राष्ट्रभाषा (National Language) क्या है ?
1. राष्ट्रभाषा का शाब्दिक अर्थ है-समस्त राष्ट्र में प्रयुक्त भाषा अर्थात् आम जन की भाषा (जनभाषा)। जो भाषा समस्त राष्ट्र में जन-जन के विचार-विनिमय का माध्यम हो, वह राष्ट्रभाषा कहलाती है।
2. राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता एवं अतर्राष्ट्रीय संवाद-सम्पर्क की आवश्यकता की उपज होती है। वैसे तो सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ होती हैं किन्तु राष्ट्र की जनता जब स्थानीय एवं तात्कालिक हितों व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने राष्ट्र की कई भाषाओं में से किसी एक भाषा को चुनकर उसे राष्ट्रीय अस्मिता का एक आवश्यक उपादान समझने लगती है तो वही राष्ट्रभाषा है।
3. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रभाषा की आवश्यता होती है। भारत के संदर्भ में इस आवश्यकता की पूर्ति हिन्दी ने किया । यही कारण है कि हिन्दी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान (विशेषतः 1900 ई०-1947 ई०) राष्ट्रभाषा बनी ।
4. राष्ट्रभाषा शब्द कोई संवैधानिक शब्द नहीं है बल्कि यह प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता प्राप्त शब्द है।
5. राष्ट्रभाषा सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं-परंपराओं के द्वारा सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात् राष्ट्रभाषा की प्राथमिक शर्त देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है।
6. राष्ट्रभाषा का प्रयोग क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की संपर्क-भाषा होती है। इसका व्यापक जनाधार होता है।
7. राष्ट्रभाषा हमेशा स्वभाषा ही हो सकती है क्योंकि उसी के साथ जनता का भावनात्मक लगाव होता है।
8. राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी भी रूप में ढाला जा सकता है।
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1. अंग्रेजों का योगदान
● राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्क-भाषा (link-language) होती है। हिन्दी दीर्घकाल से सारे देश में जन-जन के पारस्परिक सम्पर्क की भाषा रही है। यह केवल उत्तर भारत की भाषा नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के आचार्यों-वल्लभाचार्य, रामानुज, आदि ने भी इसी भाषा के माध्यम से अपने मतों का प्रचार किया था । अहिन्दी भाषी राज्यों के भक्त-संत कवियों (जैसे असम के शंकर देव, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर व नामदेव, गुजरात के नरसी मेहता, बंगाल के चैतन्य आदि) ने इसी भाषा को अपने धर्म और साहित्य का माध्यम बनाया था ।
● यही कारण था कि जब जनता और सरकार के बीच संवाद- स्थापना के क्रम में फारसी या अंग्रेजी के माध्यम से दिक्कतें पेश आईं तो कंपनी सरकार ने फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी विभाग खोलकर अधिकारियों को हिन्दी सिखाने की व्यवस्था की। यहाँ से हिन्दी पढ़े हुए अधिकारियों ने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में उसका प्रत्यक्ष लाभ देखकर मुक्त कंठ से हिन्दी को सराहा ।
● सी० टी० मेटकाफ ने 1806 ई० में अपने शिक्षा गुरु जान गिलक्राइस्ट को लिखा : ‘भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है, कलकता से लेकर लाहौर तक, कुमाऊँ के पहाड़ों से लेकर नर्मदा तक मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है, जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है। मैं कन्याकुमारी से कश्मीर तक या जावा से सिन्धु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूँ कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएँगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे।’
● टॉमस रोबक ने 1807ई० में लिखा : ‘जैसे इंग्लैण्ड जानेवाले को लैटिन सेक्सन या फ्रेंच के बदले अंग्रेजी सीखनी चाहिए, वैसे ही भारत आने वाले को अरबी-फारसी या संस्कृत के बदले हिन्दुस्तानी सीखनी चाहिए।’
● विलियम केरी ने 1816 ई० में लिखा : ‘हिन्दी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जानेवाली भाषा है।’
● एच० टी० कोलब्रुक ने लिखा : ‘जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रांत के लोग करते हैं, जो पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है, जिसको प्रत्येक गाँव में थोड़े-बहुत लोग अवश्य समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिन्दी है।’
● जार्ज ग्रियर्सन ने हिन्दी को ‘आम बोलचाल की महाभाषा’ (Great Lingua Franca) कहा है।
● इन विद्वानों के मंतव्यों से स्पष्ट है कि हिन्दी की व्यावहारिक उपयोगिता, देशव्यापी प्रसार एवं प्रयोगगत लचीलेपन के कारण अंग्रेजों ने हिन्दी को अपनाया। उस समय हिन्दी और उर्दू को एक ही भाषा मानी जाती थी जो दो लिपियों में लिखी जाती थी। अंग्रेजों ने हिन्दी को प्रयोग में लाकर हिन्दी की महती संभावनाओं की ओर राष्ट्रीय नेताओं एवं साहित्यकारों का ध्यान खींचा।
2. धर्म/समाज सुधारकों का योगदान
● धर्म/समाज सुधार की प्रायः सभी संस्थाओं ने हिन्दी के महत्व को भाँपा और हिन्दी की हिमायत की।
● ब्रह्म समाज (1828 ई०) के संस्थापक राजा राममोहन राय ने कहा: ‘इस समग्र देश की एकता के लिए हिन्दी अनिवार्य है’ । ब्रह्मसमाजी केशव चन्द्र सेन ने 1875 ई० में एक लेख लिखा- ‘भारतीय एकता कैसे हो,’ जिसमें उन्होंने लिखा : ‘उपाय है सारे भारत में एक ही भाषा का व्यवहार । अभी जितनी भाषाएँ भारत में प्रचलित हैं, उनमें हिन्दी भाषा लगभग सभी जगह प्रचलित है। यह हिन्दी अगर भारतवर्ष की एकमात्र भाषा बनायी जाय, तो यह काम सहज ही और शीघ्र सम्पन्न हो सकता है’ । एक अन्य ब्रह्मसमाजी नवीन चन्द्र राय ने पंजाब में हिन्दी के विकास के लिए स्तुत्य योगदान दिया।
● आर्य समाज (1875 ई०) के संस्थापक दयानंद सरस्वती गुजराती भाषी थे एवं गुजराती व संस्कृत के अच्छे जानकार थे। हिन्दी का उन्हें सिर्फ कामचलाऊ ज्ञान था, पर अपनी बात अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए तथा देश की एकता को मजबूत करने के लिए उन्होंने अपना सारा धार्मिक साहित्य हिन्दी में लिखा। उनका कहना था कि ‘हिन्दी के द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है’ । वे इस ‘आर्यभाषा’ को सर्वात्मना देशोन्नति का मुख्य आधार मानते थे। उन्होंने हिन्दी के प्रयोग को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। वे कहते थे, ‘मेरी आँखें उस दिन को देखना चाहती हैं जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा समझने और बोलने लग जायँ ।’
● अरविंद दर्शन के प्रणेता अरविंद घोष की सलाह थी कि ‘लोग अपनी-अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए सामान्य भाषा के रूप में हिन्दी को ग्रहण करें’ ।
● थियोसोफिकल सोसायटी (1875 ई०) की संचालिका ऐनी बेसेंट ने कहा था: ‘भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न भागों में जो अनेक देशी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनमें एक भाषा ऐसी है जिसमें शेष सब भाषाओं की अपेक्षा एक भारी विशेषता है, वह यह कि उसका प्रचार सबसे अधिक है। वह भाषा हिन्दी है। हिन्दी जाननेवाला आदमी संपूर्ण भारतवर्ष में यात्रा कर सकता है और उसे हर जगह हिन्दी बोलनेवाले मिल सकते हैं। भारत के सभी स्कूलों में हिन्दी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए ।’
● उपर्युक्त धार्मिक/ सामाजिक संस्थाओं के अतिरिक्त प्रार्थना समाज (स्थापना 1867 ई०, संस्थापक-आत्मारंग पाण्डुरंग), सनातन धर्म सभा (स्थापना 1895 ई०, संस्थापक- पं० दीनदयाल शर्मा), रामकृष्ण मिशन (स्थापना 1897 ई०, संस्थापक-विवेकानंद) आदि ने हिन्दी प्रचार में योग दिया।
● इससे लगता है कि धर्म/समाज सुधारकों की यह सोच बन चुकी थी कि राष्ट्रीय स्तर पर संवाद स्थापित करने के लिए हिन्दी आवश्यक है। वे जानते थे कि हिन्दी बहुसंख्यक जन की भाषा है, एक प्रांत के लोग दूसरे प्रांत के लोगों से सिर्फ इसी भाषा में विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। भावी राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को बढ़ाने का कार्य इन्हीं धर्म/ समाज सुधारकों ने किया ।
3. कांग्रेस के नेताओं का योगदान
● 1885 ई० में कांग्रेस की स्थापना हुई। जैसे-जैसे कांग्रेस का राष्ट्रीय आंदोलन जोर पकड़ता गया, वैसे-वैसे राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय झंडा एवं राष्ट्रभाषा के प्रति आग्रह बढ़ता गया ।
● 1917 ई० में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कहा : ‘यद्यपि मैं उन लोगों में से हूँ जो चाहते हैं और जिनका विचार है कि हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है ।’ तिलक ने भारतवासियों से आग्रह किया कि हिन्दी सीखें।
● महात्मा गाँधी राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा को नितांत आवश्यक मानते थे। उनका कहना था : ‘राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है’ । गाँधीजी हिन्दी के प्रश्न को स्वराज का प्रश्न मानते थे : ‘हिन्दी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है’। उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में सामने रखकर भाषा-समस्या पर गंभीरता से विचार किया। 1917 ई० भड़ौच में आयोजित गुजरात शिक्षा परिषद के अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधीजी ने कहा :
राष्ट्रभाषा के लिए 5 लक्षण या शर्तें होनी चाहिए-
1. अमलदारों (राजकीय अधिकारियों) के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए।
2. यह जरूरी है कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों।
3. उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का अपनी धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवहार हो सकना चाहिए।
4. राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए।
5. उस भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अल्पस्थायी स्थिति पर जोर नहीं देना चाहिए।”
वर्ष 1918 ई० में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधीजी ने राष्ट्रभाषा हिन्दी का समर्थन किया: ‘मेरा यह मत है कि हिन्दी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए’ । इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिन्दी सीखने को प्रयाग भेजे जाएं और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिणी भाषाएं सीखने तथा हिन्दी का प्रचार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाए। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिन्दी के कार्य को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिन्दी प्रचारक के रूप में गाँधीजी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गाँधी को दक्षिण में मद्रास भेजा। गाँधीजी की प्रेरणा से मद्रास (1927 ई०) एवं वर्धा (1936 ई०) में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएं स्थापित की गईं।
● वर्ष 1925 ई० में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में गाँधीजी की प्रेरणा से यह प्रस्ताव पारित हुआ कि ‘कांग्रेस का, कांग्रेस की महासमिति का और कार्यकारिणी समिति का काम-काज आमतौर पर हिन्दी में चलाया जाएगा’। इस प्रस्ताव से हिन्दी-आंदोलन को बड़ा बल मिला ।
● वर्ष 1927 ई० में गाँधीजी ने लिखा : ‘वास्तव में ये अंग्रेजी में बोलनेवाले नेता हैं जो आम जनता में हमारा काम जल्दी आगे बढ़ने नहीं देते । वे हिन्दी सीखने से इंकार करते हैं जबकि हिन्दी द्रविड़ प्रदेश में भी तीन महीने के अंदर सीखी जा सकती है’।
● वर्ष 1927 ई० में सी० राजागोपालाचारी ने दक्षिणवालों को हिन्दी सीखने की सलाह दी और कहा : ‘हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा तो है ही, यही जनतंत्रात्मक भारत में राजभाषा भी होगी’ ।
● वर्ष 1928 ई० में प्रस्तुत नेहरू रिपोर्ट में भाषा संबंधी सिफारिश में कहा गया था : ‘देवनागरी अथवा फारसी में लिखी जानेवाली हिन्दुस्तानी भारत की राजभाषा होगी, परंतु कुछ समय के लिए अंग्रेजी का उपयोग जारी रहेगा’ । सिवाय ‘देवनागरी या फारसी’ की जगह ‘देवनागरी’ तथा ‘हिन्दुस्तानी’ की जगह ‘हिन्दी’ रख देने के अंततः स्वतंत्र भारत के संविधान में इसी मत को अपना लिया गया।
● वर्ष 1929 ई० में सुभाषचन्द्र बोस ने कहा : ‘प्रांतीय ईर्ष्या- द्वेष को दूर करने में जितनी सहायता इस हिन्दी प्रचार से मिलेगी, उतनी दूसरी किसी चीज से नहीं मिल सकती। अपनी प्रांतीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए, उसमें कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं। पर सारे प्रांतों की सार्वजनिक भाषा का पद हिन्दी या हिन्दुस्तानी को ही मिला है’।
● वर्ष 1931 ई० में गाँधीजी ने लिखा : ‘यदि स्वराज्य अंग्रजी- पढ़े भारतवासियों का है और केवल उनके लिए है तो संपर्क भाषा अवश्य अंग्रेजी होगी। यदि वह करोड़ों भूखे लोगों, करोड़ों निरक्षर लोगों, निरक्षर स्त्रियों, सताये हुए अछूतों के लिए है तो संपर्क भाषा केवल हिन्दी हो सकती है’ । गांधीजी जनता की बात जनता की भाषा में करने के पक्षधर थे।
● वर्ष 1936 ई० में गाँधीजी ने कहा : ‘अगर हिन्दुस्तान को सचमुच आगे बढ़ना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा तो हिन्दी ही बन सकती है क्योंकि जो स्थान हिन्दी को प्राप्त है वह किसी और भाषा को नहीं मिल सकता’ ।
● वर्ष 1937 ई० में देश के कुछ राज्यों में कांग्रेस मंत्रिमंडल गठित हुआ। इन राज्यों में हिन्दी की पढ़ाई को प्रोत्साहित करने का संकल्प लिया गया ।
● जैसे-जैसे स्वतंत्रता संग्राम तीव्रतर होता गया वैसे-वैसे हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आंदोलन जोर पकड़ता गया । 20वीं सदी के चौथे दशक तक हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में आम सहमति प्राप्त कर चुकी थी। वर्ष 1942 से 1945 का समय ऐसा था जब देश में स्वतंत्रता की लहर सबसे अधिक तीव्र थी, तब राष्ट्रभाषा से ओत-प्रोत जितनी रचनाएं हिन्दी में लिखी गईं उतनी शायद किसी और भाषा में इतने व्यापक रूप से कभी नहीं लिखी गईं। राष्ट्रभाषा के प्रचार के साथ राष्ट्रीयता के प्रबल हो जाने पर अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा ।
राष्ट्रभाषा आंदोलन (हिन्दी आंदोलन) से संबंधित धार्मिक सामाजिक संस्थाएँ
नाम | मुख्यालय | स्थापना | संस्थापक |
ब्रह्म समाज | कलकत्ता | 1828 ई० | राजा राम मोहन राय |
प्रार्थना समाज | बंबई | 1867 ई० | आत्मारंग पाण्डुरंग |
आर्य समाज | बंबई | 1875 ई० | दयानंद सरस्वती |
थियोसोफिकल सोसायटी | अडयार, मद्रास | 1882 ई० | कर्नल एच. एस. आलकाट एवं मैडम बलावत्सकी |
सनातन धर्म सभ (भारत धर्म महामंडल-1902 में नाम परिवर्तन) | वाराणसी | 1895 ई० | पं० दीन दयाल शर्मा |
रामकृष्ण मिशन | बेलुर | 1897 ई० | विवेकानंद |
राष्ट्रभाषा आंदोलन (हिन्दी आंदोलन) से संबंधित साहित्यिक संस्थाएं
नाम | मुख्यालय | स्थापना |
नागरी प्रचारिणी सभा | काशी/ वाराणसी | 1893 ई० संस्थापक-त्रयी-श्याम सुंदर दास, राम नारायण मिश्र व शिव कुमार सिंह |
हिन्दी साहित्य सम्मेलन | प्रयाग | 1910 ई० (प्रथम सभापति- मदन मोहन मालवीय) |
गुजरात विद्यापीठ | अहमदाबाद | 1920 ई० |
बिहार विद्यापीठ | पटना | 1921 ई० |
हिन्दुस्तानी एकेडमी | इलाहाबाद | 1927 ई० |
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा (पूर्व नाम-हिन्दी साहित्य सम्मेलन) | मद्रास | 1927 ई० |
हिन्दी विद्यपीठ | देवघर | 1929 ई० |
राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा | वर्धा | 1936 ई० |
महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा | पुणे | 1937 ई० |
बंबई हिन्दी विद्यापीठ | बंबई | 1938 ई० |
असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति | गुवाहटी | 1938 ई० |
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् | पटना | 1951 ई० |
अखिल भारतीय हिन्दी संस्था | नई दिल्ली | 1964 ई० |
नागरी लिपि परिषद् | नई दिल्ली | 1975 ई० |
राष्ट्रभाषा आंदोलन (हिन्दी आंदोलन) से संबंधित व्यक्तित्व
बंगाल: राजा राम मोहन राय, केशवचन्द्र सेन, नवीन चन्द्र राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, तरुणी चरण मित्र, राजेन्द्र लाल मित्र, राज नारायण बसु, भूदेव मुखर्जी, बंकिम चन्द्र चटर्जी (‘हिन्दी भाषा की सहायता से भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों के मध्य में जो ऐक्यबंधन संस्थापन करने में समर्थ होंगे वही सच्चे भारतबंधु पुकारे जाने योग्य हैं’।), सुभाष चन्द्र बोस (‘अगर आज हिन्दी भाषा मान ली गई है तो वह इसलिए नहीं कि वह किसी प्रांत विशेष की भाषा है, बल्कि इसलिए कि वह अपनी सरलता, व्यापकता तथा क्षमता के कारण सारे देश की भाषा हो सकती है।’), रवीन्द्र नाथ टैगोर (‘यदि हम प्रत्येक भारतीय के नैसर्गिक अधिकारों के सिद्धांत को स्वीकार करते हैं, तो हमें राष्ट्रभाषा के रूप में उस भाषा को स्वीकार करना चाहिए जो देश के सबसे बड़े भूभाग में बोली जाती है और जिसे स्वीकार करने की सिफारिश महात्मा गांधी ने हमलोगों से की है। इसी विचार से हमें एक भाषा की आवश्यकता है और वह हिन्दी है।’), रामानंद चटर्जी, सरोजनी नायडू, शारदा चरण मित्र (अखिल भारतीय लिपि के रूप में देवनागरी लिपि के प्रथम प्रचारक), आचार्य क्षिति मोहन सेन (‘हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु जो अनुष्ठान हुए हैं, उनको मैं संस्कृति का राजसूय यज्ञ समझता हूँ।’) आदि ।
महाराष्ट्र : बाल गंगाधर तिलक (‘यह आंदोलन उतर भारत में केवल एक सर्वमान्य लिपि के प्रचार के लिए नहीं है। यह तो उस आंदोलन का एक अंग है, जिसे मैं राष्ट्रीय आंदोलन कहूँगा और जिसका उद्देश्य समस्त भारतवर्ष के लिए एक राष्ट्रीय भाषा की स्थापना करना है, क्योंकि सबके लिए समान भाषा राष्ट्रीयता का महत्वपूर्ण अंग है। अतएव यदि आप किसी राष्ट्र के लोगों को एक-दूसरे के निकट लाना चाहें तो सबके लिए समान भाषा से बढ़कर सशक्त अन्य कोई बल नहीं है।’), एन.सी. केलकर, डॉ भण्डारकर, वी० डी० सावरकर, गोपाल कृष्ण गोखले, गाडगिल, काका कालेलकर आदि ।
पंजाब: लाला लाजपत राय, श्रद्धाराम फिल्लौरी आदि ।
गुजरातः दयानंद सरस्वती, महात्मा गाँधी, वल्लभभाई पटेल, कन्हैयालाल माणिकलाल (के० एम०) मुंशी (‘हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना नहीं है; वह तो है ही’ ।) आदि ।
दक्षिण भारत : सी० राजागोपालाचारी, टी० विजयराघवाचार्य (‘हिन्दुस्तान की सभी जीवित और प्रचलित भाषाओं में मुझे हिन्दी ही राष्ट्रभाषा बनने के लिए सबसे अधिक योग्य दीख पड़ती है’ ।), सी० पी० रामास्वामी अय्यर (‘देश के विभिन्न भागों के निवासियों के व्यवहार के लिए सर्वसुगम और व्यापक तथा एकता स्थापित करने के साधन के रूप में हिन्दी का ज्ञान आवश्यक है’ ।), अनन्त शयनम आयंगर (‘हिन्दी ही उत्तर और दक्षिण को जोड़नेवाली समर्थ भाषा है।’), एस० निजलिंगप्पा (‘दक्षिण की भाषाओं ने संस्कृत से बहुत कुछ लेन-देन किया है, इसलिए उसी परंपरा में आई हुई हिन्दी बड़ी सरलता से राष्ट्रभाषा होने लायक है।’), रंगनाथ रामचन्द्र दिवाकर (‘जो राष्ट्रप्रेमी है, उसे राष्ट्रभाषा प्रेमी होना चाहिए’ ।), के० टी० भाष्यम, आर० वेंकटराम शास्त्री, एन० सुन्दरैया आदि ।
अन्य : मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन (उपनाम ‘हिन्दी का प्रहरी’, कथन: ‘मैं हिन्दी का और हिन्दी मेरी है।’), राजेन्द्र प्रसाद, सेठ गोविंद दास आदि ।
महात्मा गाँधी के भाषा-संबंधी विचार
1. ‘करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी’। (‘हिन्द स्वराज्य’ 1909)
2. ‘अंग्रेजी भाषा हमारे राष्ट्र के पांव में बेड़ी बनकर पड़ी हुई है। भारतीय विद्यार्थी को अंग्रेजी के मार्फत ज्ञान अर्जित करने पर कम-से-कम 6 वर्ष अधिक बरबाद करने पड़ते हैं। यदि हमें एक विदेशी भाषा पर अधिकार पाने के लिए जीवन के अमूल्य वर्ष लगा देने पड़े, तो फिर और क्या हो सकता है’। (1914)
3. ‘जिस भाषा में तुलसीदास जैसे कवि ने कविता की हो, वह अत्यंत पवित्र है और उसके सामने कोई भाषा ठहर नहीं सकती’ । (1916)
4. ‘हिन्दी ही हिन्दुस्तान के शिक्षित समुदाय की सामान्य भाषा हो सकती है यह बात निर्विवाद सिद्ध है। … जिस स्थान को अंग्रेजी भाषा आजकल लेने का प्रयत्न कर रही है और जिसे लेना उसके लिए असंभव है, वही स्थान हिन्दी को मिलना चाहिए क्योंकि हिन्दी का उस पर पूर्ण अधिकार है। यह स्थान अंग्रेजी को नहीं मिल सकता क्योंकि वह विदेशी भाषा है और हमारे लिए बड़ी कठिन है’। (1917)
5. ‘हिन्दी भाषा वह भाषा है जिसको उत्तर में हिन्दू व मुसलमान बोलते हैं और जो नागरी और फारसी लिपि में लिखी जाती है। यह हिन्दी एकदम संस्कृतमयी नहीं है और न ही वह एकदम फारसी शब्दों से लदी है’। (1918)
6. ‘हिन्दी और उर्दू नदियां हैं और हिन्दुस्तानी सागर है। हिन्दी और उर्दू दोनों को आपस में झगड़ा नहीं करना चाहिए। दोनों का मुकाबला तो अंग्रेजी से है’ ।
7. ‘अंग्रेजी के व्यामोह से पिंड छुड़ाना स्वराज्य का एक अनिवार्य अंग है’ ।
8. ‘मैं यदि तानाशाह होता (मेरा बस चलता) तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा देना बंद कर देता, सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषाएं अपनाने पर मजबूर कर देता। जो आनाकानी करते, उन्हें बर्खास्त कर देता। मैं पाठ्य-पुस्तकों की तैयारी का इंतजार नहीं करूंगा, वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे-पीछे अपने-आप चली आएगी। यह एक ऐसी बुराई है, जिसका तुरंत इलाज होना चाहिए’ ।
9. ‘मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियाँ क्यों न हों, मैं इससे इसी तरह चिपटा रहूँगा जिस तरह बच्चा अपनी माँ की छाती से, जो मुझे जीवनदायी दूध दे सकती है। अगर अंग्रेजी उस जगह को हड़पना चाहती है जिसकी वह हकदार नहीं है, तो मैं उससे सख्त नफरत करूँगा- वह कुछ लोगों के सीखने की वस्तु हो सकती है, लाखों-करोड़ों की नहीं’ ।
10. ‘लिपियों में सबसे अव्वल दरजे की लिपि नागरी को ही मानता हूँ। मैं मानता हूँ कि नागरी और उर्दू लिपि के बीच अंत में जीत नागरी लिपि की ही होगी’ ।
यह भी पढ़ें: हिंदी भाषा का विकास
निष्कर्ष:
हम आशा करते हैं कि आपको यह पोस्ट हिन्दी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास जरुर अच्छी लगी होगी। हिन्दी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास के बारें में काफी अच्छी तरह से सरल भाषा में उदाहरण देकर समझाया गया है। अगर इस पोस्ट से सम्बंधित आपके पास कुछ सुझाव या सवाल हो तो आप हमें कमेंट बॉक्स में ज़रूर बताये। धन्यवाद!
FAQs
Q1. अधिकतर भारतीय भाषाओं का विकास किस लिपि से हुआ ?
Ans. ब्राह्मी लिपि
Q2. हिन्दी भाषा किस लिपि में लिखी जाती है ?
Ans. देवनागरी
Q3. वर्तमान हिन्दी का प्रचलित रूप है-
Ans. खड़ी बोली
Q4. हिन्दी भाषा की बोलियों के वर्गीकरण के आधार पर छत्तीसगढ़ी बोली है-
Ans. पूर्वी हिन्दी
Q5. भारतीय संविधान में किन अनुच्छेदों में राजभाषा संबंधी प्रावधानो का उल्लेख है ?
Ans. 343- 351 तक
Q6. दक्षिणी भारत हिन्दी प्रचार सभा का मुख्यालय कहाँ पर स्थित है ?
Ans. चेन्नई
Q7. संविधान के अनुच्छेद 351 में किस विषय का वर्णन है?
Ans. हिंदी के विकास के लिए निर्देश
1 thought on “हिन्दी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास | Development of Hindi as a national language |”