पात्र-परिचय
मोहन : एक विद्याधर
दीनानाथ : एक पड़ोसी
माँ : मोहन की माँ
पिता : मोहन के पिता
मास्टर : मोहन के मास्टर जी।
वैद्य जी, डॉक्टर तथा एक पड़ोसिन ।
(सड़क के किनारे एक सुंदर फ्लैट में बैठक का दृश्य। उसका एक दरवाजा सड़कवाले बरामदे में खुलता है, दूसरा अंदर के कमरे में, तीसरा रसोईघर में। अलमारियों में पुस्तकें लगी हैं। एक ओर रेडियो का सेट है। दो ओर दो छोटे तख्त हैं, जिन पर गलीचे बिछे हैं। बीच में कुरसियाँ हैं। एक छोटी मेज़ भी है। उस पर फ़ोन रखा है। परदा उठने पर मोहन एक तख्त पर लेटा है। आठ-नौ वर्ष के लगभग उम्र होगी उसकी। तीसरी क्लास में पढ़ता है। इस समय बड़ा बेचैन जान पड़ता है। बार-बार पेट को पकड़ता है। उसके माता-पिता पास बैठे हैं।)
माँ : (पुचकारकर) न-न, ऐसे मत कर! अभी ठीक हुआ जाता है। अभी डॉक्टर को बुलाया है। ले, तब तक सेंक ले। (चादर हटाकर पेट पर बोतल रखती है। फिर मोहन के पिता की ओर मुड़ती है।) इसने कहीं कुछ अंट-शंट तो नहीं खा लिया?
पिता : कहाँ? कुछ भी नहीं। सिर्फ़ एक केला और एक संतरा खाया था। अरे, यह तो दफ़्तर से चलने तक कूदता फिर रहा था। बस अड्डे पर आकर यकायक बोला- पिता जी, मेरे पेट में तो कुछ ‘ऐसे-ऐसे’ हो रहा है।
माँ : कैसे?
पिता : वस ‘ऐसे-ऐसे’ करता रहा। मैंने कहा अरे, गड़गड़ होती है? तो बोला- नहीं। फिर पूछा – चाकू-सा चुभता है? तो जवाब दिया नहीं। गोला-सा फूटता है? तो बोला- नहीं। जो पूछा उसका जवाब नहीं। बस एक ही रट लगाता रहा, कुछ ‘ऐसे-ऐसे’ होता है।
माँ : (हँसकर) हँसी की हँसी, दुख का दुख, यह ‘ऐसे-ऐसे’ क्या होता है? कोई नयी बीमारी तो नहीं? बेचारे का मुँह कैसे उतर गया है! हवाइयाँ उड़ रही हैं।
पिता : अजी, एकदम सफ़ेद पड़ गया था। खड़ा नहीं रहा गया। बस में भी नाचता रहा मेरे पेट में ‘ऐसे-ऐसे’ होता है। ‘ऐसे-ऐसे’ होता है।
मोहन : (ज़ोर से कराहकर) माँ! ओ माँ! माँ : न-न मेरे बेटे, मेरे लाल, ऐसे नहीं। अजी, जरा देखना, डॉक्टर क्यों नहीं आया ! इसे तो कुछ ज्यादा ही तकलीफ़ जान पड़ती है। यह ‘ऐसे-ऐसे’ तो कोई बड़ी खराब बीमारी है। देखो न, कैसे लोट रहा है! जरा भी कल नहीं पड़ती। हींग, चूरन, पिपरमेंट सब दे चुकी हूँ। वैद्य जी आ जाते !
(तभी फ़ोन की घंटी बजती है। मोहन के पिता उठाते हैं।)
पिता : यह 43332 है। जी, जी हाँ। बोल रहा हूँ… कौन? डॉक्टर साहब ! जी हाँ, मोहन के पेट में दर्द है…जी नहीं, खाया तो कुछ नहीं. ..बस यही कह रहा है… बस जी … नहीं, गिरा भी नहीं…’ ऐसे-ऐसे’ होता है। बस जी, ‘ऐसे-ऐसे’ होता है। बस जी, ‘ऐसे-ऐसे!’ यह ‘ऐसे-ऐसे’ क्या बला है, कुछ समझ में नहीं आता। जी… जी हाँ! चेहरा एकदम सफ़ेद हो रहा है। नाचा. .. नाचता फिरता है… जी नहीं, दस्त तो नहीं आया… जी हाँ, पेशाब तो आया था… जी नहीं, रंग तो नहीं देखा। आप कहें तो अब देख लेंगे… अच्छा जी! जरा जल्दी आइए। अच्छा जी. बड़ी कृपा है। (फ़ोन का चोंगा रख देते हैं।) डॉक्टर साहब चल दिए हैं। पाँच मिनट में आ जाते हैं।
(पड़ोस के लाला दीनानाथ का प्रवेश। मोहन जोर से कराहता है।)
मोहन : माँ… माँ…ओ… ओ… (उलटी आती है। उठकर नीचे झुकता है। माँ सिर पकड़ती है। मोहन तीन-चार बार ‘ओ-ओ’ करता है। थूकता है, फिर लेट जाता है।) हाय, हाय!
माँ : (कमर सहलाती हुई) क्या हो गया? दोपहर को भला चंगा गया था। कुछ समझ में नहीं आता! कैसा पड़ा है! नहीं तो मोहन भला कब पड़ने वाला है! हर वक्त घर को सिर पर उठाए रहता है।
दीनानाथ : अजी, घर क्या, पड़ोस को भी गुलजार किए रहता है। इसे छेड़, उसे पछाड़; इसके मुक्का, उसके थप्पड़। यहाँ-वहाँ, हर कहीं मोहन ही मोहन।
पिता : बड़ा नटखट है।
माँ : पर अब तो बेचारा कैसा थक गया है! मुझे तो डर है कि कल स्कूल कैसे जाएगा!
दीनानाथ : जी हाँ, कुछ बड़ी तकलीफ़ है, तभी तो पड़ा। मामूली तकलीफ़ को तो यह कुछ समझता नहीं। पर कोई डर नहीं। मैं वैद्य जी से कह आया हूँ। वे आ ही रहे हैं। ठीक कर देंगे।
मोहन : (तेजी से कराहकर) अरे….रे-रे-रे…. ओह!
माँ : (घबराकर) क्या है, बेटा? क्या हुआ?
मोहन : (रुआँसा-सा) बड़े जोर से ऐसे-ऐसे होता है। है? ऐसे-ऐसे।
माँ: ऐसे कैसे, बेटे? ऐसे क्या होता
मोहन: ऐसे-ऐसे। (पेट दबाता है।) (वैद्य जी का प्रवेश।)
पिता : वैद्य जी, शाम तक ठीक था। दफ़्तर से चलते वक्त रास्ते में एकदम बोला-मेरे पेट में दर्द होता है। ‘ऐसे-ऐसे’ होता है। समझ नहीं आता, यह कैसा दर्द है!
वैद्य जी : अभी बता देता हूँ। असल में बच्चा है। समझा नहीं पाता है। (नाड़ी दबाकर) वात का प्रकोप है… मैंने कहा, बेटा, जीभ तो दिखाओ। (मोहन जीभ निकालता है।) कब्ज़ है। पेट साफ़ नहीं हुआ। (पेट टटोलकर) हूँ, पेट साफ़ नहीं है। मल रुक जाने से वायु बढ़ गई है। क्यों बेटा ? (हाथ की उँगलियों को फैलाकर फिर सिकोड़ते हैं।) ऐसे-ऐसे होता है?
मोहन : (कराहकर) जी हाँ… ओह!
वैद्य जी : (हर्ष से उछलकर) मैंने कहा न, मैं समझ गया। अभी पुड़िया भेजता हूँ। मामूली बात है, पर यही मामूली बात कभी-कभी बड़ों बड़ों को छका देती है। समझने की बात है। मैंने कहा, आओ जी, दीनानाथ जी, आप ही पुड़िया ले लो। (मोहन की माँ से) आधे-आधे घंटे बाद गरम पानी से देनी है। दो-तीन दस्त होंगे। बस फिर ‘ऐसे-ऐसे’ ऐसे भागेगा जैसे गधे के सिर से सींग ! (वैद्य जी द्वार की ओर बढ़ते हैं। मोहन के पिता पाँच का नोट निकालते हैं।)
पिता : वैद्य जी, यह आपकी भेंट। (नोट देते हैं।)
वैद्य जी : (नोट लेते हुए) अरे मैंने कहा, आप यह क्या करते हैं? आप और हम क्या दो हैं?
(अंदर के दरवाजे से जाते हैं। तभी डॉक्टर प्रवेश करते हैं।)
डॉक्टर : हैलो मोहन! क्या बात है? ‘ऐसे-ऐसे’ क्या कर लिया?
(माँ और पिता जी फिर उठते हैं। मोहन कराहता है। डॉक्टर पास बैठते हैं।)
पिता : डॉक्टर साहब, कुछ समझ में नहीं आता।
डॉक्टर : (पेट दबाने लगते हैं।) अभी देखता हूँ। जीभ तो दिखाओ बेटा। (मोहन जीभ निकालता है।) हूँ, तो मिस्टर, आपके पेट में कैसे होता है? ऐसे-ऐसे? (मोहन बोलता नहीं, कराहता है।)
माँ : बताओ, बेटा! डॉक्टर साहब को समझा दो।
मोहन : जी… जी… ऐसे ऐसे। कुछ ऐसे-ऐसे होता है। (हाथ से बताता है। उँगलियाँ भींचता है।) डॉक्टर, तबीयत तो बड़ी खराब है।
डॉक्टर : (सहसा गंभीर होकर) वह तो मैं देख रहा हूँ। चेहरा बताता है, इसे काफ़ी दर्द है। असल में कई तरह के दर्द चल पड़े हैं। कौलिक पेन तो है नहीं। और फोड़ा भी नहीं जान पड़ता। (बराबर पेट टटोलता रहता है।)
माँ : (काँपकर) फोड़ा!
डॉक्टर : जी नहीं, वह नहीं है। बिलकुल नहीं है। (मोहन से) जरा मुँह फिर खोलना। जीभ निकालो। (मोहन जीभ निकालता है।) हाँ, कब्त ही लगता है। कुछ बदहजमी भी है। (उठते हुए) कोई बात नहीं। दवा भेजता हूँ। (पिता से) क्यों न आप ही चलें! मेरा विचार है कि एक ही खुराक पीने के बाद तबीयत ठीक हो जाएगी। कभी-कभी हवा रुक जाती है और फंदा डाल लेती है। बस उसीकी ऐंठन है।
(डॉक्टर जाते हैं। मोहन के पिता दस का नोट लिए पीछे-पीछे जाते हैं और डॉक्टर साहब को देते हैं।)
सेंक तो दूँ, डॉक्टर साहब ?
डर : (दूर से) हाँ, गरम पानी की बोतल से सेंक दीजिए। (डॉक्टर जाते हैं। माँ बोतल उठाती है। पड़ोसिन आती है।)
सन : क्यों मोहन की माँ, कैसा है मोहन?
माँ : आओ जी, रामू की काकी! कैसा क्या होता! लोचा-लोचा फिरे है। जाने वह ‘ऐसे-ऐसे’ दर्द क्या है, लड़के का बुरा हाल कर दिया।
पड़ोसिन: ना जी, इत्ती नयी-नयी बीमारियाँ निकली हैं। देख लेना, यह भी कोई नया दर्द होगा। राम मारी बीमारियों ने तंग कर दिया। नए-नए बुखार निकल आए हैं। वह बात है कि खाना-पीना तो रहा नहीं।
माँ : डॉक्टर कहता है कि बदहजमी है। आज तो रोटी भी उनके साथ खाकर गया था। वहाँ भी कुछ नहीं खाया। आजकल तो बिना खाए बीमारी होती है। (बाहर से आवाज आती है ‘मोहन ! मोहन!’। फिर मास्टर जी का प्रवेश होता है।)
माँ : ओह, मोहन के मास्टर जी हैं। (पुकारकर) आ जाइए!
मास्टर : सुना है कि मोहन के पेट में कुछ ‘ऐसे-ऐसे’ हो रहा है! क्यों, भाई? (पास आकर) हाँ, चेहरा तो कुछ उतरा हुआ है। दादा, कल तो स्कूल जाना है। तुम्हारे बिना तो क्लास में रौनक ही नहीं रहेगी। क्यों माता जी, आपने क्या खिला दिया था इसे?
माँ : खाया तो बेचारे ने कुछ नहीं।
मास्टर : तब शायद न खाने का दर्द है। समझ गया, उसी में ‘ऐसे-ऐसे’ होता है।
माँ : पर मास्टर जी, वैद्य और डॉक्टर तो दस्त की दवा भेजेंगे।
मास्टर : माता जी, मोहन की दवा वैद्य और डॉक्टर के पास नहीं है। इसकी ‘ऐसे-ऐसे’ की बीमारी को मैं जानता हूँ। अकसर मोहन जैसे लड़कों को वह हो जाती है।
माँ : सच ! क्या बीमारी है यह?
मास्टर : अभी बताता हूँ। (मोहन से) अच्छा साहब ! दर्द तो दूर हो ही जाएगा। डरो मत। बेशक कल स्कूल मत आना। पर हाँ, एक बात तो बताओ, स्कूल का काम तो पूरा कर लिया है? (मोहन चुप रहता है।)
माँ : जवाब दो, बेटा, मास्टर जी क्या पूछते हैं।
मास्टर : हाँ, बोलो बेटा।
(मोहन कुछ देर फिर मौन रहता है। फिर इनकार में सिर हिलाता है।)
मोहन : जी, सब नहीं हुआ।
मास्टर : हूँ। शायद सवाल रह गए हैं।
मोहन : जी!
मास्टर : तो यह बात है। ‘ऐसे-ऐसे’ काम न करने का डर है।
माँ : (चौंककर) क्या? (मोहन सहसा मुँह छिपा लेता है।)
मास्टर : (हँसकर) कुछ नहीं, माता जी, मोहन ने महीना भर मौज की। स्कूल का काम रह गया। आज खयाल आया। बस डर के मारे पेट में ‘ऐसे-ऐसे’ होने लगा- ‘ऐसे-ऐसे’! अच्छा, उठिए साहब! आपके ‘ऐसे-ऐसे’ की दवा मेरे पास है। स्कूल से आपको दो दिन की छुट्टी मिलेगी। आप उसमें काम पूरा करेंगे और आपका ‘ऐसे-ऐसे’ दूर भाग जाएगा। (मोहन उसी तरह मुँह छिपाए रहता है।) अब उठकर सवाल शुरू कीजिए। उठिए, खाना मिलेगा। (मोहन उठता है। माँ ठगी-सी देखती है। दूसरी ओर से पिता और दीनानाथ दवा लेकर प्रवेश करते हैं।)
माँ: क्यों रे मोहन, तेरे पेट में तो बहुत बड़ी दाढ़ी है। हमारी तो जान निकल गई। पंद्रह-बीस रुपए खर्च हुए, सो अलग। (पिता से) देखा जी आपने ! पिता : (चकित होकर) क्या क्या हुआ?
माँ : क्या-क्या होता! यह ‘ऐसे-ऐसे’ पेट का दर्द नहीं है, स्कूल का काम न करने का डर है।
पिता : हैं!
(दवा की शीशी हाथ से छूटकर फ़र्श पर गिर पड़ती है। एक क्षण सब ठगे-से मोहन को देखते हैं। फिर हँस पड़ते हैं।)
दीनानाथ : वाह, मोहन, वाह !
पिता : वाह, बेटा जी, वाह! तुमने तो खूब छकाया ! (एक अट्टहास के बाद परदा गिर जाता है।)
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प्रश्न-अभ्यास
एकांकी से
1. ‘सड़क के किनारे एक सुंदर फ्लैट में बैठक का दृश्य। उसका एक दरवाजा सड़क वाले बरामदे में खुलता है… इस बैठक की पूरी तसवीर बनाओ। …उस पर एक फ़ोन रखा है।’
Ans. बैठक में फ़र्श पर कालीन बिछा है। इसके ऊपर सोफा सेट रखा है। कोने में तिपाही पर फूलदान सज़ा है। दूसरे कोने में टेबल लैंप रखा है। कमरे के बीच में शीशे की मेज़ रखी है। मेज़ पर अखबार और पत्रिकाएँ रखी हैं। दीवार पर दो सुंदर पेंटिंग टॅगी हुई है। छात्र दिए गए विवरण के आधार पर चित्र बनाएँ।
2. माँ मोहन के ‘ऐसे-ऐसे’ कहने पर क्यों घबरा रही थी?
Ans. माँ का घबराना स्वाभाविक था क्योंकि मोहन कुछ बताता ही नहीं था बस ऐसे-ऐसे किए जा रहा था। माँ ने सोचा पता नहीं यह कौन-सी बीमारी है और कितनी भयंकर है। इसलिए मोहन की माँ घबरा गई थी।
3. ऐसे कौन-कौन से बहाने होते हैं जिन्हें मास्टर जी एक ही बार जाते हैं? ऐसे कुछ बहानों के बारे में लिखो।
Ans. पेट दर्द, सिर दर्द, बुखार, माता-पिता के साथ कहीं जाना, माता-पिता द्वारा किसी काम के लिए कहा जाना, शादी में जाना, बस छूट जाने का बहामा, माँ की बीमारी का बहाना इत्यादि।
अनुमान और कल्पना
1. स्कूल के काम से बचने के लिए मोहन ने कई बार पेट में ‘ऐसे-ऐसे’ होने के बहाने बनाए। मान लो, एक बार उसे सचमुच पेट में दर्द हो गया और उसकी बातों पर लोगों ने विश्वास नहीं किया, तब मोहन पर क्या बीती होगी?
Ans. स्कूल के काम से बचने के लिए मोहन ने कई बार पेट में ऐसे-ऐसे’ होने के बहाने बनाए। यदि किसी दिन मोहन को सचमुच पेट में दर्द हो गया तो कोई भी उसकी बात को नहीं मानेगा तथा उसका दर्द बढ़ता जाएगा जो कि परेशानी का कारण बन सकता है। यदि किसी दिन मोहन के पेट में सचमुच दर्द हुआ होगा तो लोगों ने उस पर विश्वास नहीं किया हो और यही समझा होगा कि वह बहाने बना रहा है। ऐसे में वह तड़पा होगा और सबको बार-बार कहा होगा कि उसके पेट में सचमुच दर्द हो रहा है। तब जाकर मोहन को पता चला होगा कि झूठ बोलने से क्या नुकसान होता है। उसे अपनी आदत पर पछतावा होगा और संभवतः वह भविष्य में कभी झूठ बोलने से तौबा कर ले।
2. पाठ में आए वाक्य ‘लोचा लोचा फिरे है’ के बदले ‘डीला-ढाला हो गया है या बहुत कमजोर हो गया है’- लिखा जा सकता है। लेकिन, लेखक ने संवाद में विशेषता लाने के लिए बोलियों के रंग-ढंग का उपयोग किया है। इस पाठ में इस तरह की अन्य पंक्तियाँ भी है, जैसे-
इत्ती नई-नई बीमारियाँ निकली हैं,
राम मारी बीमारियों ने तंग कर दिया,
तेरे पेट में तो बहुत बड़ी दाढ़ी है।
• अनुमान लगाओ, इन पंक्तियों को दूसरे ढंग से कैसे लिखा जा सकता है?
Ans.
-इतनी नयी-नयी बीमारियाँ निकली हैं।
-इन बीमारियों ने परेशान कर दिया है।
-तुम तो बहुत चालाक हो।
3. मान लो कि तुम मोहन की तबीयत पूछने जाते हो। तुम अपने और मोहन के बीच की बातचीत को संवाद के रूप में लिखो।
Ans.
में-अरे मोहन। कैसे हो? क्या हुआ है तुम्हें?
मोहन-कुछ नहीं भाई। बस पेट में ऐसे-ऐसे हो रहा है।
मैं-ऐसे कैसे?
मोहन-बस ऐसे-ऐसे।
मैं-डॉक्टर को दिखाया?
मोहन-डॉक्टर को भी दिखाया और वैद्य की भी दवा मिली है खाने को।
मैं-क्या कहा उन्होंने?
मोहन-उन्होंने कब्ज और बदहजमी बताया है।
मैं-ठीक है, दवा खाओ और जल्दी ठीक होने की कोशिश करो। कल से स्कूल खुल रहा है, याद है न।।
मोहन-हाँ, हाँ, याद है।
मैं-अब मैं चलता हूँ। कल स्कूल जाते समय आऊँगा। अगर पेट ठीक हो जाए तो तुम भी तैयार रहना।
मोहन-अच्छा भाई। धन्यवाद ।
4. संकट के समय के लिए कौन-कौन से नंबर याद रखे जाने चाहिए? ऐसे वक्त में पुलिस, फ़ायर ब्रिगेड और डॉक्टर से तुम कैसे बात करोगे? कक्षा में करके बताओ।
Ans. संकट के समय पुलिस, फायर ब्रिगेड और हॉस्पिटल एवं चिकित्सक के नंबर याद रखे जाने चाहिए। पुलिस की नंबर-100, फायर ब्रिगेड की-101, एंबुलेंस की-102
यदि कोई वारदात होती है तो पुलिस को जानकारी देंगे। यदि आग लगती है तो फायर ब्रिगेड को खबर देंगे। यदि कोई बीमारे है तो डॉक्टर को फोन करेंगे।
हम इनसे नम्र स्वभाव में प्रार्थना करते हुए बातें करेंगे।
हम उन्हें घर का पता बता देंगे।
उनसे शीघ्र आने के लिए कहेंगे। डॉक्टर को मरीज़ की बीमारी के लक्षण बता देंगे ताकि वह आवश्यक दवा साथ ता सके। ऐसा होता तो क्या होता
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