प्रगौतिहासिक भारत

प्रगौतिहासिक भारत

• भारत में पाषाणकालीन सभ्यता की खोज का कार्य सर्वप्रथम 1863 ई. में आरम्भ हुआ, जब भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के विद्वान रॉबर्ट ब्रूस फुट ने पल्लवरम् (मद्रास) से पूर्व पाषाण कालीन उपकरण (पत्थर के हाथ की कुल्हाड़ी) प्राप्त किया।

ब्रिटिश भू-वैज्ञानिक और पुरातत्वविद् रॉबर्ट ब्रूस फुट ने भारतीय संस्थान जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के लिए भारत में इतिहास पूर्व स्थानों का भू-विज्ञान संबंधी सर्वेक्षण किया था जिन्हें भारत के इतिहास पूर्व अध्ययन का संस्थापक माना जाता है।

• सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अनुसंधान के रूप में 1935 ई. में डी. टेरा तथा पीटरसन के नेतृत्व वाले येल कैम्ब्रिज अभियान दल ने शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में स्थित पोतवार के पठारी भाग का व्यापक सर्वेक्षण किया।

• विद्वानों का विचार है कि इस सभ्यता का उदय और विकास ‘अतिनूतन’ काल (प्लाइस्टोसीन एज) में हुआ। अब तक की जानकारी के अनुसार 400 करोड़ वर्ष पुरानी पृथ्वी की चार अवस्थाओं में से चौथी और अंतिम अवस्था के दो भाग हैं-1. अतिनूतन 2. अद्यतन (होलोसीन)। अतिनूतन, दस लाख वर्ष से दस हजार वर्ष पूर्व और अद्यतन युग को आज से दस हजार वर्ष पूर्व आरम्भ माना जाता है।

पुरापाषाण काल (शिकार एवं खाद्य संग्रह युग)

• भारत में मानव के प्राचीनतम अस्तित्व का संकेत द्वितीय हिमावर्त्तन (ग्लेसिएशन) काल की परतों से प्राप्त पत्थर के उपकरणों से मिलता है, जिसका काल 25,00,000 ई०पू० बताया जाता है।

भारतीय आदिम मानव अनगढ़ एवं अपरिष्कृत उपकरणों का प्रयोग करता था। ऐसे उपकरण गंगा-यमुना के कछारी भागों को छोड़ समूचे भारत में पाये गये हैं।

आदिम मानव को धातुओं का ज्ञान नहीं था, उसके पास निश्चित घरों का अभाव था। जानवरों का भय बराबर बना रहता था। खेती करना, आग जलाना और बर्तन बनाने की कला का ज्ञान नहीं था। वे शिकार द्वारा जानवरों के मांस और ऐसे फलों एवं सब्जियों, कंद-मूलों (खाद्य संग्रह) पर जीवन व्यतीत करते थे, जो जंगलों में उपजाते थे।

• पुरापाषाण युग को मानव द्वारा प्रयुक्त होने वाले हथियारों के स्वरूप और जलवायु में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है :
1. पूर्व पुरापाषाण युग (2500000 ई०पू० -100000 ई०पू०)।

2. मध्य पुरापाषाण युग (100000 ई०पू० – 40000 ई०पू०)

3. उत्तर पुरा पाषाण युग (40000 ई०पू०- 10000 ई०पू०)।

पूर्व पुरा पाषाण युग : अधिकांश हिमयुग आरम्भिक पुरापाषाण युग में ही व्यतीत हुआ है। इसका प्रमाण है-कुल्हाड़ी या हस्त-कुठार (हैंड-एक्स), विदारणी (क्लीवर) और गंडासा (खंडक) का उपयोग। भारत में प्राप्त हुई प्रस्तर कुल्हाड़ियाँ प्राय: पश्चिम एशिया, यूरोप एवं अफ्रीका से प्राप्त कुल्हाड़ियों जैसी ही हैं। निम्न पुरापाषाण युग के अधिसंख्य स्थल, सिंधु नदी की सहायक ‘सोहन नदी’ की घाटी (सम्प्रति पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में) में पाये गये हैं। पहली बार सोहन क्षेत्र से सम्बन्धित साक्ष्य मिलने के कारण इसे ‘सोहन संस्कृति’ की संज्ञा भी दी गयी है। अनेक स्थल कश्मीर तथा थार के मरुस्थल (डिडवाना क्षेत्र) में भी मिले हैं। निम्न पुरापाषाणकालीन हथियार मिर्जापुर जिले की बेलनघाटी (उ.प्र.) एवं भीमबेटका की गुहाओं (भोपाल म.प्र.) में भी मिले हैं।

2. मध्य पुरा पाषाण युग : इस युग में प्रस्तर शल्कों से निर्मित विभिन्न प्रकार के फलक, वेधनी, छेदनी और खुरचनी का प्रयोग होता था। जो सम्पूर्ण भारत में पाये गये हैं। इस युग का शिल्प कौशल नर्मदा नदी के किनारे-किनारे अनेक स्थानों पर और तुंगभद्रा नदी के दक्षिणवर्ती स्थानों पर भी पाया जाता है।

3. उत्तर पुरा पाषाण युग : इस युग में आर्द्रता कम हो गयी थी और जलवायु अपेक्षाकृत गर्म होते जाने से हिमयुग की अंतिम अवस्था आरम्भ हो चुकी थी। इसी युग में आधुनिक प्रारूप के मानव (होमोसेपियन्स) का आविर्भाव हुआ। इस युग के प्रस्तर फलक और कुल्हाड़ियाँ आंध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र, केन्द्रीय मध्य प्रदेश, दक्षिण उत्तर प्रदेश, पूर्व बिहार के पठारी भाग में पाये गये हैं। गुजरात के टिब्बों के ऊपरी तलों पर एक उच्च पुरापाषाणीय भंडार भी मिला है, जिसमें शल्क फलक, तक्षणियाँ और खुरचनियां सम्मिलित हैं।

मध्य पाषाण काल ( 9000 ई०पू० – 4000 ई०पू०) (शिकार एवं पशुपालन युग)

• मध्य पाषाणकालीन मानव शिकार करके मछली पकड़ कर तथा जंगली कंद-मूल का संग्रह कर उसी से अपना पेट भरते थे। इस युग के प्रस्तर उपकरणों में परिष्कार आया और उनका आकार भी छोटा हो गया। इस मध्यवर्तीकाल को उत्तर पाषाण युग या Mesolithic Age भी कहा जाता है।

• मध्य पाषाण-कालीन स्थल राजस्थान, दक्षिणी उ.प्र., मध्य व पूर्वी भारत तथा कृष्णा नदी के दक्षिण में बहुतायत से पाये गये हैं।

• राजस्थान के बागोर नामक स्थल के उत्खनन से ज्ञात हुआ है कि यहाँ स्पष्टतः सूक्ष्म पाषाण उद्योग था और यहाँ के निवासियों की जीविका का साधन शिकार और पशुपालन था। यहाँ पर मानव बस्ती 5000 वर्षों तक रही।

• मध्य प्रदेश में आदमगढ़ और राजस्थान का बागोर पशुपालन का प्राचीनतम प्रमाण प्रस्तुत करते हैं, जिसका समय 5000 ई०पू० हो सकता है।

• मध्य पाषाण कालीन महादहा (उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले) से बड़ी मात्रा में हड्डी एवं सींग निर्मित उपकरण प्राप्त हुए हैं।

नव पाषाण काल (7000- 1000 ई०पू०) (अन्न उत्पादक युग)

• हालाकि विश्व के संदर्भ में नव पाषाण युग (Neolithic Age) का आरम्भ 9000 ई०पू० में आरम्भ होता है लेकिन ब्लूचिस्तान के मेहरगढ़ में एक ऐसी प्राचीन भारतीय बस्ती (सम्प्रति पाकिस्तान) मिली है, जिसका समय 7000 ई०पू० बताया जाता है।

• इस युग के लोग पॉलिशदार पाषाण हथियारों का प्रयोग करते थे। वे विशेष रूप से पत्थर की कुल्हाड़ियाँ प्रयुक्त करते थे, जो देश के पहाड़ी क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में पायी गयी हैं।

• नवपाषाण युग के निवासियों को सबसे पहले अन्न उगाने का श्रेय जाता है। कृषि कार्य की प्रक्रिया में वे पत्थर की कुदालों और नुकीले पाषाण डंडों से जमीन तोड़ते थे। पॉलिशदार पाषाण हथियारों के अतिरिक्त वे सूक्ष्म पाषाण फलकों का भी प्रयोग करते थे।

• वे मिट्टी और सरकंडे से निर्मित गोलाकार तथा आयताकार घरों में निवास करते थे।

• इस युग में लोग घर बनाकर स्थायी रूप से रहना सीख गये थे; बुर्जाहोम, कश्मीर तथा चिंराद (छपरा, सारण) में पाषाणयुगीन लोग पॉलिशदार पाषाण उपकरणों के अतिरिक्त बड़ी मात्रा में हड्डियों से निर्मित उपकरणों • का भी प्रयोग करते थे।

• बुर्जाहोम के लोग ‘धूसर मृद्मांडों’ का प्रयोग करते थे। यहाँ कब्रों में पालतू कुत्ते भी अपने मालिकों के शवों के साथ दफनाये जाते थे। यह प्रथा भारत के अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं पायी गयी है।

• इस काल के लोग कृषि के अतिरिक्त पशुपालन भी करते थे। वे गाय, बैल, भेड़ एवं बकरी पालते थे।

• मेहरगढ़ के नव पाषाणीय उन्नत लोग गेहूँ, जौ और रूई उपजाते थे, जबकि इलाहाबाद के पास चावल उगाने का प्रमाण मिलता है।

• नवपाषाण कालीन अनेक स्थायी निवासियों को कृषि कार्य के कारण अनाज रखने तथा पकाने, खाने और पीने के लिए बरतनों की आवश्यकता महसूस हुई। अतः कुम्भकारी सर्वप्रथम इसी युग में परिलक्षित होती है।

• यहाँ आरम्भ में हाथ से मृद्भांड निर्मित होते थे, बाद में मिट्टी के अधिकांश बरतन चाक पर बनने लगे।

• इनमें पॉलिशयुक्त काला मृद्भांड, धूसर मृद्भांड एवं मन्द वर्ण मृद्भांड सम्मिलित हैं। नवपाषाण युगीन सेल्ट, कुल्हाड़ियां, बसूले, छेनी आदि उपकरण उड़िसा और छोटानागपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में भी पाये गये हैं।

• कालान्तर में मानव को लोहे का ज्ञान हो गया तो उसकी चरम उन्नति का मार्ग भी प्रशस्त हो गया। लोहे के फल से युक्त हलों के कारण मैदानी इलाकों में वनों को काट कर खेत बनाना और गहरी जुताई करना संभव हो गया, जिससे अधिशेष उत्पादन होने लगा और नगरीय जीवन का आरम्भ हो सका।

ताम्र पाषाण काल (Chalcolithic Age)

• नव पाषाण युग का अंत होते-होते धातुओं का प्रयोग आरम्भ हो गया था। पत्थर के साथ-साथ पहली धातु के रूप में ताँबे के उपकरणों का भी प्रयोग होने लगा।

• ताम्रपाषाण युग को चालकोलिथिक युग भी कहा जाता है।

• ताम्र पाषाणकालीन लोग मुख्यतः ग्रामीण समुदाय के थे और देश के ऐसे भागों में फैले थे, जहाँ पहाड़ी जमीन और नदियां थीं।

• भारत में इस अवस्था से सम्बद्ध स्थल दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिण-पूर्वी भारत में पाये गये हैं।

• राजस्थान में ‘अहार’ और ‘गिलुंड’ में उत्खनन हुआ है, जो बनास घाटी के सूखे भागों में स्थित हैं।

• पश्चिमी मध्यप्रदेश में मालवा, कयथा और एरण में उत्खनन हुआ है।

• मालवा से प्राप्त मृद्भांडों को ताम्र पाषाणीय मृद्भांडों में उत्कृष्ट माना गया है।

• पश्चिमी महाराष्ट्र के जोरवे, नेवासा व दैमाबाद (अहमदनगर); चंदोली, सोनगाँव, झामगाँव, प्रकाश और नासिक में विस्तृत उत्खनन किए गये हैं। ये सभी स्थल ‘जोरवे संस्कृति’ के हैं।

• जोरवे, अहमदनगर जिले में गोदावरी नदी की शाखा प्रवरा नदी के बायें तट पर अवस्थित है।

इस अवस्था के अनेक स्थल पूर्वी भारत, विंध्य क्षेत्र, पश्चिम बंगाल (वीरभूमि), बिहार (चिराँद, सोनपुर, ताराडीह), पूर्वी उ.प्र. (रैवराडीह, नौहान), दक्षिण भारत तथा राजस्थान की बनास घाटी के शुष्क क्षेत्रों में पड़ते हैं।

• अहार संस्कृति का काल 2100 ई०पू० -1500 ई०पू० माना जाता है। गिलुंड इसका स्थानीय केंद्र है, जहाँ ताँबे के टुकड़े ही मिलते हैं।

• ताम्र पाषाण युग के लोग गाय, भेड़, बकरी, सुअर और भैंस पालते थे। हिरण का शिकार करते थे। ऊँट के अवशेष भी मिले हैं। यह स्पष्ट नहीं होता कि वे घोड़े से परिचित थे या नहीं।

• वे गेहूं, चावल, बाजरा, मसूर, उड़द, मूँग, मटर, रागी, अलसी तथा कपास उगाते थे। वे मछली पकड़ने के कांटे (बंसी) का प्रयोग करते थे। वे अपना घर गीली मिट्टी थोप कर बनाते थे, अहार के लोग पत्थर से बने घरों में रहते थे।

• वे ताँबे का शिल्प कर्म और पत्थर का कार्य भी अच्छा करते थे। वे अच्छे पत्थरों के मनके या गुटिकायें भी बनाते थे।

वस्त्र निर्माण से भी वे सुपरिचित थे।

लोग मृतक को अस्थिकलश में रखकर अपने घर में फर्श के नीचे उत्तर-दक्षिण स्थिति में गाड़ते थे।

ताम्रपाषाणीय लोग मातृ देवी की पूजा करते थे। अनेक कच्ची मिट्टी की नग्न पुतलियाँ भी पूजी जाती थीं। बस्तियाँ छोटी और बड़ी होती थीं।

• इस सभ्यता की खुदाई से प्राप्त ताम्र वस्तुयें हैं-तीर के नोक, बरछे के फल, बंसियाँ, सेल्ट, कंगन, छेनी आदि।

• यहाँ ‘गैरिक मृद्भांड’ (OCP) भी पाया गया है। यह एक लाल अनुलेपित भांड है जो अक्सर काले रंग से रंगा होता है और प्रायः कलश के आकार में होता है।

• तिथिक्रम की दृष्टि से भारत में ताम्रपाषाणीय बस्तियों की अनेक श्रृंखलायें हैं। कुछ प्राक् हड़प्पीय हैं, कुछ हड़प्पाकालीन, तो कुछ हड़प्पेत्तर।

• राजस्थान का कालीबंगा और हरियाणा का बनवाली प्राक् हड़प्पीय ताम्र-पाषाणिक अवस्था है।

कोटदीजी और कयथा की संस्कृति हड़प्पाकालीन है।

• ऐसा प्रतीत होता है कि ताम्रपाषाण युग के कुछ कृषक समुदाय सिंधु के बाढ़ वाले मैदानों की ओर बढ़े, कांसे का तकनीकी ज्ञान प्राप्त किया और वे नगरों की स्थापना में सफल हुए।

• ताम्रपाषाणीय संस्कृतियाँ 1200 ई०पू० तक बनी रही। इसके लुप्त होने का कारण 1200 ई०पू० के बाद से वर्षा की मात्रा में कमी आना माना जाता है।

• जलोढ़ मिट्टी वाले मैदानों और घने जंगल वाले इलाकों को छोड़कर प्रायः समूचे देश में ताम्र पाषाणीय संस्कृतियाँ प्राप्त हुई हैं।

• इस युग में लोगों ने पहाड़ियों से कम दूरी पर तथा नदी तटों पर घर बनाये। वे लघु पाषाण उपकरणों के साथ ताँबे के उपकरण भी प्रयुक्त करते थे।

वे चाकों पर बने काले-लाल मृद्भांडों का प्रयोग करते थे।

• उनकी प्राक् कांस्य अवस्था से लगता है कि उन्होंने सर्वप्रथम चित्रित मृद्भांडों का प्रयोग किया।

वे पकाने, खाने, पीने और समान रखने के लिए इन मृद्भांडों का प्रयोग करते थे।

लोटा व थाली दोनों उनके द्वारा प्रयुक्त होता था।

ताम्र पाषाण काल में पशुपालन-गाय, भेड़, बकरी, सुअर, भैंस, हिरण, ऊँट।

• कयथा (मालवा) और एरण (मध्य भारत) उनकी सबसे पुरानी बस्तियाँ हैं। उन्होंने ही सर्वप्रथम बड़े-बड़े गाँव बसाये।

ताम्र पाषाणीय लोग पशुपालन का सदुपयोग नहीं कर सके। वे विस्तृत कृषि भी न कर सके। हल और फावड़ा न होने से वे केवल झूम खेती कर पाते थे।

• कांसे के उपकरणों के प्रयोग से क्रीट, मिस्र, मेसोपोटामिया और सिंधु में घाटी भी प्राचीनतम सभ्यताओं के विकास में सहायता मिली थी।

• ताम्र पाषाणीय लोग लिखने की कला नहीं जानते थे और न ही वे नगरों में रहते थे, जबकि कांस्ययुगीन लोग नगरवासी हो गये थे।

• ताम्र पाषाणीय गैरिक मृद्भांड वाले लोग हड़प्पावासियों के सम-सामयिक थे और वे जिस क्षेत्र में रहते थे वह भी हड़प्पाइयों के क्षेत्र से बहुत दूर नहीं था।

• नवदाटोली, मध्य प्रदेश का एक महत्पवूर्ण ताम्रपाषाणिक पुरास्थल है जो इंदौर के निकट स्थित है। यहाँ से मिट्टी, बांस तथा फूस के बने चौकोर एवं वृत्ताकार घर मिले हैं। यहाँ के मृदभांड लाल काले रंग के है जिन पर ज्यामितीय अरिरत उत्कीर्ण है।

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निष्कर्ष:

हम आशा करते हैं कि आपको यह पोस्ट प्रगौतिहासिक भारत जरुर अच्छी लगी होगी। प्रगौतिहासिक भारत के बारें में काफी अच्छी तरह से सरल भाषा में उदाहरण देकर समझाया गया है। अगर इस पोस्ट से सम्बंधित आपके पास कुछ सुझाव या सवाल हो तो आप हमें कमेंट बॉक्स में ज़रूर बताये। धन्यवाद!

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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