अर्थशास्त्र | Economics |

अर्थशास्त्र (Economics)

“अर्थशास्त्र एक विज्ञान है जो मानव व्यवहार के संदर्भ में उपलब्ध वैकल्पिक साधनों एवं उनके उद्देश्यों के मध्य सह-संबंधों का अध्ययन करता है।” इस प्रकार अर्थशास्त्र एक विषय वस्तु है जो दुर्लभ संसाधनों के विवेकशील प्रयोग पर इस प्रकार केंद्रित है कि जिससे हमारा आर्थिक कल्याण अधिकतम हो।

अर्थशास्त्र को विस्तृत रूप से दो भागों में वर्गीकृत किया गया है (i) व्यष्टि अर्थशास्त्र (ii) समष्टि अर्थशास्त्र।

व्यष्टि अर्थशास्त्र ( Micro Economics) : जब आर्थिक समस्याओं अथवा आर्थिक मुद्दों का अध्ययन व्यक्तिगत उपभोक्ता या व्यक्तिगत उत्पादक जैसी छोटी आर्थिक इकाईयों को ध्यान में रखकर किया जाता है तब हमारा अभिप्राय व्यष्टि अर्थशास्त्र से है। एक व्यक्तिगत आर्थिक इकाई (जैसे एक उत्पादक या एक उपभोक्ता) के स्तर पर आधारभूत आर्थिक समस्या चयन की समस्या है जो दुर्लभ या सीमित संसाधनों के बैकल्पिक उपयोगों में बँटवारे से संबंधित है।

• व्यष्टि अर्थशास्त्र के मुख्य घटक हैं-

(i) उपभोक्ता व्यवहार सिद्धांत (Theory of Consumer Behaviour) : यह सिद्धांत विश्लेषण करता है कि एक उपभोक्ता कैसे अपनी आय को विभिन्न प्रयोगों में आवंटित करता है ताकि वह अपनी संतुष्टि को अधिकतम कर सके।

(ii) उत्पादक व्यवहार सिद्धांत (Theory of Producer Behaviour) : यह सिद्धांत विश्लेषण करता है कि एक उत्पादक कैसे भिन्न-भिन्न आगतों का चुनाव करता है तथा यह निर्णय लेता है कि क्या उत्पादन करना है तथा कैसे उत्पादन करना है। उत्पादक, लाभ को अधिकतम करने पर अपना ध्यान केंद्रित करता है।

(iii) कीमत सिद्धांत (Theory of Price) : यह सिद्धांत अध्ययन करता है कि वस्तु बाजार में वस्तुओं की कीमत कैसे निर्धारित होती है तथा साधन बाजार में उत्पादन के साधनों की कीमत कैसे निर्धारित होती है।

② समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics): समष्टि अर्थशास्त्र संपूर्ण अर्थव्यवस्था के स्तर पर आर्थिक समस्याओं अथवा आर्थिक मुद्दों का अध्ययन करता है। व्यष्टि-अर्थशास्त्र की भांति समष्टि अर्थशास्त्र में भी दुर्लभ संसाधनों का विवेकशील प्रबंधन ही मुख्य समस्या है। समष्टि अर्थशास्त्र में सामाजिक कल्याण अधिकतम करने पर बल दिया जाता है न कि व्यक्तिगत लाभ को अधिकतम करने पर।

• समष्टि अर्थशास्त्र के मुख्य घटक निम्न हैं-

(i) संतुलित उत्पाद तथा रोजगार स्तर से संबंधित सिद्धांत (Theory related to equilibrium level of output and employment): यह सिद्धांत विश्लेषण करता है कि AD = AS की स्थिति में अर्थव्यवस्था में संतुलन कैसे प्राप्त होता है।

(ii) अर्थव्यवस्था में स्फीतिक तथा अवस्फीतिक अंतराल से संबंधित सिद्धांत (Theory related to Inflationary and Deflationary gap in the economy) : पूर्ण रोजगार संतुलन उत्पादन स्तर से कम या अधिक होने की स्थिति में कैसे स्फीतिक तथा अवस्फीतिक अंतराल उत्पन्न होता है।

(iii) गुणक सिद्धांत (Theory of Multiplier) : अर्थव्यवस्था में निवेश व्यय के कारण आय सृजन प्रक्रिया का अध्ययन इस सिद्धांत में किया जाता है।

(iv) राजकोषीय तथा मौद्रिक नीतियाँ (Fiscal and Monetary Policies) : अर्थव्यवस्था में स्फीतिक तथा अवस्फीतिक अंतराल जैसे अस्थिर आर्थिक अवस्थाओं से निपटने के लिए राजकोषीय तथा मौद्रिक नीतियों का प्रयोग किया जाता है।

(v) मुद्रा पूर्ति तथा साख सृजन (Money Supply and Credit Creation) : इसमें मुद्रापूर्ति के संघटकों तथा साख सृजन प्रक्रिया के माध्यम से व्यावसायिक बैंक कैसे मुद्रापूर्ति में वृद्धि करते हैं इसका अध्ययन किया जाता है।

(vi) सरकारी बजट (Government Budget) : सरकारी बजट विश्लेषण बजटीय घाटे के माप तथा अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभाव पर केंद्रित है।

(vii) विनिमय दर तथा भुगतान शेष (Exchange rate and BOP) : इसमें अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बाजार में विनिमय दर कैसे निर्धारित होता है तथा भुगतान शेष घरेलू अर्थव्यवस्था की आर्थिक क्रियाओं के स्तर को कैसे प्रभावित करता है इसका विश्लेषण किया जाता है।

माँग (Demand)

माँग (Demand) : किसी वस्तु के लिए माँग से अभिप्राय वस्तु को खरीदने की उस इच्छा से है जिसके लिए पर्याप्त क्रयशक्ति है और खर्च करने की तत्परता है। मूल्य का माँग के साथ सम्बन्ध अर्थशास्त्र में माँग का नियम (Law of demand) कहलाता है। यह नियम बतलाता है कि यदि अन्य बातें समान रहें तो किसी वस्तु या सेवा की कीमत में वृद्धि होने पर उसकी माँग घटती है तथा कीमत में कमी होने पर उसकी माँग बढ़ती है। इस नियम का प्रतिपादन अल्फ्रेड मार्शल ने किया था।

माँग का नियम तभी लागू होता है “जब अन्य बातें समान हों” इसका अभिप्राय यह है कि वस्तु की अपनी कीमत के अतिरिक्त माँग को प्रभावित करने वाले अन्य तत्वों को स्थिर मान लिया जाता है अत: क्रेता के आय एवं रुचियों में परिवर्तन नहीं होना चाहिए साथ ही संबंधित वस्तुओं के कीमत में परिवर्तन नहीं होना चाहिए। माँग के नियम के कुछ अपवाद भी हैं। इसका अर्थ यह है कि कुछ वस्तुओं की कीमत अधिक होने पर उनकी माँग बढ़ जाती है तथा कीमत कम होने पर उनकी माँग कम हो जाती है।

● प्रतिष्ठा सूचक वस्तु (Articles of Dis- tinction) : कुछ ऐसी वस्तुएँ होती हैं जिससे सामाजिक प्रतिष्ठा मिलती हैं। इन वस्तुओं की माँग अधिक होती है क्योंकि इनकी कीमतें बेहद अधिक होती हैं। यदि इनकी कीमत कम हो जाती हैं तो इन्हें प्रतिष्ठा सूचक वस्तुएँ नहीं माना जाता है। यह माँग के नियम की अवहेलना करती है। मूल्यवान हीरे, पुरानी कारें आदि इसके उदाहरण हो सकते हैं।

● गिफेन वस्तुएँ (Giffen Goods) : कुछ ऐसी निम्न वस्तुएँ जिन पर उपभोक्ता अपनी आय का बड़ा भाग व्यय करता है। ऐसी वस्तुओं की कीमत कम होने पर इनकी माँग भी कम हो जाती है। इन वस्तुओं पर माँग के नियम का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इनके मूल्य में वृद्धि से इनकी माँग में भी वृद्धि हो जाती है तथा मूल्य में कमी से माँग में भी कमी हो जाती है। ऐसी वस्तुओं को गिफेन वस्तु कहते हैं। इसका प्रतिपादन रॉबर्ट गिफेन ने किया था।

● माँग की लोच : मूल्य में परिवर्तन की अनुक्रिया में किसी वस्तु की माँग में होने वाले परिवर्तन को जैसे मूल्य में 5% की कमी के कारण माँग में 15% की वृद्धि, हम माँग की लोच कहते हैं। मार्शल, जॉन, रॉबिन्सन आदि विद्वान इससे संबंधित हैं। जब मूल्य में कमी माँग में अपेक्षाकृत अधिक अनुपात में वृद्धि लाती है तो ऐसी वस्तुओं को हम लोचदार वस्तु कहते हैं। ऐसी वस्तुएँ सामान्यतया विलासिता की वस्तुएँ होती हैं। जब मूल्य में कमी माँग में अपेक्षाकृत कम अनुपात से वृद्धि लाती है।

उपयोगिता (Utility)

उपयोगिता (Utility) : प्रत्येक वस्तु में व्यक्ति की किसी न किसी आवश्यकता की संतुष्टि की क्षमता होती है। इस संतुष्टि की क्षमता को ही हम वस्तु की उपयोगिता कहते हैं। किसी वस्तु से मिलने वाली उपयोगिता व्यक्ति की आवश्यकता की तीव्रता (Intensity) पर निर्भर करती है। इसलिए जैसे-जैसे व्यक्ति किसी वस्तु की अधिक इकाइयों का उपभोग करते हैं, आवश्यकता की तीव्रता कम होती जाती है। तीव्रता कम होने के साथ ही उपयोगिता क्रमशः घटती जाती है। इसे क्रमागत उपयोगिता हास नियम (Law of Diminishing Utility) कहते हैं।

उपभोग के दौरान वस्तु की विभिन्न इकाइयों से जो उपयोगिता मिलती है उनका योग कुल उपयोगिता कहलाता है।

यदि वस्तु की कुल उपयोगिता को वस्तु की इकाइयों की संख्या से भाग दें तो हमें औसत उपयोगिता प्राप्त होती है। वस्तु की किसी इकाई की वृद्धि के कारण कुल उपयोगिता मे जो वृद्धि होती है। उसे हम उस इकाई की सीमान्त उपयोगिता (Marginal Utility) कहते हैं।

उपभोक्ता संतुलन (Consumer’s equilibrium) : उपभोक्ता संतुलन एक ऐसी स्थिति है जिसमें एक उपभोक्ता अपनी सीमित आय को विभिन्न वस्तुओं पर व्यय करके अधिकतम संतुष्टि प्राप्त करता है।

उत्पादन (Production) :

उत्पादन (Production) : जिस क्रिया के द्वारा किसी वस्तु या सेवा में उपयोगिता का सृजन किया जाता है उसे उत्पादन कहते हैं। यह रूप परिवर्तन, स्थान परिवर्तन या समय परिवर्तन के द्वारा हो सकता है, धान (चावल) खेत में पैदा करना, चावल को गाँव के किसान से क्रय करके शहर की मण्डी में ले जाना अथवा चावल को दो वर्ष तक रखकर उसे पुराने चावल (जो अच्छा माना जाता है) के रूप में बेचना सभी क्रियाएँ। अलग-अलग ढंग से उपयोगिता का सृजन करती हैं। इसलिए यह उत्पादन कहलाता है।

उपभोग (Consumption) : किसी वस्तु में निहित उपयोगिता को समाप्त करना या उसमें कमी लाना उपभोग कहलाता है। उपभोग के लिए उत्पादन होता है।

● उत्पादन फलन (Production Function) : किसी उत्पादन क्रिया में जो उत्पादन प्राप्त होता है वह उत्पादन क्रिया में प्रयुक्त लागतों या साधनों के प्रयोग का परिणाम होता है। उत्पादन और साधनों की मात्रा के बीच जो तकनीकी फलनात्मक (आश्रितता) संबंध होता है उसे उत्पादन फलन कहते हैं।

उत्पादन फलन का अर्थ (Meaning of Pro- duction Function) : एक फर्म, उत्पादन की आधारभूत इकाई होती है, जो उत्पादन के विभिन्न साधनों जैसे भूमि, मजदूर, पूंजी तथा उद्यम के सहयोग से उत्पादन पैदा करती है। अतः उत्पादन आगतों का उत्पाद में रूपान्तरण है। यह केवल भौतिक वस्तुओं के उत्पादन जैसे अनाज, कपड़े आदि को ही सम्बोधित नहीं करता, बल्कि इसमें डॉक्टर, वकील आदि की सेवाओं के उत्पादन को भी शामिल किया जाता है।

फर्गुसन के अनुसार, “वस्तु या उत्पाद अथवा उत्पादन का अर्थ एक फर्म द्वारा निश्चित समय अवधि में पैदा की जाने वाली वस्तुओं के आकार से है” (Product or output or production means the volume of goods produced by a firm during a specific pe- riod of time – Ferguson)। किन्तु वास्तव में उत्पादन फलन, उत्पादन के साधनों तथा उत्पाद की मात्रा में पाए जाने वाले सम्बन्ध की व्याख्या करता है। इसे साधारण तौर पर आगत-उत्पाद सम्बन्ध (Input-output Re- lationship) कहा जाता है।

कौतसुयानिस के अनुसार, “उत्पादन फलन शुद्ध रूप से एक तकनीकी सम्बन्ध है, जो आगत तथा उत्पाद को परस्पर जोड़ता है”(The production function is purely atechnical relation which connects fac-tor inputs and outputs. – Koutsoyiannis)। यह वास्तव में एक भौतिक सम्बन्ध होता है, जो वस्तुओं की कीमतों को छोड़कर, निश्चित समय की इकाई में, फर्म के उत्पादन के साधनों तथा वस्तुओं और सेवाओं के बीच में पाया जाता है।

प्रो. वाटसन के अनुसार, “एक फर्म में भौतिक उत्पादन तथा भौतिक साधनों के सम्बन्ध को उत्पादन फलन का नाम दिया जाता है” (Production function is the name of relation between physical in- ut and physical output of a firm.

उत्पादन के साधन (Factors of Production) : उत्पादन में सहयोग करने वाले विभिन्न घटकों/साधनों को CELL के नाम से जाना जाता है जहाँ CELL का अर्थ है : C -Capital, E – Entrepreneur, L – Land, L – Labour, इनको उत्पादन में सहयोग करने के बदले में प्रतिफल प्रदान किए जाते हैं। भूमि (Land) को किराया, मजदूर (Labour) को मजदूरी, किराया पूँजी (Capital) को ब्याज तथा उद्यमी (Entrepreneur) को लाभ प्रदान किया जाता है।

1. किराया/लगान (Rent)

प्रो. स्टोनियर एवं हेग के अनुसार, “लागत से आशय उन उत्पादन साधनों को किए गए भुगतानों से है जिनकी पूर्ति पूर्णतया लोचदार नहीं होती-

• लगान के तीन स्वरूप होते हैं- (i) कुल लगान (Gross Rent), (ii) वास्तविक आर्थिक लगान (Real Economic Rent), (iii) प्रविदा (ठेके का) लगान (Contract Rent)

① कुल लगान (Gross Rent): व्यावहारिक जीवन में लगान शब्द का प्रयोग हम जिस अर्थ में करते हैं वहीं अर्थशास्त्रीय दृष्टि से कुल लगान (Gross Rent) है। कुल लगान में निम्नलिखित तत्वों का समावेश होता है-

(i) आर्थिक लगान
(ii) भूमि की उन्नति पर व्यय की गयी राशि का ब्याज
(iii) भूमिपति के जोखिम का प्रतिफल तथा
(iv) भूमि की प्रबन्ध व्यवस्था का प्रतिफल।

② आर्थिक लगान (Economic Rent): आर्थिक लगान एक आधिक्य या बचत के रूप में प्राप्त होता है (Economic rent is of the nature of surplus)। इसमें अन्य तत्त्व जैसे भूमि के की उन्नति पर व्यय की जाने वाली धनराशि का Π ब्याज, भूमिपति को जोखिम का पुरस्कार, भूमि प्रबन्ध का पुरस्कार आदि शामिल नहीं होते। इस प्रकार आर्थिक लगान कुल लगान का एक अंश हुआ।

• प्रो. रिकार्डो ने श्रेष्ठ भूमि की लागत तथा सीमान्त भूमि की लागत के अन्तर को आर्थिक लगान की माप माना था।

• आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार केवल भूमि ही नहीं वरन उत्पादन के अन्य साधन भी आर्थिक लगान प्राप्त कर सकते हैं। उनकी दृष्टि में आर्थिक लगान साधन की अवसर लागत (Opportunity Cost) के ऊपर आधिक्य या बचत (Saving) है।

③ ठेके का लगान (Contract Rent) : ठेके का लगान किस बिन्दु पर निर्धारित होगा, यह दोनों पक्षों की सौदा करने की शक्ति (Bargain- ing Power) पर निर्भर करता है। यदि भूमिपति अधिक शक्तिशाली है तो ठेके का लगान (प्रसंविदा लगान) प्रायः ऊँचा निर्धारित होता है। यह लगान आर्थिक लगान की तुलना में कम, ज्यादा या उससे बराबर हो सकता है क्योंकि इसके निर्धारण में माँग एवं पूर्ति की शक्तियाँ मुख्य भूमिका अदा करती हैं। जब ठेके का लगान परिस्थितिवश आर्थिक लगान (Economic Rent) से बहुत ऊँचा निर्धारित हो जाता है तो उसे अत्यधिक लगान कहा जाता है।

2. मजदूरी (Wages)

(i) प्रो. मार्शल के अनुसार, “श्रम की सेवा के लिए दिया गया मूल्य मजदूरी है।”

(ii) प्रो. सैलिगमैन के अनुसार “श्रम का वेतन मजदूरी है।”

• संक्षेप में, मजदूरी एक प्रकार का पुरस्कार है जो मनुष्य के परिश्रम के बदले में दिया जाता है चाहे वह प्रति घंटा, प्रतिदिन या समयानुसार दिया जाए और चाहे उसका भुगतान मुद्रा या वस्तुओं या दोनों के रूप में हो। मजदूरी दो प्रकार की होती है : (क) नकद या द्राव्यिक मजदूरी (Nominal Wages) तथा (ख) वास्तविक मजदूरी (Real Wages)

नकद मजदूरीवास्तविक या असल मजदूरी
1. यह मुद्रा में व्यक्त की जाती है।1. यह वस्तुओं में व्यक्त की जाती है।
2. इसमें वस्तुओं एवं सेवाओं का क्रय करके उनका उपभोग किया जाता है।2. यह वस्तुओं, सेवाओं एवं सुविधाओं का सम्मिलित रूप होता है।
3. यह श्रमिकों की वास्तविक स्थिति पर प्रकाश नहीं डालता।3. इससे श्रमिक की वास्तविक स्थिति का ज्ञान होता है।
4. नकद मजदूरी पर द्रव्य में व्यक्त होने के कारण मूल्य का प्रभाव नहीं पड़ता।4. यदि मूल्य स्तर ऊँचा हो जाता है तो वास्तविक मजदूरी कम हो जाती है क्योंकि नकद मजदूरी से तब कम वस्तुओं एवं सेवाओं का ही क्रय हो पाता है।

3. ब्याज (Interest)

ब्याज वह मौद्रिक भुगतान है जो पूँजीपति को पूँजी के उपभोग के बदले में प्राप्त होता है। ब्याज की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं:

(i) प्रो. मार्शल के अनुसार, “किसी ऋणी द्वारा ऋण के प्रयोग के बदले में किया गया भुगतान ब्याज कहलाता है।” (The payment made by a bor- rower for the use of a loan is called interest.)

(ii) प्रो. सैलिगमैन के अनुसार, “ब्याज पूँजी के कोष से प्राप्त आय है।” (Interest is the return from the fund of Capital.)

(iii) प्रो. मेयर्स के अनुसार, “ब्याज वह कीमत है जो ऋण योग्य कोषों के प्रयोग के लिए दी जाती है।” (Inter- est is the price paid for the use of loanable funds.)

(iv) प्रो. कार्बर के अनुसार, “ब्याज एक निश्चित अवधि के लिए तरलता के परित्याग का भुगतान है।” (Interest is the reward for parting with li- quidity for a specified period.)

4. लाभ (Profit)

किसी भी अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलायमान रखने के लिए उसकी व्यावसायिक गतिविधियों में लाभ का उपार्जन होना अति आवश्यक है। लाभ के विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए लाभ के सिद्धातों को समझना आवश्यक है, जो कि निम्न प्रकार से हैं-

लाभ के सिद्धान्त (Theories of Profit)

(1) लाभ का लगान सिद्धान्त (Rent Theory of Profit) : इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रो. वाकर ने किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार, “लाभ योग्यता का लगान है।” यह सिद्धान्त रिकार्डों के लगान सिद्धान्त की भाँति ही है। जिस प्रकार श्रेष्ठ और सीमान्त भूमियाँ होती हैं, उसी प्रकार श्रेष्ठ और सीमान्त साहसी होते हैं। सीमान्त साहसी का आशय ऐसे साहसी से है जो कि अपनी वस्तु बेचकर केवल वस्तु की लागत ही प्राप्त कर पाता है, उसे कुछ भी लाभ नहीं प्राप्त है। श्रेष्ठ साहसी कम लागत पर वस्तु उत्पादित करते हैं तथा कीमत और लागत के अंतर के कारण बचत या लाभ प्राप्त करते हैं। इस लाभ की मात्रा साहसियों की योग्यता पर निर्भर करती है। इसीलिए वाकर ने लाभ को योग्यता का लगान कहा है। इस प्रकार इस सिद्धान्त के अनुसार लगान लाभ की भाँति, एक भेदात्मक बचत है जो कि श्रेष्ठ साहसियों को प्राप्त होता है। एक बचत होने के कारण ही लाभ लगान की भाँति मूल्य का निर्धारण नहीं करता वरन् स्वयं मूल्य में निर्धारित होता है।

(2) लाभ का मजदूरी सिद्धान्त (Wage Theory of Profit): इस सिद्धान्त के समर्थकों में टॉजिक तथा डेवनपोर्ट प्रमुख हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार लाभ मजदूरी का ही एक रूप है। टॉजिक के शब्दों में, “लाभ केवल संयोगवश प्राप्त नहीं होते, इनके लिये एक विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता है, यह श्रम उसी प्रकार का होता है, जैसा कि वकील या निर्णायकों का श्रम।”

• लाभ तथा निरंतर सफलता के लिये व्यवसायी में कुछ विशेष गुण, जैसे संगठन एवं प्रबन्ध की कुशलता, दूरदर्शिता, निर्णय लेने की क्षमता आदि अनिवार्य होते हैं। इन गुणों का उपयोग मानसिक श्रम ही तो है अतः दोनों वर्गों के श्रम के प्रतिफल के निर्धारण के लिये मजदूरी का सिद्धान्त समान रूप से लागू होता है।

(3) लाभ का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त (Marginal Productivity Theory ( of Profit) : मार्शल द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त के अनुसार लाभ साहसी की सीमान्त उत्पादकता द्वारा निर्धारित होता है। उत्पत्ति के अन्य साधनों की भाँति साहस की भी एक सीमान्त उत्पादकता होती है तथा लाभ इसी सीमान्त उत्पादकता के बराबर होता है। अत: साहस की सीमान्त उत्पादकता जितनी अधिक होगी, लाभ उतना ही अधिक होगा।

(4) लाभ का जोखिम सिद्धान्त (The Risk Theory of Profit) : हॉले द्वारा प्रतिपादित तथा मार्शल द्वारा समर्थित इस सिद्धान्त के अनुसार लाभ जोखिम उठाने का पुरस्कार है। जोखिम उठाने का आशय सभी प्रसंविदागत भुगतानों (Contractual Outlays) के पश्चात् बची राशि को लेने के लिये सहमत होना है। यह एक अरुचिकर और जोखिमपूर्ण कार्य होता है क्योंकि सभी प्रसंविदागत भुगतानों के पश्चात् बची राशि कम अथवा ऋणात्मक भी हो सकती है। अतः व्यवसाय में इस अरुचिकर कार्य के लिये साहसी पुरस्कार स्वरूप लाभ प्राप्ति की आशा से ही सहमत होता है।

• आधुनिक युग में एक साहसी व्यवसाय में अपनी पूँजी विनियोजित करता है तथा भविष्य की माँग के पूर्वानुमान के आधार पर अपनी वस्तु का उत्पादन करता है। यदि माँग, लागत, कीमत आदि के उसके पूर्वानुमान सही निकलते हैं तो उसे लाभ होता है, अन्यथा हानि। कोई भी व्यक्ति इस जोखिम को उठाने के लिये तब तक तैयार नहीं होगा जब तक कि उसे इसके लिये कुछ पुरस्कार प्राप्ति की आशा न हो। अत: जोखिम उठाना साहसी का एक विशिष्ट कार्य है तथा लाभ जोखिम उठाने का पुरस्कार है।

• चूँकि विभिन्न व्यवसायों में निहित जोखिम की मात्रा में अन्तर होता है, इसलिये उनमें साहसियों के लाभ की मात्रा में भी अन्तर पाया जाता है। जिन व्यवसायों में अधिक जोखिम होता है, उनमें लाभ के अवसर अधिक होंगे तथा जिनमें जोखिम कम होता है, उनमें कम लाभ प्राप्त होता है।

(5) लाभ का अनिश्चितता वहन सिद्धान्त (The Uncertainty Bearing Theory of Profit) : प्रो. नाइट ने जोखिम सिद्धान्त से अलग – अनिश्चितता सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए लिखा = है कि लाभ ‘बीमा अयोग्य जोखिमों’ अर्थात् ‘अनिश्चितताओं’ को उठाने का पुरस्कार है तथा लाभ की मात्रा अनिश्चितता उठाने की मात्रा पर निर्भर करती है।

(6) लाभ का प्रावैगिक सिद्धान्त (Dy- namic Theory of Profit) : प्रो. जे. बी. क्लार्क द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त के अनुसार लाभ परिवर्तनों का परिणाम है और वह केवल प्रावैगिक अर्थव्यवस्था में ही प्राप्त होता है, स्थिर अर्थव्यवस्था में नहीं। प्रावैगिक अर्थव्यवस्था वह है जहाँ जनसंख्या, पूँजी की मात्रा, उपभोक्ताओं की रुचियों, इच्छाओं आदि में परिवर्तन के साथ-साथ उत्पादन की रीतियों तथा औद्योगिक इकाइयों के रूपों में निरंतर परिवर्तन के साथ-साथ उत्पादन की रीतियों तथा औद्योगिक इकाइयों के रूपों में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप केवल कुशल साहसी ही प्रतियोगिता में जीवित रह पाते हैं। अकुशल साहसी या तो हट जाते हैं या अपेक्षाकृत बहुत कम लाभ कमाते हैं। स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था के आधारभूत परिवर्तन ही मूल्य और उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन करके लाभ कमाता है।

• एक स्थिर अर्थव्यवस्था में लाभों का होना सम्भव नहीं होता क्योंकि परिवर्तनों की पूर्ण अनुपस्थिति में आर्थिक भविष्य स्पष्टतया दिखाई देने लगता है और इसलिए अनिश्चितता न होने के कारण कोई लाभ प्राप्त नहीं होता।

(7) लाभ का नव-प्रवर्तन सिद्धांत (In- novation Theory of Profit) : शुम्पीटर द्वारा प्रतिपादित लाभ का यह सिद्धान्त क्लार्क के प्रावैगिक सिद्धांत से अधिक व्यापक है। उनके शब्दों में, “लाभ साहसी के कार्य का प्रतिफल है अथवा वह जोखिम, अनिश्चितता तथा नवप्रवर्तन के लिये किया जाने वाला भुगतान है।” इस सिद्धान्त के अनुसार लाभ प्रावैगिक दशा में उत्पन्न होता है। परन्तु लाभ का कारण नवप्रवर्तन होता है। एक साहसी नवप्रवर्तन का आशय उत्पादन विधियों या उपभोक्ता रुचियों में किसी उद्देश्यपूर्ण परिवर्तन से होता है जो कि राष्ट्रीय उत्पादन को इसकी लागतों में वृद्धि से अधिक बढ़ावा है।

• पुरानी मशीनों के स्थान पर नवीन मशीनों एवं तकनीकों का प्रयोग करना, कच्चे माल के उपयोग में मितव्ययिता लाना, वस्तु विक्रय के नये-नये बाजार खोजना, विक्रय और वितरण के तरीकों में सुधार लाना, वस्तु के रूप, रंग एवं डिजाइन में ग्राहकों की रुचि के अनुसार परिवर्तन करना, नये उत्पाद का विकास आदि से नव-प्रवर्तक का नई वस्तु पर एकाधिकार रहता है जिससे वह अधिक मूल्य वसूल करने में सफलता प्राप्त करता है। अतः नव-प्रवर्तन द्वारा व्यवसायी मूल्य और लागत का अन्तर करके लाभ प्राप्त करता है।

बाजार (Market) :

बाजार (Market) : बाजार का आशय किसी उद्योग विशेष में व्याप्त प्रतियोगिता की प्रकृति, स्थिति अथवा रूप से होता है। इसके अन्तर्गत न केवल वर्तमान में किसी वस्तु के क्रय-विक्रय में लगी फर्मों और व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाता है वरन् सम्भावी प्रवेशक (Potential Entrnts) भी इसमें शामिल होते हैं। बाजारों में प्रतियोगिता की अनेक स्थितियाँ पाई जाती हैं इन्हीं के आधार पर बाजारों का वर्गीकरण किया गया है जो कि निम्न प्रकार हैं-

(A) पूर्ण प्रतियोगिता (Perfect Competition): पूर्ण प्रतियोगिता बाजार के उस रूप को कहते हैं जहाँ किसी वस्तु के क्रेता तथा विक्रेता बड़ी संख्या में होते हैं। समरूप वस्तु को बेचा जाता है तथा किसी एक फर्म का वस्तु की कीमत पर कोई नियंत्रण नहीं होता। पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत वस्तु का मूल्य समूचे उद्योग के कुल माँग और कुल पूर्ति द्वारा निर्धारित होता है।

(B) एकाधिकार (Monopoly): एकाधिकार बाजार का ऐसा रूप है जिसमें वस्तु का केवल एक उत्पादक या विक्रेता होता है। एकाधिकार वाली वस्तु का कोई निकटतम प्रतिस्थापन नहीं होता तथा नई फर्मों के एकाधिकार बाजार में प्रवेश पाने पर कानूनी, तकनीकी अथवा प्राकृतिक प्रतिबंध होते हैं। एक एकाधिकारी का कीमत पर पूर्ण नियंत्रण होता है और वह कीमत विभेद भी कर सकता है।

(C) एकाधिकारी प्रतियोगिता (Monopolistic Competition)

एकाधिकृत प्रतियोगिता का आशय : (Meaning of Mono-polistic Competition) : इस स्थिति का विचार सर्वप्रथम प्रो. चैम्बरलिन ने प्रस्तुत किया। यह अपूर्ण प्रतियोगिता की वह स्थिति होती है जिसमें भिन्नित (न कि समरूप), किन्तु मिलती-जुलती वस्तुओं को बेचने वाली बहुत-सी छोटी-छोटी फमैं होती हैं। इसमें एक और वस्तु-विभेद के कारण प्रत्येक विक्रेता अपने क्षेत्र में एक छोटा-सा एकाधिकारी होता है तथा एक सीमा तक वह वस्तु की कीमत को प्रभावित कर सकता है। दूसरी ओर वस्तुओं के मिलती-जुलती होने के कारण विक्रेताओं में तीव्र प्रतियोगिता भी होती हैं, यद्यपि वह पूर्ण नहीं होती। इस प्रकार इसमें एकाधिकार तथा प्रतियोगिता के तत्व एक साथ पाये जाते हैं।

प्रो. मैकोनल के शब्दों में, “एकाधिकारिक या एकाधिकृत प्रतियोगिता सही रूप में एकाधिकार तथा प्रतियोगिता के मिश्रण को व्यक्त करती है, अधिक विशिष्ट रूप में एकाधिकारिक प्रतियोगिता में एकाधिकारी शक्ति की न्यून मात्रा के साथ प्रतियोगिता की कुछ अधिक मात्रा का अन्तर्मिश्रण निहित होता है।”

• एकाधिकार प्रतियोगिता में गैर-कीमत प्रतियोगिता पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। इसमें विज्ञापन के द्वारा वस्तु को प्रोत्साहित किया जाता है। एकाधिकार प्रतियोगिता में वस्तु विभेद सामान्यतया ट्रेडमार्क, ब्राण्ड के नाम आदि द्वारा किया जाता है। उदाहरण के लिए फर्मे अनेक प्रकार के टूथपेस्ट जैसे- कोलगेट, क्लोजअप, पेप्सोडेंट आदि का उत्पादन करती हैं जिनका अपना ब्राण्ड होता है।

(D) अल्पाधिकार (Oligopoly): अल्पाधिकार का आशय (Meaning of Oligopoly) यह अपूर्ण प्रतियोगिता का वह रूप है जिसमें बाजार में परस्पर निर्भर थोड़े से विक्रेता होते हैं और प्रत्येक कुल पूर्ति के वह बड़े भाग पर नियंत्रण रखता है तथा वह बाजार में वस्तु के मूल्य को प्रभावित कर सकता है।

मेयर्स के शब्दों में, “अल्पाधिकार बाजार की उस अवस्था को कहते हैं जहाँ विक्रेताओं की संख्या इतनी कम होती है कि प्रत्येक विक्रेता की पूर्ति का बाजार की कीमत पर प्रभाव पड़ता है तथा प्रत्येक विक्रेता की क्रियाएँ दूसरों के लिये महत्वपूर्ण होती हैं।”

• स्टिगलर के शब्दों में, “अल्पाधिकार वह स्थिति है जिसमें एक फर्म अपनी बाजार नीति अंशतः कुछ निकट प्रतिद्वन्द्वियों के प्रत्याशित व्यवहार पर आधारित करती हैं।”

• इसमें विभिन्न विक्रेताओं की वस्तुएँ समरूप हो सकती हैं और भेदित भी। समरूप वस्तु की स्थिति में इसे विशुद्ध अल्पाधिकार तथा भेदित वस्तु की स्थिति में इसे भेदित अल्पाधिकार कहते हैं। विशुद्ध अल्पाधिकार की स्थिति में पारस्परिक निर्भरता का अंश अधिक होता है तथा भेदित अल्पाधिकार की स्थिति में कुछ कम। बाजार में प्रायः ऐसी ही प्रतिस्पर्धा देखने को मिलती है। इस्पात, सीमेंट, चीनी, मोटर आदि उद्योग अल्पाधिकार के उदाहरण हैं।

यह भी पढ़ें: वर्णमाला (Alphabet)

निष्कर्ष:

हम आशा करते हैं कि आपको यह पोस्ट अर्थशास्त्र (Economics) जरुर अच्छी लगी होगी। इसके बारें में काफी अच्छी तरह से सरल भाषा में अर्थशास्त्र (Economics) के बारे में उदाहरण देकर समझाया गया है। अगर इस पोस्ट से सम्बंधित आपके पास कुछ सुझाव या सवाल हो तो आप हमें कमेंट बॉक्स में ज़रूर बताये। धन्यवाद!

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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