हिंदी भाषा का विकास | Development of Hindi language |

हिंदी भाषा का विकास

हिंदी भाषा का विकास एक महत्वपूर्ण और उत्कृष्ट यात्रा है, जो भारतीय साहित्य, सांस्कृतिक विरासत, और समृद्धिशील भाषा संबंधित अनगिनत पहलुओं को स्पष्ट करती है। इस यात्रा में, हिंदी भाषा ने अपने स्वभाव से समृद्धि की कई मील के पत्थर चुने हैं और समृद्धिशील साहित्य और सामाजिक संस्कृति को आगे बढ़ाया है।

हिंदी भाषा का वर्गीकरण

● ‘हिन्दी’ विश्व की लगभग 3,000 भाषाओं में से एक है।

● आकृति या रूप के आधार पर हिन्दी वियोगात्मक या विश्लिष्ट भाषा है।

● भाषा-परिवार के आधार पर हिन्दी भारोपीय (Indo- European) परिवार की भाषा है।

● भारत में 4 भाषा-परिवार- भारोपीय, द्रविड़, आस्ट्रिक व चीनी-तिब्बती मिलते हैं। भारत में बोलनेवालों के प्रतिशत के आधार पर भारोपीय परिवार सबसे बड़ा भाषा-परिवार है।

भाषा-परिवारभारत में वोलनेवालों का %
भारोपीय73%
द्रविड़25%
आस्ट्रिक1.3%
चीनी-तिब्बती0.7%

● हिन्दी, भारोपीय/भारत-यूरोपीय के भारतीय-ईरानी (Indo- Iranian) शाखा के भारतीय आर्य (Indo-Aryan) उपशाखा की एक भाषा है।

● भारतीय आर्यभाषा (भा. आ.) को तीन कालों में विभक्त किया जाता है।

नाम प्रयोग कालउदाहरण
प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (प्रा. भा. आ.) 1500 ई०पू० – 500 ई०पू०वैदिक संस्कृत व लौकिक संस्कृत
मध्यकालीन भारतीय
आर्यभाषा (म.भा.आ.)
500 ई०पू०- 1000 ई०पालि, प्राकृत, अपभ्रंश
आधुनिक भारतीय आर्यभाषा (आ.भा.आ.)1000 ई०- अब तकहिन्दी और हिन्दीतर भाषाएं -बांग्ला, उड़िया, असमिया, मराठी, गुजराती, पंजाबी, सिंधी आदि

प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (प्रा. भा. आ.)

नाम अन्य नाम प्रयोग काल
वैदिक संस्कृतछान्दस् (यास्क, पाणिनी द्वारा प्रयुक्त नाम) 1500 ई०पू०-1000 ई०पू०
लौकिक संस्कृतसंस्कृत, भाषा (पाणिनी द्वारा प्रयुक्त नाम)1000ई०पू०- 500 ई०पू०

मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा (म.भा.आ.)

नामप्रयोग काल विशेष टिप्पणी
नाम प्रथम प्राकृत काल : पालि500 ई०पू०- 1 ली ई०भारत की प्रथम देश भाषा, भगवान बुद्ध के सारे उपदेश पालि में ही हैं।
द्वितीय प्राकृत काल : प्राकृत1 ली ई०- 500 ई०भगवान महावीर के सारे उपदेश प्राकृत में ही हैं।
तृतीय प्राकृत काल : अपभ्रंश500-1000 ई०
: अवहट्ट 900-1100 ई०संक्रमणकालीन/ संक्रांतिकालीन भाषा

आधुनिक भारतीय आर्यभाषा (आ. भा. आ.)

हिन्दी

प्राचीन हिन्दी1100ई० – 1400 ई०
मध्यकालीन हिन्दी 1400 ई० – 1850 ई०
आधुनिक हिन्दी 1850 ई० – अब तक

● हिन्दी की आदि जननी संस्कृत है। संस्कृत पालि, प्राकृत भाषा से होती हुई अपभ्रंश तक पहुँचती है। फिर अपभ्रंश, अवहट्ट से गुजरती हुई प्राचीन/प्रारंभिक हिन्दी का रूप लेती है। सामान्यतः, हिन्दी भाषा के इतिहास का आरंभ अपभ्रंश से माना जाता है।

हिन्दी का विकास क्रम :

संस्कृत पालि प्राकृत अपभ्रंश अवहट्ट प्राचीन/प्रारंभिक हिन्दी (→विकास चिह्न के लिए प्रयुक्त संकेत)

अपभ्रंश:

● अपभ्रंश भाषा का विकास 500 ई० से लेकर 1000 ई० के मध्य हुआ और इसमें साहित्य का आरंभ 8वीं सदी (स्वयंभू कवि) से हुआ, जो 13वीं सदी तक जारी रहा।

● अपभ्रंश (अप+ भ्रंश+ घञ्) शब्द का यों तो शाब्दिक अर्थ है ‘पतन’ किन्तु अपभ्रंश साहित्य से अभीष्ट है-प्राकृत भाषा से विकसित भाषा विशेष का साहित्य ।

प्रमुख रचनाकार : स्वयंभू-अपभ्रंश का वाल्मीकि (‘पउम चरिउ’ अर्थात् राम काव्य), धनपाल (‘भविस्सयत कहा’- अपभ्रंश का पहला प्रबंध काव्य), पुष्पदंत (‘महापुराण’, ‘जसहर चरिऊ’), सरहपा, कण्हपा आदि सिद्धों की रचनाएँ (‘चरिया पद’, ‘दोहाकोशी’) आदि ।

अपभ्रंश से आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास-

अपभ्रंश के भेदआधुनिक भारतीय आर्यभाषा
शौरसेनीपश्चिमी हिन्दी
राजस्थानी
गुजराती
अर्द्धमागधीपूर्वी हिन्दी
मागधीबिहारी
उड़िया
बांग्ला
असमिया
खसपहाड़ी (शौरसेनी से प्रभावित)
ब्राचड़पंजाबी (शौरसेनी से प्रभावित)
सिन्धी
महाराष्ट्रीमराठी

अवहट्ट:

● अवहट्ट ‘अपभ्रष्ट’ शब्द का विकृत रूप है। इसे ‘अपभ्रंश का अपभ्रंश’ या ‘परवर्ती अपभ्रंश’ कह सकते हैं। अवहट्ट अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच की संक्रमणकालीन/संक्रांतिकालीन भाषा है। इसका कालखंड 900 ई० से 1100 ई० तक निर्धारित किया जाता है। वैसे साहित्य में इसका प्रयोग 14वीं सदी तक होता रहा है।

● अब्दुर रहमान, दामोदर पण्डित, ज्योतिरीश्वर ठाकुर, विद्यापति आदि रचनाकारों ने अपनी भाषा को ‘अवहट्ट’ या ‘अवहट्ठ’ कहा है। विद्यापति प्राकृत की तुलना में अपनी भाषा को मधुरतर बताते हैं: ‘देसिल बयना सब जन मिट्ठा/ ते तैसन जम्पत्रो अवहट्ठा’ अर्थात्, देश की भाषा सब लोगों के लिए मीठी है, इसे अवहट्ठा कहा जाता है।

प्रमुख रचनाकार : अद्दहमाण/अब्दुर रहमान (‘संनेह रासय’/’संदेश रासक’), दामोदर पण्डित (‘उक्ति-व्यक्ति- प्रकरण’), ज्योतिरीश्वर ठाकुर (‘वर्ण रत्नाकर’), विद्यापति (‘कीर्तिलता’), रोड कवि (‘राउलवेल’) आदि ।

प्राचीन या पुरानी हिन्दी/प्रारंभिक या आरंभिक हिन्दी/आदिकालीन हिन्दी

● मध्यदेशीय भाषा-परंपरा की विशिष्ट उत्तराधिकारिणी होने के कारण हिन्दी का स्थान आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में सर्वोपरि है।

● प्राचीन हिन्दी से अभिप्राय है-अपभ्रंश-अवहट्ट के बाद की भाषा ।

● हिन्दी का आदिकाल हिन्दी भाषा का शिशु-काल है। यह वह काल था जब अपभ्रंश-अवहट्ट का प्रभाव हिन्दी भाषा पर मौजूद था और हिन्दी की बोलियों के निश्चित व स्पष्ट स्वरूप विकसित नहीं हुए थे।

हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति:

‘हिन्दी’ शब्द की व्युत्पत्ति भारत के उत्तर-पश्चिम में प्रवहमान सिंधु नदी से संबंधित है। विदित है कि अधिकांश विदेशी यात्री और आक्रान्ता उत्तर-पश्चिम सिंहद्वार से ही भारत आए। भारत में आनेवाले इन विदेशियों ने जिस देश के दर्शन किए वह ‘सिंधु’ का देश था। ईरान (फारस) के साथ भारत के बहुत प्राचीन काल से ही संबंध थे और ईरानी ‘सिंधु’ को ‘हिन्दु’ कहते थे [सिंधु हिन्दु, स का ह में तथा ध का द में परिवर्तन-पह्नवी भाषा प्रवृति के अनुसार ध्वनि परिवर्तन]। ‘हिन्दु’ से ‘हिन्द’ बना और फिर ‘हिन्द’ में फारसी भाषा के संबंध कारक प्रत्यय ‘ई’ लगने से ‘हिन्दी’ बन गया । ‘हिन्दी’ का अर्थ है- ‘हिन्द का’ । इस प्रकार हिन्दी शब्द की उत्पत्ति हिन्द देश के निवासियों के अर्थ में हुई। आगे चलकर यह शब्द ‘हिन्द की भाषा’ के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा ।

उपर्युक्त बातों से तीन बातें सामने आती हैं-

1. ‘हिन्दी’ शब्द का विकास कई चरणों में हुआ-
सिंधु हिन्दु हिन्द + ई हिन्दी ।

2. ‘हिन्दी’ शब्द मूलतः फारसी का है न कि हिन्दी भाषा का । यह ऐसे ही है जैसे बच्चा हमारे घर जनमे और उसका नामकरण हमारा पड़ोसी करे। हालांकि कुछ कट्टर हिन्दी-प्रेमी ‘हिन्दी’ शब्द की व्युत्पत्ति हिन्दी भाषा में ही दिखाने की कोशिश की है, जैसे- हिन (हनन करनेवाला) + दु (दुष्ट) = हिन्दु अर्थात् दुष्टों का हनन करनेवाला हिन्दु और उन लोगों की भाषा हिन्दी; हीन (हीनों) + दु (दलन) = हिन्दु अर्थात् हीनों का दलन करनेवाला हिन्दु और उनकी भाषा हिन्दी । चूँकि इन व्युत्पत्तियों में प्रमाण कम, अनुमान अधिक है इसलिए सामान्यतः इन्हें स्वीकारा नहीं जाता ।

3. ‘हिन्दी’ शब्द के दो अर्थ हैं- ‘हिन्द देश के निवासी’ (यथा- ‘हिन्दी है हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा’ इकबाल) और ‘हिन्द की भाषा’ । हाँ, यह बात अलग है कि अब यह शब्द इन दो आरंभिक अर्थों से पृथक् हो गया है। इस देश के निवासियों को अब कोई ‘हिन्दी’ नहीं कहता बल्कि भारतवासी, हिन्दुस्तानी आदि कहते हैं। दूसरे, इस देश की व्यापक भाषा के अर्थ में भी अब ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग नहीं होता क्योंकि भारत में अनेक भाषाएँ हैं जो सब हिन्दी नहीं कहलाती । बेशक ये सभी हिन्द की भाषाएं हैं लेकिन केवल हिन्दी नहीं हैं। उन्हें हम पंजाबी, बांग्ला, असमिया, उड़िया, मराठी आदि नामों से पुकारते हैं इसलिए हिन्द की इन सब भाषाओं के लिए ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता ।

प्रमुख रचनाकार : ‘हिन्दी’ शब्द भाषा विशेष का वाचक नहीं है बल्कि यह भाषा-समूह का नाम है। हिन्दी जिस भाषा-समूह का नाम है उसमें आज के हिन्दी प्रदेश/क्षेत्र की 5 उपभाषाएँ तथा 17 बोलियाँ शामिल हैं। बोलियों में ब्रजभाषा, अवधी एवं खड़ी बोली को आगे चलकर मध्यकाल में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ।

ब्रजभाषा : प्राचीन हिन्दी काल में ब्रजभाषा अपभ्रंश-अवहट्ट से ही जीवन-रस लेती रही। अपभ्रंश-अवहट्ट की रचनाओं में ब्रजभाषा के फूटते हुए अंकुर को देखा जा सकता है। ब्रजभाषा साहित्य का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ सुधीर अग्रवाल का ‘प्रद्युम्न चरित’ (1354 ई०) है।

अवधी : अवधी की पहली कृति मुल्ला दाउद की ‘चंदायन’ या ‘लोरकहा’ (1370 ई०) मानी जाती है। इसके उपरांत अवधी भाषा के साहित्य का उत्तरोत्तर विकास होता गया ।

खड़ी बोली : प्राचीन हिन्दी काल में रचित खड़ी बोली साहित्य में खड़ी बोली के आरंभिक प्रयोगों से उसके आदि रूप या बीज रूप का आभास मिलता है। खड़ी बोली का आदिकालीन रूप सरहपा आदि सिद्धों, गोरखनाथ आदि नाथों, अमीर खुसरो जैसे सूफियों, जयदेव, नामदेव, रामानंद आदि संतों की रचनाओं में उपलब्ध है। इन रचनाकारों में हमें अपभ्रंश-अवहट्ट से निकलती हुई खड़ी बोली स्पष्टतः दिखाई देती है।

मध्यकालीन हिन्दी:

मध्यकाल में हिन्दी का स्वरूप स्पष्ट हो गया तथा उसकी प्रमुख बोलियाँ विकसित हो गईं । इस काल में भाषा के तीन रूप निखरकर सामने आए- ब्रजभाषा, अवधी व खड़ी बोली । ब्रजभाषा और अवधी का अत्यधिक साहित्यिक विकास हुआ तथा तत्कालीन ब्रजभाषा साहित्य को कुछ देशी राज्यों का संरक्षण भी प्राप्त हुआ । इनके अतिरिक्त, मध्यकाल में खड़ी बोली के मिश्रित रूप का साहित्य में प्रयोग होता रहा। इसी खड़ी बोली का 14वीं सदी में दक्षिण में प्रवेश हुआ, अतः वहाँ इसका साहित्य में अधिक प्रयोग हुआ। 18वीं सदी में खड़ी बोली को मुसलमान शासकों का संरक्षण मिला तथा इसके विकास को नई दिशा मिली ।.

प्रमुख रचनाकार

ब्रजभाषा: हिन्दी के मध्यकाल में मध्य देश की महान भाषा परंपरा के उत्तरदायित्व का पूरा निर्वाह ब्रजभाषा ने किया। यह अपने समय की परिनिष्ठित व उच्च कोटि की साहित्यिक भाषा थी, जिसको गौरवान्वित करने का सर्वाधिक श्रेय हिन्दी के कृष्णभक्त कवियों को है। पूर्व मध्यकाल (अर्थात् भाक्तिकाल) में कृष्णभक्त कवियों ने अपने साहित्य में ब्रजभाषा का चरम विकास किया। पुष्टि मार्ग/शुद्धाद्वैत संपद्राय के सूरदास (‘सूर सागर’), नंद दास, निम्बार्क संप्रदाय के श्री भट्ट, चैतन्य संप्रदाय के गदाधर भट्ट, राधा- वल्लभ संप्रदाय के हित हरिवंश (श्री कृष्ण की बाँसुरी के अवतार) एवं संप्रदाय-निरपेक्ष कवियों में रसखान, मीराबाई आदि प्रमुख कृष्णभक्त कवियों ने ब्रजभाषा के साहित्यिक विकास में अमूल्य योगदान दिया। इनमें सर्वप्रमुख स्थान सूरदास का है जिन्हें ‘अष्टछाप का जहाज’ कहा जाता है। उत्तर मध्यकाल (अर्थात् रीतिकाल) में अनेक आचार्यों एवं कवियों ने ब्रजभाषा में लाक्षणिक एवं रीति ग्रंथ लिखकर ब्रजभाषा के साहित्य को समृद्ध किया। रीतिबद्ध कवियों में केशवदास, मतिराम, बिहारी, देव, पद्माकर, भिखारी दास, सेनापति, मतिराम आदि तथा रीतिमुक्त कवियों में घनानंद, आलम, बोधा आदि प्रमुख हैं। (ब्रजबुलि- बंगाल में कृष्णभक्त कवियों द्वारा प्रचारित भाषा का नाम ।)

अवधी : अवधी को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय सूफी/प्रेममार्गी कवियों को है। कुत्बन (‘मृगावती’), जायसी (‘पद्मावत’), मंझन (‘मधुमालती’), आलम (‘माधवानल कामकंदला’), उसमान (‘चित्रावली’), नूर मुहम्मद (‘इन्द्रावती’), कासिमशाह (‘हंस जवाहिर’), शेख निसार (‘यूसुफ जुलेखा’), अलीशाह (‘प्रेम चिंगारी’) आदि सूफी कवियों ने अवधी को साहित्यिक गरिमा प्रदान की। इनमें सर्वप्रमुख जायसी थे । अवधी को रामभक्त कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, विशेषकर तुलसीदास ने ‘राम चरित मानस’ की रचना बैसबाड़ी अवधी में कर अवधी भाषा को जिस साहित्यिक ऊँचाई पर पहुँचाया वह अतुलनीय है। मध्यकाल में साहित्यिक अवधी का चरमोत्कर्ष दो कवियों में मिलता है जायसी और तुलसीदास में। जायसी के यहाँ जहाँ अवधी का ठेठ ग्रामीण रूप मिलता है वहाँ तुलसी के यहाँ अवधी का तत्सममुखी रूप । (गोहारी/ गोयारी- बंगाल में सूफियों द्वारा प्रचारित अवधी भाषा का नाम ।)

खड़ी बोली : मध्यकाल में खड़ी बोली का मुख्य केन्द्र उत्तर से बदलकर दक्कन में हो गया। इस प्रकार, मध्यकाल में खड़ी बोली के दो रूप हो गए-उत्तरी हिन्दी व दक्कनी हिन्दी । खड़ी बोली का मध्यकालीन रूप कबीर, नानक, दादू, मलूकदास, रज्जब आदि संतों; गंग की ‘चन्द छन्द वर्णन की महिमा’, रहीम के ‘मदनाष्टक’, आलम के ‘सुदामा चरित’, जटमल की ‘गोरा बादल की कथा’, वली, सौदा, इन्शा, नजीर आदि दक्कनी एवं उर्दू के कवियों, ‘कुतुबशतम’ (17वीं सदी), ‘भोगलू पुराण’ (18वीं सदी), सन्त प्राणनाथ के ‘कुलजमस्वरूप’ आदि में मिलता है।

आधुनिककालीन हिन्दी:

हिन्दी के आधुनिक काल तक आते-आते ब्रजभाषा जनभाषा से काफी दूर हट चुकी थी और अवधी ने तो बहुत पहले से ही साहित्य से मुँह मोड़ लिया था। 19वीं सदी के मध्य तक अंग्रेजी सत्ता का महत्तम विस्तार भारत में हो चुका था। इस राजनीतिक परिवर्तन का प्रभाव मध्य देश की भाषा हिन्दी पर भी पड़ा। नवीन राजनीतिक परिस्थितियों ने खड़ी बोली को प्रोत्साहन प्रदान किया। जब ब्रजभाषा और अवधी का साहित्यिक रूप जनभाषा से दूर हो गया तब उनका स्थान खड़ी बोली धीरे-धीरे लेने लगी। अंग्रेजी सरकार ने भी इसका प्रयोग आरंभ कर दिया ।

हिन्दी के आधुनिक काल में प्रारंभ में एक ओर उर्दू का प्रचार होने और दूसरी ओर काव्य की भाषा ब्रजभाषा होने के कारण खड़ी बोली को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ा। 19वीं सदी तक कविता की भाषा ब्रजभाषा और गद्य की भाषा खड़ी बोली रही। 20वीं सदी के आते-आते खड़ी बोली गद्य-पद्य दोनों की साहित्यिक भाषा बन गई।

इस युग में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित करने में विभिन्न धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों ने बड़ी सहायता की। फलतः खड़ी बोली साहित्य की सर्वप्रमुख भाषा बन गयी।

खड़ी बोली:

भारतेन्दु-पूर्व युग : खड़ी बोली गद्य के आरंभिक रचनाकारों में फोर्ट विलियम कॉलेज के बाहर के दो रचनाकारों- सदासुख लाल ‘नियाज’ (‘सुखसागर’) व इंशा अल्ला खां (‘रानी केतकी की कहानी’) -तथा फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकता के दो भाषा मुंशियों-लल्लू लालजी (‘प्रेम सागर’) व सदल मिश्र (‘नसिकेतोपाख्यान’) – के नाम उल्लेखनीय हैं। भारतेन्दु-पूर्व युग में मुख्य संघर्ष हिन्दी की स्वीकृति और प्रतिष्ठा को लेकर था । इस युग के दो प्रसिद्ध लेखकों-राजा शिव प्रसाद ‘सितारे हिन्द’ व राजा लक्ष्मण सिंह ने हिन्दी के स्वरूप निर्धारण के प्रश्न पर दो सीमांतों का अनुगमन किया । राजा शिव प्रसाद ने हिन्दी का गँवारूपन दूर कर-कर उसे उर्दू-ए मुअल्ला बना दिया तो राजा लक्ष्मण सिंह ने विशुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का समर्थन किया।

भारतेन्दु युग (1850 ई०-1900 ई०): इन दोनों के बीच सर्वमान्य हिन्दी गद्य की प्रतिष्ठा कर गद्य साहित्य की विविध विधाओं का ऐतिहासिक कार्य भारतेन्दु युग में हुआ। हिन्दी सही मायने में भारतेन्दु के काल में ‘नई चाल में ढली’ और उनके समय में ही हिन्दी के गद्य के बहुमुखी रूप का सूत्रपात हुआ। उन्होंने न केवल स्वयं रचना की बल्कि अपना एक लेखक मंडल भी तैयार किया, जिसे ‘भारतेन्दु मंडल’ कहा गया । भारतेन्दु युग की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि गद्य रचना के लिए खड़ी बोली को माध्यम रूप में अपनाकार युगानुरूप स्वस्थ दृष्टिकोण का परिचय दिया । लेकिन पद्य रचना के मामले में ब्रजभाषा या खड़ी बोली को अपनाने के प्रश्न पर विवाद बना रहा जिसका अंत द्विवेदी युग में जाकर हुआ ।

द्विवेदी युग (1900 ई०-1920 ई०) : खड़ी बोली और हिन्दी साहित्य के सौभाग्य से 1930 ई० में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादकत्व का भार संभाला। वे सरल और शुद्ध भाषा के प्रयोग के हिमायती थे। वे लेखकों की वर्तनी अथवा व्याकरण संबंधी त्रुटियों का संशोधन स्वयं करते चलते थे। उन्होंने हिन्दी के परिष्कार का बीड़ा उठाया और उसे बखूबी अंजाम दिया। गद्य तो भारतेन्दु युग से ही सफलतापूर्वक खड़ी बोली में लिखा जा रहा था, अब पद्य की व्यावहारिक भाषा भी एकमात्र खड़ी बोली प्रतिष्ठित होने लगी। इस प्रकार ब्रजभाषा, जिसके साथ ‘भाषा’ शब्द जुड़ा है, अपने क्षेत्र में सीमित हो गई अर्थात् ‘बोली’ बन गई। इसके मुकाबले में खड़ी बोली, जिसके साथ ‘बोली’ शब्द लगा है, ‘भाषा’ बन गई, और इसका सही नाम ‘हिन्दी’ हो गया। अब खड़ी बोली दिल्ली के आस-पास की मेरठ-जनपदीय बोली नहीं रह गई अपितु वह समस्त उत्तरी भारत के साहित्य का माध्यम बन गई। द्विवेदी युग में साहित्य रचना की विविध विधाएं विकसित हुई। महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्याम सुंदर दास, पद्म सिंह शर्मा, माधव प्रसाद मिश्र, पूर्ण सिंह, चंद्रधर शर्मा गुलेरी आदि के अवदान विशेषतः उल्लेखनीय हैं।

छायावाद युग (1918 ई०-1936 ई०) एवं उसके बाद : साहित्यिक खड़ी बोली हिन्दी के विकास में छायावाद युग का योगदान महत्वपूर्ण है। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा और राम कुमार वर्मा आदि ने इसमें महती योगदान दिया। इनकी रचनाओं को देखते हुए यह कोई नहीं कह सकता कि खड़ी बोली सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्त करने में ब्रजभाषा से कम समर्थ है। हिन्दी में अनेक भाषायी गुणों का समावेश हुआ । अभिव्यंजना की विविधता, बिंबों की लाक्षणिकता, रसात्मक लालित्य छायावाद युग की भाषा की अन्यतम विशेषताएं हैं। हिन्दी काव्य में छायावाद युग के बाद प्रगतिवाद युग (1936 ई०- 1946 ई०) प्रयोगवाद युग (1943 से) आदि आए। इस दौर में खड़ी बोली का काव्य भाषा के रूप में उत्तरोत्तर विकास होता गया।
पद्य के ही नहीं, गद्य के संदर्भ में भी छायावाद युग साहित्यिक खड़ी बोली के विकास का स्वर्ण युग था। कथा साहित्य (उपन्यास व कहानी) में प्रेमचंद, नाटक में जयशंकर प्रसाद, आचोलना में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जो भाषा-शैलियाँ और मर्यादाएं स्थापित की उनका अनुसरण आज भी किया जा रहा है। गद्य-साहित्य के क्षेत्र में इनके महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गद्य-साहित्य के विभिन्न विधाओं के इतिहास में कालों का नामकरण इनके नाम को केन्द्र में रखकर किया गया है, जैसे उपन्यास के इतिहास में प्रेमचंद-पूर्व युग, प्रेमचंद युग, प्रेमचंदोत्तर युग; नाटक के इतिहास में प्रसाद-पूर्व युग, प्रसाद युग, प्रसादोत्तर युग; आलोचना के इतिहास में शुक्ल-पूर्व युग, शुक्ल युग, शुक्लोत्तर युग।

हिन्दी के विभिन्न नाम या रूप:

1. हिन्दवी/हिन्दुई/जबान-ए-हिन्दी/देहलवी : मध्यकाल में मध्यदेश के हिन्दुओं की भाषा, जिसमें अरबी-फारसी शब्दों का अभाव है। [सर्वप्रथम अमीर खुसरो (1253-1325) ने मध्य देश की भाषा के लिए हिन्दवी, हिन्दी शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने देशी भाषा हिन्दवी, हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए एक फारसी-हिन्दी कोश ‘खालिक बारी’ की रचना की, जिसमें हिन्दवी शब्द 30 बार, हिन्दी शब्द 5 बार देशी भाषा के लिए प्रयुक्त हुआ है ।]

2. भाषा/भाखा : विद्यापति, कबीर, तुलसी, केशवदास आदि ने भाषा शब्द का प्रयोग हिन्दी के लिए किया है। [19वीं सदी के प्रारंभ तक इस शब्द का प्रयोग होता रहा है। फोर्ट विलियम कॉलेज में नियुक्त हिन्दी अध्यापकों को ‘भाषा मुंशी’ के नाम से अभिहित करना इसी बात का सूचक है ।

3. रेख्ता : मध्यकाल में मुसलमानों में प्रचलित अरबी-फारसी शब्दों से मिश्रित कविता की भाषा । (जैसे-मीर, गालिब की रचनाएं)

4. दक्खिनी/दक्कनी : मध्यकाल में दक्कन के मुसलमानों द्वारा फारसी लिपि में लिखी जानेवाली भाषा । [हिन्दी में गद्य रचना परंपरा की शुरूआत करने का श्रेय दक्कनी हिन्दी के रचनाकारों को ही है। दक्कनी हिन्दी को उत्तरी भारत में लाने का श्रेय प्रसिद्ध शायर वली दक्कनी (1667-1707) को है। वह मुगल शासन काल में दिल्ली पहुँचा और उत्तरी भारत में दक्कनी हिन्दी को लोकप्रिय बनाया ।]

5. खड़ी बोली

खड़ी बोली की 3 शैलियाँ

हिन्दी/शुद्ध हिन्दी /उच्च हिन्दी/नागरी हिन्दी/आर्यभाषा: नागरी लिपि में लिखित संस्कृत बहुल खड़ी बोली (जैसे-जयशंकर प्रसाद की रचनाएं)

उर्दू जबान-ए-उर्दू जबान-ए-उर्दू-मुअल्ला : फारसी लिपि में लिखित अरबी-फारसी बहुल खड़ी बोली (जैसे-मण्टो की रचनाएँ)

हिन्दुस्तानी : हिन्दी-उर्दू का मिश्रित रूप व आम जन द्वारा प्रयुक्त (जैसे – प्रेमचंद की रचनाएं)

नोट: 13वीं सदी से 18वीं सदी तक हिन्दी-उर्दू में कोई मौलिक भेद नहीं था।

हिन्दी के विभिन्न अर्थ:

1. भाषा शास्त्रीय अर्थ : नागरी लिपि में लिखित संस्कृत बहुल खड़ी बोली ।

2. संवैधानिक/ कानूनी अर्थ : संविधान के अनुसार, हिन्दी भारत संघ की राजभाषा या अधिकृत भाषा तथा अनेक राज्यों की राजभाषा है।

3. सामान्य अर्थ: समस्त हिन्दी भाषी क्षेत्र की परिनिष्ठित भाषा अर्थात् शासन, शिक्षा, साहित्य, व्यापार आदि की भाषा ।

4. व्यापक अर्थ: आधुनिक युग में हिन्दी को केवल खड़ी बोली में ही सीमित नहीं किया जा सकता। हिन्दी की सभी उपभाषाएं और बोलियाँ हिन्दी के व्यापक अर्थ में आ जाती हैं।

यह भी पढ़ें: वाक्य तथा वाक्य के भेद

निष्कर्ष:

हम आशा करते हैं कि आपको यह पोस्ट हिंदी भाषा का विकास जरुर अच्छी लगी होगी। इसके बारें में काफी अच्छी तरह से सरल भाषा में हिंदी भाषा का विकास की परिभाषा तथा उसके वर्गीकरण के बारे में उदाहरण देकर समझाया गया है। अगर इस पोस्ट से सम्बंधित आपके पास कुछ सुझाव या सवाल हो तो आप हमें कमेंट बॉक्स में ज़रूर बताये। धन्यवाद!

FAQs

Q1. हिंदी किस भाषा-परिवार की भाषा है?
Ans. भारोपीय
Q2. भारत में सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा कौन-सी है ?
Ans. हिन्दी
Q3. ‘हिन्दी’ भाषा का जन्म हुआ है-
Ans. अपभ्रंश से
Q4. निम्नलिखित में से कौन-सी बोली अथवा भाषा हिन्दी के अंतर्गत नहीं आती है ?
Ans. तेलुगू
Q5. हिन्दी की विशिष्ट बोली ‘ब्रजभाषा’ किस रूप में सबसे अधिक
Ans. काव्यभाषा

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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