भारतीय परंपरा के अनुसार वर्ष को द्विमासिक छः ऋतुओं में बाँटा जाता है। उत्तरी और मध्य भारत में लोगों द्वारा अपनाए जाने वाले इस ऋतु चक्र का आधार उनका अपना अनुभव और मौसम के घटक का प्राचीन काल से चला आया ज्ञान है, लेकिन ऋतुओं की यह अवस्था दक्षिण भारत की ऋतुओं से मेल नहीं खाती। क्योंकि दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्तर भारत में ऋतु परिवर्तन अधिक प्रभावशाली है।
ऋतु | भारतीय कैलेंडर के अनुसार महीने | अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार महीने |
• बसंत | चैत्र-बैसाख | मार्च-अप्रैल |
• ग्रीष्म | ज्येष्ठ-आषाढ़ | मई-जून |
• वर्षा | श्रावण-भाद्र | जुलाई-अगस्त |
• शरद | आश्विन-कार्तिक | सितंबर-अक्टूबर |
• हेमंत | मार्गशीष-पौष | नवंबर-दिसंबर |
• शिशिर | माघ-फाल्गुन | जनवरी-फरवरी |
जलवायु अवस्थाधारित ऋतुएँ
भारतीय मौसम विभाग (Indian Meteorological Depart- ment) ने भारत को वार्षिक जलवायु अवस्थाओं के आधार पर चार ऋतुओं में विभक्त किया है। यथा :
(क) उत्तर-पूर्वी मानसून का समय
(i) शीत ऋतु (Winter Season)
(ii) ग्रीष्म ऋतु (Summar Season)
(ख) दक्षिणी-पश्चिमी मानसून का समय
(iii) वर्षा ऋतु (Rainy Season)
(iv) शरद ऋतु (Cool Season)
(i) शीत ऋतु (Winter Seasons) :
सामान्यतः उत्तरी भारत में शीत ऋतु नवंबर के मध्य से आरम्भ होती है और मार्च में समाप्त हो जाती है। उत्तरी मैदान में जनवरी और फरवरी सर्वाधिक ठंडे महीने होते हैं।
(A) तापमान : इस समय उत्तरी भारत के अधिकांश भागों में औसत दैनिक तापमान 21° सेल्सियस के कम रहता है। रात्रि का तापमान काफी कम हो जाता है, जो पंजाब और राजस्थान में हिमांक (0° सेल्सियस) से भी नीचे चला जाता है।
इस ऋतु में, उत्तरी भारत में अधिक ठंड पड़ने के मुख्य रूप से तीन कारण हैं :
(i) पंजाब, हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्य समुद्र के समकारी प्रभाव से दूर स्थित होने के कारण महाद्वीपीय जलवायु का अनुभव करते हैं।
(ii) निकटवर्ती हिमालय की श्रेणियों में हिमपात के कारण शीत लहर की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और
(iii) फरवरी के आस-पास कैस्पियन सागर और तुर्कमेनिस्तान की ठंडी पवनें उत्तरी भारत में शीत लहर ला देती हैं। ऐसे अवसरों पर देश के उत्तर-पश्चिम भागों में पाला व कोहरा भी पड़ता है।
• प्रायद्वीपीय भारत में कोई निश्चित शीत ऋतु नहीं होती।* तटीय भागों में भी समुद्र के समकारी प्रभाव तथा भूमध्यरेखा की निकटता के कारण ऋतु के अनुसार तापमान के वितरण प्रतिरूप में शायद ही कोई बदलाव आता हो। उदाहरणतः तिरूवनंतपुरम् में जनवरी का माध्य अधिकतम तापमान 31°सेल्सियस तक रहता है, जबकि जून में यह 29.5° सेल्सियस पाया जाता है।
• पश्चिमी घाट की पहाड़ियों पर तापमान अपेक्षाकृत कम पाया जाता है। दक्षिण भारत से उत्तर भारत की ओर बढ़ने पर तापमान घटता जाता है। पूर्वी तट पर स्थित चेन्नई का औसत तापमान 24°C से 25°C के मध्य होता है जबकि उत्तरी भारत के मैदान में तापमान 10° से 15°C के मध्य होता है। सामान्यतः इस मौसम में तापमान तथा आर्द्रता कम होती है और आसमान साफ होता है।
(B) वायुदाब तथा पवनें : दिसंबर के अंत तक (22 दिसंबर) सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर रेखा पर सीधा चमकता है। इस ऋतु में मौसम की विशेषता उत्तरी मैदान में एक क्षीण उच्च वायुदाब का विकसित होना है। दक्षिणी भारत में वायुदाब उतना अधिक नहीं होता। 1,019 मिलीबार तथा 1013 मिलीबार की समभार रेखाएँ क्रमशः उत्तर-पश्चिमी भारत तथा सुदूर दक्षिण से होकर गुजरती हैं। परिणामस्वरूप उत्तर-पश्चिमी उच्च वायुदाब क्षेत्र से दक्षिण में हिंद महासागर पर स्थित निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर पवनें चलना आरम्भ कर देती हैं।
• कम वायु दाब प्रवणता (Pressure gradient) के कारण 3 से 5 किमी. प्रति घंटा की दर से मंद गति की पवनें चलने लगती हैं। मोटे तौर पर क्षेत्र की भू-आकृति भी पवनों की दिशा को प्रभावित करती है। गंगा घाटी में इनकी दिशा पश्चिमी और उत्तर- पश्चिमी होती है। गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा में इनकी दिशा उत्तरी हो जाती है। भू-आकृति के प्रभाव से मुक्त इन पवनों की दिशा बंगाल की खाड़ी में स्पष्ट तौर पर उत्तर-पूर्वी होती है।
• सर्दियों में भारत का मौसम सुहावना होता है। फिर भी यह सुहावना मौसम कभी-कभार हल्के चक्रवातीय अवदाबों से बाधित होता रहता है। पश्चिमी विक्षोभ कहे जाने वाले ये चक्रवात पूर्वी भूमध्यसागर पर उत्पन्न होते हैं और पूर्व की ओर चलते हुए पश्चिमी एशिया, ईरान-अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान को पार करके भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों में पहुँचते हैं। मार्ग के उत्तर में कैस्पियन सागर तथा दक्षिण में ईरान की खाड़ी से गुजरते समय इन चक्रवातों की आर्द्रता में संवर्धन हो जाता है। पश्चिमी जेट- प्रवाह इन अवदाबों को भारत की ओर उन्मुख करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
(C) वर्षा : शीतकालीन मानसून पवनें स्थल से समुद्र की ओर चलने के कारण वर्षा नहीं करतीं, क्योंकि एक तो इनमें नमी केवल नाममात्र की होती है, दूसरे, स्थल पर घर्षण के कारण इन पवनों का तापमान बढ़ जाता है, जिससे वर्षा होने की संभावना निरस्त हो जाती है। अतः शीत ऋतु में अधिकांश भारत में वर्षा नहीं होती। अपवादस्वरूप कुछ क्षेत्रों में शीत ऋतु में वर्षा होती है।
(i) उत्तर-पश्चिमी भारत में भूमध्य सागर से आने वाले कुछ क्षीण शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवात (पश्चिमी विक्षोभ), पंजाब, हरियाणा, दिल्ली तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा उत्तरी भारत के मैदानों में कुछ वर्षा करते हैं। कम मात्रा में होते हुए भी यह शीतकालीन वर्षा भारत में रबी की फसल के लिए उपयोगी होती है।
• लघु हिमालय में वर्षा हिमपात के रूप में होती है। यह वही हिम है, जो गर्मियों के महीनों में हिमालय से निकलने वाली नदियों में जल के प्रवाह को निरंतर बनाए रखती है। वर्षा की मात्रा मैदानों में पश्चिम से पूर्व की ओर तथा पर्वतों में उत्तर से दक्षिण की ओर घटती जाती है। दिल्ली में सर्दियों की औसत वर्षा 53 मिलीमीटर होती है। पंजाब और बिहार के बीच में यह वर्षा 18 से 25 मिलीमीटर के बीच रहती है।
(ii) कभी-कभी देश के मध्य भागों एवं दक्षिणी प्रायद्वीप के उत्तरी भागों में भी कुछ शीतकालीन वर्षा हो जाती है।
(iii) जाड़े के महीनों में भारत के उत्तरी-पूर्वी भाग में स्थित अरुणांचल प्रदेश तथा असोम में भी 25 से 50 मिलीमीटर तक वर्षा हो जाती है।
(iv) उत्तर-पूर्वी मानसून पवनें अक्टूबर से नवंबर के बीच बंगाल की खाड़ी को पार करते समय नमी ग्रहण कर लेती हैं और तमिलनाडु, दक्षिणी आंध्र प्रदेश, दक्षिणी-पूर्वी कर्नाटक तथा दक्षिण-पूर्वी केरल में झंझावती वर्षा करती हैं।*
(ii) ग्रीष्म ऋतु (Summer Season)
(A) तापमान : यह ऋतु उत्तरी भारत में मार्च से मध्य जून तक होती है। 21 मार्च के बाद सूर्य के कर्क रेखा की ओर आभासी बढ़त के साथ ही उत्तरी भारत में तापमान बढ़ने लगता है। अप्रैल, मई व जून में उत्तरी भारत में स्पष्ट रूप से ग्रीष्म ऋतु होती है। भारत के अधिकांश भागों में तापमान 30° से 32° सेल्सियस तक पाया जाता है। मार्च में दक्कन पठार पर दिन का अधिकतम तापमान 380 सेल्सियस हो जाता है, जबकि अप्रैल में गुजरात और मध्य प्रदेश में यह तापमान 38° से 43° सेल्सियस के बीच पाया जाता है। मई में ताप की यह पेटी और अधिक उत्तर में खिसक जाती है। जिससे देश के उत्तर-पश्चिमी भागों में 48° सेल्सियस के आसपास तापमान का होना असामान्य बात नहीं है।
दक्षिणी भारत में ग्रीष्म ऋतु मृदु होती है तथा उत्तरी भारत जैसी प्रखर नहीं होती। दक्षिणी भारत की प्रायद्वीपीय स्थिति समुद्र के समकारी प्रभाव के कारण यहाँ के तापमान को उत्तरी भारत में प्रचलित तापमानों से नीचे रखती है। अतः दक्षिण में तापमान 26° से 32° सेल्सियस के बीच रहता है।* पश्चिमी घाट की पहाड़ियों के कुछ क्षेत्रों में ऊँचाई के कारण तापमान 25° सेल्सियस से कम रहता है। तटीय भागों में समताप रेखाएँ तट के समानांतर उत्तर-दक्षिण दिशा में फैली हैं, जो प्रमाणित करती हैं कि तापमान उत्तरी भारत से दक्षिणी भारत की ओर न बढ़कर तटों से भीतर की ओर बढ़ता है। गर्मी के महीनों में औसत न्यूनतम दैनिक तापमान भी काफी ऊँचा रहता है और यह 26° सेल्सियस से शायद ही कभी नीचे जाता हो।
(B) वायुदाब और पवनें: देश के आधे उत्तरी भाग में ग्रीष्म ऋतु में अधिक गर्मी और गिरता हुआ वायुदाब पाया जाता है। उपमहाद्वीप के गर्म हो जाने के कारण जुलाई में अंतः उष्ण कटिबन्धीय अभिसरण क्षेत्र उत्तर की ओर खिसककर लगभग 25° उत्तरी अक्षांश रेखा पर स्थित हो जाता है। मोटे तौर पर यह निम्न दाब की लंबायमान मानसून द्रोणी उत्तर-पश्चिम में थार मरुस्थल से पूर्व और दक्षिण-पूर्व में पटना और छत्तीसगढ़ पठार तक विस्तृत होती है। अंतः उष्ण कटिबन्धीय अभिसरण क्षेत्र की स्थिति पवनों के धरातलीय संचरण को आकर्षित करती हैं, जिनकी दिशा पश्चिमी तट, पश्चिम बंगाल के तट तथा बांग्लादेश के साथ दक्षिण-पश्चिमी होती है। उत्तरी बंगाल और बिहार में इन पवनों की दिशा पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी होती है। इस बात की चर्चा पहले की जा चुकी है कि दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ये धाराएँ वास्तव में विस्थापित भूमध्यरेखीय पछुवा पवनें हैं। मध्य जून तक इन पवनों का अंतः प्रवेश मौसम का वर्षा ऋतु की ओर बदलाव करता है।
उत्तर-पश्चिम में अंतः उष्ण कटिबन्धीय अभिसरण क्षेत्र के केंद्र में दोपहर के बाद ‘लू’ के नाम से विख्यात शुष्क एवं तप्त हवाएँ चलती हैं, जो कई बार आधी रात तक चलती रहती हैं। मई में शाम के समय पंजाब, हरियाणा, पूर्वी राजस्थान और उत्तर प्रदेश में धूल भरी आँधियों का चलना एक आम बात है। ये अस्थायी तूफान पीड़ादायक गर्मी से कुछ राहत दिलाते हैं, क्योंकि ये अपने साथ हल्की बारिश और सुखद व शीतल हवाएँ लाते हैं। ध्यातव्य है कि इस ऋतु में वार्षिक वर्षा का दस प्रतिशत भाग ही प्राप्त होता है। * कई बार ये आर्द्रता भरी पवनें द्रोणी की परिधि की ओर आकर्षित होती हैं। शुष्क एवं आर्द्र वायुसंहतियों के अचानक सम्पर्क से स्थानीय स्तर पर तेज तूफान पैदा होते हैं। जिनका वेग कभी- कभी 100 से 125 किमी. प्रति घण्टा तक हो जाता है। इन स्थानीय तूफानों के साथ तेज हवाएँ मूसलाधार वर्षा और यहाँ तक कि ओले भी आते हैं। बंगाल में इन्हें ‘काल बैसाखी’ (Norwesters) कहते हैं।
(iii) वर्षा ऋतु (Rainy Season)
यह ऋतु भारत में दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के आगमन के साथ मध्य जून से आरंभ होती है और मध्य सितंबर तक समाप्त होती है। मई के महीने में उत्तर-पश्चिमी मैदानों में तापमान के तेजी से बढ़ने के कारण निम्न वायुदाब की दशाएँ प्रबल हो जाती हैं और वे हिंद महासागर से आने वाली दक्षिणी गोलार्द्ध की व्यापारिक पवनों को आकर्षित कर लेती हैं। ये दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनें भूमध्य रेखा को पार करके बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में प्रवेश कर जाती हैं, जहाँ ये भारत के ऊपर विद्यमान वायु परिसंचरण में मिल जाती हैं। भूमध्यरेखीय गर्म समुद्री धाराओं के ऊपर से गुजरने के कारण ये पवनें अपने साथ पर्याप्त मात्रा में आर्द्रता लाती हैं। भूमध्यरेखा को पार करके इनकी दिशा दक्षिण-पश्चिमी हो जाती है। इसी कारण इन्हें दक्षिण-पश्चिमी मानसून कहा जाता है।
हिन्द महासागर से दक्षिणी गोलार्द्ध की व्यापारिक हवाएँ उत्तरी गोलार्द्ध में प्रविष्ट होकर फेरल के नियमानुसार अपने दाहिने मुड़कर सामान्य रूप से जब पहली जून को भारत के दक्षिणतम प्रायद्वीपीय भाग से टकराकर अचानक वर्षा करती हैं तो उसे मानसून का धमाका (Monsoon Burst) कहा जाता है।* इस दक्षिणी- पश्चिमी मानसून के तीव्र होने का एक कारण मई में भारत के आन्तरिक भाग से उठी संवहन तरंगों का पूर्वा जेट (Easterly Jet) बनकर हिन्द महासागर पर उतरना है।
(1) अरब सागरीय मानसून शाखा :
अरब सागरीय शाखा फेरल के नियमानुसार उत्तरी गोलार्द्ध में दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूरब प्रवाहित होकर पश्चिमी घाट पर्वत से टकराती है। पश्चिमी घाट पर्वत की औसत ऊँचाई 900 मी. है, किन्तु कुछ चोटियाँ अधिक ऊँची हैं। दक्षिण से उत्तर जाने पर क्रमशः चोटियों की ऊँचाई घटने लगती है जैसे अनाईमुडी (2695 मी.), दोदाबेट्टा (2637 मी.), मुलनगिरि (1913 मी.), कुद्रेमुख (1894 मी.), महाबालेश्वर (1438 मी.), तथा कलसूबाई (1646 मी.) हैं। इनके टकराने के फलस्वरूप जलवाष्प युक्त हवाएँ अचानक ऊपर उठकर पर्वतीय वर्षा करती हैं। वर्षा के पश्चात् ये समुद्र तल से लगभग 6 किमी ऊपर उठकर अपनी गुप्त उष्मा शक्ति द्वारा वायुमण्डलीय ताप वृद्धि करती है। जिससे यहाँ तापीय व्युत्क्रम पाया जाता है*। उत्तर जाने पर पहाड़ियों की घटती ऊँचाई के साथ वर्षा की मात्रा कम होती जाती है, जैसे अनाईमुडी के पश्चिम 350 सेमी, दोदाबेट्टा के पश्चिम 300 सेमी., मूलनगिरि तथा महाबालेश्वर 280 सेमी. और कलसूबाई 250 सेमी. वर्षा होती है।
कुछ हवाएँ पश्चिमी घाट पर्वत से टकराकर सामान्य रूप से 250 सेंमी. वर्षा करती हैं जो वृहद् जल-विभाजक को पार कर पूरब उतर कर वर्षा नहीं करती जिसका कारण हवाओं के उतरने के फलस्वरूप बढ़ते दबाव के कारण एडियाबैटिक दर से ताप-वृद्धि है।* यहाँ औसत वर्षा 40 सेंमी से 70 सेंमी. होती है। कम वर्षा होने के कारण इसे वृष्टि छाया क्षेत्र (Rain Shadow Region) कहा जाता है।*
कुछ हवाएँ पश्चिमी घाट के विभिन्न दरों जैसे दक्षिण से उत्तर क्रमशः सिनकोट्टा गैप, पालघाट, तिनिया घाट, अगुम्बेघाट, भोर घाट, थाल घाट कुम्भारली घाट इत्यादि में घुसकर पठार पर पहुँच जाती हैं, ये भी अत्यधिक कम (60-80 सेमी.) वर्षा करती हैं। पश्चिमी तटवर्ती मैदान के ऊपर से बहने वाली अरब सागरीय मानसून शाखा फेरल के नियम का उल्लंघन करती है। जिसका कारण पश्चिमी घाट पर्वत की स्थलीय बाधा है। अरब सागरीय शाखा गुजरात के दक्षिणी ‘द डेंग्स’ जिला की गुफाकार पहाड़ियों में प्रविष्ट होकर 300 सेमी. से अधिक वर्षा करती हैं किन्तु आगे बढ़ी हवाएं ताप्ती की घाटी में प्रविष्ट होकर 150 सेमी. के लगभग औसत वर्षा करती हुई महाराष्ट्र के नागपुर पठार पर पहुँच जाती हैं, जहाँ ये बंगाल की खाड़ी शाखा की गोदावरी घाटी से आती हुई मानसूनी हवाओं से टकराकर चक्रवाती वर्षा करती हैं। अरब सागर मानसून की एक शाखा नर्मदा घाटी में प्रविष्ट होकर लगभग 150 सेमी वर्षा करती हुई अमरकंटक तक पहुँच जाती है, जहाँ यह सोन घाटी से आयी हवाओं से टकराकर पर्वतीय वर्षा करती हैं। स्मरणीय है कि नर्मदा घाटी की शाखा विन्ध्याचल के दक्षिणी ढाल पर अधिक वर्षा करती है न कि सतपुड़ा के उत्तरी ढाल पर। * इसका कारण फेरल का नियम और विन्ध्याचल पर्वत का दिनिर्धारण है। अरब सागर की एक शाखा खम्भात की खाड़ी से होकर माही घाटी से होती मालवा पठार पर पहुँचकर 80 सेमी. से 100 सेमी के लगभग वर्षा करती है, जब कि साबरमती की शाखा अरावली के सर्वोच्च शिखर माउण्ट आबू के गुरू शिखर (1722 मी.) से टकराकर 100 सेमी के लगभग वर्षा करती है।
अरब सागर की दूसरी शाखा काठियावाड़ की गिर*, गिरनार, माण्डव* आदि पहाड़ियों से टकराकर लगभग 150 सेमी. वर्षा करती है, फलस्वरूप यहाँ सघन वन मिलते हैं। यह कच्छ के रन में वर्षा नहीं करती, अपितु यहाँ से अधिक वाष्पीकरण के फलस्वरूप नमी ग्रहण कर उत्तर-पूरब की ओर बढ़ती है जो किसी स्थलाकृतिक अवरोध के न होने के कारण वर्षा नहीं करती। स्मरणीय है कि अरावली का विस्तार इन हवाओं के समानान्तर है। इन हवाओं की सापेक्षिक आर्द्रता राजस्थान के गर्म मरुस्थल के ऊपर से गुजरते समय मरुस्थल से उठने वाली गर्म संवहन तरंगों के कारण कम हो जाती है। फलस्वरूप अरावली के पश्चिम मारवाड़ क्षेत्र में वर्षा की मात्रा 40 सेमी. के बीच ही होती है। स्मरणीय है कि अरब सागर पर निर्मित आई.टी.सी.जेड. के सहारे भी उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात बनते हैं जो अपने अक्ष पर घड़ी की सुई के विपरीत घूमते हुए अपनी कक्षा पर पूरब से पश्चिम चलते हैं, इसके फलस्वरूप पश्चिम तट के सहारे भारत में चक्रवातीय वर्षा नहीं होती।* खम्भात की खाड़ी तथा कच्छ की खाड़ी में उत्पन्न चक्रवात कभी-कभी मानवीय क्रियाओं द्वारा स्थल पर उत्पन्न उच्च ताप तथा निम्न दाब केन्द्रों के कारण ( 11 तथा 13 मई 1998 का पोखरन परमाणु परीक्षण) स्थल की तरफ घूमकर अत्यधिक वर्षा तथा विध्वंस करते हैं जैसे कांडला पत्तन में उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात द्वारा वर्षा एवं विध्वंस उल्लेखनीय है।
(2) बंगाल की खाड़ी शाखा: पहली जून को दक्षिणी- भारतीय प्रायद्वीप से टकराने वाली दक्षिणी-पश्चिमी मानसून की दूसरी शाखा बंगाल की खाड़ी की तरफ बढ़ती है। स्मरणीय है कि इस समय I.T.C.Z. बंगाल की खाड़ी पर क्रमशः दक्षिण से उत्तर खिसकता है। जिसके सहारे बनने वाले उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात अपनी कक्षा पर पूरब से पश्चिम चलते हैं। ये सामान्यतः आन्ध्र प्रदेश के रायल सीमा तट (कर्नूल, कुड़प्पा, अनन्तपुर तथा चित्तूर जिले) पर पहुँचकर चक्रवातीय वर्षा करते हैं, किन्तु भारत में पूर्वी तट के सहारे तीन उच्च ताप तथा निम्न दाब के केन्द्र बनाते हैं;
(1) छोटा नागपुर पठार
(2) दण्डकारण्य पठार
(3) मैसूर पठार
इसका कारण इन पठारों पर विभिन्न मानवीय क्रियाएँ जैसे वन-नाशन, खनन, परिवहन, औद्योगीकरण तथा नगरीकरण है। बंगाल की खाड़ी से उत्पन्न चक्रवात तमिलनाडु में कराईकल और पांडिचेरी क्षेत्र में पर्याप्त वर्षा करते हैं। ये कावेरी बेसिन में भी प्रविष्ट होकर वर्षा करते हैं।
गोदावरी-कृष्णा बेसिन में प्रविष्ट चक्रवाल लगभग 150 सेमी वर्षा करते हुए उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ते हैं, जो अरब सागर शाखा के विभिन्न घाटों से होकर आयी हवाओं से मिलकर मलनाद पठार पर 60-70 सेमी. चक्रवातीय वर्षा करते हैं। गोदावरी घाटी में प्रविष्ट चक्रवातीय हवाएँ महाराष्ट्र में नागपुर पहुंचकर, अरब सागर की ताप्ती घाटी शाखा से मिलकर 60-80 सेमी चक्रवातीय वर्षा करती हैं।
महानदी घाटी में प्रविष्ट हवाएँ छत्तीसगढ़ प्रदेश में 150 सेमी के लगभग वर्षा करती हैं। यह चक्रवातीय एवं पर्वतीय वर्षा है, किन्तु इसका मुख्य कारण स्थलाकृति है। जिसका कारण महानदी बेसिन चारों तरफ पर्वतों से घिरा होना है। अधिक वर्षा के कारण छत्तीसगढ़ को मध्यप्रदेश का धान का कटोरा कहा जाता था।
बंगाल की खाड़ी की एक शाखा हुगली के मुहाने से प्रविष्ट होकर दामोदर घाटी के सहारे होते हुए छोटा नागपुर पठार पर हजारीबाग में पहुँचती है। जिससे 100-150 सेमी औसत वर्षा होती है। इससे छोटा नागपुर पठार पर पर्याप्त वर्षा होती है किन्तु बाढ़ पश्चिम बंगाल के वर्द्धमान जिले के पास आती थी, फलस्वरूप दामोदर को पश्चिम बंगाल का शोक कहा जाता था। बाढ़ से सुरक्षा के लिए 1948 में दामोदर घाटी निगम बनाया गया।
स्मरणीय है कि बंगाल की खाड़ी में उत्पन्न चक्रवात पूरब से पश्चिम चल कर पूर्वी घाट पर्वतों से टकराकर पर्वतीय वर्षा करते हैं जिसका औसत 150 सेमी के लगभग होता है।
बंगाल की खाड़ी से बंगाल की खाड़ी मानसून शाखा उत्तर-पूर्व प्रवाहित होती है, जिसका कारण बांग्लादेश में अधिक ताप (45°) का होना है, इसका प्रथम कारण ग्रीष्म काल में जलाभाव तथा द्वितीय कारण बलुई एवं चिकनी मिट्टी का अत्यधिक गर्म होना है। यही कारण है कि बंगाल की खाड़ी की शाखा फेरल के नियमानुसार बांग्लादेश की तरफ आकर्षित होती है किन्तु किसी स्थलीय अवरोध के अभाव में वर्षा नहीं करती, यह मेघालय पठार के लगभग 500 मी. ऊँचे दक्षिणी कगार की गारो, खासी एवं जयंतिया पहाड़ियों, (1500 मी.) से टकराने के फलस्वरूप पर्वतीय वर्षा करती हैं। चेरापूंजी में विश्व की सर्वाधिक वर्षा 1145 सेमी. होती थी, किन्तु हाल के वर्षों में चेरापूंजी के पूरब माँसिनराम (मेघालय) में सर्वाधिक वर्षा अभिलेखित की गई।* बांग्लादेश के ऊपर से गुजरने वाली कुछ हवाएँ सूरमा घाटी से होकर असोम घाटी में पहुँचती है। मिकिर और उत्तरी कछार पहाड़ियों के कम ऊँचे होने के कारण वर्षा नहीं करती, किन्तु असम घाटी में ब्रह्मपुत्र में मई के बाढ़ के जल के वाष्पीकरण से नमी ग्रहण कर तिनसुखिया और डिब्रूगढ़ पहुँचती हैं, जहाँ ये 250 सेमी पर्वतीय वर्षा करती हैं जिसका कारण हिमालय पर्वत श्रेणियों द्वारा तीन तरफ से घिरा होना है। स्थलीय अवरोध के कारण ये हवाएँ हिमालय को पार नहीं कर पाती फलस्वरूप फेरल के नियम का पूर्ण उल्लंघन करती हुई हिमालय पर्वत के सहारे पूरब से पश्चिम प्रवाहित होती हैं जिनसे वर्षा की मात्रा क्रमशः घटती जाती है। पश्चिम बंगाल में औसत वर्षा 150-200 सेमी, बिहार मैदान में 100-150 सेमी, इलाहाबाद में 76 सेमी और दिल्ली में 56 सेमी. होती है।
स्मरणीय है कि ये दक्षिणी-पूर्वी मानसूनी हवाएं फेरल के नियमानुसार उत्तरी गोलार्द्ध में अपने दाहिने मुड़ने का प्रयास करती हैं जो हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों से टकराकर वर्षा करती हैं। इसके फलस्वरूप इन हवाओं से हिमालय के दक्षिणी ढालों पर अधिक वर्षा होती है, प्रायद्वीपीय पठार के उत्तरी कगार पर कम।
ये दक्षिणी-पश्चिमी मानसूनी हवाएँ इलाहाबाद 18-20 जून तक पहुँचती हैं। जो दिल्ली में 25 जून तक तथा गंगा नगर में 1-5 जुलाई तक पहुँचती हैं। गंगा मैदान में पूरब से पश्चिम चलने वाली हवाओं द्वारा क्षैतिज वर्षा (Advectional Rain) होती है, जिसका कारण पूरब से पश्चिमी ऊँचाई में क्रमशः वृद्धि है। इसकी एक शाखा सोन नदी घाटी से होती अमरकंटक तक पहुँचकर नर्मदा शाखा से टकराकर पर्वतीय वर्षा करती हैं, जबकि आगे बढ़ी शाखा चम्बल बेसिन के सहारे दक्षिण-पश्चिम बढ़कर अरब सागर की घाटी शाखा से टकराकर मालवा पठार पर वर्षा करती है। स्मरणीय है कि सोन एवं चम्बल शाखाओं का कारण पठार का अधिक ऊष्मन है जिससे हवाएँ फेरल नियम के पूर्ण विपरीत हो जाती हैं।
गंगा मैदान के ऊपर से होकर गुजरने वाली दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी हवाएँ राजस्थान पहुँचकर अधिक गर्म होकर अपनी सापेक्षिक आर्द्रता कम कर देती हैं तथा अरब सागरीय शाखा से मिलकर चक्रवात बनाती हैं, किन्तु इनसे वर्षा अत्यधिक कम होती है।
हाल के वर्षों में राजस्थान में इन्दिरा नहर के सिंचित क्षेत्र में सघन वनस्पतियों, फसलों एवं आर्द्रभूमियों के वृद्धि के कारण जलवाष्प की मात्रा में वृद्धि हुई है। इसी कारण वहाँ की चक्रवातीय हवाएँ जलवाष्प को ग्रहण कर बाद में वर्षा करती है। यही कारण है कि हाल के वर्षों में राजस्थान में वर्षा की मात्रा में पर्याप्त वृद्धि हुई है। स्मरणीय है कि थार के मरुस्थल से इन चक्रवातों द्वारा उठी संवहन तरंगें क्षोभ सीमा के पास से फेरल के नियमानुसार उत्तर-पूरब से दक्षिण-पश्चिम मुड़कर पूर्वा जेट बन जाती हैं जो हिन्द महासागर पर उतर कर उच्च वायुदाब बनाकर ग्रीष्मकालीन दक्षिणी-पश्चिमी मानसून को पुनः तीव्र करती हैं।
(iv) शरद ऋतु (Cool Season)
शरद ऋतु मध्य सितंबर से प्रारम्भ होकर मध्य नवम्बर में समाप्त हो जाता है। सितंबर के अंत में सूर्य के दक्षिणायन होने की स्थिति में गंगा के मैदान पर स्थित निम्न वायुदाब की द्रोणी भी दक्षिण की ओर खिसकना आरम्भ कर देती है। इससे दक्षिण- पश्चिमी मानसून कमजोर पड़ने लगता है। मानसून सिंतबर के पहले सप्ताह में पश्चिमी राजस्थान से लौटता है। इस महीने के अंत तक मानसून राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी गंगा मैदान तथा मध्यवर्ती उच्च भूमियों से लौट चुका होता है। अक्टूबर के आरम्भ में बंगाल की खाड़ी के उत्तरी भागों में स्थिर हो जाता है तथा नवंबर के शुरू में यह कर्नाटक और तमिलनाडु की ओर बढ़ जाता है। इसीलिए इसे मानसून प्रत्यावर्तन अर्थात् मानसून के लौटने की ऋतु भी कहते हैं। देश के सुदूर दक्षिणी भागों में मानसून प्रत्यावर्तन की प्रक्रिया दिसम्बर तक जारी रहती है।
मानसून के निवर्तन की ऋतु में आकाश स्वच्छ हो जाता है और तापमान बढ़ने लगता है। जमीन में अभी भी नमी होती है। उच्च तापमान और आर्द्रता की दशाओं से मौसम कष्टकारी हो जाता है। आमतौर पर इसे ‘कार्तिक मास की ऊष्मा’ कहा जाता है। अक्टूबर माह के उत्तरार्ध में तापमान तेजी से गिरने लगता है। तापमान में यह गिरावट उत्तरी भारत में विशेष तौर पर देखी जाती है। मानसून के निवर्तन की ऋतु में मौसम उत्तरी भारत में सूखा होता है, जबकि प्रायद्वीप के पूर्वी भागों में वर्षा होती है। यहाँ अक्टूबर और नवंबर वर्ष के सबसे अधिक वर्षा वाले महीने होते हैं।
इस ऋतु की व्यापक वर्षा का संबंध चक्रवातीय अवदाबों के मार्गों से है, जो अंडमान समुद्र में पैदा होते हैं और दक्षिणी प्रायद्वीप के पूर्वी तट को पार करते हैं। ये उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात अत्यंत विनाशकारी होते हैं। गोदावरी, कृष्णा और अन्य नदियों के घने बसे डेल्टाई प्रदेश इन तूफानों के शिकार बनते हैं। हर साल चक्रवातों से यहाँ आपदा आती है। कुछ चक्रवातीय तूफान पश्चिम बंगाल, बांग्लादेश और म्यांमार के तट से भी टकराते हैं। कोरोमंडल तट पर होने वाली अधिकांश वर्षा इन्हीं अवदाबों और चक्रवातों से प्राप्त होती है। ऐसे चक्रवातीय तूफान अरब सागर में कम उठते हैं।
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FAQs
Q1. भारत में वर्षा के वितरण में स्थानिक तथा कालिक अन्तर का क्या कारण है?
Ans. स्थलाकृतियाँ
Q2. द. प. मानसून पश्चिमी घाट के पूरब वृष्टि छाया प्रदेश में अत्यन्त कम वर्षा क्यों करता है?
Ans. रूद्धोष्म (adiabatic) दर से ताप वृद्धि के कारण
Q3. महाराष्ट्र के नागपुर पठार पर किस प्रकार की वर्षा होती है?
Ans. चक्रवाती वर्षा
Q4. विभिन्न जलवायुविदों के मतों के आलोक में द. प. मानसून के प्रस्फोट के कौन- कौन से कारण हैं?
Ans. भारतीय उपमहाद्वीप के उ. प. भाग में निम्न दाब की स्थापना ITCZ के उत्तरी खिसकाव में सम्बन्ध है और ITCZ के उत्तरी खिसकाव का सम्बन्ध पश्चिमी जेट स्ट्रीम के हिमालय के उत्तर की ओर खिसकाव व उष्ण कटिबन्धीय पूर्वी जेट स्ट्रीम की उत्पत्ति से है और ये सभी कारण समवत होकर भारत में द. प. मानसून के प्रस्फोट के लिए जिम्मेदार हैं।
Q5. भारत में वर्षा की विचलनशीलता किन क्षेत्रों में सर्वाधिक है?
Ans. अनिश्चित व कम वर्षा वाले क्षेत्रों में
Q6. भारत को कितने जैव-जलवायुविक मण्डलों (Bio-climatic Zones) में विभक्त किया गया है?
Ans. पाँच (पीड़ादायक, कष्टकर, कम सुखद,सुखद एवं अतिसुखद)
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