तर्गत सिक्के, पत्र मुद्रा तथा जमा मुद्रा या बैंक मुद्रा आते हैं। मुद्रा का वर्गीकरण हम निम्न प्रकार से कर सकते हैं :

भीतरी मुद्रा ( Inside Money) तथा बाहरी मुद्रा (Outside Money) : इस धारणा का प्रतिपादन जॉनगुर्ले तथा एसशा ने 1960 ई. में किया। वह मुद्रा जो अर्थव्यवस्था की भीतरी निजी इकाइयों के ऋण पर आधारित हो जैसे बैंक जमा का उस सीमा तक भाग जो उसके द्वारा निजी क्षेत्र को दिए गये ऋण के बराबर हो, उसे भीतरी मुद्रा कहते हैं। बाहरी मुद्रा वह मुद्रा है जो सार्वजनिक क्षेत्र के प्रत्यक्ष ऋण या दायित्व जैसे चलन में मुद्रा पर आधारित हो।

बाहरी मुद्रा सरकार द्वारा सृजित आधार मुद्रा पर आधारित होता है। यह मुद्रा लोगों का शुद्धधन है जिसके साथ मुद्रा के धारक की सम्पूरक देयता नहीं होती। बाहरी मुद्रा जैसे सरकारी प्रतिभूति, सोना आदि भीतरी मुद्रा जैसे बैंक शेष।

वैधानिक मुद्रा (Legal tender) या अनुज्ञापित मुद्रा (Fiat Money) : ये मुद्राएँ सरकार के अनुसार या ऑर्डर पर चलती है। ये ऐसी मुद्रा है जिनके पीछे कोई बैंकिंग नहीं होती है। भारत में छोटे सिक्के तथा एक रुपये के नोट या एक रुपया का सिक्का सीमित ग्राह्य वैधानिक मुद्रा है जिनको एक सीमा तक ही भुगतान के माध्यम के रूप में स्वीकार करना वैधानिक अनिवार्यता है।

● गैर वैधानिक मुद्रा (Non legal tender) : ये ऐसी मुद्राएँ हैं जिनको स्वीकार करने के सम्बन्ध में कोई कानूनी बाह्यता नहीं होती है, यह मुद्रा विशुद्ध रूप से विश्वास पर चलती है जैसे साख मुद्रा।

● ऐच्छिक मुद्रा (Optional Money): ऐच्छिक मुद्रा वह मुद्रा है जिसे स्वीकार करना मनुष्य की इच्छा पर निर्भर करता है। यदि कोई व्यक्ति इसे लेने से इन्कार भी कर दे तो उसे दण्ड नहीं दिया जा सकता है। इसमें चेक, ड्राफ्ट, हुण्डी, प्रतिज्ञापत्र आदि को शामिल किया जाता है।

● सस्ती मुद्रा (Cheap Money) : मुद्रा का एक महत्वपूर्ण उपयोग उसे उधार देना है उधार के बदले ब्याज दिया जाता है। जब कम ब्याज पर मुद्रा मिलती है तब उसे सस्ती मुद्रा कहते हैं।

महँगी मुद्रा (Dear Money) : जब ऊँची ब्याज दर पर मुद्रा उधार मिलती है, तो उसे “महँगी मुद्रा” कहते हैं।

● सुलभ मुद्रा (Soft Currency) : जब किसी देश की मुद्रा की माँग से उसकी पूर्ति अधिक होती है तो उस देश की मुद्रा विदेशी विनिमय बाजार में आसानी से उपलब्ध हो जाती है। ऐसे देश की मुद्रा को “सॉफ्ट करेंसी” कहते हैं, जैसे भारतीय रुपया।

दुर्लभ मुद्रा (Hard Currency) : जब किसी देश की मुद्रा का माँग उसकी पूर्ति से अधिक होती है तब उस देश की मुद्रा विदेशी विनिमय बाजार में कठिनाई से उपलब्ध हो पाती है। ऐसे देश की मुद्रा को हार्ड करेंसी कहते हैं जैसे – डॉलर ।

● हॉट मनी (Hot Money) : जिस मुद्रा का बाह्य मूल्य तेजी से गिर रहा हो उसे गर्म मुद्रा कहते हैं। गर्म मुद्रा वह विदेशी मुद्रा है जिसमें शीघ्र पलायन की प्रवृत्ति पायी जाती है। यह साधारणतया अधिक लाभ मिलने वाले संभावित स्थान पर स्थानांतरित हो जाती है।

प्रादिष्ट या आज्ञा प्राप्त मुद्रा (Fiat Money) : जब किसी देश में युद्ध या अन्य किसी प्रकार का राजनीतिक संकट उपस्थित होता है अथवा आर्थिक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती है तब सरकार का खर्च बहुत बढ़ जाता है इस खर्च को पूरा करने के लिए संकटकालीन मुद्रा निकाली जाती है। ऐसी मुद्रा के पीछे कोई कोष नहीं रखा जाता। यह मुद्रा केवल सरकारी आदेश पर निकाली जाती है।

● विमुद्रीकरण : जब सरकार पहले से चलन में विद्यमान मुद्रा को रद्द कर देती है अर्थात् अवैधानिक घोषित कर देती है तो इसे विमुद्रीकरण कहते हैं जैसे 1978 ई. में जनता सरकार ने 1000 रुपये के नोट का भारत में विमुद्रीकरण किया था। विमुद्रीकरण प्रायः अत्यधिक मुद्रास्फीति या कालेधन की समस्या से निपटने के लिए किया जाता है।

भारतीय मुद्रा प्रणाली

● धातु मुद्रा : भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में व्यापार प्रारंभ किया तब भारत के विभिन्न भागों में सैकड़ों प्रकार की मुद्राएँ चलन में थीं। भारत में विभिन्न प्रकार के धातु मुद्राओं का इतिहास अग्रवर्णित है-

● रजतमान (Silver Standard) : रजतमान 1873 ई. से पूर्व इंग्लैंड को छोड़कर विश्व के अनेक देशों में प्रचलित था। भारत में रजतमान 1835 ई. से 1893 ई. तक प्रचलित था। इस अवधि में रुपया भारत का प्रमुख सिक्का था, इसका वजन 180 ग्रेन और शुद्धता 11/12 थी। 1893 ई. में हर्शल कमेटी के सिफारिश के आधार पर भारत में रजतमान समाप्त हो गया, परन्तु चाँदी का रुपया 1940 ई. तक चलता रहा।

अपूर्ण द्विधातुमान : हर्शल कमेटी के सुझाव पर भारतीय मुद्रण अधिनियम- 1893 पास किया गया। तद्नुसार भारत में रजतमान के रूप में एक धातुमान के बजाए अपूर्ण द्विध ातुमान की स्थापना की गई, जिसके तहत सोने एवं चाँदी के सिक्के चलाए गए।

भारत में स्वर्णमान : भारत में स्वर्णमान की स्थापना 1898 ई. में गठित “फाऊलर समिति” के सिफारिश के आधार पर 1899 ई. में स्वर्ण विनिमय मान के रूप में किया गया “स्वर्ण विनिमय मान” भारत में 1927 ई. तक प्रचलित रहा 1925 ई. में हिल्टन यंग कमीशन की नियुक्ति की गई जिसने भारत में स्वर्ण पाटमान अपनाने का सुझाव दिया। अतः भारत सरकार ने 1927 ई. से 1931 ई. के बीच स्वर्ण पाटमान को अपनाए रखा। स्वर्ण पाटमान के अंतर्गत रुपये का संबंध स्वर्ण से प्रत्यक्ष रूप में नहीं रहा वरन् स्टर्लिग से रखा गया और स्टर्लिग स्वर्ण में परिवर्तनीय था।

स्वर्ण विनिमय मान (Gold exchange standard) : जब देश की मुद्रा को प्रत्यक्ष रूप से स्वर्ण में परिवर्तित नहीं किया जा सके, बल्कि किसी एक देश जिसकी मुद्रा स्वर्णमान पर आधारित हो, में परिवर्तन की सुविधा हो तो उसे स्वर्ण विनिमय मान सुविधा कहते हैं।

स्वर्ण धातुमान या स्वर्ण पाटमान या स्वर्ण पिण्डमान : स्वर्ण पाटमान (Gold Bullion Standard) का प्रयोग सर्वप्रथम 1925 में इंग्लैंड में हुआ था तथा 1925 से 1931 तक इंग्लैंड में प्रचलित रहा। भारत में हिल्टन यंग कमीशन के सिफारिश के आधार पर इसे 1927 से 1931 तक अपनाया गया था। जब किसी देश में स्वर्ण मुद्रा चलन में नहीं रहती किन्तु देश की सरकार अपनी मुद्रा के बदले एक निश्चित मात्रा में स्वर्ण उपलब्ध कराने का वचन देती है तब इस व्यवस्था को स्वर्ण धातुमान या स्वर्ण पाटमान कहा जाता है। स्वर्ण पाटमान में सोने के सिक्के प्रचलन में नहीं होते हैं।

स्वर्ण समतामान (Gold Parity Stan- dard) : स्वर्ण समतामान स्वर्ण का आधुनिकतम रूप है जो अस्तित्व में है। स्वर्ण समतामान का विकास IMF के साथ हुआ। इसके अन्तर्गत IMF के प्रत्येक सदस्य राष्ट्र की मुद्रा स्वर्ण में परिभाषित होती थी, जिसके आधार पर विनिमय दर निर्धारित होती थी। सदस्य देश IMF के पास एक निश्चित मात्रा में स्वर्ण कोष रखते थे। देश में चलन की मुद्रा स्वर्ण पर आधारित नहीं थी। यह व्यवस्था 1946 से 1970 तक चलती रही। बाद में इसका केवल सैद्धांतिक अस्तित्व रह गया और वह भी 1970 से पूर्णतया समाप्त हो गया। 1970 से IMF ने SDR को अपनी मुद्रा बना ली।

मानक मुद्रा (Standard Money) : मानक मुद्रा वह मुद्रा है जिसका अंकित मूल्य उसके यथार्थ मूल्य अथवा धातु मूल्य के बराबर होता है। इसीलिए मानक मुद्रा को “पूर्ण मूल्य मुद्रा” भी कहते हैं। मानक मुद्रा असीमित वैध मुद्रा होती है। 1835 से 1893 के बीच भारत का एक रुपये का सिक्का पूर्ण मूल्य सिक्का होता था।

प्रतीक मुद्रा (Token Money) : प्रतीक मुद्रा वह प्रतिनिधि मुद्रा है जिसका यथार्थ मूल्य उसके अंकित मूल्य से कम होता है। भारत में वर्तमान में एक रुपये का सिक्का प्रतीक मुद्रा है।

सहायक मुद्रा : सहायक मुद्रा का काम  प्रतीक मुद्रा का सहायता करना है।

● पत्र मुद्रा (Paper Money) : पत्र मुद्रा सरकार या सरकार की गारण्टी पर निकाले गए नोट होते हैं, जिन्हें मुद्रा की आवश्यकता की पूर्ति के लिए विधि ग्राह्य घोषित किया जाता है। पत्र मुद्रा के पीछे प्रायः कुछ कोष रखा जाता है, जो स्वर्ण या विदेशी विनिमय के रूप में होता है। कोष के आधार पर पत्र मुद्रा को प्रायः निम्न चार भागों में बाँटा जाता है: (1) प्रतिनिधि पत्र मुद्रा, (2) परिवर्तनशील पत्र मुद्रा, (3) अपरिवर्तनशील पत्र मुद्रा, (4) प्रादिष्ट मुद्रा

प्रतिनिधि पत्र मुद्रा (Representative Paper Money) : जब कागज के नोटों के बदले शत-प्रतिशत स्वर्ण या चाँदी कोष में रखा जाता है तब इस प्रकार के कागज के नोट प्रतिनिधि मुद्रा कहलाते हैं। इस व्यवस्था में पत्र मुद्रा के बदले सोना या चाँदी मिलने की गारण्टी होती है।

● परिवर्तनशील पत्र-मुद्रा (Convertible Paper Money) : जब पत्र मुद्रा के बदले शत-प्रतिशत कोष नहीं रखा जाता, वरन् कुल मुद्रा का निश्चित भाग (जैसे 20, 30 या 40 प्रतिशत) ही स्वर्ण या चाँदी में रखा जाता है, किन्तु सरकार या केन्द्रीय बैंक यह घोषणा करती है कि पत्र मुद्रा के बदले में स्वर्ण, चाँदी या प्रामाणिक मुद्रा मिल सकेगी तो इस प्रकार की मुद्रा को परिवर्तनशील पत्र मुद्रा कहते हैं। अतः जब धातु कोष से अधिक राशि की पत्र मुद्रा का निर्गमन किया जाए तथा साथ ही धातु में परिवर्तनशीलता की गारण्टी भी बनी रहे तो ऐसी मुद्रा परिवर्तनशील पत्र-मुद्रा कहलाती है।

● अपरिवर्तनशील पत्र मुद्रा (Inconvert- ible Paper Money) : जब पत्र मुद्रा के बदले स्वर्ण, चाँदी या अन्य कोई मूल्यवान वस्तु कोष में नहीं रखी जाती है और न ही इसके बदले सोना, चाँदी या कोई मूल्यवान वस्तु देने की गारण्टी दी जाती है तो इसे अपरिवर्तनशील पत्र-मुद्रा कहते हैं। यह सरकार की साख पर चलती है।

भारत में पत्र मुद्रा का चलन

भारत में पत्र मुद्रा का चलन : भारत में पत्र मुद्रा का चलन 19वीं शताब्दी से पहले नहीं था। सबसे पहले अंग्रेज सरकार ने बैंक ऑफ बंगाल को नोटों की निकासी का अधिकार दिया। बाद में नोट निकालने का अधिकार अन्य प्रेसीडेन्सी बैंकों को भी मिल गया। 1862 के बाद नोट निकालने का कार्य सरकार स्वयं करने लगी। सरकार ने 1935 ई. में रिजर्व बैंक की स्थापना होने पर नोट निर्गमन का काम रिजर्व बैंक को सौंप दिया। • भारत में नोट निर्गमन की अब तक निम्न तीन प्रणालियों का प्रयोग किया गया है :

(1) निश्चित विश्वाश्रित प्रणाली : इस प्रणाली के अनुसार सरकार द्वारा एक निश्चित सीमा निर्धारित कर दी जाती है। इस निर्धारित सीमा के नीचे तक नोटों के पीछे कोई कोष रखने की आवश्यकता नहीं होती है। परन्तु इस सीमा के ऊपर जितने नोट निकाले जाते हैं उनके पीछे शत-प्रतिशत मूल्य कोष रखना आवश्यक होता है। भारत में यह प्रणाली 1861 से 1920 तक अपनाई गई, जिसमें 4 करोड़ तक के नोट बिना किसी कोष के निकाले जा सकते थे।

(2) आनुपातिक-कोष प्रणाली : नोट निर्गमन की यह रीति बैंकिंग सिद्धांत पर आधारित है। इस प्रणाली के अन्तर्गत निर्गमित किए जाने वाले नोटों का एक निश्चित प्रतिशत स्वर्ण कोष के रूप में रखना पड़ता है। सन् 1920 ई. में भारत सरकार ने नोट निकालने के लिए आनुपातिक कोष प्रणाली अपनाई। इस प्रणाली के अनुसार सरकार ने कुल पत्र मुद्रा के पीछे 50 प्रतिशत स्वर्ण तथा चाँदी कोष में रखने का निश्चय किया। सन् 1935 में रिजर्व बैंक की स्थापना होने पर नोट निर्गमन का काम रिजर्व बैंक को सौंप दिया गया। रिजर्व बैंक ने भी नोट निर्गमन के लिए आनुपातिक कोष प्रणाली को ही अपनाया, परन्तु इसमें कुछ परिवर्तन कर दिया गया। नई व्यवस्था में पत्र-मुद्रा के पीछे कम से कम 40 प्रतिशत स्वर्ण एवं विदेशी प्रतिभूतियाँ रखना आवश्यक था। इस कोष में भी 40 प्रतिशत में भी कम से कम 40 करोड़ रुपये का सोना होना आवश्यक था, बाकी कोष विदेशी प्रतिभूतियों में रखा जा सकता था।

(3) न्यूनतम कोष प्रणाली (Minimum Reserve System) : भारत में वर्तमान में न्यूनतम कोष प्रणाली प्रचलित है। रिजर्व बैंक द्वारा यह प्रणाली 6 अक्टूबर, 1956 से अपनाई गयी, जिसके अंतर्गत रिजर्व बैंक के लिए यह आवश्यक था कि वह कम से कम 115 करोड़ रुपये का सोना और 400 करोड़ रुपये की विदेशी प्रतिभूतियाँ कोष में रखे। इस प्रकार 515 करोड़ रुपये का कुल कोष रखकर रिजर्व बैंक जितना चाहे उतनी मुद्रा निकाल सकता था। यह व्यवस्था भी एक वर्ष से अधिक नहीं चल सकी। 31 अक्टूबर, 1957 के बाद रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ऐक्ट के संशोधन के अनुसार कोष 200 करोड़ रुपये कर दिया गया। जिसमें कम से कम 115 करोड़ रुपया सोने या धातु के रूप में तथा 85 करोड़ रुपया विदेशी प्रतिभूति के रूप में रखना अनिवार्य होगा।

मुद्रा के मूल्य में उतार चढ़ाव

मुद्रा के मूल्य में उतार चढ़ाव : मुद्रा के मूल्यों में प्रायः परिवर्तन होते रहते हैं। इन परिवर्तनों का आर्थिक व्यवस्था एवं संरचना पर गहरा प्रभाव पड़ता है। कभी-कभी तो इन परिवर्तनों से समस्त आर्थिक संरचना ही अस्त-व्यस्त हो जाती है और समाज में अन्याय, संघर्ष, शत्रुता और अराजकता फैल जाती है। यही कारण है कि आज विश्व के सभी अर्थशास्त्री आर्थिक नीति का एक मूल उद्देश्य “मूल स्थायित्व” (Price Stabil- ity) मानते हैं। पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में तो व्यापार चक्रों को नियंत्रित रखने के लिए विशेष प्रयास किये जाते हैं।

• मुद्रा के मूल्य में होने वाले परिवर्तनों के 4 प्रमुख स्वरूप हैं- स्फीति (मुद्रा प्रसार), अवस्फीति (मुद्रा संकुचन), प्रत्यव स्फीति (मुद्रा-संस्फीति) तथा अपस्फीति

① मुद्रास्फीति (Money inflation) : सरल शब्दों में मुद्रा स्फीति का अर्थ है – “वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमत में वृद्धि एवं मुद्रा के मूल्य में गिरावट।” प्रो० कैमरर के अनुसार ‘मुद्रा स्फीति वह अवस्था है जिसमें मुद्रा का मूल्य न गिरता है अर्थात् कीमतें बढ़ती हैं’ मुद्रा-स्फीति । की परिभाषा से स्पष्ट है कि मुद्रा-स्फीति आर्थिक , असन्तुलन की वह स्थिति है जिसमें अन्ततः मौद्रिक आय में वृद्धि तथा उत्पादन में कमी हो जाती है; अतः इस आधार पर मुद्रा-स्फीति के कारणों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

(I) मौद्रिक आय में वृद्धि (Increase in Money income)

(II) उत्पादन में कमी (Decrease in Production)

• मुद्रा स्फीति निम्नलिखित परिस्थितियों में उत्पन्न हो सकती है-

(1) मुद्रा की पूर्ति बढ़ना किन्तु उत्पादन स्थिर रहना।

(2) मुद्रा की पूर्ति स्थिर रहना, किन्तु उत्पादन कम होते जाना।

(3) मुद्रा की पूर्ति बढ़ते जाना, किन्तु उत्पादन गिरते जाना

(4) मुद्रा की मात्रा बढ़ते जाना और उत्पादन भी बढ़ते जाना किन्तु मुद्रा के अपेक्षा उत्पादन धीरे-धीरे बढ़ना।

(5) मुद्रा की मात्रा कम होते जाना और उत्पादन में भी कमी होते रहना। किन्तु मुद्रा की अपेक्षा उत्पादन अधिक तेजी से कम होना।

मुद्रा स्फीति के प्रकार : पूर्ण एवं आंशिक मुद्रास्फीति। यह भेद सर्वप्रथम प्रो० पीगू ने किया था। इसका समर्थन कीन्स ने भी किया। यदि अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार से पहले कीमत वृद्धि हो तो उसे ‘आंशिक मुद्रा स्फीति’ कहते हैं। लेकिन जब अर्थव्यवस्था पूर्ण रोजगार की स्थिति में पहुँच जाए और तब मूल्य स्तर में वृद्धि हो तो उसे ‘पूर्ण मुद्रा स्फीति’ कहते हैं। अर्थव्यवस्था में उपस्थित विभिन्न अपूर्णताओं के कारण से पूर्ण रोजगार से पहले भी मूल्य स्तर में वृद्धि होती है।

माँग जन्य स्फीति (Demand Pull in- flation) : जब अर्थव्यवस्था में प्रचलित बाजार कीमतों पर वस्तुओं तथा सेवाओं की कुल माँग वस्तु बाजारों में इनकी कुल उपलब्ध पूर्ति की तुलना में अधिक होती है तो, सामान्य कीमत स्तर बढ़ने लगता है, जिसे माँग जन्य स्फीति या माँग आधिक्य स्फीति कहते हैं। माँग जन्य स्फीति दो प्रकार के कारकों के कारण उत्पन्न होती है :

(1) माँग में वृद्धि करने वाले कारक एवं
(2) पूर्ति में कमी लाने वाले कारक

माँग में वृद्धि करने वाले कारकों में जनसंख्या में वृद्धि, योजनाओं में अत्यधिक व्यय, मुद्रा की पूर्ति में तीव्र वृद्धि, घाटे की वित्त, बढ़ता शहरीकरण, अर्थव्यवस्था में कालेधन में वृद्धि आदि शामिल हैं। उत्पादन में पूर्ति में कमी लाने वाले प्रमुख कारकों में उत्पादन के साधनों की पूर्ति में कमी, जमाखोरी एवं काला बाजारी, निर्यात में वृद्धि एवं आयात में कमी, प्राकृतिक प्रकोप आदि शामिल हैं। माँग जन्य स्फीति के निम्नलिखित प्रकार हैं:

(क) वस्तु-मुद्रा स्फीति (Commodity Inflation) : उत्पादन में कमी आने के कारण जब सामान्य मूल्य में वृद्धि होती है तो इसे वस्तु स्फीति कहते हैं।

(ख) चलन स्फीति (Currency Inflation) : अर्थव्यवस्था में अधिक मात्रा में धातु एवं पत्र मुद्रा निर्गमित कर देने से मूल्य स्तर में जो वृद्धि की प्रवृत्ति होगी उसे करेंसी स्फीति कहते हैं।

(ग) साख स्फीति (Credit Inflation) : जब अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मात्रा स्थिर रहे, पर सरकार साख सृजन को प्रोत्साहित करे या व्यापारिक बैंक साख का सृजन करते जाए तो इससे उत्पन्न स्फीति को साख स्फीति कहते हैं।

(घ) घाटा प्रोत्साहित स्फीति (Deficit Induced Inflation) : जब सरकार सार्वजनिक व्ययों को पूरा करने के लिए बहुत अधिक मात्रा में घाटे के वित्त का सहारा लेती है, तो इससे मुद्रा की पूर्ति बढ़ जाने के कारण मूल्य स्तर में वृद्धि होगी इसे ‘घाटा प्रोत्साहित स्फीति’ कहा जाता है।

लागत-दबाव मुद्रास्फीति (Cost-Push Inflation) : जब कीमतों में वृद्धि का एकमात्र कारण वस्तुओं की उत्पादन लागत में वृद्धि हो तो उसे लागत प्रेरित स्फीति कहते हैं। लागत जन्य स्फीति में निम्न प्रकार की स्फीति को शामिल किया जाता है।

(A) मजदूरी जन्य स्फीति (Wage Push Inflation) : जब मजदूर सामूहिक सौदेबाजी के कारण या अपने शक्तिशाली श्रम संघों के द्वारा मजदूरी की दर को बढ़वाने में सफल हो जाए, तो इसके कारण लागत में वृद्धि होगी, परिणामस्वरूप मूल्य स्तर भी बढ़ेगा। इस स्थिति को मजदूरी प्रोत्साहित स्फीति कहा जाता है।

(B) आयातित मुद्रा स्फीति (Imposted Inflation) : जब अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में आयात की जाने वाली वस्तुओं की कीमतें बढ़ती हैं तो इससे देश में उत्पादन की लागत बढ़ती है और परिणामस्वरूप कीमत में वृद्धि होती है। इस कीमत वृद्धि को ‘आयातित मुद्रा स्फीति’ कहते हैं।

मुद्रा संकुचन या मुद्रा अवस्फीति या मुद्रा विस्फीति (Deflation) : मुद्रा स्फीति के विपरीत अवस्था को मुद्रा अवस्फीति कहते हैं। क्राऊथर के अनुसार “मुद्रा संकुचन वह स्थिति है जिसमें मुद्रा का मूल्य बढ़ता है और वस्तुओं का मूल्य घटता है”। यह परिभाषा दोषपूर्ण मानी जाती है क्योंकि इससे मूल्यों में होने वाली प्रत्येक गिरावट मुद्रा संकुचन प्रतीत होती है। जबकि कुछ गिरावटें (जैसे मुद्रा स्फीति पर नियंत्रण लगाने से कीमतों में गिरावट) ऐसी होती है जिन्हें मुद्रा अपस्फीति कहा जाता है।

③ मुद्रा-संस्फीति (Reflation) : मुद्रा-संकुचन की स्थिति को सुधारने के लिए जान बूझकर साख और मुद्रा की मात्रा में वृद्धि करके वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्यों में वृद्धि करने का जो कार्य किया जाता है। वह “मुद्रा-संस्फीति” कहलाती है। मुद्रा-संस्फीति हमेशा जान बूझकर मुद्रा संकुचन के कारण बिगड़ी हुई स्थिति में सुधार करने के लिए की जाती है जबकि मुद्रास्फीति प्रायः परिस्थिति के अनुसार होती है।

मुद्रा अपस्फीति (Disinflation) : जब किसी अर्थव्यवस्था में अत्यधिक मुद्रा-स्फीति की दशा उत्पन्न हो जाती है और वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्य निरन्तर तेजी से बढ़ने लगते हैं, तब सरकार मुद्रा-अपस्फीति की नीति अपनाती है। अन्य शब्दों में, मुद्रा-अपस्फीति मुद्रा-प्रसार का उपचार है। इसके माध्यम से स्फीति को इस प्रकार नियंत्रित एवं नियमित किया जाता है कि उत्पादन तथा रोजगार के अन्तर में किसी प्रकार की कमी न हो।

• प्रो. कॉलबोर्न के शब्दों में, “कीमतों, आय तथा व्यय में जो भी लाभकारी गिरावट होगी वह अपस्फीति होगी।” (….a lowering of prices incomes and expenditures, when they would be beneficial, would be disinflation.) संक्षेप में, जब मुद्रा-स्फीति भयंकर एवं प्रचण्ड रूप धारण कर लेती है और कीमतों में अनियन्त्रित वृद्धि होने लगती है तो मुद्रा-स्फीति के द्वारा कीमतों में कमी करके उन्हें सामान्य स्तर पर लाया जाता है।

मुद्रा-अपस्फीति की विशेषताएँ (Fea- tures) : (1) मुद्रा-अपस्फीति सदैव ऐच्छिक होती है। (2) इसके द्वारा कीमतों को सदैव सामान्य स्तर पर लाया जाता है। (3) यह असाधारण आर्थिक स्थिति को इस प्रकार सन्तुलित करती है कि उत्पादन तथा रोजगार में कोई कमी न हो। (4) मुद्रा-अपस्फीति का अर्थशास्त्र पर सदैव ही अनुकूल प्रभाव पड़ता है।

● मुद्रा-अपस्फीति के उपाय (Measures): मुद्रा-अपस्फीति की नीति का परिपालन करते समय सरकार प्रायः निम्न कदम उठाती है-

(1) सरकार नये कर लगाकर अथवा पुराने करों में वृद्धि करके चलन की मात्रा को कम करने का प्रयास करती है।

(2) बचत को प्रोत्साहित किया जाता है जिससे चलन में मुद्रा की मात्रा कम रह जाए।

(3) उत्पादन में यथासम्भव शीघ्रता से वृद्धि की जाती है।

(4) सरकार नये ऋण प्राप्त करती है। सरकारी प्रतिभूतियों का यथासम्भव अधिक से अधि क विक्रय किया जाता है।

(5) अत्यधिक मुद्रा-प्रसार को नियन्त्रित करने के लिए सरकार कभी-कभी विमुद्रीकरण की नीति को अपनाती है।

प्रो० पीगु के अनुसार “मुद्रा विस्फीति वह स्थिति है जबकि वस्तुओं एवं सेवाओं की मात्रा मौद्रिक आय की तुलना में तीव्र गति से बढ़ती है और वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य में निरन्तर गिरावट आती है।

पूँजी बाजार (Capital Market) : पूँजी बाजार मध्यम तथा दीर्घकालीन फण्ड का बाजार है। इसमें शेयरों, ऋणपत्रों, बाण्डों तथा अन्य प्रतिभूतियों को बेचकर मध्यकालीन एवं दीर्घकालीन पूँजी प्राप्त की जाती है।

गिल्ट एज्ड बाजार (Gilt Edged Market) : गिल्ट एज्ड का अर्थ है सर्वोत्तम या उत्कृष्ट। इस बाजार में प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय RBI के माध्यम से किया जाता है। गिल्ट एज्ड बाजार को सरकारी प्रतिभूति बाजार भी कहते हैं क्योंकि इस बाजार में बिकने वाली तथा खरीदी जाने वाली प्रतिभूतियाँ सरकारी तथा अर्द्ध सरकारी होती हैं।

औद्योगिक प्रतिभूति बाजार (Industrial Securities Market)

औद्योगिक प्रतिभूति बाजार (Industrial Securities Market) दो प्रकार का होता है :

1. प्राथमिक बाजार – पूँजी बाजार का वह भाग है जहाँ सभी प्रतिभूतियाँ पहली बार बाजार में बिकने के लिए जाती है। इसमें घरेलू एवं विदेशी फण्ड की उगाही हो सकती है जिसमें कम्पनियों, सरकार तथा वित्तीय मध्यस्थों द्वारा निकाले गए ऋण पत्र, ग्लोबल डिपोजिटरी रिसीट (GDR) अमेरिकन डिपोजिटरी रिसीट (ADR), इंडियन डिपोजिटरी रिसीट (IDR), NRI deposit, विदेशी वाणिज्यिक उधार (FCB), प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, (FII) निवेश सम्मिलत होते हैं।

2. द्वितीयक बाजार – इसमें पुरानी प्रतिभूतियों में व्यापार होता है। इसके अन्तर्गत कानून के अनुसार काम करने वाली रजिस्टर्ड स्टॉक एक्सचेंज आता है।

शेयर (Share)

शेयर (Share): एक लिमिटेड सार्वजनिक कम्पनी की सम्पूर्ण पूँजी को एक निश्चित रकम के हिस्सों में विभाजित किया जाता है, विभाजित हिस्से के एक भाग को शेयर या अंश कहते हैं। कम्पनी अधिनियम 1956 के अनुसार किसी कम्पनी के शेयर दो प्रकार के हो सकते हैं : (क) पूर्वाधिकार शेयर या वरीयता या अधिमान शेयर (Preference Share) (ख) साधारण या समता या इक्विटी शेयर (Equity Share)|

वरीयता अंश वे अंशपत्र होते हैं जिन्हें सामान्य या समता अंशों के तुलना में लाभांश प्राप्ति के संबंध में वरीयता अधिकार होता है अर्थात् इन्हे लाभांश देने के बाद ही समता वाले को लाभांश मिलता है। यदि कम्पनी दिवालिया हो जाए तो समापन के समय भी इन्हे वरीयता प्राप्त होती है लेकिन इन्हें मताधिकार प्राप्त नहीं होता है।

साधारण या समता या इक्विटी शेयर वे हैं जिन्हें कम्पनी से मताधिकार प्राप्त होता है। इन्हें लाभांश प्राप्ति की कोई वरीयता नहीं प्राप्त होती है।

अधिकांश शेयरों में दो मूल्य पाया जाता है (1) शेयर पर अंकित मूल्य एवं (2) जिस मूल्य पर शेयर को कम्पनी बेचती है अर्थात् आवंटित मूल्य।

• ऋणपत्र (Debenture) : यह एक अभिलेख या प्रपत्र होता है जिसके आधार पर कम्पनियाँ ऋण प्राप्त करती हैं। ऋणपत्र धारी कम्पनी का लेनदार होता है। ऋणपत्र धारी को कम्पनी के लाभ हानि से मतलब नहीं होता है उसे अंकित ब्याज पाने का पूर्ण अधिकार होता है। यह दीर्घकालीन होता है।

• बाँड (Bond) : यह भी ऋणपत्र की ही तरह एक प्रतिभूति होती है जो कि अल्पकालीन होती है।

बुल तथा बीयर : बाजार में भाग लेने वाले ऐसे लोगों जैसे कि ब्रोकर जो यह उम्मीद करते हैं कि भविष्य में बाजार मूल्य ऊपर उठेगा जिससे पूँजी लाभ की संभावना बढ़ेगी उन्हें Bull या तेजड़िया कहते हैं जबकि बाजार कीमत गिरने की संभावना करने वाले भागीदार को बीयर या मन्दड़िया कहते हैं। तेजड़िया की गतिविधि को लिवाली तथा मंदड़िया की गतिविधि को बिकवाली कहते हैं।

अल्फा शेयर : जिन शेयरों में सामान्यतः काफी अधिक कारोबार होता है उन्हे अल्फा शेयर की संज्ञा दी जाती है। ए श्रेणी तथा ब्लूचिप शेयर को अल्फा शेयर की संज्ञा दी जाती है लेकिन कई बी श्रेणी के शेयर जो कि ए की तरह विशिष्ट नहीं होते हैं उनमें भी अक्सर अधिक कारोबार होता है।

ब्रोकर एवं सबब्रोकर : ये शेयरों के खरीदने एवं बेचे जाने के लिए एजेन्ट होते हैं।

• म्युचुअल फण्ड : अधिकांश निवेशकों में पूँजी बाजार की जटिलताओं को समझने की क्षमता नहीं होती है जिससे छोटे निवेशक बचत नहीं कर पाते हैं। म्युचुअल फण्ड एक निवेश वित्तीय मध्यस्थ होता है जिससे छोटे निवेशकों की बचत का गतिशीलन किया जाता है। यूनिट ट्रस्ट ऑफ इण्डिया जिसे 1964 ई. में संसद के विशेष अधिनियम के अंतर्गत स्थापित किया गया भारत का प्रथम म्युचुअल फण्ड है इस पर आयकर नहीं देना पड़ता है।

शेयर का पुन:क्रय (Buyback of Shares):

• शेयर का पुन:क्रय (Buyback of Shares): किसी कम्पनी द्वारा अपने ही अंशों का अंशधारियों से बाजार में क्रय किया जाना शेयर का पुनःक्रय कहलाता है।

• ब्लूचिप शेयर : अत्यधिक ख्याति वाली कम्पनियों के शेयर को ब्लूचिप शेयर कहते हैं। इन्हें ग्रोथ शेयर भी कहते हैं।

• इनसाईडर ट्रेडिंग (भेदिया कारोबार) : इनसाईडर, कम्पनी की गोपनीय स्थिति से परिचित रहते हैं इनसे लाभ उठाकर ट्रेडिंग करना ही इनसाईडर ट्रेडिंग कहलाता है जोकि वैधानिक नहीं है।

• ब्रिजलोन (Bridge Loan) : कम्पनियाँ प्रायः अपनी पूँजी का विस्तार करने के लिए नये शेयर तथा डिबेंचर्स जारी करती रहती हैं। कंपनी को शेयर जारी करने के बाद पूँजी जुटाने में कई माह का समय लग जाता है इस अवधि में अपना काम जारी रखने के लिए बैंकों से ये अंतरिम अवधि के लिए ऋण लेते हैं इस प्रकार के ऋण ब्रिज लोन कहलाते हैं।

• हंग अप : जब कोई निवेशक अपने शेयरों को भविष्य में बेचने के लिए अपने पास इस आशा से रख लेता है कि भविष्य में शेयरों के भाव बढ़ेंगे तो इस स्थिति को हंग अप कहते हैं।

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निष्कर्ष:

हम आशा करते हैं कि आपको यह पोस्ट मुद्रा (Money) जरुर अच्छी लगी होगी। इसके बारें में काफी अच्छी तरह से सरल भाषा में मुद्रा (Money) के बारे में समझाया गया है। अगर इस पोस्ट से सम्बंधित आपके पास कुछ सुझाव या सवाल हो तो आप हमें कमेंट बॉक्स में ज़रूर बताये। धन्यवाद!

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

2 thoughts on “मुद्रा (Money): मुद्रा के मूल्य में उतार चढ़ाव”

  1. ऐसा ही स्टडी मटेरियल पढ़ाई के लिए चाहिए था। धन्यवाद आपका

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