मृदा (Soils)
मृदा शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द सोलम (Solum) से हुई है। जिसका अर्थ है- फर्श (Floor)। बकमैन एवं बैडी के अनुसार मृदा वह प्राकृतिक पिण्ड है जो विच्छेदित एवं अपक्षयित खनिजों एवं कार्बनिक पदार्थों के विगलन से निर्मित पदार्थों के परिवर्तनशील मिश्रण से परिच्छेदिका (Profile) के रूप में संश्लेषित होती है। यह पृथ्वी को एक पतले आवरण के रूप में बके रहती है। जल और वायु की उपयुक्त मात्रा के सम्मिश्रण से पौधे को यांत्रिक अवलम्ब और आंशिक आजीविका प्रदान करती है।
मृदाजनन (Pedogeresis) एक जटिल तथा निरन्तर होने वाली प्रक्रिया है। पैतृक शैलें, जलवायु, वनस्पति, भूमिगत जल एवं सूक्ष्म जीव सहित अनेक कारक मिट्टी की प्रकृति को निर्धारित करते हैं। पैतृक शैलें मिट्टी को आधारभूत खनिज तथा पोषक तत्व प्रदान करती हैं, जबकि जलवायु मिट्टी के निर्माण में रासायनिक तथा सूक्ष्म जैविक क्रियाओं को निर्धारित करती है। वनस्पति मिट्टी में हह्युमस की मात्रा निर्धारित करने में निश्चित भूमिका अदा करती है। वस्तुतः मिट्टी, जलवायु एवं वनस्पति में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। स्थानीय उच्चावच तथा जलीय दशाएँ मिट्टी के गठन, pH मान आदि विशेषताओं को निर्धारित करती है। सूक्ष्मजीव अपक्षयित पदार्थ का वियोजन करते हैं।
जलवायु मृदाजनन के विभिन्न प्रक्रमों, जैसे लेटरीकरण (Lat- erization), पाइजोलीकरण (Podzolization) कैल्सीकरण (Calcification), लवणीकरण और क्षारीयकरण (Salinization & Alkalization) तथा पीटरचना (Peat formation) को सक्रिय बनाने में सबसे महत्वपूर्ण कारक है। भारत उष्ण तथा उपोष्ण कटिबन्ध में स्थित है जहाँ लेटराइटी भवन (Laterization) एक प्रभावी प्रक्रम है। वर्षा ऋतु के दौरान मूसलाधार वर्षा प्रायद्वीपीय पठार की मिट्टियों में उच्च स्तरीय निक्षालन क्रिया (leaching) को प्रेरित करती है। उत्तर पश्चिम के शुष्क तथा अर्द्ध शुष्क प्रदेशों में वाष्पीकरण की उच्च दर मिट्टियों में केशिका क्रिया को प्रेरित करती है जिससे मिट्टी की ऊपरी परतों में कैल्शियम एकत्रित हो जाता है।
देश के अधिकांश भाग (विशाल मैदान, तटीय क्षेत्रों एवं दक्कन) में अकटिबन्धीय (Azonal) मिट्टियों मिलती हैं जिनका निर्माण उनके स्थान पर नहीं हुआ है। ये मिट्टियाँ बाह्यजात प्रक्रमों से निर्मित हुई हैं। काँप की मिट्टियाँ नदियों द्वारा लाये गये अपरदित पदार्थ से निर्मित हैं, जबकि दकन की लावा मिट्टियाँ ज्वालामुखी शैलों के विखण्डन से बनी हैं।
मृदा के संगठन में निम्नलिखित पदार्थ भाग लेते हैं-
• ह्यूमस अथवा कार्बनिक पदार्थ (Humus or organic matter)*- लगभग 5 से 10%
• खनिज पदार्थ (Mineral matter)* – लगभग 40 से 45%
• इसके अलावा मृदा जीव व मृदा अभिक्रिया भी मृदा संगठन में भाग लेती है।
• मृदा-जल (Soil water)* – लगभग 25%
• मृदा-वायु (Soil air)* – लगभग 25%
सभी प्रकार की मृदाओं में कार्बनिक पदार्थ कम या अधिक मात्रा में प्रायः कलिलीय पदार्थों (Colloidal substances) के रूप में पाये जाते हैं। ये मृदा की उर्वरता (Fertility) को बढ़ाते हैं। उष्णकटिबन्धीय मृदा (Tropical soil) में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा कम होती है जबकि पीट-मृदा (peat soil) में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा 100% तक हो सकती है। किसी भी मृदा में पाये जाने वाले सभी विच्छेदित कार्बनिक पदार्थों को ह्यूमस कहते हैं। ह्यूमस का निर्माण विभिन्न पादप एवं जन्तु अवशिष्टों के विच्छेदन द्वारा होता है। यह विच्छेदन मृदा में पाये जाने वाले कवक एवं जीवाणु आदि करते हैं।
खनिज पदार्थ मृदा का सबसे महत्वपूर्ण एवं अधिक मात्रा में पाया जाने वाला अवयव है। ये मृदा अंश में दो प्रकार के होते हैं। प्राथमिक खनिज एवं द्वितीयक खनिज। प्राथमिक खनिजों में- क्वार्ट्ज प्लेजियोक्लेज, मास्कोवाइट, बायोटाइट, आर्थोक्लेज, हार्नब्लेण्डे एवं औगाइट होते हैं। द्वितीयक खनिज जिनका निर्माण प्राथमिक खनिजों से होता है, इस प्रकार है। यथा-एपेटाइट, कैल्साइट, डोलोमाइट, जिप्सम, लिमोनाइट, हीमेटाइट एवं केओलिनाइट आदि होते हैं।
किसी भी भूमि की खाड़ी काट (Vertical section) जिसमें मृदा के विभिन्न संस्तर (Horizons) दिखलाई पड़ते हैं, मृदा परिच्छेदिका (Soil profile) कहलाती है। इन विभिन्न संस्तरों की मोटाई, रचना व गुण भी भिन्न-भिन्न होते हैं। एक सामान्य मृदा-परिच्छेदिका में A, B, C, एवं D नामक चार संस्तर होती है। प्रथम संस्तर को ऊपरी मृदा (Top soil) कहते हैं। * यह संस्तर उपजाऊ होती है। पौधों की अधिकांश जड़ें इसी संस्तर में फैली होती हैं। इस संस्तर को पांच उपभागों में बांटा गया है। B संस्तर को अधोमृदा (Sub-soil) कहते हैं। C संस्तर में कैल्शियम कार्बोनेट एवं सल्फेट के लवणों का जमाव पाया जाता है। अन्तिम D संस्तर में जैविक क्रियायें नहीं होती हैं और न ही पौधों की जड़ें वहाँ तक पहुँच पाती हैं।
मृदा खनिज अंश विभिन्न प्रकार के कणों के रुप में पाया जाता है। मृदाओं में निम्नलिखित आकार एवं व्यास के मृदा कण होते हैं – यथा-
1. बजरी (Gravel) : 5.000 मिमी. से अधिक व्यास वाले कण।
2. बारीक बजरी (Fine gravel): 2.000 मिमी. से 5.000 मिमी. तक व्यास वाले कण।
3. मोटी बालू (Coarse sand) : 0.2000 मिमी. से 2.000 मिमी. तक व्यास वाले कण।
4. बारीक बालू (Find sand) : 0.020 मिमी. से 0.200 मिमी. तक व्यास वाले कण।
5. गाद (Silt): 0.002 मिमी. से 0.020 मिमी. तक व्यास वाले कण।*
6. चिकनी मिट्टी (Clay): 0.002 मिमी. से कम व्यास वाले कण।*
मृदाओं में उपरोक्त कण विभिन्न अनुपातों में पाये जाते हैं। इन कणों के व्यास एवं अनुपात के आधार पर भारत में मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रकार की मृदायें पाई जाती हैं- (i) बलुई मृदा (ii) गाद मृदा (iii) चिकनी मृदा (iv) दोमट मिट्टी (v) चूना मृदा, बलुई दोमट आदि।
मृदा अभिक्रिया (Soil Reaction) उसके अम्लीय या क्षारीय प्रकृति पर निर्भर करती है। जिस मृदा में हाइड्रोजन आयनों की मात्रा अधिक होती है, उसे अम्लीय मृदा (Acidic Soil) कहते हैं। जिस मृदा में K व Na आदि धनायनों की मात्रा अधिक होती है उसे क्षारीय मृदा (Alkaline soil) कहते हैं। अम्लीय मृदा में अम्लीय गुण व क्रियायें व क्षारीय मृदा में क्षारीय गुण व क्रियायें पाई जाती हैं। मृदा अभिक्रिया pH में नापी जाती है। उदासीन मृदा में pH का मान 7.0 होता है। अम्लीय मृदा में इसका मान 7.0 से कम तथा क्षारीय मृदा में 7.0 से ज्यादा होता है। पौधों की वृद्धि सामान्यतः pH 6.0 से pH 7.5 के मध्य होती है। इसी pH के रेन्ज में पौधे अपनी सारी क्रियायें करते हैं। अधिक अम्लीय या क्षारीय मृदा पौधों के लिए हानिकारक होती है।
भारतीय मृदा का वर्गीकरण (Classification of Indian soils)
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) ने 1986 में देश में 8 प्रमुख तथा 27 गौंण प्रकार की मिट्टियों का पहचान किया है। प्रमुख आठ प्रकार की मिट्टी अधोलिखित हैं। यथा- जलोढ़, लाल, काली, लैटराइट, मरूस्थलीय, पर्वतीय, पीट व दलदली और लवणीय एवं क्षारीय मृदायें।
उपरोक्त प्रमुख मिट्टियों में से जलोढ़ मिट्टियाँ लगभग 43.4% क्षेत्र पर, लाल मिट्टियाँ 18.6%, क्षेत्र पर, काली मिट्टियाँ 16.6% क्षेत्र पर, लेटराइट 3.7% क्षेत्र पर तथा अन्य मिट्टियाँ 17.9% क्षेत्र पर विस्तृत हैं।
जलोढ़ मिट्टियाँ (Alluvial Soils)
• जलीय मिट्टियाँ विशाल, मैदानों, (पंजाब से असोम तक), नर्मदा, तापी, महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी की घाटियों एवं केरल के तटवर्ती भागों में लगभग 15 लाख वर्ग किमी क्षेत्र (देश के 43.4% भू-क्षेत्र) पर विस्तृत है।
• ये मिट्टियाँ नदियों द्वारा अपरदित पदार्थों से निर्मित हैं।
• ये हल्की भूरे से राख जैसे भूरे रंग की हैं तथा गठन में रेतीली से दोमट प्रकार की हैं।
• इन मिट्टियों की परिच्छेदिका उच्च भूमियों में अपरिपक्व तथा निम्न भूमियों में परिपक्व हैं।*
• बाढ़ के मैदान की काँप को स्थानीय रूप से ‘खादर’ कहा जाता है तथा पुरानी काँप, जो अपरदन से अप्रभावित होती है, ‘बाँगर’ कहलाती है।
• बांगर भूमि में कंकर तथा अशुद्ध कैल्शियम कार्बोनेट की ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं जिन्हें ‘कंकड़’ कहते हैं।
• बांगर के निर्माण में चीका (Clay) का प्रमुख योग रहता है।
• यह दोमट या रेतीली दोमट प्रकार की मृदा है।
• इन मृदाओं में पोटाश, फॉस्फोरिक एसिड, चूना और जैव पदार्थ की प्रचुरता पाई जाती है, परन्तु नाइट्रोजन और ह्यूमस (Hummus) की कमी होती है।*
• यह मिट्टी धान, गेहूँ, गन्ना, दलहन, तिलहन आदि की खेती के लिए उपयुक्त होती है।
लाल मिट्टियाँ (Red Soils)
• लाल मिट्टी का विस्तार देश में लगभग 6.1 लाख वर्ग किमी. (देश के 18.6% भू-क्षेत्र पर) है। इस प्रकार यह मृदा देश का द्वितीय विशालतम वर्ग है।*
• ये तमिलनाडु (सर्वाधिक विस्तार), कर्नाटक, महाराष्ट्र आन्ध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा तथा झारखण्ड के व्यापक क्षेत्रों में तथा पश्चिमी बंगाल, दक्षिणी उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में पायी जाती हैं।
• इन मिट्टियों का विकास आर्कियन ग्रेनाइट, नीस तथा कुड़प्पा एवं विन्ध्यन बेसिनों तथा धारवाड़ शैलों की अवसादी शैलों के ऊपर हुआ है।*
• इनका लाल रंग लोहे के ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण है।
• इनका गठन बालू से चीका (Sandy to Clay) तक, प्रधानतः दोमट प्रकार का है।
• इनकी संरचना छिद्रमय तथा भंगुर है, जिनमें कंकड़, कार्बोनेट तथा कुछ घुलनशील लवण पाये जाते हैं अर्थात् यह स्वभाव में अम्लीय प्रकृति की होती है।*
• ये अत्यधिक निक्षालित (Leached) मिट्टियाँ है।*
• इस प्रकार की मिट्टी में, लोहे, एल्यूमिनियम तथा चूने का अंश अधिक होता है किन्तु जीवांश पदार्थ, नाइट्रोजन तथा फास्फोरस की कमी पायी जाती है।*
• सिंचाई द्वारा इस मिट्टी में तम्बाकू, बाजरा, तीसी, दलहन, गेहूँ आदि की खेती की जाती है।
काली मिट्टियाँ (Black Soils)
• काली मिट्टियों को स्थानीय रूप से ‘रेगुर’ व उ.प्र. में करेल काली कपास की मिट्टी तथा अन्तर्राष्ट्रीय रूप से ‘उष्ण कटिबन्धीय चरनोजम’ कहा जाता है।*
• इस मिट्टी का विस्तार लगभग 5.46 लाख वर्ग किमी क्षेत्र (देश के 16.6% भू-क्षेत्र) पर है।* यह भारतीय मृदा का तृतीय विशालतम वर्ग है।
• इनका विकास महाराष्ट्र (सर्वाधिक मात्रा में), पश्चिमी मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, ऑन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु एवं उत्तर प्रदेश पर, दक्कन लावा (बेसाल्ट) के अपक्षय से हुआ है।*
• इनकी संरचना सामान्यतः चीका मय (Claey) डली युक्त (Cloddy) तथा कभी-कभी भंगुर होती हैं।
• ये मिट्टी सामान्यतः लोहे, चूने, कैल्शियम, पोटाश, एल्यूमिनियम तथा मैग्नीशियम कार्बोनेट से समृद्ध होती है।
• इनमें नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा जैविक पदार्थों की कमी होती है।*
• इनमें जल धारण करने की क्षमता सर्वाधिक होती है, अतः ये जल से संतृप्त होने पर मृद तथा चिपचिपी हो जाती हैं तथा सूखने पर इनमें गहरी दरारें उत्पन्न हो जाती हैं।* कारणस्वरूप इस मृदा को ‘स्वतः जुताई वाली मृदा’ की उपमा प्रदान की गई है।*
• इनमें उर्वरता अधिक होती है, अतएव ये जड़दार फसलों, जैसे- कपास, तूर, खट्टे फलों तथा चना, सोयाबीन, तिलहन मोटे अनाजों, सफोला आदि की खेती के लिये उपयुक्त रहती है।
लैटेराइट मिट्टियाँ (Laterite Soils)
• लैटेराइट मिट्टियाँ लगभग 1.26 लाख वर्ग किमी क्षेत्र (देश के 3.7% भू-क्षेत्र) पर विस्तृत हैं। देश में इस प्रकार की मृदा का सर्वाधिक क्षेत्रफल क्रमशः केरल, महाँराष्ट्र एवं असोम में पाया जाता है।”
• ये मिट्टियाँ सह्याद्रि, पूर्वी घाट, राजमहल पहाड़ियों, सतपुड़ा, विन्ध्य, असोम तथा मेघालय की पहाड़ियों के शिखरों में मिलती हैं। ये घाटियों में भी पायी जाती हैं।
• लैटेराइट मिट्टियों का स्वरूप ‘ईट’ जैसा होता है। भीगने पर ये कोमल तथा सूखने पर कठोर व डलीदार हो जाती हैं।
• ये उष्ण कटिबन्ध की प्रारूपिक मिट्टियाँ हैं, जहाँ मौसमी वर्षा होती है। यह बहुत ही अपक्षालित मृदा है, क्रम से भीगने तथा सूखने पर इनका सिलिकामय पदार्थ निक्षालित हो जाता है।*
• इनका लाल रंग लोहे के ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण होता है। ये मिट्टियाँ सामान्यतः लौह तथा एल्युमिनियम से समृद्ध होती हैं।
• इनमें नाइट्रोजन, पोटाश, चूना तथा जैविक पदार्थ की कमी होती है।*
• ये प्रायः कम उर्वरता वाली मिट्टियाँ हैं किन्तु उर्वरकों के प्रयोग से इनमें चाय, कहवा, रबर, सिनकोना तथा काजू आदि विविध प्रकार की बागानी खेती सफलतापूर्वक की जाती है।
मरुस्थली मिट्टियाँ (Desert Soils)
• मरुस्थली मिट्टियों का विस्तार राजस्थान, सौराष्ट्र कच्छ, हरियाणा तथा दक्षिणी पंजाब के लगभग 1.42 लाख वर्ग किमी क्षेत्र पर है।
• ये मिट्टियाँ बलुई से बजरीयुक्त (gravelly) होती हैं जिनमें जैविक पदार्थ तथा नाइट्रोजन की कमी एवं कैल्शियम कार्बोनेट की भिन्न मात्रा पायी जाती है।
• इनमें घुलनशील लवणों तथा फास्फोरस का उच्च प्रतिशत मिलता है, किन्तु नमी की मात्रा कम होती है।
• सिंचाई द्वारा इनमें, ज्वार, बाजरा, मोटे अनाज व सरसों आदि उगाये जाते हैं।

पर्वतीय मृदायें (Hill Soils)
• इसे वनीय मृदा भी कहा जाता है। इसका विस्तार 2.85 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में पाया जाता है।
• ये नवीन व अविकसित मृदायें हैं जो कश्मीर से अरूणाचल प्रदेश तक फैली हुई हैं।*
• इसमें पोटाश, चूना व फास्फोरस का अभाव होता है* पर जीवांश प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।
• पर्वतीय ढालों पर सेब, नाशपाती व आलूचा आदि फल वृक्ष उगाये जाते हैं।
• सामान्यतः इस प्रकार की मृदायें अम्लीय स्वभाव की होती है।*
पीट तथा दलदली मृदायें (Peaty and Marshy Soils)
• पीट मृदायें नम जलवायु में बनती हैं। सड़ी वनस्पतियों से बनी पीट मिट्टियों का निर्माण केरल तथा तमिलनाडु के आर्द्र प्रदेशों में हुआ है। इन मृदाओं में जैविक पदार्थ व घुलनशील नमक की मात्रा अधिक होती है। किन्तु इनमें पोटाश तथा फास्फेट की कमी होती है। यें मृदायें काली, भारी व अम्लीय होती है।
• दलदली मृदायें तटीय ओडिशा, सुन्दरवन, उत्तरी बिहार के मध्यवर्ती भागों तथा तटीय तमिलनाडु में पायी जाती हैं। निचले क्षेत्रों में जलाक्रान्ति (watter logging) तथा अवायु दशाओं में इस मृदा का निर्माण होता है। इसमें फैरस आयरन होने से प्रायः इनका रंग नीला होता है। ये अम्लीय स्वभाव की मृदा होती है तथा इसमें कार्बनिक पदार्थ की मात्रा 40 से 50 प्रतिशत तक होती है। इसमें धान उगाया जाता है। इस प्रकार की मृदा में मैंग्रोव वनस्पतियाँ पायी जाती हैं, विशेषकर तटीय क्षेत्रों में।
लवणीय तथा क्षारीय मृदायें (Saline and Alkali Soil)
• ये मिट्टियाँ गुजरात, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश तथा महाराष्ट्र के शुष्क भागों में लगभग 1.7 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र पर विस्तृत हैं।
• केशिका क्रिया (Capillary action) से धरातल पर लवणों की परत सोडियम, कैल्शियम तथा मैग्नीशियम आदि के सल्फेट तथा कार्बोनेट बन जाती है।
• ऐसी मिट्टियाँ पंजाब तथा उत्तर प्रदेश के नहर सिंचित तथा उच्च जल स्तर वाले क्षेत्रों में उत्पन्न हो गयी हैं।
• ये अनउर्वर मिट्टियाँ ‘रेह’, ‘कल्लर’, ‘ऊसर’, ‘राथड़’, ‘थूर’, ‘चोपन’ आदि अनेक स्थानीय नामों से पुकारी जाती हैं।
• इन मिट्टियों का पुनरुद्धार उचित अपवाह, चूना, जिप्सम तथा पाइराइट्स के प्रयोग द्वारा किया जा सकता है।
• क्षारीय मृदाओं में नाइट्रोजन का अभाव रहता है।*
• इस प्रकार की मृदाओं में बरसीम, धान, गन्ना व अमरूद, आँवला, फालसा तथा जामुन आदि के लवण प्रतिरोधी फसलें व फल वृक्ष पाये जाते हैं।
मृदा वर्गीकरण-7वाँ सन्निकटन (Soil Classification-7th Approximation)
मृदा के अध्ययन तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसे तुलनात्मक बनाने के प्रयासों के अंतर्गत आई.सी.ए.आर. ने भारतीय मृदाओं को उनकी प्रकृति और गुणों के आधार पर वर्गीकृत किया है। यह वर्गीकरण संयुक्त राज्य अमेरिका के कृषि विभाग (USDA) मृदा वर्गीकरण पद्धति पर आधारित है।
गण (Order) संवर्ग मुख्य रूप से मृदा आकारिकी (morphology) पर आधारित है, लेकिन मृदा उत्पत्ति एक प्रमुख कारक होता है। ये गण संख्या में 11 हैं।
• इन्सेप्टी सॉल (Inceptisole)- इस गण की मृदाओं में प्रोफाइल् के संस्तर अपेक्षाकृत शीघ्र निर्मित होते हैं तथा प्रायः पैतृक पदार्थों के परिणाम होते हैं। इन मृदाओं में क्ले, आयरन एवं एल्यूमिनियम के संचयन संस्तरों का प्रायः अभाव होता है। प्रोफाइल का विकास एंटीसॉल की अपेक्षा अधिक किन्तु अन्य गणों के अपेक्षा कम होता है। भारत में गंगा-सिन्धु के मैदान की कई मृदायें (बांगर) तथा ब्रह्मपुत्र घाटी की मृदायें इसी गण में वर्गीकृत की गयी हैं।
• एंटीसॉल (Entisols)- ये नवविकसित तथा बिना किसी प्राकृतिक संस्तरों वाली मृदायें हैं। इनमें संस्तरों की रचना प्रारम्भिक अवस्था में होती है। भारत में अधिक ढाल (Strong slope) पर उपस्थित मृदायें, ऐओलियन (Aeolian) पैतृक पदार्थ से उत्पन्न मृदायें जैसे राजस्थान की रेगिस्तान तथा नवीन जलोढ़ (खादर) मृदाएँ इस गण में रखी गयी हैं।*
• एल्फीसॉल (Alfisols)- इसमें भूरा से बादामी रंग के पृष्ठ संस्तर, मध्य से उच्च क्षार स्तर तथा सिलिकेट क्ले संचित इल्यूवियल (Illuvial) संस्तर होते हैं। भारत में कुछ लाल मृदायें तथा लैटेराइटिक मृदायें इसमें वर्गीकृत की गयी हैं।
• वर्टीसॉल (Vertisols) – इस गण की मृदा में अधिक फूलने एवं संकुचित होने वाली मान्टमो-रिल्लोंनाइट क्ले की अधिकता होती है जिस कारण शुष्क होने पर मृदा में चौड़ी दरारें बन जाती हैं। फलतः कृषि कार्य करने में कठिनाई उत्पन्न होती है। भारत में इस गण का प्रमुख उदाहरण दक्षिण भारत की काली मिट्टी है।
• एरीडीसॉल (Aridisols)- ये खनिज मृदायें अधिकतर शुष्क और अर्धशुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में पायी जाती हैं। इनमें कैल्शियम कार्बोनेट, जिप्सम या अपेक्षाकृत अधिक विलेय लवणों के संचयन के संस्तर पाये जा सकते हैं। इस गण में अधिकतर शुष्क क्षेत्र की मृदाओं को रखा जाता है। भारत में राजस्थान, गुजरात, हरियाणा एवं पंजाब में इस प्रकार की मृदायें पायी जाती हैं।
• अल्टीसॉल (Ultisols)- ये प्रायः नम होती हैं तथा गर्म और उष्ण जलवायु के क्षेत्रों में विकसित होती हैं। इस गण की अधिकतर मृदायें लाल-पीले रंग की होती हैं। इनमें आयरन के स्वतंत्र ऑक्साइडों का संचयन होता है। भारत में ये मृदायें केरल, तमिलनाडु, ओडिशा, आदि में पायी जाती हैं।
• मॉलीसॉल (Mollisols)- इस गण की मृदाओं की प्रमुख विशिष्टता मोटी, गहरी काली तथा द्विसंयोजी धनायनों की प्रधानता युक्त संस्तर होती है। पृष्ठ संस्तरों की संरचना प्रायः दानेदार तथा सूखने पर ये कठोर नहीं होती है। चेस्टनट, चर्नोजम, प्रेयरी आदि मृदायें इस गण में सम्मिलित हैं। भारत में इस गण के अन्तर्गत उ.प्र. के तराई क्षेत्र की कुछ मृदायें, उ.प्र., हिमाचल प्रदेश और उत्तर पूर्व हिमालय के जंगलों की मृदायें आती है।
• स्पोडोसॉल (Spodosols)- इस गण की मृदा में कार्बनिक पदार्थ और एल्यूमिनियम के आयरन ऑक्साइड सहित या रहित ऑक्साइड का संचयन होता है, जो हल्के भूरे रंग के राख जैसे होते हैं, जो लीचिंग द्वारा अधिक प्रभावित होते हैं। पॉडजोल एवं भूरी पॉडजोल मृदायें इस गण के अन्तर्गत रखी जाती हैं।
• हिस्टोसॉल (Histosols)- इस वर्ग में कार्बनिक मृदाओं को सम्मिलित किया गया है। ये मृदायें जल संतृप्त वातावरण में विकसित हुई हैं। इनमें न्यूनतम कार्बनिक पदार्थ 20-30% पायी जाती है। भारत में पीट तथा दलदली मृदायें इस गण में आती हैं।
• एन्डीसॉल (Andisols)- इस गण में ज्वालामुखी के मुहाने पर बनने वाली मृदायें सम्मिलित की गई हैं।
• ऑक्सीसॉल (Oxisols)- ये सर्वाधिक अपक्षयित मृदायें हैं। इनके ऑक्सिक उप-संस्तर में आयरन तथा एल्यूमिनियम के हाइड्स ऑक्साइड की प्रधानता होती है और अपक्षय एवं लीचिंग के कारण सिलिकेट खनिजों से सिलिका निष्कासित हो जाती है। केरल की अधिक अपक्षयित कुछ मृदायें इस गण में आती हैं।
भारतीय मृदा की समस्याएँ (Problems of Indian Soils)
मिट्टी एक अति महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है। कृषि प्रधान देश के लिए इसका महत्व सर्वाधिक है। भारत में मृदा की अधोलिखित समस्याएँ पायी जाती हैं। यथा-
1. भूमि अपरदन की समस्या (Soil erosion)
2. जलाक्रान्ति की समस्या (Water logging)
3. क्षारीय भूमि की समस्या (Alkaline)
4. बंजर भूमि की समस्या (Waste land)
5. मरुभूमि विस्तार की समस्या (Expansion of desert lands)
6. मृदा अवक्षय (Soil depletion)
7. नगरों, उद्योग-धन्धों एवं यातायात के साधनों के विकास के कारण कृषि भूमि के अपहरण (Exploitation of Agricultural land) जैसी समस्याओं से ग्रस्त है। अतः मृदा की उपजाऊ शक्ति बनाये रखने तथा उससे निरन्तर उत्पादन लेने के लिए यह आवश्यक है कि मिट्टी की उक्त समस्याओं के समाधान की ओर यथेष्ट ध्यान दिया जाए।
यह भी पढ़ें : वार्षिक वर्षा (Annual Rainfall)
FAQs
Q1. मृदा में जल की मात्रा कितने प्रतिशत होती है?
Ans. 25%
Q2. मृत्तिका (Clay) का कणाकार कितना है?
Ans. 0.002 मिमी. से कम
Q3. अम्लीय मृदा में किस आयन की अधिकता होती है?
Ans. हाइड्रोजन आयन
Q4. पौधों की सर्वोत्तम वृद्धि किस पी.एच.मान पर होती है?
Ans. 6-7.5
Q5. बांगर मृदा के निर्माण में मृदा के किस प्रकार के कणाकार का विशेष योगदान होता है?
Ans. मृत्तिका (Clay)
Q6. यू.एस.डी.ए. के वर्गीकरण के अनुसार किस गण संवर्ग की मृदा भारत में सर्वाधिक पायी जाती है?
Ans. इंसेप्टीसॉल
Q7. चाय, कहवा, काजू तथा सिनकोना के लिए किस प्रकार की मृदा उपयुक्त होती है?
Ans. लेटराइट
Q8. मैंग्रोव वनस्पतियाँ किस मृदा में उगती है?
Ans. दलदली मृदा में
Q9. राष्ट्रीय दूर संवेदी एजेंसी द्वारा ‘भारत की बंजर भूमि सम्बन्ध एटलस’ कब तैयार की गई?
Ans. 2005 में
Q10. भारत का द्वितीय विशालतम मृदा प्रकार कौन है?
Ans. लाल मिट्टियाँ
Q11. जलोढ़ मृदा में किन तत्वों की प्रचुरता होती है?
Ans. पोटैशियम एवं चूना
Q12. प्रायद्वीपीय लाल मिट्टी का विकास किन शैलों पर हुआ है?
Ans. आर्कियन ग्रेनाइट नीस
Q13. अत्यधिक निक्षालित मृदायें कौन हैं?
Ans. लेटराइट एवं लाल
Q14. दक्कन लावा अर्थात बेसाल्ट पर किस प्रकार की मृदा का विकास हुआ है?
Ans. काली मृदा
Q15. अत्यधिक संकुचन-विमोचन एवं सूखने पर दरार आदि लक्षण किस मृदा में पाये जाते हैं?
Ans. काली मृदा
Q16. सर्वाधिक नमी धारण क्षमता किस मृदा में पायी जाती है?
Ans. क्रमशः मटियार या मटियार दोमट या काली मृदा
Q17. सर्वाधिक उपजाऊ मृदा कौन-सी है?
Ans. जलोढ़ मृदा या दोमट
Q18. उ.प्र. में ‘करेल’ की संज्ञा से किस मृदा को जाना जाता है?
Ans. काली मृदा
Q19. किस खनिज पदार्थ से मृदा को अधिकांश फास्फोरस प्राप्त होता है?
Ans. एपेटाइट
Q20. भारत के सिंचित क्षेत्रों में कृषि योग्य भूमि किस कारण से लवणीय हो रही है?
Ans. अति सिंचाई
1 thought on “मृदा एवं प्राकृतिक वनस्पति (Soils and Natural Vegetation)”