धर्मयुद्ध
धर्म युद्ध 1095 ई. में आरंभ होकर लगभग दो शताब्दियों तक संपूर्ण यूरोप में चला । इस युद्ध का नारा था, “ईश्वर यह चाहता है.. . ईश्वर यह चाहता है।” यह धर्मयुद्ध सशस्त्र तीर्थयात्राएँ थीं, जो पवित्र भूमि यरुशलम को मुसलमानों से मुक्त कराने के लिए की जाती थीं।
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• धर्मयुद्ध का कारण ईसाई पोप उर्बान ने अपने प्रवचन में ईसाइयों को मुसलमानों से लड़ने को कहा। उनके शब्दों में यरुशलम का एक-एक स्थान ईसा द्वारा उच्चारित शब्दों से और उसके किए चमत्कारिक कार्यों से प्रभावित हो रहा है।
• मुसलमान पहले ईसाई धर्म के प्रति सहिष्णु थे; किन्तु बाद में असहिष्णु हो गए थे।
• सल्जुक तुर्क मुसलमान बन गए थे तथा उन्हें तुर्की से निकाल दिया गया था।
• अधिकांश ईसाइयों को विश्वास था कि इस लोक में कष्ट सहने से उन्हें परलोक में लाभ होगा।
• पूर्व की अत्यधिक समृद्धि की कहानियों ने पश्चिम के बहुत से किसानों को इस युद्ध में भाग लेने को प्रेरित किया ।
धर्मयुद्ध क्या है ?
“धर्मयुद्ध” एक ऐसा युद्ध है जो धार्मिक अथवा धार्मिक आदान-प्रदानों पर आधारित होता है। इसमें समाज, सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों के लिए युद्ध करने का तत्परता होता है। धर्मयुद्ध अक्सर धर्म संरक्षण, पुनर्निर्माण, या अपने आपको धर्म की रक्षा करने का उद्दीपन करता है।
मध्यकाल में, धर्मयुद्ध का एक उदाहरण “क्रुसेड” था, जो ईसाई धर्मी लोगों के द्वारा मुस्लिम द्वारा जबाह की गई इलाहाबाद और अन्य पवित्र स्थलों को पुनः प्राप्त करने के लिए किया गया। यह युद्ध धार्मिक उत्साह के साथ था और इसने इस्लाम और ईसाई धर्मों के बीच सांस्कृतिक एवं तात्कालिक विनिमय को प्रभावित किया।
हालांकि धर्मयुद्ध अब एक सामाजिक, राजनीतिक, और आंतरराष्ट्रीय मामले के रूप में नहीं होता है, धर्म के नाम पर युद्ध का विचार आज भी विवादित हो सकता है।
धर्मयुद्ध क्यों हुए थे?
धर्मयुद्धों के कई कारण थे, जो इतिहास, सामाजिक, और धार्मिक परिस्थितियों के परिवर्तनों से संबंधित थे। ये कारण विभिन्न क्षेत्रों में विभाजित हो सकते हैं:
1. धार्मिक आदान-प्रदान की रक्षा: धर्मयुद्धों का एक मुख्य कारण था धार्मिक आदान-प्रदानों और पवित्र स्थलों की रक्षा। इन युद्धों का उद्दीपन धार्मिक अभिवादन और सुरक्षा की आवश्यकता से हुआ।
2. तात्कालिक राजनीतिक उत्साह: राजनीतिक मोटीवेशन भी एक महत्वपूर्ण कारण था। राजा और साम्राज्यों ने धर्मयुद्धों का समर्थन करके अपनी सत्ता बढ़ाने का प्रयास किया।
3. भूमि और संसाधनों का आकर्षण: धर्मयुद्धों के कुछ मुख्य चरणों में जमीन, संसाधन, और राजसी स्वाधीनता के लिए आकर्षण भी था।
4. व्यापार और व्यापारिक हितों की रक्षा: कुछ धर्मयुद्ध व्यापारिक हितों की रक्षा के लिए हुए, जिसमें समुद्री मार्गों, व्यापारिक सेटलमेंट्स और उनकी सुरक्षा शामिल थीं।
5. सांस्कृतिक और वैशिष्ट्य के लिए युद्ध: धर्मयुद्ध एक सांस्कृतिक एवं वैशिष्ट्य संरक्षण का एक साधन भी था, जिससे लोग अपनी भाषा, साहित्य, और संस्कृति को सुरक्षित रख सकते थे।
6. समुद्री और सांस्कृतिक आदान-प्रदान: कुछ धर्मयुद्ध समुद्री रास्तों की रक्षा के लिए भी हुए, ताकि व्यापारिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान सुरक्षित रह सके।
इन कारणों के संग-संग, धर्मयुद्धों का क्रम इतिहास के विभिन्न समय-समय पर विभिन्न स्थितियों और संदर्भों में हुआ।
धर्म युद्ध के परिणाम
• धर्मयुद्ध ईसाईयों की पवित्र भूमि यरुशलम पर अधिकार कर पाने में असफल रहा। लेकिन इससे नए यूरोप का निर्माण अवश्य हुआ। ईसाई लोग युद्ध में असफल अवश्य हुए; किन्तु उन्हें अरबों के सहयोग से एक नई सभ्यता को समझने का मौका अवश्य मिला। चिकित्सा, विज्ञान, दर्शन, भूगोल और कला में मुसलमानों और बाइजेंटियन की उपलब्धियों ने यूरोप को प्रेरणा दी । अब यूरोपीय नागरिक दिक्सूचक का प्रयोग करने लगे ।
• अधिकाधिक यूरोपीय महिलाएँ मखमल, रेशम, छींट और दामस्क के चोंगे पहनने लगी।
• व्यापारियों को इस बहाने पूर्व से व्यापार बढ़ाने का अवसर मिला।
• इटली के नगरों के व्यापारी पवित्र भूमि में लड़े जाने वाले युद्धों के लिए जहाजों का निर्माण करके और उन्हें आवश्यक सामग्रियाँ बेच-बेच कर मालामाल हो गए। लंदन, पेरिस, कोलोन और हैम्बर्ग मुख्यतया व्यापार बढ़ जाने के कारण बड़े नगर बने ।
• सामंत तंत्र को दुर्बल करके राजा की शक्ति को बढ़ा दिया।
सामंतवाद
सामंतवाद को अंग्रेजी में ‘फ्यूडल सिस्टम’ कहते हैं। फ्यूडल सिस्टम ‘फ्यूड’ से बना है। जिसका अर्थ है ऐसा कुछ भाग जो सेवा करने की कुछ शर्तों पर उसका स्वामी किसी सामंत को खेती के लिए देता था और इस समाज में खेती ही शक्ति का एकमात्र स्रोत थी । कुल मिलाकर, यह भूस्वामित्व एवं व्यक्तित्व संबंधों पर आधारित एक सामाजिक पद्धति होती थी, जिसमें परस्पर अधिकारों तथा कर्तव्यों का निर्धारण होता था।
सामंतवाद के दो मौलिक विचार थे-
1. प्रत्येक व्यक्ति का कोई स्वामी होना चाहिए, जो उसकी रक्षा कर सके तथा जिसकी वह बदले में सेवा कर सके, 2. सभी राजनीतिक एवं सामाजिक संबंधों का आधार भू-नियंत्रण था । वस्तुतः भूमि का अधिकार या भू-नियंत्रण ही इस संबंध का एकमात्र आधार था। संकट के समय इसी से पारस्परिक सेवा एवं सुरक्षा का भी काम होता था।
पवित्र रोमन साम्राज्य (THE HOLY ROMAN EMPIRE)
• प्राचीन रोम के निवासी-‘एट्रस्कन’ जाति-वंश के थे।
• रोमवासियों की भाषा – लैटिन
• रोम के प्राचीनतम निवासियों के वंशज ‘पेट्रिशियन’ कहलाते थे।
• रोम में गणतंत्र की स्थापना के बाद भी ‘सीनेट’ ही अपेक्षाकृत अधिक शक्तिशाली बना रहा ।
• नवीन साम्राज्य प्राचीन से सर्वथा भिन्न था। चर्च और ईसाई मत की शक्ति की रक्षा एवं विस्तार के लिए यह केवल सिद्धांत तक ही सीमित था और इसीलिए इसे ‘पवित्र रोमन साम्राज्य’ कहते थे।
• मध्ययुगीन पश्चिमी साम्राज्य न तो प्राचीन रोमन साम्राज्य जैसा था, न ही उसका वह पुराना सिलसिला था । वह एक नया साम्राज्य था, जिसका केवल नाम ही उस प्रकार का था । पोप लियो तृतीय ने 800 ई० में चर्लीमेग्ने (शार्लमा) का रोमन सम्राट के रूप में राज्याभिषेक किया था। बाद में जॉन बारहवें ने जर्मन ऑटो महान का ‘पवित्र रोमन सम्राट’ के रूप में राज्याभिषेक किया ।
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निष्कर्ष:
हम आशा करते हैं कि आपको यह पोस्ट धर्मयुद्ध जरुर अच्छी लगी होगी। धर्मयुद्ध के बारें में काफी अच्छी तरह से सरल भाषा में समझाया गया है। अगर इस पोस्ट से सम्बंधित आपके पास कुछ सुझाव या सवाल हो तो आप हमें कमेंट बॉक्स में ज़रूर बताये। धन्यवाद!
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