भारतीय प्रायद्वीपीय अपवाह की कतिपय विशिष्टताएँ हैं। यह एक प्राचीन स्थिर भूखण्ड है, अतएव प्रायद्वीप की नदियाँ हिमालय की तुलना में अधिक पुरानी हैं।* यह प्रायः प्रौढ़ावस्था को प्राप्त कर चुकी हैं। अर्थात् यहाँ की नदियाँ आधार तल (Base Level) को प्राप्त कर चुकी हैं और उनकी ढाल प्रवणता (Slope-gradiant) अत्यन्त मंद है।* सिर्फ वही हिस्से इसके अपवाद हैं जहाँ नया भ्रंशन हुआ है।
नदियों ने कम ऊर्ध्वाधर अपरदन तथा अधिक क्षैतिज अपरदन के कारण उथली तथा चौड़ी घाटियों का निर्माण किया है। प्रायद्वीपीय नदियों में विसर्पों (Menders) का अभाव है तथा उनके मार्ग लगभग निश्चित हैं।* ये वर्षा जल पर निर्भर रहती है तथा ग्रीष्म ऋतु में सूख जाती हैं। प्रायद्वीपीय भारत की नदियों का उद्गम मुख्यतः विध्यपर्वत, सतपुड़ा पर्वत तथा पश्चिमी घाट पर्वत श्रेणियों से हुआ है। यहाँ की अधिकांश नदियाँ बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं, कुछ अरब सागर तथा कुछ विशाल मैदान की ओर बहती हुई गंगा व यमुना नदियों में गिरती हैं। कुछ नदियाँ अरावली तथा मध्यवर्ती पहाड़ी प्रदेश से निकलकर कच्छ के रन अथवा खम्भात की खाड़ी में
गिरती हैं। कतिपय प्रायद्वीपीय नदियाँ (नर्मदा एवं ताप्ती) भ्रंश घाटियों से प्रवाहित होती हुई ज्वारनदमुख (Estuary) का निर्माण करते हुए अरब सागर में गिरती हैं। यहाँ की प्रमुख नदियाँ दो भागों में विभक्त हैं, यथा –
(A) बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली नदियाँ
(B) अरब सागर में गिरने वाली नदियाँ
बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली नदियाँ
(i) महानदी : यह 851 किमी. (NCERT) लम्बी है। इसका जलप्रवाह क्षेत्र 141589 वर्ग किमी. है। यह छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले में सिंहावा से निकलकर पूर्व व दक्षिण-पूर्व की ओर बहती हुई कटक (ओडिशा) के निकट बड़ा डेल्टा बनाती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है। शिव नाथ, हसदो, मंड और डूब उत्तर की ओर से इसमें आकर मिलती हैं जबकि जोंक व तेल दक्षिण की ओर से आकर मिलती हैं।
हीराकुंड, टिकरपारा व नराज इस नदी पर प्रमुख बहुउद्देशीय योजनाएँ हैं।
(ii) ब्राह्मणी, वैतरणी और स्वर्णरेखा नदियाँ ब्राह्मणी और स्वर्णरखा नदियाँ छोटा नागपुर पठार पर राँची के दक्षिण- पश्चिम से निकलती हैं वैतरणी नदी ओडिशा के क्योंझर पठार से निकलती है। ब्राह्मणी नदी कोयल और सांख नदियों से मिलकर बनी है। यह 705 किमी. लम्बी है। वैतरणी और ब्राह्मणी बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली दो अन्य प्रमुख नदियाँ हैं। स्वर्णरेखा नदी 395 किमी. लम्बी है। यह झारखण्ड राज्य के रांची के निकट नगड़ी गावों रानी चुआं नामक स्थान से निकलकर उत्तर पूर्व की ओर प्रवाहित होती हुई हुण्डरू जल प्रपात का निर्माण करती है। यह मेदिनीपुर पं. बंगाल से होकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
• ब्राह्मणी, स्वर्णरखा एवं वैतरणी नदियों का जल अपवाह क्षेत्र क्रमशः 39,033: 19,296 एवं 12,789 वर्ग किमी है।
(iii) गोदावरी नदी: प्रायद्वीप भारत की यह सबसे लम्बी नदी (1465 किमी.) है। इसका जल प्रवाह क्षेत्र 313812 वर्ग किमी. है। इसके जलग्रहण क्षेत्र का 48.6% महाराष्ट्र, 18.8% तेलंगाना, 4.5% आंध्रप्रदेश व पांडिचेरी (यनम), 10.9% छत्तीसगढ़, 10% मध्य प्रदेश, 5.7% ओडिशा तथा 1.4% कर्नाटक में पड़ता. है (स्त्रोत: Integrated Hydro Logical DataBook)। पश्चिमी घाट की नासिक (महाराष्ट्र) की पहाड़ियों में त्र्यम्बक इसका उद्गम स्थान है। उत्तर में इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ प्रणाहिता, पूर्णा, दुधना, पेनगंगा, वर्धा, वेनगंगा तथा इन्द्रावती हैं। दक्षिण में मंजीरा नदी प्रमुख है, जो हैदराबाद के निकट इसमें मिलती है। गोदावरी के निचले भाग में बाड़ें आती रहती हैं। अपने इसी भाग में यह नाव्य योग्य है। इस नदी पर अनेक जल-विद्युत योजनाओं का निर्माण किया गया है। ध्यातव्य है, कि आयु, आकार और लम्बाई के कारण इस नदी को ‘बूढ़ी गंगा’ या दक्षिण की गंगा’ या ‘बृहत गंगा’ की संज्ञा से भी अभिहित किया जाता है।
(iv) कृष्णा नदी: यह प्रायद्वीपीय भारत की दूसरी बड़ी नदी है। महाबलेश्वर के निकट पश्चिमी घाट से निकलकर दक्षिण-पूर्व दिशा में 1,401 किमी. की लम्बाई में बहती है। इसका अपवाह क्षेत्र 2,59,000 वर्ग किमी. क्षेत्र में फैला है। जिसका 27% महाराष्ट्र, 44% कर्नाटक तथा 29% तेलंगाना व आन्ध्र प्रदेश में पड़ता है। तुंगभद्रा एवं भीमा इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। कोयना, यरला, वर्णा, पंचगंगा, दूधगंगा, घाटप्रभा, मालप्रभा और मूसी इसकी अन्य सहायक नदियाँ हैं। तुंगभद्रा नदी की सहायक नदी हगरी है। हगरी को बेदावधी नाम से भी जाना जाता है। जल-विद्युत योजनाओं की दृष्टि से इस नदी का बड़ा महत्व है। कृष्णा नदी डेल्टा बनाती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है। इसका डेल्टा गोदावरी के डेल्टा से मिल गया है।
(vi) कावेरी नदी : यह कर्नाटक के कुर्ग जिले में ब्रह्मगिरि (1341 मी.) के निकट से निकलकर 800 किमी. लम्बी तथा 81,155 वर्ग किमी क्षेत्र पर बहती है।
• इसके कुल अपवाह क्षेत्र का 3% केरल में, 41% कर्नाटक में तथा 56% तमिलनाडु में पड़ता है।
• इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ उत्तर में हेरंगी, हेमावती, लोकापावनी, शिमसा व अक्रावती हैं, जो इसके बायें तट पर आकर मिलती हैं। दक्षिण में लक्ष्मण तीर्थ, काबीनी, सुवर्णवती, भवानी और अमरावती हैं जो इसके दाहिने तट पर आकर मिलती हैं। यह नदी शिवसमुद्रम् नामक प्रसिद्ध जलप्रपात बनाती है।* तिरुचिरापल्ली से 16 किमी. पूर्व की ओर कावेरी का डेल्टा प्रारम्भ होता है। यहाँ पर यह दो धाराओं उत्तर में कोलेरुन तथा दक्षिण में कावेरी में बँट जाती है। कावेरी नदी को ‘दक्षिण भारत की गंगा’ की उपमा प्रदान की गई है। इसके प्रवाह क्षेत्र को ‘राइस बाउल ऑफ साउथ इण्डिया कहा जाता है।
प्रायद्वीपीय नदियों में कावेरी ही एक ऐसी नदी है जिसमें वर्ष भर जल, प्रवाह बना रहता है, क्योंकि इसके ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र (कर्नाटक) में दक्षिण पश्चिम मानसून से तथा निचले जल-ग्रहण क्षेत्र (तमिलनाडु) में उत्तरी-पूर्वी मानसून से वर्षा होती है।
(v) पेन्नार : इसकी दो शाखाएँ हैं, प्रथम, उत्तरी पेन्नार, यह कर्नाटक के कोलार जिले के नंदीदुर्ग पहाड़ी से निकलकर आंध्र प्रदेश में प्रवाहित होती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है। इसका अपवाह क्षेत्र कृष्णा तथा कावेरी के मध्य 55213 वर्ग किमी. है। इसकी प्रमुख सहायक जयमंगली, कुन्देरु, सागीलेरु, चिन्नावती, पापाशनी तथा चेयेरु हैं। दक्षिणी पेन्नार नदी केशव की पहाड़ी (कर्नाटक) से निकलकर उत्तरी पेन्नार के दक्षिण में प्रवाहित होती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
(vi) पलार : इसका उद्गम कर्नाटक राज्य के कोलार जिला से होता है। यह आन्ध्र प्रदेश के चित्तूर तथा तमिलनाडु के अर्काट जिले से प्रवाहित होती हुई बंगाल की खाड़ी में गिर जाती है।
• इस नदी का जल अपवाह क्षेत्र 17,870 वर्ग किमी. है। इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ पोइनी एवं चेय्यार हैं।
(vii) वैगाई : यह नदी तमिलनाडु राज्य के मदुरई जिला के वरशानद पहाड़ी से निकलकर मदुरई, रामनाथ पुरम आदि जिलों से प्रवाहित होते हुए मंडपम के पास पाक की खाड़ी में समाहित हो जाती है।* मदुरई इसी नदी के तट पर स्थित है।*
(viii) ताम्रपर्णी : यह तमिलनाडु राज्य के तिरुनेलवेली जनपद की प्रमुख नदी है जिसका उद्गम दक्षिणी सह्याद्रि के अगस्त्यमलाई पहाड़ी के ढ़ालों से होता है। यह मन्नार की खाड़ी में जाकर गिरती है।*
अरब सागर में मिलने वाली नदियाँ
(i) नर्मदा नदी (Narmada River) :
• नर्मदा का उद्गम मैकाल पर्वत की अमरकंटक चोटी (1057 मी.) से है।* यह 1,312 किमी. लम्बी है। इसका अपवाह क्षेत्र 98795 वर्ग किमी. है, जिसका 87% भाग मध्य प्रदेश में, 11.5% गुजरात में तथा 1.5% महाराष्ट्र में पड़ता है।* अरब सागर में गिरने वाली प्रायद्वीपीय भारत की नर्मदा सबसे बड़ी नदी है।* इसके उत्तर में विन्ध्याचल और दक्षिण में सतपुड़ा पर्वत है। इनके बीच में यह भ्रंश घाटी में बहती है। जबलपुर के नीचे भेड़ाघाट की संगमरमर की चट्टानों में एक भव्य कन्दरा और कपिलधारा (धुआँधार) प्रपात का दृश्य बड़ा मनोहर है, जहाँ 23 मीटर की ऊँचाई से नर्मदा का जल गिरता है। नर्मदा का निचला भाग नाव चलाने योग्य है। यह भड़ौंच के निकट ज्वारनद्मुख द्वारा खम्भात की खाड़ी (अरब सागर) में गिरती है। इसकी प्रमुख सहायक नदी ओरिसन है, तथा अन्य सहायक नदियाँ यथा-तवा, बरनेर, बैड्यार, दूधी, शक्कर, हिरन, बरना, कोनार, माचक आदि हैं।
(ii) तापी (ताप्ती) (Tapi River) :
• यह मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के मुल्ताई नामक स्थान के पास सतपुड़ा श्रेणी (762 मीटर की ऊँचाई) से निकलती है। यह 724 किमी. लम्बी है व 65145 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर अपना प्रभाव रखती है। इसके बेसिन का 79% भाग महाराष्ट्र में, 15% मध्य प्रदेश में तथा 6% गुजरात में पड़ता है। यह सतपुड़ा तथा अजंता पर्वतों के बीच भ्रंश घाटी में प्रवाहित होती है। इसकी प्रमुख सहायक नदी पूर्णा, ताप्ती नर्मदा के समानान्तर सतपुड़ा के दक्षिण से बहकर खम्भात की खाड़ी में गिरती है। इसके मुहाने पर सूरत नगर स्थित है। काकरापार तथा उकाई परियोजनाओं द्वारा इसके जल का उपयोग होता है।
(iii) साबरमती (Sabarmati River) :
• यह 371 किलोमीटर लम्बी है। राजस्थान के उदयपुर जिले में अरावली पर्वत पर स्थित जयसमुद्र झील से निकलकर गुजरात से प्रवाहित होती हुई खम्भात की खाड़ी में गिरती है।
• अहमदाबाद इस नदी के किनारे स्थित सबसे बड़ा नगर है। यह तीसरी बड़ी पश्चिम में प्रवाहित होने वाली नदी है।
(iv) माही नदी (Mahi River):
• इसका उद्गम मध्य प्रदेश के धार जिले में विन्ध्याचल पर्वत के पश्चिमी भाग में मेहद झील से होता है। यह नदी 585 किमी की दूरी तय करने के बाद खम्भात की खाड़ी में जाकर गिरती है। इसका अपवाह क्षेत्र 34,842 वर्ग किमी है जो मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात राज्यों में फैला हुआ है। सोम और जाखम इसकी मुख्य सहायक नदियाँ हैं।
(v) लूनी नदी (Luni River) :
• राजस्थान में अजमेर के दक्षिण-पश्चिम में अरावली श्रेणी के नाग पर्वत से निकलकर 320 किमी प्रवाहित होने के बाद लूनी नदी कच्छ रन के दलदल में विलुप्त हो जाती है। सरसुती, जवाई, सूखड़ी, लीलड़ी, मीठड़ी नदियाँ लूनी की सहायक नदियाँ है। इनमें सरसुती का उद्भव पुष्कर झील से होता है।
(vi) घग्घर नदी (Ghaggar River) :
• यह हिमालय पर्वत की शिवालिक पहाड़ियों से शिमला के पास से निकलती है। इसकी कुल लम्बाई 465 किमी. है। यह अम्बाला, पटियाला व हिसार जिलों से बहती हुई राजस्थान के गंगानगर जिले में प्रविष्ट होती है तथा अन्ततः हनुमानगढ़ के समीप भटनेर के मरुस्थल में विलीन हो जाती है।*
सहयाद्री से पश्चिम की नदियाँ
पश्चिम घाट अपने पश्चिम की ओर तेज ढाल रखने वाला पर्वत है। यह पर्वत दक्षिण-पश्चिम मानसूनी हवाओं को रोककर वर्षा करते हैं। तटीय मैदान काफी संकरे हैं। इस धरातलीय व जलवायुवीय विशेषताओं के कारण नदियाँ छोटी व तीव्रगामी हैं। यहाँ की प्रमुख नदियाँ इस प्रकार हैं यथा –
• गुजरात में : शतरंजी, भादर
• गोवा में : मांडवी (गोवा की जीवन रेखा), जुआरी और राचोल,
• कर्नाटक में : काली नदी, गंगावेली, बेड़ती, शरावती, तादरी, नेत्रवती
• केरल में : भरतपूझा, पेरियार और पाम्बा* नदियाँ प्रवाहित होती हैं। पेरियार इस राज्य की सबसे बड़ी नदी है, जो पीने का जल उपलब्ध करवाने के कारण राज्य की ‘जीवनदायनी नदी’ की संज्ञा से विभूषित की जाती है। पाम्बा उत्तरी केरल में प्रवाहित होती हुई वेंबनाद झील में समाहित हो जाती है। भरतपूझा केरल की दूसरी सबसे बड़ नदी (209 किमी.) है, जिसका अपवाह क्षेत्र 5397 वर्ग किमी. है। यह पश्चिमी घाट के अन्नामलाई पर्वत से निकलकर पलक्कड़, त्रिशूर और मलप्पुरम जिलों से प्रवाहित होती हुई अरब सागर में गिरती है। ‘इसे पोन्नानी’ की भी संज्ञा प्रदान की जाती है।
• ये सब नदियाँ तेज ढाल बनाती हुई तंग घाटियों व जलप्रपातों का निर्माण करती हैं। शरावती नदी का जोग जल प्रपात 271 मीटर ऊँचा प्रसिद्ध प्रपात है। इस क्षेत्र में भारी वर्षा होती है, लेकिन ये नदियाँ कुल अपवाह का 2% भाग ले जाती हैं। अधिकांश नदियाँ चौड़ी संकीर्ण खाड़ियाँ (Creeks) बनाती हैं। ये संकीर्ण खाड़ियाँ बन्दरगाह रखने वाली हैं। इनकी सिंचाई क्षमता काफी कम है, लेकिन जल-विद्युत उत्पादन-क्षमता काफी अधिक है। इसी कारण यहाँ पर अनेक जल- विद्युत योजनाएँ क्रियान्वित की गई है।
अपवाह प्रतिरूप (Drainage Pattern)
किसी नदी के रेखीय स्वरूप को प्रवाह रेखा (Drainage line) कहते हैं। कई रेखाओं के योग को प्रवाह रेखा जाल (Drainage Network) कहते हैं। किसी नदी बेसिन में प्रवाह रेखा जाल के दृश्य-स्वरुप को प्रवाह प्रतिरूप (Drainage Pattem) कहते हैं। जैसे वृक्षाकार प्रवाह प्रतिरूप, समानान्तर प्रवाह प्रतिरूप इत्यादि। विभिन्न प्रवाह बेसिन, जो एक सागर में गिरती हैं, एक प्रवाह तंत्र (Drainage System) कहलाती है; जैसे भारत में बंगाल खाड़ी प्रवाह तंत्र तथा अरब सागरीय प्रवाह तंत्र। भारत में भौगोलिक उच्चावचीय विषमताओं के कारण निम्न प्रवाह प्रतिरूप पाये जाते हैं : यथा –
(1) पूर्वानुवर्ती अपवाह प्रतिरुप (Antecedent drainage pattern) : पूर्वानुवर्ती नदियाँ वे जलधाराएँ हैं, जो कि स्थलखण्ड में उत्थान होने पर भी अपने पहले मार्ग को ही अपनाती हैं। जैसे- सिन्धु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, सतलज, तीस्ता, घाघरा, काली व गंडक आदि हिमालय के उत्थान के पूर्व भी ये नदियाँ विद्यमान थीं। इस अपवाह प्रतिरुप की नदियों द्वारा सरिता अपहरण का भी उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है।*
(2) अध्यारोपित अपवाह प्रतिरूप (Superimposed drainage pattern) : इस प्रतिरुप में नदियाँ अपनी ऊपरी संरचना में निर्मित घाटी का आरोपण निचली संरचना में करती हैं, चाहे वह किसी प्रकार की संरचना में करती हैं, चाहे वह किसी प्रकार की संरचना क्यों न हो। जैसे- दामोदर, सोन, सुवर्णरेखा, चम्बल तथा बनास, गोदावरी, कृष्णा, नर्मदा, तथा ताप्ती आदि। स्मरणीय है कि इन नदियों के क्षेत्र में वृहद् हिमालय की उत्पत्ति के पश्चात् क्रिटैशियस तथा इयोसीन काल में ज्वालामुखी का दरारी उद्भदन हुआ जिससे निकला लावा नदी घाटियों में भर गया। वर्षा का जल पुनः इस निक्षिप्त बेसाल्ट को अपरदित कर नदी की पुरानी घाटी को प्राप्त कर लिया इसलिए इन्हें अध्यारोपित नदी (Superimposed River) कहा जाता है।*
(3) वृक्षाकार अपवाह प्रतिरूप (Dendritic drainage pattern) : इस प्रतिरुप में क्षेत्र की एक प्रमुख जलधारा होती है और उसकी शाखाएँ सभी दिशाओं से आकर मुख्य जलधारा से मिल जाती हैं। जिस तरह वृक्ष की छोटी शाखाएँ बड़ी शाखा से मिलती हैं। इस प्रतिरुप का विकास प्रमुख रुप से सपाट तथा चौरस भागों पर होता है। जैसे- गंगा, गोदावरी एवं कृष्णा।
(4) आयताकार प्रतिरूप (Rectangular drainage pattern) : इस प्रतिरूप का विकास प्रायः वहाँ होता है जहाँ पर चट्टानों के जोड़ तथा सन्धियाँ आयत के रुप में होती हैं। आयताकार सन्धियों के चारों तरफ जलधाराओं का विकास होता है तथा नदियाँ समकोंण पर मिलती हैं जैसे- कोसी तथा विन्ध्यन नदियाँ। पालामू जिले का प्रवाह प्रवाली भी इसी प्रकार का है।
(5) आरीय अपवाह प्रतिरुप (Radial drainage pattern) : इसे अपकेन्द्रीय अपवाह प्रतिरूप (Centrifugal drainage pattern) भी कहते हैं। इस प्रणाली में नदियाँ एक स्थान से निकलकर चारों तरफ प्रसारित होती हैं। जैसे-सोन, महानदी एवं नर्मदा या राँची पठार से निकलने वाली नदियाँ।
(6) जालायित अपवाह प्रतिरुप (Trellis drainage pattern) : इस प्रतिरुप का विकास संरचना में ढाल के अनुरूप विकसित प्रधान अनुवर्ती सरिता तथा उसकी सहायक सरिताओं के प्रवाह जाल द्वारा होता है। जैसे- सिंहभूमि क्षेत्र की नदियाँ।
(7) समानान्तर अपवाह प्रतिरूप (Parallel drainage pattern) : इस प्रतिरूप के अन्तर्गत अनेक नदियाँ एक दूसरे के समानान्तर प्रवाहित होती हुई प्रादेशिक ढाल का अनुसरण करती हैं, इस तरह का प्रतिरूप समान ढलुवा सागर तटीय मैदान या कवेस्टा मैदान पर अधिक होता है। जैसे- पश्चिमी तटीय मैदान में इस तरह के अपवाह प्रतिरूप का विकास हुआ है।*
(8) अन्तः स्थलीय अपवाह (Inland Drainage pattern) : राजस्थान के मरुस्थलीय क्षेत्र में अरावली अपवाह पर्वत माला से निकलकर विलीन हो जाने वाली नदियाँ अन्तः स्थलीय अपवाह बनाती हैं।
(9) अनुवर्ती अपवाह प्रतिरूप (Consequent drainage pattern) : ये सरितायें क्षेत्रीय धरातल के प्रारम्भिक ढाल के अनुरूप प्रवाहित होती है। दूसरे शब्दों में अनुवर्ती नदियाँ प्रादेशिक ढाल का अनुसरण करती हैं। जैसे- पेरियार, शरावती आदि तटीय नदियाँ।
(10) परवर्ती अपवाह प्रतिरुप (Subsequent drainage pattern) : अनुवर्ती सरिताओं के बाद उत्पन्न तथा अपनतियों या कटकों (Ridges) के अक्षों का अनुसरण करने वाली नदियों को इस प्रतिरुप में रखा जाता है। जैसे- चम्बल, केन, सिंधु, बेतवा और सोन नदियाँ।
(11) क्रमहीन अपवाह प्रतिरूप (Insequent Drainage pattern) : जब कोई नदी अपनी प्रमुख शाखा से विपरीत दिशा से आकर मिलती है तब क्रमहीन या अक्रमवर्ती अपवाह प्रतिरूप का विकास हो जाता है। ब्रह्मपुत्र में मिलने वाली सहायक नदियाँ- दिहांग, दिवांग तथा लोहित इसी प्रकार का अपवाह बनाती हैं।
(12) खण्डित अपवाह प्रतिरुप (Intermittant Drainage pattern) : उत्तर भारत के विशाल मैदान में पहुंचने के पूर्व भावर क्षेत्र में विलीन हो जाने वाली नदियाँ खण्डित या विलुप्त अपवाह का निर्माण करती हैं।
(13) मालाकार अपवाह प्रतिरुप (Braided Drainage) : देश की अधिकांश नदियाँ समुद्र में मिलने के पूर्व अनेक शाखाओं में विभाजित होकर डेल्टा बनाती हैं, जिससे गुम्फित या मालाकार अपवाह का निर्माण होता है। जैसे- गंगा तथा ब्रह्मपुत्र की निचली घाटी में प्रवाहित नदियाँ।
(14) हेरिंग अस्थि अपवाह प्रतिरूप: यह अपवाह प्रतिरूप जो ‘पसली प्रतिरूप’ (Rib pattern) के नाम से भी जाना जाता है, का विकास तेज ढाल वाली पर्वत श्रेणियों के मध्य विस्तृत (चौड़ी) घाटियों वाले भागों में होता है। उदाहरणार्थ- झेलम नदी के ऊपरी भाग में इस तरह के प्रतिरुप का विकास हुआ है। हिमालय में पश्चिम-पूर्व दिशा में फैली घाटियों में इस अपवाह प्रतिरूप का आविर्भाव हुआ है।
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FAQs
Q1. तुंगभद्रा तथा भीमा किसकी प्रमुख सहायक नदियाँ हैं?
Ans. कृष्णा
Q2. उत्तरी मैदान की नदियाँ किस अपवाह प्रतिरुप को प्रदर्शित करती है?
Ans. वृक्षाकार प्रतिरुप
Q3. जब सभी दिशाओं से नदियाँ बहकर किसी झील में विसर्जित होती हैं, तो कहलाती है?
Ans. अभिक्रंदी प्रतिरुप (Centripetal pattern)
Q4. भारतीय अपवाह तंत्र को विलग करते हैं?
Ans. दिल्ली कटक, अरावली एवं सह्याद्रि पर्वत
Q5. भारत के कुल अपवाह क्षेत्र के कितने प्रतिशत भाग का जल बंगाल की खाड़ी में विसर्जित होता है?
Ans. 77%
Q6. हिमालयी तथा प्रायद्वीपीय अपवाह तंत्रों में किस तंत्र की नदियाँ प्राचीन है?
Ans. प्रायद्वीपीय तंत्र की
Q7. हिमालयी नदियाँ अपने पर्वतीय मार्ग में बनाती हैं?
Ans. V आकार की घाटियाँ, क्षिप्रिकाएँ व जलप्रपात
Q8. किस नदी को ‘बिहार का शोक’ उपमा दी गई है?
Ans. कोसी
Q9. किस कल्प में हिमालय के सम्पूर्ण अनुदैर्ध्य विस्तार के साथ असोम से पंजाब तक शिवालिक या इंडो-ब्रह्म नदी बहती थी?
Ans. मायोसीन कल्प
Q10. शिवालिक या इण्डो-ब्रह्म नदी का हिमालय के तीन अपवाह तंत्रों-सिंधु, गंगा एवं ब्रह्मपुत्र में विभाजन किस काल में हुआ?
Ans. प्लीस्टोसीन काल में
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