गुणसूत्र विपथन

सामान्यतः किसी भी स्पेसीज की दैहिक (somatic) कोशिकाओ में गुणसूत्रों की संख्या निश्चित एवं स्थिर (2n) होती है। जीव के – प्रजनक अंगों में अर्धसूत्रण (meiosis) के कारण निर्मित युग्मकों (Gemetes) में ठीक आधे गुणसूत्र (n) पाये जाते हैं। युग्मकों में उपस्थित प्रत्येक गुणसूत्र एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। जबकि दैहिक कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र की दो प्रतियाँ उपस्थित होती हैं। समजात गुणसूत्रों में स्थित जीनों की संख्या, प्रकार एवं क्रम बिल्कुल एक समान होते हैं। किन्तु कभी-कभी गुणसूत्रों की संख्या एवं संरचना में परिवर्तन उत्पन्न हो जाते हैं, इन परिवर्तनों को गुणसूत्र विपथन (Chromosomal Aberration) कहते हैं।

गुणसूत्र विपथन दो प्रकार के होते हैं। यथा-

(1) संरचनात्मक विपथन (Structural Aberration)

(2) संख्यात्मक विपथन (Numerical Aberration)

किसी गुणसूत्र में उपस्थित जीनों की संख्या, क्रम अथवा प्रकार में परिवर्तन को संरचनात्मक गुणसूत्र विपथन कहते हैं। यह चार प्रकार का होता है।

(i) न्यूनता (deficiency) (ii) द्विगुणन (Duplication) (iii) प्रतिलोमन (Inversion) एवं (iv) स्थानान्तरण (Translocation)। न्यूनता तथा द्विगुणन में जीनों की संख्या, प्रतिलोमन में जीनों का क्रम तथा स्थानान्तरण में जीनों के प्रकार में परिवर्तन होता है।

मानव में कई न्यूनताएँ ज्ञात हैं। फिलाडेल्फिया 22 में क्रोमोसोम 22 में न्यूनता होती है, जिससे एक विशेष प्रकार का ल्यूकीमिया पैदा होता है। इसी प्रकार, क्रोमोसोम 5 की छोटी भुजा में न्यूनता से ‘मार्जार क्रंदन’ (cri-du-chat-cry-of-cat) उत्पन्न होता है, जिसका एक लक्षण प्रभावित बच्चों का बिल्ली की तरह रोना है।

किसी जीव के गुणसूत्रों की संख्या में परिवर्तन संख्यात्मक गुणसूत्र विपथन अथवा विषमगुणिता (Heteroploidy) कहलाता है। यह दो प्रकार का होता है। यथा- (A) असुगुणिता (Aneuploidy) (B) सुगुणिता (Euploidy)

(A) असुगुणिता (Aneuploidy)

जब किसी जीव के दैहिक गुणसूत्र संख्या (Somatic Chromosome = 2n) में कुछ गुणसूत्र कम या अधिक हो जाते हैं, तो उसे असुगुणिता कहते हैं। ऐसी घटा-बढ़ी ऑटोसोम्स (autosomes) में भी हो सकती है और लिंग गुणसूत्रों में भी। इससे शरीर के कई लक्षण एक साथ प्रभावित होकर असाधारण या रोगग्रस्त दशा का प्रदर्शन करते हैं। ऐसे लक्षणों के समूह को सिन्ड्रोम (syndrome) कहते हैं। मानव-जाति में कई प्रकार के सिन्ड्रोम पाये जाते हैं। इनमें अग्रलिखित महत्वपूर्ण हैं-

डाउन्स सिन्ड्रोम (Down’s Syndrome)

औसतन 700 नवजात शिशुओं में से एक इस सिन्ड्रोम वाला होता है। इसमें 21वीं जोड़ी के गुणसूत्र दो के बजाय तीन होते हैं। अतः गुणसूत्र-समूह (2n + 1 = 47) होता है। तीन समजात गुणसूत्रों के ऐसे समूह को ट्राइसोमिक (trisomic) कहते हैं। इस सिन्ड्रोम वाला व्यक्ति छोटे कद और मन्द बुद्धि का होता है। लगभग 16 वर्ष की आयु तक इसकी मृत्यु हो जाती है। इसका सिर गोल, गरदन मोटी, त्वचा खुरदुरी, जीभ मोटी, अँगुलियाँ ठूंठदार, मुख खुला, आँखें तिरछी और पलकें, मंगोलों की भाँति, वलित (folded) होती हैं। इसीलिए, इस सिन्ड्रोम को मंगोली जड़ता (monogloid idiocy) भी कहते हैं।* इन सिन्ड्रोमों में जननांग सामान्य, लेकिन पुरुष नपुंसक होते हैं। 30 वर्ष से अधिक आयु की महिलाओं को जन्में शिशुओं में डाउन सिन्ड्रोम के पाये जाने की संभावना अधिक होती है।

➤ टरनर्स सिन्ड्रोम (Turner’s Sysndrome)*

ये ऐसी स्त्रियाँ होती हैं जिनमें कि लिंग गुणसूत्रों में से केवल एक x गुणसूत्र उपस्थित होता है, अर्थात् ये लिंग गुणसूत्रों के लिए मोनोसमिक (monosemic-2n-1 या 44 + X) होती है। औसतन, 5,000 स्त्रियों में से एक टर्नर सिन्ड्रोम होती है। इसका स्त्री-रूप पूर्णरूपेण विकसित नहीं होता; कद छोटा और जननांग अल्पविकसित होते हैं। स्तनों का विकास न होने से वक्ष चपटा रहता है। जनद (अण्डाशय) अनुपस्थित या अर्धविकसित होते हैं। मासिक धर्म भी नहीं होता। इस प्रकार, ये स्त्रियाँ नपुंसक (eunuchs) होती हैं।

➤ क्लाइन फेल्टर्स सिन्ड्रोम* (Kilnefelter’s Syndrome)

इनमें लिंग गुणसूत्र दो के बजाय तीन और प्रायः XXY होते हैं। अतः ये लिंग गुणसूत्रों के लिए ट्राइसोमिक (Trisomic) होते हैं। (2n + 1 या 44 + XXY)। Y गुणसूत्र की उपस्थिति के कारण, इनका शरीर लगभग सामान्य पुरुषों जैसा होता है, लेकिन एक अतिरिक्त X गुणसूत्र की उपस्थिति के कारण वृषण (testes) तथा अन्य जननांग छोटे होते हैं और इनमें शुक्राणु (sperms) नहीं बनते। अतः ये सिन्ड्रोम भी नपुंसक होते हैं।* प्रायः इनमें स्त्रियों जैसे स्तनों का विकास हो जाता है (गाइनीकोमैस्टिया-Gynecomastia)। औसतन 500 पुरुषों में एक क्लाइनफेल्टर सिन्ड्रोम होता है।

ऐसे क्लाइनफेल्टर सिन्ड्रोम भी पाये जाते हैं जिनमें लिंग गुणसूत्र XYY या XXY या तीन से अधिक XXXY, XXXXY, XXXXXY- होते हैं। XYY वाले सिन्ड्रोम, लम्बे, बुद्ध, कामुम और गुस्सैल एवं उग्र स्वभाव के अतिनर (super malas) होते हैं। इनके विपरीत, अतिमादाएँ (metafemales or super females-XXX) प्रायः बुद्ध और बाँझ होती हैं। दो या दो से अधिक X गुणसूत्रों वाले सब नर नपुंसक होते हैं।

➤ बार पिण्ड (Barr bodies)

सन् 1949 में बार एवं बरट्राम ने बिल्लियों की त्वचा, मुख- गुहिका की श्लेष्मिका आदि की कोशिकाओं के केन्द्रक में प्रायः केन्द्रक कला से चिपका, एक छोटा-सा घना पिण्ड देखा जो गुणसूत्रों की भाँति गहरा स्टेन (stain) लेता है। ऐसा ही पिण्ड तंत्रिका कोशाओं के केन्द्रक में केन्द्रिका (nucleolus) के निकट तथा न्यूट्रोफिल्स में केन्द्रक से एक डण्ठल (drumstick) द्वारा लगा हुआ देखा गया। बाद में पता चला कि यह पिण्ड सामान्य मादा की कोशाओं में भी होता है जबकि, सामान्य नर की कोशाओं में नहीं। यह भी पता चला है कि यह मादाओं की देह कोशाओं (somatic cells) में उपस्थित XX लिंग-गुणसूत्रों में से ही एक का बदला हुआ रूप होता है। अतः इसे लिंग-क्रोमैटिन (sex or X chromatin) बताया गया और खोजकर्ता के नाम पर इसका नाम बार बॉडी (Barr bodies) रख दिया गया। अब इन पिण्डों की उपस्थिति या अनुपस्थिति का उपयोग गर्भावस्था में ही सन्तान के लिंग निर्धारण तथा अनियमित लिंग-गुणसूत्रों वाले व्यक्तियों के वास्तविक अर्थात् जीनी लिंग- निर्धारण में किया जाता है। इस प्रक्रिया को एमनियोसेंटिसिस ( Amniocentisis) की संज्ञा प्रदान की गई है (IAS, RAS/RTS) 1* अनियमित गुणसूत्रों वाले पुरुषों (क्लाइनफेल्टर्स सिन्ड्रोम्स-XXY) तथा सामान्य या अनियमित गुणसूत्रों वालों स्त्रियों में उपस्थित एक- से अधिक X गुणसूत्र, सब बार पिण्डों में बदल जाते हैं।

(B) सुगुणिता (Euploidy)

जब किसी स्पेसीज में आधार गुणसूत्र संख्या (Basic number of chromosome)-जैसे मनुष्य में (x = 23 or n = 23) का ठीक गुणनफल पाया जाता हो तो उसे सुगुणिता कहते हैं। इसका अधिकांश उदाहरण पौधों में प्राप्त होता है। सुगुणिता को तीन वर्षों में विभक्त किया जाता है। यथा-अगुणित (Haploid), द्विगुणित (Diploid) एवं बहुगुणित (Polyploid).

➤ बहुगुणिता (Polyploidy)

जब किसी स्पेसीज में एक ही जीनोम की दो से अधिक प्रतियाँ अथवा एक से अधिक जिनोम पाये जाते हैं, तो उसे बहुगुणिता कहते हैं।* बहुगुणिता दो प्रकार की होती है। यथा-

(i) स्वबहुगुणिता (Autopolyploidy)

(ii) परबहुगुणिता (Allopolypolyidy)

(i) स्वबहुगुणिता (Autopolyploidy)*- जब एक ही जीनोम (Haploid or Basic Set or Chromosome) की दो से अधिक प्रतियाँ उपस्थित हों, तो उसे स्वबहुगुणिता (Autopolyploidy) कहते हैं। जैसे 3x or 3n, 4n आदि।

(ii) परबहुगुणिता (Allopoly ploidy)* – जब किसी प्रजाति में दो या दो से अधिक भिन्न जिनोम (genome) उपस्थित होते हैं तो उसे परबहुगुणिता कहते हैं। जैसे ट्रिटिकेल (Triticale), जो कि गेहूँ एवं राई के F, संकर के गुणसूत्र द्विगुणन से प्राप्त होता है।* अथवा रैफनोब्रेसिका जो कि मूली एवं पातगोभी से तैयार किया गया।

स्वबहुगुणितों की (Autopolyploidy) उत्पत्ति अधोलिखित प्रकार से हो सकती है। जैसे-प्राकृतिक रूप में स्वतः या कृत्रिम रूप से गामा या एक्स किरणों के विकिरण द्वारा, ऊतक संवर्धन (Tissue Culture) अथवा कोल्चीसीन रसायन के उपचार से। व्यावहारिक रूप में कोल्चीसीन का व्यापक उपयोग होता है।*

परबहुगुणितों (Allopolypolyidy) की उत्पत्ति दो भिन्न प्रजातियों के संकरों के गुणसूत्र द्विगुणन द्वारा होता है। हमारी कई प्रमुख फसलें-यथा, गेहूँ, कपास, तम्बाकू एवं जई आदि परबहुगुणित हैं।*

उत्परिवर्तन (Mutation)

किसी जीव के किसी लक्षण में आकस्मिक (sudden) एवं वंशागत (heritable) परिवर्तन को उत्परिवर्तन* (Mutation) कहते हैं। उत्परिवर्तन यों तो प्रकृति में अपने आप होते रहते हैं, लेकिन कुछ कारकों द्वारा बहुत उच्च आवृत्ति में उत्परिवर्तन प्रेरित किया जाता है। इस आधार पर उत्परिवर्तनों को निम्नलिखित दो श्रेणियों में बाँटा जाता है। यथा-

(i) स्वतः उत्परिवर्तन (Spontaneous Mutation)-

जो उत्परिवर्तन प्रकृति में प्राकृतिक कारणों द्वारा स्वतः उत्पन्न होता रहता है, उसे स्वतः उत्परिवर्तन की संज्ञा प्रदान की जाती है। * इसके निम्नलिखित कारण हो सकते हैं- (1) DNA प्रतिकृति (Replication) के दौरान DNA पॉलीमरेस द्वारा त्रुटि (ii) DNA क्षारकों का स्वतः विमेथिलीकरण (iii) परिवर्तनशील अवयवों की सक्रियता तथा (iv) सौर विकिरणों एवं वातावरण में उपस्थित रासायनिक प्रदूषकों द्वारा भी स्वतः उत्परिवर्तन होता है।* (ii) प्रेरित उत्परिवर्तनशील (Induced Mutation)- जब उत्परिवर्तन किसी भौतिक या रासायनिक कारक से उपचार करने पर उत्पन्न होते हैं, तो उन्हें प्रेरित उत्परिवर्तन कहते हैं।* जो कारक उत्परिवर्तन प्रेरण करते हैं, उन्हें उत्परिवर्तनजन (Mutagen) कहा जाता है। ये दो प्रकार के होते हैं। यथा-(a) भौतिक कारकः जैसे-x-किरण (x-rays)*, गामा-किरण (Y-rays) * तीव्र एवं तापीय न्यूट्रान* तथा पराबैंगनी किरणें (ultroviolet rays)* आदि। (b) रासायनिक कारकः जैसे हाइड्रॉक्सिलैनीन नाइट्रस अम्ल, सोडियम एजाइड, एथिलमिथेन सल्फोनेट तथा नाइट्रोजन मस्टर्ड आदि।

उपरोक्त दोनों प्रकार के उत्परिवर्तनों की उत्पत्ति का कारण वास्तव में ‘जीन संरचना’ अर्थात् सम्बन्धित DNA अणु के क्षारक क्रम (base sequence) में परिवर्तन होता है।

जीन स्तर के उत्परिवर्तन (Mutation of Gene Level)

DNA अणु के संकेत सूचनावाहक जीनों में उत्परिवर्तनों से इन जीनों के नियन्त्रण में संश्लेषित होने वाली प्रोटीन्स में ऐमीनो अम्लों के अनुक्रम बदल जाते हैं और आनुवंशिक लक्षणों के दृश्यरूप प्रभावित हो सकते हैं। जीन स्तर के इन उत्परिवर्तनों की निम्नलिखित श्रेणियों होती हैं-

1. मूक जीनी उत्परिवर्तन (Silent Genic Mutations) : इसमें जीन के किसी त्रिगुणी संकेत (triplet code) में तीसरे स्थान के न्यूक्लिओटाइड के बदलने से कोड तो बदल जाता है, परन्तु नए कोड में भी पुराने कोड के ही ऐमीनो अम्ल की संकेत सूचना होती है। अतः परिणामी (resultant) पोलीपेप्टाइड श्रृंखला पर ऐसे उत्परिवर्तन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उदाहरणार्थ, mRNA अणु के CUU कोडोन का जीनी कोड CUA कोडोन के जीनी कोड में बदल सकता है, परन्तु दोनों ही में ऐमीनो अम्ल ल्यूसीन (leucine) की संकेत सूचना होती है।

2. लुप्तबोध उत्परिवर्तन (Missense Mutations) : इसमें जीन के किसी त्रिगुणी संकेत में पहले, दूसरे या कभी-कभी तीसरे स्थान के न्यूक्लिओटाइड के बदले जाने से किसी दूसरे ऐमीनो अम्ल की सूचना का कोड बन जाता है। यदि परिणामी पोलीपेप्टाइड श्रृंखला में इस नए ऐमीनो अम्ल का स्थान महत्त्वपूर्ण नहीं होता तो प्रोटीन की उपापचयी भूमिका पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता, अन्यथा प्रोटीन त्रुटिपूर्ण हो जाती है और इससे सम्बन्धित दृश्यरूप लक्षण में विकृति हो जाती है। इसकी एक उत्कृष्ट उदाहरण मनुष्यों के sickle-cell anaemia नामक रोग से मिलती है।

3. निषेधबोध उत्परिवर्तन (Nonsense Mutations) : इसमें जीन के किसी त्रिगुणी कोड में एक न्यूक्लिओटाइड ऐसे बदल जाता है कि मूल कोड mRNA अणु के समापन कोडोन termination codon- UGA, UAA या UAG) का कोड बन जाता है। अतः परिणामी पोलीपेप्टाइड श्रृंखला अधूरी रह जाती है और इससे सम्बन्धित लक्षण पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।

4. योजना-विस्थापन उत्परिवर्तन (Frameshift Mutations) : इसमें जीन के किसी स्थान पर से एक दो या अधिक (तीन या तीन के गुणकों में नहीं) न्यूक्लिओटाइड अणु हट जाते या नए न्यूक्लिओटाइड अणु जुड़ जाते है। अतः इस स्थान से आगे त्रिगुणी संकेतों का अनुक्रम पूरा बदल जाता है। इसके फलस्वरूप परिणामी प्रोटीन बिल्कुल भिन्न प्रकार की होती है और इससे सम्बन्धित दृश्यरूप लक्षण विकृत हो जाता है।

➤ उत्परिवर्तनों के अभिलक्षण (Characteristies of Mutation)

अब तक ज्ञात तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि स्वतः एवं प्रेरित उत्परिवर्तनों की प्रकृति में कोई अन्तर नहीं होता है। उत्परिवर्तनों के कुछ मुख्य अभिलक्षण नीचे दिये गए हैं।

(1) अधिकांश उत्परिवर्ती विकल्पी (Mutant alleles) अप्रभावी (recessive) होते हैं।*

(2) किसी जीन विशेष में उत्त्परिवर्तन होना या न होना मात्र संयोग पर निर्भर होता है।

(3) अधिकांश उत्परिवर्तन हानिकारक प्रभाव वाले होते हैं। लगभग 0.1 प्रतिशत उत्परिवर्तन लाभदायक होते हैं।

(4) प्रकृति में स्वतः उत्परिवर्तन होते रहते हैं। लिए स्वतः उत्परिवर्तन दर साधारणतया 10-4 से 10-7 एक से एक करोड़ तक) हो सकती है। किसी जीन के (दस हजार में

(5) विभित्र जीनों की स्वतः उत्परिवर्तन दर भिन्न होती है।

(6) कोशिका विभाजन की कुछ अवस्थाओं, जैसे, S अवस्था

(DNA Synthesis) में उत्परिवर्तनों द्वारा उपचारित करने पर प्रेरित उत्परिवर्तन दर अपेक्षाकृत अधिक होती है।*

(7) अधिकांश प्रेरित उत्परिवर्तन बहुप्रभावी (Poleiotropic) होते हैं।

➤ उत्परिवर्तन के अनुप्रयोग (Application of Mutation)

(1) अधिक विविधता (variation) उत्पन्न करने में उत्परिवर्तन का प्रयोग किया जाता है। परन्तु ध्यान रहे कि उत्परिवर्तन जननद्रव्य संग्रहों का विकल्प नहीं है।

(2) उत्परिवर्तन प्रजनन द्वारा उपज सहित विभिन्न मात्रात्मक लक्षणों में सुधार किया जा सकता है।

(3) किसी उत्कृष्ट एवं अनुकूलित किस्म के किसी एक जीवी लक्षण (Oligogenic Trait) में सुधार के लिए।

(4) अवांछनीय सहलग्न जीनों को इस विधि द्वारा हटाया जा सकता है।

(5) जंगली स्पेशीज से वांछित जीनों का फसलों में स्थानान्तरण किया जा सकता है।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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