पौधों एवं जन्तुओं का उनके आकारिकीय लक्षणों (morphological characters) के आधार पर वर्गिकीय वर्गीकरण (taxonomic classification) किया जाता है। इस तरह के वर्गीकरण में प्रत्येक स्पेसीज को एक स्थिर (fixed) इकाई माना जाता है; अर्थात्, यह माना जाता है कि प्रत्येक स्पेसीज के अभिलक्षण (characteristics) परिवर्तित नहीं होते हैं। इस धारणा में विभिन्न प्रजातियों के बीच अंतरों पर ज्यादा जोर दिया जाता है, और उनके बीच समानताओं पर ध्यान नहीं दिया जाता है। लेकिन बहुत समय पहले से भिन्न स्पेसीजों के बीच समानताओं का विश्लेषण एवं विवेचन चल रहा था, जिसके फलस्वरूप जैविक विकास की धारणा (organic evolution) का जन्म हुआ।
जैविक विकास की धारणा के अनुसार (1) आज की सभी प्रजातियों का विकास एक ही पूर्वज जीव से हुआ है, और यही उनके बीच में समानताओं का कारण है। इसके साथ ही (2) प्रत्येक स्पेसीज अचर (constant) न होकर परिवर्तनशील होती है, और उससे नई प्रजातियों का उद्भव (origin) होता रहता है।
यदि जैव विकास (Organic Evolution) हुआ है तो प्रारम्भ से लेकर आज तक की जीव-जातियों की शरीर-रचना, कार्यिकी एवं रासायनी, भ्रूणीय विकास, वितरण, आचरण (behaviour) आदि में कुछ-न-कुछ सम्बन्ध एवं क्रम (relationship and gradation) होना आवश्यक है। लैमार्क, डार्विन, वैलैस, डी ब्रीज आदि ने जैव विकास के बारे में अपनी-अपनी परिकल्पनाओं को सिद्ध करने के लिए इन्हीं सम्बन्धों एवं क्रमों को दिखाने वाले प्रमाण प्रस्तुत किए जिन्हें हम निम्नलिखित श्रेणियों में बाँट सकते हैं। यथा-
1. वर्गीकरण से प्रमाण
2. तुलनात्मक संरचना से प्रमाण
3. संयोजक जन्तुओं से प्रमाण
4. पूर्वजता से प्रमाण
5. तुलनात्मक भ्रौणिकी से प्रमाण
6. भौगोलिक वितरण से प्रमाण
7. तुलनात्मक कार्यिकी एवं जैव रासायनी से प्रमाण
8. आनुवंशिकी से प्रमाण
9. पशु-पालन से प्रमाण
10. रक्षात्मक समरूपता से प्रमाण
11. जीवाश्म विज्ञान एवं जीवाश्मों से प्रमाण
ध्यातव्य है कि यहाँ हम सामान्य अध्ययन एवं सी-सैट की दृष्टि से महत्वपूर्ण तथ्यों एवं धारणाओं का वर्णन कर रहे हैं। यथा-
➤ जीवों के वर्गीकरण से प्रमाण (Classification or Taxonomy)
विभिन्न वर्तमान जातियों की उत्पत्ति किसी-न-किसी समय समान पूर्वजों से ही विकास क्रम में हुई है। उदाहरणार्थ, मछलियों (Pi- sces), उभयचरों (Amphibians), सरीसृपों (Reptiles), पक्षियों (Aves), तथा स्तनियों (Mammals) को एक ही समूह-उपसंघ वर्टीब्रेटा (Vertebrata) में रखते हैं, क्योंकि इन सब की पीठ में कशेरुकदण्ड (vertebral column) होती है, जो अन्य जन्तुओं (अकशेरुकियों- Invertebrates) में नहीं होती। अतः अतीतकाल में कशेरुकियों की एक ही सहपूर्वज से उत्पत्ति होकर विभिन्न दिशाओं में क्रमिक उद्विकास हुआ होगा। इसी प्रकार प्रोटोजोआ (Protozoa) से लेकर कॉर्डेटा (Chordata) तक विभिन्न संघों (Phyla) के जन्तुओं में हमें क्रमिक विकास का प्रमाण मिलता है।
➤ तुलनात्मक संरचना से प्रमाण (Comparative Morphology)
(A) समजातता (Homology) : मौलिक समानता वाले अंगों को समजात अंग (homologous organs) कहते हैं और इनकी इस समानता को समजातता (homology) कहते हैं। रिचर्ड ओवन के अनुसार “विभिन्न जीव-जातियों के वे अंग जिनमें कि, भ्रूणीय विकास भ्रूण के समान भागों से होने के कारण, एक मौलिक समानता होती है, समजात अंग होते हैं, चाहे वयस्क अवस्था की वास्तविक रचना और कार्य में वे कितने ही भिन्न हों।” इस प्रकार समजातता जैव विकास का ठोस प्रमाण है। जैसे- सारे चतुष्पादीय कशेरूकियों के अग्रपाद मूल रचना में समान हैं-
(1) इनमें समान-सी हड्डियों ह्यूमरस, रेडियस, अल्ना, कार्पल्स, मेटाकार्पल्स तथा अंगुलास्थियाँ का अन्तः कंकाल (endoskeleton) है। (2) रुधिर की सप्लाई तथा तन्त्रिकीय सप्लाई भी समान-सी हैं और (3) विभिन्न निकटवर्ती भागों से अग्रपादों के सम्बन्ध भी समान से होते हैं। इस मौलिक समानता का वास्तविक कारण यह है कि सारे चतुष्पादीय कशेरुकियों में अग्रपादों का भ्रूणीय विकास भ्रूण के लगभग समान भागों से और लगभग समान विधि से होता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि एक ही सह-पूर्वज से सारे कशेरुकियों का उद्विकास हुआ।
(B) समरूपता या सादृश्यता (Analogy) : समजात अंगों के विपरीत, ऐसे अंग जो होते तो बहुत भिन्न प्रकार के जीवों में हैं, परन्तु समान कार्य के लिए उपयोजित हो जाने के कारण समान से दिखाई देते हैं समरूप अंग कहलाते हैं। स्पष्ट है कि ये अंग भ्रूणीय उत्पत्ति और विकास में तथा मौलिक रचना में बहुत भिन्न होते हैं। इनकी दिखावटी समानता को समरूपता (analogy) कहते हैं। जैसे- उड़ने वाले कीटो के पंख देखने में तो पक्षियों एवं चमगादड़ों के पंखों जैसे लगते हैं, लेकिन भ्रूणीय उत्पत्ति एवं विकास तथा मौलिक रचना में ये पक्षियों और चमगादड़ों के पंखों से बिल्कुल भिन्न होते हैं। पक्षी एवं चमगादड़ कशेरुकी जन्तु होते हैं और इनके पंख इनके अग्रपादों के रूपान्तरण से बने हड्डीयुक्त अंग होते हैं। इसके विपरीत, कीट अकशेरुकी (invertebrate) जन्तु होते हैं अतः इनके शरीर और पंखों में हड्डियाँ नहीं होतीं। इनके पंख पादों के रूपान्तरण से भी नहीं बनते। ये त्वचा के झिल्लीनुमा विस्तारों के रूप में बनते हैं। अतः कीटों के पंख पक्षियों और चमगादड़ों के पंखों के समरूप होते हैं।
(C) अवशेषी अंग (Vestigial Organs) : बड़े जन्तुओं में प्रायः कुछ स्पष्ट, परन्तु अर्धविकसित एवं निष्क्रिय, अनावश्यक अंग या अंगों के भाग पाए जाते हैं। इन्हें अवशेषी (L. vestigium footprint) अंग कहते हैं। अवशेषी अंग पूर्वजों की देन होते है। पूर्वजों में ये पूर्ण विकसित होते रहे हैं, लेकिन वातावरणीय दशाओं के बदल जाने से, इनका महत्त्व समाप्त हो जाने के कारण, ये विकास क्रम में क्रमिक लोप (gradual extinction) की दिशा में अवशेषी अंगों के रूप में चलते रहते हैं। जैसेः व्हेलमछलियों तथा सर्पों में पश्चपाद नहीं होते फिर भी पश्चपादों और इनसे सम्बन्धित श्रोणिमेखलाओं (Pelvic girdless) के अवशेष होते हैं। मानव में 100 से अधिक अवशेषी अंग पाये जाते हैं। यथा- नेत्रों की प्लिका सेमीलुनेरिस, कर्ण पल्लव की पेशियाँ, त्वचा के बाल, पुच्छ कशेरुकाएँ (Tail vertebrae), vermiform appen- dix, Wisdom feeth साइनस कोक्सीक्स, Hiccups, Arrector Pilli, Hymen, Palmaris longun, Coccux आदि।
➤ संयोजक जातियाँ (Connecting Links or Species)
कुछ जीव-जातियों में इनसे कम विकसित, निम्न वर्गीय जातियों के तथा इनसे अधिक विकसित उच्च वर्गीय जातियों के लक्षणों का सम्मिश्रण पाया जाता है। इन्हें संयोजक जातियाँ कहते हैं। इनसे जैव विकास का ठोस प्रमाण इस प्रकार मिलता है कि पहले की निम्नवर्गीय जातियों से संयोजक जातियों का और फिर इनसे उच्च वर्गीय जातियों का उद्विकास हुआ है। जैसे-
संयोजक जन्तु | संयोजक संघ | अन्य विशिष्टताएँ |
1. प्रोटीरोस्पंजिया | प्रोटोजोआ तथा पोरीफेरा | इनके एक कोशिकीय सदस्य स्पंजों की कीप-कोशिकाओं के समान होते हैं। |
2. यूग्लीना* | पादप एवं जन्तु का संयोजक | प्रोटोजोआ संघ का जन्तु, जो क्लोरोफिल युक्त होता है।* |
3. नियोपिलाइना | ऐनीलिडा से मोलस्का | इसमें गुम्बदनुमा कवच (मोलस्का) तथा जलक्लोम (gills) पाये जाते हैं। |
4. पेरीपैटस* | ऐनीलिडा से आर्थोपोडा* | ——– |
5. आर्कियोओप्टेरिक्स* | सरीसृपों से पक्षी वर्ग (Reptilia to Aves)* | सरीसृप की भाँति लम्बी पूँछ, चोंच में दाँत अग्रपादों में पंजे (सरीसृप) तथा उड़ने के लिए पंख भी।* |
6. प्रोटोथीरिया तीन श्रेणियाँ
| सरीसृप से स्तनी*
| * स्तन, बाल और अवस्कर मार्ग उपस्थित, गर्भाशय अनुपस्थित
|
➤ तुलनात्मक भ्रौणिकी (Comparative Embryology)
जन्तु अपनी भ्रूणावस्था में पूर्वजों की भ्रूणावस्थाओं को दोहराते हैं। सभी बहुकोशिकीय जन्तुओं के भ्रूणीय परिवर्धन में समान-सी मॉरूला (morula), ब्लैस्टुला (blastula) और गैस्टुला (gastrula) प्रावस्थाएँ होती हैं। सभी के जाइगोट से प्रोटोजोअन जैसे पूर्वज का और गैस्टुला से नाइडेरिया जैसे पूर्वज का आभास मिलता है। यहीं नहीं, मछलियों से लेकर मानव तक, सभी कशेरूकियों में भ्रूण की प्रारम्भिक प्रावस्था रचना में समान-सी होती है।
➤ भौगोलिक वितरण से प्रमाण (Geographical Distribution)
किसी भी भौगोलिक क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के पादपों की कुल आबादी को इसका पादप समूह (flora) तथा विभिन्न प्रकार के जन्तुओं की कुल आबादी को जन्तु समूह (fauna) कहते हैं। पृथ्वी पर जीवों के वर्तमान भौगोलिक वितरण से हमें जैव विकास के प्रमाण मिलते हैं। जैसे-
• उच्च स्तनियों अर्थात् यूथीरिया (Eutheria) की उत्पत्ति से पहले, मीसोजोइक महाकल्प में, स्तनी वर्ग के केवल प्रोटोथीरिया (Prototheria) तथा वर्तमान कंगारू (Kangaroo – मासूपियेलिया Marsupialia) जैसे निम्न श्रेणियों के स्तनी ही पूरी पृथ्वी पर फैले हुए थे। उस समय ऑस्ट्रेलिया एशिया महाद्वीप से जुड़ा हुआ था। इसी कल्प में, बाद में, ऑस्ट्रेलिया एशिया महाद्वीप से टूटकर पृथक् हो गया। तत्पश्चात्, ऑस्ट्रेलिया को छोड़कर, पूरी पृथ्वी पर प्रारम्भिक यूथीरिया का उदय हुआ। मांसाहारी होने के कारण इन्होंने निम्न श्रेणियों के स्तनियों को खाकर नष्ट कर दिया। अतः निम्न स्तनी केवल ऑस्ट्रेलिया में ही रह गए और अब भी केवल वहीं पाए जाते हैं। अब ऑस्ट्रेलिया में यूथीरियायी स्तनियों की भी कुछ जातियाँ (घोड़े, भेड़ें, बकरियाँ, गाय आदि) हैं, परन्तु इन्हें मनुष्य ने वहाँ पहुँचाया है। ऐसे ही अन्यान्य प्रमाणों के आधार पर डार्विन इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि
(i) प्रकृति में एक जीव-जाति की किसी एक ही क्षेत्र-विशेष में, केवल एक ही बार उत्पत्ति होती है;
(ii) ज्यों-ज्यों जाति की आबादी बढ़ती है, इसके सदस्य उत्पत्ति केन्द्र से देशान्तरण द्वारा चारों ओर फैलते हैं;
(iii) विभिन्न नए भू-भागों में पहुँचकर नई-नई वातावरणीय दशाओं के लिए उपयोजित हो जाने से इनके मूल जातीय लक्षण बदलने लगते हैं;
(iv) इन्हीं परिवर्तनों के कारण अन्त में इनसे नई-नई जातियों की उत्पत्ति हो जाती है।
➤ तुलनात्मक कार्यिकी एवं जैव-रासायनी (Comparative Physiology & Biochemistry)
आधुनिक वैज्ञानिकों ने जन्तुओं की कार्यिक एवं जैवरासायनी से भी जैव विकास को सिद्ध करने वाले निम्नलिखित प्रमाण दिए हैं-
• प्रारम्भिक जीवों से लेकर जटिलतम् स्तनियों तक जीवद्रव्य का रासायनिक संयोजन लगभग समान-सा होता है।
• ट्रिप्सिन (Trypsin) नामक प्रोटीन-पाचक एन्जाइम प्रोटोजोआ से स्तनियों तक अधिकांश जन्तुओं में होता है। इसे इसीलिए “प्राचीन एन्जाइम या प्रोटीन (ancient enzyme or protein)” कहते हैं।
• एमाइलेज (amylase) नामक कार्बोहाइड्रेट-पाचक एन्जाइम स्पंजों से स्तनियों तक सभी बहुकोशिकीय जन्तुओं में पाया जाता है।
• सभी प्रकार के जीवों में आनुवंशिक पदार्थ DNA एवं दूसरा न्यूक्लीक अम्ल RNA होता है।
• थाइरॉक्सिन हॉरमोन सभी कशेरुकियों में पाया जाता है। एक वर्ग के कशेरुकियों का थाइरॉक्सिन दूसरे वर्ग के कशेरुकियों के शरीर में इन्जेक्ट कर दें तो यह सामान्य रूप से अपना काम करता है।
• विभिन्न कशेरुकी जन्तु रचना आदि में जितने समान होते हैं उतनी ही समानता इनके हीमोग्लोबिन से बनाए गए हीमैटिन रबों (Haematin crystals) की आकृति एवं माप में भी होती है। रवों की यह समानता कशेरुकियों के वर्तमान वर्गीकरण को प्रमाणित करती है।
• तुलनात्मक सीरम-विज्ञान (Comparative Seriology) से सिद्ध हुआ है कि मानव कपियों का निकटतम सम्बन्धी है, फिर बन्दरों का और फिर टारसियर्स एवं लीमरों (Tarsiers and Le- murs) का। वर्गीकरण की अनेक समस्याओं का समाधान इसी विधि से किया गया है।
• सारे जीवों में उपापचय (metabolism) की प्रक्रियाएँ लगभग समान-सी होती हैं। प्रोटीन्स के संश्लेषण में 20 प्रकार के समान ऐमीनो अम्ल अणु भाग लेते हैं और ऊर्जा रूपान्तरण में ATP ही प्रमुख ऊर्जा-वाहक का काम करती है।
• सभी जीवों की कोशिकाओं के माइटोकॉण्ड्रिया में साइटोक्रोम ‘सी’ (cytochrome ‘c’) एन्जाइम होता है।
➤ आनुवंशिकी से प्रमाण
गुणसूत्र प्ररूप (Karyotype) एवं जीन प्ररूप (genotypes) के आधार पर विभिन्न जातियों के बीच उद्विकासीय सम्बन्धों की पुष्टि विभिन्न प्रकार के जीवों के परस्पर जनन (reproduction), अर्थात् संकरण (hybridization) से की जा सकती है। यह निश्चित ज्ञात हो चुका है कि कोई जीव अपनी ही जाति के अन्य सदस्यों से जनन करके सामान्य सन्तानोत्पत्ति कर सकता है, किसी अन्य जाति के सदस्यों से जनन करके नहीं। अतः यदि विभिन्न जातियों के सदस्यों में परस्पर संकरण (cross-breeding) कुछ सीमा तक सफल हो जाता है तो यह इन जातियों के घनिष्ठ विकासीय सम्बन्धों को प्रमाणित करता है। उदाहरणार्थ, घोड़ों की जाति ईक्वस कैबेलस (Equus cabalus) तथा गधों की जाति ईक्वस ऐसीनस (Equus asinus) में संकरण (Cross breeding) सफल हो जाता है और वर्णसंकर खच्चर (mules) बन जाते हैं। यद्यपि खच्चर बंजर (sterile) होते हैं, अर्थात् ये जनन नहीं कर सकते, लेकिन ये सिद्ध करते हैं कि ईक्वस ऐसीनस और ईक्वस कैबेलस का आनुवंशिक पदार्थ काफी समान है। अतः घोड़ों और गधों का एक ही पूर्वज से विकास हुआ है। इसी प्रकार, प्रकृति में भी आकस्मिक संकरणों द्वारा नई वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति होती रहती है। टोड (Bufo), बत्तख आदि तथा पादपों में कपास, गेहूँ, तम्बाकू, आलू आदि वर्णसंकर ही हैं। इसके अतिरिक्त, जीन्स (genes) में परिवर्तनों, अर्थात् उत्परिवर्तनों (mutations) के कारण सन्तानों के लक्षणों में स्थाई आनुवंशिक परिवर्तन हो जाते हैं। इनके फलस्वरूप भी अन्त में नई जातियों का विकास हो जाता है।
➤ जीवाश्म (Palaeontology) से प्रमाण
जीवाश्मों से जैव विकास के वास्तविक, ठोस प्रमाण मिलते हैं। इनसे पता चलता है कि युगों-युगों से जीवों में कैसे-कैसे परिवर्तन होते चले आए हैं, अर्थात् इनसे हमें प्रत्येक जीव-जाति के उद्विकास- क्रम या जातिवृत्त (phylogeny) का ज्ञान होता है। यह कहना गलत न होगा कि जैव विकास को सिद्ध करने के लिए ही पृथ्वी ने जीवाश्मों को एक “भूवैज्ञानिक रिकॉर्ड (geological record)” के रूप में सँजोकर रखा है। अतः जीवाश्म विज्ञान में जीव विज्ञान एवं भूगर्भ विज्ञान (Geology) का घनिष्ठ समागम है।
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